काव्य खंड 06 भरत-राम का प्रेम
तुलसीदास
(सन् 1532-1623)
तुलसीदास का जन्म बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान उनका जन्म स्थान सोरों, एटा को भी मानते हैं। हालॉका उनके जन्म स्थान के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। तुलसीदास का बचपन घोर कष्ट में बीता। बालपन में ही उनका माता-पिता से बिछोह हो गया था और भिक्षाटन द्वारा वे अपना जीवन-यापन करने को विवश हुए। कहा जाता है, गुरु नरहरिदास की कृपा से उन्हे रामभक्ति का मार्ग मिला। रत्नावली से उनका विवाह होना और उनकी बातों से प्रभावित होकर तुलसीदास का गुहत्याग करने की कथा प्रसिद्ध है, किंत इसका पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलता। पारिवारिक जीवन से विरक्त होने के बाद वे काशी, चित्रकूट, अयोध्या आदि तीर्थों में अमण करते रहे। सन् 1574 में अयोध्या में उन्हॉने रामचरितमानस की रचना प्रारंभ की, जिसका कुछ अंश उन्हॉने काशी में लिखा। बाद में वे काशी में रहने लगे थे और यही उनका निधन हुआ।
तुलसीदास लोकमंगल की साधना के कवि हैं। उन्हें समन्वय का कवि भी कहा जाता है। तुलसीदास का भावजगत धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से बहुत व्यापक है। मानव-प्रकृति और जीवन-जगत संबंधी गहरी अंतरदृष्टि और व्यापक जीवनानुभव के कारण ही वे रामचरितमानस में लोकजीवन के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन कर सके। मानस में उनके हद्य की विशालता, भाव प्रसार की शक्ति और मर्मस्पर्शी स्थलों की पहचान की क्षमता पूरे उत्कर्ष के साथ व्यक्त हुई है। तुलसी को मानस में जिन प्रसंगों की अभिव्यक्ति का अवसर नहीं मिला उनको उन्होने कवितावली, गीतावली आदि में व्यक्त किया है। विनयपत्रिका में विनय और आत्म-निवेदन के पद हैं। इस प्रकार तुलसी के काव्य में विश्वबोध और आत्मबोध का अद्वितीय समन्वय हुआ है।
तुलसीदास की रचनाओं में भाव, विचार, काव्यरूप, छंद-विवेचन और भाषा की विविधता मिलती है। रामचरितमानस हिंदी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य माना जाता है। इसकी रचना मुख्यतः दोहा और चौँपाई छंद में हुई है। इसकी भाषा अवधी है। गीतावली, कृष्ण गीतावली तथा विनयपत्रिका पद शैली की रचनाएँ हैं तो दोहावली स्कुट दोहों का संकलन। कवितावली कवित्त और सवैया छंद में रचित उत्कृष्ट रचना है।
व्रज और अवधी दोनों ही भाषाओं पर नुलसी का असाधारण अधिकार था। तुलसीकृत बारह कृतियाँ प्रामाणिक मानी जाती हैं परंतु रामचरितमानस, कवितावली, गीतावली और विनयपत्रिका ही उनकी ख्याति के आधार हैं।
पाठ्यपुस्तक में प्रस्तुत चौपाई और दोहों को रामचरितमानस के अयोध्या कांड से लिया गया है। इन छंदों में राम वनगमन के पश्चात् भरत की मनोदशा का वर्णन किया गया है। भरत भावुक हदय से बताते हैं कि राम का उनके प्रति अत्यधिक प्रेमभाव है। वे बचपन से ही भरत को खेल में भी सहयोग देते रहते थें और उनका मन कभी नहीं तोड़ते थे। वे कहते हैं कि इस प्रेमभाव को भाग्य सहन नहीं कर सका और माता के रूप में उसने व्यवधान उपस्थित कर दिया। राम के वन गमन से अन्य माताएँ और अयोध्या के सभी नगरवासी अत्यंत दुखी हैं।
$\quad$ इस पाठ के अगले अंश में गीतावली के दो पद दिए गए हैं जिनमें से प्रथम पद में राम के वनगमन के बाद माता कौशल्या के हदय की विरह वेदना का वर्णन किया गया है। वे राम की वस्तुओं को देखकर उनका स्मरण करती हैं और बहुत दुखी हो जाती हैं। दूसरे पद में माँ कौशल्या राम के वियोग में दुखी अश्वों को देखकर राम से एक बार पुनः अयोध्यापुरी आने का निवेदन करती हैं।
भरत-राम का प्रेम
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े ॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा ॥
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥
मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥
सिसुपन तें परिहरेँँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेंहूँ खेल जितावहिं मोंही॥
$\qquad$ $\qquad$ महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
$\qquad$ $\qquad$ दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन॥
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा॥
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा॥
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली॥
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली॥
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू॥
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिडँ जायँ जननि कहि काकू॥
हृदयँ हेरि हारेँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा॥
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥
$\qquad$ $\qquad$ साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
$\qquad$ $\qquad$ प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ॥
भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं॥
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिडँ सब सूला॥
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा॥
बिन पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेडँ ऐहि घाएँ॥
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू॥
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई॥
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तापस तीछी॥
$\qquad$ $\qquad$ तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
$\qquad$ $\qquad$ तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि॥
$\quad \qquad \quad \quad \quad \quad \quad \qquad \quad \qquad \qquad$ - रामचरितमानस से
पद
(1)
जननी निरखति बान धनुहियाँ।
बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ॥
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
“उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे”॥
कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँँ, भैया।
बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया”
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।
तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी॥
(2)
राघौ! एक बार फिरि आवौ।
ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ॥
जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे।
क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले! ते अब निपट बिसारे॥
भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।
तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे॥
सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु संदेसो।
तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो॥
$\quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \qquad \qquad$ - गीतावली से
प्रश्न-अभ्यास
भरत-राम का प्रेम
1. ‘हारेंहु खेल जितावहिं मोही’ भरत के इस कथन का क्या आशय है?
2. ‘मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ।’ में राम के स्वभाव की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है?
3. राम के प्रति अपने श्रद्धाभाव को भरत किस प्रकार प्रकट करते हैं, स्पष्ट कीजिए।
4. ‘महीं सकल अनरथ कर मूला’ पंक्ति द्वारा भरत के विचारों-भावों का स्पष्टीकरण कीजिए।
5. ‘फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली’। पंक्ति में छिपे भाव और शिल्प सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।
पद
1. राम के वन-गमन के बाद उनकी वस्तुओं को देखकर माँ कौशल्या कैसा अनुभव करती हैं? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।
2. ‘रहि चकि चित्रलिखी सी’ पंक्ति का मर्म अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
3. गीतावली से संकलित पद ‘राघौ एक बार फिरि आवौ’ में निहित करुणा और संदेश को अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
4. (क) उपमा अलंकार के दो उदाहरण छाँटिए।
$\quad$(ख) उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग कहाँ और क्यों किया गया है? उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए।
5. पठित पदों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि तुलसीदास का भाषा पर पूरा अधिकार था?
योग्यता-विस्तार
1. ‘महानता लाभलोभ से मुक्ति तथा समर्पण त्याग से हासिल होता है’ को केंद्र में रखकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
2. भरत के त्याग और समर्पण के अन्य प्रसंगों को भी जानिए।
3. आज के संदर्भ में राम और भरत जैसा भ्रातृप्रेम क्या संभव है? अपनी राय लिखिए।
शब्दार्थ और टिप्पणी
ठाढ़े - खड़े होना
कोह - क्रोध
मिस - बहाना, माध्यम
बिसेखी - विशेष
खुनिस - क्रोध, अप्रसन्नता
सुचि - पवित्र, शुद्ध
कोदव - एक जंगली कंद मूल, मोटे चावल की एक किस्म
सुसाली - धान
मुकुता - मोती
संबुक - घोंघा
उददि - सागर
अघ - पाप
नीक - सही, ठीक
सतिभाऊ - शुद्ध भाव से
साखी - साक्षी
पयादेहि - पैदल, नंगे पाँव
कुलिस - कुलिश, वज्र
बेहू - भेदन
बीछीं - बिच्छू, एक ज़हरीला जीव
तनय - पुत्र
धनुहियाँ - बाल धनुष
पनहियाँ - जूतियाँ
बार - देरी
जेंइय _ जीमना, भोजन करना
सवारे - सवेरे
चित्रलिखी-सी - चित्र के समान
सिखी - सीखी गई
बाजि - घोड़ा
पोखि - सहलाना, प्यार करना, हाथ फेरना
निपट - बिलकुल
सार - देखभाल, ध्यान
झाँवरे - कुम्हलाना, मलिन होना
अंदेसो - अंदेशा, चिंता