अध्याय 03 तबला एवं पखावज वाद्यों पर बजने वाले वर्ण एवं बोल
तबला वाद्य पर बजने वाले मूलत: 10 वर्ण माने जाते हैं जिनमें छह वर्ण दाहिने तबले पर तथा दो वर्ण बायें तबले या डगे पर स्वतंत्र रूप से बजाए जाते हैं, जबकि दो वर्णों को संयुक्त वर्ण माना जाता है। इसके अतिरिक्त भी कुछ वर्णों का निकास भी प्रयोग में लाया जाता है।
बायें तबले पर दो वर्ण
बायें या डगे पर निकलने वाले वर्ण हैं
i) कत/के/कि
ii) घे या गेचित्र 3.1-बायें तबले के वर्ण
दायें तबले पर छह वर्ण
दाहिने तबले पर निकलने वाले वर्ण हैं
i) ता/ना
ii) तिं
iii) ति/ते
iv) ट/र
v) तूं/तू
vi) दीं/युं/न/ताचित्र 3.2-दायें तबले के वर्ण
जबकि दो वर्णों अर्थात् धा, धिं को संयुक्त वर्ण माना जाता है।
चित्र 3.3-संयुक्त वर्ण
दाहिने तबले पर निकलने वाले वर्ण
1. ता/ना— दाहिने तबले पर अनामिका को रखते हुए तर्जनी से तबले की चाँटी पर आघात करके उठा लेने से ‘ता’ या ‘ना’ की ध्वनि उत्पन्न होती है। चाँटी पर आघात करते समय मध्यमा अँगुली ऊपर की ओर होनी चाहिए।
2. तिं- दाहिने तबले पर अनामिका को रखते हुए तर्जनी से लव पर आघात करने से ‘तिं’ की ध्वनि उत्पन्न होती है।
3. ति/ते— मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा अँगुलियों को आपस में जोड़कर दाहिने तबले की स्याही के मध्य में आघात करके दबा देने से ‘ते’ या ‘ति’ की ध्वनि उत्पन्न होती है।
4. ट/र— तर्जनी से स्याही के मध्य भाग में आघात करके दबा देने से ’ $ट$ ’ या ‘ ’ ’ बजता है। बजाते समय शेष अँगुलियाँ ऊपर की ओर उठी होनी चाहिए।
5. तूंतू— दाहिने तबले में स्याही के किनारे पर तर्जनी से आघात करने पर ध्वनि ‘तू’ या ‘तू’ उत्पन्न होती है। ‘तू’ या ‘तू’ बजाते समय अँगुलियों का कोई भी हिस्सा तबले से नहीं लगना चाहिए।
6. न/ता/दीं/थुं— हाथ की चारों अँगुलियों को आपस में जोड़कर दाहिने तबले की स्याही के शीर्ष भाग पर आघात करके उठा लेने से ‘भुं’ या ‘दीं’ की ध्वनि उत्पन्न होती है।
डग्गे पर निकलने वाले वर्ण
- कत/के/कि— बायें हाथ की कलाई को मैदान में रखते हुए चारों अँगुलियों को आपस में मिलाने और बायें तबले के किनारे पर आघात कर उसे दबा देने से ‘कत’ या ‘के’ या ‘कि’ की ध्वनि निकलती है।
- घे/गे— डग्गे पर बायें हाथ की कलाई को मैदान में रखते हुए मध्यमा और अनामिका अँगुलियों को आपस में जोड़कर स्याही और किनारे के बीच के स्थान पर आघात करने से ध्वनि ‘घे’ या ‘गे’ उत्पन्न होती है।
तबला और डग्गे पर बजने वाले बोल तथा उनका निकास
1. तिर/तिट - ‘तिट’ दाहिने तबले पर बजने वाला बोल है। दाहिने हाथ की मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा अँगुलियों को आपस में जोड़कर दाहिने तबले की स्याही के मध्य में आघात करके दबा देने से ‘ति’ वर्ण बजता है। तर्जनी से स्याही के मध्य भाग में ‘ट’ आघात करके दबा देने से ’ $ट$ ’ वर्ण बजता है। ’ $ट$ ’ बजाते समय मध्यमा और अनामिका अँगुलियाँ ऊपर की ओर उठी होनी चाहिए।
2. तिरकिट — इसकी ध्वनि दाहिने और बायें हाथ को मिलाकर निकलती है। डग्गे पर बायें हाथ की कलाई ‘तिर’ के समान ‘तिट’ को मैदान में रखते हुए, चारों अँगुलियों को आपस में मिलाते हैं और बायें तबले के किनारे पर मध्यमा और अनामिका अँगुलियों से आघात करते हैं। इससे ‘कि’ की ध्वनि निकलती है। इस प्रकार ध्वनि ‘ट’ जिससे आपस में मिलाकर दाहिने तबले की स्याही के मध्य में आघात करने पर ‘तिरक’ बोल बजता है। इस प्रकार संयुक्त रूप से तिरकिट बोल बजता है।
3. गदिगन — डग्गे पर बजाते हैं। ‘दी’ बजाते हुए दाहिने तबले पर चारों अँगुलियों को जोड़कर ‘ग’ बजाने के लिए दाहिने तबले पर स्याही के निचले भाग में ‘न’ बजाते हुए, ‘गग’ फिर से डगगे पर ‘गदिगन’। इस प्रकार मध्यमा और अनामिका अँगुलियों को जोड़कर स्पर्श करते हैं तो ‘गदिगन’ बोल बजता है।
4. घिड़नग — ‘घे’ या ‘घि’ बोल। ‘घि’ डग्गे पर बजाते हुए दाहिने, तबले पर मध्यमा और अनामिका अँगुलियों से स्याही के मध्य में आघात करके चाँट पर ‘न’ और ‘ग’ बोल बजाते हुए तर्जनी से डग्गे पर बजाएँगे। इस तरह ‘घिड़नग’ बोल बजता है।
5. धागे तिट — दाहिने और बायें तबले पर संयुक्त रूप से ‘गे’ बजाते हुए तर्जनी से डग्गे पर ‘धा’, बजाते हैं और दाहिने तबले पर जैसे ऊपर बताया गया है ‘तिट’ बोल बजाते हैं।
6. दींदीं — ये दाहिने तबले पर बजने वाला बोल है। दाहिने तबले पर स्याही के शीर्ष पर चारों अँगुलियों को मिलाकर दो बार आघात कर हाथ उठाने से ‘दींदीं’ बोल बजता है।
पखावज के बोल
भारतीय संगीत में प्राचीन काल से ही संगीत वाद्यों की एक समृद्ध परंपरा रही है। पखावज के वर्णों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि आरंभिक चरण में इसमें सिर्फ़ चार वर्ण थे — ता, दीं, थुं और ना।
ता — दाहिने हाथ के निचले हिस्से अर्थात् हथेली से दाहिनी पूड़ी पर पूरा और खुला आघात करने से उत्पन्न होने वाली ध्वनि को ‘ता’ कहा जाता है। ‘ता’ वर्ण से ही लां, रां और ऊँ आदि वर्णों की भी ध्वनि आती है। आघात करने के इस प्रकार को थाप और थपिया भी कहा जाता है।
चित्र 3.4-पखावज
दीं — दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों को एक साथ मिलाकर जब अंजुलि की तरह बनाकर पखावज की दाहिनी पूड़ी की स्याही पर खुला प्रहार करते हैं तो उससे निकलने वाली ध्वनि को ‘दीं’ कहते हैं। ‘ल’, ‘व’, ‘म’ और ‘ह’ आदि वर्णों के वादन के लिए भी इसी तकनीक का प्रयोग किया जाता है।
थुं — बायें हाथ की पाँचों अँगुलियों को एक साथ अंजुली जैसा मोड़कर जब पखावज के बायें मुख पर लगे आटे पर खुला प्रहार करते हैं तो उसे ‘थुं’ कहा जाता है। ‘ग’ और ‘घ’ वर्णों का वादन भी इसी प्रकार किया जाता है।
ना — दायें हाथ की तर्जनी अंगुली से पखावज के दाहिने मुख की चाँटी पर हलका प्रहार करते हैं तो उससे उत्पन्न ध्वनि को ‘ना’ कहा जाता है।
इन्हीं चार वर्णों के आधार पर पखावज पर बजने वाले अनेक वर्णों और बोलों की रचना हुई है। आधुनिक युग के अधिकांश विद्वान पखावज के कुल वर्णों की संख्या सात मानते हैं, जिनमें ‘ता’, ‘दीं’, ‘युं’, ‘ना’ के अलावा ‘ते’, ‘टे’ और ‘क’ शामिल हैं।
ते — कनिष्ठा, अनामिका और मध्यमा अँगुलियों को एक साथ मिलाकर पखावज के दायें मुख पर बंद वादन करने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे ‘ते’, ‘ति’ और ‘ट’ कहा जाता है। टे — तर्जनी अँगुली को अँगूठे के साथ संयुक्त करके पखावज के दायें मुख पर बजाने से निकलने वाली ध्वनि को ‘टे’, ‘ट’, ‘र’ आदि की संज्ञा दी जाती है।
ट - पखावज का ‘ट’ वर्ण अलग-अलग रचना प्रकारों में अलग-अलग तरह से बजता है। इसका ध्यान रखना होगा, जैसे— तिट के साथ ‘क’, ‘ट’ तर्जनी से बनेगा। जबकि तिरकिट और किटितक ‘का’ ‘ट’ कनिष्ठा, अनामिका और मध्यमा को संयुक्त करके बजेगा।
चित्र 3.5-प्रसिद्ध पखावज वादक पंडित पुरुषोत्तम दास
क, की और कत् — बायें हाथ की पाँचों अँगुलियों को एक साथ जोड़कर पखावज के बायें मुख पर बंद आघात करने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह ‘क’, ‘की’ और ‘कत्’ के अंतर्गत आती है।
पखावज के विद्यार्थियों को इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि इसके पढ़ंत और बजंत में अर्थात् बोलने और बजाने में कई बार अंतर हो जाता है। जैसे तक्का थुंगा में ‘त’ बायें पर ‘क’ की तरह बजेगा और ‘क’ दाहिने पर ‘ता’ की तरहा अर्थात् बोलेंगे ‘तक्का’ और बजाएँगे ‘का’। इसी तरह ‘थु’’ बायें पर बजेगा और ‘गा’ दाहिने मुख पर ‘ता’ की तरह। इसी तरह पखावज पर ‘तकिट तका’ बोल को ‘कतिटकता’ की तरह बजाते हैं।
धा — यह एक संयुक्त वर्ण है, जो दाहिने हाथ से ‘ता’ और बायें हाथ से ‘ग’ को एक साथ बजाने से ध्वनित होता है।
धुमकिट - यह पखावज का प्रमुख बोल है। ‘धु’ बायें मुख पर ‘दीं’ की तरह बजता है। ‘म’ दाहिने मुख पर बजता है। ‘कि’ बायें पर और ‘ट’ दाहिने तबले पर बजते हैं।
संगीत संबंधी किसी भी नियम की बात करते समय यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि संगीत एक सृजनात्मक कला है और इसे कभी भी पूरी तरह नियमों, सिद्धांतों में नहीं बाँधा जा सकता है। दूसरी एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि यह याद रखना चाहिए कि शास्त्र हमेशा कला का अनुगामी होता है।
अभ्यास
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
1. निम्नलिखित वर्णों के निकास की विधि लिखिए-
ति, तिं, दीं, र, न, गे, कि, कत्।
2. तबले और डग्गे पर बजाए जाने वाले निम्नलिखित बोलों के निकास की विधि लिखिए-
तिर, तिरकिट, गदिगन, घिड़नग, धागेतिट, धिटधिट, किटतक
3. तबला और डगगे के विविध स्थानों पर कौन-कौन से वर्ण बजते हैं? प्रत्येक के दो-दो उदाहरण दीजिए-
(क) चाँट
(ख) लव
(ग) तबले की स्याही
(घ) डगगे का मैदान
सही और गलत बताइड
1. तबला वाद्य पर बजने वाले मूलत: 16 वर्ण माने जाते हैं।
2. ‘दीं’ एक संयुक्त वर्ण है।
3. ‘तीं’ वर्ण तबले की लव पर बजाया जाता है।
4. ‘तिट’ बोल डग्गे की स्याही पर बजने वाला बोल है।
5. ‘तिरकिट’ एक ऐसा बोल है जो तबला और डग्गे पर बजता है।
6. ‘तूना’ बोल सिर्फ़ तबले पर बजाया जाता है।
7. ‘क’ वर्ण तबले की स्याही पर बजने वाला वर्ण है।
8. बोल का अर्थ ही वर्ण होता है।
नाना पानसे
नाना पानसे का जन्म सतारा जनपद के वाई नामक स्थान के पास, बनधन (महाराष्ट्र) में हुआ था। इनकी जन्म तिथि के विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी उपल॰्ध नहीं है। लेकिन, यह तय है कि यह उन्नीसवीं शताब्दी में रहे थे। इनका परिवार कीर्तनकारों का धार्मिक परिवार था, जिसके साथ पखावज की संगति हुआ करती थी। पखावज पर हाथ रखना सर्वप्रथम इनके पिता ने ही इन्हें सिखाया। बाद में पुणे के मान्याबा कोड़ीतकर, चौन्डे बुवा, मार्तंड बुवा, बाबू जोध सिंह और योगीराज माधव स्वामी से इन्होंने पखावज की शिक्षा ग्रहण की। कुछ लोगों का मानना है कि इनका वास्तविक नाम नारायण थोरपे था। घर में पुकारने का नाम नाना था और पाँच सौ लोगों को तबला एवं पखावज सिखाने के कारण इनके नाम के साथ ‘पानसे’ शब्द जुड़ गया।
नाना जीवन भर इंदौर के राज दरबार से जुड़े रहे। बहुत-से अन्य राजाओं ने भी उन्हें अपने दरबार में आमंत्रित किया तथा प्रलोभन भी दिए। किंतु नाना जीवनपर्यंत इंदौर में ही रहे। इंदौर के कृष्णापुरा नामक जिस मोहल्ले में नाना रहते थे, उस गली को आज भी पानसे गली के नाम से जाना जाता है। अपने शांत, सौम्य और निराभमानी स्वभाव के कारण नाना पानसे ने न तो किसी के साथ सांगीतिक प्रतियोगिता की और न किसी को पराजित ही किया।। नाना पानसे को पखावज के साथ-साथ तबला वादन का भी अच्छा ज्ञान था। अपने रचनात्मक कौशल का परिचय देते हुए नाना ने पखावज वादन की शैली में अनेक सुधारात्मक प्रयोग भी किए और अनेक रचनाएँ भी रचीं। प्राचीन शास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर इन्होंने कई तालों के ठेकों का नवीनीकरण भी किया। लोगों का मानना है कि अँगुलियों पर मात्रा गिनने की परंपरा नाना ने ही आरंभ की थी। नाना पानसे ने पखावज, तबला और कथक नृत्य— तीनों में शिष्यों को तैयार किया था। इन्होंने ‘सुदर्शन’ नामक एक नवीन ताल की भी रचना की थी। नाना की रचनाओं में पखावज और तबले की निकटता सहज ही दिखती है। इनके द्वारा रचित बोल मधुर, कर्णप्रिय और कम परिश्रम से ही द्रुत गति में बजने योग्य हैं। नाना पानसे की परंपरा की रचनाएँ चमत्कारी और चित्ताकर्षक हैं। तकतक, धुमकिट, कीटितक, घिड़नग, तिरकिट, तगिन्न और गदिगन आदि जैसे बोलों का प्राधान्य उनकी रचनाओं में दिखता था। आड़ी लय और तीन-तीन बोलों के समूह वाली रचनाएँ भी इस परंपरा में प्रचलित हैं। ऐसी मान्यता है कि नाना का निधन उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ। आज मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में जो पखावज बज रहा है, उसका बहुत बड़ा श्रेय नाना पानसे और उनके सैकड़ों शिष्यों को जाता है।