अध्याय 02 संगीत लिपि पद्धति का संक्षिप्त इतिहास
प्राचीन काल में जब संगीत का विकसित रूप समाज में प्रचलित हुआ, उसके बहुत बाद इसके शास्त्र पक्ष का लेखन भी आरंभ हुआ। भरत कृत नाट्यशास्त्र वह प्राचीन ग्रंथ है जिसमें संगीत के शास्त्र की महत्वपूर्ण चर्चा की गई है। नाट्यशास्त्र में वर्णित पाँच मार्गी तालों के स्वरूप को दर्शाने के लिए लघु, गुरू, प्लुत आदि जैसे चिह्रों का प्रयोग किया जाता था, जिसे ताल-लिपि पद्धति का आरंभिक स्वरूप माना जा सकता है। नाट्यशास्त्र के पश्चात भी इस दिशा में प्रयास होते रहे, जिनमें मुख्य रूप से बृहद्देशी मतंग तथा संगीत रत्नाकर के रचयिता शारंगदेव का योगदान उल्लेखनीय है।
आधुनिक काल अर्थात 18-19वीं शताब्दी में मौलाबख्शा, सौरेंद्र मोहन टैगोर, डाह्यालाल शिवराम आदि ने संगीत लिपिबद्ध करने के लिए नव-नवीन पद्धतियाँ अपनायीं।
19 वीं शताब्दी में दो महान विभूतियों का जन्म हुआ, जिन्हें हम पं. विष्णु नारायण भातखंडे तथा पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर के नाम से जानते हैं। इन दोनों विभूतियों ने महसूस किया कि शास्त्रीय संगीत की शिक्षा सर्वसामान्य को सहज रूप में उपलब्ध नहीं है। अत: पं. विष्णु नारायण भातखंडे ने विभिन्न विद्वानों और संगीत प्रेमी पूँजीपतियों की मदद से बड़ौदा, ग्वालियर, लखनऊ आदि स्थानों पर संगीत की विद्यालयीन शिक्षा का सूत्रपात किया, वहीं दूसरी ओर पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने लाहौर में 1901 में गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना कर संगीत शिक्षण को आम लोगों के लिए सुलभ कराया।
इन दोनों संगीतोद्धारक विभूतियों ने इस बात को समझा कि विद्यालयीन शिक्षा में संगीत सिखाते समय सहज और सरल संगीत लिपि आवश्यक होगी। विष्णु द्यय ने अपने-अपने तरीके से संगीत लिपियों का प्रचार एवं प्रसार किया जिनमें से पं. विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा निर्मित संगीत पद्धति को भातखंडे स्वर/ताल लिपि पद्धति तथा पलुस्कर जी द्वारा प्रणीत पद्धति को पलुस्कर स्वर/ताल लिपि पद्धति कहा गया।
इनमें से भातखंडे संगीत लिपि पद्धति सहज और सरल होने के कारण ज्यादा प्रचलित हुई। पलुस्कर जी के दो प्रसिद्ध शिष्यों, पं. ओंकारनाथ ठाकुर तथा पं. विनायक राव पटवर्धन ने पलुस्कर संगीत लिपि पद्धति में अपनी दृष्टि से कतिपय परिवर्तन कर प्रकाशित पुस्तकों में उन लिपियों का उपयोग किया। इसके बाद पद्म भूषण पं. निखिल घोष ने भी एक संगीत लिपि पद्धति का निर्माण किया, वहीं 20 वीं शताब्दी के श्रेष्ठ तबला वादक उस्ताद अहमद जान थिरकवा के वरिष्ठ शिष्य पं. नारायण जोशी ने तबले की रचनाओं को उनके निकास संबंधी चिह्नों का प्रयोग करते हुए एक लिपि बनायी।
जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि पं. विष्णु नारायण भातखंडे के सद्प्रयासों से विभिन्न स्थानों पर संगीत विद्यालयों/महाविद्यालयों का प्रारंभ हुआ जिनकी एक लंबी भृंखला बनी। इनमें भातखंडे जी के द्वारा रचित ग्रंथों क्रमिक पुस्तक मालिका (भाग 1-6), हिंदुस्तानी संगीत, लक्षण गीत संग्रह इत्यादि ग्रंथों का प्रचलन शिक्षण प्रदान करने में सहायक हुआ। अतएव भातखंडे स्वर/ताल लिपि पूरे देश में अधिक प्रचलित हुई।
भातखंडे ताल-लिपि पद्धति
प्रमुख चिह्नों का परिचय
क्रम सं. | नाम | चिह्न |
---|---|---|
1. | सम | $\times$ |
2. | ताली | ताली की संख्या - $2,3,4,5 \ldots$ |
3. | खाली | $\mathrm{O}$ |
4. | विभाग | | (खड़ी पाई) |
5. | मात्रा | इस चिह्न के अंतर्गत जितने भी बोल/स्वर होंगे, उन्हें एक मात्रा में बोलना/कहना होगा। |
6. | अवग्रह | 5 विश्राम हेतु |
पं. विष्णु नारायण भातखंडे का जीवन परिचय
चित्र 2.1- पं. विष्णु नारायण भातखंडे
पं. विष्णु नारायण भातखंडे का जन्म 10 अगस्त, 1860 को वालकेश्वर, मुंबई में हुआ। बचपन से ही उन्होंने संगीत गायन और बाँसुरी में महारत हासिल कर ली थी। बाद में उन्होंने सितार वादन की शिक्षा प्राप्त करना भी प्रारंभ किया और एक कुशल सितार वादक के रूप में लोकप्रिय हुए। बी.ए. तथा एल.एल.बी. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर पं. भातखंडे जी ने कराची में वकालत प्रारंभ की। इन सबके बीच भी संगीत से उनका अटूट नाता बना रहा।
पं. भातखंडे जी ने इस विचार से कि, “केवल श्रव्य रूप में उपलब्ध होने के कारण प्राचीन बंदिशों का लोप होता जा रहा है’, इन प्राचीन बंदिशों को संरक्षित एवं संग्रहित करने के उद्देश्य से एक संगीत लिपि का निर्माण किया जिसके आधार पर वे उस्तादों की बंदिशों को सुनकर लिपिबद्ध कर लेते थे तथा उन्हें यथावत प्रस्तुत करने की क्षमता रखते थे। 1909 में उन्होंने श्रीमल्ललक्ष्य संगीतम् तथा हिंदुस्तानी संगीत का प्रथम भाग प्रकाशित किया। तत्पश्चात स्वरचित लक्षणगीतों का एक संग्रह प्रकाशित कराया। उनके सद्प्रयासों से बड़ौदा में एक संगीत विद्यालय की स्थापना हुई। पं. भातखंडे के सहयोग से ही ग्वालियर नरेश ने 1918 में ‘माधव संगीत विद्यालय’ की स्थापना की। 1926 में अनेक संगीत प्रेमियों के सहयोग से लखनऊ में ‘मैरिस कॉलेज ऑफ़ हिंदुस्तानी म्यूज़िक’ के नाम से एक शिक्षण संस्थान प्रारंभ हुआ जो आज ‘भातखंडे संस्कृति विश्वविद्यालय’ के रूप में संचालित हो रहा है। संगीत विचारक, उद्धारक तथा संगीत के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाली इस महान विभूति ने मुंबई में सन 1936 में अपनी अंतिम साँस ली।
पलुस्कर ताल-लिपि पद्धति
प्रमुख चिहों का परिचय
क्रम सं. | नाम | चिह्न |
---|---|---|
1. | सम | 1 |
2. | ताली | ताली की संख्या – 2, 3, 4… |
3. | खाली | + |
4. | विभाग | कोई चिह्न नहीं |
5. | मात्रा के चिह्न | $1 / 4$ मात्रा अर्द्धमात्रा $\mathrm{O}$ एक मात्रा - दो मात्रा चार मात्रा $\quad$ |
6. | आवर्तन की पूर्णता हेतु | $| $ |
ताल की दुगुन, तिगुन तथा चौगुन लयकारी लिखने की पद्धति
श्रिताल (तीनताल)
त्रिताल अथवा तीनताल तबले का सर्वाधिक महत्वपूर्ण, लोकप्रिय एवं प्रचलित ताल है। शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और फिल्म संगीत में इसका प्रयोग होता है। यह उन गिने-चुने तालों में से है जिसका प्रयोग विलंबित से द्रुत लय तक में होता है। तिलवाड़ा, पंजाबी अद्धा एवं जत (16 मात्रा) आदि ताल भी त्रिताल के ही प्रकार हैं। दक्षिण भारत का आदिताल और उत्तर भारत का त्रिताल कई दृष्टि से समान हैं। दोनों ही अत्यंत प्राचीन ताल हैं। त्रिताल में 16 मात्राएँ होती हैं जिसमें चार विभाग और प्रत्येक विभाग $4 / 4 / 4 / 4$ मात्राओं में विभाजित होता है। अत: यह समपदी ताल है। इसमें पहली, पाँचवी और 13 वीं मात्रा पर ताली तथा नौवीं मात्रा पर खाली होती है। यह चतुरस्त्र जाति का ताल है। एकल वादन के लिए यह सर्वाधिक लोकप्रिय है।
मात्रा | 1 2 3 4 | 5 6 7 8 | 9 10 11 12 | 13 14 15 16 | 1 |
ताल के बोल | धा धिं धिं धा | धा धिं धिं धा | धा तिं तिं ता | ता धिं धिं धा | धा |
ताल-चिह्न | $\times$ | 2 | 0 | 3 | $\times$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
एक्ताल
एकताल तबले का अत्यंत लोकप्रिय और प्रचलित ताल है। यह चतुरस्त्र जाति का समपदी ताल है। इसका प्रयोग विलंबित, मध्य एवं द्रुत लय के खयाल एवं गत की संगत के लिए किया जाता है। तबले का एकल वादन भी इसमें होता है। इसके विभाग $2 / 2 / 2 / 2 / 2 / 2$ मात्राओं के होते हैं। इसमें 12 मात्रा, छह विभाग, चार ताली और दो खाली होती है। इसकी तालियाँ क्रमश: पहली, पाँचवीं, नौवीं तथा 11 वीं मात्राओं पर होती हैं। तीसरी तथा सातवीं मात्रा पर खाली होती है।
मात्रा | 1 2 | 3 4 | 5 6 | 7 8 | 9 10 | 11 12 | |
ताल के बोल | धिं धिं | धागे तिरकिट | तू ना | कत् ता | धागे तिरकिट | धिं ना | धिं |
ताल-चिह्न | $\times$ | 0 | 2 | 0 | 3 | 4 | $\times$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
- किस प्राचीन ग्रंथ में संगीत शास्त्र की महत्वपूर्ण चर्चा की गई है?
- संगीत विषय को विद्यालय एवं महाविद्यालय में प्रारंभ करने का श्रेय किसे जाता है?
- निम्नलिखित में से किसने संगीत ताल-लिपि पद्धति का प्रयोग नहीं किया है?
- 5 चिह्न क्या दर्शाता है?
- धिं धिं धागे तिरकिट तू ना $\mid$ क त्ता धागे तिरकिट धिंना $\mid$ कौन-सी लय को दर्शाता है?
झपताल
झपताल एक अत्यंत लोकत्रिय और प्रचलित ताल है। यह खंड जाति का ताल है। इसका प्रयोग विलंबित और मध्य लय के खयाल एवं गतों की संगत के लिए किया जाता है। सादरा गायन शैली की संगत भी झपताल द्वारा ही होती है। तबले का एकल वादन भी इसमें होता है, इसके विभाग $2 / 3 / 2 / 3$ के होने के कारण यह विषमपदी ताल हुआ। इसमें दस मात्राएँ, चार विभाग, तीन तालियाँ क्रमश: पहली, तीसरी, आठवीं मात्राओं पर होती हैं तथा एक खाली छठवीं मात्रा पर होती हैं।
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 8 | 10 | |
ताल के बोल | धी | ना | धी | धी | ना | ती | ना | धी | धी | ना | धी |
ताल-चिह्न | $\times$ | 2 | 0 | 3 | $\times$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
रूपक
रूपक ताल तबले का लोकप्रिय और प्रचलित ताल है। इसका प्रयोग शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, तथा सुगम संगीत में किया जाता है। मध्य लय और विलंबित लय का खयाल गायन भी इसमें प्रचलित है। गीत, भजन, गज़ल एवं तंत्री तथा सुषिर वाद्यों की संगत के लिए भी इसका प्रयोग होता है। तबले का स्वतंत्र वादन भी इसमें प्रचलित है। यह विलंबित और मध्य लय का ताल है। द्रुत लय
में इसका वादन उचित नहीं माना जाता है। पखावज का तीव्रा ताल और कर्नाटक संगीत का तिश्र जाति — त्रिपुट ताल इसके सदृश हैं। इसमें विभाग $3 / 2 / 2$ के होने के कारण यह मिश्र जाति का विषमपदी ताल हुआ। यह एकमात्र ऐसा ताल है जिसके सम पर खाली है। इसीलिए इसे इस तरह लिखना उचित होगा—
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | |
ताल के बोल | तीं | तीं | ना | धीं | ना | धीं | ना | ती |
ताल-चिह्न | $\otimes$ | 2 | 3 | $\oplus$ |
इसकी प्रथम मात्रा पर खाली और चौथी तथा छठवीं मात्रा पर ताली है।
दुगुन
तिगुन
चौगुन
दादराताल
दादरा तबले का अत्यंत लोकप्रिय ताल है। उपशास्त्रीय, सुगम, लोक और फिल्म संगीत में इसका खूब प्रयोग होता है। दादरा, कजरी, भजन और गज़ल तथा लोक गीतों के साथ यह मुख्य रूप से बजाया जाता है। तबले के साथ-साथ ढोलक, नाल, ताशा, नक्कारा, दुक्कड़ आदि वाद्यों पर भी यह ताल खूब बजता है। मूलत: चंचल और भृंगारिक प्रकृति का ताल होने के कारण यह प्राय: मध्य और द्रुत लय में ही बजता है किंतु दादरा ताल की संगत के समय इसकी लय धीमी हो जाती है। इसमें बजने वाली लग्गी लड़ी आकर्षक होती हैं। दादरा ताल में छह मात्राएँ हैं, जो $3 / 3$ मात्राओं के विभाग में बँटी हैं। पहली मात्रा पर ताली और चौथी मात्रा पर खाली है। यह समपदी ताल है। इस ताल की जाति ग्यस्त्र है।
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | |
ताल के बोल | धा | धी | ना | धा | ती | ना | धा |
ताल-चि््न | $\times$ | 0 | $\times$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
कहरवा ताल
उत्तर भारत में कहार नामक एक जाति होती है, इनके द्वारा प्रस्तुत समूह लोक नृत्य को कहरवा नाच कहा जाता है। अत: कहरवा ताल के उद्गम का मूल स्रोत वही है। यह मूलत: लोक संगीत का ताल है जो सुगम संगीत और फिल्म संगीत में भी खूब लोकप्रिय हुआ है। तबले के साथ-साथ ढोलक, ताशा, नक्कारा, नगाड़ा एवं नाल आदि पर भी इसका खूब वादन होता है। अनेक गीत, गजल एवं भजन आदि इस ताल में निबद्ध हैं। यह मूलत: चंचल प्रकृति का और संगत का ताल है। इसमें तबले का स्वतंत्र वादन नहीं होता है। इसकी खूबसूरत किस्में और लगी-लड़ी श्रवणीय होती हैं। यह आठ मात्राओं का समपादी ताल है, जिसके $4 / 4$ मात्राओं के दो विभाग हैं। पहली मात्रा पर ताली और पाँचवों मात्रा पर खाली है। यह चतुस्त्र जाति का ताल है।
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | |
ताल के बोल | धा | गे | न | ति | न | क | धि | न | धा |
ताल-चिह्न | $\times$ | 0 | $\times$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
- झपताल किस जाति का ताल है?
- वह कौन-सी ताल है, जो खाली से आरंभ होती है?
- धा धी ता धा ती ना |धा धी ना था ती ना | धा यह कौन-सी लय दर्शाता है?
- रूपक ताल के ठेके को तिगुन में लिखिए।
पखावज के लिए
चारताल अथवा चौताल
चारताल अथवा चौताल पखावज का अत्यंत लोकप्रिय और प्राचीन ताल है। ध्रुपद गायन, ध्रुपद अंग के वादन तथा पखावज पर मुक्त वादन (solo) के लिए इस ताल का मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है। वर्तमान काल में तबले पर भी इस ताल को बजाने की प्रथा चल पड़ी है और विद्यार्थी तबले पर भी इसको बजाते हैं। यह खुले और जोरददार वादन शैली का समपदी ताल है। इस ताल में कुल 12 मात्राएँ और छह विभाग हैं। चार तालियाँ क्रमश: पहली, पाँचवीं, नौवीं और 11 वीं मात्राओं पर हैं तथा दो खाली तीसरी और सातवीं मात्राओं पर हैं। इसकी जाति चतुस्त्र है।
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | |
ताल के बोल | धा | धा | दिं | ता | किट | धा | दिं | ता | तिट | कत | गदि | गन | धा |
ताल-चिह्न | $\times$ | 0 | 2 | 0 | 3 | 4 | $\times$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
सूलताल
यह पखावज का लोकप्रिय और प्रचलित ताल है। इसका वादन मध्य और द्रुत लय में होता है। ध्रुपद अंग के गायन और वादन के साथ इसका वादन होता है। पखावज पर स्वतंत्र वादन के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। इसके बोल खुले और ज़ोरदार होते हैं। यह चतुरस्त्र जाति का समपदी ताल है। इस ताल में 10 मात्राएँ और पाँच विभाग होते हैं। तीन तालियाँ क्रमश: पहली, पाँचवीं और सातवीं मात्राओं पर होती हैं। दो खाली भी हैं जो कि तीसरी और नौवीं मात्राओं पर होती हैं।
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | |
ताल के बोल | धा | धा | दिं | ता | किट | धा | तिट | कत | गदि | गन | धा |
ताल-चिह्न | $\times$ | 0 | 2 | 3 | 0 | $\times$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
इस ताल का एक और भी ठेका प्रचलित है -
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | |
ताल के बोल | धा | घिड़ | नग | दीं | घिड़ | नग | गद् | दी | घिड़ | नग | धा |
ताल-चिह्न | $\times$ | 0 | 2 | 3 | 0 | $\times$ |
तीव्रायातेवरा
यह पखावज का प्राचीन, महत्वपूर्ण और ऐसा प्रचलित ताल है जो तबला वादकों में भी लोकप्रिय है। तेज गति में बजने के कारण ही इसका नाम तीव्रा पड़ा। ध्रुपद अंग के गायन और वादन की संगत के साथ-साथ एकल वादन के लिए भी इस ताल का चयन किया जाता है। इसके विभाग $3 / 2 / 2$ मात्राओं के हैं। अत: यह मिश्र जाति का विषमपदी ताल हुआ। यह खुले और ज़ोरदार वर्णों से निर्मित ताल है। इसमें सात मात्राएँ, तीन विभाग और तीन तालियाँ क्रमशः पहली, चौथी और छठवीं मात्राओं पर हैं। इस ताल में खाली नहीं है।
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | |
ताल के बोल | धा | दिं | ता | तिट | कत | गदि | गन | धा |
ताल-चिह्न | $x$ | 2 | 3 | $x$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
- चारताल अधिकतर किस गायन शैली के साथ बजाया जाता है?
- सूलताल विशेष रूप से किस वाद्य पर बजाया जाता है?
- यूट्यूब से ध्रुपद/धमार सुनकर समझिए कि विभिन्न तरह के ठेके किस तरह से बजाए गए हैं? दस पंक्तियों में विश्लेषण लिखिए।
धमार ताल
पखावज का यह अत्यंत लोकप्रिय और प्रचलित ताल तबला वादकों और कथक नर्तकों में खूब लोकप्रिय है। 14 मात्रा में निबद्ध होरी गायन की संगत धमार ताल द्वारा ही की जाती है और इसलिए उस गायन शैली को भी धमार कहा जाता है। यह विषमपदी ताल बोलों की दृष्टि से मिश्र जाति का है, जबकि ताल विभाग की दृष्टि से संकीर्ण जाति का। इस पर स्वतंत्र वादन भी खूब होता है। वीणा, सुरबहार, सरोद, सितार और संतूर आदि पर भी धमार अंग की गतें बजती हैं। यह एकमात्र ताल है जिसका सम बायें पर बजता है। इसमें 14 मात्राएँ, चार विभाग, तीन ताली और एक खाली होती है। पहली, छठवीं और 11 वीं मात्रा पर ताली तथा आठवीं मात्रा पर खाली है।
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | |
ताल के बोल | क | धि | ट | धि | ट | धा | ऽ | ग | ति | ट | ति | ट | ता | ऽ | क |
ताल-चिह्न | $\times$ | 2 | 0 | 3 | $\times$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
तिलवाड़ा
यह सोलह मात्रा की ताल है जिसे विलंबित तीनताल भी कहा जाता है। इसमें चार विभाग हैं। हर विभाग में चार-चार मात्राएँ हैं। इसकी ताली पहली, पाँचवीं और 13 वीं मात्रा में लगती है। खाली नौवीं मात्रा में आती है।
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | |
ताल के बोल | धा | तिरकिट | धिं | धिं | धा | धा | तिं | तिं | ता | तिरकिट | धिं | धिं | धा | धा | धिं | धिं | धा |
ताल-चिह्न | $\times$ | 2 | 0 | 3 | $\times$ |
दुगुन
तिगुन
चौगुन
- धमार ताल किस वाद्य पर विशेष रूप से बजाया जाता है?
- तिलवाड़ा ताल में खाली कितने मात्रा पर होती है?
- कधि टिध टधा डग तिट तिट, ताड, यह कौन-सी लय को दर्शाता है?
- होरी गायन किस ताल के साथ किया जाता है?
अभ्यास
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।
1. संगीत का आधुनिक काल __________ शताब्दी को माना जाता है।
2. ताल के ठेके को पूर्ण कीजिए - धिं धिं __________ तिरकिट __________ क त्ता
3. नाट्यशास्त्र में गुरू का मान __________ मात्रा काल का बताया गया है।
4. एकताल में तीसरी एवं सातवीं मात्रा पर __________ होती है।
5. ताल को ठेके को पूर्ण कीजिए- धीना धीधी __________ नाधी धीना
6. पखावज पर . __________ ताल बजाया जाता है।
7. दादरा __________ जाति का ताल है।
8. ताल के ठेके को पूर्ण कीजिए - धा . __________ न ति | न __________ धि न
9. चारताल में __________ विभाग एवं __________ ताली होते हैं।
10. सूलताल में . __________ ताली होती हैं।
11. धा दिं ता तिट कत गदि गन के बोल. __________ ताल के हैं।
12. तीव्रा . __________ और __________ वर्णों से निर्मित ताल है।
परियोजना
1. पं. विष्णु नारायण भातखंडे तथा पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर के छायाचित्र को संकलित कीजिए।
2. तीनताल, एकताल, झपताल, रूपक, दादरा एवं कहरवा ताल के ठेकों को ठाह, दुगुन एवं चौगुन की लय में पढ़ते हुए उसका ऑडियो एवं वीडियो बनाएँ।
3. चारताल, सूलताल, तीव्रा, धमार एवं तिलवाड़ा ताल के ठेकों को ठाह, दुगुन एवं चौगुन की लय में पढ़ते करते हुए उसका ऑडियो एवं वीडियो बनाएँ।
4. यूटूयूब पर प्रचलित लोक संगीत में प्रयुक्त कहरवा एवं दादरा ताल के ठेकों को पहचान कर उनके यूट्यूब लिंक का संकलन कीजिए।
5. शिक्षक की सहायता से विभिन्न तालों के ठेकों को ताली-खाली के साथ पढ़ते हुए यूट्यूब पर अपलोड कीजिए।