अध्याय 07 जीवन परिचय

पं. किशन महाराज

पदूम विभूषण के अलंकरण से अलंकृत प्रथम तबला वादक पं. किशन महाराज का जन्म 3 सितंबर 1923 को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन बनारस में प्रतिष्ठित संगीतजों के परिवार में हुआ था। पिता लय भास्कर पं. हरि महाराज और बड़े पिता वाद्य शिरोमणि पं. कंठे महाराज के शिष्यत्व में किशन महाराज ने बचपन से ही तबला सीखना शुरू कर दिया था। कम उम्र में ही पिता का निधन हो जाने के कारण उन्होंने आगे की शिक्षा पं. कंठे महाराज से ही प्राप्त की।

चित्र 7.1 - पं. किशन महाराज

विषम प्रकृति के तालों में वादन और कठिन लयकारियों के प्रयोग में विशेष रुचि रखने वाले पं. किशन महाराज शुद्ध बनारस बाज का वादन करते थे। उनके द्वारा प्रस्तुत उठान और पड़ाल इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि आज वह बनारस बाज की पहचान बन गया है। महाराज जी ने कई फिल्मों में भी वादन किया था। सत्यजीत रे की फिल्म नीचा नगर (संगीतकार - पं. रविशंकर, गायिका - लक्ष्मी शंकर), चेतन आनंद की फिल्म आँधियाँ (संगीत निर्देशक - उस्ताद अली अकबर खाँ, गायिका - लता मंगेशकर और सुरिंदर कौर), मज़हर खान की फिल्म पहली नज़र (गायिका - रोशन आरा बेगम) आदि में सुमधुर तबला वादन करने वाले महाराज जी ने फिल्म बड़ी माँ में सितारा देवी के नृत्य के साथ पखावज वादन भी किया था।

चतुर्मुखी तबला वादक पं. किशन महाराज ने तीन-तीन पीढ़ी के गायकों, वादकों और नर्तकों के साथ संगत करके अपनी वादन क्षमता का परिचय दिया था। इन्होंने हर विधा के शीर्षस्थ संगीतकारों के साथ संगत की, जिनमें शंभु महाराज, बिरजू महाराज, सितारा देवी, अलाउद्दीन खाँ, अली अकबर खाँ, रवि शंकर, निखिल बनर्जी, फैयाजज खाँ, सिद्धेश्वरी देवी, शिवकुमार शर्मा, वी.जी. जोग, राजन-साजन मिश्र, कार्तिक कुमार आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। उत्तर भारत के उस्ताद अल्लारक्खा और दक्षिण भारत के पालघाट शिवमणि और विक्कू विनायकराम आदि के साथ सफल युगल वादन करके 1960 के दशक में उन्होंने एक नयी शुरूआत की थी।

संगीत सम्राट (प्रयाग संगीत समिति, प्रयागराज), ताल विलास (सुर सिंगार संसद, मुंबई) उस्ताद हाफ़िज़ अली खाँ सम्मान (दिल्ली), उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और रत्न सदस्यता, केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी सम्मान और रत्न सदस्यता तथा पद्म श्री एवं पद्म विभूषण सहित सैकड़ों उपाधियों और सम्मानों से विभूषित पं. किशन महाराज जमीन से जुड़े हुए कलाकार थे।

किशन महाराज एक अच्छे लेखक, कवि, चित्रकार, वक्ता और कार्यक्रम संयोजक भी थे। मलिक नाम से वे कविताएँ भी लिखा करते थे। उनके लिखे गीतों को शास्त्रीय संगीत के श्रेष्ठ गायक गाते हैं।

पं. किशन महाराज जितने श्रेष्ठ वादक थे, उतने ही श्रेष्ठ गुरू भी। उनके सुपुत्र पं. पूरण महाराज, शिष्य नंदन मेहता, कुमार बोस, सुखविंदर सिंह नामधारी, कालीनाथ मिश्र, संदीप दास, अनिल पालित, स्वप्न सिन्हा, जगदीश मिश्र, महेंद्र सिंह, शशिकांत बेल्लारे, तेज बहादुर निगम, अरविंद आजाद आदि सुप्रसिद्ध ताबलिक हैं। 4 मई, 2008 को 84 वर्ष की उम्र में महाराज जी नाद ब्रह्मा में लीन हो गए।

पं. ज्ञान प्रकाश घोष

बहुमुखी प्रतिभा संपन्न संगीतज्ञ ज्ञान प्रकाश घोष का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। संगीत की विभिन्न विधाओं में निष्णात पं. ज्ञान प्रकाश घोष का जन्म सांस्कृतिक, सांगीतिक चेतनाओं से ओत-प्रोत एक बंगाली परिवार में सन् 8 मई 1909 को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता किरणचंद्र घोष तथा माँ नलिनी देवी कला एवं संगीत अनुरागी थे, तो पितामह द्वारकानाथ घोष द्वारकिन हारमोनियम के आविष्कारक।

ज्ञान बाबू ने प्रेसीडेंसी कॉलेज से एम.ए. किया। लेकिन, तभी दुर्योग से एक दिन फुटबॉल खेलते समय इनकी आँखों पर गेंद आ लगी। परिणामस्वरूप इन्हें पठन-पाठन से दूर होना पड़ा और इनका पूरा समय संगीत में व्यतीत होने लगा। ज्ञान प्रकाश घोष ने पं. गिरिजा शंकर चक्रवर्ती, मो. सगीर खाँ और मो. दबीर खाँ जैसे वरिष्ठ गुरूओं से गायन तथा फरूखाबाद घराने के प्रसिद्ध ताबलिक उस्ताद मसीत खाँ और पंजाब घराने के प्रसिद्ध ताबलिक उस्ताद फ़िरोज खाँ से तबला वादन की उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त की।

पं. ज्ञान प्रकाश घोष के मन-मस्तिष्क में सृजनात्मकता का जैसे सागर लहराता था। उन्होंने अपनी सर्जनात्मकता का परिचय विभिन्न दिशाओं में दिया। आकाशवाणी, कोलकाता में प्रोड्यूसर के पद पर कार्य करते हुए उन्होंने संगीत में कई प्रकार के अभिनव प्रयोग किए। आकाशवाणी के अपने 15 वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने संगीत के प्रायोगिक पक्ष के साथ-साथ सैद्धांतिक पक्ष पर भी ध्यान दिया। बांग्ला भाषा में ठुमरियाँ लिखीं और लोगों से गवायीं भी। इन्होंने ‘रामायण गीति’ नामक एक कार्यक्रम भी तैयार किया, जिसमें परंपरा और आधुनिकता का सुंदर समन्वय था। इस कार्यक्रम की लोकत्रियता ने ज्ञान बाबू को खास लोगों के साथ-साथ आम लोगों में भी लोकत्रिय बना दिया। उन्होंने अनेक बांग्ला फिल्मों में संगीत भी दिया, जिनमें जोदू भट्ट, अँधेरेर आलो, राजलक्ष्मी ओ श्रीकांता आदि ने अपूर्व लोकप्रियता और ख्याति प्राप्त की। पं. ज्ञानप्रकाश घोष ने एक ओर अगर उस्ताद अलाउद्दीन खाँ के साथ तबले की संगत की, तो दूसरी ओर उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ के साथ कई मंचों पर हारमोनियम की संगत भी की। पं. वी.जी. जोग के वायलिन के साथ उन्होंने हारमोनियम पर भी जुगलबंदी की। पखावज, तबला, कथक नृत्य और तराना पर आधारित उनकी एक संगीत संरचना चतुरंग काफी लोकप्रिय हुई थी।

चित्र 7.2 - पं. ज्ञान प्रकाश घोष

इसी तरह उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय वाद्ययंत्रों को लेकर ड्रम्स ऑफ इंडिया के नाम से उन्होंने अमेरिका की पेनसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी और कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी सहित कई अन्य संस्थाओं में भी गायन और वादन के सैद्धांतिक तथा प्रायोगिक पक्षों की शिक्षा दी थी। उन्होंने सौरव एकेडमी ऑफ़ म्यूज़िक की स्थापना करके संगीत के प्रचार-प्रसार की महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

पं. ज्ञान प्रकाश घोष ने गायन और तबला के क्षेत्र में अनेक मूर्धन्य संगीतकारों को तैयार किया। गायन के क्षेत्र में जहाँ उन्होंने पं. प्रसून बनर्जी और पं. अजय चक्रवर्ती जैसे विश्वप्रसिद्ध गायकों को तैयार किया, तो तबला वादन के क्षेत्र में पं. निखिल घोष, पं. शंकर घोष, पं. अनिन्दो चटर्जी, पं. विक्रम घोष और अभिजीत बनर्जी जैसे विश्वस्तरीय ताबलिक भी उन्हीं की देन हैं। उनके शिष्यों में अरूण भादुड़ी (गायन), सुमन घोष (गायन) तथा श्यामल बोस (तबला) जैसे महत्वपूर्ण नाम भी हैं।

पं. ज्ञानप्रकाश घोष को उनके महत्वपूर्ण सांगीतिक योगदानों के लिए कई मान-सम्मान प्राप्त हुए, जैसे - रवींद्र भारती और वर्धमान विश्वविद्यालय द्वारा प्रदत्त डी.लिट्. की मानद उपाधि, विश्व भारती शांति निकेतन का सर्वोच्च सम्मान दशिकोत्तम, केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी की रत्न सदस्यता, पश्चिम बंगाल सरकार का उस्ताद अलाउद्दीन खाँ पुरस्कार, आई.टी.सी. अवार्ड, भुवालका अवार्ड, तानसेन सम्मान, सुर सिंगार संसद द्वारा फैलोशिप तथा भारत सरकार द्वारा प्रदत्त पद्म भूषण अलंकरण। इस अनूठे संगीत मनीषी का निधन 18 फरवरी 1997 को हुआ।

उस्ताद लतीफ़ अहमद खाँ

दिल्ली घराने के सुप्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद लतीफ़ अहमद खाँ का जन्म प्रतिष्ठित संगीतकारों के परिवार में 1942 में हुआ था। इनके पिता उस्ताद मोहम्मद बरूश खाँ सुप्रसिद्ध सारंगी वादक थे। लतीफ़ अहमद की रुचि बचपन से ही तबला वादन की ओर थी, जिसकी आरंभिक शिक्षा उन्होंने दिल्ली घराने के खलीफ़ा उस्ताद गामा खाँ से प्राप्त की थी। उस्ताद गामा खाँ के देहावसान के बाद उनके छोटे भाई उस्ताद मुन्नू खाँ और सुपुत्र उस्ताद इनाम अली खाँ से तबला वादन की उच्चस्तरीय शिक्षा प्राप्त करके लतीफ़ अहमद ने बहुत कम उम्र में ही स्वयं को संगीताकाश में एक जगमगाते सितारे के रूप में स्थापित कर लिया। ‘अल्लाहवाला’ के नाम से विख्यात लतीफ़ अहमद 1958 में सिर्फ़ 16 वर्ष की उम्र में मुंबई में आयोजित एक भव्य संगीत समारोह में देश के अनेक महान संगीतकारों की उपस्थिति में अपना प्रभावशाली मुक्त तबला वादन प्रस्तुत करके रातों-रात लोगों की आँखों के तारे बन गए थे। उसके बाद उन्हें फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़ूरत नहीं पड़ी। अगले ही वर्ष 1959 में पं. रविशंकर के सितार वादन में संगत करके उन्होंने अपनी प्रतिभा के एक अन्य पक्ष का भी सुंदर परिचय दिया। उ. लतीफ़ अहमद खाँ उस श्रेणी के ताबलिक थे, जिन्हें गायन, वादन और नर्तन तीनों की संगत में महारत हासिल थी। वे दिल्ली घराने के उन गिने-चुने तबला वादकों में से थे जिन्होंने शीर्षस्थ कथक नर्तकों के साथ प्रभावशाली संगत की थी।

चित्र 7.3 - उस्ताद लतीफ़ अहमद खाँ

उस्ताद लतीफ़ अहमद अद्वितीय प्रतिभा के धनी ताबलिक थे। उनकी इस प्रतिभा और वादन स्तर का सम्मान करते हुए ही आकाशवाणी ने बिना किसी ऑडिशन के उन्हें प्रथम श्रेणी के कलाकार के रूप में अनुमोदित किया था। संगत और स्वतंत्र वादन दोनों में ही दक्ष लतीफ़ अहमद आकाशवाणी, दूरदर्शन, ऑडियो रिकार्ड्स और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सांगीतिक मंच हर जगह लोकत्रिय थे। दिल्ली के शुद्ध बाज का वादन करने के साथ-साथ वे अन्य घरानों की लोकप्रिय बंदिशों का भी साधिकार वादन करते थे।

लतीफ़ अहमद ने इंग्लैंड, अमेरिका, ईरान, तुर्की सहित कई यूरोपीय एवं अफ्रीकी देशों की सांगीतिक यात्राएँ की। परंपरा और प्रयोगधर्मिता पर समान आस्था रखने वाले, सूझ-बूझ के धनी इस बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कलाकार ने पाश्चात्य संगीत और पाश्चात्य संगीतकारों के साथ भी वादन किया। जैज़ (Jazz) संगीतकार डॉन चेरी के साथ उनका वादन काफी लोकप्रिय हुआ था। उन्होंने ‘द ड्रम ऑफ़ इंडिया’ नामक अपना एक सांगीतिक दल भी बनाया था, जिसने अनेक अंतरराष्ट्रीय मंचों के साथ-साथ श्रीलंका में संपन्न भारतीय गणतंत्र दिवस समारोह में भी अपनी आकर्षक प्रस्तुति दी थी। उनके एकल वादन और संगत कार्यक्रमों के ऑडियो रिकॉर्ड इंग्लैंड, फ्रांस और स्विट्जरलैंड आदि देशों में भी बने हैं।

उस्ताद लतीफ़ अहमद ने $5 \frac{114}{4}$ (सवा पाँच) मात्रे की एक ताल की भी रचना की थी, जिसे लतीफ़ ताल का नाम दिया गया। स्विट्जरलैंड में निर्मित एक ऑडियो रिकॉर्ड में उन्होंने $5 \frac{112}{}$ मात्रे के लतीफ़ ताल में स्वतंत्र वादन भी किया था। लंदन स्थित डार्लिंगटन कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स से भी वह अतिथि प्राध्यापक के रूप में जुड़े थे। वहाँ उन्होंने अनेक तबला वादक शिष्य तैयार किए। उस्ताद लतीफ़ अहमद के तबला वादन ने बॉलीवुड को भी अपनी ओर आकर्षित किया। भाई हो तो ऐसा, बावर्ची और प्रेम रोग आदि जैसी कई फिल्मों के संगीत पक्ष को अपने सुमधुर तबला वादन से लतीफ़ अहमद ने सुसज्जित किया। दो अँगुली के तिट और तिरकिट के वादन में बेजोड़ लतीफ़ अहमद अपने बायें (डग्गे) को भी दाहिने तबले के स्वर में ही मिलाते थे। उनका दाहिना तबला ऊपर के ‘सा’ में बोलता था, तो बायाँ नीचे के ‘सा’ में।

लतीफ़ अहमद तेजी से लोकप्रियता के शिखर की ओर अग्रसर हो रहे थे कि अचानक 29 अगस्त, 1989 को उनके असामयिक निधन की आकस्मिक सूचना संगीत जगत को मिली। तब उनकी उम्र सिर्फ़ 48 वर्ष की थी।

  1. दिल्ली घराने के किस तबला वादक ने सवा पाँच मात्रा की ताल रचना की?
  2. चतुर्मुखी तबला वादक कौन थे?
  3. संगीत संरचना ‘चतुरंग’ किसके द्वारा तैयार की गई थी?
  4. मृदंग सागर पुस्तक के रचयिता कौन थे?

घत्रपति सिंह जू देव

छत्रपति सिंह जू देव का जन्म मध्य प्रदेश स्थित विजना के राजपरिवार में सन् 1919 में हुआ था। इनके पिता राजा हिम्मत सिंह और पितामह राजा मुकुंद सिंह संगीत के अनन्य प्रेमी और उन्नायक थे। बचपन से ही इनका झुकाव पखावज वादन की ओर था, जिसकी शिक्षा इन्होंने वरिष्ठ पखावजी स्वामी रामदास से प्राप्त की। छत्रपति सिंह इस कला को लेकर काफी गंभीर थे। उन्होंने इसे अपनाया तो शौक के रूप में था, लेकिन जैसे-जैसे वे इसे सीखते गए, वैसे-वैसे उनकी निष्ठा इसके प्रति बढ़ती गई। उच्च स्तरीय शिक्षा, कठिन अभ्यास, अथक साधना और मौलिक चिंतन ने जल्द ही छत्रपति सिंह को पखावज वादकों की भीड़ से अलग एक विशिष्ट स्थान पर स्थापित कर दिया।

देश-विदेश के लगभग सभी प्रतिष्ठित मंचों पर मुक्त वादन और संगत कर चुके छत्रपति सिंह ने अपने समय के सभी वरिष्ठ गायकों और वादकों के साथ संगत करके अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा का प्रदर्शन किया था।

अपनी लंबी-लंबी लमछड़ परणों, कठिन और जटिल तिहाइयों, चमत्कृत करती लयकारियों, बोलों के सुस्पष्ट भावपूर्ण निकास तथा ध्वनि के क्रमिक उतार-चढ़ाव के माध्यम से कर्कश और नीरस कहे जाने वाले वाद्य को छत्रपति सिंह ने जनप्रिय और लोकप्रिय साज के रूप में स्थापित कर दिया।

छत्रपति सिंह ने ताल चंद चूड़ामणि (19 मात्रा), सूर्य मणि (13 मात्रा), धमार सादरा ताल (24 मात्रा), सादरा ताल (22 मात्रा), पंचानन ताल (19 मात्रा), सादरांक ताल उऱ् शक्ति धर (19 मात्रा), चतुरानन ताल (15 मात्रा) एवं स्व. राजीव गाँधी की स्मृति में कुमुद प्रभा ताल (20 मात्रा) की रचना करके इन तालों में अनेक बंदिशों की भी रचना की, जिससे पखावज का भंडार और अधिक समृद्ध हुआ। राजा छत्रपति सिंह ने अपनी कला को अपने अनेक शिष्यों में भी उदारतापूर्वक वितरित किया है। इनमें अखिलेश गुंदेचा, चित्रांगना आग्ले (रेशवाल), प्रवीण आर्य, सुंदर लाल तथा अनीस कुमार के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

छत्रपति सिंह को 1951 में संगीत मार्तंड पं. ओंकार नाथ ठाकुर द्वारा ‘प्रोफेसर ऑफ़ पखावज’ का सम्मान मिला था। 1954 में कोलकाता में संपन्न अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिता में इन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सुर सिंगार संसद, मुंबई द्वारा ‘ताल विलास’ की उपाधि एवं उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी का रत्न सदस्यता सम्मान भी छत्रपति सिंह को मिला था। 1991 में इन्हें केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया। इनका निधन 1998 में अपने गृह नगर विजना में हुआ।

गुरु पुरुषोत्तम दास

चित्र 7.4 - गुरु पुरुषोत्तम दास

बीसवीं शताब्दी के महान पखावज वादक पुष्टि मार्गीय संगीत के प्रमुख गुरु पुरुषोत्तम दास जी का जन्म राजस्थान की तीर्थस्थली श्री नाथद्वारा में 7 जुलाई 1907 को हुआ था। पिता पं. घनश्याम दास पखावजी महान कलाकार थे, अतः यह स्वाभाविक ही था कि पुरुषोत्तम दास की शिक्षा-दीक्षा उन्हीं के द्वारा हुई। सिर्फ़ पाँच वर्ष की उम्र से पुरुषोत्तम दास ने अपनी प्रतिभा का परिचय देना शुरू कर दिया था। पखावज के प्रति आत्मीय लगाव, निष्ठा और समर्पण का भाव बचपन से ही उनके अंदर दिखने लगा था। उनकी संगीत यात्रा तेजी से विकास पथ पर चल रही थी कि अचानक 1916 में गुरु घनश्याम दास का असामयिक निधन हो गया। तब पुरुषोत्तम दास की उम्र सिर्फ़ 9 वर्ष की थी। उनके लिए यह बहुत ही कठिन समय था। उनकी आँखों के सामने अँधेरा-सा छा गया। वे क्या करें? कैसे करें? उनकी समझ में नहीं आ रहा था।

उन्होंने मृदंग सागर नामक पुस्तक के सहारे सफलता की जिन ऊँचाइयों को छुआ, आने वाली पीढ़ियाँ शायद ही उस पर विश्वास कर पाएँ। जल्द ही पुरुषोत्तम दास की ख्याति पहले शहर, फिर प्रदेश और फिर राष्ट्रीय स्तर पर फैलने लगी। वे देश के विभिन्न स्थानों में आयोजित होने वाले संगीत समारोहों में सादर आमंत्रित किए जाने लगे। भावपूर्ण वादन तथा गायन और वादन दोनों की संगत में पूर्ण निपुणता, सात्विक भोजन एवं साधारण रहन-सहन तथा सबके प्रति सहयोग के भाव ने जल्द ही पुरुषोत्तम दास को सबका प्रिय बना दिया।

1956 में पुरुषोत्तम दास दिल्ली आ गए। सर्वप्रथम इन्होंने श्री राम भारतीय कला केंद्र में पखावज के गुरु पद का दायित्व संभाल कर लोगों को पखावज की शिक्षा देनी शुरू की। कार्यक्रमों का सिलसिला यथावत चल रहा था। इसके बाद 1964 में केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी द्वारा संचालित कथक केंद्र से उन्हें पखावज के गुरु पद को संभालने का निमंत्रण मिला, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। यहाँ वे 1982 तक रहे। यहाँ से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे श्री नाथद्वारा वापस लौट गए। गुरु पुरुषोत्तम दास ने नेपाल, पाकिस्तान, जापान, सोवियत संघ और श्रीलंका आदि कई देशों की बहुत बार सफल संगीत यात्राएँ करके एक अलग तरह के पखावज वादन से लोगों को परिचित कराया, जिसे बाद में नाथद्वारा परंपरा का नाम मिला।

दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होंने अनेक लोगों को पखावज वादन की उच्चस्तरीय शिक्षा दी थी जिनमें से एनमेरी गेस्टन ने पखावज पर कई शोधपूर्ण कार्य किए हैं। श्रेष्ठ वादक, श्रेष्ठ गुरु और श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में अपना अद्वितीय स्थान रखने वाले गुरु जी ने मृदंग वादन नामक एक महत्वपूर्ण पुस्तक का भी लेखन किया है जिसे केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से प्रकाशित किया गया था। साहित्य कला परिषद् सम्मान (दिल्ली), सुर सिंगार संसद, मुंबई द्वारा ताल विलास सम्मान, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, ध्रुपद समिति, इंदौर द्वारा नाना पानसे सम्मान, ध्रुपद मेला, वाराणसी द्वारा त्रावणकोर महाराज स्वाति तिरुनाल ध्रुपद पुरस्कार, महाराजा मेवाड़ फाउंडेशन, उदयपुर का डागर पुरस्कार, महाराणा कुंभा संगीत पुरस्कार और पद्म श्री के अलंकरण से विभूषित गुरु पुरुषोत्तम दास, कथक केंद्र से सेवानिवृत्त होकर वापस श्री नाथद्वारा जाकर श्रीनाथ संगीत शिक्षण केंद्र मंदिर मंडल के प्रधान आचार्य पद पर आसीन हुए, जहाँ वे जीवनपर्यंत कार्यरत रहे। यहीं 21 जनवरी 1991 को वे नाद ब्रह्म में लीन हो गए।

स्वामी पागल दास

मृंदगाचार्य स्वामी पागल दास के नाम से विख्यात पं. राम शंकर ‘पागल दास’ का जन्म 15 अगस्त 1920 को हुआ था। तबला और पखावज दोनों का ही अच्छा ज्ञान रखने वाले स्वामी जी ने सर्वप्रथम बाबू नेपाल सिंह से तबला वादन की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने पखावज वादन बाबा भगवान दास से सीखा था। संत शरण ‘मस्त’ से उन्होंने काव्य रचना का ज्ञान अर्जित किया था।

स्वामी जी जीवन के आरंभिक चरण में तबला और पखावज दोनों ही बजाते थे, साथ ही ‘शंकर’ नाम से कविताएँ भी लिखा करते थे। लेकिन, जब उस्ताद अलाउद्दीन खाँ ने उन्हें अपना गंडाबंध पुत्र बनाते हुए उनको पखावज पर ही केंद्रित रहने को कहा, तो वे पूरी तरह से पखावज

के लिए समर्पित हो गए। संत शरण ‘मस्त’ द्वारा मनोविनोद के दिनों में ‘पागल’ नाम रख लेने के सुझाव को उन्होंने हृदय से अपनाते हुए अपना नाम पागल दास ही रख लिया। स्वामी पागल दास युवा अवस्था से ही अयोध्या में रहे। उनकी औपचारिक शिक्षा का कोई दस्तावेज नही मिलता। वे ज्यादातर मंदिरों में ही रहे।

स्वामी राम शंकर ‘पागल दास’ ने एक श्रेष्ठ पखावज वादक के साथ ही एक अच्छे लेखक, कवि, रचनाकार और गुरु के रूप में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। वे आकाशवाणी और दरदर्शन के सर्वोच्च श्रेणी के वादक रहे। स्वामी जी ने भगवान ताल, मोहिनी ताल, पुराण ताल, नक्षत्र ताल, शिवलीला ताल, त्रिलोचन ताल, पंचानन ताल, जानकी ताल और ठाकुर ताल जैसे कई नये तालों की रचना करते हुए विभिन्न तालों में हज़ारों प्रकार की रचनाएँ रचीं, जिससे पखावज वादन की कला समृद्ध हुई। स्वामी जी ने तीन भागों में तबला कौमुदी और दो भागों में मृदंग तबला

चित्र 7.5 - स्वामी पागल दास

प्रभाकर नामक पाँच महत्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखी हैं। ये पुस्तकें आज भी तबला और पखावज के अनुरागियों का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। इसके अलावा संगीत पत्रिका का ‘मृदंग अंक’ भी स्वामी जी की रचनात्मकता से समृद्ध है। साथ ही, समय-समय पर अनेक लेखों और बोलों, बंदिशों को चुनकर पखावज के विद्यार्थियों के लिए स्वामी जी ने सीखने का आधार तैयार किया था।

स्वामी जी एक श्रेष्ठ गुरु थे। उन्होंने पखावज को केवल बजाया ही नहीं, उसका चतुर्दिक प्रचार-प्रसार भी किया। उनके उल्लेखनीय शिष्यों में रामकिशोर दास, डॉ. राज खुशीराम, राजकुमार झा, कौशल किशोर द्विवेदी, संजय आग्ले, जगदंबा प्रसाद, चम्पू महाराज, टॉड नॉर्डिन आदि प्रमुख हैं। अयोध्या में हनुमत विश्वकला केंद्र नामक एक संस्था की स्थापना करके स्वामी जी आजीवन पखावज वादन की शिक्षा देते रहे। अपनी कला और परंपरा को उन्होंने अवधी घराने का नाम दिया था। मृदंग केसरी, मृदंग मार्तंड, ताल विलास, नाना पानसे सम्मान, कला आचार्य, पखावज के जादूगर, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित स्वामी राम शंकर पागल दास का देहावसान 21 जनवरी 1997 को हुआ।

स्वामी पागलदास रचित कुछ छंद

1. अष्ट सिद्धि नव निधि प्रद, सकल कला गुण खान।
जय मृदंग वादकन मणि, महावीर हनुमान।

2. पूजा जप तप जोग यज्ञ, कथा और सत्संग।
निज रुचि रिझावत प्रभुहि सब पागलदास मृदंग।

  1. खिलाऊँ अपने हाथों से, कहो तुम सिर हिलाकर ना!
    कभी मचलो, कभी झेंपो, कभी रूठो करो ऊँ-आँ!
    कभी कंधे पे बिठला लूँ, कभी चूमूँ कभी चाटूँ,
    लगाकर हदयय से सोऊँ, अगर मचलो तो मैं डाँटूँ।
  1. मृदंग वादन के लेखक कौन हैं?
  2. छत्रपति सिंह जू देव का जन्म कब और कहाँ हुआ?
  3. तबला कौमुदी और तबला प्रभाकर के रचयिता कौन थे?

उस्ताद करामतुल्ला खाँ

फरूखाबाद घराने के सुप्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद करामतुल्ला खाँ का जन्म 1918 में उत्तर प्रदेश के रामपुर शहर में हुआ था। इनके पिता उस्ताद मसीतुल्लाह खाँ (उर्फ़ मसीत खाँ) और पितामह उस्ताद नन्हें खाँ अपने-अपने समय के प्रसिद्ध तबला वादक थे। जब करामत साहब का जन्म हुआ उस समय उस्ताद मसीत खाँ, नवाब, रामपुर के दरबार में कार्यरत थे। देश को स्वाधीनता मिलने के बाद उस्ताद मसीत खाँ सपरिवार कोलकाता चले गए, जहाँ उनका परिवार स्थायी रूप से बस गया।

करामत साहब ने तबला वादन की उच्चस्तरीय शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। कोलकाता के आकाशवाणी केंद्र में कार्यरत रहे करामत साहब के वादन की मुख्य विशेषता साफ़-सुथरी संगत थी। इनकी गिनती उन गिने-चुने तबला वादकों में होती थी, जिनकी कुशल संगत से कार्यक्रम की शोभा बढ़ जाती थी। करामतुल्ला खाँ की संगत से उनके साथी कलाकारों को कभी भी कोई असुविधा नहीं हुई। गायन और तंत्र सुषिर वाद्यों की संगत के लिए विशेष लोकप्रिय रहे करामत साहब का स्वतंत्र तबला वादन भी आकर्षण का विशेष केंद्र होता था। उनके पास अपने घर और घराने की अनेक अनुपम बंदिशें थीं जिन्हें वे आवश्यकतानुसार एकल वादन के समय उपयोग करते थे।

उस्ताद करामतुल्ला खाँ के सुयोग्य पुत्र उस्ताद साबिर हुसैन अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के ताबलिक हैं। पं. नरेंद्र घोष, शंख चटर्जी, अमर डे, कमलेश चक्रवर्ती और कन्हाई दत्त जैसे इनके शिष्यों ने इस पंरपरा का काफी विकास किया। करामत साहब के जीवन का उत्तरार्द्ध लंबी बीमारी से लड़ते हुए बीता। संगीत के हर मंच पर विजयी रहने वाले करामत साहब 3 दिसंबर 1977 को मौत के आगे हार गए।

उस्ताद आफ़ाक हुसैन

लखनऊ घराने के प्रतिष्ठित तबला वादक उस्ताद आफ़ाक हुसैन का जन्म 1930 में तबले के लखनऊ घराने के संस्थापकों के प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता उस्ताद वाजिद हुसैन की गिनती देश के महान तबला वादकों में होती थी। उस्ताद आफ़ाक हुसैन ने उन्हीं के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए तबले की पूरी तालीम उनसे प्राप्त की। अपने घर और घराने की अनुपम बंदिशों, अथक रियाज़ और तीत्र बुद्धि के कारण आफ़ाक हुसैन जल्द ही एक अच्छे मंचीय कलाकार के रूप में स्थापित हो गए। वे चतुर्मुखी ताबलिक थे अर्थात गायन, वादन और नृत्य, तीनों की सफल संगत करने के साथ ही स्वतंत्र तबला वादन में भी वे अपना बहुत अच्छा स्थान रखते थे। उन्होंने देश के शीर्षस्थ गायकों, वादकों एवं नर्तकों के साथ सुंदर संगत करके अपनी इस प्रतिभा का परिचय दिया था।

आफ़ाक हुसैन की ख्याति एक अच्छे उस्ताद के रूप में भी रही है। बंगाल, असम और श्रीलंका में इनके सैकड़ों शिष्य लखनऊ घराने का तबला बजा रहे हैं। इनके शिष्यों में जेम्स किपेन भी शामिल हैं।

आफ़ाक हुसैन लखनऊ घराने के खलीफ़ा थे और लखनऊ घराने का विशुद्ध तबला बजाते थे। उन्होंने 1962 में अफगानिस्तान की सांगीतिक यात्रा की थी। नेपाल और श्रीलंका को भी उन्होंने अपने तबले से कई बार अनुगुंजित किया था। 1985 में पेरिस में आयोजित भारत महोत्सव में भी खाँ साहब ने भाग लिया था। फ्रांस स्थित स्टार यूनिवर्सिटी में तबला वादन की शिक्षा देने के लिए भी उस्ताद आफ़ाक हुसैन कई बार गए थे। इनके अनेक शिष्य देश-विदेश में तबला वादन का प्रचार कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी सम्मान (1988) सहित कई मान-सम्मान प्राप्त कर चुके लखनऊ घराने के अंतिम खलीफ़ा और इस अप्रतिम तबला वादक का निधन 14 फरवरी 1990 को लखनऊ में हुआ।

उमयालपुरम् के. शिवरामन

उमयालपुरम् काशी विश्वनाथ शिवरामन का जन्म 17 दिसंबर 1935 को कर्नाटक में हुआ था। उनके पिता का नाम पी. काशी विश्वनाथ अय्यर और माता का नाम कमलाम्बल था। बचपन से ही संगीत का शौकीन होने के कारण उन्होंने जीवन में संगीत को बढ़ावा दिया। इन्होंने संगीत में मृदंगम् का गहन शिक्षण अरूपति नटेस अय्यर, तंजावुर वैद्यनाथ अय्यर, पालघाट मणि अय्यर और कुंभकोणम् रंगु आयंगर के सानिध्य में लगभग पंद्रह साल से अधिक समय तक गुरुकुल प्रणाली के तहत प्राप्त किया। इसके अलावा उन्होंने एल.एल.बी. के साथ बी.ए. स्नातक की भी उपाधि प्राप्त की।

इन्होंने कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीतकारों के साथ कई संगीत समारोहों में शिरकत की। कर्नाटक संगीत में अरियाकुडी रामानुज आयंगर, चेम्बई वैद्यनाथ भगवान भगवतार, मुसिरी सुब्रमणियम अय्यर, पल्लदम संजीव राव, मैसूर चूडियाँ, वेंकटरमैया, द्वारम वेंकटस्वामी नायडू, मुदिकोंदन वेंकटरम अय्यर, जी.एन. बालासुब्रमण्यम, मदुर मणि अय्यर, महाराजपुरम् विश्वनाथ अय्यर, अलथुर ब्रदर्स, सेम्मंगुडी श्रीनिवास अय्यर, एम. बालामुरलीकृष्णा, नेदुनुरी कृष्णमूर्ति, वोलेटि वेंकटेशरुलु, एस. बालाचंदर, टी.आर. महालिंगम् आदि के साथ सफल प्रस्तुति देने के अलावा इन्होंने हिंदुस्तानी संगीत के शीर्ष कलाकारों, जैसे - पं. रविशंकर, पं. हरिप्रसाद चौरसिया, पं. राम नारायण और शीर्ष तबला वादकों, जैसे- पं. किशन महाराज, पं. सामता प्रसाद, उस्ताद अल्लारक्खा, उस्ताद जााकिर हुसैन आदि के साथ भी सफल जुगलबंदी की। इन्होंने मृदंगम् की कला में कई विद्यार्थियों को भी प्रशिक्षित किया है। इनके शिष्यों में ईरोड नागराज, नेवेली नारायणन, अर्जुन कुमार, एन.सी. भारद्वाज, हरिहरन, सुंदर बालासुब्रमण्यम, रवींद्रन, अक्षय राम, विग्नेश वेंकटरमन, निर्मल नारायण, अमंगुड़ी मन्नारायणन इत्यादि प्रमुख हैं।

इन्हें कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है, जिनमें 1988 में ‘पद्म श्री’ पुरस्कार, वर्ष 2003 में ‘पद्म भूषण’ और वर्ष 2010 में भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ प्रदान किया गया। वर्ष 2001 में मद्रास संगीत अकादमी से संगीत कलानिधि सम्मान, श्री शारदा पीठम्, श्रृंगेरी के शंकराचार्य स्वामीगल द्वारा मृदंग कलानिधि की उपाधि, लय ज्योति, लय ज्ञान भास्कर, संगीत कला सिखमणि, मृदंग नादमणि (कांची मठ के शंकराचार्य द्वारा अभिनीत), मृदंग चक्रवर्ती, नाडा सुधर्नव, ताल विलास और लय ज्ञान तिलक आदि उपाधियाँ शामिल हैं। इन्हें डॉ. जे. जयललिता संगीत और ललित कला विश्वविद्यालय, तमिलनाडु से वर्ष 2019 में डी.लिट. की उपाधि प्राप्त हुई। उमयालपुरम् शिवरामन ने म्यूज़िकल एक्सीलेंस ऑफ़ मृदंगम् और म्यूज़िक मेकर्स — लिविंग लीजेंड्स ऑफ़ इंडियन क्लासिकल म्यूज़िक जैसी प्रमुख पुस्तकें भी लिखी हैं। आप आज भी संगीत के सेवा में संलग्न हैं।

पालघाट मणि अय्यर

इनका जन्म 12 जून 1912 को पालघाट जनपद के तिरुविल्वमाला तालुक के पझायनूर में शेषम भगवतार और आनंदमबाल के दूसरे बेटे के रूप में हुआ था। मणि अय्यर ने अपने माता-पिता से संगीत शिक्षण अपने पैतृक गृह पझायनूर में प्राप्त किया। ये प्रसिद्ध कलाकारों मृदंग वादक टी.आर. राजमणि, गायिका ललिता शिवकुमार, वायलिन वादक टी.आर. के पिता और प्रसिद्ध गायक नित्यश्री महादेवन और कर्नाटक गायक पालघाट रामप्रसाद के दादा थे। दस साल की उम्र में शिवरामकृष्ण भगवतार के हरिकथा प्रवचन में मणि अय्यर ने मृदंग वादन की पहली सार्वजनिक मंचीय प्रस्तुति दी। तंजावुर वैद्यनाथ अय्यर जी के सानिध्य में इन्होंने मृदंग का गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया।

मणि अय्यर ने अपने दौर के सभी प्रमुख गायक कलाकारों के साथ सफल संगत की। इन्होंने कई शिष्यों को मृदंग की शिक्षा प्रदान की, जिनमें से पालघाट आर. रघु, मवेलिककारा वेलुकुट्टी नायर, उमयालपुरम् के. शिवरामन, तंजावुर आर. रामदास, कमलाकर राव, जी. हरिशंकर (कंजीरा) आदि प्रमुख हैं।

संगीत के क्षेत्र में मणि अय्यर के आने से पहले, मृदंग वादक नागरकोइल एस. गणेश अय्यर, अलगानंबी पिल्लई और दक्षिणमूर्ति पिल्लई (जिन्होंने कंजीरा भी बजाया था) का प्रभुत्व था। परंतु मणि अय्यर ने मृदंग वादन को मुख्य कलाकार के संगीत के लिए केवल ताल रखने से बदलकर अपने आप में एक स्वतंत्र वाद्ययंत्र के रूप में प्रतिस्थापित किया।

मणि अय्यर के शिष्य पालघाट आर. रघु ने अपने गुरु को एक बहुमुखी प्रतिभा के रूप में वर्णित किया है। मणि अय्यर ने संगीत अनुयायियों को हर कल्पनीय मनोदशा और लय की गति को ध्यान में रखते हुए मुख्य कलाकार के संगीत के साथ

चित्र 7.6 - पालघाट मणि अय्यर

संगत करने का तरीका दिखाया। वे अपनी निरंतर उत्कृष्टता से संगीत कार्यक्रम को रोमांचकारी ऊँचाइयों तक ले जा सकते थे। जब सेम्मनगुडी श्रीनिवास अय्यर को कर्नाटक संगीत के विशेषज्ञ महारथी चुनने के लिए कहा गया, तो उन्होंने केवल तीन नाम — टी.आर. महालिंगम, टी.एन. राजरथनम् पिल्लई और पालघाट मणि अय्यर के नाम चुने। मणि अय्यर 70 वर्ष की आयु तक जीवित रहे और 30 मई, 1981 को उनका निधन हुआ।

  1. उस्ताद आफ़ाक हुसैन का संबंध किस घराने से था?
  2. विक्कू विनायकराम किनका उपनाम है?
  3. करामतुल्ला खाँ किस घराने से संबंधित हैं?

अभ्यास

निम्नखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

1. पंडित किशन महाराज का जन्म वर्ष क्या है?

2. दक्षिण भारतीय संगीत में ताल वाद्य के रूप में प्रयुक्त प्रमुख वाद्य कौन-से हैं?

3. घनश्याम दास किनके पुत्र थे?

4. गायन, वादन और नर्तन तीनों की संगत में महारत प्राप्त कलाकार का नाम क्या है?

सुमेलित कीजिए -

(क) घटम् $ \qquad $ 1. पागल दास

(ख) मृदंग $ \qquad $ 2. करामतुल्ला खाँ

(ग) तबला $ \qquad $ 3. पालघाट मणि अय्यर

(घ) पखावज $ \qquad $ 4. विक्कू विनायकम्

गतिविधियाँ/परियोजना

1. तबला, मृदंग और पखावज के वर्तमान वादकों के बारे में जानकारी एकत्र कर अभ्यास पुस्तिका में लिखिए।

2. उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय संगीत में प्रयुक्त प्रमुख ताल वाद्यों के बारे में अपने सहपाठियों से चर्चा कीजिए।

परिशिष्ट 1

संगीत के कुछ विशिष्ट शिक्षा संस्थान

का लाहौर में 1901 में गंधर्व संगीत महाविद्यालय की स्थापना की गई, 1946 में इसे सोसाइटी बनाया गया।

هि विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा 1926 में लखनऊ में संगीत विद्यालय की स्थापना की गई। इसके उपरांत 1966 में मैरिस कॉलेज ऑफ़ म्यूज़िक बना।

४8. दिल्ली के गंधर्व संगीत महाविद्यालय की स्थापना 1939 में ग्वालियर घराने के पद्म श्री विनयचन्द्र मौदगल्य द्वारा की गई।

को कोलकाता में 1978 में आई.टी.सी. संगीत रिसर्च एकेडमी की स्थापना हुई।

8ु नेशनल सेंटर फ़ॉर द परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स, मुंबई की स्थापना 17 अप्रैल 1976 को जे.आर.डी. टाटा द्वारा की गई।

  1. दिल्ली में 9 अप्रैल 1950 मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आई.सी.सी.आर.) की स्थापना हुई।
  • 1979 में कमला देवी चट्टोपाध्याय एवं कपिला वात्स्यायन द्वारा दिल्ली में सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केंद्र (सी.सी.आर.टी.) की स्थापना की गई।

का भारत सरकार ने 31 मई 1952 को संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली की स्थापना की।

  1. 1926 में प्रयाग संगीत समिति, प्रयागराज (सोसाइटी) की स्थापना हुई।

&. 1956 में में प्राचीन कला केंद्र, चंडीगढ़ (सोसाइटी) की स्थापना हुई।

  1. 1960 में कला क्षेत्र फाउंडेशन, चेन्नई की स्थापना हुई।

कु 18 अगस्त 1928 को द म्यूजिक एकेडमी, मद्रास की शुरूआत सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने की।

  1. 14 अकटूबर 1956 को इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ की स्थापना हुई।

रा राजा मान सिंह तोमर विश्वविद्यालय, ग्वालियर की स्थापना 10 फरवरी 2009 में हुई।

  1. संगीत भवन, विश्वभारती विश्वविद्यालय की शुरूआत 1921 में हुई।
  2. कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स, दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना 1942 में हुई।
  3. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कला संकाय की शुरूआत 1944 में हुई।
  4. राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, अरूणाचल प्रदेश में फाइन आर्ट्स एंड म्यूजिक विभाग की स्थापना 4 जनवरी 1984 में हुई।

का. डॉ. बाबा साहब अंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय में संगीत विभाग की स्थापना 2009 में हुई।

  1. 5 सितंबर 2019 को हैदराबाद विश्वविद्यालय में संगीत विभाग की स्थापना हुई।


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