अध्याय 02 हमारे प्राचीन ग्रंथ

संगीत रत्नाकर

पंडित शार्ड्गयेव द्वारा रचित ग्रंथ संगीत रत्नाकर को हिंदुस्तानी व कर्नाटक दोनों संगीत पद्धतियों में विशेष महत्व प्राप्त है। तेरहवीं शताब्दी में रचित इस ग्रंथ में न केवल संगीत के क्रियात्मक स्वरूप में किए जाने वाले तकनीकी प्रयोगों पर प्रकाश डाला गया है वरन सैद्धांतिक रूप से भी विभिन्न तकनीकों व अवधारणाओं की परिभाषाओं के साथ-साथ उन्हें विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है। ध्यानाकर्षक बात यह है कि उन्होंने अपने सैद्धांतिक विवेचन में ‘पूर्वाचार्यस्मरणम्’ कहकर अपने पूर्वाचार्यों व मनीषियों, जैसे- सदाशिव, भरत, कश्यप, मतंग आदि विद्वानों के मतों के साथ-साथ उस समय के सांगीतिक विकास के कारण संगीत में हो रहे परिवर्तनों को भी विचाराधीन रखा।

पंडित शार्ड्गयदेव के दादा ‘भास्कर’ तथा पिता ‘सोढल’ की वंश परंपरा भारत के कश्मीर प्रांत से संबंधित थी। पश्चातवर्ती समय में यह लोग कश्मीर से देवगिरी (आधुनिक दौलताबाद) आ गए और तत्पश्चात किन्हीं कारणों से दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान कर गए। इस प्रकार इस वंश के विद्वान भारत के उत्तर व दक्षिण दोनों भागों की कला विज्ञान व सामाजिक परंपराओं को भली-भाँति जानते थे। श्रीभास्कर ‘आयुर्वेद’ के ज्ञाता थे और देवगिरी के शासक के यहाँ नियुक्त थे। उनके पुत्र ‘सोढल’ यहीं पर कोषाधिकारी के रूप में कार्यरत हुए और उनके पश्चात शार्ड्गयेव को भी उसी पद पर नियुक्त कर दिया गया। शार्ड्गयेवे संस्कृत व तमिल भाषा के भी ज्ञाता थे और आयुर्वेद का ज्ञान उन्हें अपने पूर्वजों से मिला था जिसका प्रमाण संगीत रत्नाकर के प्रथम अध्याय से मिलता है। प्रथम अध्याय के ‘पिण्डोत्पत्ति प्रकरण’ में शार्ड्गयेव ने मानव शरीर की संपूर्ण रचनात्मक प्रक्रिया तथा शरीर में आध्यात्मिक दृष्टि से रचित दस चक्रों के महत्व का वर्णन किया है जिससे यह सिद्ध होता है कि पंडित शार्ड्गगदेव एक महान संगीतज्ञ होने के साथ-साथ विज्ञान, दर्शन तथा अन्य कलाओं के ज्ञाता भी थे। पंडित शार्ड्गगदेव शिव भक्त थे। अपने ग्रंथ के प्रथम श्लोक में ही इन्होंने नाद के रूप में शिव को उपास्य माना है। उनके मतानुसार ‘नाद’ संपूर्ण जगत में व्याप्त है और मानव शरीर में नाभि से प्राण व अग्नि (ऊर्जा) के संयोग से नाद, कंठध्वनि से उत्पत्ति का कारण होता है। ये ध्वनि धीरे-धीरे क्रमिक रूप से 22 श्रुतियों, विकृत व शुद्ध स्वरों, विभिन्न तकनीकों व अवधारणाओं के रूप में पहचानी जाती है।

‘सामवेदादिगीतं’ कहते हुए शार्ड्गदेव ने सामवेद की शाखा के रूप में गीत को विशेष महत्व दिया है। गीत वाद्य व नृत्य में निपुण कलाविद को ‘तौर्यत्रिक’ नाम से पुकारा गया।

संगीत रत्नाकर को ‘सप्ताध्यायी’ के नाम से भी जाना जाता है। इस ग्रंथ के सात अध्याय हैं जिनमें निहित महत्वपूर्ण संगीत संबंधी सामग्री को ही यहाँ रेखांकित किया जा रहा है। इन सात अध्यायों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. स्वरगताध्याय
  2. रागविवेकाध्याय
  3. प्रकीर्णकाध्याय
  4. प्रबंधाध्याय
  5. तालाध्याय
  6. वाद्याध्याय
  7. नर्तनाध्याय

पंडित शार्ड्गदेव ने संगीत को ‘मार्ग संगीत’ व ‘देशी संगीत’ के रूप में विभाजित किया है। जिस संगीत को ब्रह्मा आदि देवों द्वारा खोजा गया व भरत आदि मुनियों द्वारा जिसका प्रयोग किया गया, उस मार्ग व लोकरुचि के अनुरूप विकसित संगीत को ‘देशी’ कहा जाता है।

1. स्वरगताध्याय — प्रथम अध्याय के द्वितीय व तृतीय प्रकरणों में नाद, श्रुति, स्वर, स्वरों के देवता व रस, ग्राम, वर्ण, अलंकार, जाति, सप्तक आदि सांगीतिक तकनीकों का वर्णन किया गया है जिनके उचित प्रयोगों से असंख्य गीत रचनाएँ, धुनें, विधाएँ व सांगीतिक क्रियाएँ अपना विशिष्ट स्वरूप ग्रहण करती हैं। इसी अध्याय के चौथे व पाँचवें प्रकरण में ग्राम, मूर्च्छना, तान आदि का वर्णन करते हुए षड्ज ग्राम व मध्यम ग्राम पर विशेष बल दिया गया है और उनसे उत्पन्न होने वाली मूर्च्छना तानों का विवेचन भी किया गया है। सातवें व आठवें प्रकरण में वर्ण, अलंकार, जाति तथा गीति आदि की चर्चा की गई है।

2. रागविवेकाध्याय — इस अध्याय में राग की परिभाषा, उद्देश्य व महत्व का संकेत देने के साथ-साथ रागों को मार्ग व देशी रागों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मार्ग रागों को छह तथा देशी रागों को चार प्रमुख वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। इस वर्गीकरण को ही ‘दशविधरागवर्गीकरण’ के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त 264 रागों के वर्णन भी किए गए हैं। गीतियों (शुद्ध, भिन्ना गौड़ी, वेसरा, साधारणी) के आधार पर पाँच प्रकार के ग्रामरागों का निर्देश भी दिया गया है।

3. प्रकीर्णकाध्याय - इस अध्याय में मनोधर्म संगीत के रूप में रागालप्ति, रूपकालप्ति आदि की चर्चा समाविष्ट है जिसमें कलाकार को नियमों का पालन करने के साथ-साथ अपनी कलात्मक प्रतिभा से संगीत को विस्तरित करने का अवसर भी प्राप्त होता है। कुशल संगीतकार होने के साथ-साथ श्रेष्ठ रचनाकार व्यक्ति को वाग्गेयकार की संज्ञा देकर उसके लक्षणों का वर्णन करने के साथ-साथ गायक के गुण-दोषों को भी चिह्नित किया गया है। इस अध्याय में कंठध्वनि के उचित प्रयोगों से संबंधित तकनीक के रूप का भी वर्णन किया गया है।

4. प्रबंधाध्याय — इस अध्याय में गान को दो भागों ‘निबद्ध और अनिबद्ध’ के रूप में विभाजित किया गया है। अनिबद्ध गान वह है जो धातु व अंगों से आबद्ध नहीं है और आलाप व आलप्ति के रूप में राग के स्वरूप व उसके विस्तार से संबंधित है। जबकि निबद्ध गान अपनी कुछ आंशिक भिन्नताओं के कारण प्रबंध, वस्तु व रूपक नामों से नामांकित किया जाता है। प्रबंध का शाब्दिक अर्थ है ‘बँधा हुआ या व्यवस्थित’।

5. तालाध्याय — इस अध्याय में रागाध्याय में वर्णित मार्ग व देशी रागों की भाँति ही तालों को भी मार्ग व देशी तालों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ताल की परिभाषा व उसका संगीत में महत्व दर्शाने के साथ-साथ प्रमुख रूप से पाँच मार्ग तालों व 120 देशी तालों को निर्धारित किया गया है। ताल प्रक्रिया को व्यवस्थित करने की दृष्टि से दस प्राणों अर्थात प्रक्रियाओं का भी विस्तृत वर्णन किया गया है जिसे ‘तालदशप्राण’ की संज्ञा दी गई है।

6. वाद्याध्याय — इस अध्याय में ग्रंथकार ने भरत या भारत के प्राचीन व अधुना अर्थात तेरहवीं शताब्दी तक प्रचलित संगीत वाद्यों का वर्णन करते हुए उन्हें चार वर्गों में वर्गीकृत किया है। उनके पूर्वाचार्यों ने भी इसी ‘चतुर्विध’ वर्गीकरण को वाद्यों के वर्गीकरण का आधार बनाया था (आज भी कुछ इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों को छोड़कर अन्य वाद्यों को वर्गीकृत करते हुए इसी वर्गीकरण को अपनाया जा रहा है।) ग्रंथ में चार वर्ग के वाद्यों की बनावट का विस्तृत वर्णन किया गया है। यह चार वर्ग हैं-

(क) तत् या तंत्री वाद्य

(ख) सुषिर या फूँक से बजाए जाने वाले वाद्य

(ग) अवनद्ध या चर्म मढ़े हुए वाद्य

(घ) घन या धातु से बनने वाले वाद्य

7. नर्तनाध्याय — इस अध्याय में तेरहवीं शताब्दी तक भारत में प्रचलित नृत्य विधाओं, नृत्य शैलियों, नृत्य की अंग भंगिमाओं, आंगिक भाव प्रदर्शन, रस सिद्धांत आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। विभिन्न नृत्य मुद्राओं एवं हस्त मुद्राओं पर भी प्रकाश डाला गया है।

इस प्रकार संगीत रत्नाकर भारत में मुस्लिम साम्राज्य स्थापित होने से पूर्व काल का वह अंतिम ग्रंथ है जिसमें वर्णित सामग्री उत्तर व दक्षिण भारतीय दोनों संगीत पद्धतियों के लिए महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि दो भिन्न पद्धतियों के अस्तित्व में आने से पूर्व सामवेद से चली आ रही एक ही संगीत पद्धति जिसे ‘भारतीय संगीत पद्धति’ के नाम से जाना जाता था। संपूर्ण भारत में संगीतविदों द्वारा अपनाई जाती थी। उत्तर भारत में मुस्लिम शासन काल में मुस्लिम संस्कृति के प्रभाव के कारण आए परिवर्तनों के फलस्वरूप तेरहवीं शताब्दी के बाद से उत्तर भारत में पंजाब, दिल्ली व अन्य प्रदेशों के संगीत में कुछ अंतर परिलक्षित होने लगे। धीरे-धीरे यह परिवर्तन या अंतर दो पद्धतियों के स्वरूप के रूप में चिह्नित किए जाने लगे। परंतु फिर भी संगीत के परंपरागत सिद्धांत, तकनीकी प्रयोग तथा आकार-प्रकार में संबंधित शास्त्रों में वर्णित सामग्री संगीत सरिता का संरक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

  1. पिण्डोत्पत्ति प्रकरण से आप क्या समझते हैं?
  2. तौर्यत्रिक शब्द से क्या तात्पर्य है?
  3. दशविधरागवर्गीकरण क्या है?
  4. ‘वाग्गेयकार’ किसे कहा जाता था?
  5. संगीत रत्नाकर के अध्यायों में लिखित विषयवस्तु को पढ़ने के बाद क्या हम आज के शास्त्रीय संगीत से इसकी समानता को जाँच सकते हैं?

संगीत पारिजात

सत्रहवीं शताब्दी में पंडित अहोबल द्वारा संस्कृत भाषा में संगीत पारिजात नामक ग्रंथ की रचना की गई। उत्तर भारतीय व दक्षिणी भारतीय संगीत जिन्हें हिंदुस्तानी संगीत पद्धति व कर्नाटक संगीत पद्धति के नाम से जाना जाता है, दोनों के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ माना गया है।

पंडित अहोबल का जन्म सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में दक्षिण भारत में हुआ था। उनके पिता श्री कृष्ण पंडित संस्कृत भाषा के विद्वान थे। अत: संस्कृत भाषा की शिक्षा उन्हें अपने पिता से ही मिली। उसके साथ-साथ उन्होंने कर्नाटक संगीत का भी गहन अध्ययन किया। तत्पश्चात उत्तर भारत में आकर उन्होंने उत्तर भारतीय संगीत के नियमों का अध्ययन भी किया और उत्तर भारत में ही धनबढ़ नामक स्थान पर रहकर 1650 ई. में संगीत पारिजात ग्रंथ की रचना की, जिसका फ़ारसी अनुवाद 1724 ई. में किया गया। यह अनुवाद उत्तर प्रदेश के रामपुर शहर में रज़ा पुस्तकालय में उपलब्ध है। संगीत पारिजात में कुल 708 श्लोक हैं और इसे दो खण्डों में विभाजित किया गया है-

  1. रागगीत विचार खण्ड
  2. वाद्यताल खण्ड

1. रागगीत विचार खण्ड — इस खण्ड में स्वर प्रकरण, ग्राम लक्षण, मूच्छ्धना व स्वर प्रस्तार, वर्ण लक्षण, जाति निरूपण, राग प्रकरण, प्रबंध विवरण, वागेयकार लक्षण तथा गायक के गुण-दोषों का विवेचन किया गया है। इस खण्ड में पंडित अहोबल ने मंगलाचार के उपरांत संगीत को यज्ञ, तप, दान से भी महान बताया है, उन्होंने अपने पूर्व ग्रंथकार पंडित शार्ड्गदेव द्वारा रचित संगीत के विचारों को ही अपनाया है, जैसे- गीत, वाद्य और नृत्य के सम्मिलित स्वरूप को संगीत कहा गया है।

श्रुति व स्वर के अंतर को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि श्रुति का अर्थ है ‘सुनना’ परंतु वह स्वर से पृथक नहीं है। जिस प्रकार सर्प और उसकी कुण्डली परस्पर संबंधित होते हैं उसी प्रकार श्रुति व स्वर का संबंध होता है।

बाइस श्रुतियों का वर्णन करने के उपरांत अहोबल ने सात शुद्ध व 22 विकृत स्वरों को स्पष्ट किया है और 22 श्रुतियों पर सात शुद्ध स्वरों की स्थापना की है। इस स्थापना में-

  • सा, म, प की 4-4 श्रुतियाँ
  • रे, सा की 3-3 श्रुतियाँ
  • म, नी की 2-2 श्रुतियाँ मानी गई हैं।

उनतीस स्वरों की स्थिति स्पष्ट करने के लिए पंडित अहोबल ने तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, कोमल, पूर्व, साधारण, काकली व कैशिक संज्ञाएँ दी हैं। प्रायोगिक रूप से उन्होंने वादी, संवादी, अनुवादी व विवादी के रूप में स्वरों के चार प्रकार माने हैं तथा विभिन्न स्वरों के देवता, कुल, जाति, रंग, रस और ऋषि आदि का भी वर्णन अपने पूर्व विद्वानों की भाँति ही किया है। स्वरों को उनकी दी गई श्रुतियों में से अंतिम श्रुति पर स्थापित किया गया जिससे उनके शुद्ध सप्तक का स्वरूप आधुनिक ‘काफी’ के समान हो गया। मार्ग व देशी संगीत के रूप में संगीत के दो भेद मानते हुए पंडित अहोबल ने भी नाद की उत्पत्ति ‘नाभि’ से उत्पन्न होने वाली प्राण वायु अर्थात प्राण व अग्नि (ऊर्जा) के संयोग से ही मानी है। मंद्र, मध्य व तार ध्वनियों की उत्पत्ति का आधार कंठ में स्थित विशुद्धि चक्र को तथा मस्तिष्क में स्थित सहस्त्रहार चक्र को माना है। ‘ग्राम’ की तुलना पंडित अहोबल ने उसके शाब्दिक अर्थ के अनुसार ‘ग्राम’ अथवा गाँव से करते हुए माना है कि जिस प्रकार बहुत से व्यक्ति एक स्थान पर संगठित होकर एक साथ रहते हैं, उसी प्रकार स्वर जब पारस्परिक संबंध स्थापित करते हुए आपस में संवाद रखते हुए स्थापित होते हैं तो वह स्वर समूह ‘ग्राम’ कहलाता है। इस प्रकार उन्होंने ग्राम में षड्ज् ग्राम, मध्यम ग्राम एवं गंधार ग्राम को माना। परंतु रागों की उत्पत्ति व उस प्रयोजन के लिए उन्होंने षड्ज ग्राम व मध्यम ग्राम को ही मान्यता दी। अहोबल ने तानों का भी उल्लेख किया है जिसमें स्वर प्रस्तार के लिए ‘खंडमेरू’ पद्धति को अपनाया है। कुछ विशिष्ट स्वरों को लेकर गणितीय पद्धति से बनाए गए उनके संभावित स्वर समुदाय जिनमें समानता व विभिन्नता दोनों विद्यमान रहती हैं ‘खंडमेरू’ पद्धति कहलाती है। आजकल इसे कुछ लोग ‘मेरूखंड’ भी कहने लगे हैं।

उदाहरणस्वरूप— सा रे नी सा, रे सा नी सा, नी रे नी सा सा, सा सा रे नी, रे नी सा रे, म रे सा नी आदि।

‘वर्ण’ लक्षणों में अहोबल ने अपने पूर्व विद्वानों की भाँति ही चार वर्ण—स्थायी, आरोही, अवरोही व संचारी माने हैं। ‘अलंकार’ की परिभाषा वर्णित करते हुए उन्होंने अलंकारों की संख्या कुल 69 मानी है जो संख्या निम्न रूप में दर्शाई गई है-

  • स्थायी वर्ण -7 अलंकार
  • आरोही वर्ण -12 अलंकार
  • अवरोही वर्ण - 12 अलंकार
  • संचारी वर्ण -38 अलंकार

जाति निरूपण में उन्होंने सात शुद्ध जातियों का उल्लेख किया है- षाड्जी, आर्षभी, गंधारी, मध्यमा, पंचमी, धैवती व नैषादी। तत्पश्चात विभिन्न प्रकार के गमकों का वर्णन करने के उपरांत उन्होंने वीणा के तार पर स्वरों की स्थापना का वर्णन किया है। साथ ही पाँच गीतियों के रूप में शुद्धा, भिन्ना, गौड़ी, वेसरा व साधारणी गीतियों के लक्षण दिए हैं। गीतियों की चर्चा के उपरांत 125 रागों के वर्णन, उनके प्रमुख स्वर समुदाय व गायन समय आदि से संबंधित वर्णन किया है। राग प्रकरण पर प्रकाश डालने के पश्चात प्रबंध की चर्चा भी की गई है। वागेयकार के लक्षण के साथ-साथ गायन के लक्षणों का भी उल्लेख किया है।

2. वाद्यताल खण्ड - संगीत पारिजात के द्वितीय खण्ड ‘वाद्यताल खण्ड’ के अंतर्गत पंडित अहोबल ने वाद्यों के चार प्रकारों- तत्, सुषिर, अवनद्ध व घन का वर्णन किया है। तत् वाद्यों में आठ प्रकार की वीणा, आठ प्रकार के अवनद्ध वाद्य, 10 प्रकार के सुषिर वाद्य और 12 प्रकार के घन वाद्यों की चर्चा करने के पश्चात उन्होंने ताल के दश प्राणोंकाल, मार्ग, क्रिया, अंग, ग्रह, जाति, कला, लय, यति और प्रस्तार का वर्णन भी किया है। इस प्रकार संगीत पारिजात ग्रंथ हिंदुस्तानी व कर्नाटक दोनों संगीत पद्धति की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। तेरहवीं शताब्दी के लगभग 400 वर्षों के पश्चात सत्रहवीं शताब्दी में जब भारत में मुस्लिम साप्राज्य के स्थापित हो जाने के कारण भारतीय संस्कृति व कलाओं पर विदेशी सभ्यता संस्कृति तथा कलाओं का प्रभाव पड़ने लगा था और भारतीय संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने के प्रयास किए जाने लगे थे तब ऐसे समय में भी पंडित अहोबल द्वारा रचित ‘संगीत पारिजात’ भारतीय संगीत के शास्त्रोक्त जानकारी को संरक्षित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया जाता है।

  1. वाद्यों के चार प्रकारों के नाम लिखिए।
  2. पंडित अहोबल द्वारा कितने तत् व अवनद्ध वाद्यों का उल्लेख किया गया है?
  3. संगीत पारिजात में दिए गए प्रबंध के धातु व अंगों के नाम लिखिए।
  4. संगीत पारिजात के वाद्यताल खण्ड की विषयवस्तु का वर्णन कीजिए।
  5. पंडित अहोबल का जन्म कब और कहाँ हुआ था?

संगीत मकरंद

भारतीय संगीत के इतिहास में संगीत मकरंद नामक ग्रंथ का उल्लेख मिलता है जिसकी रचना का श्रेय ‘नारद’ को दिया जाता है। वास्तव में देवगंधर्वों में वीणा हाथ में लिए हुए जिन ‘देवर्षि नारद’ का उल्लेख पुराणों में किया गया है, ‘संगीत मकरंद’ के रचयिता के रूप में भूगंधर्व ‘नारद’ उनसे भिन्न हैं। ऐतिहासिक ग्रंथों में ‘नारद’ नामक रचनाकार द्वारा नारदीय शिक्षा, संगीत मकरंद तथा पंचमसारसंहिता नामक ग्रंथों की रचना करने की चर्चा उपलब्ध होती है, परंतु इन तीनों ही ग्रंथों के रचना काल के संदर्भ में विद्वानों में मतभेद हैं। नारदीय शिक्षा का सीधा संबंध वैदिक कालीन संगीत से होने के कारण उसका रचना काल ईसा पूर्व माना जाता है। संगीत मकरंद का रचना काल कुछ विद्वानों द्वारा सातवीं या आठवीं शताब्दी माना गया है, जबकि कुछ विद्वानों द्वारा उसका समय तेरहवीं शताब्दी में रचित संगीत रत्नाकर के भी पश्चात का माना गया है।

संगीत मकरंद में प्रथम बार रागों को पुरुष राग, स्त्री राग व नपुंसक रागों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। विशेष बात यह भी है कि इस ग्रंथ में ‘रागिनी’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। रागों

चित्र 2.1 — पाँच आकाश संगीतकार, स्वात घाटी, गांधार क्षेत्र, चौथी-पाँचवीं शताब्दी

को रसों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। रौद्र, अद्भुत तथा वीर रस से संबंधित रागों को पुरुष राग, शृंगार तथा करूण रस से संबंधित रागों को स्त्री राग तथा भयानक, हास्य व शांत रसों से संबंधित रागों को नपुंसक रागों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। 20 पुरुष राग, 24 स्त्री राग तथा 13 नपुंसक रागों को निर्धारित करने के साथसाथ स्वर, मूर्च्छना, राग व ताल आदि विषयों से संबंधित तथ्य भी इस ग्रंथ में उपलब्ध होते हैं।

इस ग्रंथ में नारद द्वारा औडव, षाड्व व संपूर्ण जातियों का उल्लेख भी उपलब्ध होता है। रागों में स्वरों की संख्या के आधार पर रागों का प्रभाव मन व शरीर पर किस प्रकार पड़ता है इसका संकेत भी किया गया है। उदाहरणस्वरूप-

अर्थात आयु, धर्म, यश, वृद्धि, संतान की अभिवद्धि, धन धान्य, फल, लाभ आदि के लिए ‘पूर्ण’ (संपूर्ण) रागों का गान करना चाहिए। संगीताध्याय प्रकरण में समन्वित इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि रागों में निर्धारित स्वरों की संख्या कहीं न कहीं उनकी प्रकृति व रस को भी प्रभावित करती है।

नाद के पाँच भेदों के रूप में नखज (नाखून से उत्पन्न की गई ध्वनि), चर्मज (चर्म से किए गए प्रहार से उत्पन्न ध्वनि), लौहज (लोहे अर्थात धातु के माध्यम से उत्पन्न की गई ध्वनि), एवं शरीरज (कंठ तन्त्रियों से उत्पन्न की गई ध्वनि) का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संगीत मकरंद नामक ग्रंथ में रागों को सर्वप्रथम स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक रागों के रूप में वर्गीकृत करने के साथ-साथ औडव, षाड्व व संपूर्ण जातियों के आधार पर वर्गीकृत किए जाने के कारण इस ग्रंथ को ऐतिहासिक ग्रंथों में विशेष महत्व प्राप्त है।

  1. संगीत मकरंद में रागों का वर्णन किस प्रकार किया गया है?
  2. इस ग्रंथ में रागों की संख्याओं का निर्धारण/वर्गीकरण कीजिए?
  3. इस ग्रंथ में नाद के किन पाँच भेदों का उल्लेख है?

अभ्यास

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

1. संगीत मकरंद में _______________ तथा संपूर्ण जातियों का उल्लेख प्राप्त है।

2. संगीत मकरंद ग्रंथ के रचनाकार _______________ हैं।

3. _______________ धन्धान्य फलम लभेत रागाभिवृद्धि _______________ पूर्णरागा प्रगीयते, उपरोक्त श्लोक को पूर्ण करें।

4. पंचमसारसंहिता _______________ द्वारा रचित है।

5. संगीत रत्नाकर ग्रंथ में _______________ अध्याय हैं।

6. ‘प्रबंध’ का शाब्दिक अर्थ _______________ है।

7. _______________ ताल प्रक्रिया का व्यवस्थित स्वरूप है।

8. _______________ शताब्दी में संगीत रत्नाकर ग्रंथ की रचना हुई।

नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

1. संगीत रत्नाकर में शार्ड्गदेव ने किन विद्वानों का उल्लेख किया है?

2. खंडमेरू से आप क्या समझते हैं?

3. संगीत पारिजात में चार वर्णों के अलंकारों की संख्या क्या है?

4. पंडित अहोबल द्वारा शुद्ध व विकृत कुल कितने स्वरों का उल्लेख किया गया है।

5. संगीत पारिजात में वर्णित पाँच गीतियाँ कौन-सी हैं?

6. संगीत रत्नाकर के निम्न अध्यायों पर प्रकाश डालिए-

(क) स्वरगताध्याय और (ख) वाद्याध्याय

7. संगीत रत्नाकर में किन गीतियों के आधार पर पाँच प्रकार के ग्राम रागों का निर्देश दिया गया है?

8. संगीत रत्नाकर के ‘रागविवेकाध्याय’ का वर्णन कीजिए?

9. संगीत पारिजात में ग्राम को किस प्रकार परिभाषित किया गया है?

10. ‘तालदशप्राण’ किसे कहा गया है?

11. श्रुति व स्वर के अंतर का वर्णन कीजिए।

12. निबद्ध और अनिबद्ध में क्या भिन्नता पाई जाती है?

13. संगीत पारिजात के वाद्यताल खण्ड के अंतर्गत कितने प्रकार की वीणा/अवनद्ध वाद्यों का उल्लेख किया गया है?

14. नारदकृत ग्रंथ संगीत मकरंद में वर्णित विषयवस्तु का विस्तृत वर्णन कीजिए।

15. पंडित अहोबल द्वारा श्रुतियों को स्वरों में किस प्रकार विभाजित किया गया है?

बहुविकल्पीय प्रश्न-

1. संगीत पारिजात में दिए गए अलंकारों की कुल संख्या क्या है?

(क) 22

(ख) 12

(ग) 69

(घ) 67

2. पंडित अहोबल द्वारा सामान्य रूप से स्वीकृत किए गए ग्रामों की संख्या कितनी है?

(क) 10

(ख) 3

(ग) 2

(घ) 8

3. संगीत पारिजात में कितने श्लोक हैं?

(क) 708

(ख) 125

(ग) 700

(घ) 245

4. संगीत पारिजात में कितने रागों का वर्णन किया गया है?

(क) 123

(ख) 125

(ग) 127

(घ) 129

5. पंडित अहोबल ने किस ग्रंथ की रचना की थी?

(क) संगीत सार

(ख) गीत गोविंद

(ग) संगीत मकरंद

(घ) संगीत पारिजात

सुमेलित कीजिए-

1. रागविवेकाध्याय (क) संगीत पारिजात
2. देशी ताल (ख) काल-मार्ग
3. रज़ा पुस्तकालय (ग) संगीत रत्नाकर
4. वर्ण (घ) 120
5. दशप्राण (ङ) आरोही
6. अहोबल (च) रामपुर

विद्यार्थियों हेतु गतिलिधि-

1. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ग्रंथों की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए एक परियोजना तैयार कीजिए।

2. वर्तमान काल में यदि आपको संगीत जैसे रोचक एवं गंभीर विषय पर ग्रंथ लिखना हो, तो आपकी विषयवस्तु क्या होगी तथा आप किन बिंदुओं और पक्षों को अपने ग्रंथ में संकलित करेंगे? परियोजना बनाइए।

3. कक्षा में अपने सहपाठियों से किसी ग्रंथ पर चर्चा कर उस ग्रंथ एवं ग्रंथकार का छायाचित्र संकलित कीजिए।



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