काव्य खंड 02 सरोज स्मृति
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
(सन् 1898-1961)
निराला का जन्म बंगाल में मेदिनीपुर जिले के महिषादल गाँव में हुआ था। उनका पितृग्राम उत्तर प्रदेश का गढ़कोला (उन्नाव) है। उनके बचपन का नाम सूर्य कुमार था। बहुत छेटी आयु में ही उनकी माँ का निधन हो गया। निराला की विधिवत स्कूली शिक्षा नव्वं कक्षा तक ही हुई। पत्नी की प्रेरणा से निराला की साहित्य और संगीत में रुचि पैदा हुई। सन् 1918 में उनकी पत्नी का देहांत हो गया और उसके बाद पिता, चाचा, चचेरे भाई एक-एक कर सब चल बसे। अंत में पुत्री सरोज की मृत्यु ने निराला को भीतर तक झकझोर दिया। अपने जीवन में निराला ने मृत्यु का जैसा साक्षात्कार किया था उसकी अभिव्यक्ति उनकी कई कविताओं में दिखाई देती है।
सन् 1916 में उन्होने प्रसिद्ध कविता जूही की कली लिखी जिससे बाद में उनको बहुत प्रसिद्धि मिली और वे मुक्त छंद के प्रवर्तक भी माने गए। निराला सन् 1922 में रामकृष्ण मिशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका समन्वय के संपादन से जुड़े। सन् 1923-24 में वे मतवाला के संपादक मंडल में शामिल हुए। वे जीवनभर पारिवारिक और आर्थिक कष्टों से जूझते रहे। अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण निराला कहीं टिककर काम नहीं कर पाए। अंत में इलाहाबाद आकर रहे और वहीं उनका देहांत हुआ।
छायावाद और हिंदी की स्वच्छंदतावादी कविता के प्रमुख आधार स्तंभ निराला का काव्य-संसार बहुत व्यापक है। उनमें भारतीय इतिहास, दर्शन और परंपरा का व्यापक बोध है और समकालीन जीवन के यथार्थ के विभिन्न पक्षों का चित्रण भी। भावों और विचारों की जैसी विविधता, व्यापकता और गहराई निराला की कविताओं में मिलती है बैसी बहुत कम कवियों में है। उन्होंने भारतीय प्रकृति और संस्कृति के विभिन्न रूपों का गंभीर चित्रण अपने काव्य में किया है। भारतीय किसान जीवन से उनका लगाव उनकी अनेक कविताओं में व्यक्त हुआ है।
यद्यपि निराला मुक्त छंद के प्रवर्तक माने जाते हैं तथापि उन्होने विभिन्न छंदों में भी कविताएँ लिखी हैं। उनके काव्य-संसार में काव्य-रूपों की भी विविधता है। एक ओर उन्होने राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास जैसी प्रबंधात्मक कविताएँ लिखीं तो दूसरी ओर प्रगीतों की भी रचना की। उन्होने हिंदी भाषा में गज़लों की भी रचना की है। उनकी सामाजिक आलोचना व्यंग्य के रूप में उनकी कविताओं में जगह-जगह प्रकट हुई है।
निराला की काव्यभाषा के अनेक रूप और स्तर हैं। राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास में तत्समप्रधान पदावली है तो भिक्षुक जैसी कविता में बोलचाल की भाषा का सुजनात्मक प्रयोग। भाषा का कसाव, शब्दों की मितव्ययिता और अर्थ की प्रधानता उनकी काव्य-भाषा की जानी-पहचानी विशेयताएँ हैं।
निराला की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं-परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज आदि। निराला ने कविता के अतिरिक्त कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे। उनके उपन्यासों में बिल्लेसुर बकरिहा विशेष चर्चित हुआ। उनका संपूर्ण साहित्य निराला रचनावली के आठ खंडों में प्रकाशित हो चुका है।
सरोज स्मृति कविता निराला की दिविंगत पुर्री सरोज पर केंद्रित है। यह कविता बेटी के दिवंगत होने पर पिता का विलाप है। पिता के इस विलाप में कवि को कभी शकुंतला की याद आती है कभी अपनी स्वर्गीय पत्नी की। बेटी के रूप रंग में पत्नी का रूप रंग दिखाई पड़ता है, जिसका चित्रण निराला ने किया है। यहीं नहीं इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज से उसके संबंध, पुत्री के प्रति बहुत कुष न कर पाने का अकर्मण्यता बोध भी प्रकट हुआ है। इस कविता के माध्यम से निराला का जीवन-संघर्ष भी प्रकट हुआ है। वे कहते है-‘दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जों नहीं कहीं।
सरोज स्मृति
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मंद,
होठों में बिजली फँसी स्पंद
उर में भर झूली छबि सुंदर
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-
$\qquad$ $\qquad$ भृंगार, रहा जो निराकार,
$\qquad$ $\qquad$ रस कविता में उच्छ्वसित-धार
$\qquad$ $\qquad$ गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग
$\qquad$ $\qquad$ भरता प्राणों में राग-रंग,
$\qquad$ $\qquad$ रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
$\qquad$ $\qquad$ आकाश बदल कर बना मही।
$\qquad$ $\qquad$ हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन,
$\qquad$ $\qquad$ कोई थे नहीं, न आमंत्रण
$\qquad$ $\qquad$ था भेजा गया, विवाह-राग
$\qquad$ $\qquad$ भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
$\qquad$ $\qquad$ प्रिय मौन एक संगीत भरा
$\qquad$ $\qquad$ नव जीवन के स्वर पर उतरा।
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, “वह शकुंतला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूँदे दृग वर महामरण!
$\qquad$ $\qquad$ मुझ भाग्यहीन की तू संबल
$\qquad$ $\qquad$ युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
$\qquad$ $\qquad$ दुख ही जीवन की कथा रही
$\qquad$ $\qquad$ क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
$\qquad$ $\qquad$ हो इसी कर्म पर वज्रपात
$\qquad$ $\qquad$ यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
$\qquad$ $\qquad$ इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
$\qquad$ $\qquad$ हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
$\qquad$ $\qquad$ कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
$\qquad$ $\qquad$ कर, करता मैं तेरा तर्पण!
$\qquad \qquad \qquad$ $\qquad$ $\qquad$ - (‘सरोज स्मृति’ कविता का अंश)
प्रश्न-अभ्यास
सरोज स्मृति
1. सरोज के नव-वधू रूप का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
2. कवि को अपनी स्वर्गीया पत्नी की याद क्यों आई?
3. ‘आकाश बदल कर बना मही’ में ‘आकाश’ और ‘मही’ शब्द किनकी ओर संकेत करते हैं?
4. सरोज का विवाह अन्य विवाहों से किस प्रकार भिन्न था?
5. ‘वह लता वहीं की, जहाँ कली तू खिली’ पंक्ति के द्वारा किस प्रसंग को उद्घाटित किया गया है?
6. ‘मुझ भाग्यहीन की तू संबल’ निराला की यह पंक्ति क्या ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे कार्यक्रम की माँग करती है।
7. निम्नलिखित पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए-
(क) नत नयनों से आलोक उतर
(ख) शृंगार रहा जो निराकार
(ग) पर पाठ अन्य यह, अन्य कला
(घ) यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
योग्यता-विस्तार
1. निराला के जीवन से संबंधित जानकारी प्राप्त करने के लिए रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘महाकवि निराला’ पढ़िए।
2. अपने बचपन की स्मृतियों को आधार बनाकर एक छोटी सी कविता लिखने का प्रयास कीजिए।
3. ‘सरोज स्मृति’ पूरी पढ़कर आम आदमी के जीवन-संघर्षों पर चर्चा कीजिए।
शब्दार्थ और टिप्पणी
सरोज स्मृति
आमूल - मूल अथवा जड़ तक, पूरी तरह
नवल - नया
स्पंद - कंपन
उर - हृदय, मन
स्तब्ध - स्थिर, दृढ़
उच्छ्वास - आह भरना
धीति - प्यास, पान
निराकार - जिसका कोई आकार न हो
रति-रूप - कामदेव की पत्नी के रूप जैसी, अत्यंत सुंदर
मही - पृथ्वी
सेज - शय्या, बिस्तर
शकुंतला - कालिदास की नाट्यकृति ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की नायिका
समोद - हर्षसहित, खुशी के साथ
जलद - बादल
न्यस्त - निहित
संबल - सहारा
बज्रपात - भारी विपत्ति, कठोर
स्वजन - आत्मीय, अपने लोग
शतदल - कमल
अर्पण - देना, अर्पित करना, चढ़ाना
तर्पण - देवताओं, ऋषियों और पितरों को तिल या तंडुलमिश्रित जल देने की क्रिया \