अध्याय 10 प्रमुख घराने
घराना भारतीय शास्त्रीय संगीत शिक्षण पद्धति की एक विशेष परंपरा है। घराना शब्द का मूल अर्थ है— एक कुटुंब अथवा परिवार के लोग और संबंधी जो अपने घराने की प्रतिष्ठा और सम्मान का संरक्षण करने के लिए अपने परंपरागत रीति-रिवाजों, मर्यादाओं तथा अनुशासन आदि का पालन करते हुए उसे दृढ़ता प्रदान करते हैं। इसीलिए संगीत के संदर्भ में भी घराना शब्द का उच्चारण करते ही मन में सबसे पहले यदि कोई कल्पना आती है तो उसमें परंपरा, गायकी या वादन शैली के कुछ विशेष तौर-तरीके, अनुशासन एवं क्रम आदि का बोध होता है। इसके साथ ही यह शब्द परिवार की भावना को भी इंगित करता है जिसमें पिता-पुत्र तथा अन्य सभी सदस्यों के बीच प्रेम व श्रद्धा का भाव बना रहता है। संगीत के संदर्भ में भी ‘घराने’ घराना शब्द की इसी सार्थकता पर आधारित रहे। गायन, वादन व नृत्य कलाओं में परंपरागत कलात्मक शुद्धता व स्वरूप के संरक्षण व विकास के प्रयत्न किए जाने के फलस्वरूप ही संगीत के विभिन्न घराने मध्यकालीन सामाजिक परिस्थितियों के कारण विकसित होते चले गए। इन घरानों में संगीत कला के परंपरागत ज्ञान की वंशानुगत सुरक्षा, शुद्धता तथा शिष्य व प्रशिष्यों के माध्यम से कला की मौखिक प्रवाहशीलता को सुरक्षित रखने पर भी बल दिया गया। अत: कहा जा सकता है कि संगीत की पारंपरिक विशेषताओं को सुरक्षित रखने के प्रयत्नों में ही घरानों का विकास हुआ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकास में घरानों का विशेष योगदान रहा है। मध्य काल के अंत में अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ ही जब रियासतें टूटीं तब राजदरबारों और रियासतों में राज्याश्रित कलाकार जनसाधारण के संपर्क में आने लगे। गुरु-शिष्य परंपरा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है, जिसका आश्रय लेते हुए इन संगीतकारों ने भी अपने संगीत की विशेषताओं को अपने पुत्रों और शिष्यों के माध्यम से प्रवाहित किया। कालांतर में यही विशेषताएँ उनकी गायकी के रूप में चिह्नित की गईं। गायकी की पहचान के लिए धीरे-धीरे विशिष्ट घराने पनपने लगे जिनकी पहचान उन महान संगीतज्ञों के नाम या उनके निवास स्थान अथवा जिन राज्यों का आश्रय उन्हें प्राप्त था, उन राज्यों के नाम के रूप में होने लगी। घराने को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि एक गुरु की अगली तीन पीढ़ियों तक उसकी वंश परंपरा या शिष्य परंपरा में उसकी गायकी की विशेषताएँ उभरने पर ही कोई घराना विशिष्ट घराने के रूप में स्थापित हो सकता है। संगीत में विकसित घरानों की संख्या वैसे तो बहुत है परंतु मूल घरानों के रूप में जिन्हें महत्व दिया गया उनमें से कुछ प्रमुख घराने अगले पृष्ठ पर दिए गए हैं।
- ग्वालियर घराना
- आगरा घराना
- किराना घराना
- जयपुर घराना
- दिल्ली घराना
- पटियाला घराना
- रामपुर-सहसवान घराना
- सेनिया घराना
उपरोक्त घरानों में से सेनिया घराना तंत्री वाद्यों की वादन परंपरा से संबद्ध है। सेनिया घरानों के अतिरिक्त अन्य घरानों के पूर्वजों में कदाचित् सारंगी वादक होने पर भी वह मूलत: ध्रुपद गायकी तथा ख्याल गायकी की परंपरा से संबद्ध हैं। इन घरानों की वंश परंपरा व शिष्य परंपरा तथा उनकी गायन व वादन शैली की विशेषताओं का यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है जो इस प्रकार है-
ग्वालियर घराना
ग्वालियर घराने के जन्मदाता हद्दू खाँ व हस्सू खाँ के दादा नत्थन पीर बख्श माने जाते हैं। इनकी परंपरा में हद्दू खाँ व हस्सू खाँ के अतिरिक्त मेंहदी हुसैन खाँ, रहमत खाँ मोहम्मद खाँ एवं निसार हुसैन खाँ के नाम प्रमुख हैं। ग्वालियर घराने की गायकी के प्रचार का विशेष श्रेय जिन कलाकारों को जाता है उनमें बालकृष्ण बुआइचल करंजीकर, वासुदेव जोशी व बाबा दीक्षित मुख्य हैं।
बालकृष्ण बुआइचल करंजीकर के शिष्य पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने ग्वालियर घराने की गायकी को विशेष रूप से प्रचलित किया। जिसके फलस्वरूप उनके पंडित ओंकार नाथ ठाकुर, पं. विनायक राव पटवर्धन तथा पं. नारायण राव व्यास, निसार हुसैन खाँ की परंपरा में शंकर पंडित, राजा भैया पूछवाले आदि इस घराने के अग्रणी गायक बने।
ग्वालियर घराने की रचनाएँ ख्याल अधिकतर विलंबित लय में तिलवाड़ा तथा एकताल में और मध्य लय की रचनाएँ तीनताल में हुआ करती हैं। इस घराने में अन्य तालों का भी व्यवहार होता है परंतु पहले बताई हुई तालें ही प्रमुख रहती हैं। साधारणत: विलंबित ख्याल में शब्दों के बीच में आकार का अधिक प्रयोग होता है। छोटी-छोटी मुर्कियों और तानों का भी प्रयोग किया जाता है। ग्वालियर घराने की गायकी की विशेषताएँ-
- ज़ोरदार तथा खुली आवाज़ का गायन
- बंदिश के शब्दों में स्पष्टता
- ध्रुपद अंग के ख्याल
- सीधी व सपाट तानें
- बोल तानों में लयकारी
- गमकों का प्रयोग
- इस घराने के किसी गायक/गायिका से संपर्क कीजिए। एक परियोजना बनाइए उनके/द्वारा गाए जाने वाले विभिन्न रागों में 5 बंदिशों का विश्लेषण कीजिए।
आगरा घराना
आगरा घराने के प्रवर्तक हाजी सुजान खाँ माने जाते हैं। आगे चलकर घग्ेे खुदाबख्श द्वारा इस घराने का प्रचार हुआ। घग्घे खुदाबख्श ने ग्वालियर के नत्थन पीर बख्श से ख्याल की शिक्षा पाई थी। इसी कारण आगरा घराने की बहुत-सी गायन विशेषताएँ ग्वालियर घराने से साम्यता रखती हैं। आगरा घराने में उस्ताद फैयाजज खाँ का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने इस घराने को बहुत प्रसिद्धि दिलायी। विलायत हुसैन खाँ, नत्थन खाँ, गुलाम अब्बास खाँ, भास्कर राव, श्रीकृष्ण नारायण रातंजनकर, दिलीप चन्द्र बेदी तथा विलायत हुसैन खाँ के पुत्र यूनुस हुसैन खाँ आदि इस घराने के प्रमुख गायक हुए। आगरा घराने की गायकी की विशेषताएँ-
- नोमतोम का आलाप
- बंदिश का लयकारी युक्त गायन
- खुली तथा जोरदार आवाज़
- ख्याल गायकी के अतिरिक्त ध्रुपद-धमार में प्रवीणता
- बोल तानों में कुशलता
किराना घराना
किराना घराने के प्रर्वतक बंदे अली खाँ को माना जाता है। अब्दुल करीम खाँ तथा अब्दुल वहीद खाँ ने इस घराने को विशेष रूप से प्रतिष्ठित किया। सवाई गंधर्व, सुरेश बाबू माने आदि इस घराने के प्रसिद्ध गायक थे। किराना घराने के प्रतिनिधियों में उस्ताद अमीर खाँ, रजबअली खाँ, गंगूबाई हंगल, भीमसेन जोशी, रोशनआरा बेगम, हीराबाई बड़ोदकर आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। किराना घराने की गायकी की विशेषताएँ-
- स्वर लगाने की विधि में विशेष चिकनापन
- आलाप प्रधान ख्याल गायकी
- मींड प्रधान ठुमरी गायकी
- एक-एक स्वर को धीर–धीरे आगे बढ़ाते हुए गायन क्रम
- मींड तथा गमकयुक्त तान क्रिया
जयपुर घराना
इस घराने को जयपुर-अतरौली घराना भी कहा जाता है। इस घराने के जन्मदाता भूपत खाँ ‘मनरंग’ माने जाते हैं। आगे चलकर इस घराने के दो भाग हो गये — पटियाला घराना तथा अल्लादिया खाँ घराना। इस घराने के प्रसिद्ध गायकों में गुलाम गौस खाँ, इमाम बख्श, छज्जू खाँ, केसरबाई केरकर, किशोरी अमोनकर आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जयपुर घराने की गायकी की विशेषताएँ-
- खुली आवाज़
- ख्याल गायन की विशेष बोलबनाव युक्त अदाकारी
- वक्र तानों तथा आलाप की छोटी-छोटी तानों से बढ़त
- बोल, उपज तथा अनाघात लय का प्रयोग
- इन तीनों घरानों में दिए गए कलाकारों द्वारा गाई जाने वाली रिकॉर्ड को सुनिए और गाने की विधि में वैचित्र को बताइए।
दिल्ली घराना
मियाँ अचपल को दिल्ली घराने का संस्थापक माना जाता है। इन्हीं के शिष्य तानरस खाँ प्रतिष्ठित एवं उत्कृष्ट गायक थे। इस घराने में ख्याल गायकी का प्रसार मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के समय में हुआ। उस्ताद चाँद खाँ ने इस घराने की गायकी को उच्च शिखर तक पहुँचाया एवं अनेक कलाकार तैयार किए। इनमें उस्ताद उमराव खाँ, उस्ताद नसीर अहमद खाँ, उस्ताद ज़फर इकबाल खान आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। दिल्ली घराने की गायकी की विशेषताएँ -
- राग की शुद्धता एवं उनके सिद्धांत का पूर्ण रूप से पालन
- कलापूर्ण ख्याल बंदिशें
- मींड, गमक और लहक का प्रयोग
- राग की बढ़त में गहनता
- विभिन्न प्रकार की घरानागत तानों का प्रयोग, जैसे— उलझाव की तान, सवाल-जवाब की तान, झूला की तान, फंदे की तान आदि
- ताल और लय पर अधिकार
पठियाला घराना
इस घराने का विकास पंजाब की पटियाला रियासत में होने के कारण यह पटियाला घराना कहलाया। इसके संस्थापक के रूप में अली बख्श तथा फ़तेह अली, जिनकी जोड़ी अलिया-फत्तू के नाम से प्रसिद्ध है, उनके नामों को मान्यता प्राप्त है। अली बख्श के पुत्र बड़े गुलाम अली खाँ ने इस घराने का नाम रोशन किया। बड़े गुलाम अली खाँ के शिष्यों में प्रमुख हैं- उनके पुत्र मुनव्वर अली खाँ, अमानत अली, अजय चक्रवर्ती, मीरा बनर्जी, प्रसून बनर्जी आदि। पटियाला घराने की गायकी की विशेषताएँ-
- रचनाओं में चपलता
- अलंकारिक वक्र तथा फिरत की तानों का प्रयोग
- छोटे ख्यालों की कलापूर्ण बंदिशें
- गायन में पंजाब का अंग या टप्पा शैली का प्रभाव
- ठुमरी गायन में निपुणता
- तैयार तानों का अधिक प्रयोग
रामपुर-सहसवान घराना
हद्दू खाँ के दामाद इनायत खाँ हुसैन के द्वारा रामपुर-सहसवान घराने की स्थापना की गई। यह घराना ग्वालियर घराने का उप-घराना माना जाता है। इस घराने की गायकी ग्वालियर घराने की गायकी से बहुत मिलती-जुलती है। इमदाद खाँ, इनायत हुसैन खाँ, मुश्ताक हुसैन खाँ, निसार हुसैन खाँ, वारिस हुसैन खाँ, गुलाम मुस्तफा खाँ आदि सुप्रसिद्ध एवं अत्यंत कुशल संगीतजों के नाम यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। रामपुर-सहसवान घराने की गायकी की विशेषताएँ-
- स्वर की स्पष्टता पर महत्व
- राग के विस्तार में क्रम का विशेष अनुपालन
- तराना गायकी में निपुणता
- खुली एवं जोरदार आवाज़
- दिल्ली घराना, पटियाला घराना और रामपुर-सहसवान घराने के गायकों की एक सूची बनाइए। इनका संगीत सुनिए और उनमें से कितने लोग विदेश में किस-किस जगह यात्रा कर चुके हैं? क्या उन्होंने भी शिष्य बनाए और उनको सिखाया? कृपया परियोजना बनाइए पोस्ट भी बना सकते है और कक्षा में इन्हें लगाइए।
सेनिया घराना
उत्तर भारतीय हिंदुस्तानी संगीत में वादकों के घरानों में सेनिया घराने का महत्वपूर्ण स्थान है। सेनिया घराना विशेषत: सितार तथा सुरबहार के लिए प्रसिद्ध है। इस घराने के प्रतिपादक तानसेन के दामाद मिसरी सिंह माने जाते हैं। संगीतकार जैसे — मसीत खाँ, मुश्ताक अली खाँ, सुख सेन, बहादुर सेन, रहीम सेन, अमृत सेन, बरकतउल्ला खाँ, आशिक अली खाँ, देबू चौधरी इत्यादि के नाम इस घराने में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस घराने के कलाकारों की यह विशेषता है कि वे सिर्फ़ 17 परदों में सितार बजाते हैं। तारों को मिज़राब से न छेड़ कर, अँगुलियों से स्वरों को बजाना भी इस घराने की खूबियों में से एक है। सेनिया घराने की शैली में बीन अंग और ध्रुपद अंग की शैलियाँ अपनाई गई थीं। राग में स्वरों की शुद्धता एवं बंदिशों में राग की स्वच्छता, गमक और मींड का प्रयोग सेनिया घराने की अनूठी पहचान है।
सारांश
घराना शब्द से परंपरागत रीति-रिवाजों, गायकी या वादन शैली के कुछ विशेष तौर-तरीके, अनुशासन एवं क्रम आदि का बोध होता है। गायन, वादन व नृत्य कलाओं में परंपरागत कलात्मक शुद्धता व स्वरूप के संर्षण व विकास के प्रयत्न किए जाने के फलस्वरूप ही संगीत के विभिन्न घराने मध्यकालीन सामाजिक परिस्थितियों के कारण विकसित होते चले गए। गुरु शिष्य परंपरा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है, इसी परंपरा का आश्रय लेते हुए इन संगीतकारों ने भी अपने संगीत की विशेषताओं को अपने पुत्रों और शिष्पों के माध्यम से प्रवाहित किया। भारतीय संगीत में गायन एवं स्वर वादन के कुछ प्रमुख घराने हैं।
- ग्वालियर घराना
- आगरा घराना
- किराना घराना
- जयपुर घराना
- दिल्ली घराना
- पटियाला घराना
- रामपुर-सहसवान घराना
- सेनिया घराना
विशेष शब्द
ग्वालियर घराना, आगरा घराना, किराना घराना, जयपुर घराना, दिल्ली घराना, पटियाला घराना, रामपुर-सहसवान घराना, सेनिया घराना
अभ्यास
इस पाठ को आप पढ़ चुले हैं। आइये, नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करें-
1. घराने को पारिभाषित कीजिए।
2. संगीत में गायन व वादन के प्रमुख घरानों का नाम दीजिए।
3. ग्वालियर घराने के संस्थापक कौन थे?
4. आगरा घराने की विशेषताओं का ग्वालियर घराने की विशेषताओं से मेल खाने का प्रमुख कारण क्या है?
5. दिल्ली घराने की स्थापना किसने की थी?
6. भूपत खाँ का उपनाम क्या है? यह किस घराने के जन्मदाता है?
7. अलिया फत्तू ने किस घराने का प्रचार-प्रसार किया?
8. रामपुर-सहसवान घराने की स्थापना किसने की?
9. वाद्य-यंत्र सितार व सुरबहार का सुप्रसिद्ध घराना कौन-सा है?
10. हिंदुस्तानी संगीत में घरानों के महत्व को विस्तार से समझाइए।
11. ग्वालियर घराने की गायकी की विशेषताओं को समझाते हुए इस घराने के प्रमुख कलाकारों के नाम लिखिए।
12. आगरा घराने के प्रवर्तक कौन थे? इस घराने की गायकी की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
13. किराना घराने के प्रतिनिधियों के नाम दीजिए। इस घराने की गायकी की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
14. दिल्ली घराने का सविस्तार वर्णन करिए।
15. पंजाब में विकसित घराने की विशेषताएँ बताइए।
16. सितार वादन के क्षेत्र में सेनिया घराने के योगदान पर प्रकाश डालिए।
17. कौन-सा घराना ग्वालियर घराने का उपघराना माना जाता है? इस घराने की विशेषताएँ लिखिए।
बहु विकल्पीय प्रश्न-
1. बालकृष्ण बुआइचल करंजीकर के शिष्य कौन हैं?
(क) अमृत सेन
(ख) कुमार गंधर्व
(ग) मीरा बैनर्जी
(घ) पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर
2. गंगूबाई हंगल किस घराने से संबंधित हैं?
(क) ग्वालियर घराना
(ख) पटियाला घराना
(ग) आगरा घराना
(घ) किराना घराना
3. अली बख्श के पुत्र कौन थे?
(क) नत्थन खाँ
(ख) छण्जू खाँ
(ग) गुलाम गौस खाँ
(घ) बड़े गुलाम अली खाँ
4. मनरंग किसका उपनाम है?
(क) रजब अली खाँ
(ख) भूपत खाँ
(ग) तानरस खाँ
(घ) नसीर अहमद खाँ
5. दिलीपचन्द बेदी का संबंध किस घराने से है?
(क) आगरा घराना
(ख) जयपुर घराना
(ग) पटियाला घराना
(घ) दिल्ली घराना
6. बंदे अली खाँ किस घराने के प्रवर्तक हैं?
(क) दिल्ली घराना
(ख) सेनिया घराना
(ग) किराना घराना
(घ) ग्वालियर घराना
7. सुरबहार वाद्य के लिए प्रसिद्ध घराना-
(क) पटियाला घराना
(ख) सेनिया घराना
(ग) अतरौली घराना
(घ) ग्वालियर घराना
संगीत में कुछ प्रसिद्ध नाम
अमीर खुसरो
एक लेखक के अनुसार, खुसरो का जन्म 658 हिजरी यानि 1234 ई. का माना जाता है। इनका जन्म स्थान एटा जिले में पटियाली नामक स्थान को माना जाता है। अमीर खुसरो के पिता अमीर मुहम्मद सैफुद्दीन शम्सी तुर्की जाति के थे और हिंदुस्तान में आने के बाद ही इनके यहाँ पर अमीर खुसरो का जन्म हुआ। अमीर खुसरो अत्यंत ही बुद्धिमान थे। अमीर खुसरो गुलाम घराने के गयासुद्दीन बलवन के आश्रय में रहे, लेकिन कुछ दिनों के बाद गुलाम घराने का अंत हो गया तथा सल्तनत खिलजी वंश के कब्जे में आ गई। अत: अमीर खुसरो भी खिलजी वंश के आश्रय में आ गये।
मुसलमानी शासकों में अलाउद्दीन खिलजी पहला व्यक्ति था, जिसने संगीत की ओर रुचि प्रदर्शित की थी। उसके दरबार में अमीर खुसरो नामक एक विख्यात विद्वान थे। वह कई भाषाओं के ज्ञाता, फारसी के महान कवि और संगीत कला के मर्मज थे। उन्होंने भारतीय संगीत में अरबी, ईरानी, तूरानी तत्वों का समावेश कर मिश्रित राग और नवीन वाद्य यंत्रों का आविष्कार किया था। भारत और ईरानी संगीत को मिला कर उन्होंने जिन नए रागों का प्रचलन किया, उनमें साजगिरी, उश्शाक, ज़िला सरपरदा उल्लेखनीय हैं। उन्होंने भारत की परंपरागत
चित्र क-अमीर खुसरो डीहलवी के खमसा से, 16 वीं शताब्दी
वीणा के रूप में परिवर्तन कर एक नए वाद्य यंत्र का निर्माण किया, जो अपने तारों की संख्या के कारण ‘सहतार’ और फिर परिवर्तित हो कर ‘सितार’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अमीर खुसरो ने गायन की एक नवीन शैली को भी जन्म दिया, जो ‘कव्वाली’ कहलाती है। राग-वर्गीकरण का एक नवीन प्रकार के राग गृहीत स्वरों से निकाल उन्होंने रागों के गाने योग्य तद्देशीय भाषा में नए-नए गीतों की रचना की। यही गीत आगे चलकर ‘ख्याल’ के नाम से प्रसिद्ध हुए अत: ख्याल के जन्मदाता के रूप में भी अमीर खुसरो को मान्यता दी जाती है। ऐसा कहा जा सकता है कि अमीर खुसरो ने संगीत के क्षेत्र में अविस्मरणीय कार्य किया है। इनका देहावसान लगभग 72 वर्ष की आयु में हुआ।
चित्र ख- भारत सरकार द्वारा अमीर खुसरो का जारी किया गया टिकट
स्वामी हरिदास
चित्र ग— भारत सरकार द्वारा स्वामी हरिदास का जारी किया गया टिकट
स्वामी हरिदास का जन्म सन् 1512 में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले खैर कस्बा के एक छोटे से गाँव में हुआ था। इसी कारण उस गाँव का नाम बाद में हरिदासपुर हो गया। इनके पिता का नाम श्री आशुधीर था। वे मुल्तान जिला (अब पाकिस्तान का हिस्सा) के उच्च ग्राम निवासी थे तथा इनकी माता का नाम गंगा देवी था। दोनों ही धार्मिक स्वभाव के थे और साधु-संतों के बड़े भक्त थे।
स्वामी हरिदास ने 25 वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था और वृंदावन आकर ‘निधिवन निकुंज’ में कुटिया बनाकर रहने लगे थे। एक मिट्टी का बर्तन और एक गुदड़ी ही स्वामी हरिदास की संपत्ति थी। जीवन की कम से कम आवश्यकताओं की पूर्ति उन्हें अधिक संतोषजनक रखती थी। वे बस ईश्वर की अराधना और संगीत-साधना में लीन रहते, क्योंकि बाल्यकाल से ही संगीत संस्कार स्वाभाविक रूप से उनके अंदर विद्यमान थे। वृंदावन में निवास करके स्वामी हरिदास ने ब्रजभाषा में अनेक ध्रुपदों की रचना की तथा वे उन रचनाओं को शास्त्रीय संगीत के रागों व तालों में गाकर जिज्ञासुओं व खुद को आत्मविभोर किया करते थे।
स्वामी हरिदास के संगीत को सुनने के लिए बड़े-बड़े राजा-महाराजा उनके द्वार पर खड़े रहते थे। सम्राट अकबर ने भी तानसेन के साथ आकर गुप्त रूप से स्वामी हरिदास का गायन सुना। इस संदर्भ में एक कहानी प्रचलित है कि एक बार अकबर ने तानसेन से पूछा कि क्या कोई मानव इस धरती पर तुम से भी अच्छा गायन कर सकता है? तब तानसेन ने बहुत ही सहजता के साथ अपने गुरु स्वामी हरिदास का नाम लिया। इतना सुनकर बादशाह अकबर यह मधुर गायन सुनने को विचलित हो उठे। बादशाह ने आग्रह किया कि स्वामी हरिदास को सादर दरबार में बुलाया जाए, परंतु स्वामी हरिदास नहीं गए क्योंकि वे अपनी कुटिया छोड़कर कहीं नहीं जाते थे। तब अकबर तानसेन के साथ वृंदावन गए और स्वामी हरिदास जी की कुटिया के निकट एक झाड़ी में छुपकर बैठ गए। वहाँ तानसेन ने स्वामी के सामने जान-बूझकर एक ध्रुपद को अशुद्ध गा दिया। स्वामी हरिदास ने आश्चर्यचकित होकर तानसेन को डाँटा और उसका शुद्ध रूप सुनाया। बाहर छिपे बादशाह अकबर आत्मविभोर हो गये और ऐसा कहा जाता है कि अकबर ने कुटिया के अंदर जाकर स्वामी हरिदास के चरण स्पर्श किए।
स्वामी हरिदास के मुख्य शिष्यों में तानसेन, बैजू बावरा, मदनराय, रामदास, दिवाकर पंडित, सोमनाथ पंडित और राजा शौरसेन इत्यादि शामिल हैं। नादविनोद नामक ग्रंथ में दिये गए हैं। दक्षिण भारत में कर्नाटक संगीत गाए-बजाए जाने वाले क्षेत्रों को छोड़कर समस्त देश में वर्तमान में प्रचलित शास्त्रीय संगीत, स्वामी हरिदास व उनके शिष्यों की ही विभूति है। संगीत-कल्पद्रुम में बहुत-सी रचनाएँ स्वामी हरिदास की ही रची हुई प्रतीत होती हैं। आजकल ब्रज में जो रास-लीला प्रचलित है उसको स्वामी हरिदास की ही देन समझना चाहिए। स्वामी हरिदास गायन के अतिरिक्त वादन व नृत्य में भी पारंगत थे। कहते हैं कि उन्होंने धमार, त्रिवट एवं चतुरंग की भी रचना की थी। ‘सखी संप्रदाय’ नामक एक सांगीतिक पुष्टिमार्गीय धार्मिक संप्रदाय भी उन्हीं की देन है।
स्वामी हरिदास का स्वर्गवास सन् 1607 में हुआ। ‘निधिवन निकुंज’ नामक कुटिया को भवन का रूप भी दे दिया गया है जिसके अंदर स्वामी हरिदास की मूर्ति भी लगी हुई है। वृंदावन में भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को प्रतिवर्ष एक समारोह के रूप में उनकी जयंती मनाई जाती है।
सामता प्रसाद मिश्र उर्फ़ गुदई महाराज
चित्र घ — सामता प्रसाद मिश्र उर्फ़ गुदई महाराज
बनारस घराने के प्रसिद्ध तबला वादक पंडित सामता प्रसाद उर्फ गुदई महाराज का जन्म बनारस में 20 जुलाई, 1921 को हुआ था। इनके पिता पंडित बाचा मिश्र भी अच्छे तबला वादक थे। अत: सामता प्रसाद मिश्र की शिक्षा की शुरुआत उन्होंने ही की थी। किंतु वह जब मात्र छह वर्ष के थे तभी इनके पिता का निधन हो गया। अत: इनकी शिक्षा का दायित्व इनके मौसैरे भाई पंडित विक्रमादित्य मिश्र उर्फ़ खलीफा पंडित बिक्कू महाराज ने अपने ऊपर ले लिया। पंडित बिक्कू महाराज की गहन देख-रेख में 15-16 घंटे के प्रतिदिन के अभ्यास ने पंडित सामता प्रसाद में असीमित ऊर्जा का संचार कर दिया। इनका बचपन बहुत गरीबी में बीता। उन दिनों आर्य समाज के जुलूस में वह बैलगाड़ी पर बैठकर तबला बजाया करते थे। लेकिन 1942 में जब इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में उस्ताद अलाउद्दीन खाँ के साथ अपना जादुई तबला वादन प्रस्तुत किया तो लोगों ने इन्हें बहुत पसंद किया। उसके बाद इन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। तिरकिट, तकतक, धिनगिन और धिरधिर किटितक जैसे बोलों पर इनका विशेष प्रभुत्व था। बाएँ की स्याही का भाग अपनी ओर रखकर इन्होंने उसमें जो गूँज पैदा की वह असामान्य थी कई लोगों ने इस खूबी को अपनाने की कोशिश की है। साधारण और विशेष, इनके तबले की चटक और टनक प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी।
दिल्ली के विज्ञान भवन में इसका चमत्कारिक तबला वादन सुनकर रूस के राष्ट्रपति खुश्चेव इतने प्रभावित हुए कि रूस के मई दिवस के प्रसिद्ध समारोह में इन्हें आमंत्रित किया गया। वहाँ दुनिया भर के शासनाध्यक्षों ने इनका वादन सुना और इनका लोहा माना। यहीं से सामता प्रसाद विश्व रंगमंच पर प्रसिद्ध हो गए। भारत के लगभग सभी बड़े संगीतकारों के साथ इन्होंने लगभग सभी बड़े मंचों पर अपना वादन प्रस्तुत किया। गायन और नर्तन तीन विधाओं की सफल संगति करने के साथ-साथ मुक्त तबला वादन में भी यह अपना विशिष्ट स्थान रखते थे। मेरी सूरत तेरी आँखें, बसंत बहार, सुरेर व्यासी, जलसा घर, झनक-झनक पायल बाजे, महबूबा, किनारा और शोले आदि जैसी अनेक फ़िल्मों को भी अपने जादुई वादन से इन्होंने सजाया था।
गुदई महाराज, तबला का जादूगर, ताल मार्तण्ड, ताल शिरोमणि, तबला विजार्ड, ताल विलास, तबला सम्राट, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, हाफ़िज़ अली खाँ सम्मान और पद्मश्री तथा पद्मभूषण के अलंकरण से अलंकृत थे। इनके दोनों पुत्र पंडित कुमार लाल मिश्र और कैलाश नाथ मिश्र अच्छे तबला वादक हैं। शिष्यों में जे. मेसी, पार्थ सारथी मुखर्जी और सत्य नारायण वशिष्ठ के नाम प्रमुख हैं। पंडित सामता प्रसाद गुदई महाराज का आकस्मिक निधन 21 मई 1994 को पुणे में हुआ। वह एक कार्यशाला में भाग लेने के लिए गए थे, जहाँ हृदय गति रुक जाने से उनका निधन हो गया।
सदारंग-अदारंग
सदारंग का असली नाम नियामत खाँ और अदारंग का फिरोज खाँ था। सदारंग-अदारंग को ही ख्याल गायकी के प्रचार-प्रसार का श्रेय जाता है। इन्होंने अनेक ख्यालों की रचनाएँ भी की थीं। यद्यपि ख्याल गेय विधा की निर्मिती का श्रेय अमीर खुसरो को दिया जाता है। परंतु वास्तव में ख्याल गेय विधा प्रबंध, ध्रुपद, आदि गीतियों के तत्वों को ग्रहण करते हुए कालक्रम में विकसित एक ऐसी गेय विधा बनी जिसमें स्वर, ताल व लय के सौंदर्य को प्रकाशित करने की बहुत स्वतंत्रता थी। इसीलिए समय के साथ-साथ उसका प्रचार होता गया। मुगलकाल में 15 वीं शताब्दी में सुल्तान हुसैन शर्की द्वारा तथा 18 वीं शताब्दी में मुहम्मद शाह रंगले के दरबारी गायकों व बीनकारों के रूप में सदारंग व अदारंग द्वारा ख्याल की अनेक रचनाएँ बनाई गईं। उन रचनाओं में ‘रंगीले’ शब्द का प्रयोग बादशाह को प्रसन्न करने के उद्देश्य से करते किया गया। इन रचनाओं का ख्याल गेय विधा की रचनाओं के रूप में प्रचार किया। सदारंग व अदारंग स्वयं ध्रुपद गाते थे, जो उस समय की प्रतिष्ठित विधा मानी जाती थी।
चित्र ड.— सदारंग और अदारंग
उस समय ‘ख्याल’ को कुछ निम्न श्रेणी की सांगीतिक विधा माना जाता था। सदारंग,अदारंग तथा रंगीले शब्दों के साथ मुहम्मद शाह अर्थात् बादशाह के नाम के प्रयोग की नीति अपनाने से न केवल सदारंग व अदारंग को संगीत के क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त हुई बल्कि ख्याल गेय विधा की लोकप्रियता भी बढ़ती गई। वह खुद ध्रुपद गाते मगर शिष्यों को केवल ख्याल ही सिखाते थे। उनके गीतों में भृंगारिकता और बादशाह रंगीले की प्रशंसा अधिक पायी जाती है। इसीलिए इन्होंने अपना उपनाम ‘सदारंगीले’ रखा और बाद में सदारंग से लोकप्रियता पाई। सदारंग ने परंपरागत ख्याल गायकी को नया रूप दिया जिसमें ‘मोहम्मद शाह’ ‘सदारंगीले’ तथा ‘सदारंग’ ‘अदारंग’ शब्दों का भरपूर प्रयोग किया। सदारंग का कई विधाओं और अनेक भाषाओं पर अधिकार था, अतः उनकी रचनाएँ, कविता व भाषा की दृष्टि से बड़ी प्रभावशाली थीं। उन्होंने बीन वादन में अनेक नवीन प्रयोग किए तथा अवधी, ब्रजभाषा, उर्दू, फारसी तथा हिंदी भाषा का प्रयोग करते हुए अनेकानेक ख्याल रचनाएँ कीं। ख्याल गायकी के प्रचार-प्रसार में अदारंग यानी फिरोज खाँ की भी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। नियामत खाँ के दो पुत्र थे— फिरोज खाँ और भूपत खाँ (मनरंग)। दोनों ने ही संगीत में उच्च स्थान प्राप्त किया। इस प्रकार पिता व पुत्र संगीत क्षेत्र की ख्याल शैली के साथ इतिहास के पन्नों में ‘सदारंग-अदारंग’ नाम हमेशा के लिए अमर कर गये।
बेजू और गोपाल
चित्र च— बैजनाथ मिश्र कैजू बावरा’
बैजू यानि बैजनाथ मिश्र का जन्म गुजरात के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह 16 वीं शताब्दी में मियाँ तानसेन के समकालीन ध्रुपद गायक थे। बाल्यकाल में ही उनके पिता का देहांत हो गया था, अत: उनके पालन-पोषण का भार उनकी माता पर आ गया। बैजू की माता श्रीकृष्ण की उपासिका थी। उनके प्रभाव से बैजू भी अपनी बाल्यावस्था में ही श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त हो गए थे।
अहमदाबाद के नरेन्द्राराय शुक्ल ने आकाशवाणी से प्रसारित अपनी वार्ता में बैजू को गुजराती सिद्ध किया है। ऐसी मान्यता है कि गुजरात में ‘बावरा’ नामक एक जनजाति का निवास था। बैजू उसी जाति के होने के कारण ‘बैजू बावरा’ कहलाए। यदि यह सत्य है, तो बैजू के गुजराती होने की पुष्टि होती है। बैजू ने अनेक ध्रुपदों की रचना की। बैजू, तानसेन के मित्र एवं एक दृष्टि से उनके प्रतिद्वंद्वी भी थे। यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है कि नायक बैजू एवं बैजू बावरा ये दोनों ही अलग-अलग गायक थे। 16 वीं शताब्दी में अकबर के राज्यकाल में स्वर्गवासी हो गए। अकबर बादशाह के समय में ये दिल्ली में निवास करते थे तथा वह उसी समय के प्रसिद्ध गायक गोपाल नायक के गुरु भी थे।
अलाउद्दीन खिलजी ने जब 1294 ई. में देवगिरी (दक्षिण) पर चढ़ाई की थी तब उस समय वहाँ रामदेव नामक राजा राज्य करता थे। इसी राजा के आश्रय में गोपाल नायक दरबारी गायक थे। इसी समय अमीर खुसरो और गोपाल नायक की संगीत प्रतियोगिता हुई। अमीर खुसरो ने भी हृदय से उनकी विद्वता का सम्मान किया। दिल्ली में भी गोपाल नायक को गायक के रूप में सम्मान प्राप्त हुआ।
इतिहास के संकेतानुसार, गोपाल नायक 1294-95 ई. के बीच दिल्ली पहुँचे। उस समय के उपलब्ध संस्कृत ग्रंथों में ध्रुवपद नामक प्रबंध का उल्लेख नहीं मिलता है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि गोपाल नायक ध्रुवपद नहीं गाते थे। उनके समय में संभवत: अन्य प्रबंध प्रचलित थे, जो तमिल, संस्कृत आदि भाषाओं में होते थे। इस बारे में विद्वान एकमत दिखाई नहीं देते थे। गोपाल नायक ब्राह्मण जाति के थे और देवगिरि के पश्चात् इनके जीवन का शेष भाग दिल्ली में व्यतीत हुआ। इनकी मृत्यु भी दिल्ली में हुई।
बैजू ने अपने अनेक ध्रुपदों में गोपाल को आदरपूर्वक ‘गोपाल नायक’ कहकर संबोधित किया है। उन दोनों की संगीत-प्रतिद्वंद्विता की बात प्रामाणिक जान पड़ती है, क्योंकि बैजू के अनेक ध्रुपदों में ही इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने सुप्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ हिन्दी साहित्य का इतिहास में लिखा है- ‘बैजू बावरा एक प्रसिद्ध गवैया था, जिसकी ख्याति तानसेन से पहले देश में फैली हुई थी।
परखें अपना सांगीतिक ज्ञान
1. लौकी के लंबे तुम्बों को एक साथ जोड़कर बनाया जाने वाला संगीत वाद्य कौन-सा है?
क. भूंगल
ख. तरपा
ग. पुंगी
घ. नागफनी
2. संगीत रत्नाकर के अनुसार मार्गी एवं देशी तालों की कुल संख्या कितनी है?
क. 113
ख. 108
ग. 120
घ. 125
3. निम्न में से कौन-सी जम्मू कश्मीर की लोक विधा है?
क. गिद्दा
ख. बारहमासा
ग. घमर
घ. रउफ
4. रे म प नि ध प, ध म, परे म प निम्न में से किस राग की पकड़ है?
क. आसावरी
ख. भूपाली
ग. यमन
घ. भैरव
5. निम्नलिखित में से कौन-सा राग कल्याण थाट का है?
क. भैरव
ख. यमन
ग. आसावरी
घ. भीमपलासी
6. नाट्यशास्त्र ग्रंथ की रचना किसने की?
क. शार्ड्ग्गदेव
ख. मतंग
ग. लोचन
घ. भरत
7. निम्नलिखित में से कौन-सा गीत महाराष्ट्र के लोकगीतों का प्रकार है?
क. भाटियाली
ख. कजरी
ग. मांड
घ. लावणी
8. ध्रुपद की कितनी वाणियाँ होती थीं?
क. 6
ख. 7
ग. 4
घ. 5
9. ‘रावणहत्था’ किस प्रदेश का लोक वाद्य है?
क. पंजाब
ख. केरल
ग. मध्य प्रदेश
घ. राजस्थान
10. इनमें से कौन-सा लोक गीत बंगाल का नहीं हैं?
क. सारी गान
ख. झुमुर गान
ग. बिहू
घ. जारी गान
11. सोल्फ़ा नोटेशन पद्धति में स्वरों को किस नाम से जाना जाता है?
क. स, रे, ग, म , प, ध, नि
ख. सी, डी, ई, एफ, जी, ए, बी
ग. 1,2,3,4,5,6,7
घ. डो, रे, मी, फा, सोल, ला, ती
12. भातखण्डे लिपि पद्धति में सम का चिह्न-
क. +
ख. 0
ग. $\times$
घ. 5
13. केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी की स्थापना कब हुई?
क. 1950
ख. 1952
ग. 1948
घ. 1954
14. थाट-राग वर्गीकरण अवधारणा किसने दी?
क. भातखण्डे
ख. पलुस्कर
ग. बृहस्पति
घ. ओमकार नाथ ठाकुर
15. एकताल का प्रयोग प्राय: किस गायन शैली के साथ होता है?
क. ध्रुपद
ख. ख्याल
ग. ठुमरी
घ. टप्पा