अध्याय 01 ताल की अवधारणा तथा संगीत में इसका महत्व

संगीत में समय नापने के साधन को ताल कहते हैं। भारतीय संगीत में ताल कितना महत्वपूर्ण है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि ताल को संगीत का प्राण कहा गया है। केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत ही नहीं, बल्कि सुगम, लोक और फिल्मी संगीत में भी ताल की प्रधानता होती है। भारतीय संगीत में शुरू से ही तालों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जबकि पाश्चात्य संगीत में तालों का नहीं, बल्कि लय के विभिन्न प्रकारों का प्रयोग होता है। संगीत में व्यक्त किए जा रहे भिन्न-भिन्न भावों और रसों की निष्पत्ति में ताल एवं उसकी गतियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। गायन, तंत्र वाद्य, नृत्य सभी ताल की बुनियाद पर ही टिके होते हैं।

ताल के इतिहास पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि ताल का उल्लेख सर्वप्रथम भरत मुनि के नाट्यशास्त्र ग्रंथ में मार्गी तालों के रूप में हुआ है। मार्गी तालें पाँच बतायी गई हैं — चच्चत्पुट, चाचपुट, षट्पितापुत्रक, सम्पक्वेष्टाक और उद्घट्ट। उस समय ताल आज की भाँति अवनद्ध वाद्यों पर नहीं बजाए जाते थे, बल्कि ताल के स्वरूप को किसी घन वाद्य जैसे मँजीरा आदि पर ताली-खाली के रूप में प्रकट किया जाता था और अवनद्ध वादक गायन की आवश्यकतानुसार बोल बजाकर उसकी संगत करते थे। आज भी उत्तर भारतीय संगीत में ध्रुपद गायकों को और कर्नाटक संगीत में गायक को हाथ से ताल देते हुए गायन करते देख सकते हैं।

अर्थात प्रतिष्ठा अर्थ वाली ‘तल्’ धातु में ‘द्यज’ प्रत्यय लगाने पर ताल शब्द बनता है। गायन, वादन, नृत्य को ताल से प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यहाँ प्रतिष्ठा का अर्थ व्यवस्थित करना, एक सूत्र में बाँधना या आधार प्रदान करने से है अर्थात गीत, वाद्य एवं नृत्य को व्यवस्थित या आधार प्रदान करने वाला ‘ताल’ ही है।

नाट्यशास्त्र के बाद संगीत रत्नाकर ग्रंथ में शारंगदेव ने मार्गी तालों के साथ-साथ 120 देशी तालों का भी वर्णन किया है। इसके पश्चात संगीत समयसार, संगीत सुधाकर, रस कौमुदी, संगीत दर्पण आदि ग्रंथों में भी ताल का विशद विवेचन मिलता है।

ताल संगीत का अनुशासन है। सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि ताल का व्यवस्थित ज्ञान न रखने वाला न तो अच्छा गायक हो सकता है और न ही अच्छा वादक। जहाँ विश्व के तमाम संगीत प्रकारों में लय की प्रधानता है, वहीं ताल केवल भारतीय संगीत की निजी विशेषता है।

संगीत को एक निश्चित स्वरूप देने में ताल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और इन तालों को उनके ठेकों के द्वारा पहचाना जाता है। किसी भी ताल का वह मलल बोल जिनके द्वारा उस ताल की पहचान होती है, उस ताल का ठेका कहलाता है। तालों के ठेकों का निर्धारण उत्तर भारतीय संगीत की अपनी निजी विशेषता है। उदाहरण के लिए, झपताल 10 मात्रा की ताल है और इसके ठेके के बोल हैं -

धी ना धी धी ना ती ना धी धी ना
$\times$ 2 0 3

चित्र 1.1 - तबला बजाते हुए उस्ताद अल्ला रक्खा

ठेके को ताल का मूर्त रूप भी कह सकते हैं। यद्यपि उत्तर भारतीय तालों के ठेकों में कहीं-कहीं विरोधाभास भी दृष्टिगत होता है। कुछ प्रचलित तालों को छोड़ दिया जाए तो कई तालों के अलग-अलग ठेके भी प्रचार में देखने को मिलते हैं। उत्तर भारतीय संगीत में जैसे-जैसे तालों का विकास हुआ है, उसी प्रकार दक्षिण भारतीय संगीत, मणिपुरी संगीत, ओडिशी संगीत, सत्रीय संगीत, रवीन्द्र संगीत आदि शैलियों के अनुरूप भी तालों का विकास हुआ है।

तालों की रचना मूलतः एक गणितीय प्रक्रिया है। ताल के निर्माण में मात्राओं को गिनते हुए उसके कालखंड को स्थापित किया जाता है, साथ ही ताली-खाली, विभाग आदि का निर्धारण किया जाता है। ऊपर दिए गए झपताल के ठेके में विभाग $2 / 3 / 2 / 3$ मात्रा के हैं। ताल की पहली मात्रा पर सम है, जिसे ताली बजाकर दिखाते हैं। दूसरे विभाग पर दूसरी ताली, तीसरे विभाग पर खाली और चौथे विभाग पर तीसरी ताली है।

ताल संगीत को अनियंत्रित होने से रोककर उसे एक निश्चित समय-सीमा में बाँधता है। इसके माध्यम से ही संगीत को एक निश्चित समय-सीमा में बाँध पाना संभव हो पाता है। ताल ही वह माध्यम है, जिसके द्वारा सांगीतिक कल्पनाओं के उमड़ते अथाह सागर को नियंत्रित और अनुशासित किया जाता है। यह संगीत में व्यतीत हो रहे समय को मापने का वह महत्वपूर्ण साधन है, जो भिन्न-भिन्न मात्राओं, विभागों, ताली और खाली के योग से बनता है।

  1. भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में कितनी तालें बतायी हैं?
  2. संगीत रत्नाकर ग्रंथ में शारंगदेव ने कितने देशी तालों का वर्णन किया है?
  3. ताल का उल्लेख सर्वप्रथम किस ग्रंथ में मिलता है?
  4. चच्चत्पुट, चाचपुट, षट्पितापुत्रक, सम्पक्वेष्टाक और उद्घट्ट क्या है?

संगीत का मुख्य उद्देश्य आनंद है और इस आनंद की सृष्टि ताल के बिना असंभव है। स्वर रूपी पुष्पों को जब ताल रूपी धागे में पिरोया जाता है, तो उसकी शोभा कई गुना बढ़ जाती है। तबला और पखावज वर्तमान में ताल धारण करने वाले सबसे महत्वपूर्ण वाद्ययंत्र हैं। इन वाद्यों पर बजने वाली रचनाएँ— ठेका, कायदा, रेला, टुकड़ा, तिहाई, गत, परण आदि किसी न किसी परण ताल में ही निबद्ध होती हैं। ताल-लिपि पद्धतियों के प्रयोग से प्राचीन एवं वर्तमान संगीत और उनकी बंदिशों को लिपिबद्ध कर सुर्षित रख पाना संभव हो पाया है। उत्तर भारतीय संगीत में पं. विष्णु नारायण भातखंडे ताल-लिपि पद्धति एवं पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर ताल-लिपि पद्धति मुख्य रूप से प्रचलित है, जबकि दक्षिण भारतीय संगीत में कर्नाटक ताल-लिपि पद्धति का प्रयोग होता है।

भारतीय संगीत में ताल की अवधारणा व्यापक है। यह काव्य के छंद से भी काफी समानता रखती है। काव्य में जो महत्व छंद का है, संगीत में वही महत्व ताल का है। ताल और छंद दोनों का उद्देश्य व्यतीत हो रहे समय को नापना है। ताल संगीत में व्यतीत हो रहे काल को मात्राओं के माध्यम से नापता है, तो छंद साहित्य में व्यतीत हो रहे काल को लघु और गुरु के माध्यम से। लघु का मान 1 मात्रा और गुरु का मान 2 मात्रा होता है।

इसे एक चौपाई के उदाहरण से समझ सकते हैं -

इसकी दोनों पंक्तियों में 16-16 मात्राएँ हैं।

ताल और छंद के परस्पर संबंध को एक और उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं -

प्रस्तुत पंक्तियों में प्रयुक्त छंद $3-3$ मात्राओं का है। लेकिन कुल मात्राएँ 22 हो रही हैं। अत: संगत की सुविधा के लिए पंक्ति के अंत में दो अतिरिक्त मात्राएँ जोड़कर उनकी संख्या 24 की जाती है और दादरा ताल, जो कि 6 मात्रा की ताल है, के द्वारा इसकी संगत की जाती है। अतः इसमें दादरा, जो कि 6 मात्रा की ताल का ठेका है, का प्रयोग होता है।

भारतीय संगीत की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि यहाँ अलग-अलग संगीत शैलियों, उनकी गति और विभाग के अनुसार तालों का चयन किया जाता है क्योंकि भिन्न-भिन्न तालों के ठेके भिन्न-भिन्न मनोभावों को व्यक्त करते हैं। समान मात्रा और समान विभाग के होने के बावजूद रूपक और तीव्रा, झममरा और दीपचंदी, तीनताल और तिलवाड़ा, एकताल और चौताल जैसे ताल ठेके इसलिए रचे गए, क्योंकि खयाल गायन के साथ चौताल और ध्रुपद के साथ एकताल के ठेके का वादन उपयुक्त नहीं समझा गया।

यहाँ पर हम समान मात्रा संख्या एवं विभाग वाले तालों के ठेके की चर्चा करेंगे —

1. दीपचंढी और झूमरा— दोनों 14 मात्राओं की तालों के ठेके हैं। इनके कालखंड (विभाग) भी $3 / 4 / 3 / 4$ हैं, किंतु गति-भेद के कारण दोनों तालों की प्रकृति व प्रयोग भिन्न-भिन्न हैं। दीपचंदी चंचल प्रकृति का, तो झमरा गंभीर प्रकृति का ताल ठेका है। दीपचंदी का सामान्यत: मध्य लय में प्रयोग किया जाता है, वहीं झमरा विलंबित लय में प्रयोग किया जाता है। दीपचंदी ताल के ठेके का प्रयोग ठुमरी, भजन, होरी, फिल्म संगीत आदि में होता है, जबकि झूमरा ताल के ठेके का प्रयोग शास्त्रीय संगीत में विलंबित खयाल गायन में किया जाता है।

दीपचंढी ताल का ठेका

धा धिं ऽ धा धा तिं ऽ ता तिं ऽ धा धा धिं ऽ
$\times$ 2 0 2

झूमरा ताल का ठेका

धिं ऽधा तिरकिट धिं धिं धागे तिरकिट तिं ऽता तिरकिट धिं धिं धागे तिरकिट
$\times$ 2 0 3

2. रूपक और तीव्रा — दोनों 7 मात्राओं की ताल के ठेके हैं। इनके विभाग भी $3 / 2 / 2$ हैं, किंतु दोनों की मूल प्रकृति के कारण इनके प्रयोग में भिन्नता है। रूपक चंचल प्रकृति के ताल का ठेका है, तो तीव्रा गंभीर प्रकृति का ताल ठेका है। रूपक तबले पर बजने वाला ताल ठेका है, जबकि तीव्रा पखावज पर बजाया जाता है। रूपक ताल के ठेके का प्रयोग बड़े व छोटे खयाल, ठुमरी, भजन, गज़ल, फिल्म संगीत आदि में होता है, जबकि तीव्रा ताल के ठेके का प्रयोग ध्रुपद में किया जाता है।

रूपक के सम पर खाली होने के कारण पहली मात्रा पर खाली और सम का चिह्न लगाया जा सकता है और इसी कारण चौथी और छठी मात्रा पर क्रमश: पहली और दूसरी ताली होती है।

रूपक ताल का ठेका

तिं तिं ना धिं ना धिं ना
1 2

तीव्रा ताल का ठेका

धा दिं ता तेटे कत गुदि गन
$\times$ 2 3

  1. लघु का मान कितनी मात्रा का होता है?
  2. समान मात्रा और समान विभाग वाले किसी एक ताल का नाम बताएँ??
  3. ताल की परिभाषा लिखते हुए संगीत में इसके महत्व को समझाइए।
  4. समान मात्रा संख्या एवं समान विभाग वाले तालों के स्वरूप की चर्चा करते हुए संगीत में इनके प्रयोग के विषय में बताएँ।

3. त्रिताल एवं तिलवाड़ा — दोनों 16 मात्राओं की ताल के ठेके हैं। इनके विभाग भी 4/4/4/4 मात्राओं के हैं। त्रिताल तबले की एक प्रमुख ताल है। इसका प्रयोग शास्त्रीय गायन, वाद्य एवं कत्थक नृत्य की संगत में विलंबित, मध्य, द्रुत और अतिद्रुत में किया जाता है, जबकि तिलवाड़ा ताल के ठेके का प्रयोग विलंबित लय में बड़े खयाल की संगत के लिए किया जाता है।

त्रिताल का ठेका

धा धिं धिं धा धा धिं धिं धा धा तिं तिं ता ता धिं धिं धा
$\times$ 2 0 3

तिलवाड़ा ताल का ठेका

धा तिरकिट धिं धिं धा धा तिं तिं ता तिरकिट तिं तिं धा धा धिं धिं
$\times$ 2 0 3

4. एकताल और चौताल — दोनों 12 मात्राओं की ताल के ठेके हैं। इनके विभाग भी $2 / 2 / 2 / 2 / 2 / 2$ के हैं। एकताल तबले पर बजाया जाने वाला ताल का ठेका है, जबकि चौताल पखावज पर बजाया जाने वाला ताल का ठेका है। एकताल के ठेके का प्रयोग खयाल गायन, तंत्र वाद्य आदि में संगत हेतु किया जाता है। इस ताल के ठेके का प्रयोग अति विलंबित, विलंबित, मध्य एवं द्रुत लय में किया जा सकता है, जबकि चौताल के ठेके का प्रयोग मूलतः ध्रुपद गायन में संगत हेतु होता है। इसके अतिरिक्त वाद्य वादन की संगत के लिए भी इसका प्रयोग देखने को मिलता है।

एकताल का ठेका

धिं धिं धागे तिरकिट तू ना कत् ता धागे तिरकिट धी ना
$\times$ 0 2 0 3 4

चौताल का ठेका

धा धा दिं ता किट धा दिं ता तेटे कत गदि गन
$\times$ 0 2 0 3 4

नीचे दी गई तालिका में विभिन्न संगीत विधाओं में प्रयुक्त गीत और उनमें प्रयुक्त ताल ठेकों का विवरण दिया गया है। आप इन गीतों को सुनें और इनको सुनने के बाद आपको जो अनुभूति होती है, उसे टिप्पणी के रूप में लिखें -

गीत विधा प्रकृति/रस ताल गति
श्री रामचंद्र कृपालु भजमन… सुगम संगीत श्रृंगार/भक्ति रूपक मध्यालय
ऐ मेरे वतन के लोगों… फिल्म संगीत देशभक्ति/करुण कहरवा मध्यालय
दया कर दान भक्ति का, हमें परमात्मा देना… सुगम संगीत प्रार्थना/भक्ति कहरवा मध्यालय
ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया… सुगम संगीत वात्सल्य दादरा मध्यालय
अल्लाह तेरो नाम… फिल्म संगीत शृंगार/भक्ति दीपचंदी मध्यालय
हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा… फिल्म संगीत देशभक्ति दादरा मध्यालय

तालों की गति विभिन्न रसों की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न तालों से भिन्न-भिन्न रसों की निष्पत्ति होती है, ठीक उसी तरह भिन्न-भिन्न रसों के अनुरूप भिन्न-भिन्न छंदों या तालोंठेकों का चयन किया जाता है। धमार, चारताल, सूलताल, तीव्रा जैसे तालों, ठेकों को वीर तथा रौद्र रसों के लिए उपयुक्त माना गया है, जबकि करुण तथा शांत रस के लिए विलंबित लय को, शृंगार रस के लिए मध्य लय को एवं अदृभुत, भयानक एवं चंचल भावों की अभिव्यक्ति के लिए द्रुत लय को उपयुक्त माना गया है। स्पष्ट है कि करुण, शृंगार, रौद्र, वीर, शांत आदि रसों के निर्माण के लिए विभिन्न तालों के ठेकों में विभिन्न गतियों की आवश्यकता होती है। तालों व ठेकों की अंतर्निहित गति रसों के

चित्र 1.2 - पखावज - अवनद्ध वाद्य

निर्माण में एक विशेष भूमिका निभाती है, जैसे विलंबित लय में वीर रस को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, उसके लिए द्रुत लय का ही प्रयोग करना होगा; जबकि शृंगार रस की उत्पत्ति के लिए ताल की गति में थोड़ी चंचलता की आवश्यकता होती है। बिना शब्दों के संगीत से रस निष्पत्ति हो सकती है, लेकिन ताल गति के अभाव में रस निष्पत्ति संभव नहीं। स्पष्ट है कि ताल भारतीय संगीत का अनिवार्य अंग है, जिसके बिना भारतीय संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

अभ्यास

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।

1. झपताल __________ मात्रा की ताल है।

2. ताल का उल्लेख सर्वप्रथम भरत मुनि के __________ ग्रंथ में मिलता है।

3. तालों की रचना मूलतः एक __________ प्रक्रिया है।

4. लघु का मान __________ मात्रा और गुरु का मान __________ मात्रा होता है।

5. झूमरा ताल में __________ और तीव्रा ताल में __________ मात्राएँ होती है।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

1. ताल का उल्लेख सर्वप्रथम किस ग्रंथ में मिलता है?

2. नाट्यशास्त्र में मार्गी तालों की संख्या कितनी बतायी गई है?

3. मार्गी तालों के नाम बताएँ?

4. ताल का मूर्त रूप किसे कह सकते हैं?

5. समान मात्राओं वाले किन्हीं दो तालों के नाम बताएँ?

6. ताल को परिभाषित करते हुए उसके महत्व का वर्णन कीजिए।

7. ताल और छंद के पारस्परिक संबंधों पर प्रकाश डालिए।

8. संगीत में रस के निर्माण में तालों की क्या भूमिका होती है?

9. दीपचंदी और झमरा दोनों 14 मात्राओं की तालें हैं और इनके विभाग भी समान हैं, किंतु इनके प्रयोग में भिन्नता क्यों है?

10. ताल के ठेके से आप क्या समझते हैं? उत्तर भारतीय संगीत में ताल के ठेके की उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।

सही और गलत बताइए -

1. एकताल में 14 मात्राएँ होती हैं। $ \qquad $ ($ \quad $ )

2. ठेके को संगीत का प्राण कहा जाता है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

3. भरत मुनि के नाट्यशास्त्र ग्रंथ में मार्गी तालों की संख्या पाँच बतायी गई है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

4. ताल संगीत का अनुशासन है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

5. दीपचंदी और तिलवाड़ा समान मात्राओं की तालें हैं। $ \qquad $ ($ \quad $ )

6. ताल और छंद दोनों का उद्देश्य व्यतीत हो रहे समय को नापना है। $ \qquad $ ($ \quad $ )

7. रूपक और तीव्रा 7 मात्राओं की तालें हैं। $ \qquad $ ($ \quad $ )

ताल के दश प्राण

ताल संगीत का प्राण है। सर्वप्रथम नारद कृत संगीत मकरंद ग्रंथ में ताल के इन अनिवार्य दस तत्वों को प्राण संज्ञा के रूप में बताया गया है। यद्यपि भरत मुनि ने ताल के इन दस प्राणों का प्राण संज्ञा के रूप में न उल्लेख कर इन्हें ताल के घटकों के रूप में प्रकट किया है। संगीत मकरंद के अनुसार -

काल, मार्ग, क्रिया, अंग, ग्रह, जाति, कला, लय, यति और प्रस्तार ये ताल के दस प्राण हैं।

चित्र 1.3 - नगाड़ा — अवनद्ध वाद्य

1. काल — काल स्वयं में आवश्यकता है जिस कारण अनादि-अनंत काल का ज्ञान असंभव है। काल के ज्ञान के लिए उसे विभिन्न कालखंडों में बाँटा गया है, जैसे वर्तमान में उसे सेकेंड, मिनट, घंटे, दिन, महीने, साल आदि में बाँटा गया है। संगीत में भी काल ज्ञान के लिए काल को विभक्त करना आवश्यक है। संगीत में व्यतीत हो रहे काल को मापने का साधन ताल है और ताल की सबसे छोटी इकाई मात्रा है। संगीत ग्रंथों में पंचनिमेष काल को एक मात्रा कहा गया है। पाँच बार अनवरत आँखों की पलकों को झपकाने में जो समय लगता है, उसे पंचनिमेष काल कहते हैं। एक मात्रिक काल को लघु, द्विमात्रिक काल को गुरु तथा त्रिमात्रिक काल को प्लुत कहा गया है।

2. मार्ण — मार्ग का अर्थ होता है रास्ता अथवा पथ। किसी भी ताल की प्रथम मात्रा से अंतिम मात्रा तक जिस रीति अथवा पद्धति से जाते हैं, उसे उस ताल का मार्ग कहते हैं। मार्ग में विभाग, ताली एवं खाली के माध्यम से ताल के एक आवर्तन को पूरा करने की रीति वर्णित होती है। प्राचीन ताल पद्धति में ध्रुव, चित्र, वार्तिक और दक्षिण नामक चार मार्गों का उल्लेख किया गया है। 3. क्रिया — वर्तमान में ताल को हाथ पर ताली और खाली द्वारा प्रकट किया जाता है। भरत ने भी ताल के भागों को सशब्द क्रिया और निःशब्द क्रिया द्वारा स्पष्ट करने का निर्देश दिया है और क्रमशः उनके उपभेद भी बताए हैं -

  • सशब्द क्रिया - जब ताल की किसी मात्रा पर दोनों हाथों से ताली बजाते हुए ध्वनि उत्पन्न की जाती है, तब उस क्रिया को सशब्द क्रिया कहते हैं।

  • निःशब्द क्रिया - वर्तमान में किसी ताल की खाली दर्शाने के लिए हाथ को एक तरफ गिरा देते हैं, अर्थात कोई ध्वनि नहीं करते हैं, इसे निःशब्द क्रिया कहते हैं।

4. अंग — इसका अर्थ है, भाग या खंड। ताल के विभिन्न भागों या खंडों को अंग कहते हैं, जिसकी रचना मात्राओं के द्वारा होती है। उत्तर भारतीय तालों में जिसे विभाग कहते हैं, उसे दक्षिण भारतीय पद्धति में अंग कहते हैं। आधुनिक तालों के विभाग या अंग एक मात्रा से लेकर अधिकतम पाँच मात्रा तक मिलते हैं।

चित्र 1.4 - ढोल — हमारे पारंपरिक वाद्य

5. ग्रह - संगीत में जिस स्थान से ताल आरंभ होता है, उसे ग्रह कहते हैं। कभी-कभी गीत और ताल साथ-साथ आरंभ होता है और कभी-कभी आगे-पीछे। अतः संगीत में जिस स्थान से ताल ग्रहण किया जाता है, वही स्थान ग्रह कहलाता है। जैसा कि विदित है कि ताल में हमेशा पहली मात्रा पर सम होता है, जबकि गायन या वादन में बंदिश आंरभ करने का स्थान निश्चित नहीं रहता। ग्रह के दो भेद बताये गए हैं- सम और विषम। विषम ग्रह के भी दो भेद हैं — अतीत और अनागत। वर्तमान में तबला वादन में अतीत और अनागत की बंदिशों का खूब प्रयोग होता है।

उदाहरण – अतीत ग्रह त्रिताल में टु कड़ा

उदाहरण - अनागत ग्रह त्रिताल में ढुकड़ा

6. जाति — वर्तमान में संगीत में प्रयुक्त हो रहे तालों, बोलों तथा अन्य रचनाओं के लय प्रकारों को ही सामान्य अर्थ में जातियाँ कहते हैं। नाट्यशास्त्र में मूल रूप से तालों की त्रस्त्र और चतुस्त्र जातियाँ बतायी गई हैं जिनसे बाद में खंड, मिश्र और संकीर्ण जातियों का विकास हुआ है। त्रस्त्र, चतुस्त्र, खंड, मिश्र और संकीर्ण जातियों को क्रमशः तीन, चार, पाँच, सात और नौ मात्राओं का माना जाता है। विद्वानों के अनुसार दादरा ताल (छह मात्रा) को त्रस्त्र जाति का, त्रिताल ( 16 मात्रा) को चतुस्त्र जाति का, झपताल (10 मात्रा) को खंड जाति का, रूपक (सात मात्रा) को मिश्र जाति का और वसंत ताल (नौ मात्रा) को संकीर्ण जाति का ताल माना जाता है।

7. कला — भरत मुनि ने कला का अर्थ मात्रिक काल से माना है। मात्रिक काल के आधार पर चतुस्त्र और त्रस्त्र जाति के तालों में यथाक्षर स्वरूप को द्विकल, चतुष्कल, अष्टकल आदि रूपों में प्रदर्शित किया जाना बताया है। प्राचीन काल में भी कला भेद के अनुसार तालों को विलंबित एवं द्रुत करने की प्रथा थी।

8. लय — सामान्य अर्थों में समय की समान गति को लय कहते है। शास्त्रों में लय के तीन प्रकार बताए गए हैं — द्रुत, मध्य और विलंबित। द्रुत लय में जितना विश्रांति काल हो, उसका दुगुना विश्रांति काल मध्य लय का और मध्य लय से दुगुना विश्रांति काल विलंबित लय का होता है।

9. यति — संगीत में लय के प्रवाही गुण को यति कहते हैं। ताल शास्त्रों में गति प्रयोग के नियम को यति कहा गया है। शास्त्रों में यति के तीन प्रकार बताए गए हैं — समायति, स्रोतागता यति और गोपुच्छा यति। कालांतर में मृदंगा और पिपीलिका यति भी प्रयोग में आने लगी।

समायति का उदाहरण - त्रिताल में ढुकड़ा

10. प्रस्तार — प्रस्तार शब्द का अर्थ है - फैलाव या विस्तार। ताल के अंगों को एक व्यवस्थित और निश्चित क्रम से उलटने-पलटने से बनने वाले भेद को प्रस्तार कहते हैं। दक्षिण भारतीय ताल पद्धति में ताल को भिन्न-भिन्न रीतियों से विस्तार देने की प्रक्रिया को प्रस्तार कहा जाता है। वर्तमान उत्तर भारतीय ताल पद्धति के अंतर्गत तबला वादन में पेशकार, कायदा आदि में प्रयुक्त बोलों का विस्तार एवं उनके बोलों में क्रम परिवर्तन के आधार पर बने पलटों को भी प्रस्तार माना जा सकता है।

  1. सर्वप्रथम किस ग्रंथ में ताल के दस प्राणों का उल्लेख मिलता है?
  2. त्रिमात्रिक काल किसे कहते हैं?
  3. झपताल को किस जाति का ताल माना जाता है?
  4. समा, स्रोतागता और गोपुच्छा किसके प्रकार हैं?

अभ्यास

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।

1. समय की समान गति को __________ कहते हैं।

2. नाट्यशास्त्र में मूल रूप से तालों की ______________ और ______________ जातियाँ बतायी गई हैं।

3. त्रिमात्रिक काल को ______________ कहा गया है।

4. संगीत में लय के प्रवाही गुण को ______________ कहते हैं।

5. ताल का दसवाँ प्राण ______________ माना गया है।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

1. ताल के दस प्राणों के नाम लिखिए।

2. प्राचीन ताल पद्धति में किन चार मार्गों का उल्लेख किया गया है? नाम लिखिए।

3. नाट्यशास्त्र में मूल रूप से तालों की कितनी जातियाँ बतायी गई हैं?

4. शास्त्रों में लय के कितने प्रकार बताये गए हैं?

5. ताल के दस प्राणों का वर्णन सर्वर्रथम किस ग्रंथ में मिलता है?

6. संगीत मकरंद ग्रंथ में ताल के दस प्राणों पर उल्लेखित श्लोक को लिखते हुए उसका अर्थ बताएँ।

7. भरत ने नाट्यशास्त्र में ताल की कितनी जातियाँ बतायी हैं?

8. सशब्द क्रिया और निःशब्द क्रिया से आप क्या समझते हैं?

9. ग्रह को उदाहरण देते हुए विस्तार से समझाइए?

10. ताल के दस प्राणों के अंतर्गत आने वाली जाति और यति को उदाहरण सहित समझाइए।

परियोजना

1. दादरा, कहरवा, रूपक और दीपचंदी तालों में गाये फिल्मी गीतों अथवा भजनों को सूचीबद्ध कीजिए। साथ ही, इनमें प्रयुक्त ताल-ठेकों को ताल-लिपि पद्धति में लिखिए।

2. फिल्म संगीत अथवा नाटक में विभिन्न भावों (शृंगार, रौद्र, वीर आदि) की अभिव्यक्ति में विभिन्न अवनद्ध वाद्यों पर जिन-जिन लय गतियों का प्रयोग किया जाता है, अध्यापक की सहायता से इनका अध्ययन करें और उदाहरण सहित अपने अनुभव लिखें।



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