काव्य खंड 03 यह दीप अकेला
सच्चिदानंद हीरानंद् वात्स्यायन 'अज्ञेय'
(सन् 1911-1987)
अज्ञेय का मूल नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन है। उन्होने अज्ञेय नाम से काव्य-रचना की। उनका जन्म कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था, किंतु बचपन लखनक, श्रीनगर और जम्मू में बीता। उनकी प्रारोभिक शिक्षा अंग्रेजी और संस्कृत में हुई। हिंदी उन्होने बाद में सीखी। वे आरंभ में विज्ञान के विद्यार्थी थे। बी.एससी. करने के बाद उन्होंने एम. ए. अंग्रेज़ी में प्रवेश लिया। क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें अपना अध्ययन बींच में ही छेड़ना पड़ा। वे चार वर्ष जेल में रहे तथा दो वर्ष नज़बंद।
अज्ञेय ने देश-विदेश की अनेक यात्राएँ कीं। उन्होंने कई नौकरियाँ की और छोड़ी। कुछ समय तक वे जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर भी रहे। वे हिंदी के प्रसिद्ध समाचार साप्ताहिक दिनमान के संस्थापक संपादक थे। कुछ दिनों तक उन्होने नवभारत टाइस्स का भी संपादन किया। इसके अलावा उन्होने सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, नया प्रतीक आदि अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। आजादी के बाद की हिंदी कविता पर उनका व्यापक प्रभाव है। उन्होंने सप्तक परंपरा का सूत्रपात करते हुए तार सप्तक, दूसरा सप्तक, तौसरा सप्तक का संपादन किया। प्रत्येक सप्तक में सात कवियों की कविताएँ संगृहीत हैं जो शताव्दी के कई दशकों की काव्य-चेतना को प्रकट करती हैं।
अज्ञेय ने कविता के साथ कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, निबंध, आलोचना आदि अनेक साहित्यिक विधाओं में लेखन कार्य किया है। शेखर-एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी (उपन्यास), अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली (यात्रा-वृत्तांत), त्रिशंकु, आत्मने पद (निबंध), विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल और ये तेरे प्रतिरूप (कहानी संग्रह) प्रमुख रचनाएँ हैं।
अज्ञेय प्रकृति-प्रेम और मानव-मन के अंतद्धं के कवि हैं। उनकी कविता में व्यक्ति की स्वतंत्रता का आग्रह है और बौद्धिकता का विस्तार भी। उन्होने शब्दों को नया अर्थ देने का प्रयास करते हुए, हिंदी काव्य-भाषा का विकास किया है। उन्हें अनेक पुरस्कार मिले हैं, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारत भारती सम्मान और भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रमुख हैं।
उनकी मुख्य काव्य-कृतियाँ हैं-भग्नदूत, चिंता, हरी घास पर क्षणभर, इंद्रधनु रौंदे हुए ये, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार आदि। अज्ञेय की संपूर्ण कविताओं का संकलन सदानीरा नाम से दो भागों में प्रकाशित हुआ है।
यह दीप अकेला कविता में अज्ञेय ऐसे दीप की बात करते हैं जो स्नेह भरा है, गर्व भरा है, मदमाता भी है किंतु अकेला है। अहंकार का मद हमें अपनो से अलग कर देता है। कवि कहता है कि इस अकेले दीप को भी पंक्ति में शामिल कर लो। पक्ति में शामिल करने से उस दीप की महत्ता एवं सार्थकता बढ़ जाएगी। दीप सब कुछ है, सारे गुण एवं शक्तियाँ उसमें हैं, उसकी व्यक्तिगत सत्ता भी कम नहीं है फिर भी पंक्ति की तुलना में वह एक है, एकाकी है। दीप का पंक्ति या समूह में विलय ही उसकी ताकत का, उसकी सत्ता का सार्वभौमीकरण है, उसके लक्ष्य एवं उद्देश्य का सर्वव्यापीकरण है। ठीक यही स्थिति मनुष्य की भी है। व्यक्ति सब कुछ है, सर्वशक्तिमान है, सर्वगुणसंपन्न है फिर भी समाज में उसका विलय, समाज के साथ उसकी अंतरंता से समाज मज़बूत होगा, राष्ट्र मज़बूत होगा। इस कविता के माध्यम से अज्ञेय ने व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ने पर बल दिया है। दीप का पंक्ति में विलय व्यष्टि का समष्टि में विलय है और आत्मबोध का विश्वबोध में रूपांतरण।
मै ने देखा एक बूँद कविता में अज्ञेय ने समुद्र से अलग प्रतीत होती यूँद की क्षणभंगुरता को व्याख्यायित किया है। यह क्षणभग्गुरता यूँद की है, समुद्र की नहीं। बूँद क्षणभर के लिए बलते सूरज की आग से रंगा जाती है। क्षणभर का यह दृश्य देखकर कवि को एक दार्शनिक तत्व भी दीखने लग जाता है। विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग दिखना नश्वरता के दाग से, नष्ट होने के बोध से मुक्ति का अहसास है। इस कविता के माध्यम से कवि ने जीवन में क्षण के महत्त्व कों, क्षणभगुरता को प्रतिष्ठापित किया है।
यह दीप अकेला
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है-गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा?
पनडुब्बा-ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा?
यह समिधा-ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय-यह मेरा-यह मैं स्वयं विसर्जितयह
दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह मधु है-स्वयं काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस-जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर-फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुतः इसको भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिस की गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कडुवे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लंब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो-
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
मैंने देखा, एक बूँद
मैंने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से;
रंग गई क्षणभर
ढलते सूरज की आग से।
मुझ को दीख गया:
सूने विराट् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से!
प्रश्न-अभ्यास
यह दीप अकेला
1. ‘दीप अकेला’ के प्रतीकार्थ को स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि उसे कवि ने स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता क्यों कहा है?
2. यह दीप अकेला है ‘पर इसको भी पंक्ति को दे दो’ के आधार पर व्यष्टि का समष्टि में विलय क्यों और कैसे संभव है?
3. ‘गीत’ और ‘मोती’ की सार्थकता किससे जुड़ी है?
4. ‘यह अद्वितीय-यह मेरा-यह मैं स्वयं विसर्जित’-पंक्ति के आधार पर व्यष्टि के समष्टि में विसर्जन की उपयोगिता बताइए।
5. ‘यह मधु है ……….. तकता निर्भय’-पंक्तियों के आधार पर बताइए कि ‘मधु’, ‘गोरस’ और ‘अंकुर’ की क्या विशेषता है?
6. भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
(क) ‘यह प्रकृत, स्वयंभू …………………….. शक्ति को दे दो।’
(ख) ‘यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक …………………….. चिर-अखंड अपनापा।’
(ग) ‘जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो।’
7. ‘यह दीप अकेला’ एक प्रयोगवादी कविता है। इस कविता के आधार पर ‘लघु मानव’ के अस्तित्व और महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
मैंने देखा, एक बूँद
1. ‘सागर’ और ‘बूँद’ से कवि का क्या आशय है?
2. ‘रंग गई क्षणभर, ढलते सूरज की आग से’-पंक्ति के आधार पर बूँद के क्षणभर रंगने की सार्थकता बताइए।
3. ‘सूने विराट् के सम्मुख ’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’ दाग से!’- पंक्तियों का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
4. ‘क्षण के महत्त्व’ को उजागर करते हुए कविता का मूल भाव लिखिए।
योग्यता-विस्तार
1. अज्ञेय की कविताएँ ‘नदी के द्वीप’ व ‘हरी घास पर क्षणभर’ पढ़िए और कक्षा की भित्ति पत्रिका पर लगाइए।
2. ‘मानव और समाज’ विषय पर परिचर्चा कीजिए।
3. भारतीय दर्शन में ‘सागर’ और ‘बूँद’ का संदर्भ जानिए।
शब्दार्थ और टिप्पणी
यह दीप अकेला
कृती - भाग्यवान, कुशल
पनडुब्बा - गोताखोर, एक जलपक्षी जो पानी में डूब-डूबकर मछलियाँ पकड़ता है
समिधा - यज्ञ की सामग्री
बिरला - बहुतों में एक
विसर्जित - त्यागा हुआ
गोरस - दूध, दही
निर्भय - भय रहित, निडर
प्रकृत - प्रकृति से उत्पन्न, प्रकृति के अनुरूप, स्वाभाविक
स्वयंभू - ब्रह्मा, स्वयं पैदा हुआ
अयुतः - 10 हज़ार की संख्या, असंबद्ध, पृथक
अमृत-पूत-पय - अमृत रूपी पवित्र दूध
कुत्सा - निंदा, घृणा
उल्लंब-बाहु - उठी हुई बाँह वाला
मौना - टोकरा, पिटारा
मैंने देखा, एक बूँद
विराट् - बहुत बड़ा, ब्रह्म
उन्मोचन - मुक्त करना, ढीला करना
नश्वरता - नाशशीलता, मिटना