अध्याय 07 स्वर-ताल लिपि पद्धतिया
क्या आप जानते हैं ये ऐसे क्यों लिखा है?
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | |
नी | - | “सं | नी | - | प | नी | ग | - | प | नी | - | |
हौं | ऽ | ऽ | ग | ऽ | ई | ऽ | सुं | ऽ | द | र | ऽ |
यह एक रचना है जो स्वरलिपि में लिखी गई है। आइये, इसके बारे में जानें आपको यह अति रोचक लगेगी।
उत्तर भारतीय संगीत में प्रचलित स्वर-ताल लिपि पद्धति
संगीत के क्रियात्मक पक्ष को स्वर और ताल सहित लिखने की विधि को ‘स्वरलिपि’ कहा जाता है। स्वरलिपि पद्धति का मूल उद्देश्य संगीत के क्रियात्मक पक्ष का प्रलेखन एवं संरक्षण करना है। यद्यपि स्वरलिपि के माध्यम से संगीत के क्रियात्मक पक्ष को चिह्नों द्वारा लिखित रूप देने का यथा संभव प्रयास किया गया है, तथापि गायन-वादन की बारीकियों को केवल गुरुमुख से ही सीखा जा सकता है। प्राचीन काल तथा मध्य काल में भी स्वरलिपि पद्धतियाँ विद्यमान थीं, किंतु वर्तमान संदर्भ में अपूर्ण प्रतीत होती हैं। वर्तमान समय में पं. विष्णु भातखण्डे ने एवं विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने इसके लिए अथक प्रयास किए। उन्होंने प्राचीन संगीत ग्रंथों का अध्ययन एवं अनेक संगीतज्ञों से भेंटवार्ता करके वैज्ञानिक व प्रामाणिक स्वरलिपि पद्धतियों का निर्माण किया। अत: वर्तमान समय में भारतीय संगीत को लिखित रूप में संरक्षित करने का श्रेय इन दोनों विद्वानों को जाता है। आजकल विशेषतया उत्तर भारत में भातखण्डे स्वरलिपि पद्धति प्रचलित है। पं. भातखण्डे एवं विष्णु दिगम्बर पलुस्कर स्वर-ताल लिपि पद्धति का विवरण निम्नलिखित है-
भातरणण्डे स्वरलिपि पद्धति
स्वर चिह्न
-
इस पद्धति में शुद्ध स्वरों को दर्शाने के लिए किसी भी चिह्न का प्रयोग नहीं किया जाता हैं। जैसे— रे ग म प ध।
-
कोमल स्वरों को दर्शाने के लिए स्वरों के नीचे एक आड़ी रेखा खींचते हैं, जैसे— कोमल स्वर - र्रे ग ध धि तीव्र स्वर को दर्शाने के लिए स्वर पर एक खड़ी रेखा खींचते हैं, जैसेतीव्र मध्यम (म)।
सप्तक चिह्न
-
सप्तक को दर्शाने के लिए निम्न चिह्नों का प्रयोग करते हैं-
- मंद्र सप्तक में स्वरों के नीचे बिंदु लगाकर दर्शाते हैं, जैसे— स नि ध़ प़।
- मध्य सप्तक के स्वरों के लिए किसी भी चिह्न का प्रयोग नहीं होता, जैसे — सरे ग म।
- तार सप्तक में स्वरों के ऊपर बिंदु लगाकर दर्शाते हैं, जैसे— सं रें गंरें सं।
स्वर अलंकरण
-
जिन स्वरों के ऊपर—इस प्रकार का चिह्न होता है उन्हें मींड में गाना होता है, जैसे — गसे
-
कण स्वर को दर्शाने के लिए मूल स्वर के ऊपर लिखते हैं, जैसे— सनि।
-
कोष्ठक में दिए गए स्वरों को खटके से गाते हैं, जिसमें स्वर के आगे व पीछे के दोनों स्वर गाए जाते हैं, जैसे- (स) का अर्थ हुआ रेसानिसा अथवा नि स रे सा।
-
स्वरों का उच्चारण काल बढ़ाने के लिए आड़ी रेखाएँ लगाते हैं, जैसे— स -, यााँ स में तीन मात्राएँ हैं तथा शब्दों का उच्चारण बढ़ाने के लिए अवग्रह (S) नामक चिह्न का प्रयोग होता है। उदाहरण के लिए — रा 5 म ना 55 म।
स्वर मान
-
जितने स्वर अथवा शब्द एक साथ ७ ऐसे चंद्राकार में लिखे जाते हैं, उन्हें एक मात्रा में गाया-बजाया जाता है। एक मात्रा काल में जितने भी स्वर लिखे जाएँगे उसी के आधार पर लयकारी दृष्टिगत होगी।
-
एक मात्रा के लिए, गरे स रे, कोई चिह्न नहीं।
-
एक स्वर व आधी मात्रा के लिए दो स्वरों के नीचे अर्ध चंद्र लगा कर दर्शाते हैं, जैसे - गुरे सेरे।
-
चौथाई मात्रा का चिह्न ग रे स रे अर्थात् एक मात्रा में चार स्वरों को एक साथ —से कोष्ठक में लिखते हैं।
ताल चिह्न
-
$\times$ गुणा चिह्न ताल के सम के स्थान को दर्शाता है।
-
0 शून्य चिद्न ताल के खाली स्थान को दर्शाता है।
-
$2,3,4$ इत्यादि अंक क्रमशः ताल में मात्राओं की संख्या दर्शाते हैं।
-
तालियों पर ताली की संख्या होती है।
भातखण्डे स्वरलिपि पद्धति में रज़ाखलानी गत
राग यमन— तीनताल
भातखण्डे ताललिपि पद्धति में ताल
ताल दादरा
मात्रा | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 |
ताल | धा | धी | ना | धा | ती | ना |
चिह्न | $\times$ | 0 |
क्या अब आप इन चिह्नों को भातखण्डे पद्धति के अनुसार पहचान सकते हैं?
चिह्न पहचान चिह्न पहचान $x$ म नि म 5 गे रे
विष्णु दिगम्बर पलुस्कर स्वरलिपि पद्धति
-
इस प्रणाली में शुद्ध स्वरों को दर्शाने के लिए किसी भी चिह्न का प्रयोग नहीं किया जाता है, जैसे — स रे ग म।
-
कोमल स्वरों को नीचे हलन्त लगाकर दर्शाते हैं, जैसे — ग् म् ध्।
-
तीव्र मध्यम को उल्टे हलन्त चिह्न से लिखते है, जैसे — म्र।
-
सप्तकों को दर्शाने के लिए निम्न चिह्नों का प्रयोग होता है —
- मंद्र सप्तक में स्वरों के ऊपर बिंदु लगाकर दर्शाते हैं, जैसे— नीं धं पं।
- मध्य सप्तक के स्वरों के लिए किसी भी चिह्न का प्रयोग नहीं होता, जैसे— स रे ग म।
- तार के सप्तक के स्वरों को ऊपर खड़ी लकीर लगाकर दर्शाते हैं, जैसे- सं ग रे।
-
उच्चारण के लिए अवग्रह चिह्न 5 तथा गीत के अक्षरों को लंबा करने के लिए बिंदु चिह्न
- का प्रयोग करते हैं, जैसे- रे 55 प, रा —. मा।
-
स्वरों की मात्रा को निम्न चिह्नों द्वारा दर्शाते हैं, जैसे—
— एक मात्रा का चिह्न है इसे लघु कहते हैं, जैसे— स रे रे
० आधी मात्रा का चिह्न है इसे द्रुत कहते हैं, जैसे- सू रे
1 / 4 मात्रा का चिह्न है इसे अणु द्रुत कहते हैं, जैसे-स से रे
1 / 8 मात्रा का चिद्न है इसे अणु अणु द्रुत कहते हैं, जैसे- स्र से
-
ताली के लिए उस जगह पड़ने वाली मात्रा की संख्या लिख दी जाती है।
-
कण स्वरों को मूल स्वर के ऊपर स्वर लिखते हैं- जैसे $^{म}$पा
-
मींड के लिए स्वरों के ऊपर अर्धचंद्र लगाते हैं, जैसे- स पे।
-
ताल में निम्न चिह्न का प्रयोग होता है— सम -1 , खाली + , विभाग- $2,3,4$ इत्यादि तथा ताली के स्थान पर मात्राओं की संख्या लिखी जाती है।
-
ताल के प्रत्येक आवर्तन में एक विराम (।) लगाया जाता है।
-
स्थायी के अंत में दो विराम (II) लगते हैं।
-
पूरे गीत के अंत में तीन विराम (III) लगते हैं।
उदाहरण
एक ताल का ठेका दोनों पद्धतियों में इस प्रकार लिखा जाएगा-
भातखण्डे ताल-लिपि पद्धति में एकताल
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 |
धि | धि | धागे | तिरकिट | त | ना | क | ता | धागे | तिरकिट | धी | ना |
$\times$ | $\circ$ | 2 | $\circ$ | 3 | 4 |
विष्णु दिगम्बर ताल-लिपि पद्धति में एकताल
धि | धिं | धागे | त्रिरक्रिट् | तू | ना | क | ता | धागे | त्रिरक्रिट | धी | ना |
9 | + | 5 | + | 9 | 11 |
एकताल में दिए गए उदाहरण से दोनों पद्धतियों को लिखने की विधि को समझा जा सकता है।
चिह्न | पहचान | चिह्न | पहचान |
---|---|---|---|
$\circ$ | (III) | ||
ग् | $रे^1$ | ||
पं | $\circ$ | ||
स | रा …. म | ||
ऽ | $म^{1}$ |
दोनों पद्धतियों में स्वर-ताल लिपि तालिका
विशेष शब्द
भातखण्डे स्वरलिपि पद्धति, स्थायी स्वर, स्वर, ताल
अभ्यास
आइये, देखते हैं क्या इस पाठ को पढ़कर हम निम्न प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं -
1. भातखण्डे स्वरलिपि पद्धति में अपने पाठ्यक्रम के किसी राग के द्रुत ख्याल की बंदिश लिखिए।
2. अपने पाठ्यक्रम के किन्ही दो रागों के द्रुत ख्याल में आठ मात्रा की चार तानें लिखिए।
3. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ताल-लिपि पद्धति के प्रमुख चिह्नों को समझाइए।
4. भातखण्डे स्वरलिपि पद्धति में शुद्ध व विकृत स्वरों को लिखने की विधि उदाहरण सहित समझाइए।
5. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर स्वरलिपि पद्धति में मंद्र, मध्य व तार सप्तक के स्वरों को लिखने की विधि पर उदाहरण सहित प्रकाश डालिए।
6. निम्नलिखित चिह्नों को पहचानिए। चिन्न जिस पद्धति में प्रयोग किए जाते हैं उनका नाम दीजिए
-
$ \circ \circ $
-
$+$
-
9
-
$\times$
-
म ग
-
ग रै
-
नि़ ध़ प
-
$=$
विष्णु नारायण भातखण्डे
पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे का जन्म 10 अगस्त 1860 को वालकेश्वर, मुंबई में हुआ। अपने बचपन से ही उन्होंने संगीत (गायन और बाँसुरी) में महारत हासिल की, बाद में उन्होंने सितार वादन की शिक्षा भी प्राप्त करना प्रारंभ किया। वे एक कुशल सितार वादक के रूप में लोकप्रिय हुए। बी.ए. तथा एल.एल.बी. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर पंडित भातखण्डे ने कराची में वकालत प्रारंभ की। इन सबके बीच भी संगीत से उनका अटूट नाता बना रहा।
संगीत के शास्त्रीय पक्ष की ओर संगीतज्ञों का ध्यान आकर्षित करने का श्रेय विष्णु नारायण भातखण्डे को जाता है। उन्होंने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और संगीत के प्राचीन ग्रंथों की खोज की। यात्रा में जहाँ भी उन्हें संगीत का कोई विद्वान मिला, उससे सहर्ष मिलने गए, उससे भावों का विनिमय किया। जो कुछ भी ज्ञान धन देकर, सेवा अथवा शिष्य बनकर भी प्राप्त हो सका, उन्होंने निःसंकोच प्राप्त किया। क्रियात्मक संगीत को लिपिबद्ध करने के लिए विष्णु भातखण्डे ने एक सरल और नवीन स्वरलिपि की रचना की, जो भातखण्डे स्वरलिपि पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है। यह अन्य की तुलना में सरल और सुबोध है। विष्णु भातखण्डे ने सन् 1916 में बड़ौदा नरेश की सहायता से प्रथम संगीत सम्मेलन सफलतापूर्वक आयोजित किया। उनके द्वारा रचित पुस्तकें हैंहिंदुस्तानी संगीत पद्धति, भातखण्डे संगीत शास्त्र ( 4 भागों में), अभिनव राग मंजरी, श्रीमल्लक्ष्य संगीतम् तथा स्वरमालिका। उपरोक्त पुस्तकों एवं ग्रंथों की रचना के अतिरिक्त राग वर्गीकरण का एक नवीन प्रकार— थाट राग वर्गीकरण को प्रचारित करने का श्रेय विष्णु नारायण भातखण्डे को है। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से समस्त रागों को दस थाटों में विभाजित कियाबिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, भैरवी, काफ़ी, आसावरी, तोड़ी, पूर्वी और मारवा।
चित्र 7.1 - भारत सरकार द्वारा विष्ण नारायण भातखण्डे का जारी किया गया टिकट
पंडित भातखण्डे ने इस विचार से कि केवल श्रव्य रूप में उपलब्ध होने के कारण प्राचीन बंदिशों का लोप होता जा रहा है, बंदिशों को संरक्षित एवं संग्रहित करने की एक संगीत लिपि का निर्माण किया। जिसके आधार पर वे उस्तादों की बंदिशों को सुनकर लिपिबद्ध कर लेते थे तथा उन्हें यथावत प्रस्तुत करने की क्षमता रखते थे। सन् 1909 में उन्होंने लक्ष्य संगीतम् तथा हिंदुस्तानी संगीत का प्रथम भाग प्रकाशित किया। तत्पश्चात् स्वरचित लक्षण का एक संग्रह प्रकाशित कराया। उनके सद्रयासों से बड़ौदा में एक संगीत विद्यालय की स्थापना हुई। पंडित भातखण्डे के सहयोग से ही ग्वालियर नरेश ने 1918 में माधव संगीत विद्यालय की स्थापना की। सन् 1926 में अनेक संगीत प्रेमियों के सहयोग से लखनऊ में मैरिस कॉलेज ऑफ़ हिंदुस्तानी म्यूज़िक के नाम से एक शिक्षण संस्थान प्रांभ हुआ। आज यह भातखण्डे संगीत संस्थान समविश्वविद्यालय के रूप में संचालित है। संगीत विचारक, उद्धारक तथा संगीत के लिए सर्वस्ब न्यौछावर कर देने वाली इस महान विभूति का मुंबई में सन् 1936 में मृत्यु हो गई।
पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर
भारत भूमि पर ऐसे-ऐसे दिव्य पुरुषों ने जन्म लिया है जिन्होंने जिंदगी की कठिनाइयों का सामना निडरतापूर्वक करते हुए अपने सुदृढ़ निश्चय एवं संकल्प से इतिहास के पन्नों में अपने व्यक्तित्व की अनुपम छवि बिखेरी है। उनमें से एक दिव्य पुरुष हैं- पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर, जिनका नाम संगीत के क्षेत्र में किये गये उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों के कारण स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। पंडित विष्णु दिगम्बर पलुसकर का जन्म 15 अगस्त 1872 ई. को बेलगाँव (करून्दवाड़) में हुआ। उनके पिता का नाम दिगम्बर गोपाल था और उनकी माता का नाम गंगा देवी था। उनके गुरु पंडित बालकृष्ण बुवा इचलकरंजीकर थे। उनकी मृत्यु 21 अगस्त 1931 को हुई। उन्होंने पंडित विष्णु दिगम्बर स्वर्वलिपि पद्धति की रचना की।
चित्र 7.2- पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर
पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के पिता पंडित दिगम्बर गोपाल एक अच्छे कीर्तनकार थे। उन्होंने दिगम्बर पलुस्कर को अंग्रेज़ी की शिक्षा दिलानी शुरु की किंतु दुर्भाग्यवश दीवाली के दिन आतिशबाजी से एक दुर्घटना के कारण उनकी आँखों की ज्योति क्षीण हो गई, परिणामस्वरूप अध्ययन बंद करना पड़ा। तत्पश्चात् उन्हें मिरज के सुप्रसिद्ध गायक पंडित बालकृष्ण बुआ इचलकरंजीकर के पास संगीत-शिक्षा के लिए भेज दिया गया। पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के सुमधुर एवं आकर्षण संगीत से प्रभावित होकर मिरज रियासत के तत्कालीन महाराजा ने उन्हें राजाश्रय दे दिया। इसके साथ ही उनके लिए हर एक प्रकार की सुविधा उपलब्ध करा दी।
सन 1896 में राजाश्रय के सभी सुख-सुविधाओं को छोड़कर पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने संगीत के प्रचार-प्रसार हेतु भ्रमण आरंभ किया। उनका मुख्य उद्देश्य शास्त्रीय संगीत को जन-जन तक पहुँचाना और संगीतकारों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाना था। इसके लिए उन्होंने सर्वर्रथम गीत के शब्दों को बदलकर वहाँ भक्ति रस के सुंदर शब्दों को सजाया। इसके उपरान्त उन्होंने संगीत की समुचित शिक्षा देने हेतु कई विद्यालय स्थापित किये। जिनमें सर्वप्रथम लाहौर का गांधर्व महाविद्यालय 5 मई 1901 को स्थापित हुआ। महाविद्यालय को सुरक्षित रूप से चलाने हेतु उन्हें बीच-बीच में कई प्रकार के आर्थिक संकटों का सामना भी करना पड़ा। किंतु उन्होंने इन कठिनाइयों से कभी हार न मानी और अपने हौंसलों को सदैव बुलंद रखा। सन् 1908 में पंडित विष्णु दिगम्बर ने नवी मुंबईं में गांधर्व महाविद्यालय की स्थापना की और बाद में यही मुख्य केंद्र बन गया।
पंडित दिगम्बर का संगीत आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत था। उन्होंने सदैव संगीत को पवित्र वातावरण में पल्लवित एवं पुष्पित करने का प्रयास किया। सन् 1922 में उन्होंने नासिक में रामनाम-आधार-आश्रम की स्थापना की तत्पश्चात् उन्होंने संगीत से संबंधित लगभग 50 पुस्तकें भी लिखीं। इन पुस्तकों के नाम हैं- संगीत बाल प्रकाश, बालबोध, राग प्रवेश (भाग - एक से भाग- बीस तक), संगीत शिक्षक एवं महिला संगीत, स्वल्पालाप — गायन, संगीत तत्व दर्शक तथा भजनामृतलहरी इत्यादि। वे संगीतामृत प्रवाह नामक एक पत्रिका भी कुछ समय तक निकालते रहे। इन्होंने संगीत को लिपिबद्ध करने के लिए एक अतिसूक्ष्म और वैज्ञानिक स्वरलिपि और ताललिपि की भी रचना की थी। सन् 1930 में उन्हें लकवा हो गया। फिर भी जीवन के अंतिम क्षणों तक अपनी कार्यक्षमता के अनुसार वे संगीत सेवा करते रहे।
अंततः 21 अगस्त, 1931 ई. को मिरज में संगीतामृत का रसपान करते हुए संगीत पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर प्रभु-धाम को प्रस्थान कर गये। आँखों की ज्योति क्षीण होने के बावजूद पंडित पलुस्कर ने संगीत के क्षेत्र में जो महत्वपर्ण और अविस्मणीय कार्य किया है वह आने वाली पीढ़ियों को युगों-युगों तक रास्ता दिखलाता रहेगा।
उनके शिष्यों में पंडित विनायक राव पटवर्धन, स्व. वी. ए. कशालकर, स्व. पंडित ओमकार नाथ ठाकुर, बी. आर. देवधर, पंडित शंकर व्यास और पंडित नारायण राव व्यास के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनके पुत्र पंडित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर (पंडित डी. वी. पलुस्कर) भी संगीत के एक कुशल गायक हुए। वे अपने जीवन के मात्र 35 वर्षों तक ही संगीत की सेवा कर पाये और वे भी सन् 1955 में विजयादशमी के दिन नाद ब्रह्म में लीन हो गये।