अध्याय 07 भारतीय सगीत में वाद्य वर्गीकरण

भारतीय संगीत में प्राचीन काल से ही वाद्य यंत्रों की एक समृद्ध परंपरा चली आ रही है। यहाँ वाद्यों का अर्थ उन यंत्रों से है जिनसे ध्वनि उत्पन्न की जाती है। वाद्यों का उद्देश्य विशिष्ट वस्तु एवं पद्धति से निर्मित, किसी यंत्र पर थाप देकर, फूँककर या तारों में कंपन उत्पन्न करके लयबद्ध तरीके से संगीतमय ध्वनि उत्पन्न करना है। यह ध्वनि विशिष्ट स्वर समुदाय एवं तालों के शास्त्र अनुसार बजाई जाती है। प्रत्येक वाद्य एक विशेष ध्वनि उत्पन्न करता है, जिसमें भावनाओं का अद्भुत संचार होता है। विभिन्न वाद्यों की अपनी विशिष्ट कहानी होती है जो हमारे सांस्कृतिक इतिहास के क्रमिक विकास को दर्शाती है। रसोईघर के बरतनों- तश्तरी, थाली, चिमटे, चम्मच आदि भी संगीतमय संरचना के साथ वाद्यों के रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं।

क्या आपने कभी कोई ऐसा वाद्य यंत्र देखा है, जो रसोईघर के बरतनों से मेल खाता हो?

भारतीय संगीतज्रों ने अनगिनत वाद्य यंत्रों को सँवारा एवं निरंतर प्रयास से लोकप्रिय बनाया। इन प्रयासों के कारण भारतीय वाद्य यंत्रों ने विश्वभर में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। इन प्रयासों के कारण ही वाद्य यंत्रों ने नया स्वरूप भी धारण किया है, जैसे — रूद्र वीणा से सुरबहार और फिर सितार।

वाद्यों का प्रयोग विभिन्न युगों में अलग-अलग आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होता रहा है, जैसे- दूर बैठे व्यक्ति को संकेत देने के लिए, जंगली जानवरों को भगाने के लिए, शिकार के

चित्र 7.1-घन वाद्य— थाली

चित्र 7.2-अवनद्ध वाद्य— घटम्

चित्र 7.3-घन वाद्य—— हुडक्कु

समय तथा उत्सव आदि में प्रसन्नता प्रकट करने के लिए वाद्यों का प्रयोग होता था। युद्ध भूमि में सैनिकों का हौसला बढ़ाने के लिए भी दुन्दुभी, शंख, ढोल, ताशा आदि वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता था। सभी धर्मों में संगीत वाद्यों का उपासना से बहुत गहरा संबंध रहा है। इसीलिए मानव मन श्री कृष्ण को बाँसुरी बजाते हुए, सरस्वती को वीणा, शंकर को डमरू तथा गणेश को मृदंग बजाते हुए ही अपनी कल्पनाओं और उससे निर्मित चित्रों तथा मूर्तियों में देखता है। इसके अलावा, मंदिरों में पूजा अर्चना के समय घंटा, घंटी, शंख आदि का प्रयोग तथा मांगलिक कार्यों में शहनाई, ढोल, ढोलक, मंजीरा आदि का प्रयोग लोक जीवन में वाद्यों के महत्व को दर्शाते हैं। मानव शरीर को भी वाद्य यंत्र माना गया है। इसे ‘गात्र वीणा’ कहा गया है।

चित्र 7.4-प्राचीनकालीन वीणा (तत् वाद्य)

चित्र 7.5 -डफ और हिमाचली शहनाई

‘वाद्य’ शब्द ‘वद्’ धातु से बना है, जिसका सामान्य अर्थ होता है— बोलना। सांगीतिक ध्वनि तथा गति प्रकट करने के उपकरण को वाद्य कहा जाता है।

चित्र 7.6-वीणा

संगीत में वाद्यों का महत्व

कंठ संगीत हो या नृत्य अथवा नाटक, सभी को अपने विस्तार के लिए, अपनी कला में आकर्षण पैदा करने के लिए तथा श्रोताओं को प्रभावित करने के लिए वाद्य यंत्रों की सहायता लेनी पड़ती है। साधारण श्रोताओं को भले ही वाद्य पर क्या बज रहा है, इसका ज्ञान न हो, लेकिन उसे सुनकर वह आनंद में डूब जाता है। वाद्यों का मुख्य कार्य गायन के माध्यम से अभिव्यक्त किए जा रहे भावों की प्रस्तुति को सुंदर बनाना है। जिस भाव और रस को शब्द और मानव कंठ व्यक्त करते हैं, उसी भाव को आकर्षक ढंग से प्रकट करने का प्रयास वाद्यों के द्वारा होता है। वाद्यों के अभाव में संगीत अपूर्ण-सा प्रतीत होता है।

चित्र 7.7- तानपूरा

सर्वप्रथम वैदिक काल में हमें संगीत वाद्यों का वर्णन मिलता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल में विभिन्न प्रकार के वाद्यों का विकास हो चुका था। रामायण काल में वीणा और मृदंग द्वारा नृत्य की संगति का उल्लेख प्राप्त होता है तो महाभारत काल में महती वीणा, वेणु, दुन्दुभी, पुष्कर आदि वाद्यों के वर्णन मिलते हैं।

चित्र 7.8 -सितार

संगीत वाद्यों का वर्गीकरण

आदिकाल से वर्तमान काल तक मानव विभिन्न प्रकार के सांगीतिक वाद्यों का प्रयोग करता रहा है। इन वाद्यों का उल्लेख संगीत के प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। भारतीय सांगीतिक वाद्यों के वर्गीकरण का आधार मुख्यत: ध्वनि रहा है। सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में सांगीतिक वाद्यों का चतुर्विध वर्गीकरण किया है-

“तंत चैवावनद्धं च घन सुषिरमेव च्

चतुर्विध तु विज्ञेयमातोद्यं लक्षणान्वितम्॥”

  • नाट्यशास्त्र $28 / 1$

अर्थात् संगीत वाद्य चार प्रकार के होते हैं- तत्, अवनद्ध, घन एवं सुषिर।

उपरोक्त चार प्रकार के वाद्यों के लक्षण स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है-

“तंत तन्त्रीगतम् ज्ञेयमवनद्धं तु पोष्करम्।

घंन तालस्तु विज्ञेय: सुषिरो वंश उच्यते।।”

  • नाट्यशास्त्र $28 / 2$

अर्थात् तत् तंत्रीवाद्य, अवनद्ध पुष्कर वाद्य, घन ताल वाद्य एवं सुषिर वंशी वाद्य हैं। प्राचीन, मध्यकाल तथा वर्तमान काल के अधिकांश संगीतज्ञों एवं संगीत ग्रंथकारों ने भरत के चतुर्विध वर्गीकरण का अनुसरण करते हुए संगीत वाद्यों के चार प्रकार माने हैं-

(1) तत् (तंत्री)

(2) अवनद्ध

(3) घन

(4) सुषिर

तत् (तंग्री) वाद्य

तत् वाद्य वे वाद्य यंत्र होते हैं जिन पर तार या तंत्री के कंपन से स्वर उत्पन्न किए जाते हैं। ये कंपन तार पर आघात या घर्षण द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं। तत् श्रेणी के अंतर्गत वे वाद्य आते हैं जिन्हें अँगुलियों, मिज़राब या जवा आदि से आघात कर अथवा गज से घर्षण कर बजाते हैं। इसके अंतर्गत तानपुरा, वीणा, सितार, सरोद, वायलिन, सारंगी, इसराज आदि वाद्य आते हैं।

चित्र 7.9-रीड वाद्य

अवनद्ध वाद्य

‘अवनद्ध’ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- मढ़ा हुआ, लपेटा हुआ या चारों तरफ़ से कसा हुआ। वे वाद्य यंत्र जो अंदर से खोखले होते हैं, जिनके मुख पर चमड़ा मढ़ा होता है तथा जिन पर हाथ से या डंडी से आघात करके ध्वनि निकाली जाती है, अवनद्ध वाद्य कहलाते हैं। अवनद्ध वाद्य मूलत: मिट्टी, लकड़ी या धातु के बने होते हैं। प्राचीन काल में मिट्टी या मृदा से बनाए जाने के कारण इन्हें साधारणत: मृदंग ही कहते थे।

प्राचीनकाल में निम्नलिखित अवनद्ध वाद्यों का उल्लेख प्राप्त होता है— भूमिदुन्दुभी, दुन्दुभी, पुष्कर, मृदंग, पटह, हुडुक्का, नगाड़ा आदि। वर्तमान में तबला, पखावज, मृदंगम्, कंजीरा, तविल, ढोलक, नाल, डफ, दुक्कड़, ढोल, खोल और पुंग आदि अनेक वाद्यों का प्रयोग हो रहा है।

चित्र 7.10-राडोन्ग एवं सिक्किम का ड्रम

चित्र 7.11–हिमाचली शहनाई हेस्‍सी

सुषिर वाद्य

सुषिर वाद्यों के अंतर्गत वे वाद्य आते हैं जिनमें स्वरों की उत्पत्ति वायु के कंपन द्वारा होती है। इन वाद्यों में हवा भरकर या फूँककर स्वर उत्पन्न किए जाते हैं। इन वाद्यों में वायु के दबाव को ही घटा-बढ़ा कर, स्वर ऊँचा-नीचा किया जाता है। इसके अंतर्गत बाँसुरी, शहनाई, शंख, नागस्वरम्, क्लेरोनेट, सैक्सोफ़ोन, हारमोनियम, ऑर्गन, माउथ ऑर्गन, एकॉर्डियन आदि वाद्य आते हैं।

चित्र 7.12-तबला एवं हारमोनियम (सुषिर) बजाते हुए कलाकार

घन वाद्य

घन वाद्य मूलत: लकड़ी, काँसा, पीतल आदि धातु से बनाए जाते हैं, जिन्हें आपस में टकराकर या डंडियों के प्रहार से बजाते हैं। इनका मुख्य कार्य लय धारण करना होता है। लोक संगीत में इनका प्रयोग अधिक होता है। इसके अंतर्गत आने वाले वाद्य हैं— घंटा, घंटी, झांझ, खरताल, मंजीरा, घुँघरू, मुरचंग आदि।

चित्र 7.13 - घुँघरू व घंटी

चित्र $7.14-$ खरताल

अवनद्ध वाद्य एवं उसके प्रकार

ताल संगीत का प्राण है और अवनद्ध वाद्य ताल-ठेकों को धारण करते हैं। आज हम अवनद्ध वाद्य के बिना संगीत की कल्पना भी नहीं कर सकते। अवनद्ध वाद्यों की संगति से संगीत लयबद्ध, तालबद्ध, मधुर और मनोरंजक हो जाता है। लगभग सभी अवनद्ध वाद्यों का विकास गायन, वादन और नृत्य की संगति करने के उद्देश्य से हुआ है। लेकिन वर्तमान में तबला और पखावज जैसे वाद्यों ने अपने नाद सौंदर्य और नाद वैचित्र्य के गुणों के कारण संगीत में अपना एक स्वतंत्र स्थान बना लिया है। आज संगीत समारोहों में तबला और पखावज का एकल वादन श्रोताओं के लिए आकर्षण का केंद्र होता है।

चित्र 7.15 -मादल

चित्र 7.16- ढाक

इसके अतिरिक्त सामाजिक जीवन में भी अवनद्ध वाद्यों का अपना महत्व है। विभिन्न मांगलिक अवसरों यथा विवाह आदि में दुक्कड़, ढोल, ताशा जैसे अवनद्ध वाद्यों का वादन होता है। विभिन्न प्रकार के धार्मिक कार्यों में भी अवनद्ध वाद्यों का खूब प्रयोग होता है। मंदिरों में आरती के समय, संकीर्तन मंडलियों में, रथ यात्रा आदि में भी विभिन्न प्रकार के अवनद्ध वाद्यों का प्रयोग होता है। युद्ध में सैनिकों में जोश भरने के लिए और उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित करने हेतु ढोल और नगाड़े जैसे बड़े-बड़े अवनद्ध वाद्यों का प्रयोग होता था। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर सैनिकों की परेड के दौरान भी अवनद्ध वाद्यों का प्रयोग किया जाता है।

अब हम वर्तमान काल में प्रचलित कुछ प्रमुख अवनद्ध वाद्यों की चर्चा करेंगे-

(1) मृदंगम्

(2) तविल (थविल)

(3) ढोलक

(4) खोल

(5) बौंगो

(6) कौंगो

मृदंगम्

मृदंगम् दक्षिण भारतीय संगीत का प्रमुख अवनद्ध वाद्य है। इसका प्रयोग गायन-वादन तथा नृत्य की संगति के लिए होता है। एक अवनद्ध वाद्य के रूप में यह वाद्य इतना महत्वपूर्ण है कि इसके बिना कर्नाटक संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

चित्र 7.17-मृदंग्र् बजाते हुए कलाकार

यह दो मुखी वाद्य है जिसे लिटाकर बजाया जाता है। इसे बनाने के लिए मुख्यत: कटहल की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसका दायाँ मुख इसके बायें मुख की तुलना में थोड़ा छोटा होता है। मृदंगम् की लंबाई 22 से 24 इंच तक और इसके मध्य के घेरे का व्यास 12 इंच तक होता है। कर्नाटक संगीत में प्रयुक्त होने वाला मृदंगम् आकार-प्रकार में लगभग उत्तर भारतीय पखावज की तरह ही दिखता है, लेकिन इसकी संरचना तथा नाद में भिन्नता होती है। मृदंगम् की लंबाई पखावज की तुलना में कम होती है। इसके दायें मुख में लगने वाला चमड़ा पखावज में लगने वाले चमड़े की तुलना में अधिक मोटा होता है। मृदंगम् के दायें मुख के किनारे का यह चमड़ा स्याही के स्थान को छोड़कर पूड़ी के पूरे हिस्से को घेरे रहता है, जिस कारण मृदंगम् में चाँट और स्याही का भाग ही दिखाई पड़ता है, जबकि पखावज की पूड़ी, चाँट, लव और स्याही इन तीन भागों में बँटी होती है। दक्षिण भारत में इस स्याही को ‘सोरू’ कहते हैं। इसे लौह चूर्ण, पके चावल आदि के मिश्रण से बनाते हैं। मृदंगम् का बायाँ मुख भी पखावज की तुलना में छोटा होता है, जिस पर सूजी की ‘पूलिका’ लगाई जाती है। मृदंगम् के बायें मुख पर सूजी लगाने का स्थान छोटा रखा जाता है। मृदंगम् में दोनों मुखों की पूड़ियों को चमड़े की बद्धी से आपस में कसा जाता है, जिसे ‘चटाई’ या ‘पिन्नल’ कहते हैं। इसका दायाँ मुख ही मुख्य गायक या वादक के गाए जाने वाले स्वर में मिलाया जाता है।

तविल

तविल दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य का एक प्रमुख अवनद्ध वाद्य है। इसका प्रयोग मुख्य रूप से वहाँ के लोक संगीत, कर्नाटक शास्त्रीय संगीत एवं नागस्वरम् की संगति के लिए किया जाता है। तविल का ढाँचा लकड़ी का बना होता है। इसके निर्माण में मुख्यत: पनस (कटहल) की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसके ढाँचे की लंबाई लगभग 18 इंच होती है। ढाँचे का मध्य भाग कुछ उभरा हुआ होता है। इसके दो मुख होते हैं। दाहिने मुख का व्यास बायें मुख के व्यास से अधिक होता है। इसके दाहिने मुख का व्यास लगभग 10 इंच एवं बायें मुख का व्यास लगभग 8 इंच होता है। कहीं-कहीं दोनों मुखों का व्यास एकसमान अर्थात् $8-8$ इंच का भी होता है। इसके मुखों पर चमड़े की इकहरी परत का प्रयोग किया जाता है। दाहिने मुख पर गाय या भैंस का चमड़ा एवं बायें मुख पर बकरे के चमड़े का प्रयोग किया जाता है। दाहिने मुख के चमड़े को अधिक कसा जाता है, जबकि बायें मुख के चमड़े को थोड़ा ढीला रखते हैं और भीतर की ओर से लेप लगाया जाता है। दोनों मुखों को ढाँचे पर मढ़ने के लिए छह से सात बाँस की पतली पट्टियों तथा जूट व चमड़े से निर्मित गोलाकार चक्र का उपयोग किया जाता है। वर्तमान में, लोहे के खोखले रिंग का भी प्रयोग देखने को मिलता है। दोनों मुखों के चमड़ों को इन गोल चक्रों की सहायता से ढाँचे पर लगा देते हैं और भैंस के चमड़े की मोटी बद्धी द्वारा मज़बती से कस देते हैं। इसकी बद्धियों को कसने के लिए मध्य भाग में चमड़े की चौड़ी बद्धी का प्रयोग किया जाता है। इस वाद्य को किसी विशेष स्वर में मिलाने की सुविधा नहीं होती। इसकी आवाज़ बहुत तीव्र होती है।

चित्र 7.18 -तविल बजाते हुए कलाकार

ढोलक

ढोलक उत्तर भारतीय संगीत में प्रचलित एक प्रमुख लोक अवनद्ध वाद्य है। इसका प्रयोग लोक संगीत में गायन की संगति के लिए किया जाता है। इसके दो मुख होते हैं। इसकी लंबाई लगभग 45 सेंटीमीटर और मध्य का व्यास लगभग 27 सेंटीमीटर का होता है। इसका दायाँ मुख बायें मुख की तुलना में थोड़ा छोटा होता है। दोनों मुखों पर चमड़े की पूड़ी लगी होती है। दोनों पूड़ियाँ सूत की डोरी की सहायता से एक-दूसरे से कसी होती हैं। इन बद्धियों के बीच में लोहे के छल्ले लगे होते हैं जिनकी सहायता से ढोलक को कसा जाता है। बायें मुख से निकलने वाली ध्वनि को गंभीर करने के लिए इसमें चमड़े की भीतरी सतह पर एक विशेष प्रकार का लेप लगाया जाता है। इसे अँगुलियों से बजाते हैं।

चित्र 7.19- हारमोनियम एवं ढोलक बजाते हुए कलाकार

खोल

बंगाल, ओडिशा, असम और मणिपुर राज्यों के संगीत में खोल वाद्य प्रचलित है। कीर्तन परंपरा में इसका खूब प्रयोग होता है। इसका ढाँचा पकी हुई मिद्टी से बना होता है। इसके दायें मुख का व्यास लगभग $31 / 2$ इंच और बायें मुख का व्यास लगभग $7 \frac{1}{2}$ इंच का होता है। इसके मध्य भाग का व्यास लगभग 10 इंच का होता है। इस वाद्य की लंबाई 24 से 25 इंच तक होती है। मिट्टी का खोल भीतर से खोखला होता है। मिट्टी के खोल की सुरक्षा के लिए इसे ऊपर से एक चौड़े कपड़े की पट्टी से लपेट देते हैं, ताकि यह टूटने या चिटकने न पाए। इसके दोनों मुख तबला या मृदंग की भाँति मढ़े जाते हैं जो चमड़े की पट्टी से कसे रहते हैं। इसके बायें और दायें मुख पर तबले की भाँति लेप लगाया जाता है। लेप चावल की लेई, लौह चूर्ण और गोंद से बनती है। इसका दायाँ मुख ऊँचे स्वर में मिला होता है और बायें मुख का नाद गंभीर होता है। दोनों मुखों पर एक लंबी मजबूूत रस्सी बँधी होती है। नृत्य आदि के साथ इसे गले में लटका कर, खड़े होकर या बैठकर बजाया जाता है।

चित्र 7.20 -खोल

बौंगो

बौंगो और कौंगो मूलत: अफ्रीकी वाद्य हैं। इनका प्रयोग अधिकतर भारतीय फ़िल्म संगीत में किया जाता है। बौंगो एक छोटा-सा अवनद्ध वाद्य है, जिसमें तबला वाद्य के समान दायाँ और बायाँ दो भाग होते हैं जो आपस में एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। इसका बायाँ मुख बड़ा और दायाँ मुख छोटा होता है। छोटे मुख पर पतली तथा बड़े मुख पर मोटे चमड़े की पूड़ी चढ़ाई जाती है। पूड़ी के किनारे को स्टील के रिंग में फँसाकर मुख पर कस दिया जाता है। रिंग के किनारों पर चार दिशाओं में चार स्टील की छड़ें फँसी होती हैं जो नीचे की तरफ़ पेंच द्वारा कसी जाती हैं। इन पेंचों की मदद से पूड़ी को ऊँचे या नीचे स्वर में मिलाया जा सकता है। बौंगो अधिकतर कुर्सी या स्टूल पर बैठकर बजाया जाता है। बजाते समय इसे दोनों घुटनों के बीच आगे की तरफ़ झुकाकर फँसा लेते हैं, जिससे इसे बजाने में सुविधा रहती है। ऊँची ध्वनि निकालने के लिए एक अँगुली का तथा नीची ध्वनि निकालने के लिए तीन या चार अँगुलियों को जोड़कर थाप जैसे आघात का प्रयोग किया जाता है। बौंगो के दोनों भागों में किसी भी एक भाग पर दोनों हाथों की अँगुलियों का प्रयोग वादन के लिए किया जा सकता है।

चित्र 7.21- बौंगो

कौंगो

कौंगो वाद्य बौंगो से आकार में काफ़ी बड़ा होता है। कौंगो के तीन भाग होते हैं। ये तीनों भाग क्रम से बड़े, मध्यम और छोटे आकार के होते हैं। प्रत्येक भाग की ऊँचाई बराबर होती है, लेकिन बौंगो की तुलना में इसकी ऊँचाई अधिक होती है। तीनों भागों के मुखों के व्यास क्रमशः बड़े, मध्यम और छोट होते हैं। इन तीनों मुखों पर क्रमशः मोटी, मध्यम और पतले चमड़े की पूड़ी चढ़ाई जाती है। बौंगो के समान ही पूड़ी को स्टील की रिंग में फँसाकर, इसके मुख पर लगाया जाता है। रिंग के किनारों पर चार दिशाओं में चार स्टील की छड़ें फँसी होती हैं जो नीचे की तरफ़ पेंच द्वारा कसी जाती हैं। कौंगो को सुविधानुसार अलग-अलग स्वरों में मिलाया जा सकता है। कौंगो के तीनों भाग आपस में जुड़े होते हैं। इन्हें खड़ा करने के लिए नीचे स्टैंड लगा होता है। इसे खड़े होकर बजाया जाता है।

चित्र 7.22 - कौंगो

इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा

इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा (इलेक्ट्रॉनिक तंबूरा या इलेक्ट्रॉनिक श्रुति बॉक्स) एक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण है। यह इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा (तंबूरा) तार वाद्य या तानपुरा की ध्वनि को दोहराता है। इसका उपयोग गायक या गायिका या वाद्य यंत्र बजाने वाले कलाकार करते हैं। यह एक निरंतर ड्रोन जैसा स्थायी स्वर प्रदान करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। जिस तरह तानपुरे के स्वरों के साथ सुर मिलाकर गाया-बजाया जाता है, उसी तरह इलेक्ट्रॉनिक तानपुरे का भी प्रयोग किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक तानपुरे में टोन और वॉल्यूम को नियंत्रित करने के लिए एक या अधिक स्विच या बटन होते हैं। स्विच या बटन के द्वारा एक निश्चित स्वर या स्केल और वॉल्यूम में स्थापित किया जाता है। इसकी स्वर सीमा आमतौर पर एक से दो सप्तक होती है। स्वर या स्केल को बदलना, तानपुरा के चार तारों की गति में बदलाव लाना और मध्यम एवं पंचम स्वरों को राग के अनुसार बदलने के सभी विकल्प इलेक्ट्रॉनिक तानपुरे में होते हैं।

चित्र 7.23-इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा

इलेक्ट्रॉनिक तानपुरे का आविष्कार जी. राज नारायण ने सन् 1979 में किया था। पहला संस्करण कैपेसिटर, ट्रांज़िस्टर इत्यादि का उपयोग करके, तब की उपलब्ध तकनीक के आधार पर बना था। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में, एक चिप पर पारंपरिक तानपुरा की सैंपल रिकॉर्डिंग का उपयोग करके इसके विभिन्न मॉडल तैयार किए गए थे। 2000 के दशक में, इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा को भी एन्ड्रॉयड मोबाइल ऐप्लीकेशन में विकसित कर लिया गया, जिसे आज भी हम इस्तेमाल करते हैं। अधिकांश संगीतकारों के लिए इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा एक अत्यंत सुविधाजनक व्यावहारिक यंत्र है। यह यंत्र दोहरावदार ध्वनि पैदा करता है।

श्रुति बॉक्स या सुरपेठी

श्रुति बॉक्स (सुरपेटी) एक इलेक्ट्रॉनिक गैजट है। इसका उपयोग अभ्यास के दौरान या संगीत कार्यक्रमों में एक ड्रोन (एक स्थायी स्वर) प्रदान करने के लिए किया जाता है। श्रुति बॉक्स का उपयोग शास्त्रीय गायन में निरंतर किया जाता है। तमिल और तेलुगु में इसे श्रुति पेटी और हिंदी में सुरपेटी कहते हैं।

चित्र 7.24- श्रुति बॉक्स या सुरपेटी

इलेक्ट्रॉनिक तालमाला

इस उपकरण के आविष्कारक भी जी. नारायण हैं। इसमें उत्तरी तथा दक्षिणी, दोनों पद्धतियों के विभिन्न तालों के ठेके विद्यमान होते हैं। इसमें विभिन्न लयों, जैसे- विलंबित, अति विलंबित, मध्य और द्रुत आदि के ठेकों को व्यवस्थित किया जा सकता है। इसका उपयोग किसी संगतकार की अनुपस्थिति में अभ्यास के दौरान करना उचित होगा। यह एक कृत्रिम उपकरण है जो संगतकार का स्थान नहीं ले सकता है।

चित्र 7.25 -इलेक्ट्रॉनिक तालमाला

ऐप्स

ऐप का पूरा नाम ऐप्लीकेशन होता है जो एक सॉफ़्टवेयर का रूप है। यह एक निर्धारित कार्य प्रणाली के तहत कार्य करता है। संगीत की दृष्टि से, जैसे— गाना सुनने का ऐप, गाना रिकॉर्ड करने का ऐप, गाने को संगीतमय बनाने का ऐप, यह किसी भी प्रकार का हो सकता है। ऐप को इलेक्ट्रोनिक डिवाइस, जैसे- मोबाइल, लैपटॉप आदि में इस्तेमाल किया जाता है। इसमें तानपुरा, नगमा, संगति के लिए ठेके आदि की सुविधा सुरीलेपन के साथ उपलब्ध रहती है।

अभ्यास

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. रूद्र वीणा से प्रेरणा लेकर कौन-सा वाद्य यंत्र बना है?

(क) सुरबहार

(ख) सरोद

(ग) तानपुरा

(घ) वायलिन

2. गज के घर्षण द्वारा बजाए जाने वाले वाद्य किस श्रेणी में आते हैं?

(क) सुषिर वाद्य

(ख) अवनद्ध वाद्य

(ग) तत् वाद्य

(घ) घन वाद्य

3. मानव शरीर की तुलना किस प्राचीन वाद्य यंत्र से की जाती है?

(क) पटह

(ख) गात्र वीणा

(ग) वेणु

(घ) पुष्कर

4. जवा द्वारा बजाए जाने वाला वाद्य यंत्र कौन-सा है?

(क) तानपुरा

(ख) सरोद

(ग) सितार

(घ) सारंगी

5. चमड़े अथवा खाल से मढ़े हुए खोखले वाद्य यंत्र किस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं?

(क) अवनद्ध वाद्य

(ख) तत् वाद्य

(ग) घन वाद्य

(घ) सुषिर वाद्य

6. क्लेरोनेट, नागस्वरम् कौन-सी श्रेणी के वाद्य यंत्र हैं?

(क) तत् वाद्य

(ख) सुषिर वाद्य

(ग) अवनद्ध वाद्य

(घ) घन वाद्य

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

1. किस श्रेणी के संगीत वाद्यों का प्रयोग शास्त्रीय संगीत की अपेक्षा लोक संगीत में अधिक होता है?

2. सितार या तानपुरे का तुम्बा किस वस्तु से बनता है?

3. तबले की स्याही किस वस्तु से निर्मित होती है?

4. घन वाद्यों को मुख्यत: किस प्रकार बजाया जाता है?

5. अवनद्ध कौन-सी भाषा का शब्द है?

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. संगीत वाद्य से क्या तात्पर्य है?

2. मानव शरीर को किस प्रकार का वाद्य यंत्र माना गया है?

3. संगीत में वाद्यों का क्या महत्व है?

4. तत् वाद्य किसे कहते हैं? उदाहरण सहित बताइए।

5. महाभारत कालीन किन्हीं चार वाद्यों के नाम लिखिए।

6. विभिन्न काल खंडों में मुख्यत: किन-किन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संगीत वाद्यों का प्रयोग होता था?

7. अवनद्ध वाद्यों में लगने वाला चमड़ा किन-किन पशुओं से प्राप्त होता है? किन्हीं तीन के नाम लिखिए।

8. संगीत में अवनद्ध वाद्य से क्या तात्पर्य है?

9. प्राचीन काल के किन्हीं चार अवनद्ध वाद्यों के नाम बताइए।

10. तबला अथवा तानपुरे का चित्र बनाकर उस वाद्य यंत्र के अंगों को नामांकित कीजिए।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

1. वैदिक काल में शास्त्रीय संगीत व सामान्य जन साधारण के जीवन में संगीत वाद्यों का क्या महत्व रहा है? इसका उल्लेख कीजिए।

2. तंत्री वाद्य से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित लिखिए।

3. तत् व सुषिर वाद्यों में उदाहरण सहित अंतर बताइए।

4. तत्, सुषिर, घन एवं अवनद्ध वाद्यों की तुलना कीजिए।

5. ढोलक, मृदंगम् एवं तविल वाद्यों की सचित्र तुलना कीजिए।

6. किसी इलेक्ट्रॉनिक वाद्य यंत्र की उपयोगिता के विषय में विस्तार से लिखिए।

सुमेलित कीजिए

(क) खंजरी 1. भरतमुनि
(ख) अवनद्ध 2. जी. राज नारायण
(ग) खोल 3. चमड़ा
(घ) नाट्यशास्त्र 4. तमिलनाडु
(ड़) इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा 5. स्थायी स्वर
(च) तविल 6. हारमोनियम
(छ) सुषिर 7. पश्चिम बंगाल
(ज) ड्रोन 8. घन वाद्य

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

1. इसराज वाद्य ___________ श्रेणी का वाद्य है।

2. सुषिर वाद्यों में स्वर की उत्पत्ति ___________ द्वारा होती है।

3. सुषिर वाद्यों में वायु के दबाव को ___________ स्वर ऊँचा-नीचा किया जाता है।

4. चार वाद्यों के वर्गीकरण का उल्लेख सर्वप्रथम ___________ में मिलता है।

विद्यार्थियों हेतु गतिविधि

1. संगीत के वाद्यों के चारों वर्गों के चित्रों का संग्रह कर चार्ट पेपर पर चिपकाकर कोलाज बनाइए। विद्यार्थी डिजिटल चित्र भी बना सकते हैं।

2. तुम्बा युक्त वाद्यों को देखिए तथा उनके चित्र बनाइए और विवरण दीजिए।

3. सितार मिजजराब से छेड़ी जाती है। उसकी आकृति बनाइए और विचार कीजिए कि क्या यह किसी गणितीय आकृति को दर्शाती है।

4. अपनी पसंद के संगीत वाद्य पर परियोजना निम्नलिखित बिंदुओं के अनुसार बनाइए-

  • वह वाद्य किन वस्तुओं से बना है?
  • उसकी बनावट का तरीका क्या है?
  • वाद्य के विभिन्न अंगों को नामांकित कीजिए।
  • वाद्य से संबंधित कुछ प्रसिद्ध कलाकारों के नाम लिखिए। उन्हें कौन-से पुरस्कार प्राप्त हुए हैं?
  • आज के समय में इस वाद्य का प्रयोग किस प्रकार हो रहा है?
  • किसी भी अवनद्ध वाद्य को त्रि-आयामी आकार में बनाकर उसका नामांकन कीजिए।

शिक्षक हेतु गतिविधि

1. पसंद के गीतों पर बच्चों द्वारा संगीत वाद्यों को बजवाएँ, जैसे— कौंगो, बौंगो, तबला, हारमोनियम, गिटार, पत्ते से बनी सीटी, पत्थरों द्वारा बजाई गई लय या गति आदि।

2. बच्चों को उनकी पसंद के गीत सुनवाकर, गीत के साथ प्रयुक्त होने वाले संगीत वाद्य यंत्रों की भिन्न-भिन्न ध्वनियों को पहचानने हेतु प्रेरित करें (साउंड क्लिप्स के द्वारा)।

3. प्रकृति में पाई गई वस्तुओं से निर्मित वाद्यों से कक्षा में आरकेस्ट्रा बजवाना, जैसे- पत्ते टूटे हुए तने, टहनी, टीन के डिब्बे, काँच की बोतल इत्यादि।

पहेली

नीचे दिए गए वाद्यों के नामों को प्रयोग करते हुए रिक्त स्थानों को भरिए। (उत्तर कुंजी में पहेली संख्या 3 पृष्ठ संख्या 92 देखें।)

हारमोनियम, करताल, ढोलक, पुष्कर, तबला, तविल, दिलरूबा, धटम्, घुँघरू, नादस्वरम्, मृदंगम्, सितार, वायलिन, तानपुरा, मंजीरा, इकतारा, इसराज, जलतरंग, नक्कारा

बिक्कू महाराज

पंडित बिक्कू महाराज के नाम से विख्यात् बनारस घराने के महान तबला वादक पंडित विक्रमादित्य मिश्र का जन्म् 1863 में, बनारस के प्रतिष्ठित संगीतज्ञों के परिवार में हुआ था। घर में पिता संगीत नायक पंडित दगाही मिश्र और पितामह तबला सम्राट पंडित राम शरण मिश्र जैसे कलाकार थे, अत: बिक्कू महाराज संगीत की ओर आकर्षित हुए। पिता और पितामह से ही उन्होंने तबला सीखा। किंतु गंडा बंधन, गुरु घराने के वरिष्ठ तबला वादक पंडित बलदेव सहाय से किया। रोज़ 15-16 घंटे के रियाज, गुरुओं द्वारा प्रदत्त ज्ञान और मौलिक चिंतन ने बिक्कू महाराज को जल्द ही एक श्रेष्ठ तबला वादक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। इन्हें मात्र 23 वर्ष की आयु में खलीफ़ा की उपाधि से सम्मानित किया गया था। इस सम्मान को पाने वाले वे एकमात्र हिंदू कलाकार थे। इन्होंने अपने पिता संगीत नायक पंडित दरगाह मिश्र से गायन और सितार की भी शिक्षा प्राप्त की थी। ये अच्छे रचनाकार भी थे।

चित्र 7.26 - बिक्कू महाराज

पंडित बिक्कू महाराज का तबला वादन सर्वांगीण था। इनका रेला सुनकर ऐसा लगता था जैसे कई भौरे गुंजार कर रहे हों। इन्हें हजारों गत-फ़र्द याद थे। छंद शास्त्र के ज्ञाता बिक्कू महाराज को तबला वादन की अन्य शैलियों में भी दक्षता प्राप्त थी। वादन में शुद्धता, कर्णाप्रियता, सरसता, और मोहकता इनकी विशेषता थी। ये अपने प्रभावशाली वादन से विभिन्न रसों की सफल निष्पत्ति करते थे। पंडित कंठे महाराज के अनुसार, ये जब टुकड़े, परनों की प्रस्तुति करते थे तो ऐसा लगता था जैसे आकाश में मेघ गर्जन-तर्जन हो रहा हो और सम पर आते थे तो ऐसा लगता था जैसे पहाड़ का कोई बड़ा आकार गिरा हो। लेकिन, रेला आदि के वादन के समय ऐसा लगता था जैसे नदी की कल-कल धारा प्रवाहित हो रही हो। पं. बिक्कू महाराज ने उत्तर प्रदेश के प्रथम संगीत विद्यालय काशी संगीत समाज (वाराणसी) में कई वर्षों तक अध्यापन कार्य भी किया था। शिक्षा प्रदान करने के मामले में अत्यंत उदार होने के कारण इन्होंने लगभग तीन सौ लोगों को तबला वादन की शिक्षा दी थी।

जमीरा के राजा लल्लन बाबू उर्फ़ शन्तुजय प्रसाद सिंह ने तबला इन्हीं से सीखा था। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ के बेटे मकबूल हुसैन खाँ, पंडित भोलानाथ पाठक एवं मृदंगाचार्य मन्नू भी इन्हीं के शिष्य थे। सामता प्रसाद, जो कि गुदई महाराज के नाम से भी प्रसिद्ध थे, के पिता के निधन के बाद उन्हें अपने घर में पुत्रवत स्नेह देकर सिखाने वाले बिक्कू महाराज ही थे। महाराज के सुपुर्र तबला शिरोमणि पंडित गामा महाराज और पौत्र रंगनाथ मिश्र भी श्रेष्ठ कलाकार हुए। स्वतंत्र वादन और संगति, दोनों में सिद्ध महाराज चतुर्मुखी वादक थे। इन्होंने अपने युग के सभी बड़े कलाकारों के साथ वादन किया था। बिक्कू महाराज के जीवन का उत्तरार्द्ध बीमारी से लड़ते हुए बीता। सन् 1945 के मार्च महीने में बिक्कू महाराज का निधन हो गया।



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