अध्याय 05 ताल-लिपि पद्धति एव विभिन्‍न ठेक

मानव ने सभ्यता के विकास के साथ-साथ प्रयास किया कि उसके उपार्जित अनुभव और विचार भविष्य के लिए भी संचित रह सकें। संभवतः लिपि का जन्म इसी का परिणाम है। संगीत को लिपिबद्ध करना ही संगीत की रचनाओं को सुरक्षा कवच पहनाना है। लिपिबद्ध होने से बंदिश के मूल स्वरूप की रक्षा होती है। यही बात उसके एक मुख्य अंग ताल के साथ भी है। राग और ताल संबंधित क्रियात्मक रचनाओं को व्यवस्थित रीति से विभिन्न संकेतों द्वारा लिपिबद्ध करके समय-समय पर कई लिपि पद्धितियों का निर्माण विद्वानों द्वारा किया गया है। आधुनिक काल अर्थात् अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में, मौलाबख्श, सौरेन्द्र मोहन टैगोर, क्षेत्र मोहन गोस्वामी, पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर तथा पंडित विष्णु नारायण भातखंडे जैसे विद्वानों ने संगीत को लिपिबद्ध करने के लिए अलग-अलग लिपि पद्धतियाँ अपनाईं।

क्या आपने किसी स्वरलिपि के नीचे इन चिह्नों को देखा है- $\times, 0,2,3 \ldots ?$ आओ समझते हैं कि इन चिह्नों का हमारे संगीत में क्या महत्व है।

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने विभिन्न ताल में निबद्ध रचनाओं को लिखने के लिए ताल लिपि का निर्माण किया। यह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रचलित लिपि है।

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा बनाई गई ताल-स्वर लिपि पद्धति की विशेषताएँ निम्न हैं-

  • प्रथम मात्रा से अंतिम मात्रा तक को ताल चिह्नों एवं ठेके के बोलों सहित प्रदर्शित किया जाता है।

  • उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में ताल की प्रथम मात्रा हमेशा ही सम होती है। इस ताल पद्धति में सम के चिद्न को दर्शाने के लिए ’ $x$ ’ का प्रयोग किया जाता है।

  • खाली के चिह्न को दर्शाने के लिए ’ 0 ’ का प्रयोग किया जाता है। खाली एक से अधिक होने पर भी उसे ’ 0 ’ से ही प्रदर्शित किया जाता है। रूपक ताल में पहली मात्रा पर खाली होती है, किंतु वह सम भी है। अतएव रूपक में प्रथम मात्रा पर खाली का चिह्न प्रदर्शित किया जाता है और इसलिए चौथी मात्रा पर प्रथम ताली के रूप में ताली की संख्या एक ’ 1 ’ लिखी जाती है तथा छठी मात्रा पर दूसरी ताली होती है।

रूपक ताल का उदाहरण-

तिं तिं ना धी ना धी ना
1 2
  • ताल के विभागों को अलग करने के लिए खड़ी पाई अर्थात् ’ $"$ ’ चिह्न का प्रयोग किया गया है।

  • विभागों में ताली के लिए ताली की संख्या लिख दी जाती है। जैसे त्रिताल में पाँचवीं और तेरहवीं मात्रा पर दो और तीन की संख्या लिख दी जाती है। उदाहरण के लिए, त्रिताल में ठेका-

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 1
बोल धा धि धि धा धा धि धि धा धा ति ति ता ता धि धि धा धा
चिह्न $x$ 2 0 3 $x$
  • विश्रांति या ठहराव के लिए ’ $s$ ’ के चिह्न का प्रयोग होता है। यदि किसी बोल को दो मात्रा काल तक गाया या बजाया जाना है तो उस विस्तार को दर्शाने के लिए $s$ चिह्न का प्रयोग किया जाता है, जैसे— धा 5 , धीं 5,1 तीन मात्रा के लिए धा 55 या धिं 551 चार मात्रा के लिए धा 555 , धिं 555 , ता 555 , तिं 555 आदि।

  • एक मात्रा में एक वर्ण के लिए अलग से कोई चिह्न नहीं लगाया जाता है, जैसे— धा, धीं, ती आदि।

  • एक मात्रा काल में एक से अधिक स्वर या बोल होने पर उनके नीचे अर्धचन्द्र ‘ लगाया जाता है, जैसे-

1 2 3 $4 \ldots \ldots \ldots \ldots \ldots$
कन्हैया ऽऽ तोरी सावरी …………………

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का जन्म 10 अगस्त, 1860 को वालकेश्वर, मुंबई में हुआ। अपने बचपन से ही उन्होंने संगीत में गायन और बाँसुरी में महारत हासिल की, बाद में उन्होंने सितार वादन की शिक्षा भी प्राप्त करना प्रारंभ किया और एक कुशल सितार वादक के रूप में लोकप्रिय हुए। बी.ए. तथा एल.एल.बी. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर पंडित भातखंडे ने कराची में वकालत प्रारंभ की। इन सबके बीच भी संगीत से उनका अटूट नाता बना रहा।

चित्र 5.1 - पंडित विष्णु नारायण भातखंडे

संगीत के शास्त्रीय पक्ष की ओर संगीतज्ञों का ध्यान आकर्षित करने का श्रेय विष्णु नारायण भातखंडे को जाता है। उन्होंने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और संगीत के प्राचीन ग्रंथों की खोज की। यात्रा में जहाँ भी उन्हें संगीत का कोई विद्वान मिला, उससे सहर्ष मिलने गए, भावों का विनिमय किया और जो कुछ भी ज्ञान धन देकर, सेवा अथवा शिष्य बनकर भी प्राप्त हो सका, उन्होंने नि:संकोच प्राप्त किया। क्रियात्मक संगीत को लिपिबद्ध करने के लिए भातखंडे ने एक सरल और नवीन स्वरलिपि की रचना की, जो भातखंडे स्वरलिपि पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है। यह अन्य की तुलना में सरल और सुबोध है। पं. भातखंडे ने सन् 1916 में बड़ौदा नरेश की सहायता से प्रथम संगीत सम्मेलन सफलतापूर्वक आयोजित किया। उनके द्वारा रचित पुस्तकें— हिंदुस्तानी संगीत पद्धति, भातखंडे संगीत शास्त्र चार भागों में, अभिनव राग मंजरी, श्रीमल्लक्ष्य संगीतम्, स्वरमालिका हैं। उपरोक्त पुस्तकों एवं ग्रंथों की रचना के अतिरिक्त राग वर्गीकरण का एक नवीन प्रकार- थाट राग वर्गीकरण को प्रचारित करने का श्रेय विष्णु नारायण भातखंडे को जाता है। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से समस्त रागों को दस थाटों में विभाजित किया— बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, भैरवी, काफी, आसावरी, तोड़ी, पूर्वी और मारवा।

पंडित भातखंडे ने इस विचार से, “केवल श्रव्य रूप में उपलब्ध होने के कारण प्राचीन बंदिशों का लोप होता जा रहा है", बंदिशों को संरक्षित एवं संग्रहित करने के लिए एक संगीत लिपि का निर्माण किया, जिसके आधार पर वे उस्तादों की बंदिशों को सुनकर लिपिबद्ध कर लेते थे तथा उन्हें यथावत प्रस्तुत करने की क्षमता रखते थे। सन् 1909 में उन्होंने लक्ष्य संगीतम तथा हिंदुस्तानी संगीत का प्रथम भाग प्रकाशित किया। तत्पश्चात् स्वरचित लक्षणगीतों का एक संग्रह प्रकाशित कराया। उनके सद्प्रयासों से बड़ौदा में एक संगीत विद्यालय की स्थापना हुई। पंडित भातखंडे के सहयोग से ही ग्वालियर नरेश ने 1918 में माधव संगीत विद्यालय की स्थापना की। सन् 1926 में अनेक संगीत प्रेमियों के सहयोग से लखनऊ में मैरिस कॉलेज ऑफ़ हिंदुस्तानी म्यूज़िक के नाम से एक शिक्षण संस्थान प्रारंभ हुआ। जो आज भातखंडे संगीत संस्थान समविश्वविद्यालय के रूप में संचालित है। संगीत विचारक, उद्धारक तथा संगीत के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाली इस महान विभूति का मुंबई में सन् 1936 में देहावसान हो गया।

तालों का उनके ठेकों सहित विवरण

संगीत में समय नापने के साधन को ताल कहते हैं। यह संगीत में व्यतीत हो रहे समय को मापने का एक महत्वपूर्ण साधन है जो भिन्न-भिन्न मात्राओं, विभागों, ताली और खाली के योग से बनता है। ताल संगीत को अनुशासित करता है। संगीत को एक निश्चित स्वरूप देने में ताल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और इन तालों को उनके ठेकों द्वारा पहचाना जाता है। उत्तर भारतीय संगीत में प्रयुक्त तालों के ठेके होते हैं जो इसकी निजी विशेषता है। किसी भी ताल का वह मूल बोल जिसके द्वारा उस ताल की पहचान होती है, उस ताल का ठेका कहलाती है। किसी ताल के ठेके की रचना उस ताल की प्रकृति, यति-गति, ताली, खाली, विभाग आदि को ध्यान में रखकर की जाती है। यद्यपि उत्तर भारतीय तालों के ठेकों में कहीं-कहीं विरोधाभास भी दृष्टिगत होता है। कुछ प्रचलित तालों को छोड़ दिया जाए तो कई तालों के अलग-अलग ठेके भी प्रचार में देखने को मिलते हैं।

प्राचीन काल से जब संगीत का विकसित रूप समाज में प्रचलित हुआ, उसके बहुत बाद इसके शास्त्र पक्ष का लेखन भी आरंभ हुआ। भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र वह पुराना ग्रंथ है जिसमें संगीत के शास्त्र की महत्वपूर्ण चर्चा की गई है। ऐसे तो नाट्यशास्त्र मूलत: नाट्यशास्त्र को प्रदर्शित करता है, किंतु इसमें संगीत का भी समग्र विवेचन हमें मिलता है, जिससे यह भी सुनिश्चित होता है कि लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व के नाटकों में संगीत एक मुख्य घटक के रूप में प्रचलित था।

मध्यकालीन समय का संक्षिप्त विवरण

संगीत को लिखित रूप में समझाने के लिए लिपि की आवश्यकता हुई जो सांगीतिक स्वर, लय, ताल तथा प्रबंध आदि को लिखित रूप में प्रदर्शित करने के लिए आवश्यक हो गई। नाट्यशास्त्र में केवल तालों की चर्चा करते समय लघु, गुरु और प्लुत से क्रमश: एक मात्रा, दो मात्रा एवं तीन मात्राओं को प्रदर्शित किया गया है तथा इनके चिह्न क्रमश: $1,5,5$ निश्चित किए गए हैं। नाट्यशास्त्र के पश्चात् भी इस दिशा में प्रयास होते रहे, जिनमें मुख्य रूप से बृहह्देशीकार मतंग तथा संगीत रत्नाकर के रचयिता शारंगदेव का योगदान उल्लेखनीय है।

वैदिक लघु गुरु प्लुत
मात्रा काल 1 मात्रा 2 मात्रा 3 मात्रा

आधुनिक काल अर्थात् अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में, मौलाबख्श, सौरेन्द्र मोहन टैगोर, डाहयालाल शिवराम आदि ने संगीत को लिपिबद्ध करने के लिए नवीन पद्धतियाँ अपनाईं।

उन्नीसवीं शताब्दी में दो महान विभतियों का जन्म हुआ, जिन्हें हम पंडित विष्णु नारायण भातखंडे तथा पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के नाम से जानते हैं। इन दोनों विभूतियों ने महसूस किया कि शास्त्रीय संगीत की शिक्षा सर्व सामान्य को सहज रूप में उपलब्ध नहीं है। अत: पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने विभिन्न विद्वानों और संगीत प्रेमी पूंजीपतियों की मदद से बड़ौदा, ग्वालियर, लखनऊ आदि स्थानों पर संगीत की विद्यालयी शिक्षा का सूत्रपात किया। वहीं दूसरी ओर पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने लाहौर में, 1901 में गांधर्व महाविद्यालय की स्थापना कर संगीत शिक्षण को साधारण लोगों के लिए सुलभ कराया।

इन दोनों संगीतोद्धारक विभूतियों ने इस बात को समझा कि विद्यालयी शिक्षा में संगीत सिखाते समय सहज और सरल संगीत लिपि आवश्यक होगी। विष्णु द्वय ने अपने-अपने तरीके से संगीत लिपियों का प्रचार एवं प्रसार किया जिनमें से पंडित विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा निर्मित संगीत पद्धति को भातखंडे स्वर या ताल लिपि पद्धति; पलुस्कर द्वारा प्रणीत पद्धति को पलुस्कर स्वर या ताल लिपि पद्धति कहा गया।

इनमें से भातखंडे संगीत लिपि पद्धति सहज और सरल होने के कारण जज्यादा प्रचलित हुई। पंडित पलुस्कर के दो प्रसिद्ध शिष्यों, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर तथा पंडित विनायक राव पटवर्धन ने पलुस्कर संगीत लिपि पद्धति में अपनी दृष्टि से कतिपय परिवर्तन कर प्रकाशित पुस्तकों में उन लिपियों का उपयोग किया। इसके बाद पद्मभूषण पंडित निखिल घोष ने भी एक संगीत लिपि पद्धति का निर्माण किया। वहीं, बीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठतम तबला वादक उस्ताद अहमद जान थिरकवा के वरिष्ठ शिष्य पंडित नारायण जोशी ने तबले की रचनाओं को उनके निकास संबंधी चिह्नों का प्रयोग करते हुए एक लिपि निर्मित की।

जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि पंडित विष्णु नारायण भातखंडे के सद्प्रयासों से विभिन्न स्थानों पर संगीत विद्यालयों या महाविद्यालयों का प्रारंभ हुआ, जिनकी एक लंबी शृंखला बनी। इनमें भातखंडे के द्वारा रचित ग्रंथ क्रमिक पुस्तक मालिका, हिन्दुस्तानी संगीत, लक्षण गीत संग्रह इत्यादि का प्रचलन शिक्षण प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुआ। अतएव भातखंडे स्वर या ताल लिपि पूरे देश में अधिक प्रचलित हुई।

उत्तर भारतीय संगति में तबले पर बजाई जाने वाली प्रचलित प्रमुख तालों के ठेकों का विवरण निम्न प्रकार है—

भ्रिताल (तीनताल)

त्रिताल अथवा तीनताल तबले का सर्वाधिक महत्वपूर्ण, लोकत्रिय एवं प्रचलित ताल है। शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और फ़िल्म संगीत तक में इसका प्रयोग होता है। यह उन गिने-चुने तालों में से है, जिसका प्रयोग विलंबित से द्रुत लय तक में होता है। तिलवाड़ा, पंजाबी अद्धा एवं जत (16 मात्रा) आदि ताल भी त्रिताल के ही प्रकार हैं। दक्षिण भारत का आदिताल और उत्तर भारत का त्रिताल कई दृष्टि से समान हैं। दोनों ही अत्यंत प्राचीन ताल हैं। त्रिताल में 16 मात्राएँ होती हैं जो 4/4/4/4 मात्राओं में विभाजित होती हैं। अत: यह सम पदीताल है। इसमें पहली, पाँचवीं और तेरहवीं मात्रा पर ताली तथा नौवीं मात्रा पर खाली होती है। यह चतस्त्र जाति की ताल है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
बोल धा धि धि धा धा धिं धि धा धा तिं तिं ता ता धि धि धा
चिह्न $x$ 2 0 3

दुगुन

तिगुन

चौगुन

एकताल

एकताल तबले का अत्यंत लोकप्रिय और प्रचलित ताल है। यह चतस्त्र जाति का सम पदीताल है। इसका प्रयोग विलंबित, मध्य एवं द्रुत लय के खयाल एवं गत की संगति के लिए किया जाता है। तबले का एकल वादन भी इसमें होता है। इसके विभाग $2 / 2 / 2 / 2 / 2 / 2$ मात्राओं के होते हैं। इसमें 12 मात्रा, छह विभाग, चार ताली और दो खाली होती हैं। इसकी तालियाँ क्रमशः पहली, पाँचवीं, नौवीं तथा ग्यारहवीं मात्राओं पर होती हैं। खाली तीन तथा सातवीं मात्रा पर है।

मात्रा 1 $ \quad $ 2 3 $ \quad $ 4 5 $ \quad $ 6 7 $ \quad $ 8 9 $ \quad $ 10 11 $ \quad $ 12
बोल धि $ \quad $ धि धागे $ \quad $ तिरकिट त $ \quad $ ना क $ \quad $ त्ता धागे $ \quad $ तिरकिट धिन $ \quad $ ना
चिह्न $\times$ 0 2 0 3 4

दुगुन

तिगुन

चौगुन

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झपताल

झपताल एक अत्यंत लोकप्रिय और प्रचलित ताल है। यह खंड जाति का ताल है। इसका प्रयोग विलंबित और मध्य लय के खयाल एवं गतों की संगत के लिए किया जाता है। सादरा गायन शैली की संगति भी झपताल द्वारा ही होती है। तबले का एकल वादन भी इसमें होता है, इसके विभाग $2 / 3 / 2 / 3$ के होने के कारण यह विषमपदी ताल है। इसमें 10 मात्राएँ, चार विभाग, तीन तालियाँ क्रमश: पहली, तीसरी, आठवीं मात्राओं पर होती हैं तथा एक खाली छठी मात्रा पर है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
बोल धी ना धी धी ना ती ना धी धी ना
चिह्न $\times$ 2 0 3

दुगुन

तिगुन

चौगुन

रूपक

रूपक ताल तबले का लोकप्रिय और प्रचलित ताल है। इसका प्रयोग शास्त्रीय, उपशास्त्रीय तथा सुगम संगीत में किया जाता है। मध्य लय और विलंबित लय का खयाल गायन भी इसमें प्रचलित है। गीत, भजन, गज़ल एवं तंत्री तथा सुषिर वाद्यों की संगत के लिए भी इसका प्रयोग होता है। तबले का स्वतंत्र वादन भी इसमें प्रचलित है। यह विलंबित और मध्य लय का ताल है। द्रुत लय में इसका वादन उचित नहीं माना जाता है। पखावज का तीव्रा ताल और कर्नाटक संगीत का तिस्त्र जाति त्रिपुट ताल इसके सदृश हैं। इसमें विभाग $3 / 2 / 2$ के होने के कारण यह मिश्र जाति का विषम पदीताल हुआ। यह एकमात्र ऐसा ताल है जिसके सम पर खाली है। इसीलिए इसे इस प्रकार लिखना उचित होगा-

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7
बोल तीं तीं ना धी ना धी ना
चिह्न $\otimes$ 1 2

इसकी प्रथम मात्रा पर खाली और चौथी तथा छठी मात्रा पर ताली है।

दुगुन

तिगुन

चौगुन

दादरा ताल

दादरा तबले का अत्यंत लोकप्रिय ताल है। उपशास्त्रीय, सुगम, लोक और फ़िल्मी संगीत में इसका खूब प्रयोग होता है। दादरा, कजरी, भजन और गज़ल तथा लोक गीतों के साथ यह मुख्य रूप से बजाया जाता है। तबले के साथ-साथ ढोलक, नाल, ताशा, नक्कारा, दुक्कड़ आदि जैसे वाद्यों पर भी यह ताल खूब बजता है। मूलत: चंचल और भृंगारिक प्रकृति का ताल होने के कारण यह प्राय: मध्य और द्रुत लय में ही बजता है, किंतु दादरा की संगति के समय इसकी लय धीमी हो जाती है। इसमें बजने वाली लग्गी लड़ी आकर्षक होती है। दादरा ताल में छह मात्राएँ हैं, जो $3 / 3$ मात्राओं के विभाग में बंटी हैं। पहली मात्रा पर ताली और चौथी मात्रा पर खाली है। यह सम पदीताल है। इस ताल की जाति तिस्त्र है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6
बोल धा धी ना धा ती ना धा
चिह्न $\times$ 0 $\times$

दुगुन

तिगुन

चौगुन

कहरवा ताल

उत्तर भारत में कहार नामक एक जाति है, जो पहले पानी का व्यवसाय करती थी। इनके द्वारा प्रस्तुत समूह लोक नृत्य को कहरवा नाच कहा जाता है। अत: कहरवा ताल के उद्गम का मूल स्रोत वही है। यह मूलत: लोक संगीत का ताल है जो सुगम संगीत और फ़िल्म संगीत में भी खूब लोकत्रिय हुआ है। तबले के साथ-साथ ढोलक, ताशा, नक्कारा, नगाड़ा एवं नाल आदि पर भी इसका खूब वादन होता है। अनेक गीत, गज़ल एवं भजन आदि इस ताल में निबद्ध हैं। यह मूलत: चंचल प्रकृति का और संगति का ताल है। इसमें तबले का स्वतंत्र वादन नहीं होता है। इसकी खूबसूरत किस्में और लग्गी-लड़ी श्रवणीय होती हैं। यह आठ मात्राओं का समपद ताल है, जिसके $4 / 4$ मात्राओं के दो विभाग हैं। एक मात्रा पर ताली और पाँचवीं मात्रा पर खाली है। यह चतस्त्र जाति का ताल है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8
बोल धा गे ति धि धा
चिह्न $\times$ 0 $\times$

दुगुन

तिगुन

चौगुन

पखावज

चारताल अथवा चौताल

चारताल अथवा चौताल पखावज का अत्यंत लोकत्रिय और प्राचीन ताल है। ध्रुपद गायन, ध्रुपद अंग के वादन तथा पखावज पर मुक्त वादन के लिए इस ताल का मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है। वर्तमान काल में तबले पर भी इस ताल को बजाने की प्रथा शुरू हो गई है, वादन विद्यार्थी तबले पर भी इसे बजाते हैं। यह खुले और ज़ोरदार शैली का समपदी ताल है। इस ताल में कुल 12 मात्राएँ और छह विभाग हैं। चार तालियाँ क्रमश: पहली, पाँचवीं, नौवीं और ग्यारहवीं मात्राओं पर हैं तथा दो खाली तीसरी और सातवीं मात्राओं पर हैं। इसकी जाति चतस्त्र है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
बोल धा धा दि ता किट धा दि ता तिट कत गदि गन धा
चिह्न $\times$ 0 2 0 3 4 $\times$

दुगुन

तिगुन

चौगुन

सूलताल

यह पखावज का लोकप्रिय और प्रचलित ताल है। इसका वादन मध्य और द्रुत लय में होता है। ध्रुपद अंग के गायन और वादन के साथ इसका वादन होता है। पखावज पर स्वतंत्र वादन के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। इसके बोल खुले और जोरददार होते हैं। यह चतस्त्र जाति का सम पदीताल है। इस ताल में 10 मात्राएँ और पाँच विभाग होते हैं। तीन तालियाँ क्रमश: पहली, पाँचवों और सातवीं मात्राओं पर होती हैं। तीसरी और नौवीं मात्राओं पर दो खाली भी हैं।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
बोल धा धा दि ता किट धा तिट कत गदि गन धा
चिह्न $x$ 0 2 3 4 $\times$

दुगुन

तिगुन

चौगुन

इस ताल का एक और ठेका भी प्रचलित है-

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
बोल धा घिड़ नग दीं घिड नग गद दी घिड नग धा
चिह्न $\times$ 0 2 3 0 $\times$

तीवा या तेवरा

यह पखावज का प्राचीन, महत्वपूर्ण और प्रचलित ताल है जो तबला वादकों में भी लोकप्रिय है। तेज़ गति में बजने के कारण ही इसका नाम तीत्रा पड़ा। ध्रुपद अंग के गायन और वादन की संगति के साथ-साथ एकल वादन के लिए भी इस ताल का चयन किया जाता है। इसके विभाग $3 / 2 / 2$ मात्राओं के हैं। अत: यह मिश्र जाति का विषम पदीताल है। यह खुले और जोरदार वर्णों से निर्मित ताल है। इसमें सात मात्राएँ, तीन विभाग और तीन तालियाँ क्रमश: पहली, चौथी और छठी मात्राओं पर हैं। इस ताल में खाली नहीं है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7
बोल धा दिं ता तिट कत गदि गन धा
चिह्न $\times$ 2 3 $\times$

दुगुन

तिगुन

चौगुन

धमार ताल

पखावज का यह अत्यंत लोकप्रिय और प्रचलित ताल तबला वादकों और कथक नर्तकों में बहुत लोकप्रिय है। 14 मात्रा में निबद्ध होरी गायन की संगति धमार ताल द्वारा ही की जाती है। इसलिए उस गायन शैली को भी धमार कहा जाता है। विषम पदी यह ताल बोलों की दृष्टि से मिश्र जाति का है जबकि ताल विभाग की दृष्टि से संकीर्ण जाति का है। इस पर स्वतंत्र वादन भी खूब होता है। वीणा, सुरबहार, सरोद, सितार और संतूर आदि पर भी धमार अंग की गतें बजती हैं। यह एकमात्र ताल है जिसका सम बायें पर बजता है। इसमें 14 मात्राएँ, चार विभाग, तीन ताली और एक खाली होती है। पहली, छठी और ग्यारहवीं मात्राओं पर ताली तथा आठवीं मात्रा पर खाली है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14
बोल धि धि धा 5 ति ति ता 5
चिह्न $x$ 2 0 3 $\times$

दुगुन

तिगुन

चौगुन

अभ्यास

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. झपताल में पाँचवीं मात्रा पर कौन-सा बोल है?

(क) ती

(ख) ना

(ग) धी

(घ) धीना

2. एकताल में कितने विभाग होते हैं?

(क) 12

(ख) छह

(ग) तीन

(घ) दो

3. दादरा में कितनी मात्राएँ हैं?

(क) दो

(ख) तीन

(ग) चार

(घ) छह

4. कहरवा ताल में कितने ताल के चिह्न होते हैं?

(क) पाँच

(ख) एक

(ग) तीन

(घ) दो

5. रूपक ताल का सम कहाँ दिखाया जाता है?

(क) पहली मात्रा

(ख) चौथी मात्रा

(ग) तीसरी मात्रा

(घ) छठी मात्रा

6. दादरा ताल में कितने विभाग होते हैं?

(क) तीन

(ख) दो

(ग) चार

(घ) एक

7. तीनताल कितनी मात्राओं का होता है?

(क) 12

(ख) आठ

(ग) 16

(घ) 18

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

1. ताल का नाम ___________ ।

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14
$\ldots$ $\ldots$ धि धा $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ ति $\ldots$ $\ldots$
x $\ldots$ 3

2. ताल का नाम ___________ ।

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
धा धि $\ldots$ $\ldots$ धा $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ ति ता ता $\ldots$ $\ldots$ धा
1 2 $\ldots$. 3

3. ताल का नाम ___________ ।

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
धि $\ldots$ धागे $\ldots$ ना $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ तिरकिट $\ldots$ ना
$\times$ $\ldots$ $\ldots$ 0 $\ldots$ 4

4. ताल का नाम _____________ ।

1 2 $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ 6 7 $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$
धी ना धी धी $\ldots$ ती $\ldots$ धी $\ldots$ ना
$\ldots$ 2 $\ldots$ 3

5. ताल का नाम _____________ ।

$\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ $4 \quad 5$ 7
तीं तीं ना $\ldots$ धी $\ldots$
$\ldots$ $\ldots$ 2

6. ताल का नाम _____________ ।

1 2 3 $\ldots$ 5 6
धा $\ldots$ ना धा ती $\ldots$
$\times$ $\ldots$

7. ताल का नाम _____________ ।

1 2 3 4 5 6 7 8
धा $\ldots$ ना $\ldots$ ना $\ldots$ धि $\ldots$
$\times$ 0

8. ताल का नाम _____________ ।

1 2 $\ldots$ $\ldots$ 5 6 $\ldots$ $\ldots$ 9 10
धा धा दि $\ldots$ $\ldots$ धा तिट $\ldots$ $\ldots$ गन
$\times$ $\ldots$ 2 $\ldots$ 4

9. ताल का नाम _____________ ।

1 2 3 $\ldots$ $\ldots$ 6 7 8 $\ldots$ $\ldots$ 11 12
धा धा $\ldots$ $\ldots$ किट $\ldots$ $\ldots$ ता तिट $\ldots$ $\ldots$ गन
$\times$ 0 2 $\ldots$ $\ldots$ 4

10. ताल का नाम _____________ ।

1 2 $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ 6 7 8 $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ 13 14
धि $\ldots$ $\ldots$ धा $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ ति ता $\ldots$
x $\ldots$ 0 3

11. ताल का नाम _____________ ।

1 2 3 $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ 7
धा $\ldots$ ता $\ldots$ कत गदि $\ldots$ $\ldots$
x 2 $\ldots$

सुमेलित कीजिए

(क) क्रमिक पुस्तक मालिका 1. धमार
(ख) गांधर्व महाविद्यालय 2. 1901
(ग) धागे तिरकिट बोल 3. $9,10,11,12$
(घ) चारताल में तिटकत गदिगन 4. विष्णु नारायण भातखंडे
(ड़) सूलताल की जाति 5. एकताल
(च) छोटी गायन की ताल 6. चतस्त्र जाति

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

1. नाट्यशास्त्र में ताल को किस तरह प्रदर्शित किया गया है?

2. नाट्यशास्त्र में प्रयोग किए गए तालों के चिह्नों को बताइए।

3. लाहौर में सन् 1901 में किसने और कौन-से संगीत महाविद्यालय की स्थापना की थी?

4. पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के दो महान शिष्यों के नाम बताइए।

5. उस्ताद अहमद जान थिरकवा किस वाद्य यंत्र के महारथी थे?

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

1. तीनताल का तिगुन लिखिए।

2. धमार ताल के बोल लिखकर उसका दुगुन लिखिए।

3. ध्रुपद में किन-किन तालों का प्रयोग होता है? उन तालों का तिगुन और चौगुन लिखिए।

4. हिंदुस्तानी ताल पद्धति में किस ताल में सिर्फ़ आठ मात्राएँ हैं? उस ताल को विस्तृत रूप में लिखिए।

5. पखावज पर बजने वाला सूलताल कितनी मात्राओं का होता है? एक गुन लिखकर बताइए।

6. बिलम्वित खयाल गाने के लिए किन-किन तालों का प्रयोग किया जाता है। उन तालों को ताल पद्धति के अनुसार लिखकर बताइए।

7. विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा बनाई गई ताल पद्धति के चिह्नों का वर्णन कीजिए।

विद्यार्थियों हेतु गतिविधि

1. कोई भी लोकगीत जो बच्चों को पसंद हो, उसे ताल पद्धति में लिखिए।

2. सभी बच्चों को फ़िल्मी गीत पसंद होते हैं, एक फ़िल्मी गीत जो त्रिताल में गाया गया है, उसकी चार पंक्तियों को ताल पद्धति में लिखिए।

3. आपके राज्य में प्रचलित किन्हीं पाँच लोकगीतों को लिखिए। उस पर विचार करते हुए बताइए कि उसमें किन-किन तालों का प्रयोग किया गया है।

4. कक्षा में पढ़ते संगीत गायन के सहपाठियों से बंदिशों में मौसम के विवरण पर बातचीत कीजिए, उनका चयन कीजिए एवं बताइए कि किस तरह शब्दों को स्वरलिपि एवं ताल पद्धति में सुनिश्चित किया गया है? इस पर विचार-विमर्श कीजिए।

5. धमार ताल में किसी भी एक बंदिश को अपने सहपाठियों की सहायता से लिखिए। इस ताल में रची गई उस बंदिश की दुगुन, तिगुन व चौगुन भी लिखिए।

6. क्या आप लयकारी में गणित देख पाते हैं? इस पर एक परियोजना बनाइए।

अनोखे लाल मिश्र

बनारस घराने के महान तबला वादक पंडित अनोखे लाल मिश्र का जन्म सन् 1914 में बनारस में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता को खो चुके पंडित अनोखे लाल मिश्र ने, तबला वादन की शिक्षा पंडित भैरव प्रसाद मिश्र से प्राप्त की थी। अपनी अप्रतिम तैयारी और वादन के नाद सौंदर्य के कारण पंडित अनोखे लाल विशेष रूप से विख्यात थे। गायन, वादन और नृत्य- तीनों की संगति करने में दक्ष अनोखे लाल का स्वतंत्र तबला वादन भी अत्यंत श्रवर्णीय होता था। ‘नाधिंििंना के जादूगर नाम से विख्यात अनोखे लाल मिश्र ‘तिरकिट, धिरिधिर किटितक’ आदि बोलों का भी चमत्कारिक वादन करते थे। अपने समय के सभी महान् संगीतकारों की संगति कर चुके पंडित अनोखे लाल मिश्र की ख्याति आज भी एक आदर्श तबला वादक के रूप में है। ैैंगरिन होने के कारण अनोखे लाल का निधन मात्र 44 वर्ष की उम्र में 10 मार्च, 1958 में हो गया था।

इनके पुत्र पंडित राम मिश्र भी सुयोग्य ताबलिक थे। इनके शिष्यों में पंडित ईश्वर लाल मिश्र, पंडित महापुरुष मिश्र और पंडित छोटे लाल मिश्र भी श्रेष्ठ तबला वादक हुए।

पर्वत सिंह

पर्वत सिंह का जन्म ग्वालियर, मध्य प्रदेश में 1879 के आस-पास हुआ। इनके पिता सुखदेव सिंह और प्रपितामह जोरावर सिंह अपने समय के ख्याति प्राप्त कलाकार एवं ग्वालियर दरबार के रत्नों में से एक थे। पिता सुखदेव सिंह, अपने पुत्र पर्वत सिंह को सांगीतिक भ्रमण में सदा साथ रखते थे। इससे उन्हें बाल्यकाल से ही श्रेष्ठ कलाकारों के संपर्क में आने का अवसर मिला और दिन-प्रतिदिन उनका अनुभव बढ़ता गया। फलत: किशोरावस्था तक पर्वत सिंह एक सिद्ध-हस्त कलाकार बन गए।

पर्वत सिंह ने अपने यौवन के 15 वर्ष महानगरी बम्बई में व्यतीत किए। वहाँ उन्हें चोटी के अनेक कलाकारों के साथ संगत करने का अवसर मिला। परंतु पिता के निधन के पश्चात् ग्वालियर के दरबार में उनकी नियुक्ति हो गई। उनकी कला से प्रभावित होकर भारत धर्म मंडल के अध्यक्ष दरभंगा नरेश ने 1926 में उन्हें विद्याकला विशारद की उपाधि से सम्मानित किया। इन्हें लय-ताल का स्तम्भ माना जाता था।

पर्वत सिंह के बड़े पुत्र माधव सिंह भी पखावज वादक थे और उन्हें भी ग्वालियर दरबार का आश्रय प्राप्त था। इनके छोटे पुर्र गोपाल सिंह (दिल्ली) पखावज वादन से अधिक गिटार वादन के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका देहांत 18 जुलाई, 1951 को ग्वालियर में हुआ।



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