अध्याय 02 साहित्यिक लेखन

साहित्यिक अभिव्यक्ति से रु-ब-रु

विद्यार्थियों में छिपी रचनात्मकता को आकार देने और उनमें रच सकने का विश्वास पैदा करने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी ज़रूरी है।

समूह कार्य

1. शब्दों को पहचानें

D सभी बच्चे आठ-आठ पुराने कार्ड के टुकड़े लेकर आएँगे।

D अब ‘फूल’ शब्द ब्लैक-बोर्ड पर लिखा जाएगा।

D ‘फूल’ शब्द को लेकर विद्यार्थियों के मन में जो भी विचार आए, उसे कार्ड के एक टुकड़े पर लिखेंगे। उनका विचार एक शब्द, दो शब्द, तीन शब्द या एक वाक्य में हो सकता है।

$\square$ लिखे गए कार्ड सभी से एकत्र कर लिए जाएँगे।

  • फिर से ऊपर वाली गतिविधि दोहराई जाएगी सात नए शब्दों के साथ। अगले शब्द हो सकते हैं - आग, काँटा, जल, झरना, हवा, बरखा आदि।

D अब एक शब्द से जुड़े कार्ड एक समूह को दिए जाएँगे। वे उन सभी कार्डों को जोड़कर एक कविता लिखेंगे। एक ही शब्द / पंक्ति को एकाधिक बार प्रयुक्त किया जा सकता है। एकाध शब्द को घटाया / बढ़ाया भी जा सकता है।

D कविताएँ बुलेटिन बोर्ड पर प्रदर्शित की जाएँ।

2. रचनाओं को जानें, सराहें

D इकाई एक (पू.3) की शुरुआत के अपने अनुभवों को सब विद्यार्थी शब्दबद्ध करेंगे। किसी भी ढंग से / किसी भी विधा में लिख सकते हैं।

D प्रत्येक विद्यार्थी अपनी रचना का अंकन स्वयं करें कि वह किसके नज़दीक है कविता, कहानी या संवाद आदि के।

D अपनी रचना का विश्लेषण करें कि आपने इसी रूप में क्यों लिखा।

कलम रुकती नहीं …

लेखकवृन्द प्रायः अपने काल के विधाता होते हैं। उनमें अपने देश को, अपने समाज को दुख, अन्याय और मिथ्यावाद से मुक्त कराने की प्रबल आकांक्षा होती है।

यह समय जीवन संग्राम का है। आज हम जो शिक्षित कहलाते हैं, तटस्थ होकर अन्याय होते नहीं देख सकते।

(प्रेमचंद (सन् 1880-1936) हिंदी कथा-साहित्य के शिखर पुरुष माने जाते हैं। कथा-साहित्य के इस शिखर पुरुष का बचपन अभावों में बीता। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद पारिवारिक समस्याओं के कारण जैसे-तैसे बी.ए. तक की पढ़ाई की। एम.ए. करना चाहते थे लेकिन आर्थिक अभावों के कारण नौकरी करनी पड़ी। पत्नी शिवरानी देवी के साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलनों में हिस्सा भी लेते रहे। राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ने के बावजूद लेखन कार्य सुचारु रूप से चलता रहा। उनके जीवन का राजनीतिक संघर्ष उनकी रचनाओं में सामाजिक संघर्ष बनकर सामने आया जिसमें जीवन का यथार्थ और आदर्श दोनों था।)

।. साहित्यिक लेखन - एक परिचय

अभी तक आप सृजनात्मकता के अलग-अलग पहलुओं से परिचित हो चुके होंगे। उदाहरण के लिए सृजनात्मकता क्या है, वह कैसे हमारे दिन-प्रतिदिन के आचार-व्यवहार और संस्कारों से जुड़ी हुई है और अनायास ही हमारे कार्यकलापों में अभिव्यक्त होती रहती है। यदि सृजनात्मकता को मात्र लेखन तक सीमित करके भी परिभाषित किया जाए तो भी हमें उससे पहले उसके कई दूसरे रूपों को पहचानना होगा। जैसे कि साहित्य से अलग कला रूप और माध्यम अर्थात् चित्रकला, मूर्तिकला, शिल्पकला जैसी ललित कलाएँ और गायन, नृत्य, संगीत और रंगमंच जैसी प्रदर्शन कलाएँ सृजनात्मकता के माध्यम से अपनी एक अलग पहचान बनाती हैं। अब यदि हम लेखन अथवा साहित्य में सृजनात्मकता की बात करें तो वहाँ भी पहले हमारे लिए भाषा में सृजनात्मकता को परिभाषित करना ज़रूरी हो जाता है जिसके विषय में आप पिछली टिप्पणियों में काफ़ी जानकारी प्राप्त कर चुके होंगे।

यहाँ हम मुख्य रूप से लेखन में सृजनात्मक अभिव्यक्ति के अलग-अलग रूपों पर चर्चा करेंगे। जैसा हमने अभी स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार दूसरे कला रूपों और माध्यमों में अभिव्यक्ति के अलग-अलग रूप होते हैं उसी प्रकार लेखन में भी यह अभिव्यक्ति कई रूप और आकार ग्रहण करती है। उदाहरण के लिए - कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, आत्मकथा, रिपोर्ताज, संस्मरण और निबंध इत्यादि। ज़ाहिर है कि यह सूची और भी लंबी हो सकती है लेकिन हम यहाँ कविता, कहानी और नाटक की तीन मुख्य अभिव्यक्तियों की चर्चा करेंगे।

पढ़ते या सुनते वक्त कोई भी नज़्म केवल कवि की नहीं रहती; पाठक या श्रोता उसे अपनी बना लेता है; उसको अपनी ज़िंदगी के ब्योरों से जोड़कर पढ़ता है।

  • चोला टाकियाँवाला, हरभजन सिंह

आदिवासी नृत्य

कविता

इसमें कोई संदेह नहीं कि पूर्व हो या पश्चिम, साहित्य की पहली अभिव्यक्ति के रूप में कविता का ही जन्म हुआ। इसीलिए कविता को मानवता की मातृभाषा कहा जाता है। यदि हमारे यहाँ रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की रचना हुई, तो पश्चिम में भी होमर के इलियड एवं ओडेसी जैसे महाकाव्यों से ही साहित्य की शुरुआत मानी जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाषा और लिपि के निश्चित होने के बाद ही इन महाकाव्यों के हमें लिखित रूप मिलने शुरू होते हैं। लेकिन इनकी मौखिक परंपरा बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी जिसमें कभी एक गायक द्वारा, कभी दो गायकों द्वारा और कभी गायकों के समूह द्वारा जगह-जगह घूम-घूमकर इन महाकाव्यों को गा-गाकर सुनाने का प्रचलन शामिल था। देखा जाए तो आज भी भले ही महानगरों में इस परंपरा का लोप हो गया हो, लेकिन हमारे यहाँ अभी भी अलग-अलग राज्यों के क्षेत्रों में अलग-अलग बोलियों और भाषाओं में गा-गाकर सुनाने की ये परंपराएँ विद्यमान हैं। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल में बाउल, छत्तीसगढ़ में पंडवानी, बुंदेलखंड में आल्हा ऊदल, राजस्थान में पाबू जी के पड़ के नाम लिए जा सकते हैं। फिर जैसे-जैसे समाज, सभ्यता और संस्कृति का विकास होता गया और हमारी जीवन पद्धति में भी वैज्ञानिक, औद्योगिक और राजनैतिक क्रांतियों के कारण अभूतपूर्व बदलाव आते चले गए तो उसी अनुपात में कविता ने भी नए-नए रूप ग्रहण किए। महाकाव्य, प्रबंधकाव्य, खंडकाव्य, छंदमय कविता, छंदमुक्त कविता, नयी कविता, अ-कविता-बहुत से उतार-चढ़ाव के बीच से गुज़रकर कविता का वर्तमान स्वरूप हम तक पहुँचा है।

बंगाल का बहुप्रसिद्ध बाउल नृत्य

फ़ोटोग्राफर यादगार क्षणों को कैमरे में कैद कर लेता है और रचनाकार यह काम शब्दों से करता है। आप अपने यादगार अनुभवों को दर्ज कीजिए। इनमें से किन्हीं दस अनुभवों को अपने पोर्टफ़ोलियो के लिए लिखिए। यह भी बताइए कि यह किस विधा के नज़दीक है और क्यों?
A photographer captures memorable moments with her/his camera and a creative writer does this with words. Maintain a record of your experiences. Write about any ten experiences for your portfolio. Also state which form of writing they are close to and why?

छंदोबद्ध कविता

हम पंछी उन्मुक्त गगन के

पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,

कनक-तीलियों से टकराकर

पुलकित पंख टूट जाएँगे।

-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

छंद मुक्त कविता

हम नदी के द्वीप हैं।

हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।

वह हमें आकार देती है।

हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकतकूल,

सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

माँ है वह। है, इसी से हम बने हैं।

  • सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अजेय’

लेकिन एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि अंततः कविता को पढ़कर अथवा सुनकर ही अनुभूत किया जा सकता है। जिस प्रकार कवि उसकी रचना अपने एकांत में करता है, उसी प्रकार एक पाठक भी उसे एकांत में पढ़कर उसका रसास्वादन कर सकता है। ज़रूरी नहीं कि उसके लिए नाटक, फ़िल्म अथवा दूसरे प्रदर्शन माध्यमों की तरह एक पूरे समूह की अनिवार्यता हो।

कहानी

इसी से मिलती-जुलती यात्रा कहानी ने भी तय की है। लोग रात में अलाव के पास बैठे या तारों के नीचे बैठे अपने ही जैसे लोगों की बात करते थे; जन्म से लेकर मृत्यु तक, जो कुछ उनके जीवन में घटा, उस सबकी बातें; यहीं से कहानी बनी। आप सब ने ऐसी लोक कथाएँ सुनी होंगी - ‘एक समय की बात है एक राजा था और एक रानी थी। राजा मर गया और फिर रानी भी मर गई। किस्सा गया वन में, सोचो अपने मन में।’ लोग रात-रात भर कहानी सुनाते थे। आज भी राजस्थान में यह परंपरा जीवित है। विजयदान देथा की बाता राँ फुलवारी ऐसी ही कहानियाँ हैं। अलिफ़ लैला, कथा सरितसागर भी ऐसी ही महान कहानियाँ हैं। एक तरह से तो जब महाकाव्यों को गा-गाकर सुनाने की परंपरा का चलन शुरू हुआ

था, कहानी अपने आप में उसमें शामिल थी। इस बात को यहाँ दोहराने की ज़रूरत नहीं कि अंततः कोई भी कला माध्यम क्यों न हो, वह अपने अंतिम रूप और आकार में एक कहानी ही अभिव्यक्त कर रहा होता है। लेकिन आज जिस रूप में हम कहानी की लिखित विधा से परिचित हैं उसका विकास निश्चय ही भाषा के विकास से जुड़ा हुआ है। इसे दूसरे शब्दों में यूँ भी कहा जा सकता है कि जहाँ कविता जैसे माध्यम में आज भी अभिव्यक्ति सहज रूप से चली आती है उसके विपरीत कहानी का संबंध मुख्य रूप से गद्य भाषा से ज़्यादा जुड़ा हुआ है और यह तो एक इतिहास सम्मत तथ्य है कि लिखित गद्य का जन्म काव्य के बाद ही संभव हुआ। क्योंकि जीवन और समाज में धीरे-धीरे जिस तरह की जटिलताओं का समावेश होता गया, उनके भीतर से गद्य जैसे माध्यम का ही जन्म होना था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कहते हैं - ‘गद्य जीवन संग्राम की भाषा है’। औद्योगीकरण के आने के साथ ही छापेखाने आए। इसके आने से लिखित गद्य का विकास तथा प्रसार हुआ।

‘ख्याल परंपरा’ के ये चित्र राजस्थान में किस्सागोई के प्राचीन रूप को प्रदर्शित करते हैं

यहाँ इस बात को अवश्य रेखांकित किया जाना चाहिए कि पश्चिम में कहानी के लिए ‘शॉर्ट स्टोरी’ जैसी संज्ञा प्रचालित है लेकिन हमारे यहाँ वह एक ही शब्द ‘कहानी’ के नाम से जानी जाती है। जैसा कि उसके रूप और आकार से स्पष्ट है, वह जीवन के किसी एक कालखंड, घटना अथवा स्थिति का चित्र प्रस्तुत करती है और उसी के माध्यम से वह बड़ी से बड़ी बात कहने की कोशिश करती है।

यहीं हम कहानी से मिलते-जुलते लेकिन अपने फैलाव में एक बड़े फ़लक को समेटे हुए दूसरे माध्यम उपन्यास की चर्चा भी कर सकते हैं। जहाँ बाकी सारे माध्यम बहुत पहले से अस्तित्व में आ चुके थे, उपन्यास का जन्म और विकास पिछले लगभग चार सौ सालों में ही हुआ। यद्यपि हमारे यहाँ ‘कादम्बरी’ संज्ञा के अंतर्गत लंबी कहानियों और पश्चिम में भी ‘राबिन हुड’ जैसे आख्यानों की परंपरा है, लेकिन जिस विधा को आज हम उपन्यास

के नाम से जानते हैं, वह इनके बाद ही आई। शायद उसके उद्भव का कारण यही है कि जिस प्रकार से हमारा जीवन जटिल से जटिल होता गया है, उसकी अभिव्यक्ति के लिए उपन्यास जैसे विस्तृत माध्यम की ज़रूरत ही थी।

नाटक

शायद यह जानकारी आपको काफ़ी रोचक जान पडे़ कि कविता के बाद अभिव्यक्ति के जिस रूप ने अपना विकास किया वह नाटक है। यद्यपि यह भी एक सच्चाई है कि नाटक के जन्म में कविता और कहानी के गा-गाकर अथवा वाचन करने की परंपरा का बहुत बड़ा हाथ है, तथापि लिखित रूप में कविता के बाद पहले नाटक आया और कहानी तो बहुत बाद की चीज़ है। इसीलिए पहले-पहल नाटक काव्यात्मक ही लिखे गए। हमारे यहाँ बेशक नाटक की रचना में शुरू से ही गद्य और काव्य का मिश्रण रहा है, लेकिन पश्चिम में तो यूनानी नाटकों से लेकर 18 वीं शताब्दी तक लिखे गए मोलियर के नाटकों में भी कविता का ही इस्तेमाल होता रहा। यहाँ तक कि जब 19 वीं शताब्दी में यथार्थवादी नाटकों का दौर आया तब भी उनकी भाषा से यही अपेक्षा रही कि वह पोएटिक प्रोज़ अर्थात् काव्यात्मक गद्य में लिखे जाएँ। यहाँ यह प्रश्न सहज ही उठाया जा सकता है कि कविता के बाद अभिव्यक्ति की दूसरी विधा के रूप में नाटक का ही जन्म क्यों हुआ? इसका सीधा-सादा उत्तर यही है कि जिस तरह की संक्षिप्तता, सघनता और व्यंजना की अपेक्षा कविता के शब्दों से की जाती है, ठीक वही अपेक्षाएँ नाटक से भी होती हैं। कविता और नाटक हमेशा अपनी बात सीधे और सपाट शब्दों में अभिव्यक्त करने की बजाय बिंबों और प्रतीकों की दृश्यात्मकता के माध्यम से करते हैं। इसीलिए नाटक को दृश्यकाव्य भी कहा गया है। उदाहरण के लिए -

महंत : बच्चा गोबरधनदास! कह, क्या भिक्षा लाया? गठरी तो भारी मालूम पड़ती है।

गोबरधनदास : बाबा जी महाराज बड़े माल लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई है।

महंत : देखूँ बच्चा! (मिठाई की झोली अपने सामने रखकर खोलकर देखता है) वाह! वाह! बच्चा! इतनी मिठाई कहाँ से लाया? किस धर्मात्मा से भेंट हुई?

गोबरधनदास : गुरु जी महाराज! सात पैसे भीख में मिले थे, उसी से इतनी मिठाई मोल ली है।

महंत : बच्चा! नारायणदास ने मुझसे कहा था कि यहाँ सब-चीज़ टके सेर मिलती है, तो मैंने इसकी बात का विश्वास नहीं किया। बच्चा, यह कौन-सी नगरी है और इसका कौन राजा है जहाँ टके सेर भाजी और टके सेर ही खाजा है?

गोबरधनदास : अंधेर नगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा। महंत : तो बच्चा! ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा हो।

दोहा

सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास। ऐसे देस कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास।। कोंकिल बायस एक सम, पंडित मूरख एक। ‘अंधेर नगरी’ नाटक का एक दृश्य इंद्रायन दाड़िम विषय, जहाँ न नेकु बिवेक।। बसिए ऐसे देस नहिं, कनक-वृष्टि जो होय। रहिए तो दुख पाइए, प्रान दीजिए रोय।।

  • अंधेर नगरी, भारतेंदु हरिश्चंद्र

क्योंकि यहाँ शब्दों के साथ-साथ उनके भीतर से दृश्य पैदा होने की संभावनाएँ भी भरपूर होती हैं, इसीलिए कहानी की तुलना में नाटक एक वर्णित माध्यम न होकर एक घटित माध्यम कहलाता है अर्थात् यहाँ कहानी की तरह शब्दों के माध्यम से किसी भी स्थिति का वर्णन या चित्रण मात्र नहीं होता वरन् वह अपने पूरे साकार रूप में हमारी आँखों के सामने घटित होती दिखाई देती है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ कहानी, उपन्यास, रिपोर्ताज और संस्मरण आदि विधाएँ वर्णित या वर्णनात्मक शैली का प्रयोग करती हैं, वहाँ नाटक में घटित अथवा घटनात्मक क्रियात्मक शैली के बिना काम नहीं चल सकता।

कविता वाचन से नाटक का आरंभ माना जा सकता है। नाटक को ‘पंचम वेद’ भी कहा जाता है। लव-कुश पहले दो वाचक हैं। फिर वाचन को अभिनय (enactment) में बदला गया। तत्कालीन स्थितियों पर भी व्यंग्य होने लगे। इस तरह कुछ हल्कापन, भद्दापन भी आने लगा। तब भारत में इसे नियंत्रित करने के लिए एक शास्त्र की रचना की गई जिसे नाट्यशास्त्र कहा जाता है। लगभग यहीं से विधिवत् नाटक की परंपरा का आरंभ माना जा सकता है। भास, कालिदास, शूद्रक, हर्ष, विशाखदत्त, भवभूति-ये शास्त्रीय परंपरा के नाटककार हैं। मध्यकाल में लोक-नाट्य परंपराएँ विकसित हुईं। इसके लिए तत्कालीन परिस्थितियाँ ज़िम्मेवार हैं। संस्कृत का लौकिक व्यवहार भी समाप्त हो गया। इसके समानांतर भक्तिकाल में सूफ़ियों-संतों ने लोक-भाषाओं का व्यवहार

किया। उस समय जो नाटक आए वे मौखिक परंपरा में आते हैं। ये लोक-नाटक हैं। इनका कोई लिखित शास्त्र नहीं है। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचित होते रहे। हर क्षेत्र की अपनी-अपनी विशेषता व्यक्त होती है और कुछ सामान्य, सर्वनिष्ठ तत्त्व भी हैं; जैसे - गीत, संगीत, नृत्य, सूत्रधार, विदूषक, संगीत मंडली जो रंगमंच पर बैठी रहेगी - ये तत्त्व सबमें मिलेंगे लेकिन उत्तर भारत में गायन पर ज़्यादा ज़ोर है। दक्षिण भारत की शैलियों में नृत्य, गीत, मुद्रा-विधान पर बल है। इसे यक्ष-गान (कर्नाटक की लोक शैली) और नौटंकी के तुलनात्मक अध्ययन से बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। ये नाटक प्राय: जानी-पहचानी कहानियों पर हैं - रामायण, महाभारत। फिर नौटंकी में अमर सिंह राठौड़ या सुल्ताना डाकू जैसे चरित्र आ गए - ज्ञिंदगी के मिथक या चरित्र।

यदि हम नाटक और रंगमंच के इतिहास पर एक नज़र डालें, तो हमें नाटकों के अलग-अलग रूप दिखाई पड़ते हैं; जैसे - शास्त्रीय नाटक अर्थात् वे नाटक जो नाट्यशास्त्र में उल्लिखित नियमों और लक्षणों के आधार पर लिखे गए हैं। लगभग एक हज़ार ईस्वी तक चलने वाली शास्त्रीय नाट्य परंपरा के कुछ चिर-परिचित नाटककार हैं - भास, कालिदास, शूद्रक, विशाखदत्त और भवभूति। स्वप्नवासवदत्ता, अभिज्ञानशाकुंतलम्, मृच्छकटिकम्, मुद्राराक्षस और उत्तररामचरित इनके सुप्रसिद्ध नाटक हैं। लोक-नाटक यानी वह नाटक जो खासतौर से मध्यकाल में आए, स्थानीय बोलियों और भाषाओं में मौखिक रूप में विकसित हुए। पारसी नाटक जो हमारे देश में ईरान से आकर बसे हुए पारसी व्यापारियों द्वारा चलाई गई नाटक कंपनियों के लिए लिखे गए। यथार्थवादी नाटक जो पश्चिम में 18 वीं- 19 वीं शताब्दी के साहित्य एवं दूसरी कलाओं में आए प्रकृतवाद और यथार्थवाद की परंपरा में मुख्यतः इब्सन के नाटकों से प्रेरित होकर हमारे देश में लिखे और खेले गए। एब्सर्ड अथवा विसंगत नाटक जो दूसरे विश्वयुद्ध के आस-पास उभरे अस्तित्ववादी चिंतन से प्रेरित होकर लिखे गए। हमारे यहाँ इस तरह के नाटक सबसे पहले भुवनेश्वर ने लिखे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सृजनात्मक लेखन जब अभिव्यक्ति के अलग-अलग रूपों में हमारे सामने आता है तो उसकी विविधवर्णी छवियाँ अपने रंग और रूप से हर बार एक नए संसार की सृष्टि करती हैं। तकनीकी और सामाजिक विकास के साथ-साथ लेखन अभिव्यक्ति के अन्य रूपों का विकास हुआ जिनमें आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज आदि विधाएँ आकार लेती रहीं।

II. साहित्यिक लेखन

साहित्य को मात्र विधाओं में बाँटकर नहीं देखा जा सकता। कहने के अलग-अलग तरीके होते हैं। रचनात्मक ऊर्जा किसी बंधन को स्वीकार नहीं करती। जब बंधन टूटते हैं तब एक नयी विधा जन्म लेती है। इसीलिए कोई कहानी या उपन्यास कवितामय हो सकती है, जैसे विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी। कोई कविता कहानीनुमा या नाटकीयता लिए हुए हो सकती है, जैसे धर्मवीर भारती का अंधायुग, नागार्जुन का प्रेत का बयान, निराला की राम की शक्ति पूजा या तुलसीदास आदि। तात्पर्य यह है कि स्मृति और कल्पना के सहारे शब्दों में ढलती रचना सबसे पहले एक अभिव्यक्ति होती है जिसकी पहचान अलग-अलग विधा के रूप में बाद में होती है।

‘सोनसी किसी दिशा में नहीं जा रही थी, इसीलिए लगता था दिशाएँ सोनसी के पीछे चली आई थीं। केवल एक दिशा रघुवर प्रसाद के लिए आगे जाते हुए स्वयं सोनसी थी। सामने और आजू-बाजू का दृश्य सोनसी के पीछे आने के लिए अपनी बारी में खड़ा था। सोनसी के आगे निकलते ही उधर की धरती, पेड़-पत्ती सोनसी के पीछे आ जाते’। … “रघुवर प्रसाद! भूली हुई साइकिल चलाते-चलाते याद आ जाएगी कि तुम्हारी साइकिल है, तब तुम याद की हुई साइकिल चलाते रहना।”

  • ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ की कुछ काव्यात्मक पंक्तियाँ, विनोद कुमार शुक्ल

आपके सामने पूरी कायनात है जिसे आपकी इंद्रियाँ महसूस कर रही हैं, जिसे आप खुद अपना बनाना चाहते हैं। एक चित्रकार इसमें रंग भरता है, संगीतकार इसे गुनगुनाता है और लय पैदा करता है, एक शिल्पकार इसे आकार देता है। ज़ाहिर है अगर आपका संबंध शब्दों से है तो आप इसे अपना बनाने के लिए शब्दों का सहारा लेंगे।

“फिर मैं भी चौताल जोड़ने लगा और प्रसिद्ध कवियों के नाम से गाने लगा। मुझे लगता, ये मैंने नहीं लिखा है, कहीं पहले लिखा गया होगा जो मुझमें उतर आया।”

  • मेरे साक्षात्कार, त्रिलोचन (पद्मा सचदेव के साथ साक्षात्कार)

लेखन की कोई तकनीक नहीं। जैसे ही आप कोई रचना लिखते हैं वह आपकी निजी थाती नहीं रह जाती। वह पूरे संसार की होती है। संसार को रचने में मददगार भी होती है। एक ऐसी दुनिया की पुनर्रचना जिसे कल फिर कोई रचेगा। इसीलिए किसी भी विधा के लेखन की कोई तकनीक नहीं होती। यह ज़रूर है कि हर मौजूदा लेखन जिन कारणों से अलग से पहचाना जाता है उन्हें ध्यान में रखकर लेखन की कुछ बारीकियों की

ओर हमारा ध्यान जाता है। उन्हीं के भीतर से नए-नए प्रयोग भी किए जा सकते हैं और हर सचेत लेखक यह करता है। कृष्णा सोबती की हम हशमत और शब्दों के आलोक में ऐसी ही रचनाएँ हैं।

एक शाम

तारीख - 14 जून, 1975

मुकाम - शीला और भीष्म साहनी का घर

मुअज्ज्ज़ज़ - जनाब पी.ए. बारान्निकोव

मौजूद दोस्त - श्रीमती और श्रीकांत वर्मा,

श्री और श्रीमती राजेंद्र यादव (मन्नू भंडारी)

श्री और श्रीमती अजितकुमार (स्नेहमयी चौधरी)

श्री निर्मल वर्मा

श्रीमती उषा प्रियंवदा (उषा नेलसन)

श्रीमती मीरा कालिया, श्री रोमी खोसला, श्रीमती कल्पना खोसला, इन दोनों के साहबज़ादे मार्तंड बहादुर और मार्तंड साहिब के निशानेबाज़ मामूजान श्री वरुण साहनी।

दोस्तो, गरमी और उमस के बावजूद भीष्म के घर में यह शाम कुछ इतनी ज़िंदा रही कि हशमत ने ज़रूरी समझा कि इसका ब्योरा आपकी खिदमत में पेश कर दिया जाए।

हाँ, आप लोगों को कहीं मुगालता न हो जाए कि इस पार्टी में हशमत किस हैसियत से थे, सो आपको असलियत बता दें।

  • हम हशमत, कृष्णा सोबती

(इसे ध्यान से पढ़िए और देखिए कि शुरुआत किस तरह हुई है। हशमत कौन हो सकता है? कार्यशाला में चर्चा कीजिए।)

कुछ नया लिखने और नया करने की यही चाहत वर्तमान समय में ऐसे लेखकों और लेखन को जन्म दे रही है जिनमें टटकापन है। उदाहरण के लिए - बहुरूपिया शहर, संगतिन यात्रा ऐसी ही रचनाएँ हैं।

आगे हम कुछ ऐसे साहित्यिक लेखन की बारीकियों की चर्चा करेंगे जिनका संबंध स्मृति से अधिक है।

नाटक लेखन

नाटक का तंत्र लेखक को खुद निश्चित करना पड़ता है। नाट्य-तंत्र के नियमों से मार्गदर्शन होगा, लेकिन ऐसा नहीं कि उनके पालन से ही अच्छा नाटक लिखा जा सकता है। विश्व के बहुत से अच्छे नाटक तो इन नियमों के अपवाद ही साबित होंगे। नाटक का माध्यम खून में उतर जाना चाहिए, संज्ञा पर उसकी छाप उठनी चाहिए - तभी कोई लेखक अच्छा नाटक लिख सकता है।

  • विजय तेंदुलकर

जसमा : राजा, मैं तुझे एक बात पूछना चाहती हूँ। सिद्धराज : पूछो!
जसमा : राजा, तुझे मिट्टी खोदना आता है?
सिद्धराज : (हँसता है) मिट्टी खोदने के लिए मेरे पास लाखों मजूर हैं।
जसमा : तो क्या तुझे मकान बनाना आता है?
सिद्धराज : मकान बनाने के लिए सैकड़ों कारीगर मेरे पास हैं।
जसमा : तुझे रसोई करनी तो आती ही होगी!
सिद्धराज : (खूब ज़ोर से हँसता है) हमारे महल में सैकड़ों रसोइये हाज़िर हैं।
‘जसमा ओडन’ नाटक का
जसमा : (तुच्छ भाव से) तो फिर राजा, तुझे आता ही क्या है? तेरी नौकरी चली जाए, तेरा यह राज और मुकुट गायब हो जाए तो तुझे भूखों मरना होगा। तुझे नौकर रखने के लिए कोई तैयार नहीं होगा - तुझसे तो हम लोग कहीं ज़्यादा अच्छे हैं। रूखी-सूखी ही सही, अपनी मेहनत की रोटी खाते हैं।
( स्वाभिमानी जसमा सिर ऊँचा किए चाचर के बाहर निकल जाती है, मानो बिजली कौंधती हो। अपमानित राजा आग-बबूला होकर चीखता है।)

मशहूर नाटक ‘जसमा ओडन " ${ }^{1}$ के इस अंश को ध्यान से पढ़ें, तो पाएँगे कि राजा सिद्धराज और एक आम स्त्री जसमा के बीच हुए ये संवाद यूँ तो कमज़ोर स्त्री और बलवान कामुक[^1]

पुरुष के बीच होने वाले संवाद की तरह हैं, पर इस छोटे से हिस्से में हाथ के काम के महत्त्व को खूबसूरत ढंग से कह दिया गया है। यह लेखक इसलिए कर पाया होगा कि वह एक ऐसी स्त्री को केंद्र में रखकर नाटक लिखना चाहता रहा होगा जो स्वाभिमानी तो हो ही और जो अपनी मेहनत को ही अपना संबल मानती हो। ऐसा करने के लिए वह अपने आस-पास की दुनिया में लोगों की बातचीत सुनता रहा होगा, तभी उस बातचीत को अपने नाटक की कथा-वस्तु में पिरो सका है।

संवादों को अपनी डायरी में दर्ज करते रहना यूँ तो कहानी या किसी भी लेखन में उपयोगी होगा लेकिन नाटक या एकांकी के लिए तो यह सबसे ज़रूरी तैयारी होगी। लेकिन इन्हें नाटक का हिस्सा बनाने में और क्या तैयारी की ज़रूरत होगी, आइए जानते हैं -

लगातार यह प्रश्न सामने आता रहा है कि कविता, कहानी, उपन्यास की तरह नाटक भी साहित्य के अंतर्गत ही आता है फिर इसकी रचना में क्या अंतर ज़रूरी हो जाता है। जब हम इस पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि नाटक अपनी कुछ निजी विशिष्टताओं के कारण बाकी दूसरी विधाओं से बिलकुल अलग हो जाता है। स्वयं हमारी भारतीय परंपरा में नाटक को दृश्यकाव्य की संज्ञा दी गई है। जहाँ से नाटक अपनी निजी एवं विशेष प्रकृति ग्रहण करता है वह है उसका लिखित रूप से दृश्यता की ओर अग्रसर होना। जहाँ साहित्य की अन्य विधाएँ अपने लिखित रूप में ही एक निश्चित और अंतिम रूप को प्राप्त कर लेती हैं, वहीं एक नाटक अपने लिखित रूप में सिर्फ़ एकआयामी ही होता है। जब उस नाटक का मंचन हमारे सामने आता है तब जाकर उसमें संपूर्णता आती है। निष्कर्ष यह है कि साहित्य की दूसरी विधाएँ पढ़ने या फिर सुनने तक की यात्रा तय करती हैं, पर नाटक पढ़ने, सुनने के साथ-साथ देखने के तत्त्व को भी अपने भीतर समेटे हुए है। इसीलिए नाटक लिखते समय नाटककार को नाटक की एक मूल विशेषता को हमेशा याद रखना होता है। वह है - समय का बंधन।

नाटककार अगर अपनी रचना को भूतकाल से अथवा किसी और लेखक की रचना को भविष्यकाल से उठाए, इन दोनों ही स्थितियों में उसे नाटक को वर्तमान काल में ही संयोजित करना होता है। यही कारण है कि नाटक के मंच-निर्देश हमेशा वर्तमान काल में लिखे जाते हैं। चाहे काल कोई भी हो, उसे एक विशेष समय में, एक विशेष स्थान पर, वर्तमान काल में ही घटित होना होता है। जैसे किसी ऐतिहासिक या पौराणिक घटना को कहानी, उपन्यास या कविता में उसके मूल संदर्भ में, उसी काल में, रखकर भी उसका पाठ किया जा सकता है, पर नाटक में उसे हमारी आँखों के सामने ही एक बार फिर घटित होना होता है। समय

को लेकर एक और तथ्य यह है कि साहित्य की दूसरी विधाओं यानी कहानी, उपन्यास या फिर कविता को हम कभी भी पढ़ते या सुनते हुए बीच में रोक सकते हैं और कुछ समय बाद फिर वहीं से शुरू कर सकते हैं पर नाटक के साथ ऐसा संभव नहीं है।

अब दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है - शब्द! वैसे यह साहित्य की सभी विधाओं के लिए आवश्यक होता है, पर साहित्य की ही दो विधाओं कविता और नाटक के लिए शब्द का विशेष महत्त्व है। नाटक की दुनिया में शब्द अपनी एक नयी, निजी और अलग अस्मिता ग्रहण करता है। हमारे नाट्यशास्त्र में भी वाचिक अर्थात् बोले जाने वाले शब्द को नाटक का शरीर कहा गया है। कहानी तथा उपन्यास शब्दों के माध्यम से किसी स्थिति, वातावरण या कथानक का वर्णन करते हैं या अधिक से अधिक उसका चित्रण कर पाते हैं। यही कारण है कि इसे वर्णित या फिर नैरेटिव विधा कह दिया जाता है। नाटककार के लिए ज़रूरी है कि वह अधिक से अधिक संक्षिप्त और सांकेतिक भाषा का प्रयोग करे जो अपने आप में वर्णित न होकर क्रियात्मक अधिक हो, उन शब्दों में दृश्य बनाने की भरपूर क्षमता हो।

मानस हिरण

(यह नाटक हिमाचल प्रदेश के उत्तरी छोर पर स्थित आदिवासी क्षेत्र स्पीति में लिखा और खेला गया। लेखिका ने अपने शिविर के साथ वहाँ पाया कि वे लोग आपस में तुकबंदी खेलते हैं) जैसे-

यार! क्यों की तूने उसकी पिटाई।

दूसरा कहेगा : क्योंकि वह था मेरे दुश्मन का भाई। तीसरा पूछेगा : क्या इसीलिए हुई थी लड़ाई। चौथा बोलेगा : आज फिर करना उसकी धुनाई। इसीलिए वहाँ के लोगों के लिए नाटक लिखना अधिक चुनौतीपूर्ण था। बहुत शोध और मेहनत के बाद जो नाटक तैयार हुआ, उसके शब्दों और उनके लयात्मक प्रयोग पर ध्यान दीजिए। उसकी शुरुआत इस प्रकार है -

(रंगमंच एक खेत है, जिसके बीच-बीच में नए कटे गेूूँ के ढेर हैं। एक कोने में, पीछे की ओर, बौद्ध गोम्पा (मठ) का स्तूप नज़र आ रहा है। चार-पाँच लोग जल्दी-जल्दी खेत से अनाज के ढेर उठाकर बाँध रहे हैं।)

तनडुप : जल्दी कर टशी। इस साल बर्फ़ जल्दी पड़ने की उम्मीद है।

टशी : हाँ, ठंड तो अचानक बढ़ गई है। पर क्या करें, अभी तो आधे खेतों की भी कटाई नहीं हुई।

तनडुप : बर्फ़ पड़ गई तो सब गया समझो।

टशी : सोनम कहाँ है? सुबह से दिखाई नहीं दिया।

तनडुप : वो विदेशी आया हुआ है ना। बस उसी के साथ घूम रहा होगा, दुमछल्ला बना।

टशी : इतना नहीं कि ज़रा हाथ बँटा दे तो कटाई जल्दी हो जाए।

तनडुप : उसे अमीर बनने के सपने देखने से फुर्सत कहाँ है?

दोरजे : इसीलिए तो विदेशियों के साथ लगा रहता है, इस उम्मीद में कि कोई अपने संग विदेश ले जाए। (बाहर से तेनजिंग अंदर आती है। उसके हाथ में बँधा हुआ खाना है जिसे वो ज़मीन पर बैठकर खोलती है।)

तेनज्जिंग : टशी, दोरजे, तनडुप आओ, खाना खा लो! टशी : तू खा ले। हम पूरा खेत काटने के बाद खाएँगे। तेनजिंग : माँ ने कहा है गरम-गरम खा लेना। आज वैसे ही ठंड बहुत है।

दोरजे : अच्छा ला, जल्दी दे दे। आज तो हवा भी बहुत है। (तीनों बैठकर खाते हैं।)

  • नूर ज़हीर

‘किताबों में हलचल’ नाटक का एक दृश्य
एक नाटक के लिए ज़रूरी होता है - उसका कथ्य। यह बात हमेशा ध्यान में होनी चाहिए कि नाटक को मंच पर मंचित होना है। यही कारण है कि एक नाटककार को रचनाकार के साथ-साथ एक कुशल संपादक भी होना चाहिए। पहले तो घटनाओं, स्थितियों अथवा दृश्यों का चुनाव, फिर उन्हें किस क्रम में रखा जाए कि वे शून्य से शिखर की तरफ़ विकास की दिशा में आगे बढ़ें, यह कला उसे अवश्य आनी चाहिए।

नाटक का सबसे ज़रूरी और सशक्त माध्यम है - संवाद। दूसरी किसी विधा के लिए यह कतई ज़रूरी नहीं कि वह संवादों का सहारा ले, लेकिन नाटक का तो उसके बिना काम ही नहीं चल सकता। नाटक के लिए तनाव, उत्सुकता, रहस्य, रोमांच और अंत में उपसंहार जैसे तत्त्व अनिवार्य हैं। इसके लिए आपस में विरोधी विचारधाराओं का संवाद ज़रूरी होता है। यही कारण है कि नायक-प्रतिनायक, सूत्रधार की परिकल्पना भारतीय या पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में आरंभ से ही की गई थी।

वह कौन-सी चीज़ है जो एक सशक्त नाटक को एक कमज़ोर नाटक से अलग करती है। वह है - संवादों का अपने आप में वर्णित या चित्रित न होकर क्रियात्मक होना, दृश्यात्मक होना और लिखे तथा बोले जाने वाले संवादों से भी ज़्यादा उन संवादों के पीछे

निहित अनलिखे एवं अनकहे संवादों की ओर ले जाना। उदाहरण के लिए, हैमलेट का यह प्रसिद्ध संवाद टू बी और नॉट टू बी या स्कंदगुप्त का अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है - अनगिनत संभावनाओं को उजागर कर देता है।

नाटक स्वयं में एक जीवंत माध्यम है। कोई भी दो चरित्र जब भी आपस में मिलते हैं, तो विचारों के आदान-प्रदान में टकराहट पैदा होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि रंगमंच प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम है। वह कभी भी यथास्थिति को स्वीकार कर ही नहीं सकता। इस कारण उसमें अस्वीकार की स्थिति भी बराबर बनी रहती है। उदाहरण के लिए, हम अंधायुग, तुगलक आदि नाटकों को देख सकते हैं। शुरुआत में दिए हुए जसमा ओडन को भी देखा जा सकता है। जसमा का अस्वीकार - राजा के प्रति।

नाटक लिखते समय यह भी अत्यंत ज़रूरी है कि नाटक में जो चरित्र प्रस्तुत किए जाएँ, वे सपाट, सतही और टाइप न हो। जिस प्रकार हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िदगी में किसी भी व्यक्ति को सिर्फ़ अच्छा या बुरा नहीं कह सकते, उसी तरह नाटक की कहानी में भी चरित्रों के विकास में इस बात का ध्यान रखा जाए कि वे स्थितियों के अनुसार अपनी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करते चलें। हमें याद रखना चाहिए कि इन शब्दों को बोलने वाले पात्र मंच पर सचमुच के हाड़-माँस से युक्त जीवंत प्राणी होते हैं न कि कविता, कहानी और उपन्यास में उपस्थित रहने वाले शाब्दिक चरित्र। अतः संवाद जितने ज्यादा सहज और स्वाभाविक होंगे, उतना ही दर्शक के मर्म को छुएँगे। यहाँ सहज-स्वाभाविक होने से आशय भाषा की सरलता से कदापि नहीं है। संवाद चाहे कितने भी तत्सम और क्लिष्ट भाषा में क्यों न लिखे गए हों, स्थिति तथा परिवेश की माँग के अनुसार यदि वे स्वाभाविक जान पड़ते हैं, तब उनके दर्शकों तक संप्रेषित होने में कोई मुश्किल नहीं होगी। इस दृष्टि से हम जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, जगदीश चंद्र माधुर, विजय तुंदुलकर, गिरीशश कर्नाड, व.व. कारंत, धर्मवीर भारती और सुरुंद्र वर्मा जैसे नाटककारों की भाषा में यह विशेषता देख सकते हैं। इसी के साथ जुड़ा दूसरा सवाल उस शिल्प और संरचना का भी है जिसके भीतर से नाटककार अपने कथ्य को व्यंजित करता है।

आज हिंदी के नाटककारों के पास शिल्प की दृष्टि से कई तरह के विकल्प मौजूद हैं। सबसे पहले तो स्वप्नवासवदत्ता,

गतिविधि 8/Activity 8

दिए गए चित्रों को देखकर संवाद लिखिए।

Write dialogues based on the pictures given above.

जिसे हम पारिभाषिक शब्दावली में शास्त्रीय कहते हैं। एक लोक नाटकों का फ़ॉर्म है जिसमें कोई लिखित आलेख नहीं है और सब कुछ मौखिक रचना प्रक्रिया के माध्यम से घटित होता है। पारसी नाटकों का अपना एक अलग शिल्प है जो शेरो-शायरी, गीत-संगीत और अतिरंजित संवादों पर आधारित होता है। इब्सन की तर्ज़ पर यथार्थवादी नाटकों का अपना एक मुहावरा है जो मुख्यतः गद्य पर आश्रित है। इनके अतिरिक्त नुक्कड़ नाटक की अपनी अलग अहमियत है। यह नाटककार को तय करना है कि वह इनमें से किसी एक तरह के शिल्प का चुनाव करे, अलग-अलग विकल्पों के मिश्रण से अपनी एक नयी शैली तैयार करे अथवा इन सबको छोड़कर एक बिलकुल नया शिल्प लेकर प्रस्तुत हो। प्रायः कहा जाता है कि कथ्य अपना शिल्प स्वयं निर्धारित कर लेता है और यही सही स्थिति है। लेकिन जब-जब नाटककार ने पहले शिल्प या संरचना को निश्चित कर लिया और फिर उसमें किसी कथ्य कहानी को फिट करना चाहा तो ऐसी कोशिशें बहुत दूर तक कामयाब नहीं हुईं।

आत्मकथात्मक लेखन

ऐसे भी लोग हैं, जिनकी अतीत-संबंधी स्मृतियाँ बड़ी दुःखद और कटु हैं। ऐसे लोग वर्तमान और भविष्य की भी इसी रूप में कल्पना करते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जिनकी अतीत-संबंधी स्मृतियाँ बड़ी मधुर और सुखद हैं। उनकी कल्पना में वर्तमान और भविष्य भी मधुर होते हैं। तीसरी किस्म के लोगों की स्मृतियाँ सुखद और दुःखद, मधुर और कटु भी होती हैं। वर्तमान और भविष्य-संबंधी उनके विचारों में विभिन्न भावनाएँ, स्वर-लहरियाँ और रंग घुले-मिले रहते हैं। मैं ऐसे ही लोगों में से हूँ।

  • मेरा दागिस्तान (आत्मकथात्मक रचना), रसूल हमज़ातोव

प्रेमचंद ने कहा था कि कहानियाँ तो चारों तरफ़ हवा में बिखरी पड़ी हैं, सवाल उन्हें पकड़ने का है। ऐसा इसलिए है कि हर व्यक्ति और हर वस्तु का अपना-अपना जीवन होता है, बाकी सबसे अलग। उसका एक आरंभ, विकास और फिर अंत भी होता है। सबकी कोई न कोई कहानी होती है। जिस तरह एक व्यक्ति दूसरे से हू-ब-हू नहीं मिलता, वैसे ही उसकी अपनी जीवन-कथा भी दूसरे से नहीं मिलती। जो बड़े रचनाकार हैं वे एक कथा में अनेक लोगों की कथा ढूँढ़ लेते हैं। ‘गोदान’ केवल होरी की या ‘हैमलेट’ केवल हैमलेट की कथा

नहीं रह जाती, सबकी कथा बन जाती है।

‘ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो अपनी कथा न लिख सके। मेरी आत्मकथा मेरे जीवन की कथा है। यह केवल मेरी कथा है। और जहाँ तक मेरा जीवन दूसरों के जीवन को छूता है

वहाँ तक यह दूसरों की भी कथा है। और जहाँ तक मेरा जीवन एक समय, समाज या समूह का प्रतिनिधि जीवन होता है वहाँ तक वह सबकी कथा बन जाती है।’ महात्मा गांधी की आत्मकथा स्वयं उनके जीवन की कथा तो है ही, साथ-साथ वह समस्त देश तथा विश्व की भी कथा है। अपने समय के नेतृत्वकारी स्त्री-पुरुषों की आत्मकथा ज्ञानवर्द्धक तथा प्रेरणादायी होती है। आइंसटीन, चार्ली चैपलिन, ध्यानचंद, कुमार गंधर्व, वल्लतोल तथा आंबेडकर की जीवन-कथा हम सबके लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती है। मुक्तिबोध ने कहा था -

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में

चमकता हीरा है,

…प्रत्येक वाणी में

महाकाव्य-पीड़ा है

इसलिए कि उसे कथा में बदला जाए। आप कलम हाथ में लेते हैं और कागज़ पर कुछ लिखने लगते हैं। सबसे अच्छा है अपने ही जीवन से शुरू किया जाए। अपने बारे में, बचपन से लेकर अब तक जो-जो हुआ वह सब। यही तो आत्मकथा है। आत्मकथा की पहली शर्त है साफ़-साफ़ सच-सच कहना।प्रत्येक व्यक्ति का जीवन कथा में बदलने के योग्य है। यह जीवन है ही इसके लिए भी अभ्यास ज़रूरी है। नैतिक साहस ज़रूरी है। अगर पूरी आत्मकथा न भी लिखी जाए तो संस्मरण या डायरी लिखी जा सकती है। कई दिनों-वर्षों की डायरी आत्मकथा बन जाती है। गांधी जी ने डायरी के बारे में कहा था -

डायरी का विचार करके देखता हूँ तो मेरे लिए यह एक अमूल्य वस्तु हो गई है। जो सत्य की आराधना करता है, उसके लिए यह पहरेदार का काम करती है, क्योंकि इसमें सत्य ही लिखना है। … एक बार नियमित लिखना शुरू करने पर हमें स्वयं ही सूझने लगता है कि क्या और कैसे लिखना है। हाँ, एक शर्त है। हमें सच्चा बनना होगा। इसके अभाव में डायरी खोटे सिक्के-सी हो जाती है। पर यदि इसमें सत्य हो तो यह सोने की मुहर से भी कीमती हो जाती है।

  • हरिजन बंधु, 20.1.1933

ज़ारूरत

प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण लोग अपने बारे में लिखते हैं। लेकिन जो साधारण लोग हैं उनका जीवन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता। कहानी-कविता लिखने के पहले कई बार आत्मकथा रास्ता सुझाती है। इंग्लैंड में मज़दूर आंदोलन के बाद उन्नीसवों सदी के उत्तरार्द्ध में अनेक मज़दूरों ने आत्मकथाएँ लिखी थीं। अपने देश में भी हाल के

वर्षों में दलित-वंचित लोगों ने आत्मकथाएँ लिखी हैं जो केवल उनकी अपनी कहानी भर नहीं है बाल्कि हमारे समाज की भी कहानी है। कहानी, उपन्यास, नाटक या कविता में सारा कुछ नहीं आ सकता और न ही उपन्यास या कविता सबकी कथा बन सकती है। इसीलिए आत्मकथा की ज़रूरत होती है। आत्मकथा का लिखा जाना यह साबित करता है कि हर मनुष्य महत्त्वपूर्ण है और यह भी कि हर मनुष्य रचना भी कर सकता है।

तैयारी

आत्मकथा लिखने के लिए अलग से किसी तैयारी की ज़रूरत भी नहीं होती। बस भाषा बोलनी-लिखनी आनी चाहिए। सच्चाई और सरलता आत्मकथा के विशेष गुण हैं, फिर आत्मकथा चाहे ध्यानचंद की हो, दया पवार की या सुनील गावस्कर की। यहाँ प्रख्यात वैज्ञानिक स्टीफेन हॉकिंग के अपने जीवन के बारे में लिखे गए इस अंश को देखा जाए-

I was born on 8 January, 1942, exactly three hundred years after the death
of Galileo…
My father came from Yorkshire. His grandfather, my great-grandfather, had been a wealthy farmer…
My mother was born in Glasgow, the second child of seven of a family doctor…
We lived in Highgate, north London. My sister Mary was born eighteen months after me…
My earliest memory is of standing in the nursery of Byron >House in Highgate, and crying my head off. All around me, children were playing with what seemed like wonderful toys. I wanted to join in, but I was only two-and-a-half, and this was the first time I had been left with people I didn’t know…

यहाँ स्टीफेन हॉकिंग ढाई साल की उम्र से अपने जीवन को याद करना शुरू करते हैं। यह घटना है रोने की। इसी तरह से हर कोई अपने बारे में लिख सकता है। इस तरह याद करने की, ब्योरों तथा विवरणों को एकत्र करने की आदत भी पड़ती है जो एक रचनाकार के लिए बहुत ज़रूरी है। एक रचनाकार जो कुछ भी लिखता है उसमें उसकी याददाश्त या स्मृति का बड़ा योगदान होता है। कहा जाता है कि रचनाकार की हर कथा में उसकी आत्मकथा भी होती है।

यहाँ हम कुछ अन्य आत्मकथात्मक लेखन (संस्मरण, आत्मकथा, यात्रा वृत्तांत, डायरी, पत्र आदि) पर चर्चा करेंगे।

याद कीजिए आपने जो पहला पहाड़ देखा वह कैसा था? सोचिए तो आपने पहली बार

नदी देखी तो कैसा लगा था? आज से दस साल पहले का अपनी माँ का चेहरा याद कीजिए, उसके साथ बिताए उन दिनों में अपने आपको खोजिए। अपने साथियों की अच्छी-बुरी बातें, छूटा हुआ स्कूल, गाँव, शहर अपनी स्मृति में ले आइए और इसे लिखने का प्रयास कीजिए।

अगर आप ऐसा करेंगे तो जो रचना होगी वह

देखें पृष्ठ 75 कैसी होगी? शायद कुछ-कुछ ऐसी

‘बाबा के भय और पढ़ाई-लिखाई छूट जाने की चिंता से मुक्ति पाने के लिए मैं मा (माँ) के साथ बिताए दिन याद करने लगती और सोचती कि किसी तरह मा की माया-ममता-स्नेह-सुख फिर मिल जाता तो बड़े से बड़े कष्ट को भी मैं कष्ट न समझती। मा कितना चाहती थी कि मैं पढ़-लिख जाऊँ! उसका दबाव न होता तो जितना पढ़ सकी उतना पढ़ने का भी कोई अवसर नहीं देता। पढ़ना-लिखना कितनी मधुर चीज़ है यह स्कूल में कुछ समय बिताने के बाद अब समझ में आया है। पढ़ाई की बात से याद आता है कि इतिहास मेरा प्रिय विषय था। इतिहास में मुझे जो रस मिलता था वह किसी और विषय में नहीं और शायद इसी कारण इतिहास के मास्टर मुझे बहुत चाहते थे। वह हमें युद्धों के बारे में और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नवाब सिराजुदौला और न जाने कितने और राजा-रानियों नवाब-बादशाहों के बारे में बताते थे। मेरा मन होता उन सभी से मिलूँ, बातें करूँ जिनकी कथाएँ वह सुनाते। इतिहास पढ़ते-पढ़ते मुझे मा की बहुत याद आती। ऐसा क्यों होता था, यह मैं नहीं जानती। हो सकता है इसके पीछे वे बातें रही हों जो मा के चले जाने पर अड़ोस-पड़ोस के लोग हमारे बारे में बात करते थे। जैसे कि यह कैसा राजा-महाराजाओं जैसा सुखी परिवार था, बस एक व्यक्ति के चले जाने से तछ-नछ हो गया! होने को तो यह भी हो सकता है कि रानी लक्ष्मीबाई के, घोड़े पर अपने लड़के को बिठा, युद्ध के लिए निकल पड़ने की बात से मुझे वह दिन याद आ जाता रहा हो जब मेरे सबसे छोटे भाई को ले मा घर से निकल गई थी।’ -आलो-आँधारि, आत्मकथा, बेबी हालदार

गतिविधि/Activity 12

अपने परिवार, विद्यालय, दोस्त, खेल के मैदान का अवलोकन करते हुए एक महीने तक डायरी लिखिए। पन्नों को पलटकर देखिए कि यह आपको खुद को और आस-पास की दुनिया को समझने में कैसे मदद करती है।

Maintain a diary for a month based on your observations about your family, school, friends, playground etc. Analyse how this record helped you to understand yourself and the world around you.

‘आलो-आँधारि’ बेबी की आत्मकथा के साथ-साथ एक ऐसी दुनिया की कहानी है जो हमारे साथ है, पड़ोस में है, लेकिन अनदेखी है।

‘मंगलवार की सुबह हमने पिछली रात के छोड़े हुए काम को पूरा करना शुरू किया। बेप और मिएप हमारे राशन कूपनों से शॉपिंग करने गईं और पापा ने ब्लैक आउट वाले परदे लगाए। मैंने रसोई का फ़र्श रगड़-रगड़ कर साफ़ किया। सवेरे से रात तक हम लगातार काम में जुटे रहे।

बुधवार तक तो मुझे यह सोचने की फुर्सत ही नहों मिली कि मेरी ज़िदगी मेंकितना बड़ा परिवर्तन आ चुका है। अब गुप्त एनेक्सी में आने के बाद पहली बार मुझे थोड़ी फ़ुर्सत मिली कि तुम्हें बताऊँ कि मेरी ज़िदगी में क्या हो चुका है और क्या होने जा रहा है।’

  • ऐन फ्रैंक की डायरी का एक अंश

ऐन फ्रैंक (1929-1945) जर्मनी में पैदा हुई एक यहूदी लड़की थी। जर्मनी में जब नाज़ियों की सत्ता कायम हुई और यहूदियों पर अत्याचार शुरू हुए, तो वह परिवार समेत एम्सटर्डम चली गई। फिर नीदरलैंड पर भी नाज़ियों का कब्ज़ा हुआ और यहूदियों पर अत्याचार का दौर वहाँ भी शुरू हो गया। ऐसी स्थिति में जुलाई 1942 में उसका परिवार एक दफ़्तर के गुप्त कमरे में छुप कर रहने लगा। जहाँ दो साल बिताने पर वे नाज़ियों की पकड़ में आ गए और उन्हें यातना कैंप में पहुँचा दिया गया। इसी यातना कैंप में ऐन ने यह डायरी लिखी जिसका प्रकाशन उसकी मृत्यु के बाद द डायरी ऑफ अ यंग गर्ल (1947) के नाम से हुआ। यह बीसवीं सदी की सबसे ज़्यादा पढ़ी गई पुस्तकों में से है। इल्या इहरनबुर्ग ने एक वाक्य में इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता को रेखांकित किया है - “यह साठ लाख लोगों की तरफ़ से बोलने वाली एक आवाज़ है, एक ऐसी आवाज़ जो किसी संत या कवि की नहीं, बल्कि एक साधारण लड़की की है।”

‘भारत के पैगोडा, मिस्र के पिरामिड, इटली के बाज़ीलिक मुझे माफ़ करें, अमरीका के राजमार्ग, पेरिस के बुलवार, इंग्लैंड के पार्क और स्विट्ज़रलैंड के पहाड़ मुझे क्षमा करें, पोलैंड, जापान और रोम की औरतों से मैं माफ़ी चाहता हूँ - मैं तुम सब पर मुग्ध हुआ, मगर मेरा दिल चैन से धड़कता रहा। अगर उसकी धड़कन बढ़ी भी, तो इतनी नहीं कि गला सूख जाता और सिर चकराने लगता। पर अब जब मैंने चट्टान के दामन में बसे हुए इन सत्तर घरों को फिर से देखा है, तो मेरा दिल ऐसे क्यों उछल रहा है कि पसलियों में दर्द होने लगा है, आँखों के सामने अँधेरा छा गया है और सिर ऐसे चकराने लगा है मानो मैं बीमार या नशे में धुत्त होऊँ! क्या दागिस्तान का छोटा-सा गाँव वेनिस काहिरा या कलकत्ते से बढ़कर है? क्या लकड़ियों का गद्वा उठाए पगडडी पर जाने वाली अवार औरत स्केंडिनेविया की ऊँचे कद और सुनहरे बालों वाली सुंदरी से बढ़कर है?’ ‘त्सादा! मैं तुम्हारे खेतों में घूम रहा हूँ और सुबह की ठंडी शबनम मेरे थके हुए पैरों को धो रही है। पहाड़ी नदियों से भी नहीं, चश्मों के पानी से मैं अपना मुँह धोता हूँ। कहा जाता है कि अगर पीना ही है, तो चश्मे से पियो। यह भी कहा जाता है - मेरे पिता जी ऐसा कहा करते थे - कि मर्द केवल दो ही हालतों में घुटनों के बल खड़ा हो सकता है - चश्मे से पानी पीने और फूल तोड़ने के लिए। त्सादा, तुम मेरे लिए चश्मे के समान हो। मैं घुटनों के बल होकर तुमसे अपनी प्यास बुझाता हूँ। मैं एक पत्थर देखता हूँ और उस पर मुझे मानो पारदर्शी-सी एक छाया नज़र आती है। यह मैं खुद ही हूँ, जैसा कि तीस साल पहले था। किसी कारण पड़ोस के गाँव में गया था। शायद पिता जी ने मुझे भेजा था। हर कदम पर खुद अपने से ही, अपने बचपन, अपने वसंतों, अपनी बरसातों, फूलों, पतझर में झड़े हुए पत्तों से मेरी मुलाकात होती है।’

  • मेरा दागिस्तान, रसूल हमज़ातोव

यह पुस्तक एक आत्मकथात्मक रचना है। अवार भाषा में लिखी गई और दुनिया भर में

सराही गई जन कवि रसूल हमज़ातोव की यह रचना दागिस्तान के बहाने किसी भी देश के व्यक्ति के मातृभूमि से नितांत आत्मीय संबंधों की रचना है।

‘मैंने तुम्हारे पोस्टकार्ड को कई बार उल्टा लटकाया और थपथपाया तो वह गिड़गिड़ाया और बोला, “मैं क्या करूँ? डाक्टर ने माना ही नहीं। मैंने तो आसमान की तरह फैलकर अपने को उनको समर्पित कर दिया, पर उन्होंने मुझे अपने वाक्यों से वंचित ही रखा और रोते-रोते, बधाई बाँधकर, पोस्ट-बॉक्स के अँधेरे घर में झोंक दिया। मैं मजबूर था। आया तो आप न मिले। रोता पड़ा रहा। खैर आपने स्नेह दिया। यही क्या कम है। कृतज्ञ हूँ। पर उल्टा लटकाने और थपथपाने से दिमाग में बल पड़ गया।”

  • ‘मित्र संवाद’, केदारनाथ अग्रवाल का पत्र राम विलास शर्मा के नाम

साहित्यकारों के पत्र साहित्य को समझने में मददगार होते हैं। उसी तरह से जैसे मिर्ज़ा गालिब के पत्र खड़ी बोली हिंदी और तत्कालीन भारत के इतिहास की समझ विकसित करने में समर्थ हैं।

‘बहुत बरस हुए, मैंने शेक्सपियर के ‘आथेलो’ में पढ़ा था कि जिस आदमी की आत्मा संगीतविहीन है, जिसे मीठे सुर झकझोरते नहीं, वही धोखाधड़ी, षड्यंत्र

कर सकता है, द्रोह कमा सकता है; वह आदमी काबिले-एतबार नहीं। जब मैंने ये पंक्तियाँ पढ़ी थीं तो मैं कितने समय तक ग्वालमंडी लाहौरवाली अपनी गली, अपने छोटे-से हारमोनियम और गली-मुहल्ले में अपनी परवानगी (बड़ा होने) के बारे में सोचता रहता। ज़ाहिर है इस हारमोनियम ने मेरीं काव्य-रचना को ही नहीं, मेरी काव्यशास्त्रीय चेतना को भी प्रभावित किया है।’

  • चोला टाकियाँवाला, हरभजन सिंह

चोला टाकियाँवाला’ में हरभजन सिंह ने अपनी साहित्यिक आत्मकथा लिखी है। चोला टाकियाँवाला के इस अंश में हरभजन सिंह को कोई पढ़ी हुई रचना याद आती है जो उनके खुद के साहित्यिक विकास से कैसे जुड़ जाती है। इसी अर्थ में किसी रचना की जड़ें कई देशों की मिट्टी में मिली हो सकती हैं।

उपर्युक्त अंशों को शुरुआत और अंत के साथ न पढ़ा जाए तो नहीं पता चलेगा कि ये कौन सी विधा में लिखे गए हैं। दरअसल इन अंशों का अलग-अलग रचनात्मक विधा के रूप में तो महत्त्व है ही, इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि ये ही किसी भी बड़ी ‘आत्मकथा’ का अंग बन सकते हैं क्योंकि कुछ बातें सबमें मौजूद हैं, वे हैं-

D सच्चाई और सरलता, जो आत्मकथात्मक लेखन की पहली शर्त है।

1. लेखक हर जगह मौजूद है पर हवा में सुगंध की तरह। रचना में रचनाकार की तरह, आत्मीयता के बावजूद तटस्थ। जैसे पढ़ने के लिए किताब को निश्चित दूरी की ज़रूरत होती है।

2. स्मृति की प्रस्तुति ऐसे तरीके से हुई है कि पढ़ने वाला इसे अपने आप के साथ घटी घटनाओं की तरह देखने को विवश हो जाता है।

छोटे-छोटे और सरल-सहज वाक्यों के द्वारा हुई इन रचनाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है अवलोकन और उसका दायरा। (बेबी को इतिहास पढ़ते हुए उसकी माँ याद आती है। रसूल को अपने गाँव को देखते हुए उसके चश्मे, नदियाँ, पगडंडी और कई-कई देशों की मशहूर बातें याद आती हैं, तो ऐन को मुश्किल दिनों में भी याद रहता है रगड़-रगड़कर फ़र्श साफ़ करना और डायरी लिखने के लिए फ़ुर्सत के कुछ क्षण। केदारनाथ अग्रवाल को एक उम्र के बाद भी अपनापे वाला बचपन और उसके खिलवाड़-पत्र को उल्टा लटकाना … नहीं भूलता। हरभजन सिंह को रचना करते हुए पूरे विश्व की रचना स्मरण हो आती है।)

रचनाकार की यह सबसे बड़ी ताकत होती है कि वह एक ही समय में कई कालों, कई जगहों, कई लोगों के साथ रह सकता है। वह शब्दों से खेलता है

D शब्दों से यह खेल लेखन की बुनियाद है।

ध्यान दें

डायरी एक तरह का दैनिक दस्तावेज़ या रोज़नामचा है जिसमें एक दिन के ताज़ा-तरीन अनुभवों (खुशी के और दुख के क्षण) को रचनाकार अभिव्यक्त करता है। डायरी में रचनाकार अपने वर्तमान समय और भाव संसार के साथ पूरी तरह मौजूद होता है, इसीलिए इसमें तिथि और समय का भी महत्त्व होता है। अन्य आत्मकथात्मक लेखन में (पत्र को छोड़कर) यह ज़रूरी नहीं है। गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पुस्तक ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में न तो तिथि क्रम है, न निजी प्रसंग, न कोई तथ्य, फिर भी सार्वजनिक मुद्दों को आत्मीयता के साथ प्रस्तुत करने के कारण लेखक ने इसे ‘डायरी’ कहा है।

यात्रा वृत्तांत में स्थान, वहाँ की संस्कृति और लोगों का होना ज़रूरी है। ‘मेरा दागिस्तान’ का अंश देखने में संस्मरणात्मक यात्रा वृत्तांत की तरह लग सकता है, पर वह अलग इस मायने में है कि वहाँ गाँव के साथ-साथ रसूल मौजूद है अपने को गाँव में बड़ा होते देखते हुए। गाँव की नदी और पगडंडी से बात करते हुए। इसीलिए यह आत्मकथात्मक रचना है। लेकिन कृष्णनाथ द्वारा लिखी ‘स्पीति में बारिश’ एक यात्रा वृत्तांत है क्योंकि यहा स्पीति का मौसम, समाज सब कुछ एक साथ प्रस्तुत हुआ है। उदाहरण के लिए, ‘स्पीति में वसंत लाहुल से भी कम दिनों का होता है। वसंत में भी यहाँ फूल नहीं खिलते, न हरियाली आती है, न वह गंध होती है। दिसंबर से घाटी में फिर बर्फ़ पड़ने लगती है। अप्रैल-मई तक रहती है। यहाँ ठंडक लाहुल से ज़्यादा पड़ती है। नदी-नाले सब जम जाते हैं और हवाएँ तेज़ चलती हैं। मुँह, हाथ और जो खुले अंग हैं उनमें जैसे शूल की तरह चुभती है।’

पत्र वाले अंश की कोई अलग पहचान बन सकती है तो इसलिए कि वहाँ दो व्यक्ति मौजूद हैं। जो भी बातें हो रही हैं वह उन्हीं के इर्द-गिर्द हो रही हैं। उसका संबंध लिखने वाले और जिसके लिए लिखा जा रहा है उनके साथ सीधा होगा। यहाँ आत्मीयता प्रकट करने में संबोधनों के प्रयोग का महत्त्व होता है। तिथि यहाँ भी डायरी की तरह महत्त्वपूर्ण होती है।

किसी भी तरह के स्मृति आधारित आत्मकथात्मक लेखन के लिए ज़रूरी होगा कि अपने आस-पास की दुनिया को न केवल देखें बल्कि अपने भीतर महसूस करें और हमेशा-हमेशा के लिए शब्दों में बाँध लें। यह आदत दुनिया के साथ-साथ खुद को जानने में तो मददगार होगी ही, नयी दिशाएँ चुनने में भी सहायक होगी - वह चाहे भविष्य के रास्ते हों (एक दृढ़, सच्चे और ज़िम्मेदार व्यक्ति के रूप में चुनौती को स्वीकार करने वाले) या फिर लेखन की नयी दिशाएँ (कहानी, कविता, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत हो या फिर किसी अखबार में बृहत्तर समुदाय को संबोधित करता कोई लेख), इसलिए आत्मकथा लिखने का अभ्यास वास्तव में रचनाकार बनने की पहली तैयारी है।

अगली बार जब किसी पेड़, पहाड़, समुद्र, व्यक्ति को यात्रा के दौरान देखें तो यह देखना न भूलें कि वह आपकी अब तक देखी हुई दुनिया से अलग कैसे है, क्योंकि सृजनात्मकता दुनिया को भीड़ की तरह नहीं, अलग-अलग निजी अस्तित्व के साथ देखना सिखाती है। आपका मित्र आपको क्यों अच्छा लगता है, यह तो जानें ही, अपनी खुशी और दुख का हालचाल लेना भी न भूलें। अपने को अभिव्यक्त करके अपने आत्मविश्वास का हालचाल तो मिलेगा ही, आपका यह लेखन आपकी दुनिया का विस्तार करता है, यह भी पता चलेगा।

कलाकार कोई विशेष प्रकार का मनुष्य नहीं होता, बल्कि हर मनुष्य एक विशेष प्रकार का कलाकार होता है।

-आनंद कुमार स्वामी

लेखनी से आँसुओं तक - एक लंबी हिस्सेदारी

समूह के रूप में हमने जब पहली बार डायरी लिखने का मन बनाया, तो पहला सवाल उठा कि डायरी तो हमने कभी लिखी नहीं है! फिर इसे लिखेंगे कैसे? क्या लिखेंगे, क्या नहीं? समूह को अपना लिखा पूरा सुनाएँगे कि कुछ ही हिस्से? इन सारे प्रश्नों के जवाब हमने आपस में चर्चा करने के बजाय सीधे डायरी लेखन के माध्यम से ही खोजने शुरू किए। दिसंबर 2002 की गुलाबी धूप में हम में से कुछ लोग एक ही चटाई पर बैठकर अपने-अपने जीवन में लीन हो गए, कुछ पेड़ों के तले और कुछ मुँडेरों पर या दालानों में बिखर गए। हम सबने एक घंटा डायरी लिखी, अधिकतर अपने बचपन पर।

-संगतिन यात्रा

(सीतापुर के पास के एक गाँव के अलग-अलग जाति, धर्म, वर्ग की स्त्रियों की एक ऐसी रचना-यात्रा जिसे ॠचा द्वय ने कलमबद्ध किया ‘संगतिन यात्रा’ के नाम से।)

Understanding Literary Writing

Creativity flourishes with freedom of expression. The aim is to facilitate confidence in expression irrespective of the creative form.

1. Group Activity

  • Each student should bring eight cuttings of old cards.
  • The word ‘flower’ should be written on the blackboard.
  • Students will write any thought or words associated with the word ‘flower’ on a separate card. This may be one/two words or a small sentence.
  • The cards should be collected from all the students and kept in separate piles.
  • The exercise should be repeated with seven different words such as - fire, thorn, water, waterfall, wind, rain etc.
  • Now all the card-piles associated with one word should be given to one group of students and they should be asked to write a poem using all/most words written on the cards. Effort should be made not to repeat one word too often.
  • All the poems thus written should be displayed on the class notice board.

2. Enjoy and appreciate your own creative work

  • All students should be asked to write their experiences with reference to the activities given on Page 15, Unit I. Students may choose any form of writing.
  • Each student should assess her/his own work - whether it is prose, poetry or dialogue.
  • Students should be encouraged to analyse why they chose that particular form of writing. And the pen writes on…

And the pen writes on…*

Sensitive, responsive, eagerly welcomed everywhere, the drama, holding the mirror up to nature, by laughter and by tears reveals to mankind the world of men.

  • George P. Baker

Men are mortal. So are ideas. An idea needs propagation as much as a plant needs watering. Both will otherwise wither and die.

  • B. R. AmbedKar

The man who writes about himself and his own time is the only man who writes about all people and about all time.

  • George Bernard Shaw

The drama is complete poetry. The ode and the epic contain it only in germ; it contains both of them in a state of high development, and epitomises both.

  • Victor Hugo

Literature adds to reality, it

does not simply describe

it. It enriches the necessary

competencies that daily life

requires and provides and, in

this respect, it irrigates the

deserts that our lives have

already become.

  • C.S. Lewis

I. Literary Writing - an Introduction

Creativity manifests itself in various forms of art and literature. It is also a reflection of our culture and society and is closely associated with our day-to-day life. Just as for a painter the paints and brush are her/his medium of creativity, for a creative writer words are the medium that give creative expression to her/his imagination and observation. Creative writing fulfils a writer’s desire to invent, explore and share.

Before we talk about different forms of creative expression, read the following extracts. They represent different forms of writing.

Bholi did not know what exactly a school was like and what happened there, but she was glad to find so many girls almost of her own age present there. She hoped that one of these girls might become her friend.

The lady teacher who was in the class was saying something to the girls but Bholi could understand nothing. She looked at the pictures on the wall. The colours fascinated her — the horse was brown just like the horse on which the Tehsildar had come to visit their village; the goat was black like the goat of their neighbour; the parrot was green like the parrots she had seen in the mango orchard; and the cow was just like their Lakshmi. And suddenly Bholi noticed that the teacher was standing by her side, smiling at her.

“What’s your name, little one?”

– an extract from ‘Bholi’,

a short story by K.A.Abbas

His loud sharp call

seems to come from nowhere.

Then, a flash of turquoise

in the pipal tree

The slender neck arched away from you

as he descends,

and as he darts away, a glimpse

of the very end of his tail.

– an extract from ‘The Peacock’,

a poem by Sujata Bhatt

As for music, she explains, “It pours in through every part of my body. It tingles in the skin, my cheekbones and even in my hair.” When she plays the xylophone, she can sense the sound passing up the stick into her fingertips. By leaning against the drums, she can feel the resonance flowing into her body. On a wooden platform she removes her shoes so that the vibrations pass through her bare feet and up her legs…It is intriguing to watch Evelyn Glennie function so effortlessly without hearing…

  • an extract from ‘The Sound of

Music’ by Deborah Cowley

Peacocks in Gond art

You can see from the above excerpts that in writing, creative expression can take any form, for example, a story, poem, essay, play, autobiography or reminiscence. This is because form and content are like the two sides of a coin. The content and your style of writing will give direction to your chosen form. In this unit we will discuss three forms of expression - poetry, prose and play.

Poetry

Poetry is a form of art which uses rhyme and rhythm to arouse in the audience both sensuous and emotional responses. Some of the forms of poetry are the ode, sonnet, lyric, dramatic monologue, verse, satire and free verse. Poetry in the oral tradition has a long history predating literacy. The oldest surviving poem is the Epic of Gilgamesh, from the third millennium BCE*[^3]

गतिविधि 10/Activity 10

अच्छी रचनाओं को पढ़ना लेखन में सहायक होता है। अपनी पढ़ी हुई रचनाओं (4-5) का एक संकलन तैयार कर पोर्टफोलियो में लगाएँ और लिखें कि आपने उन्हें क्यों चुना?

Reading well-written pieces helps one to write well. Make a collection of the pieces (4 – 5) that you have read for your portfolio. Give reasons why you chose them

अच्छी रचनाओं को पढ़ना लेखन में सहायक होता है। अपनी पढ़ी हुई रचनाओं (4-5) का एक संकलन तैयार कर पोर्टफोलियो में लगाएँ और लिखें कि आपने उन्हें क्यों चुना?

Reading well-written pieces helps one to write well. Make a collection of the pieces $(4-5)$ that you have read for your portfolio. Give reasons why you chose them.

A Rune Stone in Sumer in Mesopotamia (Iraq), based on the life of the historical King Gilgamesh. Our ancient Vedas (1700-1200 BCE), and the later epics like the Ramayana and the Mahabharata, followed by the Greek epics like The Iliad and The Odyssey (800$675 \mathrm{BCE}$ ), have been composed in poetic form and were recited and sung in ancient societies. The longest of these epic poems are the Mahabharata and the Tibetan Epic of King Gesar.

In early times, poetry was the only means of recording oral history and narratives. The earliest records of poetry are found on monoliths, rune stones and stelae. Ancient poetry has come to us initially from oral transmission, and later through writing and printing. Poetry of the ancient times has helped to preserve the ancient historical, cultural and religious traditions of the pre-literate societies. In early times the introduction of writing made poets take to different forms of poetry. During the nineteenth century, however, these forms were given up in favour of free verse.

There are three major genres in poetry: epic poetry, lyric poetry and dramatic poetry. While epic poetry is usually a narrative of considerable length, lyrics are shorter, more personal in nature and are often sung to the musical accompaniment of the lyre (hence the term lyric). In the sixth century, choric poetry was introduced and this became an integral part of drama. In more recent times, the introduction of electronic media and the increase in poetry-reading have led to a resurgence of performance poetry. In the late twentieth century the rise of the singer-songwriter, rap culture etc. has led to an increase in the popularity of poetry.

Given below are examples of free verse and a rhymed poem.

Wind, come softly.

Don’t break the shutters of the windows.

Don’t scatter the papers.

Don’t throw down the books on the shelf.

There, look what you did - you threw them all down.

You tore the pages of the books.

You brought rain again.

  • an extract from ‘Wind’ by Subramania Bharati

(Translated from the Tamil)

Drive my dead thoughts over the universe

Like withered leaves to quicken a new birth!

And, by the incantation of this verse,

Scatter, as from an unextinguished hearth

Ashes and sparks, my words among mankind!

Be through my lips to unawakened earth

The trumpet of a prophecy! O Wind,

If Winter comes, can Spring be far behind?

  • an extract from ‘Ode to the West Wind’

by P.B. Shelley

Of all the genres, poetry allows the greatest freedom of subject matter and approach. A poem represents its topic in a striking and original way whatever the range and variety of its references and detail. The theme of a poem is focused and unified through its imagery and structural control. A poem should contain a clear sense of the writer’s imaginative, emotional, and intellectual involvement with the topic and evoke a similar response in the reader as fully as possible.

Prose

Story as a form of prose has come to us through the oral tradition. In ancient times, before the printing press was invented, oral singing/recitation was the only means of narrating a story. We have seen how the two great Greek epics, The Iliad and The Odyssey, and our own Indian epics the Ramayana and the Mahabharata, have come to us from the ancient oral, storysinging tradition. Each day, the poet would narrate an episode and these episodes were long enough to be sung at one sitting. The overall arc of the epic emerged from these episodes put together.

Other forms of story are folk tales and fables such as Dastan, Aesop’s Fables, Panchatantra, and Grimm’s Fairy Tales that continue to be popular even today. In the eighteenth century, with the first

A scene from a Jataka Tale depicted in the Ajanta Caves translation of Arabian Nights (or Thousand and One Nights) the short story form took root in France. In the nineteenth and the twentieth centuries, modern short stories became popular all over the world and this trend continues even today.

Short stories have a well thought out plot that revolves around a single incident. The entire story spans a short period of time and has just a few characters. Read the following extract from the story ‘The Lost Child’ and see how Mulk Raj Anand has been able to capture the attention of his readers from the very beginning of the story.

It was the festival of spring. From the wintry shades of narrow lanes and

alleys emerged a gaily clad humanity. Some walked, some rode on horses,

others sat, being carried in bamboo and bullock carts. One little boy ran

between his father’s legs, brimming over with life and laughter.

“Come, child, come,” called his parents, as he lagged behind, fascinated

by the toys in the shops that lined the way. He hurried towards his parents, his feet obedient to their call, his eyes

still lingering on the receding toys. As he came to where they had stopped

to wait for him, he could not suppress the desire of his heart, even though

he well knew the old, cold stare of refusal in their eyes. “I want that toy,” he pleaded

A novel is the extended form of the short story. It has a narrative with a large number of characters, multiple plots or even a single plot that is full of complex situations, detailed delineation of characters and descriptive passages. During the seventeenth century the novel began to establish itself as a standard literary type in England and France, and by the early eighteenth century it had become a popular form of writing.

Novels deal with historical, romantic, realistic and social topics. There are also semi-autobiographical novels, for example, Mary Lamb’s Human Bondage, Harbhajan Singh’s Chola Taakian Wala and Mera Dagistan by Rasool Hamzatov. Some novels are even written in verse form like The Golden Gate by Vikram Seth.

You must have read stories written by writers such as Premchand, Rabindranath Tagore, Anton Chekhov, Leo Tolstoy, O. Henry, Ruskin Bond, Khushwant Singh. These short story writers have also written novels.

The eighteenth century, also known as the Age of Prose, saw the rise of the middle class in England. The newly emerging educated middle class wanted quick access to good and easily comprehensible reading material; not too abstract and difficult but easy and light reading. This called for a new form of writing that was simple, direct, easy, enjoyable, witty and informative. Hence, prose was a natural choice.

The eighteenth century also saw the development of Science as the Royal Academy of Sciences was established. As you all know, scientific principles and theories require clear and unambiguous prose. Scientific writings demand logical derivations and clarity of thought expressed with precision. Prose was therefore the natural choice of this period.

In India prose writing emerged in the nineteenth century in almost all the modern Indian languages. It was the establishment of printing presses that gave impetus to prose writing. Earlier prose writings in India were in the form of letters and documents but the genre got a real fillip when newspapers and magazines were introduced in the early nineteenth century. This period also marks the growing importance of the English language in India.

The Nationalist Movement in the 1880s began to infuse a reformist and popular spirit into Indian literature. Most writings in protest against oppression were in the form of essays, novels and short stories. Theatre and films became popular media and novels were ‘performed’ for masses to enjoy. Indian literature began to incorporate contemporary themes and issues and by the early twentieth century the novel, essay and short story had emerged as major forms of expression in regional languages.

The various literary forms of expression in prose are

Cover page of a recent reprint of the novel, Indirabai, written at the end of the nineteenth century

essay, novel, drama, biography and autobiography, travelogue, short story, one-act play, satire etc. Among these the essay as a literary form of writing became very popular in the twentieth century as it offers a wide range to accommodate new forms of expression to experiment with.

Essays are meant to be an authentic presentation of personal ideas, thoughts, temperament and a reflection of one’s true self. They are brief and present the writer’s personal point of view, insight and experience and also engage the reader’s attention. The reader has the freedom to say ‘I agree to disagree’. Such a freedom makes your reader an ‘interactive reader’ who is ready to follow your line of thinking.

The essay as a literary device holds good for personal anecdotes and autobiography, descriptive writings with a good eye for detail, and for scientific, literary and philosophical treatises of a higher plane. The essay should have a flow that makes it easy for the reader to understand its theme. This means that you must have an organised structure that takes your thoughts step by step to make it easy for your reader to follow through. And last but not the least, the style you employ should be simple, elegant and clear with no ambiguity or jargon. You will also find that sometimes essays have a narrative like a story and vice-versa. Thus we can say that literary forms influence each other and this is how new forms emerge.

The following extract from G.N. Devy’s essay on ‘Tribal Verse’ attracts our attention towards the rich and oral literatures of the tribes not only through its content but also because of its lucid style.

The roots of India’s literary traditions can be traced to the rich and oral literatures of the tribes/adivasis. Usually in the form of songs or chanting, these verses are expressions of the close contact between the world of nature and the world of tribal existence. They have been orally transmitted from generation to generation and have survived for several ages. However, a large number of these are already lost due to the very fact

of their orality. The forces of urbanisation, print culture and commerce have resulted in not just the marginalisation of these communities but also of their languages and literary cultures. Though some attempts have been made for the collection and conservation of tribal languages and their literatures, without more concerted efforts at an accelerated pace, we are in danger of losing an invaluable part of our history and rich literary heritage.

Drama

Drama in some form is found in almost every society, primitive and civilised, and has served a wide variety of functions in it. It is one of the earliest forms of visual performances that combine music, dance, dialogue, action and spectacle. The origin of dramatic forms lies in epic narrations done in ancient times, where the story was told with intonation or change of voice. From this platform emerged the sutradhar or ’the chorus’ (if more than one person) who introduced the play and the characters to the audience. Drama evolved over time by the addition of physical action and movements to the voices of the characters. Costume, stage-setting and lighting further added to the visual spectacle. Drama thus became a wholesome performance incorporating various elements.

Drama as a form of expression developed after poetry. Its origin can also be traced back to the oral tradition of poetry and story but the genre developed as a written form much before the written form of story. Therefore, we find that earlier drama was written in verse both in Indian and Western literature. Later, poetic prose was used in dramatic expression and this type of drama is also referred to as poetic drama. But after the nineteenth century, prose has largely been used in drama. The similarity between drama and poetry is that both these forms are not necessarily descriptive because the emphasis is more on symbols, signs and metaphors.

Indian drama can be traced back to dramatic episodes described in the Rigueda. These episodes dealt with human concerns as well as the gods.

in the art of dance which is true of the origin of drama all over the world. The text not only gives minute details about what is to be portrayed in a drama but how the portrayal should be done. It is a rich resource for both playwrights and actors.

Famous early Indian playwrights include Bhasa, Shudraka, Kalidasa and Asvaghosa. Some of the outstanding plays of these writers are Swapnavasavadatta, Mrichhakatikam, Abhigyanshakuntalam and Sariputraprakarana respectively. The stories from the Ramayana and the Mahabharata have often been used for plots in Indian drama and this practice continues even today.

Classical theatre traditions in India have continued to influence modern theatre. Till the fifteenth century, Sanskrit dramas were performed on stage. It was in the seventeenth century that Loknatya or the People’s Theatre revived the art form.

The eighteenth century witnessed the rise of Modern Indian Drama which made great strides from 1850 to 1940 . The resurgence of drama in different parts of the country saw the establishment of the Hindi Rangmanch. At the same time, due to the colonial impact, there was a rise in western drama. The Parsis too contributed a lot to the development of theatre by starting their own theatre company. Their practice of theatre was characterised by great detailing of props and stage-décor.

In the twentieth century, drama depicted contemporary social issues. Vijay Tendulkar’s Ghashiram Kotwal, Girish Karnad’s Tughlaq, Mohan Rakesh’s Aadhe Adhure and Mahesh Dattani’s Final Solutions are some of the examples of famous modern Indian plays. They employed everyday scenes and modern techniques of stage and setting to highlight the issues related to society.

The origins of Western theatre can be traced to ancient Greece. The Greeks had two kinds of drama, tragedy and comedy. Tragedy is the older and more famous of the two types, introduced in $534 \mathrm{BCE}$, while comedy is generally dated some half century later, around 486 BCE. But both genres were important to the Greeks, and were performed several times during the year as part of religious and agricultural festivals.

In Greek drama also, dramatic expression was in verse form.

Verse was used in the plays of the middle ages, the tragedies of English Renaissance and also by T.S. Eliot. Only at the end of the nineteenth century, when naturalistic realism became the mode, were the characters in dramas expected to speak and behave as in real life.

Drama gained popularity from the twelfth to the sixteenth century (Medieval Drama). During this period the ‘mystery plays’ and the ‘morality plays’ became popular. They personified human qualities and emotions (these were made the dramatic characters), debating and acting as if they were human. Most famous of these works was Everyman (c. 1509-19), which has regained popularity and respect in the twentieth century and features characters such as Fellowship, Knowledge and Good Deeds.

It was the artistic and cultural movement called the English Renaissance that brought in the renaissance of English drama. The three great playwrights of this period were Christopher Marlowe, William Shakespeare and Ben Jonson. Marlowe’s outstanding work was Dr Faustus, an original mix of the Medieval Morality play with the Renaissance temper. However, Shakespeare was the outstanding dramatist of the late sixteenth and early seventeenth centuries. He wrote historical, tragic and comic plays. Some of his works include King Lear, Hamlet, Macbeth and The Merchant of Venice.

There was a lull in English dramatic activities for nearly 200 years before the advent of Oscar Wilde and Bernard Shaw who wrote on social issues. The first half of the twentieth century saw the rise of poetic drama by T.S.Eliot and W.B.Yeats. English drama once again gained popularity in the second half of the twentieth century - sometimes referred to as ‘post-war drama’. This has been achieved despite the powerful influence of cinema in the twentieth century. The outstanding writers of this period include John Osborne with his Look Back in Anger, Samuel Beckett with his Waiting for Godot and Harold Pinter with his The Birthday Party. Some other famous playwrights include Bertolt Brecht, Henrik Ibsen, Arthur Miller etc.

Drama deals with a variety of themes. There are religious plays that deal with God, abstract virtues and spiritual matters. There are also secular plays dealing with social issues - both contemporary and topical. Plays can satirise society, or they can gently illuminate human weaknesses. Drama is the most wide ranging of all the arts; it not only represents life but is also a way of looking at life, of creating ‘models’ of life.

Folk drama is generally rural theatre based on traditions and local history. This form of drama is common throughout the world. It is performed outdoors in open spaces while theatre performances are staged in an auditorium. Folk plays use a lot of song and movement though a dramatic plot can be staged through dialogue and action alone. Some of the major

Elements of drama such as mime and dance, costume and decor long preceded the introduction of words and the literary sophistication now associated with a play. These basic elements were not suppressed by words; rather they were merely enhanced by them. So, in any form of drama, action, either through physical movement or through dialogue, is at the core. The main

The first ever Kudiyattam performance outside Kerala, in Chennai, 1962

components of drama are plot, conflict, characterisation and climax. Action supplements dialogue while settings and costumes lend authenticity to the characters portrayed on stage.

Despite the immense diversity of drama as a cultural activity, all plays have certain elements in common. Drama can never become a private statement - in the way a novel or a poem may be - without ceasing to be meaningful theatre.

I. Literary Writing

As you know there are different forms of literary writing. These forms have evolved over a period of time due to social and technological developments. Though existing forms of literature have certain distinctive features, within each form there is scope for innovation and experimentation. In this section we will introduce you to two forms of literary writing - drama and autobiographical writing.

The drama embraces and applies all the beauties and decorations of poetry. The sister arts attend and adorn it. Painting, architecture, and music are her handmaids. The costliest lights of a people’s intellect burn at her show. All ages welcome her.

  • Robert ARIS WILLMOTt

Writing Drama

For a creative writer the most important thing is the idea. It can be expressed in any form. While creativity is not limited by literary classifications, every writer chooses a form that she/he finds most suitable for the idea or story that she/he is trying to convey. This is an evolutionary process as literary forms are derived from each other.

Writers experiment with various forms - as a response to both their individual preferences as well as the demand of the times. Here, drama as a genre is distinct from other forms of expression because it serves twin purposes - the written as well as the performative.

Dramatic situations abound in the environment around us. A mood, a memory, a situation or a feeling can form the basis of a play. One needs to develop an eye for situations and a ear for dialogue. Often, characters and storylines are derived from the lives of the people we interact with everyday. Incorporating observed mannerisms and actions can lend richness and authenticity to the play. While writing drama one explores the mechanism of dramatic story-telling, and dramatic works may combine literary aspects of both prose and poetry.

Drama is a play written for the theatre, television

Theatre of the Absurd - $a$ critical term coined by Martin Eslin to describe a wide range of plays that depict the anxiety, isolation and frustration of modern man. The human condition is presented as absurd in these plays and the meaninglessness of human existence is brought out through disjointed, repetitious and inane dialogues. The plots also lack realistic or logical development. Samuel Beckett’s Waiting for Godot (1953) is a classic of this genre.

or radio. Dialogue, that is conversations among the actors, is thus the defining feature of drama. Unlike a poem, short story or autobiography, a play is written primarily for performance. When you write a play you use three elements - actors, stage, and audience - to convey your story. While in earlier times, drama had to conform to three unities unity of Place, Time and Action - modern writers have experimented with the form as in the ’theatre of the absurd’. However, as a thumb rule, the flow of the story should not be impeded. It should ideally proceed in a sequential manner - though not necessarily in a chronological manner. Sometimes the past is brought as a flashback while narrating the present, or the future is anticipated, predicted or imagined. But the story unfolds right at the moment you are reading or watching a performance.

Writing a play is often the reshaping of the familiar/ known into something original and unique. An event, a situation or a relationship can be developed into a drama. For example, Shakespeare’s King Lear is based on relationships. Cordelia clearly loves her father, and yet realises that her honesty will not please him. Her nature is too good to allow even the slightest deviation from her principles.

Act 1

CORDELIA : [Aside] Then poor Cordelia! And yet not so; since, I am sure, my love’s

More richer than my tongue.

KING LEAR: To thee and thine hereditary ever Remain this ample third of our fair kingdom; No less in space, validity, and pleasure, Than that conferr’d on Goneril. Now, our joy,

Although the last, not least; to whose young love The vines of France and milk of Burgundy Strive to be interess’d; what can you say to draw A third more opulent than your sisters? Speak.

CORDELIA : Nothing, my lord.

KING LEAR : Nothing!

CORDELIA : Nothing.

KING LeAR: Nothing will come of nothing: speak again.

CORDELIA: Unhappy that I am, I cannot heave My heart into my mouth: I love your majesty According to my bond; nor more nor less. KING LeAR: How, how, Cordelia! mend your speech a little, Lest it may mar your fortunes.

CORDELIA : Good my lord, You have begot me, bred me, loved me: I Return those duties back as are right fit, Obey you, love you, and most honour you. Why have my sisters husbands, if they say They love you all? Haply, when I shall wed, That lord whose hand must take my plight shall carry Half my love with him, half my care and duty: Sure, I shall never marry like my sisters, To love my father all.

A performance-still of an adapted version of King Lear, a play that has been adapted in many Indian languages

A historical event can also be developed into a drama for contemporary reading or presentation. An argument, a conflict or a misunderstanding can be the central theme of a play. A discovery, a choice or a dilemma also have great dramatic potential. Other modes of communication within a play include non-verbal modes such as gestures, body language etc. A Heap of Broken Images by Girish Karnad revolves around the electronic age and images that fling themselves at us. The play is set in a TV studio.

Image: Where are you going? (Startled, Manjula stops and looks around. Touches her earpiece to check if the sound came from there and moves on.) You can’t go yet. Manjula! (Manjula looks around baffled and sees that her image continues on the screen. She does a double take. From now on, throughout the play, Manjula and her image react to each other exactly as though they were both live characters.)

Manjula: Oh God! Am I still on? (Confused, she rushes back to the chair and stops.)

Image: You are not. The camera is off.

Manjula: Is it? Then… how?

Image: You are standing up. If the camera were on, I would be standing up too. I’m not.

Manjula: Is this some kind of a trick? . (Into her lapel mike) Hello! Hello! Can you hear me? How come I’m still on the screen? Raza, hello… (Taps her mike. No response)

Is there a technical hitch?

Image: No hitch.

Manjula (to the Image): But how… Who are you… How… Has the tape got stuck?

The impact of drama can be far more powerful than that of cinema or TV. Often drama is seen to present a slice of life on stage and its appeal is simultaneously strong and spontaneous. Drama can be a form of self expression as well as a tool for social change, for example, street plays or nukkad nataks.

For writers of drama there is a wide range of choice - of approach and form. In creating a dramatic script, however, you must be able to demonstrate your understanding of the nature and potential of the genre. In particular, you should be able to create characters who are credible, interesting and capable of generating in the reader an intellectual and/or emotional response.

While writing a drama one must develop and communicate a recognisable theme. The aim should be to produce a particular atmosphere, mood or effect. By ensuring that stage directions, technical effects and other production notes are directly linked to the action, a drama can be made convincing for the reader. In any form of drama, action, either through physical movements or through dialogue, is at the core.

Generally, when we speak of drama we refer to a full-length play that has either three acts or five acts. But a one-act play is a short play that takes place in one act or scene, unlike the longer plays that take place over a number of scenes in more than one act. This means that a one-act play uses minimal scenes, a minimum number of characters, with the plot limited to a short span of time.

A one-act play generally restricts itself to a single plot comprising either one scene or more. The dramatist, or playwright, establishes a setting in which, and a situation out of which, the drama arises. The unity of a oneact play is ensured through a tight structure wherein the action is ideally limited to a particular time and place and the storyline usually does not extend beyond a single day’s events.

Unity of action is very important in a one-act play and there is no room for sub-plots and comic interludes. There is hardly any costume change. Dialogues are precise and these plays are by and large realistic. Hence, the characters should be such that the audience identifies with them. Characterisation in a one-act play emerges from a single situation. The event that leads to conflict, crisis and resolution projects the characters of the persons involved. Since the play is a short play, there is no time or space to introduce the characters elaborately and the play gains swift momentum through a ‘What-Happens-Next’ technique as it races through from curtain rise to curtain fall.

Characters are crucial to any form of drama writing. While writing a play you must make a list of characters that you require for the play. Their names, ages, appearance etc. should be clear in your mind. You need to be able to visualise them. You may begin with small details such as the name of the character, her/his age, the colour of her/his hair, eyes, voice etc., the kind of clothes she/he wears and their mannerism i.e., how she/he behaves instinctively - nervous or relaxed, aggressive or polite etc.

Your characters will interact with each other through the dialogue you write for them; dialogues are the lifeline of a play. One may or may not use dialogues in other literary genres, however, they are integral to any form of drama. Often, plays are remembered for their powerful dialogues. Who can forget the following famous lines from Shakespeare’s Hamlet!

To be, or not to be: that is the question: Whether’tis nobler in the mind to suffer The slings and arrows of outrageous fortune, Or to take arms against a sea of troubles,And by opposing end them?

A good writer uses dialogue to emphasise characterisation as dialogues, when written well, can bring a character alive. Dialogues also convey subtexts or an underlying theme or implied relationship between characters. They should sound natural and the reader or viewer should feel as if they were actually spoken by the characters. If you listen to people speaking you will realise that they speak in different ways - some use longer sentences than others; some use slang and some have a favourite phrase or word that they use again and again. Using distinctive speech patterns for characters

गतिविधि 11/Activity 11

कोई भी समसामयिक सामाजिक मुद्दे जैसे पर्यावरण के प्रति जागरूकता, बालिका शिक्षा, विशेष आवश्यकता समूह के बच्चे या किसी अन्य समस्या/मुद्दे को ध्यान में रखते हुए एक छोटा सा नाटक लिखिए। (मंच संचालन के निर्देश भी दें)

Choose any theme of social relevance e.g. environmental awareness, girls’ education, children with special needs or any other issue, and write a short play to spread awareness. (Give stage directions also).

The interior of the Auditorium Building in Chicago, built in 1887. The arch around the stage is a proscenium.

is a good device for dialogue writing. Nonverbal behaviour, i.e. their actions, are put in brackets as stage directions.

Although, when a play is performed, it is the director of the play and his/her team that decide the cast and their costumes, the play script should have enough clues to suggest the kind of actor required for the role. In a play description is limited to stage directions.

In a radio-play the place where the action is taking place has to be conveyed through the dialogue, but for television and theatre, various kinds of sets and stages may be used.

Today radio, an audio medium, has largely been overtaken by television and cinema as the most popular forms of media entertainment. But drama precedes radio, television and cinema. In cinema the presentation is larger than life. In contrast, on the small screen (television), the characters seem smaller. What happens in drama? There is live presentation on the stage and the characters come alive as we recognise them as one of us.

The most well-known kind of stage for theatre these days is the proscenium (part of the stage in front of the curtain). There are various other kinds of stages as well like thrust (a platform stage or an open stage), revolving stage etc. Plays can also be performed on the street, in a café or in a community hall. The story and subject matter and the kind of stage are intimately related and different directors may use different stages for the same play script. However, when a playwright writes, she/he has to clearly describe the time and place (setting) in the play. This is also a part of stage directions.

Drama has another meaning - excitement. You can get an audience for your play only if you write a script that is exciting or dramatic. Thus the most important factor in the script is action. The action need not only be non-verbal i.e. you don’t always need actors fighting or dancing on stage; it can also be verbal. Enough excitement can be generated on stage through words alone. What you need is a good story or a well-defined plot. The audience should get interested enough to find out what happens next. A person talking about general matters on stage is not likely to hold the interest of the audience. What are interesting are dynamic situations or

Drama is the book of people.

  • Robert Aris Willmott

Your story or plot should follow these stages.

  • Initial situation - the beginning. It is the first incident that makes the story move.
  • Conflict or Problem - a goal which the main character of the story has to achieve.
  • Complication - obstacles which the main character has to overcome.
  • Climax - highest point of interest of the story.
  • Suspense - point of tension. It arouses the interest of the readers.
  • Denouement or Resolution - what happens to the character after overcoming all obstacles/failing to achieve the desired result and reaching/not reaching the goal.

Autobiographical Writing

Every man’s memory is his private literature.

  • Aldous Huxley

Autobiographical writing is yet another form of creative articulation. It is indeed a delicate art that unites one’s biographical trajectory with that of history: how one evolves, grows, matures; and how currents of history and larger social forces shape one’s being. While we read a good autobiography, we learn not just about a discrete individual; we also learn about history, society and politics. Nehru’s autobiography, to take a simple illustration, gave us a great insight into the larger social forces in the early twentieth century - the international politics, the freedom struggle, and the leadership of Mahatma Gandhi. Writing an autobiography is, therefore, not an exercise in self-advertisement. It leads to humility - a profound realisation that one is not alone but part of a larger reality. It also requires courage and honesty; a willingness to enter into one’s deep emotions, confess one’s faults, agonies, aspirations. See, for instance, Mahatma Gandhi’s autobiography. How candid he was in narrating his inner world - his follies, his anxieties, his aspirations, and above all, his urge to ’experiment’ with life. Autobiographical writing is, therefore, not just descriptive; it is reflective and endowed with memory and sensitivity.

In a way, with a good autobiography, history loses its anonymity; instead, it becomes a narrative, an intimate story that fascinates us.

Read the following extracts. Can you recollect something from your childhood that has left a lasting impression on you?

the three R's.

A word about vocational training. It was my intention to teach every one of the youngsters some useful manual vocation. For this purpose Mr Kallenbach went to a Trappist monastery and returned having learnt shoe-making. I learnt it from him and taught the art to such as were ready to take it up. Mr Kallenbach had some experience of carpentry, and there was another inmate who knew it; so we had a small class in carpentry. Cooking almost all the youngsters knew. All this was new to them. They had never even dreamt that they would have to learn these things some day. For, generally, the only training that Indian children received in South Africa was in the three R’s. On Tolstoy Farm we made it a rule that the youngsters should not be asked to do what the teachers did not do and, therefore, when they were asked to do any work, there was always a teacher cooperating and actually working with them.

– an extract from The Story of

My Experiments with Truth

by M.K. Gandhi

and it was there that I began to read. My grandfather’s house was a chaotic and noisy place, populated by a large number of uncles, aunts, cousins and dependants, some of them bizarre, some merely eccentric, but almost all excitable in the extreme. Yet I learned much more about reading in this house than I ever did in school.

As a child I spent my holidays in my grandfather’s house in Calcutta, and it was there that I began to read. My grandfather’s house was a chaotic and noisy place, populated by a large number of uncles, aunts, cousins and dependants, some of them bizarre, some merely eccentric, but almost all excitable in the extreme. Yet I learned much more about reading in this house than I ever did in school. The walls of my grandfather’s house were lined with rows of books, neatly stacked in glass-fronted bookcases. The bookcases were prominently displayed in a large hall that served, among innumerable other functions, also those of playground, sitting room, and hallway.

– an extract from The Imam and the Indian

by Amitav Ghosh

The first day of monsoon mist. And it’s strange how all the birds fall silent as the mist comes climbing up the hill. Perhaps that’s what makes the mist so melancholy; not only does it conceal the hills, it blankets them in silence too. Only an hour ago the trees were ringing with birdsong. And now the forest is deathly still, as though it were midnight. Through the mist Bijju is calling to his sister. I can hear him running about on the hillside but I cannot see him.

– an extract from Book of Nature

by Ruskin Bond

Now that you have read the extracts you must have noticed that the common thread which runs through these types of writings is the presence of the writer. If one reads just the extracts it is difficult to find out which form of autobiographical writing it represents. The writer represents herself/himself against the backdrop of memories, incidents and locales. Autobiographies, diaries, letters, journals, memoirs and travelogues are all ways of conveying to the reader the lived experiences of the writer. Although differing in some ways, these forms are alike in having an ’ $\mathrm{I}$ ’ who recounts events and impressions in a specific setting i.e. place and time. Because they speak in such personal tones, these records and narratives are rich in human interest. Social and intellectual historians find them especially valuable sources, and they are increasingly studied by literary historians and critics as well.

Autobiographical writings revolve around the personal life of an individual. Everyone can write about their lives and things connected with them. When these descriptions touch the lives of others they become timeless pieces of reflection not only about the person concerned but also about the place, the country and the universe at large.

Autobiographical writing is an excellent way to work on your descriptive skills. When

इस इकाई में आपने कई आत्मकथात्मक अंश पढ़े। अपने यादगार क्षणों को आत्मकथात्मक रूप दीजिए।

You have read examples of autobiographical writings in this unit. Recollect some memorable moments of your life and record them as an autobiography

you describe items or memories from your past, you are able to provide details that are often lacking in more purely imaginative exercises. With autobiographical writing you learn how to describe what ‘was’ rather than what ‘isn’t’.

Mark Twain in his Autobiography (1906) has written, “An autobiography that leaves out the little things and enumerates only the big ones is no proper picture of the man’s life at all; his life consists of his feelings and his interests, with here and there an incident apparently big or little to hang the feelings on.”

A.P.J. Abdul Kalam in his autobiography, Wings of Fire, has narrated the stroy of his childhood days in a simple and lucid manner. Here is an extract.

The Second World War broke out in 1939, when I was eight years old. For reasons I have never been able to understand, a sudden demand for tamarind seeds erupted in the market. I used to collect the seeds and sell them to a provision shop on Mosque Street. A day’s collection would fetch me the princely sum of one anna. My brother-in-law Jallaluddin would tell me stories about the War which I would later attempt to trace in the headlines in Dinamani. Our area, being isolated, was completely unaffected by the War. But soon India was forced to join the Allied Forces and something like a state of emergency was declared. The first casualty came in the form of the suspension of the train halt at Rameswaram station. The newspapers now had to be bundled and thrown out from the moving train on the Rameswaram Road between Rameswaram and Dhanuskodi. That forced my cousin Samsuddin, who distributed newspapers in Rameswaram, to look for a helping hand to catch the bundles and, as if naturally, I filled the slot. Samsuddin helped me earn my first wages. Half a century later, I can still feel the surge of pride in earning my own money for the first time.

Some other well known autobiographies are Charlie Chaplin’s My Autobiography wherein he talks about his struggles and also his career on the silver screen that brought laughter to millions of people. Helen Keller’s The Story of My Life is an account of how she triumphed over blindness and deafness. Dhyan Chand’s Goal is an inspiring story of how a young man became the nation’s hockey wizard. Booker T. Washington’s Up From Slavery talks about his journey from slavery to freedom. Bachendri Pal’s Everest My Journey to the Top is an inspirational tale about the first Indian woman to scale the Everest. Salim Ali’s The Fall of a Sparrow describes how childhood curiosity about nature and a spirit of adventure led to an unusual career choice for the Bird Man of India. Bama’s Karukku is the story of a Tamil Dalit woman who overcomes impossible odds to carve an identity for herself.

Another form of autobiographical writing is Diary Writing. It is possibly the finest moment of contemplation. Diary writing unites silence and solitude. One looks at onself, listens to the inner voice, and articulates everyday happenings, deeper experiences, intimate feelings which sometimes do reveal certain historical and biographical facts. In a way, it is a therapy; it is like managing space for oneself, nurturing and protecting one’s authentic self and preserving the

role of a minute observer of everyday life. Diary writing, needless to add, is immensly creative because it requires sensitivity, honesty, and the ability to observe, document and record.

The young Jewish girl, Anne Frank, created such an impact by recording her experiences during the Second World War in her diary that her words were translated to the stage and the screen. The diary that was originally written in Dutch was later translated into many languages. Here is the first entry of Anne Frank’s Diary.

Writing in a diary is a really strange experience for someone like me. Not only because I’ve never written anything before, but also because it seems to me that later on neither I nor anyone else will be interested in the musings of a thirteen-year-old schoolgirl. Oh well, it doesn’t matter. I feel like writing, and I have an even greater need to get all kinds of things off my chest.

‘Paper has more patience than people.’ I thought of this saying on one of those days when I was feeling a little depressed and was sitting at home with my chin in my hands, bored and listless, wondering whether to stay in or go out. I finally stayed where I was, brooding: Yes, paper does have more patience, and since I’m not planning to let anyone else read this stiff-backed notebook grandly referred to as a ‘diary’, unless I should ever find a real friend, it probably won’t make a bit of difference

Now I’m back to the point that prompted me to keep a diary in the first place: I don’t have a friend…

To enhance the image of this long-awaited friend in my imagination, I don’t want to jot down the facts in this diary the way most people would do, but I want the diary to be my friend, and I’m going to call this friend ‘Kitty’…

yours, Anne

Anne continued to write till 1 August 1944, which was her final entry.

Diary writing is a daily record of personal experiences and observations usually written as an aid to memory or reflection and without intention of being published during the author’s lifetime. While writing a diary, mentioning the date and place are important because that makes it a source of reference for oneself and posterity. A diary written over a period of time is nothing short of an autobiography as we get to know a lot about the writer.

Diaries of literary persons show their growth as great writers and thinkers, for example Virginia Woolf, Louisa May Alcott, Franz Kafka, Katherine Mansfield, Iris Murdoch, Sylvia Plath, George Bernard Shaw, Alice Walker.

Samuel Pepys’ diary is one of the most famous diaries in history. A personal record of his life, it also provided historians with great insights into how people lived in London during the 1600s. His diary contained details of events like the Great Plague of London (1665) and the Great London Fire (1666). All these accounts helped historians reconstruct the life and times of the city.

Letter Writing is also very personal. It is a written communication between two persons. Letter writing is an art, which is not only about penning words on paper but also expressiveness, spontaneity and creativity. Jawahralal Nehru’s letters to his daughter Indira give an insight into history and the relationship between a father and a daughter.

The historian, Arnold Toynbee, wrote a letter to Bertrand Russell on his ninety-fifth birthday. Here are extracts from the letter in which Toynbee expresses his gratitide to the famous philosopher, writer and mathematician for also being an engaging peace activist.

Dear Lord Russell,

At 273 Santa Teresa

Stanford, Claif. 94305

United States

9 May, 1967

Your ninety-fifth birthday gives me, like countless other friends of yours who will also be writing to you at this moment, a welcome opportunity of expressing some of the feelings that I have had for you all the time . . . It would have been possible for you to continue to devote yourself exclusively to creative intellectual work, in which you had already made your name by achievements of the highest distinction - work.which, as we know, gives you intense intellectual pleasure, and which at the same time benefits the human race by increasing our knowledge. . .But you care too much for your fellow human beings to be content with your intellectual career alone, a splendid one though it is … I am grateful to you, most of all, for the encouragement and the hope that you have been giving for so long, and are still giving as vigorously and as fearlessly as ever, to your younger contemporaries in at least three successive generations. As long as there are people who care, as you do, for mankind, and who put their concern into action, the rest of us can find, from the example that you have set us, courage and confidence to work, in your spirit, for trying to give mankind the future that is its birthright, and for trying to help it to save itselffrom self-destruction. . This is why I feel constant gratitude to you and affection for you, and why 18 May, 1967, is a day of happiness and hope for me, among your many friends.

Yours ever

Arnold Toynbee,

Throughout history, letters have served both personal and professional ends for communicating over distance, and their importance as a communicative genre should not be ignored. While letters are literary, they are in everyday life mostly social - they have helped people develop and maintain relationships, they have emerged as central to communication in many types of cultures, and have been used to educate both children and adults.

The Flight of the Written Word

In Abu’l Fazl’s words :

The written word may embody the wisdom of bygone ages and may become a means to intellectual progress. The spoken word goes to the heart of those who are present to hear it. The written word gives wisdom to those who are near and far. If it was not for the written word, the spoken word would soon die, and no keepsake would be left us from those who are passed away. Superficial observers see in the letter a dark figure, but the deep-sighted see in it a lamp of wisdom (charagh-i-shinasai). The written word looks black, notwithstanding the thousand rays within it, or it is a light with a mole on it that wards off the evil eye. A letter (khat) is the portrait of wisdom; a rough sketch from the realm of ideas; a black cloud pregnant with knowledge; speaking though dumb; stationary yet travelling; stretched on the sheet, and yet soaring upwards.

Journals are somewhat formal recordings of one’s experience. These documents are occasionally printed because they contain information and commentary of use or interest to a wider readership. The journals, diaries and letters of earlier generations are now becoming increasingly available in modern editions and reprints.

Memoirs and Reminiscences are autobiographical writings that usually emphasise what is remembered rather than who is remembering. The author, instead of recounting his life, deals with those experiences of his life, people and events that she/he considers most significant. Memoirs are usually about part of a life rather than the chronological telling of a life from childhood to adulthood/old age. They focus more on external events rather than on inner development as is done in autobiographical writing. They are characteristically anecdotal and episodic, with the focus on describing interesting people and places. The following is an excerpt from the memoir, Living to Tell the Tale by Gabriel Garcia Marquez, who won the Nobel Prize for literature in 1982. “When my grandfather gave me the dictionary, it roused so much curiosity in me about words that I read it as if it were a novel, in alphabetical order, with little understanding.

That was my first contact with what would be the fundamental book in my destiny as a writer.”

Satyajit Ray’s memoir, My Years with Apu, offers many insights into the production of his first three films.

Rabindranath Tagore’s memoir, My Boyhood Days, was written when he was nearly eighty. In it he describes how he was a lonely boy and his sense of wonder and delight in seemingly commonplace experiences of his boyhood which helped him become the great poet he was.

Firdaus Kanga’s Heaven on Wheels is a travelogue in which he reminiscences about his visit to Cambridge. There he met the renowned astrophysicist Stephen Hawking. The following is an extract from his book.

When the tour was done, I rushed to a phone booth and, almost tearing the cord so it could reach me outside, phoned Stephen Hawking’s house. There was his assistant on the line and I told him I had come in a wheelchair from India (perhaps he thought I had propelled myself all the way) to write about my travels in Britain. I had to see Professor Hawking - even ten minutes would do. “Half an hour,” he said. “From three-thirty to four.”

And suddenly I felt weak all over. Growing up disabled you get fed up with people asking you to be brave, as if you have a courage account on which you are too lazy to draw a cheque. The only thing that makes you stronger is seeing somebody like you, achieving something huge. Then you know how much is possible and you reach out further than you ever thought you could.

Travelogues can be in the form of a film, videotape or a piece of writing about travel, especially to interesting or remote places, or about somebody’s travels in particular.

Travelogues are a record of interesting anecdotes and are written to entertain and inform. They can also be written to document a chronological narrative of a trip. As a piece of writing, a travelogue is less formal in its structure. While writing a travelogue you can use headings to organise your thoughts. It is a good idea to list the subjects you want to cover and then write descriptive or reflective paragraphs about each topic. Though you can use words and ideas to create drama, action and excitement about your travels, the writing should reflect the culture and life of the people of that place.

A vivid description of a place makes it come alive, like the following description of Kathmandu, an extract from Heaven Lake by Vikram Seth.

Kathmandu is vivid, mercenary, religious, with small shrines to flower-adorned deities along the narrowest and busiest streets; with fruit sellers, flute sellers, hawkers of postcards; shops selling Western cosmetics, film rolls and chocolate; or copper utensils and Nepalese antiques. Film songs blare out from the radios, car horns sound, bicycle bells ring, stray cows low questioningly at motorcycles, vendors shout out their wares. I indulge

myself mindlessly: buy a bar of marzipan, a corn-on the-cob roasted in a charcoal brazier on the pavement (rubbed with salt, chilli powder and lemon); a couple of love story comics, and even a Reader’s Digest. All this I wash down with Coca Cola and a nauseating orange drink, and feel much the better for it. I consider what route I should take back home. If I were propelled by enthusiasm for travel per se, I would go by bus and train to Patna, then sail up the Ganges past Benares to Allahabad, then up the Jumna past Agra to Delhi. But I am too exhausted and homesick; today is the last day of August. Go home. I tell myself: move directly towards home. I enter a Nepal Airlines office and buy a ticket for tomorrow’s flight

The most important aspect of a travelogue is that you should try to capture all the senses when you write about a place. One should not just give a physical description, but try to convey the significant sounds and smells as well as the physical feel of the place. The same is true of sketching the character of someone you meet, but the most important is the dialogue - a well chosen snatch of conversation can bring a person to life in a single span.

Creative writing requires the writer to think critically - to reshape what is known into something that is new, refreshing and meaningful. So, observe and internalise the world around you and let it become part of your memory. Capture the memorable moments in words and make them eternal. You may express these in any form of writing.

  • Autobiographies view events in retrospect and highlight the selfknowledge and growth of the writer over a period of time.
  • Diary writing is a daily record of thoughts, events and experiences. Mentioning the date and place is its inherent feature.
  • Journal writing is a formal record of one’s views on different issues/ happenings over a period of time.
  • Letter writing is a personal form of communication between two persons. Letters, however personal, are structured by a beginning, middle and end.
  • Memoirs and reminiscences are records of meaningful and relevant moments of one’s past with a focus on the event and not the author.
  • Travelogues are descriptive accounts of a journey or travel to a place and deal with real-life incidents.

If the sight of the blue sky fills you with joy, if the simple forms of nature have a message that you understand, express it in words in any form. Your memory and imagination may just give a new dimension to your writing.

गतिविधि 13/Activity 13

अपनी कल्पना के आधार पर इनमें से किसी एक समाचार को संवाद में बदलिए। Use your imagination to write dialogues based on any one of the following news stories.

सहवाग ने कहा- कैच छोड़ना महँगा पड़ा, जयपुर, 12 मई 2008 (भाषा)। दिल्ली डेयर डेविल्स के कप्तान वीरेंद्र सहवाग ने इंडियन प्रीमियर लीग में राजस्थान रायल्स के हाथों हार का जिम्मा अपने सिर पर लेते हुए कहा कि यदि उन्होंने मैन ऑफ द मैच शेन वाटसन को शुरू में ही जीवनदान नहीं दिया होता तो मैच का परिणाम उनके पक्ष में रहता। वाटसन ने 40 गेंदों पर 74 रन की पारी खेली जिससे रायल्स तीन विकेट से जीत दर्ज करने में सफल रहा। लेकिन यह आस्ट्रेलियाई आलराउंडर जब 26 रन पर था, तब यो महेश की गेंद पर सहवाग ने उनका आसान कैच छोड़ दिया था।

सहवाग ने मैच के बाद कहा - यह (156 रन) इस विकेट पर अच्छा स्कोर था क्योंकि गेंद बल्ले पर नहीं आ रही थी, लेकिन आखिर में हमें दो कैच छोड़ने बहुत महँगे पड़े। विशेषकर मैंने तब वाटसन का कैच छोड़ा जबकि वे 20 या 30 रन के आसपास थे और हमें इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ा।

The Tale of a Broken Pot

Iravatham Mahadevan and S. Rajagopal

Today I am a broken pot stored away in a museum. But, about eighteen hundred years ago, I was a shining new Kalayam. My proud owner was a toddy-tapper named Naakan. He lived in a small hamlet at the edge of the forest (near present-day Andipatti in Theni District of Tamil Nadu).

Naakan was too poor to own land; but he earned his living by taking on lease some coconut and palmyra trees, tapping and selling the toddy…

Poor he might have been, but Naakan was literate. In order to identify his Kalayam and its contents, he scratched this message on it with his sharp iron tool:

naakan uRal : Naakan’s (pot with) toddy-sap

The Tamil word ‘ooral’ (from ‘ooRu’ or ’to ooze’) meaning ‘freshly tapped toddy’ is spelt here with the short vowel ‘u’ probably due to oversight or reflecting the colloquial usage…

Archaeologists who dug me out of the earth near Andipatti a couple of years ago, have determined from examining the fabric of my body, that I was made in about the third century A.D…

And that is not all. The two-word inscription carries an important message, namely, how widespread literacy must have been in the ancient Tamil country, if a poor toddy-tapper, living in a remote hamlet far away from urban and commercial centres, could write down his name and what he was doing with the pottery he owned. That is the reason why I am preserved in the museum and not discarded like other broken pottery!

Source: The Hindu, 13 May 2008

संवाद / Exercises

1. स्वयं को सब्ज़ीवाले, माली या चौकीदार के रूप में रखकर देखिए। किसी एक के रूप में अपने को रखकर आत्मकथा लिखिए। Imagine yourself as a vegetable vendor, a gardener, or a watchman. Write an autobiographical note as any one of them.

2. अपनी कल्पना से किसी पक्षी, कागज़, या एक रुपये के सिक्के की आत्मकथा लिखिए। Use your imagination and write an autobiography of a bird, a paper, or a one rupee coin.

3. ‘पालतू पक्षी का उड़ती चिड़िया के नाम पत्र’ अपनो कल्पना से लिखिए।

‘A letter from a pet bird to a bird outside’: use your > imagination and write.

4. अपने बचपन की किसी फ़ोटो / खिलौने / पुस्तक / पोशाक को देखते हुए आप अपने बीते हुए दिनों को किस रूप में याद करते हैं? लिखिए।

Look at any photograph / toy / book / dress of your childhood. Now trace the memory of your childhood and describe it.

5. वर्तमान समय में होने वाली हिंसक घटनाएँ गांधी जी से कुछ कहने को विवश करती हैं। इसे ध्यान में रखते हुए गांधी जी को एक पत्र लिखिए। The violence all around you compels you to share your feelings with Gandhiji. Keeping this in view write a letter to Gandhiji.

6. ‘सृजनात्मक लेखन तथा अनुवाद’ की कक्षा में पहले दिन के अपने अनुभवों को लिखिए।

Narrate your experiences of the first day in the Creative Writing and Translation class.

7. सृजनात्मकता हमारे चारों तरफ़ बिखरी हुई है, लेकिन हम इसे अक्सर महसूस नहीं कर पाते। क्या आपने कभी इस पर विचार किया? कक्षा में चर्चा कीजिए। There is creativity all around us but most of the time we don’t notice it. Have you ever reflected on this? Discuss in class.



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