अध्याय 02 कैसे दिखते हैं तबला एवं पखावज वाद्य?

तबला

तबला उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत का प्रमुख अवनद्ध वाद्य है। इसका प्रयोग संगीत में गति या लय के मापन के लिए किया जाता है। शास्त्रीय, उपशास्त्रीय व सुगम संगीत के अतिरिक्त विभिन्न वाद्यों व कथक नृत्य में संगति के लिए तबला वाद्य का प्रयोग किया जाता है। अपने नाद सौंदर्य एवं नाद विविधता के गुणों के कारण तबला वाद्य को संगीत के विश्व मंच पर महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। आज संगीत जगत में तबला वाद्य, संगति वाद्य के अतिरिक्त एकल वादन के लिए भी प्रमुखता से जाना जाता है। संगीत सम्मेलनों में, गायन, वादन व वृत्य के साथ तबला एकल वादन के कार्यक्रमों को भी प्रमुखता से स्थान दिया जाता है। इससे कार्यक्रम में आकर्षण बढ़ जाता है।

तबला एक ऊर्धमुखी वाद्य है, जिसके मुख्य रूप से दो अंग होते हैं — दायाँ और बायाँ। साधारणतः जिसे दाहिने हाथ से बजाते हैं, उसे तबला कहते हैं और जिसे बायें हाथ से बजाते हैं, उसे बायाँ या डगा कहते हैं। तबला लकड़ी का बना होता है। इसके निर्माण में साधारणत: शीशम, नीम और बीजासार की लकड़ी का प्रयोग होता है। तबले की लकड़ी अंदर से तीन हिस्से खोखली और एक हिस्सा ठोस होती है। ठोस वाला हिस्सा नीचे की तरफ़ होता है, जिससे बजाते समय तबला अनावश्यक हिलता नहीं है। बायाँ या डगा पीतल, ताँबा या मिट्टी का बना होता है। मिट्टी के डगे के टूटने की संभावना अधिक रहती है, इसलिए आजकल पीतल या ताँबे के डगे का प्रयोग अधिक प्रचलित है। लेकिन मिट्टी के डगे की आवाज़ सबसे अच्छी मानी जाती है। डग्गे का मुख दायें तबले के मुख की तुलना में बड़ा होता है। तबला वाद्य के प्रमुख अंगों का वर्णन निम्नलिखित है-

पूड़ी — तबले के दोनों मुखों (तबला और डगा) पर बकरे की खाल मढ़ी होती है जिसे पूड़ी कहते हैं। पूड़ी के मुख्य तीन भाग होते हैं — किनार या चाँट, लव और स्याही। तबले की पूड़ी डगगे की तुलना में पतली होती है, क्योंकि तबले को ऊँचे स्वर में तथा डग्रे को नीचे स्वर में मिलाया जाता है।

चाँटी — पूड़ी के किनारे, मुख्य पूड़ी के अतिरिक्त चमड़े की एक पट्टी होती है, जिसे चाँट या किनार कहते हैं। दायें तबले की चाँट पर तबले के वर्ण — ‘ता’ या ‘न’ बजाए जाते हैं।

लव — पूड़ी पर चाँटी और स्याही के बीच के स्थान को ‘लव’ या ‘मैदान’ कहते हैं। तबले में लव पर ‘ता’ और ‘तिं’ वर्ण तथा डगगे में ‘गे’ और ‘घे’ वर्ण बजाए जाते हैं।

चित्र 2.1-तबला वाद्य की बनावट

स्याही — पूड़ी के बीच में काले रंग की गोलकार आकृति को स्याही कहते हैं। इसे लोहे के चूर्ण (राख) में लेई मिलाकर तैयार किया जाता है। स्याही को दायें तबले की पूड़ी के बीच में लगाते हैं, जबकि डग्गे में कलाई को रखकर बजाने की प्रक्रिया के कारण इसे बीच में न लगाकर, एक ओर, चाँटी की तरफ़ थोड़ा खिसकाकर लगाते हैं।

गजरा — तबले के मुख पर पूड़ी को कसने के लिए चमड़े की तीन पतली बद्धियों को आपस में गूँथकर कसा जाता है। इन आपस में गुँथी हुई माला सदृश्य बद्धियों को गजरा कहते हैं। इसके लिए गजरे में 16 छिद्र किए जाते हैं। इन्हें घर कहते हैं। तबला मिलाते समय गजरे पर आघात करके भी स्वर को ऊँचा या नीचा किया जाता है।

गट्टा — ये लकड़ी के टुकड़ों से निर्मित बेलनाकार और लगभग तीन इंच लंबाई के होते हैं। इन गट्टों का प्रयोग दाहिने तबले में किया जाता है। तबले के ऊपर कसी बद्धियों और तबले के खोड़ के बीच इन लकड़ी के गट्टों को फंसाकर रखा जाता है। इन गट्टों पर हथौड़ी से आघात करके नीचे खिसकाने से तबले के स्वर को आवश्यकतानुसार ऊँचा तथा आघात करके ऊपर खिसकाने से स्वर को आवश्यकतानुसार नीचा किया जा सकता है।

डग्गे की पूड़ी पतली होती है और तबले की मोटी, क्योंकि डग्गे को नीचे स्वर में मिलाया जाता है और तबले को ऊँचे स्वर में मिलाते हैं। पता लगाइए कि तबले की बनावट किस तरह विज्ञान से जुड़ी है।

बद्धी — यह चमड़े की डोर या पट्टी होती है। यह गजरे में किए गए छिद्रों से होती हुई, लकड़ी के गट्टों को दबाती हुए, लकड़ी के नीचे वाली इंडरी से गुज़रते हुए पूड़ी को कसती है। डग्गे में भी इसी चमड़े की बद्धी का प्रयोग किया जाता है, यद्यपि पूर्व में मज़बूत डोरी का प्रयोग किया जाता था, किंतु अब चमड़े से बनी बद्धी का ही प्रयोग दिखाई देता है।

इंडरी या गुडरी (रिंग) — यह कपड़े, नारियल की डोरी, मूंज आदि से बनी गोल आकृति की होती है, जिस पर तबला और डग्गा रखकर वादन किया जाता है। इससे तबला वादन करते समय हिलता नहीं है और तबले तथा विशेषत: डग्गे की गूँज भी बढ़ जाती है।

पखावज

पखावज उत्तर भारतीय संगीत के प्रमुख अवनद्ध वाद्यों में से एक है। ध्रुपद व धमार गायकी में संगति के लिए इसका प्रयोग होता है। संगति के अलावा इसमें एकल वादन भी खूब पसंद किया जाता है।

चित्र 2.2-तबला बजाते हुए तबला वादक

पखावज दो मुखी वाद्य है जिसे लिटाकर बजाया जाता है। शीशम, बीजा या आम की लकड़ी से इसका मूल भाग बनाया जाता है। इसकी लंबाई लगभग 75 से 80 सेंटीमीटर होती है। इसका दाँया मुख छोटा तथा बाँया मुख बड़ा होता है। इसके दायें मुख का व्यास लगभग 16 से 18 सेंटीमीटर तथा बायें मुख का व्यास लगभग 24 से 25 सेंटीमीटर का होता है। पखावज के दोनों मुखों का व्यास इसकी लंबाई के अनुपात के हिसाब से घटाया या बढ़ाया जा सकता है।

चित्र 2.3-पखावज वाद्य की बनावट

इसके बायें मुख पर गीला आटा लगाकर बजाते हैं, जिस कारण इसका स्वर नीचा और गंभीर होता है। जबकि दायें मुख पर स्याही का लेप लगा होता है और इसे बायें की तुलना में ऊँचे स्वर में रखते हैं, जिसे आवश्यकतानुसार किसी भी स्वर में मिला लेते हैं।

पखावज की आवाज उसके लकड़ी के खोल पर निर्भर करती है। क्यों? विज्ञान के इस विषय पर सोच-विचार करें

पखावज के दोनों मुखों पर चमड़े की पूड़ी लगी होती है जो गजरे के साथ बद्धियों द्वारा आपस में कसी जाती है। इसकी पूड़ी में बकरे के चमड़े का प्रयोग किया जाता है और बद्धियाँ भैंस या ऊँट के चमड़े से बनाई जाती हैं। पखावज को आवश्यकतानुसार स्वर में मिलाने के लिए इसके गजरे पर 16 घर होते हैं, जिनकी सहायता से स्वर को चढ़ाकर या उतारकर वाद्य को मिलाते हैं। इसकी बद्धियों में लकड़ी के आठ गट्टे फँसे होते हैं जो वाद्य को मिलाने में मदद करते हैं। स्याही और चाँटी के बीच जो खुला स्थान रहता है, उसे लव या मैदान कहते हैं। पखावज की ध्वनि अधिक ज़ोरदार, गूँजमय और आँसदार होती है। दक्षिण के मृदंगम् और उत्तर के पखावज में सबसे बड़ा अंतर इसके आकार का होता है। पखावज वाद्य मृदंगम् से बड़ा होता है। पखावज में मुख्य रूप से चौताल, धमार, सूलताल, आदिताल, तीव्रा, बसंत, लक्ष्मी आदि तालों का प्रयोग किया जाता है।

मृदंगम् या पखावज वाद्य के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

प्राचीन काल में इस आंकिक वाद्य को भक्ति संगीत के लिए प्रयोग में लाया जाता था। समाज के धार्मिक तथा सामाजिक उत्सवों का रामायण एवं महाभारत काल में जो वर्णन मिलता है, उससे ज्ञात होता है कि उन दिनों में मृदंगम् अत्यंत प्रचलित था। ऐसा कहा जा सकता है कि वैदिक काल के बाद और रामायण काल के बहुत वर्ष पूर्व मृदंगम् का प्रयोग आरंभ हो गया होगा। पारंपरिक मंदिरों में आज भी इसी वाद्य का प्रयोग होता है।

चित्र 2.4-पखावज बजाते हुए पंडित मोहन श्याम शर्मा व अन्य कलाकार

अभ्यास

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. संगीत जगत में तबला वाद्य जाना जाता है-

(क) एकल वादन हेतु

(ख) संगति हेतु

(ग) ध्रुपद की संगति हेतु

(घ) क तथा ख दोनों के लिए

2. दायाँ तबला किससे बनता है?

(क) मिट्टी

(ख) पीतल

(ग) ताँबा

(घ) लकड़ी

3. किस वस्तु से निर्मित डग्गे की आवाज़ सर्वोत्तम मानी जाती है?

(क) लकड़ी

(ख) धातु

(ग) मिट्टी

(घ) फाइबर

4. चाँट पर बजने वाले वर्ण कौन-से हैं?

(क) ता/न

(ख) गे/घे

(ग) धा/धिं

(घ) तू/ना

5. पखावज में कितने घर होते हैं?

(क) 12

(ख) 10

(ग) 8

(घ) 16

6. पखावज किससे बनता है?

(क) लकड़ी

(ख) मिट्टी

(ग) धातु

(घ) अन्य

7. पखावज के बायें मुख पर क्या लगाते हैं?

(क) गीला आटा

(ख) लोहे का चूर्ण

(ग) स्याही का लेप

(घ) केमिकल पाउडर

8. पखावज की बद्धियाँ किससे बनी होती हैं?

(क) बकरे का चमड़ा

(ख) भैंस का चमड़ा

(ग) नारियल की मूँज

(घ) सूती डोरी

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

1. उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत में लय-ताल हेतु किस प्रमुख अवनद्ध वाद्य का प्रयोग किया जाता है?

2. तबले की पूड़ी के मुख्य भाग कितने होते हैं? उनके नाम बताइए।

3. तबले और डग्गे के मैदान या लव पर बजने वाले वर्ण बताइए।

4. ध्रुपद और धमार में किस अवनद्ध वाद्य का प्रयोग संगति हेतु किया जाता है?

5. तबले की स्याही किससे बनती है?

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. तबले में गजरे का महत्व बताइए।

2. तबले का तीन हिस्सा भाग खोखला व नीचे का भाग ठोस होता है। इसके वैज्ञानिक कारण बताइए।

3. तबले को स्वर में मिलाने के लिए तबले के किन-किन भागों पर आघात करते हैं?

4. पखावज की सामान्य लंबाई व उसके दोनों मुखों का व्यास बताइए।

5. पखावज के दायें मुख का स्वर बायें मुख की अपेक्षा किस प्रकार भिन्न होता है?

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

1. पखावज की लंबाई लगभग ________ सेंटीमीटर होती है।

2. तबला _________ श्रेणी का वाद्य है।

3. पखावज _________ मुखी वाद्य है।

4. बायें तबले को _________ नाम से भी जाना जाता है।

5. पखावज के बायें मुख पर _________ का लेप लगाया जाता है।

सुमेलित कीजिए

(क) सूलताल 1. तबला
(ख) कहरवा 2. पखावज
(ग) झपताल 3. पखावज
(घ) रूपक 4. तबला
(ड़) तीव्रा 5. तबला

विद्यार्थियों हेतु गतिविधि

अपनी पसंद के किसी संगीत वाद्य पर निम्नलिखित बिंदुओं के अनुसार एक परियोजना (प्रोजेक्ट) तैयार करें-

  • यह वाद्य किन वस्तुओं से बना होता है?
  • इसकी बनावट की विधि क्या है?
  • वाद्य के विभिन्न अंगों के नाम लिखिए।
  • वाद्य से संबंधित किन्हीं तीन प्रसिद्ध कलाकारों के नाम बताइए।
  • आज के समय में इस वाद्य का प्रयोग किन-किन रूपों में हो रहा है?
  • वाद्य को त्रि-आयामी (3D) आकार में बनाइए।

शिक्षक हेतु गतिविधि

बच्चों द्वारा संगीत वाद्यों की प्रतिकृति बनवाइए, जैसे— कौंगो, बौंगो, तबला, वीणा, पत्ते से बनी सीटी आदि।

आओ जानें- विद्यार्थियों हेतु

  1. संगीत संबंधी स्टैम्प इकट्डी कीजिए तथा संगीत की पुस्तिका में उन्हें चिपकाइए।
  2. तबले एवं पखावज के चित्र देखकर उनके भिन्न-भिन्न भागों को नामांकित कीजिए।
  3. वाद्यों की बनावट एवं जिन वस्तुओं से इसका निर्माण होता है, स्पष्टत: विज्ञान एवं पर्यावरण की ओर इशारा करते हैं। इन सभी तथ्यों को लेकर एक परियोजना बनाइए।

आओ जानें- शिक्षक हेतु

  1. प्रसिद्ध तबला एवं पखावज वादकों के चित्र तथा उनसे संबंधित वीडियो विद्यार्थियों को दिखाइए।
  2. कक्षा में नारियल के खोल तथा किसी अन्य खोखली वस्तु पर तबला या पखावज बनवाकर बच्चों को उसे बजाने के लिए प्रेरित कीजिए।

अहमद जान थिरकवा

उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद नामक शहर में संगीतज्ञों के प्रसिद्ध और पारंपरिक परिवार में सन् 1891 में, उस्ताद अहमद जान थिरकवा का जन्म हुआ था। पिता हुसैन बख्श, चाचा शेर खाँ, नाना कलंदर बख्श, मामा फैयाज़ खाँ व वस्वा खाँ अच्छे संगीतज्ञ थे और अहमद जान ने इन सबसे संगीत की शिक्षा प्राप्त की। लेकिन उनकी गुरु की तालाश तब पूरी हुई, जब उन्होंने उस्ताद मुनीर खाँ को अपना गुरु बनाया जो मुंबई में रहते थे। बाद में दिल्ली घराने के खलीफ़ा उस्ताद नत्थू खाँ का मार्गदर्शन भी इन्होंने प्राप्त किया। फ़र्रूखाबाद, दिल्ली, लखनऊ और अजराड़ा बाज के हस्तसिद्ध ताबलिक उस्ताद अहमद जान थिरकवा को शुरुआती सफलता नट सम्राट बाल गंधर्व की प्रसिद्ध महाराष्ट्र नाटक कंपनी में ताबलिक की हैसियत से काम करने पर मिली। उस्ताद अहमद जान थिरकवा को रामपुर सहित अनेक राजाओं का राज्याश्रय प्राप्त था। रामपुर के नवाब ने ही इनकी थिरकती अंगुलियों से प्रभावित होकर इन्हें थिरकवा की उपाधि दी थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद खाँ साहब लखनऊ स्थित भातखंडे संगीत महाविद्यालय (अब विश्वविद्यालय) में सहायक प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए।

चित्र 2.5 -अहमद जान थिरकवा

खाँ साहब चारों पट के तबलिये थे। उन्होंने बहुत ही आकर्षक स्वतंत्र वादन तो किया ही था इसके साथ ही गायन, वादन और कथक नृत्य की भी बहुत अच्छी संगति की। कम लोगों को ज्ञात है कि उन्होंने कथक नृत्य के शिखर पुरुष पंडित अच्छन महाराज और पंडित बिरजू महाराज के नृत्य की संगत की थी। आज लगभग हर घराने के ताबलिक-

“धींक्ड धींधा 5 धा धींधा धाति धाति 5 धा धीधा”

नामक जिस पेशकार से अपने वादन का आरंभ करते हैं, उसे प्रचारित करने का श्रेय खाँ साहब को जाता है। खाँ साहब के तबले में गतिशीलता नहीं थी, किंतु बड़े मुँह के तबले पर मध्यम गति में जब वे वादन करते थे, तो उनके तबले से निकली गूँज लोगों को सम्मोहित कर लेती थी। घरानागत पारंपरिक गुणों का पूरी तरह पालन करते हुई भी वादन को लगातार कर्णाप्रिय, रोचक और सरस बनाए रखना उनकी विशेषता थी। लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय से सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे मुंबई के नेशनल सेंटर फ़ॉर परफ़ार्मिंग आर्ट्स (एन.सी.पी.ए.) में तबला अध्यापक रहे।

खाँ साहब को कई मान-सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें राष्ट्रपति की ओर से स्वर्ण पदक मिला था। वे प्रथम तबला वादक थे, जिन्हें पद्मभूषण मिला था। उनके जीवन पर भारत सरकार द्वारा एक वृतचित्र भी बनाया गया था। उनके वादन का ध्वन्यांकन अनेक व्यावसायिक-अव्यावसायिक कंपनियों और संस्थानों ने किया। पंडित निखिल घोष, लालजी गोखले, प्रेम बल्लभ, सूर्यकांत गोखले, सुधीर संसारे, राजकुमार शर्मा, एम. वी. भिंडे, नारायण जोशी, मोहन लाल जोशी, सुधीर कुमार वर्मा, सरवत हुसैन आदि शिष्यों ने इनकी परंपरा का पर्याप्त प्रचार-प्रसार किया। खाँ साहब का आकस्मिक निधन 13 जनवरी, 1976 को लखनऊ में हुआ था।



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