अध्याय 03 तबला और पखावज के स्‍वतंत्र वादन में बंदिशों का महत्‍व

संगीत के क्षेत्र में जितने भी वाद्य हैं, चाहे वे घन वाद्य हों, अवनद्ध वाद्य हों या तंत्र अथवा सुषिर वाद्य हों, सभी मुख्यत: गायन की संगत के लिए आविष्कृत हुए हैं। इनमें विभिन्न प्रकार की वीणाएँ, बाँसुरी, झाँझ, करताल और पखावज तथा तबला आदि जैसे लगभग सभी वाद्य शामिल हैं। लेकिन, बदलते समय के साथ अपने महान और विद्वान कलाकारों के सौजन्य से अनेक वाद्यों ने अपने-अपने स्वतंत्र अस्तित्व का परिचय भी सफलतापूर्वक दिया है। ऐसे वाद्यों में अवनद्ध वाद्य वर्ग से आने वाले पखावज तथा तबला जैसे वाद्य सर्वाधिक प्रमुख हैं।

स्वतंत्र वादन क्या है? स्वतंत्र वादन का अर्थ है — अकेले स्वतंत्रतापूर्वक एकल वादन करते हुए अपनी वादन क्षमता और कला कौशल से दर्शकों और श्रोताओं को आनंदित तथा अभिभूत करना। जब कोई पखावज वादक या ताबलिक किसी दूसरी विधा के संगीतकार की संगत न करके स्वतंत्र रूप से अपनी इच्छा और विवेक के अनुसार अपना वादन प्रस्तुत करता है, तब उसके उस वादन को एकल वादन, मुक्त वादन, स्वतंत्र वादन अथवा सोलो (Solo) कहा जाता है। हालाँकि, यह वादन भी पूरी तरह एकल नहीं होता है, क्योंकि लय और ताल के दिग्दर्शन के लिए कोई स्वर वाद्य वादक तब भी मंच पर उपस्थित रहता है। चूँकि स्वतंत्र वादन करते समय पखावजी अथवा ताबलिक किसी दूसरे संगीतकार का अनुगामी न होकर अपना वादन, अपनी इच्छानुसार प्रस्तुत करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं, इसलिए इसे स्वतंत्र वादन कहा जाता है।

चित्र 3.1 - लकड़ी और चमड़े से बना अवनद्ध वाद्य मादल

संगत करते समय वादक कलाकार जहाँ मुख्य कलाकार का पूरी तरह से सहयोग करते हुए अपनी वादन कला और सूझ-बूझ का सुंदर परिचय देते हैं, वहीं स्वतंत्र वादन में वे अपनी शिक्षा और ज्ञान का प्रदर्शन करते हैं। स्वतंत्र वादन में प्राय: बंदिशों का ही वादन होता है। स्वतंत्र वादन के अंतर्गत पखावजी और ताबलिक अपने गुरूजनों द्वारा प्रदत्त और यदा-कदा अपने द्वारा रचित विशिष्ट रचनाओं की व्याख्या करते हुए उनका स्वतंत्रतापूर्वक वादन करते हैं। इन्हीं विशिष्ट रचनाओं को बंदिश कहा जाता है।

‘बंदिश’ शब्द का अर्थ है — बंधन युक्त अर्थात एक अनुशासित बंधन। बंदिशों और अनुशासन का महत्व न केवल संगीत, अपितु जीवन के हर क्षेत्र में है। सांगीतिक बंदिशों के अंतर्गत महान संगीतकारों द्वारा रचित वे विशिष्ट रचनाएँ आती हैं, जिन्हें सामान्यत: उसी रूप में बजाया जाता है, जिस रूप में वे रची गई हैं। बंदिशों के मूल स्वरूप में फेरबदल की गुंजाइश प्राय: नहीं होती है। पखावज और तबला वादन के क्षेत्र में प्रस्तुत की जा रही लगभग सभी मूल रचनाएँ- पेशकार, कायदा, रेला, बाँट, टुकड़ा, परण, गत, फर्द, कवित्त आदि बंदिशों के अंतर्गत ही आती हैं। बंदिशों को मुख्यत: दो प्रकारों में बाँटा जा सकता है — विस्तारशील बंदिशें और अविस्तारशील बंदिशें। विस्तारशील बंदिशों के अंतर्गत पेशकार, कायदा, बाँट, रेला, ठेके का प्रस्तार, गत कायदा आदि बंदिशें आती हैं। इन बंदिशों का विस्तार अलग-अलग घरानों के कलाकार भिन्न-भिन्न तरीकों से तथा अपनी-अपनी क्षमतानुसार करते हैं। बंदिश के निर्माण में रचनाकार, जबकि इसके विस्तार में कलाकार की योग्यता दिखती है। इसके विपरीत अविस्तारशील बंदिशों, जैसे- टुकड़े, गत, परणें, गत-टुकड़े, गत-परणें, फर्द, कवित्त और स्तुति परणें आदि ऐसी बंदिशें होती हैं, जिन्हें उसी रूप में बजाना होता है, जिस रूप में वे रची गई होती हैं। इनका वादन करते समय कलाकार अपनी वादन क्षमता द्वारा इन रचनाओं के सौंदर्य को निखारते हैं।

वस्तुत: महान कलाकारों ने इन वाद्यों की वादन संभावनाओं और वर्णों के निकास आदि को ध्यान में रखकर अलग-अलग तरह की बंदिशें बनायीं। हर बंदिश और हर तरह की बंदिश एक विशेष प्रकार की आकृति और प्रकृति में रचे जाने के कारण एक विशेष नाम से संबोधित की गई। ये अपने आस्वादकों (श्रोतागण) को एक विशेष प्रकार का मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक आनंद प्रदान करते हुए कलात्मक और रचनात्मक विशेषताओं का रसास्वादन भी कराती हैं। इसलिए संगीत के हर क्षेत्र, हर विधा में बंदिशों का महत्व सर्वाधिक और सर्वोपरि है। शरीर रूपी इन बंदिशों में ही कलाकार अपनी रचनात्मकता से प्राण फूँकते हैं। इन बंदिशों का मूल स्वरूप ही तय करता है कि यह कायदा है; रेला है; टुकड़ा है; गत है; परण है; या फर्द है। ये बंदिशें अगर एक ओर मूल रचनाकार की सृजनात्मक क्षमता का परिचय देती हैं, तो दूसरी ओर उसे प्रस्तुत कर रहे कलाकार की कलात्मक क्षमता का भी।

  1. तबला-पखावज किस वाद्य के अंतर्गत आता है?
  2. शास्त्रीय संगीत में एकल वादन से क्या अभिप्राय है?
  3. भारतीय संगीत में वाद्यों को कितने वर्गों में वर्गीकृत किया गया है?
  4. विस्तारशील बंदिश से आप क्या समझते हैं?

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विभिन्न घरानों की स्थापना में भी बंदिशों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। भिन्न-भिन्न प्रकार की बंदिशों के आधार पर ही अलग-अलग घरानों का विकास हुआ। पखावज वादन के क्षेत्र में अलग-अलग घरानों में अलग-अलग तरह के वर्णों से निर्मित बंदिशें बजती रही हैं, जिससे उन घरानों को सहजतापूर्वक पहचानने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए कुदऊ सिंह की परंपरा में क्लिष्ट और ज़ोरदार वर्णों से निर्मित लंबी-लंबी परणों का प्रयोग बहुतायत में होता है। इसके विपरीत नाना पानसे की परंपरा में अपेक्षाकृत मुलायम और आसानी से द्रुत लय में बजने वाले बोलों का प्रयोग हुआ। इस परंपरा की बंदिशों में पखावज, तबला और कथक नृत्य का सामीप्य भी दिखता है। इसी प्रकार रायगढ़ घराने की बंदिशों में ध्वन्यांकित वर्णों और प्रकृति चित्रण से जुड़ी बंदिशों पर अधिक ध्यान दिया गया। श्रीनाथ द्वारा परंपरा में भी कर्णत्रिय, मधुर बंदिशों के साथ-साथ कवित्त और स्तुति परणें रची गईं। स्वामी रामशंकर दास ‘पागल दास’ ने अवधी घराना नामक एक अन्य घराने की नींव डालकर पखावज, तबले और नृत्य के लिए उपयोगी सैकड़ों बंदिशों की रचना करके पखावज के भंडार को समृद्ध किया है। उनकी विभिन्न प्रकार की रचनाओं में आदेशी परण, सार्थक परण, बोल परण और कवित्त तथा स्तुति परण आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार पं. सुरेश तलवलकर पखावज वादकों की परंपरा से आने वाले आधुनिक युग के श्रेष्ठ ताबलिक हैं। इन्होंने दक्षिण भारतीय लयों, लयकारियों और ताल पद्धतियों का गंभीर अध्ययन करके तबले और पखावज को नयी भाषा और परिभाषा दी है। इनके द्वारा रचित बंदिशों में गणितीय चमत्कार के दर्शन होते हैं। इस तरह से स्पष्ट होता है कि पखावज में अनेक तरह की बंदिशें बजती हैं, जैसे- ठेकों के प्रस्तार, रेले, यति, गति वाले बोल, विभिन्न प्रकार की परणें, कवित्त और स्तुति परण आदि।

इसी प्रकार की शैलीगत विविधताएँ तबले की बंदिशों में भी प्रचुर मात्रा में पायी जाती हैं। दिल्ली बाज (वादन शैली/घराना) में पेशकार, बराबर की लय के एक वर्णीय कायदे, छोटे-छोटे रेले और गत जैसी बंदिशें रची गई थीं, तो अजराड़ा घराने में त्र्यस्त्र जाति के कायदों पर काफी काम हुआ। दिल्ली का बंद बाज लखनऊ आकर नृत्य की संगत करते-करते खुल गया। चाँटी का स्थान लव ने ले लिया। किनार, लव और स्याही के बोलों की प्रधानता बढ़ी। कायदों, रेलों और गतों के साथ-साथ गत-कायदा, गत-टुकड़े और गत-परण जैसी बंदिशें लखनऊ के ताबलिकों द्वारा रची गईं।

फर्रूखाबाद घराने के ताबलिकों ने पेशकार के साथ-साथ चलन अर्थात चाला को विकसित किया। रेला के अंतिम चरण को ‘ौौ’ के रूप में तैयार किया। गतों पर जितना काम फर्रूखाबाद घराने में हुआ, उतना किसी भी अन्य घराने में नहीं। अपनी इन विशिष्ट बंदिशों के कारण ही फर्रूखाबाद घराना अपना चतुर्दिक विस्तार कर पाया। तबले का बनारस और पंजाब घराना पखावज का प्रभाव लेकर विकसित हुआ। पंजाब घराने के कायदों में भी परणों के वर्ण मिल जाते हैं। यद्यपि पंजाब घराने में शुरूआत में कायदों का प्रचलन नहीं था, किंतु कालांतर में पंजाब घराने में भी कायदों का प्रयोग होने लगा। पंजाबी गतों के साथ-साथ दुधारी, तिधारी और चौधारी गतों का निर्माण पंजाब में हुआ। बनारस के तबले में उठान, बाँट और लय बाँट तथा गतों की जगह फर्द को वरीयता दी गई। रेला कायम करके उनमें परणें, गत, फर्द बजाने का सिलसिला भी बनारस से ही शुरू हुआ। हिंदू देवी-देवताओं पर आधारित कवित्त और स्तुति परणें भी बनारस में बजने लगीं। इन सभी विशिष्ट बंदिशों के प्रभाव से तबले का संसार शेष सभी वाद्यों से अधिक समृद्ध और क्षमतावान बन गया।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इन घरानों-बाजों की रचना मुख्यत: 18 वीं शताब्दी में हुई थी, जबकि आज हम 21 वीं शताब्दी में प्रवेश कर चुके हैं। आज के कलाकार घरानागत बंधनों और संकीर्णताओं से मुक्त

चित्र 3.2 - पखावज वादन करते हुए कलाकार

हो चुके हैं। अब वे अपने वादन को और अधिक रोचक तथा सफल एवं समृद्ध बनाने के उद्देश्य से अन्य घरानों, परंपराओं और गुरूओं की विशिष्ट बंदिशों को भी अपने वादन में स्थान देने लगे हैं।

  1. अवधी घराने के प्रमुख कौन थे?
  2. तबले के कितने घराने हैं?
  3. किस घराने में तिस्त्र जाति कायदा अधिक बजाया जाता है?
  4. घरानों का विकास मुख्यत: किस शताब्दी में हुआ?

पखावज के संदर्भ में बात करें, तो ठेकों का प्रस्तार, पड़ाल, विभिन्न वर्णों से निर्मित तरह-तरह के रेलों और विभिन्न प्रकार के परणों का वादन करके ही वादक अपने सुधि श्रोताओं को घंटों रस-विभोर कर देते हैं, अन्यथा एक ही प्रकार की बंदिशें बजाकर वह भी ऊब जायेगा और उसके श्रोता-दर्शक भी। अलग-अलग तरह की बंदिशों को बजाते हुए वादक अपने वाद्य से विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का उतार-चढ़ाव भी दिखाते हैं, क्योंकि हर बंदिश में पिरोये गए अलग-अलग वर्ण अलग-अलग प्रकार की ध्वनियों को उत्पन्न करते हैं। जिस तरह से अलग-अलग रंग के फूलों को मिलाकर एक बहुंगी और सुंदर पुष्पगुच्छ तैयार किया जाता है, उसी तरह से भिन्न-भिन्न तरह की ध्वनियों वाले वर्णों को मिलाकर एक सुंदर बंदिश तैयार की जाती है।

यही बात तबले की बंदिशों पर भी चरितार्थ होती है। अगर दिल्ली के पेशकार के बाद फर्रूखाबाद का एक चलन, दिल्ली के बराबर लय के एक कायदे के बाद अजराड़ा का आड़ी लय का एक कायदा, फिर बनारस का एक लय बाँट, उसके बाद अलग-अलग वर्णों से निर्मित कुछ रेले, फिर रौ आदि का वादन सही ढंग से कलाकार करें, तो कार्यक्रम की सफलता अवश्यंभावी है। आज के लगभग सभी कलाकार घरानों की सीमा-रेखा पार करके समग्रता में जीना चाहते हैं और संपूर्णता को पाना चाहते हैं। इसीलिए वे हर घराने की सुंदर और विशिष्ट रचनाओं का वादन करना आवश्यक मानते हैं। ऐसा करना कलाकार के लिए मंचीय सफलताओं और व्यावसायिक

चित्र 3.3 - खोल एवं नक्कारा बजाते हुए बाल कलाकार

उपलब्धियों के लिहाज से आवश्यक है। लय वैचित्र का परिचय देने के लिए अजराड़ा के कलाकारों द्वारा प्रचलित किये गए तिस्त्र जाति के कायदों को बजाना सभी पसंद करते हैं। लखनऊ, बनारस और पंजाब के कलाकारों द्वारा निर्मित विभिन्न प्रकार की अविस्तारशील रचनाएँ— विभिन्न प्रकार की गतें, तरह-तरह के टुकड़े, परण और फर्द आदि का वादन करके सभी अपने विस्तृत ज्ञान का परिचय देना चाहते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि आज खुले और बंद बाज के बीच की दूरियाँ लगभग समाप्त हो गई हैं और इसमें सबसे बड़ी भूमिका बंदिशों की है। इन विशिष्ट बंदिशों के सौंदर्य से आकर्षित होकर ही एक घराने के कलाकारों ने दूसरे घरानों की ओर देखना शुरू किया है। अगर कलाकार सतर्कता और विवेकपूर्वक बंदिशों का चयन करें, तो घंटों तक अपने सुधी श्रोताओं को अपने वादन से आनंद-विभोर कर सकते हैं।

इससे यह सुस्पष्ट होता है कि विभिन्न प्रकार की बंदिशों से जहाँ एक ओर कलाकारों की विद्वता सिद्ध होती है, वहीं दससरी ओर कार्यक्रमों में विविधता बनी रहने से उनमें निरंतर आकर्षण का भाव पैदा होता रहता है, साथ ही कार्यक्रमों का स्तर भी उच्च बना रहता है। इस तरह कला तथा कलाकार दोनों के उच्च स्तर और लोकप्रियता को बचाये और बनाये रखने में भी बंदिशों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

  1. भिन्न-भिन्न वर्णों से मिलाकर क्या तैयार किया जाता है?
  2. दिल्ली घराने में तबला/वादन किससे प्रारंभ किया जाता है?
  3. एक अविस्तारशील बंदिश बताएँ?

उठान

‘उठान’ शब्द का अर्थ है — उठना अथवा प्रारंभ करना। बनारस घराने के ताबलिक अपने वादन का आरंभ पेशकार के विपरीत उठान से करते हैं। उठान से ही इसका आकलन हो जाता है कि वादक कितना परिकल्पनाशील, लयदार और तैयार है। उठान मूलत: टुकड़ा और परण जैसी रचना होते हुए भी इस अर्थ में इनसे भिन्न होता है कि इस एक रचना में कई प्रकार की लयकारियों का समावेश होता है। प्राय: विलंबित लय से शुरू करके चौगुन, अठगुन लय तक में इसका वादन होता है। इसके बोल खुले और ज़ोरदार होते हैं और इसके अंत में एक तिहाई भी होती है।

त्रिताल में एक उठान

48 मात्राओं का यह उठान तीनताल और बिना किसी परिवर्तन के एकताल में भी बजाया जा सकता है।

चक्रदार

जब कोई छोटा-सा बोल तीन बार बजता है, तो तिहाई कहलाता है, किंतु जब कोई बड़ा और संपूर्ण बोल- जिसके अंत में तिहाई भी हो — को पूरा-पूरा तीन बार बजाया जाता है, तो उसे चक्रदार कहा जाता है। चक्रदार के अंतर्गत गत, टुकड़े, परण और तिहाई आदि जैसी अनेक रचनाएँ आती हैं। किसी टुकड़े को अंतिम ‘धा) सहित पूरा-पूरा तीन बार बजाने से वह चक्रदार टुकड़ा होगा और परण को तीन बार बजाने पर वह चक्रदार परण कहलाता है। प्रस्तुत है एक चक्रदार टुकड़ा, जो बिना किसी परिवर्तन के त्रिताल और झपताल में बज सकता है।

त्रिताल में चक्रदार ढुकड़ा


  1. उठान प्रमुखता से किस घराने में बजाया जाता है?
  2. बनारस घराने में तबला वादन कौन-सी बंदिश से प्रारंभ किया जाता है?
  3. 48 मात्रा की उठान किस-किस ताल में बजायी जा सकती है?
  4. ताल की पहली मात्रा क्या कहलाती है?
  5. किसी बोल के समूह को कितनी बार बजाने पर वह चक्रदार कहलाएगा?

परण

परण या परन मूलत: पखावज का बोल होते हुए भी आज न केवल तबला, बल्कि कथक नृत्य के साथ भी जुड़ गया है। चूँकि यह पखावज की बंदिश है, अत: स्वाभाविक रूप से इसमें गंभीर, खुले और ज़ोरदार बोलों का प्रयोग होता है। यह टुकड़े की तरह की रचना होते हुए भी आकार-प्रकार में टुकड़े से बड़ा होता है। इसके बोल प्राय: दोहराते हुए चलते हैं और इसके अंत में आवश्यक रूप से तिहाई होती है। धागतेटे, तागेतेटे, क्रिधातेटे, धेटेधेटे, धुमकिटतक, धिलांग आदि जैसे बोलों का इसमें खूब प्रयोग होता है।

त्रिताल में परण ( रचनाकार — गुरू पुरूषोत्‍तम दास जी )

सरस्वती परण - चौताल (स्वामी पागल दास रचित)

जयति जयति जय मातु सरस्वती

चम चम चंद्र मुकुट सोहत अति

कर बाँधे सुर विनय करते। ले मृदंग धग धगेऽ दिगन धाऽ

वीन पाणि धारे - वीन पाणि धारे वीन पाणि धा रे

परण भारत माता

तुंडगथा उलहिम गिरीविशा ऽलचम। कततुषा उकर मुकुटमं ऽजूफह। रतश्याऽ मलअंड चलअमं ऽगनित। धोवतच रणयुग अगमसिं उ्धुअति। पावनध रणीजग तारणत रणीरिपु। दलनीदु: खहरणी मंगलक रणीभाऽ। रतमाऽ ताऽमाऽ ताऽमाऽ रतमाऽ। ताऽमाऽ ताऽमाऽ रतमाऽ ताऽमाऽ। ता

पेशकार

पेशकार फ़ारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है — पेश करने वाला। यह कायदे की तरह की एक रचना होती है, जिसका पलटों के माध्यम से विस्तार भी किया जाता है और जिसके अंत में एक तिहाई भी होती है। फिर भी कायदा और पेशकार में बहुत अंतर है। कायदे की कठोर नियमबद्धता पेशकार में नहीं होती है। इसका वादन मध्य लय की डगमगाती हुई चाल में होता है। कायदे के समान इसका ठाह दुगुन, चौगुन नहीं किया जाता है, किंतु विस्तार करते समय विभिन्न प्रकार की लयकारियों में गुँथे हुए बोलों का बीच-बीच में वादन ज़रूर होता है। कुछ लोग इसको फर्श बंदी भी कहते हैं, पर दोनों का अर्थ एक ही है। दिल्ली, अजराड़ा, लखनऊ, फर्रुखाबाद और पंजाब घराने में स्वतंत्र तबला वादन का आरंभ पेशकार से ही होता है। कुशल तबला वादक पेशकार वादन के बीच में ही आगे बजने वाले बोलों की झलक भी दिखा देते हैं। प्रस्तुत है, त्रिताल का एक प्रसिद्ध पेशकार -

बाँट

बाँट का अर्थ है — बाँटना या विभाजित करना। बाँट वस्तुतः कायदे की तरह की ही एक रचना होती है, जिसे विभिन्न प्रकार से बाँटा जाता है। यहाँ बाँटने से तात्पर्य उसका विस्तार करने से है। बाँट का विस्तार मुख्यतः दो प्रकार से होता है — बोल बाँट और लय बाँट। बोल बाँट में बोलों के आधार पर उसका विस्तार होता है, जबकि लय बाँट में लय के आधार पर। बाँट की मुख्य विशेषता यह होती है कि उसके समापन भाग में एक रेला भी जुड़ा हुआ होता है। बनारस घराने का एक मशहूर बाँट है -

फर्द

फर्द, फरद या इक्कड़ की गणना तबला वादन की विशिष्ट और दुर्लभ रचनाओं में होती है। इस अविस्तारशील रचना के वर्ण खुले और ज़ोरदार होते हैं। टुकड़े-परण के अंत में एक तिहाई होती है, जो फर्द में नहीं होती है। इस रचना प्रकार का समापन प्राय: धिरधिर किटितक या इससे मिलते-जुलते वर्णों से होता है। पुराने समय के विद्वान कलाकार जब किसी नये बोल की रचना करते थे, तो प्राय: उसका जोड़ा भी बनाते थे, किंतु फर्द या इक्कड़ का शाब्दिक अर्थ है अकेला। अतः इसी अर्थ में फर्द की रचनाएँ बेजोड़ और अनूठी मानी जाती हैं। इसकी रचना का श्रेय बनारस घराने के कलाकारों को है।

त्रिताल में एक फर्छ (रचनाकार - पं. भैरव सहाय)

विभिन्न प्रकार की गतें

तबले की प्रमुख रचनाओं में एक महत्वपूर्ण नाम है — गत। गत में एक प्रकार की गेयता, गीतात्मकता और गतिशीलता होती है। पुराने विद्वानों ने गत को तबले की शायरी कहा है। तबले की रचना होने के कारण इसमें स्वाभाविक तौर पर तबले के मुलायम, खूबसूरत और कर्णप्रिय वर्णों का प्रयोग होता है। गत सामान्यत: टुकड़े की तरह का बोल होता है, किंतु टुकड़े और गत में काफी भिन्नताएँ हैं। सबसे बड़ी भिन्नता यह है कि इसमें सामान्यत: टुकड़े की तरह तिहाई नहीं होती है। गत के दो भाग होते हैं — खुले और बंद। गत का वादन ठाह और दुगुन होता है। खाली के स्थान पर बंद बोलों का प्रयोग होता है, किंतु वह भरी की खाली नहीं होती है। अनेक गतियों में वादन गत की प्रमुख विशेषता है। लेकिन, गत का पलटों के माध्यम से विविध विस्तार नहीं होता है। तबला वादन में गत वादन का विशिष्ट स्थान होता है। गतों के स्तर से ताबलिक के स्तर का भी आकलन हो जाता है। गत की एक विशेषता यह भी है कि यह सम के ठीक पहले समाप्त होती है, ताकि सम से इसका अगला भाग आरंभ हो सके।

त्रिताल में एक गत (रचनालाकार - उ. सलारी खाँ)

इसे विलंबित लय में खाली से प्रारंभ किया जाएगा-

दोपल्ली गत

दोपल्ली अर्थात दो भागों वाला। जब किसी एक ही गत के मूल बोलों को दो अलग-अलग लयों में क्रमशः एक के बाद एक प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे दोपल्ली गत कहा जाता है।

त्रिताल में एक पारंपरिक दोपल्ली गत

तिपल्ली गत

जब किसी एक ही गत में, उन्हीं बोल समूहों को तीन अलग-अलग लयों में प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे तिपल्ली गत कहा जाता है।

त्रिताल में एक तिपल्ली गत

लग्गी एवं लड़ी

लग्गी-लड़ी भारतीय उपशास्त्रीय और सुगम संगीत में तबले पर बजाये जाने वाली एक महत्वपूर्ण रचना है। जिस तरह तीनताल, झपताल, एकताल आदि तालों में कायदे का प्रयोग होता है, उसी प्रकार कहरवा, दादरा, दीपचंदी आदि समान प्रवर्ती की तालों में लगी एवं लड़ी का प्रयोग होता है। इसका विस्तार कायदे की तुलना में ज्यादा स्वतंत्रता से किया जाता है।

लग्गी का एक अंश या एक छोटा भाग जब द्रुत गति से रेले के समान बजाया जाता है, तो उसे लड़ी कहते हैं। लड़ी का अर्थ है माला, जैसे- मोती या फूलों की लड़ी (माला)।

कहरवा ताल में एक लग्गी

दादरा ताल में एक लग्गी


  1. पुराने विद्वानों ने गत को तबले की क्या कहा है?
  2. दोपल्ली में कितने लय का प्रयोग होता है?
  3. जिसमें तीन लय का प्रयोग हो, उसे क्या कहते हैं?
  4. मुलायम, कर्णप्रिय और खूबसूरत बोलों के प्रयोग से क्या बनता है?
  5. गत किस वाद्य पर बजाया जाता है?
  6. गत में तीन अलग-अलग लय का प्रयोग करने पर वह क्या कहलाएगी?
  7. लगी-लड़ी का प्रयोग कहाँ किया जाता है?

अभ्यास

रिक्त स्थान की पूर्ति कीजिए।

1. पेशकार ___________________ भाषा का शब्द है। (फ़ारसी, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू)

2. परण मूलत: ___________________ से संबंधित है। ( ढोलक, दुक्कड़, पखावज, तबला)

3. परण के बोल ___________________ चलते हैं। (गंभीर, तिहराते, दोहराते, कोई नहीं)

4. अविस्तारशील रचना को ___________________ कहते हैं। (कायदा, फर्द, बाँट, पेशकार)

5. बाँट के ___________________ प्रकार होते हैं। (दो, तीन, चार, असंख्य)

6. कायदा के समान ___________________ का ठाह दुगुन-चौगुन नहीं होता। (रेला, गत, पेशकार, बाँट)

सही और गलत बताइए -

1. उठान तबले पर बजाया जाता है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

2. पेशकार पखावज पर बजाया जाता है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

3. उठान शब्द का अर्थ बैठना है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

4. चक्रदार परण तबला और पखावज दोनों पर बजाया जा सकता है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

5. एक मात्रा-काल में चार मात्रा बोलना चौगुन कहलाता है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

6. पखावज और तबला अवनद्ध वाद्य के अंतर्गत आता है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

सुमेलित कीजिए -

1. दिल्ली $ \qquad $ $ \qquad $ (क) छयस्त्र (तिठ्ठ)

2. अजराड़ा $ \qquad $ $ \qquad $ (ख) चलन

3. फर्रूखाबाद $ \qquad $ $ \quad $ (ग) परण

4. पखावज $ \qquad $ $ \qquad $ (घ) पेशकार

5. गत-फर्द $ \qquad $ $ \qquad $ (च) लय-बाँट

6. बनारस $ \qquad $ $ \qquad $ (छ) तबला

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

1. अवनद्ध, घन, सुषिर और तत् वाद्य के दो-दो उदाहरण लिखें?

2. स्वतंत्र वादन से आप क्या समझते हैं?

3. बंदिश को परिभाषित करते हुए इसके प्रकारों का उल्लेख करें?

4. संगीत में बंदिशों के महत्व को बताएँ?

5. घरानों का बंदिशों से क्या संबंध है?

6. कुदऊ सिंह और नाना पानसे की वादन शैली का प्रमुख अंतर स्पष्ट करें?

7. दिल्ली और बनारस घराने की प्रमुख वादन विशेषताएँ बताएँ?

8. गत कितने प्रकार की होती है, उनके नाम लिखें?

9. खुले बाज और बंद बाज में अंतर स्पष्ट करें?

10. वर्तमान समय में घरानों की शुद्धता पर अपना सुझाव दें?

11. उठान किसे कहते हैं?

12. चक्रदार को परिभाषित करें?

13. उठान के बोल कैसे होते है?

14. चक्रदार के अंतर्गत कौन-कौन सी बंदिशें आती हैं?

15. गत को परिभाषित करें।

16. दोपल्ली गत किसे कहते हैं?

17. तिपल्ली गत की क्या विशेषता है?

18. पेशकार की परिभाषा लिखें?

19. त्रिताल में एक गत लिखें।

20. परण और पखावज में क्या संबंध है?

21. पेशकार किसे कहते हैं?

22. बाँट और कायदा में अंतर स्पष्ट करें?

23. फर्द को परिभाषित करें।

24. तीनताल में एक फर्द लिपिबद्ध करें।

25. परण में किस तरह के बोलों का चयन होता है?

परियोजना

1. अपने प्रिय तबला वादक की वादन शैली एवं विशेषता पर प्रकाश डालिए?

2. तबला/पखावज वादन का कोई कार्यक्रम (ऑनलाइन/ऑफ़लाइन) सुनकर/देखकर अपने शिक्षक की सहायता से उस पर एक परियोजना तैयार कीजिए।

3. अवनद्ध वाद्य बनाने वाले कारीगर से चर्चा कर, शिक्षक की सहायता से निर्माण विधि पर एक परियोजना तैयार कीजिए।

4. तीनताल में विभिन्न प्रकार की गतों (नोटेशन एवं ताली-खाली सहित) को लिखने का अभ्यास करें, जैसे- सामान्य गत, दोपल्ली गत, तिपल्ली गत।

5. तीनताल में पेशकार या बाँट लिखते हुए उसका छह विस्तार और तिहाई लिखने का अभ्यास करें।

6. तबला/पखावज की शिक्षोपरात रोज़गार से संबंधित संभावनाओं पर एक पावर प्वाइंट प्रस्तुतीकरण (पी.पी.टी.) बनाएँ, जिसे टी.वी., कंप्यूटर, प्रोजेक्टर इत्यादि पर दिखलाया/ समझाया जा सके।



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