अध्याय 09 विभिन्‍न तालाे के ठेके एवं लयकारी

मानव ने सभ्यता के विकास के साथ-साथ प्रयास किया कि उसके उपार्जित अनुभव और विचार भविष्य के लिए भी संचित रह सकें। संभवतः लिपि का जन्म इसी का परिणाम है। संगीत को लिपिबद्ध करना ही संगीत की रचनाओं को सुरक्षा कवच पहनाना है। लिपिबद्ध होने से बंदिश के मूल स्वरूप की रक्षा होती है। यही बात उसके एक मुख्य अंग ताल के साथ भी है। राग और ताल संबंधित क्रियात्मक रचनाओं को व्यवस्थित रीति से विभिन्न संकेतों द्वारा लिपिबद्ध करके समय-समय पर कई लिपि पद्धतियों का निर्माण विद्दानों द्वारा किया गया है। आधुनिक काल अर्थात् 18 वीं-19वीं शताब्दी में मौलाबख्श, सौरनन्द्र मोहन टैगोर, क्षेत्र मोहन गोस्वामी, पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर तथा पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे जैसे विद्वानों ने संगीत को लिपिबद्ध करने के लिए अलग-अलग लिपि पद्धतियाँ अपनाईं।

क्या आपने किसी स्वरलिपि के नीचे इन चिह्रों को देखा है- $\times, 0,2,3 \ldots$ आइए, समझते हैं कि इन चिह्नों का हमारे संगीत में क्या महत्व है?

पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे ने विभिन्न ताल में निबद्ध रचनाओं को लिखने के लिए ताल लिपि का निर्माण किया। यह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रचलित लिपि है।

पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे द्वारा बनाई गई ताल-स्वर लिपि पद्धति की विशेषताएँ निम्न हैं-

  • प्रभम मात्रा से अंतिम मात्रा तक को ताल चिह्नों एवं ठेके के बोलों सहित प्रदर्शित किया जाता है।

  • उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में ताल की प्रथम मात्रा पर हमेशा ही सम होती है। इस ताल पद्धति में सम के चिह्न को दर्शाने के लिए ’ $x$ ’ का प्रयोग किया जाता है।

  • खाली के चिह्न को दर्शाने के लिए ’ 0 ’ का प्रयोग किया जाता है। खाली एक से अधिक होने पर भी उसे ’ 0 ’ से ही प्रदर्शित किया जाता है। रूपक ताल में पहली मात्रा पर खाली होती है, किंतु वह सम भी है। अतएव रूपक में प्रथम मात्रा पर खाली का चिह्न प्रदर्शित किया जाता है और इसलिए चौथी मात्रा पर प्रथम ताली के रूप में ताली की संख्या एक ’ 1 ’ लिखी जाती है तथा छठी मात्रा पर दूसरी ताली होती है।

उदाहरण रूपक ताल-

तिं तिं ना धि ना धि ना
0 1 2
  • ताल के विभागों को अलग करने के लिए खड़ी पाई अर्थात् ‘।’ इस चिह्न का प्रयोग किया गया है।

  • विभागों में ताली के लिए ताली की संख्या लिख दी जाती है, जैसे- त्रिताल में पाँचवीं और तेरहवीं मात्रा पर दो और तीन की संख्या लिख दी जाती है। उदाहरण के लिए, त्रिताल का ठेका-

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
बोल धा धिं धिं धा धा धिं धिं धा धा तिं तिं ता ता धिं धिं धा
चिह्न $\times$ 2 0 3
  • विश्रांति या ठहराव के लिए ‘ऽ’ के चिह्न का प्रयोग होता है। यदि किसी बोल को दो मात्रा काल तक गाया या बजाया जाना है तो उस विस्तार को दर्शाने के लिए ऽ चिह्न का प्रयोग किया जाता है, जैसे— धा 5 , धीं 5 , । तीन मात्रा के लिए धा ऽऽ या धिं ऽ ऽ | चार मात्रा के लिए धा ऽऽऽ , धिं ऽऽऽ , ता ऽऽऽ , तिं ऽऽऽ आदि जो हमनें पहले ही देखा है।

  • एक मात्रा में एक वर्ण के लिए अलग से कोई चि््न नहीं लगाया जाता है, जैसे- धा, धीं, ती आदि।

  • एक मात्रा काल में एक से अधिक स्वर या बोल होने पर उनके नीचे अर्धचंद्र लगाया जाता है, जैसे-

$ \quad $ 1 $ \quad $ 2 $ \quad $ 3 $ \quad $ $4 \ldots \ldots \ldots \ldots . . . .$. $ \quad $

$ \quad $ कन्हैया $ \quad $ ऽऽ $ \quad $ तोरी $ \quad $ साँवरी …………… $ \quad $

1. ताल की प्रथम मात्रा हमेशा किस चिह्न से दशाई जाती है?

2. ०- इस चिह्न का नाम बताएँ।

3. ताल लिपि पद्धति के संरचक कौन थे?

4. ताली की संख्या कैसे दर्शाते हैं?

तालों का उनके ठेकों सहित विवरण

संगीत में समय नापने के साधन को ‘ताल’ कहते हैं। यह संगीत में व्यतीत हो रहे समय को मापने का वह महत्वपूर्ण साधन है जो भिन्न-भिन्न मात्राओं, विभागों, ताली और खाली के योग से बनता है। ताल, संगीत को अनुशासित करता है। संगीत को एक निश्चित स्वरूप देने में ताल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इन तालों को उनके ठेकों द्वारा पहचाना जाता है। उत्तर भारतीय संगीत में प्रयुक्त तालों के ठेके होते हैं जो इसकी निजी विशेषता है। किसी भी ताल का वह मूल बोल जिसके द्वारा उस ताल की पहचान होती है, उस ताल का ‘ठेका’ कहलाती है। किसी ताल के ठेके की रचना उस ताल की प्रकृति, यति-गति, ताली, खाली, विभाग आदि को ध्यान में रखकर की जाती है। यद्यपि उत्तर भारतीय तालों के ठेकों में कहीं-कहीं विरोधाभास भी दृष्टिगत होता है। कुछ प्रचलित तालों को छोड़ दिया जाए तो कई तालों के अलग-अलग ठेके भी प्रचार में देखने को मिलते हैं।

प्राचीन काल से जब संगीत का विकसित रूप समाज में प्रचलित हुआ, उसके बहुत बाद इसके शास्त्र पक्ष का लेखन भी आरंभ हुआ। भरत कृत नाट्यशास्त्र वह पुराना ग्रंथ है जिसमें संगीत के शास्त्र की महत्वपूर्ण चर्चा की गई है। ऐसे तो नाट्यशास्त्र मूलत: नाट्य शास्त्र को प्रदर्शित करता है, किंतु इसमें संगीत का भी समग्र विवेचन हमें मिलता है। इससे यह निश्चित भी होता है कि लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व के नाटकों में संगीत एक मुख्य घटक के रूप में प्रचलित था।

मध्यकालीन समय का संक्षिप्त विवरण

संगीत को लिखित रूप में समझाने के लिए लिपि की आवश्यकता हुई जो सांगीतिक स्वर, लय, ताल तथा प्रबंध आदि को लिखित रूप में प्रदर्शित करने के लिए आवश्यक हो गई। नाट्यशास्त्र में केवल तालों की चर्चा करते समय लघु, गुरु और प्लुत से क्रमशः एक मात्रा, दो मात्रा एवं तीन मात्राओं को प्रदर्शित किया गया है। इनके चिह्न क्रमश: $1,5,5$ निश्चित किए गए हैं। नाट्यशशास्त्र के पश्चात् भी इस दिशा में प्रयास होते रहे, जिनमें मुख्य रूप से बृहद्देशीकार मतंग तथा संगीत रत्नाकर के रचयिता शार्ड्गयदेव का योगदान उल्लेखनीय है।

वैदिक लघु गुर प्लुत
मात्रा काल 1 मात्रा 2मात्रा 3 मात्रा

आधुनिक काल अर्थात् 18-19वीं शताब्दी में, मौलाबख्श, सौरेन्द्र मोहन टैगोर, डाहयालाल शिवराम आदि ने संगीत को लिपिबद्ध करने के लिए नवीन पद्धतियाँ अपनाईं।

उन्नीसवों शताब्दी में दो महान विभूतियों का जन्म हुआ। इन्हें हम पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे तथा पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के नाम से जानते हैं। इन दोनों विभूतियों ने महसूस किया कि शास्त्रीय संगीत की शिक्षा सर्व सामान्य को सहज रूप में उपलब्ध नहीं है। अत: पंडित

चित्र 9.1 - असम का लाकनृत्य ढोल एवं पंपा क साथ

विष्णु नारायण भातखण्डे ने विभिन्न विद्वानों और संगीत प्रेमी पूँजीपतियों की मदद से बड़ौदा, ग्वालियर, लखनऊ आदि स्थानों पर संगीत की विद्यालयी शिक्षा का सूत्रपात किया। वहीं दूसरी ओर पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने लाहौर में वर्ष 1901 में गांधर्व महाविद्यालय की स्थापना कर संगीत शिक्षण को साधारण लोगों के लिए सुलभ कराया।

इन दोनों संगीतोद्धारक विभूतियों ने इस बात को समझा कि विद्यालयी शिक्षा में संगीत सिखाते समय सहज और सरल संगीत लिपि आवश्यक होगी। विष्णु द्वय ने अपने-अपने तरीके से संगीत लिपियों का प्रचार एवं प्रसार किया। इनमें से पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे द्वारा निर्मित संगीत पद्धति को भातखण्डे स्वर ताल लिपि पद्धति; पलुस्कर द्वारा प्रणीत पद्धति को पलुस्कर स्वर ताल लिपि पद्धति कहा गया।

इनमें से भातखण्डे संगीत लिपि पद्धति सहज और सरल होने के कारण जज्यादा प्रचलित हुई। पंडित पलुस्कर के दो प्रसिद्ध शिष्यों पंडित ओंकारनाथ ठाकुर तथा पंडित विनायक राव पटवर्धने ने पलुस्कर संगीत लिपि पद्धति में अपनी दृष्टि से कतिपय परिवर्तन कर प्रकाशित पुस्तकों में उन लिपियों का उपयोग किया। इसके बाद पद्मभूषण पंडित निखिल घोष ने भी एक संगीत लिपि पद्धति का निर्माण किया। वहीं 20 वीं शताब्दी के श्रेष्ठतम तबला वादक उस्ताद अहमद जान थिरकवा के वरिष्ठ शिष्य पंडित नारायण जोशी ने तबले की रचनाओं को उनके निकास संबंधी चिह्नों का प्रयोग करते हुए एक लिपि निर्मित की।

जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे के सद्र्र्यासों से विभिन्न स्थानों पर संगीत विद्यालयों और महाविद्यालयों का प्रारंभ हुआ, जिनकी एक लंबी शृंखला बनी। इनमें भातखण्डे के द्वारा रचित ग्रंथों क्रमिक पुस्तक मालिका, हिंदुस्तानी संगीत, लक्षण गीत संग्रह इत्यादि का प्रचलन शिक्षण प्रदान करने में सहायक हुआ। अतएव भातखण्डे स्वर/ताल लिपि पूरे देश में अधिक प्रचलित हुई।

  1. समय को नापने की विधि को संगीत में क्या कहा जाता है?
  2. समय को नापने की विधि बताएँ।
  3. ठेका क्या होता है? इसकी विशेषता बताइए।
  4. नाट्यशास्त्र में ताल की चर्चा किस प्रकार की गई?
  5. संगीत की कुछ विभूतियों के नाम बताइए जिन्होंने ताल लिपि पद्धति में अपना योगदान दिया।

सभी तालों के ठेकों को कंठस्थ बोलने का अभ्यास करिए। ठाह, दुगुन, तिगुन और चौगुन, हाथ की तालियों और इशारों से बोलने का प्रयास करिए।

उत्तर भारतीय संगीत में तबले पर बजाई जाने वाली प्रचलित प्रमुख तालों के ठेकों का विवरण निम्न प्रकार है-

त्रिताल (तीनताल)

त्रिताल अथवा तीनताल तबले का सर्वाधिक महत्वपूर्ण, लोकप्रिय एवं प्रचलित ताल है। शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और फ़िल्म संगीत तक में इसका प्रयोग होता है। यह उन गिने-चुने तालों में से है, जिसका प्रयोग विलंबित से द्रुत लय तक में होता है। तिलवाड़ा, पंजाबी अद्धा एवं जत (16 मात्रा) आदि ताल भी त्रिताल के ही प्रकार हैं। दक्षिण भारत का आदि ताल और उत्तर भारत का त्रिताल कई दृष्टियों से समान है। दोनों ही अत्यंत प्राचीन ताल हैं। त्रिताल में 16 मात्राएँ होती हैं जो 4/4/4/4 मात्राओं में विभाजित होती हैं। अत: यह सम पदीताल है। इसमें पहली, पाँचवीं और तेरहवीं मात्रा पर ताली तथा नौवीं मात्रा पर खाली होती है। यह चतस्त्र जाति की ताल है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
बोल धा धिं धिं धा धा धिं धिं धा धा तिं तिं ता ता धिं धिं धा
चिह्न $\times$ 2 0 3

दुगुन

तिगुन

चौगुन

एकताल

एकताल तबला का अत्यंत लोकप्रिय और प्रचलित ताल है। यह चतस्त्र जाति का सम पदीताल है। इसका प्रयोग विलंबित, मध्य एवं द्रुत लय के ख्याल एवं गत की संगति के लिए किया जाता है। तबले का एकल वादन भी इसमें होता है। इसके विभाग $2 / 2 / 2 / 2 / 2 / 2$ मात्राओं के होते हैं। इसमें 12 मात्रा, छह विभाग, चार ताली और दो खाली होती हैं। इसकी तालियाँ क्रमश: 1, 5, 9 तथा 11 मात्राओं पर होती हैं। खाली 3 तथा 7 मात्रा पर है।

मात्रा 1 2 4 5 6 7 8 9 10 11 12
बोल धिं धिं धागे तिरकिट तू ना त्ता धागे तिरकिट धिन
चिह्न $\times$ 0 2 0 3 4

दुगुन

तिगुन

चौगुन

दादरा ताल

दादरा तबले की अत्यंत लोकप्रिय ताल है। उपशास्त्रीय, सुगम, लोक और फ़िल्मी संगीत में इसका खूब प्रयोग होता है। कजरी, भजन और गजल तथा लोकगीतों के साथ दादरा मुख्य रूप से बजाया जाता है। तबले के साथ-साथ ढोलक, नाल, ताशा, नक्कारा, दुक्कड़ आदि जैसे वाद्यों पर भी यह ताल खूब बजता है। मूलत: चंचल और भृंगारिक प्रकृति का ताल होने के कारण यह प्राय: मध्य और द्रुत लय में ही बजता है, किंतु दादरा की संगति के समय इसकी लय धीमी हो जाती है। इसमें बजने वाली लगी लड़ी आकर्षक होती है। दादरा ताल में छह मात्राएँ हैं, जो $3 / 3$ मात्राओं के विभाग में बँटी हैं। पहली मात्रा पर ताली और चौथी मात्रा पर खाली है। यह सम पदीताल है। इस ताल की जाति तिस्त्र है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6
बोल धा धी ना धा ती ना
चिह्न $\times$ 0

दुगुन

तिगुन

चौगुन

कहरवा ताल

उत्तर भारत में कहार नामक एक जाति है, जो पहले पानी का व्यवसाय करती थी। इनके द्वारा प्रस्तुत समूह लोक नृत्य को ‘कहरवा नाच’ कहा जाता है। अत: कहरवा ताल के उद्गम का मूल स्रोत वही है। यह मूलत: लोक संगीत का ताल है जो सुगम संगीत और फ़िल्म संगीत में भी खूब लोकप्रिय हुआ है। तबले के साथ-साथ ढोलक, ताशा, नक्कारा, नगाड़ा एवं नाल आदि पर भी इसका खूब वादन होता है। अनेक गीत, गज़ल एवं भजन आदि इस ताल में निबद्ध हैं। यह मूलत: चंचल प्रकृति का और संगति का ताल है। इसमें तबले का स्वतंत्र वादन नहीं होता है। इसकी खूनसूरत किस्में और लगी-लड़ी श्रवणीय होती हैं। यह आठ मात्राओं का समपद ताल है, जिसके $4 / 4$ मात्राओं के दो विभाग हैं। 1 मात्रा पर ताली और 5 मात्रा पर खाली है। यह चतस्त्र जाति का ताल है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8
बोल धा गे ति क धि
चिह्न $\times$ 0

दुगुन

तिगुन

चौगुन

चारताल अथवा चौताल

चारताल अथवा चौताल पखावज का अत्यंत लोकप्रिय और प्राचीन ताल है। ध्रुवपद गायन, ध्रवपद अंग के वादन तथा पखावज पर मुक्त वादन के लिए इस ताल का मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है। वर्तमान काल में तबले पर भी इस ताल को बजाने की प्रथा चल पड़ी है, वादन विद्यार्थी तबले पर भी इसे बजाते हैं। यह खुले और जोरदार शैली का समपदी ताल है। इस ताल में कुल 12 मात्राएँ और छह विभाग हैं। चार तालियाँ क्रमश: $1,5,9$ और 11 मात्राओं पर हैं तथा दो खाली तीसरे और सातवें पर है, इसकी जाति चतस्त्र है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
बोल धा धा दि ता किट धा दि ता तिट कत गदि गन
चिह्न $\times$ 0 2 0 3 4

दुगुन

तिगुन

चौगुन

सूलताल

यह पखावज का लोकप्रिय और प्रचलित ताल है। इसका वादन मध्य और द्रुत लय में होता है। ध्रुवपद अंग के गायन और वादन के साथ इसका वादन होता है। पखावज पर स्वतंत्र वादन के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। इसके बोल खुले और जोररदार होते हैं। यह चतस्त्र जाति का सम पद ताल है। इस ताल में 10 मात्राएँ और पाँच विभाग होते हैं। तीन तालियाँ क्रमश: 1,5 और 7 मात्राओं पर होती हैं। दो खाली भी हैं जो कि 3 और 9 मात्राओं पर होती हैं।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
बोल धा धा दि ता किट धा तिट कत गदि गन
चिह्न $\times$ 0 2 3 0

दुगुन

तिगुन

चौगुन

इस ताल का एक और ठेका भी प्रचलित है-

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
बोल धा धिड़ नग दीं घिड़ नग ग द् दी घिड़ नग
चिह्न $\times$ 0 2 3 0

तीव्रा या तेवरा

यह पखावज का प्राचीन, महत्वपूर्ण और प्रचलित ताल है जो तबला वादकों में भी लोकप्रिय है। तेज़ गति में बजने के कारण ही इसका नाम तीव्रा पड़ा। ध्रुपद्र अंग के गायन और वादन की संगति के साथ-साथ एकल वादन के लिए भी इस ताल का चयन किया जाता है। इसके विभाग $3 / 2 / 2 /$ मात्राओं के हैं। अत: यह मिश्र जाति का विषम पदीताल है। यह खुले और ज़ोरदार वर्णों से निर्मित ताल है। इसमें सात मात्राएँ, तीन विभाग और तीन तालियाँ क्रमश: 1,4 और 6 मात्राओं पर हैं। इस ताल में खाली नहीं है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7
बोल धा दिं ता तिट कत गदि गन
चिह्न $\times$ 2 3

दुगुन

तिगुन

चौगुन

धमार ताल

पखावज का यह अत्यंत लोकप्रिय और प्रचलित ताल तबला वादकों और कथक नर्तकों में बहुत लोकप्रिय है। 14 मात्रा में निबद्ध होरी गायन की संगति धमार ताल द्वारा ही की जाती है। इसलिए उस गायन शैली को भी धमार कहा जाता है। विषम पदी यह ताल बोलों की दृष्टि से मिश्र जाति का है जबकि ताल विभाग की दृष्टि से संकीर्ण जाति का। इस पर स्वतंत्र वादन भी खूब होता है। वीणा, सुरबहार, सरोद, सितार और संतूर आदि पर भी धमार अंग की गतें बजती हैं। यह एकमात्र ताल है जिसका सम बाएँ पर बजता है। इसमें 14 मात्राएँ, चार विभाग, तीन ताली और एक खाली होती है। 1,6 और 11 मात्रा पर ताली तथा 8 मात्रा पर खाली है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14
बोल धि धि धा ति ति ता
चिन्न $\times$ 2 0 3

दुगुन

तिगुन

चौगुन

क्या आप इन लयकारी में गणित देख पाते हैं? परियोजना बनाइए।

सारांश

पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे ने विभिन्न ताल में निबद्ध रचनाओं को लिखने के लिए ताल लिपि का निर्माण किया।

विशेष शब्द

त्रिताल (तीनताल), एकताल दादरा, ताल, कहरवा ताल, चारताल, चौताल, सूलताल, तीव्रा, तेवरा, धमार ताल

अभ्यास

इस पाठ को आप पढ़ चुके हैं। आइये, नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करें -

1. नाट्यशास्त्र में ताल को किस तरह प्रदर्शित किया गया है?

2. नाट्यशास्त्र में प्रयोग किए गए तालों के चिह्नों को बताइए।

3. 1901 में लाहौर में किसने और कौन-से संगीत महाविद्यालय की स्थापना की थी?

4. पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के दो महान शिष्यों के नाम बताइए।

5. उस्ताद अहमद जान थिरकवा किस वाद्य यंत्र के महारथी थे?

6. तीन ताल का तिगुन लिखिए।

7. दादरा ताल के बोल लिखकर उसका दुगुन लिखिए।

8. ध्रुपद में किन-किन तालों का प्रयोग होता है। उन तालों का तिगुन और चौगुन लिखिए।

9. हिंदुस्तानी ताल पद्धति में किस ताल में सिर्फ़ आठ मात्राएँ हैं? उस ताल को विस्तृत रूप में लिखिए।

10. पखावज पर बजने वाला सूलताल कितनी मात्राओं का होता है? एक गुण लिखकर बताइए।

11. विलंबित ख्याल गाने के लिए किन-किन तालों का प्रयोग किया जाता है? उन तालों को ताल पद्धति के अनुसार लिखकर बताइए।

12. विष्णु नारायण भातखण्डे द्वारा बनाई गई ताल पद्धति के चिह्नों का वर्णन कीजिए।

बहुविकल्पीय प्रश्न-

1. तीनताल में पाँचवीं मात्रा पर कौन-सा बोल है?

(क) ती

(ख) ना

(ग) धा

(घ) धीना

2. एकताल में कितने विभाग होते हैं?

(क) 12

(ख) 6

(ग) 3

(घ) 2

3. सूलताल कितनी मात्राओं का ताल है?

(क) सात मात्रा

(ख) बारह मात्रा

(ग) दस मात्रा

(घ) नौ मात्रा

4. दादरा में कितनी मात्राएँ हैं?

(क) 2

(ख) 3

(ग) 4

(घ) 6

5. कहरवा ताल में कितने ताल के चिह्न होते हैं?

(क) 5

(ख) 1

(ग) 3

(घ) 2

6. दादरा ताल में कितने विभाग होते हैं?

(क) 3

(ख) 2

(ग) 4

(घ) 1

7. तीनताल कितनी मात्राओं का होता है?

(क) 12

(ख) 8

(ग) 16

(घ) 18

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

1. ताल का नाम ____________ ।

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
धा धि $\ldots$ $\ldots$ धा $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ ति ता ता $\ldots$ $\ldots$ धा
1 2 $\ldots$ 3

2. ताल का नाम __________________ ।

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
धिं $\cdots$ धागे $\ldots$ तू ना $\ldots$ $\ldots$ $\ldots$ तिरकिट $\ldots$ ना
$\times$ $\ldots$ $\ldots$ 0 $\ldots$ 4

3. ताल का नाम __________________ ।

1 2 3 $\ldots$ 5 6
धा $\ldots$ ना धा ती
$\times$ $\ldots$

4. ताल का नाम __________________ ।

1 2 3 4 5 6 7 8
धा $\ldots$ ना $\ldots$ ना $\ldots$ धि $\ldots$
$\times$ 0

5. ताल का नाम __________________ ।

1 2 $\ldots$ $\ldots$ 5 6 $\ldots$ $\ldots$ 9 10
धा धा दि $\ldots$ $\ldots$ धा तिट $\ldots$ $\ldots$ गन
$\times$ $\ldots$ 2 $\ldots$ 4

6. ताल का नाम __________________ ।

1 2 3 $\ldots$ $\ldots$ 6 7 8 $\ldots$ $\ldots$ 11 12
धा धा $\ldots$ $\ldots$ किट $\ldots$ $\ldots$ ता तिट $\ldots$ $\ldots$ गन
$\times$ 0 2 $\ldots$ $\ldots$ 4

विभाग ‘अ’ के शब्दों का ‘आ’ विभाग में दिए गु शब्दों से मिलान करें-

(क) क्रमिक पुस्तक मालिका 1. आठ मात्रा
(ख) गांधर्व महाविद्यालय 2. 1901
(ग) धागे तिरकिट बोल 3. $9,10,11,12$
(घ) चारताल में तिटकत गदिगन 4. विष्णु नारायण भातखण्डे
(ङ) सूलताल की जाति 5. एकताल
(च) कहरवा 6. चतस्त्र जाति

विद्यार्थियों हेतु गतिविधि-

1. कोई भी लोकगीत जो बच्चों को पसंद हो, उसे ताल पद्धति में लिखिए।

2. सभी बच्चों को फ़िल्मी गीत पसंद होते हैं, एक फ़िल्मी गीत जो त्रिताल में गाया गया है, उसकी चार पंक्तियों को ताल पद्धति में लिखिए।

3. आपके राज्य में प्रचलित किन्हीं पाँच लोकगीतों को लिखिए। उस पर विचार करते हुए बताइए कि उसमें किन-किन तालों का प्रयोग किया गया है।

4. कक्षा में पढ़ते संगीत गायन के सहपाठियों से बंदिशों में मौसम के विवरण पर बातचीत कीजिए, उनका चयन कीजिए एवं बताइए कि किस तरह शब्दों को स्वरलिपि एवं ताल पद्धति में सुनिश्चित किया गया है? उस पर विचार-विमर्श कीजिए।

5. धमार ताल में किसी भी एक बंदिश को अपने गायन के सहपाठियों की सहायता से लिखिए। इस ताल में रची गई उस बंदिश की दुगुन, तिगुन व चौगुन भी लिखिए।

भारतीय संगीत में प्रथम

फ्रेडरिक विलियम गेसबर्ग ने भारत में ग्रामोफ़ोन को प्रवर्तित कर सर्वप्रथम 11 नवंबर 1902 को कोलकाता में पहली रिकॉर्डिंग की थी। फ्रेडरिक विलियम अमेरिकी संगीतकार और रिकॉर्डिंग इंजीनियर थे। संगीतकार गौहर जान (1873-1930) ऐसी पहली भारतीय महिला थीं जिनकी आवाज़ को उस दिन इसी ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्ड किया गया था। गौहर जान को 7 अलग-अलग भाषाओं में 600 गाने रिकॉर्ड करने का श्रेय प्राप्त है।



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