अध्याय 05 राग वर्गीकरण
रागों के समय सिद्धांत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारतीय संगीत में प्राचीन काल से ही रागों को उनके निर्धारित समय पर ही गाने-बजाने की परंपरा रही है। ऐतिहासिक दृष्टि से वैदिक काल में सामवेद में निहित गीतों को दिन के विभिन्न प्रहरों में यज़्त कर्म या अन्य अवसरों पर यथासमय गाए जाने का नियम होता था, उदाहरणस्वरूप प्रात: सवन, साँय सवन आदि। रामायण तथा महाभारत में भी ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु या वर्षा ऋतु में गीतों को गाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। ईसा से 400 वर्ष पूर्व रचित महाकवि कालिदास के नाटकों में से अभिज्ञानशाकुन्तलम नामक नाटक में सूर्रधार द्वारा नटी को ग्रीष्मकालीन गीत गाने का निर्देश भी दिया गया है। इस प्रकार समय व ऋतु के आधार पर गीतों को गाने की परंपरा अत्यंत प्राचीन मानी जा सकती है। गीतों को गाने की इसी परंपरा का अनुसरण करते हुए आगे आने वाले ग्रंथकारों द्वारा भी रागों को समय, ऋतु व अवसर के अनुकूल गाए जाने के निर्देश दिए जाते रहे।
दिन के चौबीस घंटों को प्राचीन काल से ही आठ प्रहरों में बाँटा गया है। जब घड़ी का व्यवहार नहीं था तो लोगों ने प्रकृति का निरीक्षण करते हुए यह समझा कि एक दिन में हर तीन घंटे बाद वातावरण बदलता है। ध्वनि, जो संगीत का आधार है और शास्त्रीय संगीत में राग का भी आधार है, इन प्रहरों में भिन्न-भिन्न स्वर समुदायों से सुसज्जित होकर अलग-अलग भावों को संप्रेषित करती है। हर राग में विभिन्न तरह के भाव होते हैं। हर राग में स्वरों को अलग-अलग तरह से गाने के नियमों के कारण भी भाव बदलते रहते हैं। इस तरह के कई शोधों से यह मान्यता समझ में आती है कि रागों को गाने का समय सिद्धांत प्राचीन है। संगीत के मनीषियों ने भी विभिन्न काल या समय में इस सिद्धांत के महत्व को समझकर इसे अपनाया।
संगीत मकरंद की रचना नारद द्वारा सातवीं से नौवीं शताब्दी के बीच की गई जिसमें कहा गया है-
विशिष्ट रागों का समय निर्धारण करते हुए उन्होंने कहा है-
इसी प्रकार मध्याह्न व साँयकाल में गाए जाने वाले रागों का उल्लेख करने के साथ-साथ सूर्यास्त के तीन घंटे पहले व सूर्यास्त के तीन घंटे पश्चात गाए जाने वाले रागों का उल्लेख करने के साथ-साथ उन्होंने रागों को रात के विभिन्न प्रहरों में गाए जाने का भी संकेत किया है।
चौथी शताब्दी में मिथिला नरेश नान्यदेव द्वारा रचित भरत भाष्य नामक ग्रंथ में भी रागों को समय व ऋतु के आधार पर गाने के निर्देश दिए गए हैं। तत्पश्चात प्राचीन काल के अंतिम ग्रंथकार शार्ड्गदेव ने संगीत रत्नाकर के ग्राम रागों को दिन के भिन्न-भिन्न प्रहरों में गाने का निर्देश दिया है। बारहवीं या चौदहवीं शताब्दी में रचित राग तरंगिणी में लोचन ने भी दिन के विभिन्न प्रहरों में गाए जाने वाले रागों का उल्लेख किया है, जैसे- भैरवी व रामकली को प्रात: कालीन, आसावरी को दिन के तृतीय प्रहर में, बिलावल को दिन के प्रथम प्रहर में, केदार को अर्धरात्रि में, अड़ाना को रात्रि के तृतीय प्रहर में गाए जाने के समान ही अन्य अनेक रागों के लिए भी समय निर्धारित किए हैं।
सोलहवीं शताब्दी में अहोबल ने संगीत पारिजात में, सत्रहवीं शताब्दी में रचित रागदर्पण में फकीरूल्लाह ने अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में, श्रीकंठ ने रस कौमुदी में रागों को शुद्ध, छायालंग व संकीर्ण रागों के रूप में वर्गीकृत करने के साथ-साथ उनके राग ध्यान व राग चित्रों का वर्णन भी किया है। स्वाभाविक है कि इस विवरण में रागों के समय, ऋतु व अवसर की अनुकूलता स्वयं ही सिद्ध हो जाती है।
अनेक ग्रंथकारों द्वारा रागों के समय सिद्धांत का संकेत किए जाने पर भी पंडित दामोदर ने सत्रहवीं शताब्दी में रचित संगीत दर्पण में रागों के समय व ऋतु के अनुसार गाए जाने का निर्देश देने पर भी स्वीकार किया कि राजा की आज्ञा होने पर (श्लोक 26) या गायक अथवा साधक की स्वेच्छा होने पर किसी भी राग को किसी भी समय पर गाए जाने में कोई दोष नहीं है।
वर्तमान में प्रचलित समय सिद्धांत
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में यह समय सिद्धांत आज भी प्रचलित है। हिंदुस्तानी संगीत के ज्ञाता रागों के दो वर्ग मानते हैं- पूर्व राग और उत्तर राग।
पूर्व राग / पूर्वांगवादी राग दोपहर के बारह बजे से रात्रि के बारह बजे तक पूर्व राग या पर्वांगवादी राग
उत्तर राग / उत्तरांगवादी राग रात्रि के बारह बजे से दोपहर के बारह बजे तक उत्तर राग या उत्तरांगवादी राग
पूर्व राग/पूर्वांगवादी राग— दोपहर के 12.00 बजे से रात्रि के 12:00 बजे तक गाए जाने वाले राग।
उत्तर राग/उत्तरांगवादी राग— रात के 12:00 बजे से दिन के 12:00 बजे तक गाए जाने वाले राग।
पूर्व राग/पूर्वांगवाढी राग
पूर्व राग का अर्थ है कि इसका वादी स्वर सदैव सप्तक के पूर्वाद्ध अर्थात ‘स रे ग म प’ इसमें से कोई स्वर होता है। ऐसे रागों का समय भी दिन के पूर्व भाग में होता है। उदाहरणस्वरूप-
राग में वादी स्वर
- यमन का वादी स्वर ग है
- खमाज का वादी स्वर ग है
- देस का वादी स्वर रे है
- भूपाली का वादी स्वर ग है
गायन समय
रात्रि का प्रथम प्रहर
रात्रि का प्रथम प्रहर
रात्रि का द्वितीय प्रहर
रात्रि का द्वितीय प्रहर
उत्तर राग/उत्तरांगवादी राग
उत्तर राग का अर्थ है कि इसमें गाए जाने वाले रागों का वादी स्वर सदैव उत्तरार्ध ‘म प ध नि सं’ में से कोई स्वर होगा। ऐसे रागों का समय दिन के उत्तरार्ध में होगा। उदाहरणस्वरूप-
राग में वादी स्वर
- राग आसावरी का वादी स्वर ध है
- राग अल्हैया बिलावल का वादी स्वर ध है
- राग जौनपुरी का वादी स्वर ध है
गायन समय
दिन का दूसरा प्रहर
दिन का दूसरा प्रहर
दिन का दूसरा प्रहर
ध्यान देने वाली बात यह है कि कुछ राग अपवादस्वरूप ऐसे भी होते हैं जिनमें वादी स्वर म, प, स में से कोई एक स्वर है तो वह पूर्वांग या उत्तरांग राग, कुछ भी हो सकता है, इसीलिए कुछ पूर्व रागों में पंचम स्वर वादी होता है और कुछ उत्तर रागों में वादी स्वर मध्यम होता है, परंतु कुछ अन्य नियमों के कारण अनेक समय में परिवर्तन हो जाता है।
एक और सिद्धांत के अंतर्गत स्वर और समय की दृष्टि से रागों के तीन वर्ग भी बनाए गए हैं-
- कोमल रे और कोमल ध वाले राग (संधिप्रकाश राग)
- शुद्ध रे और ध वाले राग
- कोमल ग और नि वाले राग
1. संधिप्रकाश राग— दिन और रात की संधि को संधिकाल कहते हैं। प्रात:काल और साँयकाल दोनों ही समय में ऐसा संधिकाल समय दिखता है। इस समय आसमान अपनी मनोरम छटा बिखेरते हुए अति सुंदर लगता है। प्रकृति के अनुकूल संधिबेला दो भागों में विभक्त है- (1) प्रातःकालीन संधिबेला (2) साँयकालीन संधिबेला। अत: सुबह/भोर की इस बेला में गाए-बजाए जाने वाले रागों को प्रात:कालीन संधिप्रकाश राग कहते हैं तथा शाम/ साँय की बेला में गाए-बजाए जाने वाले रागों को साँयकालीन संधिप्रकाश राग कहते हैं। संधिप्रकाश रागों में कोमल रे और कोमल ध वाले राग एवं शुद्ध ग, नि वाले रागों को समाविष्ट माना जाता है, जैसे- भैरव, पूर्वी, मारवा इत्यादि। मध्यम स्वर, संधिप्रकाश रागों में बहुत महत्व रखता है। प्रातःकालीन संधिप्रकाश राग में शुद्ध मध्यम का प्रयोग किया जाता है, जैसे- राग भैरव, कालिंगड़ा, जोगिया आदि। लेकिन साँयकालीन संधिप्रकाश रागों में तीव्र मध्यम का प्रयोग करने का नियम है, जैसे— राग पूर्वी एवं मारवा आदि। कुछ रागों में इस नियम का अपवाद भी पाया जाता है।
2. शुद्ध रे और ध वाले राग— शुद्ध रे, ध वाले रागों का समय संधिप्रकाश के एकदम बाद आता है। कल्याण, बिलावल और खमाज थाट के राग इस समय गाए-बजाए जाते हैं। लगभग सुबह सात बजे से दस बजे तक और शाम को सात बजे से रात के दस बजे तक शुद्धरे और ध लगने वाले राग गाए-बजाए जाते हैं। इस वर्ग में ग का शुद्ध होना आवश्यक है। मध्यम ‘म’ स्वर महत्वपूर्ण है। शुद्ध रे और ध वाले रागों में प्रात: सात बजे से दस बजे तक गाए जाने वाले रागों में शुद्ध ‘म’ की प्रधानता है, जैसे— बिलावल। शाम के सात बजे से रात के दस बजे गाए-बजाए जाने वाले रागों में तीव्र मध्यम लगता है, जैसेयमन, भूपाली, शुद्ध कल्याण आदि।
3. कोमल ‘ग-नि’ वाले राग— इस वर्ग के अंतर्गत गाए जाने वाले रागों को गाने का समय दिन में दस बजे से चार बजे तक और रात के दस बजे से चार बजे तक होता है। इन रागों में ग कोमल होता है, रे, ध शुद्ध या कोमल हो सकते हैं। आसावरी, जौनपुरी, तोड़ी प्रात:काल गाए जाते हैं और बागेश्री, जयजयवंती, मालकौंस इत्यादि राग रात को गाए जाते हैं।
परमेल प्रवेशक राग
‘परमेल’ का अर्थ है दूसरा कोई मेल और ‘प्रवेशक’ यानी प्रवेश करने वाला अर्थात परमेल प्रवेशक राग वे कहे जाते हैं, जो किसी एक मेल (थाट) से किसी दूसरे मेल (थाट) में प्रवेश करते हैं। ऐसे रागों में कुछ लक्षण पहले गाए जाने वाले राग या मेल के और कुछ लक्षण बाद में आने वाले राग या मेल के विद्यमान होते हैं, जैसे— यदि भीमपलासी के पश्चात मुल्तानी गाया जाए तो भीमपलासी में प्रयुक्त होने वाले शुद्ध ऋषभ, शुद्ध मध्यम, शुद्ध धैवत तथा कोमल नी के स्थान पर मुल्तानी में शुद्ध ऋषभ, तीव्र मध्यम, कोमल धैवत तथा शुद्ध निषाद का प्रयोग सम्मिलित हो जाएगा। दोनों रागों में गंधार कोमल ही है। दोनों रागों में रे ध आरोह में वर्जित रहेंगे। अवरोह यद्यपि संपूर्ण होगा, परंतु राग की अपनी पहचान की दृष्टि से कुछ स्वर समुदायों में अंतर दिखाई देगा, जैसे— भीमपलासी में स प गु, म ग रे सा जबकि मुल्तानी में म ग म ग म ग सा रे सा। इस प्रकार कुछ स्वरों के परिवर्तन मात्र से भीमपलासी जो काफी थाट का है, उसका समय धीरे-धीरे तीव्र मध्य, कोमल धैवत व कोमल ऋषभ युक्त पूर्वी व मारवा थाटों के रागों में प्रवेश कर लेगा। अत: मुल्तानी को परमेल प्रवेशक राग माना गया। इस प्रकार एक अन्य उदाहरण से यह और स्पष्ट किया जा सकता है-
रात्रि को जब ‘रे ध’ शुद्ध वर्ग के रागों का समय समाप्त हो जाता है और ‘ग नि’ कोमल वर्ग के रागों को गाने का समय आने वाला होता है, उस समय जयजयवंती ‘परमेल प्रवेशक राग’ माना जाएगा; क्योंकि जयजयवंती राग में ‘रे ध’ शुद्ध वाले वर्ग तथा ‘ग नि’ कोमल वर्ग, दोनों की ही कुछ-कुछ विशेषताएँ मौजूद हैं। क्योंकि जयजयवंती में दोनों गांधार, दोनों निषाद और शुद्ध ‘रे, ध’ लगते हैं; अत: यह राग दूसरा मेल आरंभ होने की सूचना देकर ‘परमेल प्रवेशक राग’ कहलाता है।
कहा जा सकता है कि जो राग एक थाट से दूसरे थाट में प्रवेश कराते हैं, परमेल प्रवेशक राग कहलाते हैं। उदाहरणार्थ जयजयवंती परमेल प्रवेशक राग कहलाता है। इसका गायन समय रात्रि के अंतिम प्रहर का अंतिम भाग है। इसके पूर्व खमाज थाट के राग समाप्त हो सकते हैं और काफी थाट के रागों का समय आने वाला होता है। जयजयवंती ऐसा ही राग है, जो खमाज थाट से काफी में प्रवेश कराता है, क्योंकि इसमें दोनों की विशेषताएँ विद्यमान हैं। खमाज थाट के रागों में रे, ग शुद्ध तथा दोनों निषाद प्रयोग किए जाते हैं। दूसरी ओर काफी थाट के रागों में ग का कोमल होना तो आवश्यक है ही, अधिकतर दोनों निषाद भी प्रयोग किए जाते हैं। जयजयवंती में ये दोनों विशेषताएँ हैं और इसमें शुद्ध स्वरों के साथ-साथ दोनों निषाद प्रयोग किए जाते हैं। इसलिए इसे परमेल प्रवेशक राग कहा गया है। मुल्तानी और मारवा भी इसी प्रकार के राग हैं।
शुद्ध, छायालग और संकीर्ण
प्राचीन काल से रागों को इन तीन वर्गों में विभाजित करने की प्रथा चली आ रही है, (1) शुद्ध (2) छायालग, सालक या सालग और (3) संकीर्ण। भरत, मतंग और शार्ड्गदेव के ग्रंथों में इनका उल्लेख है। प्राचीन रागों का स्वरूप स्पष्ट न होने के कारण यह वर्गीकरण भी बहुत बोधगम्य नहीं रहा है।
शुद्ध राग— जिन रागों में शास्त्र के नियमों का पालन शुद्ध रूप में होता है, उन्हें शुद्ध राग कहते हैं। ये स्वतंत्र राग होते हैं और इनमें किसी दूसरे राग की छाया नहीं आती। अतिया बेगम ने इसके बारे में द म्यूजिक ऑफ इंडिया में लिखा है कि ‘शुद्ध’ उन रागों का नाम है, जिनके स्वर अपनी मौलिक शुद्धता में चले आ रहे हैं, जैसे- पूर्वी, कल्याण आदि। इस दृष्टि से वर्तमान दस आश्रय राग शुद्ध राग हैं।
अर्थात वे राग शुद्ध हैं जो शास्त्रीय नियमानुसार गाए जाने पर रंजक होते हैं।
छायालग— जिन रागों में किसी दूसरे राग की छाया आए, वे छायालग राग कहलाते हैं, जैसे— तिलक कामोद, परज आदि।
अर्थात छायालग राग में किसी दूसरे राग की छाया आने से वे रंजक होते हैं। छायालग को सालक या सालग भी कहा गया है।
संकीर्ण— जिन रागों में शुद्ध-छायालग रागों का मिश्रण हो, संकीर्ण राग कहलाते हैं, जैसे— पीलू, भैरवी आदि। जिन रागों में ठुमरी गाई जाती है, वे संकीर्ण राग कहलाते हैं। इन रागों का मिश्रण मधुरता के लिए किया जाता है अर्थात संकीर्ण राग में शुद्ध और छायालग रागों का मिश्रण होता है।
अभ्यास
नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
1. राग गायन को प्रकृति के साथ क्यों जोड़ा गया है?
2. प्रातः सवन व साँय सवन से आप क्या समझते हैं?
3. कालिदास के किस ग्रंथ में राग को समयानुसार गाए जाने का उल्लेख है?
4. अभिज्ञानशाकुन्तलम के रचियता कौन हैं?
5. निम्नलिखित श्लोक को पूर्ण करें।
(क) लयबेला प्रगानेन ___________ भवेत।
(ख) या श्रृणोति ____________ सर्वदा।
6. ऊपर दिए गए दोनों श्लोक किस पुस्तक से उद्धृत हैं?
7. राग तरंगिणी के अनुसार निम्नलिखित रागों का गायन समय बताएँ।
(क) रामकली - ____________
(ख) आसावरी - _____________
(ग) बिलावल - ______________
(घ) केदार - ______________
(ड.) भैरवी - _______________
(च) अड़ाना - _______________
8. राग के ‘समय सिद्धांत’ के संदर्भ में पंडित दामोदर ने संगीत दर्पण में क्या कहा है?
9. पूर्वांगवादी या पूर्व राग से आप क्या समझते हैं? इसके अंतर्गत आने वाले रागों के उदाहरण दीजिए।
10. राग में वादी स्वर और समय सिद्धांत का क्या संबंध है?
11. उत्तरांगवादी से क्या अभिप्राय है, दो उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कीजिए।
12. शुद्ध, छायालग और संकीर्ण रागों का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
13. निम्न श्लोकों को पूर्ण कीजिए।
(क) शास्त्रोक्त नियम नियमात _______________ भवति।
(ख) ________________ नामान्यच्छाया लगत्वेन _____________ भवति।
(ग) शुद्ध _______________ मुखत्वन _____________ भवति।
विद्यार्थियों हेतु गतिविधि-
1. दूरसंचार के माध्यम से किन्हीं तीन गायन प्रस्तुतियों को सुनें। क्या वह समय सिद्धांत के अनुसार गा रहे हैं?
2. रात्रि काल में रेडियो के प्रसारण में किन रागों को सबसे अधिक गाया जाता है? निम्न बिंदुओं पर प्रकाश डालें-
- कलाकार का नाम
- गायन/वादन (यंत्र)
- राग की विशेषता, राग का गायन समय, उस राग में सर्वाधिक प्रचलित बंदिशें।