अध्याय 04 हिंदुस्तानी संगीत की गायन एवं वादन विधाएँ

स्वर एवं लयबद्ध या तालबद्ध शब्दों से निर्मित रचना को ‘गीत’ कहते हैं। रचना में शब्द चाहे सार्थक हों या निर्थक, भावयुक्त अभिव्यक्ति ही गीत रचना का उद्देश्य होती है। गीत रचना का सौंदर्य, उसमें अभिव्यक्ति का आकर्षण तथा मनोरंजन का तत्व उत्पन्न करने के लिए विभिन्न सांगीतिक तत्वों का प्रयोग समाविष्ट रहता है। इन्हों सांगीतिक तत्वों के भिन्न-भिन्न प्रयोगों की सांगीतिक विधाएँ अलग-अलग रूप में पहचानी जाती हैं, जैसे- ध्रुपद, धमार, ख्याल, ठुमरी, टपप्पा, तराना, चतुंग, लक्षणगीत, भजन, कव्वाली आदि। एक ओर ये सांगीतिक विधाएँ उत्तर भारत में हिंदुस्तानी संगीत (शास्त्रीय संगीत) के स्वरूप को प्रकाशित करती हैं। वहीं दूसरी ओर इसी प्रकार दक्षिण भारत में कर्नाटक संगीत की अनेकानेक विधाएँ उसके स्वरूप को स्पष्ट करती हैं।

ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनि संस्कृत के मंत्रों को गाकर ईश्वर की आराधना करते थे। धीरे-धीरे लय, ताल व छंद आदि का विशिष्ट नियमों के आधार पर प्रयोग करते हुए श्लोक, स्तोत्र, जातिगान, प्रबंध आदि के रूप में सांगीतिक विधाओं को उनके भिन्न-भिन्न भागों, धातु व अंगों अथवा अन्य सांगीतिक तत्वों के अनुरूप भिन्न-भिन्न नाम प्राप्त होते रहे। काल क्रम में तत्कालीन संगीत विधाओं के तत्वों में नवीन रुचि के अनुरूप मिश्रित किए गए तत्वों से समय-समय पर नवीन विधाओं के उद्दीप्त होने की निरंतरता सदैव बनी रहती है और नई-नई गेय या वादन विधाएँ विकसित भी होती रहती हैं। कभी-कभी ये विधाएँ अपना प्रभाव नई विधाओं पर छोड़ने के उपरांत लुप्त भी हो जाता है।

आधुनिक समय में प्रचलित सांगीतिक विधाओं पर पूर्व प्रचलित विधाओं के प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हैं। धुपद से प्रबंध गेय विधा को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके चार भागों को चार धातुओं-उद्रग्राह, मेलापक, ध्रुव और आभोग कहा गया और छह अंगों को स्वर, विरूद तेनक, पद पाट व ताल के रूप में नाम दिए गए। यह विधा लगभग दसवीं से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक भारत में प्रचलित रही। तत्पश्चात मुगल साम्राज्य स्थापित होने के कारण हिंदू व मुस्लिम सभ्यताओं व संस्कृतियों के मिश्रण के प्रभाव से हिंदी, उर्दू व फ़ारसी भाषाओं के समन्वय ने प्रबंध के शास्त्रोक्त स्वरूप तथा संस्कृत भाषा के प्रयोग को भी प्रभावित किया। इसके फलस्वरूप प्रबंध के सांगीतिक व साहित्यिक स्वरूप में जो परिवर्तन हुए उसी के कारण नवीन विकसित गेय विधा को ‘ध्रुपद या ‘ध्रुवपद’ की संज्ञा प्राप्त हुई।

आप जहाँ भी रहते हों आप-पास संगीत के कलाकार ज़रूर होंगे। किसी भी कलाकार से मिलें और वह जिस सांगीतिक विधा में प्रस्तुति देते हैं उसके बारे में जानें। जानकारी हासिल करने के लिए कुछ संकेत बिंदु दिए जा रहे हैं।

  • विधा
  • परिवार में संगीत
  • विधा प्रस्तुत करने की विधि
  • शब्द
  • किसी भी रचना की स्वरावली
  • ताल या लय एवं उसके प्रकरण
  • प्रस्तुतीकरण में सहयोगी
  • गुरु जिनसे शिक्षा प्राप्त की गई

ध्रुपद

ध्रुपद शब्द दो शब्दों के योग से निर्मित हुआ है ध्रुपपद जिसका शाब्दिक अर्थ है ऐसा पद जो अटल है और जिसमें वाक्य, वर्ण, अलंकार, लय, यति आदि स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। ध्रुव का अर्थ है ईश्रोपासना तथा पद का अर्थ है पद्य रचना अर्थात ध्रुवपद का अर्थ है ईश्रोपासना में गाये जाने वाले पद्य। महान संगीतकार तानसेन के अनुसार चार तुकों से युक्त शुद्ध अक्षरों वाली नवससों से युक्त रचना ‘रुपद’ है।

चित्र 4.1- उस्ताद वासिफुद्दीन डागर - ध्रुपद कलाकार

ध्रुपद की बंदिशें प्राय: हिंदी, उदूं तथा ा्रजभाषा में मिलती हैं हालाँकि हिंदी की बंदिरें अधिक प्रचार में हैं। प्राचीन काल में धुपद गायकों को ‘कलावन्त’ कहा जाता था। ध्रुपद दमदार आवाज़ की गायकी है। इसमें गमक व मीड़ का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है। ध्रुपद गुभीर प्रकृति की गायकी है इसे गाने में कंठ तथा फेफड़ों पर जोर पड़ता है। ध्रुपद की संगत अधिकतर पखावज जैसे गंभीर वाद्य से होती है किंतु अब तबले को भी संगत वाद्य के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। हुपपद के साथ बजाई जाने वाली तालों में चौताल, सूल ताल, तीव्रा, व्रह्मताल आदि समाविष्ट हैं। प्राय: भ्रुपद की बंदुश के चार भाग होते हैं-

  1. स्थायी
  2. अंतरा
  3. संचारी
  4. आभोग

हकीम मुहम्मद करम इमाम के मुआदनुल मुसीकी नामक ग्रंथ में ध्रुवपद शैली की चार बानियों का उल्लेख है।

  1. खंडार
  2. नौहार
  3. डागुर
  4. गोबरहार

ध्रुवपद के गायन में प्रारंभ में नोम, तोम, री, ते आदि बोलों से मंद्र, मध्य तथा तार सप्तक में आलाप करते हैं। धीरे-धीरे आलाप की लय बढ़ाते जाते हैं फिर ध्रुवपद गायन बंदिश से प्रारंभ होता है। ध्रुवपद गायन में विभिन्न लयकारियों का प्रदर्शन गायक कुशलतापूर्वक करते हैं। इन लयकारियों में आड़, दुगुन, तिगुन, चौगुन, छहगुन, अठगुन आदि लयकारियाँ होती हैं। ध्रुवपद गायन में गमक तथा मीड़ का प्रयोग विशेष महत्व रखता है। इसमें मुर्की तथा तानें वर्जित हैं। ध्रुपद में प्राय: वीर, रौ्र, शांत, शृंगार, करुण तथा भक्ति रस की अभिव्यक्ति होती है। ध्रुपद गायकों में प्रमुख रूप से वासिफुद्दीन डागर, बहराम खाँ, बन्दे खाँ, जाकिरुद्दीन मल्लिक, उ. अमीनुद्दीन डागर, पंडित अभय नारायण मल्लिक, पंडित विदुर मल्लिक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

ख्याल

उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत वर्तमान काल में ‘ख्याल’ का सर्वाधिक प्रचलित गेय विधा के रूप में महत्वपूर्ण स्थान है। ख्याल का शाब्दिक अर्थ ‘कल्पना’ या ‘सृजनात्मकता’ है। संभवत: ख्याल गायन के आधुनिक स्वरूप में भी यही अर्थ प्रकाशित होता है क्योंकि इसको गाते समय बंदिश के शब्दों को लेकर स्वरात्मक व लयात्मक आधार प्रदान करते हुए राग की आकृति व प्रकृति के अनुरूप आलाप-तान आदि से सुसज्जित किया जाता है। इसमें एक ओर राग का सौंदर्य और दूसरी ओर बंदिश का सौंदर्य गायक के कला कौशल से अवतरित होता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से जिस प्रकार ध्रुपद को प्रबंध से आविभूर्त माना गया है उसी प्रकार संगीत रत्नाकर में शार्ड्गदेव द्वारा वर्णित ‘रूपकालप्त’ को तथा मतंग मुनि कृत बृहद्देशी ग्रंथ में वर्णित पाँच गीतियों-शुद्धा,भिन्ना, गौड़ी, वेसरा व साधारणी में से साधारणी गीति को ख्याल की उत्पत्ति की पूर्वपीठिका माना गया है। राग तथा बंदिश के विस्तार तथा स्वर व लय के विविध प्रयोगों में साम्यता दृष्टिगोचर होती है।

भारत में विदेशियों के आगमन के कारण भारत की प्राचीन व सनातन संस्कृत भाषा विलुप्त होती गई। ध्रुपद के साथ-साथ विकसित होने वाली ख्याल गेय विधा की बंदिशें भी ब्रज, अवधी, हिंदी, उर्दू व राजस्थानी आदि प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों से युक्त होकर प्रचलित होती रहीं।

ख्याल के विकास के संदर्भ में ऐसा माना जाता है कि लगभग 15 वीं शताब्दी में जौनपुर के बादशाह सुल्तान हुसैन शाह शर्की ने इस शैली का प्रचार-प्रसार किया। आगे चलकर सदारंग और अदारंग ने मोहम्मद शाह रंगीले के शासन काल में भी इस शैली का प्रचार किया। सदारंग-अदारंग ने कई ऐसी बंदिशों की रचना की जिनमें मुहम्मद शाह रंगीले का नाम भी आया है।

चित्र 4.2 — शास्त्रीय वादन प्रस्तुति—रबाब

ख्याल में एक बंदिश या रचना होती है। इसमें शब्द अधिकांशत: हिंदी, उर्दू या ब्रजभाषा में होते हैं। यह विभिन्न राग एवं तालों में गाई-बजाई जाती है। अधिकतर तीनताल, झपताल, एकताल, झमरा, रूपक में ख्याल की बंदिशें गाई जाती हैं जो प्राय: विलंबित, मध्य एवं द्रुत लय में प्रस्तुत की जाती हैं।

ख्याल शास्त्रीय संगीत की सबसे प्रचलति विधाओं में है। ध्रुपद शैली की अपेक्षा ख्याल शैली में गंभीरता कम होती है। ख्याल गायन में राग के स्वरूप का ध्यान रखते हुए आलाप, तान, बोलतान, कण तथा मुर्की आदि का प्रयोग किया जाता है। इन तत्वों का प्रयोग करते हुए गायक अपनी कल्पना को सुरों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। ख्याल शैली में प्राय: दो बंदिशें गाई जाती हैं- विलंबित यानि बड़ा ख्याल और द्रुत यानि छोटा ख्याल। ख्याल की रचनाएँ प्राय: शृंगार, विरह, प्रेम तथा भक्ति भाव आदि से संबंधित होती हैं। ख्याल के शब्द विविध रसों से युक्त होते हैं, जैसे — भूपाली राग का ख्याल ‘जाऊँ तोरे चरण कमल पर वारी’ भक्ति रस दर्शाता है। राग यमन कल्याण में ‘सुंदर छवि ली नार मोहे नैन में समाए’ भृंगार रस को अभिव्यक्त करता है। इसी तरह अलग-अलग बंदिशें विभिन्न रसों को दर्शाती हैं। प्राय: विलंबित ख्याल झूमरा, एकताल व तिलवाड़ा आदि में निबद्ध होते हैं। द्रुत ख्याल की बंदिशें द्रुत तीनताल, झपताल, एकताल, रूपक आदि में निबद्ध होती हैं। बंदिश से पूर्व संक्षिप्त आलाप किया जाता है तथा बंदिश के बीच में ताल के साथ विस्तृत आलाप किया जाता है। कुछ गायक ख्याल गायन के पूर्व नोम-तोम का आलाप भी करते हैं। ताल के साथ बोल आलाप तथा बोलतानों द्वारा भी राग में वैचित्य उत्पन्न किया जाता है। बंदिश के शब्दों को लेकर बोल आलाप एवं बोलतान प्रस्तुत करने का प्रचलन भी इस विधा की अति उत्तम सृजनशीलता को दर्शाता है। ख्याल गायकी में मींड, खटका, मुर्की, कण इत्यादि सौंदर्यात्मक तत्वों का व्यवहार भी प्रचलन में है। ख्याल दो प्रकार के होते हैं-

1. विलंबित ख्याल — विलंबित ख्याल को बड़ा ख्याल भी कहा जाता है। इसे गाने के पहले, राग के स्वरूप का ध्यान रखते हुये, कुछ स्वर समुदाय आकार में आलाप के रूप में गाकर तब ख्याल की बंदिश को गाना शुरू किया जाता है। गाने की बंदिश के बोलों को अपनी कल्पनाशक्ति के आधार पर राग के स्वरूप का ध्यान रखते हुये बोल आलाप गाये जाते हैं। फिर कुछ लय बढ़ाकर स्वर में तानें गायी जाती हैं और अंत में और लय बढ़ा कर आकार में तानें प्रस्तुत करने के पश्चात गायन समाप्त किया जाता है। विलंबित ख्याल की तानें प्राय: चौगुन, अठगुन तथा सोलहगुन आदि में गाई जाती हैं। ये ख्याल प्राय: एकताल, तिलवाड़ा, झूमरा तथा आड़ा चौताल में निबद्ध होते हैं।

2. द्रुत ख्याल — द्रुत ख्याल को छोटा ख्याल भी कहा जाता है। इसका गायन मध्य लय या द्रुतलय में होता है। इसके गायन में विलंबित ख्याल की अपेक्षा कम समय लगता है इस कारण इसे ‘छोटा ख्याल’ कहते हैं। इसके गायन में भी ख्याल के प्रारंभ में आकार में आलाप गाकर द्रुत खयाल का गायन प्रारंभ होता है। ख्याल गायन के बीच में आलाप तथा बोल आलाप गाये जाते हैं। बीच-बीच में बोलबाँट तथा विभिन्न लयकारियों का प्रदर्शन होता है। अंत में द्रुतलय में बोलतान तथा आकार में तान गाकर ख्याल के बोलों की तिहाई लगाकर गायन समाप्त किया जाता है। द्रुत ख्याल प्राय: त्रिताल, झपताल, रूपक तथा द्रुत एकताल आदि तालों में गाये जाते हैं।

भीमसेन जोशी, गंगुबाई हंगल, केसरबाई केरकर, पंडित जसराज, अजय चक्रवर्ती, गिरिजा देवी जैसे अनेक संगीतज्ञों ने ख्याल गायकी द्वारा अपने संगीत की प्रतिभा को जन साधारण तक पहुँचाया। जनरुचि के अनुसार, रागों की विशिष्टता को स्वर एवं ताल में पिरोकर ख्याल गायकी ने संगीत प्रेमियों के बीच एक उच्च स्थान पाया है।

  1. किसी भी ध्रुपद या ख्याल गायक से मिलें। एक विशेष राग में बंदिश चुनकर ध्रुपद या ख्याल के तत्वों की रिकार्डिंग सुनें और लिखें। उदाहरण के लिए, ध्रुपद के शब्द कैसे हैं, उनका भावार्थ क्या वह किसी ईश की वंदना के लिए गाई जा रही है या किसी और विषय को अभिव्यक्त करती है, स्वर, ताल इत्यादि। कितने सालों से यह रचनाएँ गाई-बजाई जा रही हैं।
  2. उसके बाद सोचिए क्या वर्तमान में इसके नवीनीकरण के उपाय हैं? अपने मंतव्य को लिखें।

तराना

तराना शास्त्रीय संगीत की एक गायन शैली है। ख्याल गायकी के समान ही तराना गायन शैली भी शास्त्रिय संगीत की एक विशिष्ट गायन शैली है। इसकी विशेषता है कि तराना में बोल प्राय: निरर्थक होते हैं। इसकी लय बहुत तेज़ होती है अर्थात यह अति द्रुतलय में गाया जाता है। तराने प्राय: सभी रागों में गाये जाते हैं। इसमें भी स्थायी तथा अंतरा दो भाग होते हैं। इसे प्राय: ख्याल गायन के पश्चात् गाया जाता है। इसमें आलाप प्राय: नहीं गाते हैं। तानें भी बहुत छोटी और कम मात्रा की गाई जाती हैं। तराना गायकी के लिए गला बहुत तैयार होना चाहिए तथा स्वर, ताल और लय का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। इसमें ओदेन, तोम, नोम, तदारे, दानि, तदी, यना, त न न न ना आदि निरर्थक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इसमें राग, ताल और लय का ही आनंद होता है। तानरस खाँ तथा नत्थू खाँ आदि के तराने प्रसिद्ध हैं। तराना का उद्देश्य राग की तैयारी, लयकारी तथा शब्दों के अति द्रुत लय में उच्चारण की क्षमता को बढ़ाना है। कुछ तरानों की बंदिशों में तबले या पखावज के बोलों का भी प्रयोग किया जाता है। इसको अति द्रुत लय में गाते हैं।

सरगम गीत (स्वरमालिका)

राग में गाई जाने वाली स्वरों की तालबद्ध रचना को ‘सरगम गीत’ या ‘स्वरमालिका’ कहते हैं। राग के चलन को ध्यान में रखकर तीनों सप्तकों में रची गई स्वरमालिका राग के स्वरों के चलन को स्पष्ट रूप से समझने में सहायक होता है। स्वरों का आरोह-अवरोह में विचरण, विशेष स्वर समूह इत्यादि तत्व, स्वरमालिका के अभ्यास द्वारा भली प्रकार समझ में आ जाते हैं। इसमें स्थायी और अंतरा दोनों गाए जाते हैं। इसमें बंदिश नहीं होती है केवल स्वर होते हैं। इस रचना का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों को स्वर, ताल, लय के साथ राग का ज्ञान कराना होता है। अभ्यास हेतु उदाहरण स्वरूप झपताल में निबद्ध राग अल्हैया बिलावल की स्वरमालिका इस प्रकार है-

अल्हैया बिलावल-झपताल

स्थायी

नि $ध$ नि सं 5 सं $\underline{\text { रें }}$ सं
सं सं $\underline{\text { रें }}$ सं नि
$\times$ 2 0 3
रे रे
$ध$ रें सं नि
$\times$ 2 0 3

अंतरा

नि नि सं 5 सं रें सं
सं रें गं मं पं मं गं मं रें सं
$\times$ 2 $\circ$ 3
गं रें सं रें सं सं
रे रे
$\times$ 2 3

लक्षण गीत

जब किसी बंदिश के शब्द राग के तत्वों को बताएँ जैसे उस राग के वादी, संवादी, गायन समय तथा अन्य लक्षणों का वर्णन हो, उसे ‘लक्षण गीत’ कहते हैं। लक्षण गीत उस विशिष्ट राग के स्वरों के अनुसार गाया जाता है। लक्षण गीत से राग संबंधी अनेक तथ्य सरलता से याद हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि लक्षण गीत राग के प्रयोगात्मक तथा शास्त्रीय दोनों पक्षों को एक साथ प्रस्तुत करता है। लक्षण गीत से उस राग के संपूर्ण लक्षण, जैसे — राग का नाम, थाट, अनुवादी, विवादी तथा राग की प्रकृति आदि बातों का ज्ञान हो जाता है। इससे राग वर्णन स्वत: कंठस्थ हो जाता है। लक्षण गीत मध्य लय अथवा दूत लय में गाया जाता है। अधिकतर इसके दो ही भाग होते हैं- स्थायी तथा अंतरा। ये प्राय: त्रिताल, झपताल तथा द्रुत एकताल आदि में गाये जाते हैं। उदाहणस्वरूप- त्रिताल में निबद्ध राग आसावरी का लक्षण गीत

स्थायी

कान्हा मोहे आसावरी राग सुनाए

ग नि को आरोहन में छुपाए

अंतरा

धैवत वादी ग संवादी

मध्यम सुर ग्रह न्यास सुपंचम

अवरोहन संपुरन दिखावत

स रे म रे म प ध्प ध धुं रें सं रें नि ध प

त्रिताल में निबद्ध उपरोक्त लक्षण गीत की सहायता से हम राग आसावरी के समस्त लक्षण, जैसे— वादी, संवादी, ग्रह, न्यास, राग की जाति (औड्व-संपूर्ण) इत्यादि को स्पष्टत: समझ सकते हैं। अत: लक्षण गीत किसी भी राग के विशिष्ट लक्षणों को समझने का उत्तम साधन है।

  1. भारत के अलावा किस देश में तराना गाया जाता है? कलाकार का नाम, एक तराना के शब्द स्वर एवं लय पर विचार करें।
  2. किसी भी राग में, तीनताल में एक सरगम गीत की रचना करें।

गत

स्वरों की रचना जिस ताल में निबद्ध होती है वह ‘गत’ कहलाती है। गत में निश्चित राग के स्वरों को निश्चित ताल में वादन के बोलों सहित बाँधा जाता है। इसे ‘बंदिश’ भी कहते हैं। बंदिश अर्थात् बँधा हुआ। अत: स्वर तथा ताल में बँधी रचना जिसमें वादन के बोलों का प्रयोग होता है, गत कहलाती है। पारंपरिक गत दो प्रकार की होती है-मसीतखानी गत तथा रज़ाखानी गत।

1. मसीतखानी गत — यह गत तीन ताल में निबद्ध होती है। इसकी लय विलंबित होती है। इसकी शुरुआत सदैव बारहवीं मात्रा से होती है। इसमें निश्चित बोलों का प्रयोग किया जाता है जोकि इस प्रकार है— दिर दा दिर दा रा दा दा र, बारहवीं (12) मात्रा से तीसरी (3) मात्रा तथा पुन: चौथी (4) मात्रा से ग्यारहवीं (11) मात्रा तक इन्हीं बोलों की पुनरावृत्ति होती है। इसमें मींड, गमक, कण आदि का प्रयोग तथा चौगुण, छह गुण, अठगुण में तोड़े तथा लयकारी की जाती है। इस गत के निर्माता मसीत खाँ थे अत: उन्हीं के नाम के आधार पर इसे ‘मसीतखानी गत’ कहा जाता है। जिस गत में इन बोलों का पालन नहीं होता एवं तीन ताल के अलवा अन्य तालों का प्रयोग होता है उसे ‘विलंबित गत’ कहते है।

चित्र 4.3 - शास्त्रीय वादन प्रस्तुति

2. रज़ाखानी गत — इस गत के निर्माता रजा खाँ है अत: उन्हीं के नामानुसार इसे ‘रजजाखानी गत’ कहते हैं। यह तीन ताल में निबद्ध होती है जिसमें दा दिर दिर दिर दाऽ र, द डर, दा अथवा दिर दिर दाऽ र, दा उर, दा के निश्चित बोल होना अनिवार्य है। इसकी लय द्रुत होती है। बंदिश प्रस्तुत करने के पश्चात इसमें दुगुन में तानें तथा लड़ियाँ प्रस्तुत की जाती हैं। अंत में एक साथ इस गत का समापन किया जाता है। जिस गत में इन बोलों का पालन नहीं होता है उसे द्रुत गत कहा जाता है।

सारांश

भावयुक्त अभिव्यक्ति ही गीत रचना का उद्देश्य होती है। गीत रचना का सौंदर्य, उसमें अभिव्यक्ति का आकर्षण तथा मनोरंजन का तत्व उत्पन्न करने के लिए विभिन्न सांगीतिक तत्वों का प्रयोग समाविष्ट रहता है। इन्हीं सांगीतिक तत्वों के भिन्न-भिन्न प्रयोगों की सांगीतिक विधाएँ अलग-अलग रूप में पहचानी जाती हैं, जैसे— ध्रुपद, धमार, ख्याल, ठुमरी, टप्पा, तराना, चतुरंग, लक्षणगीत, भजन, कव्वाली आदि में प्रदर्शित होती हैं। आधुनिक समय में प्रचलित सांगीतिक विधाओं पर पूर्व प्रचलित विधाओं के प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हैं।

कुछ लिशेष शब्द

ध्रुपद, ख्याल, तराना, सरगम, गीत, स्वरमालिका, लक्षणगीत, गत

भारतीय संगीत में प्रथम

हरबल्लभ संगीत सम्मेलन हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का सबसे प्राचीन सांगीतिक सम्मलेन है, जो प्रति वर्ष हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महान प्रतिपादक बाबा हरबल्लभ की समाधि पर मनाया जाता है। पहली बार यह सम्मेलन जालंधर के सिद्ध पीठ- श्री देवी तालाब में 1875 में आयोजित किया गया था।

अभ्यास

आइये, देखाते हैं क्या इस पाठ को पढ़कर हम निम्न प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं-

1. ध्रुपद गायन शैली की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए उसकी विशेषताओं को विस्तार से समझाइए।

2. स्वरमालिका किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइए।

3. ख्याल गायन शैली का प्रणेता किन्हें माना जाता है? इस गायन शैली के क्रमिक विकास का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।

4. लक्षण गीत में प्राय: राग के किन लक्षणों का उल्लेख होता है? सोदाहरण समझाइए।

5. गत किसे कहते हैं? गत के प्रकारों को विस्तारपूर्वक लिखिए।

6. शास्त्रीय संगीत में तराना गायन शैली की महत्ता पर प्रकाश डालिए।

सही या गलत बताइए-

1. ध्रुपद शैली का गायन प्राय: पखावज जैसे गंभीर वाद्य के साथ किया जाता है।

(सही/गलत)

2. प्राचीन काल में भारतीय संगीत में केवल दो प्रकार की गीतियाँ प्रचलित थीं। (सही/गलत)

(सही/गलत)

3. ख्याल गायन के अंतर्गत द्रुत ख्याल विलंबित लय में गाया जाता है। (सही/गलत)

(सही/गलत)

4. तानरस खाँ एवं नन्थू खाँ के तराने अत्यंत्र प्रचलित हैं।

(सही/गलत)

5. राग के चलन को ध्यान में रखकर तीनों सप्तकों में रची गई स्वरमालिका राग को स्पष्ट रूप से समझने में मदद करती है।

(सही/गलत)

6. ध्रुपद की चार शैलियाँ थीं जिन्हें वाणी कहते थे।

(सही/गलत)

7. ऐसी मान्यता है कि जौनपुर के बादशाह सुत्तान हुसैन शर्की ने ख्याल शैली का आविष्कार किया।

(सही/गलत)

8. झूमरा और तिलवाड़ा तालों का प्रयोग ध्रुपद गायन के साथ किया जाता है।

(सही/गलत)

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

1. प्राचीन काल में ध्रुपद गायकों को कहा जाता था।

2. अभय नारायण मल्लिक गायन शैली के प्रमुख कलाकार हैं।

3. सुल्तान हुसैन शाह शर्की को गायन शैली का प्रवर्तक माना जाता है।

4. राग में प्रयोग की जाने वाली स्वरों की तालबद्ध रचना को कहते हैं।

5. मआदनुल मुसीकी नामक ग्रंथ में वाणियों ध्रुपद की उल्लेख मिलता है।

6. तिलवाड़ा, झूमरा आदि तालों के साथ प्राय: ख्याल गाए जाते हैं।

7. नामक तालबद्ध रचना में बंदिश के बोल नहीं होते, केवल स्वर होते हैं।

8. जिस रचना में राग के वादी-संवादी, गायन समय तथा अन्य लक्षण का वर्णन हो उसे कहते हैं।

विभाग ‘अ’ के शब्दों का ‘आ’ विभाग में दिए गए शब्दों से मिलान करें-

(क) वसिफुद्दीन डागर 1. तराने के बोल
(ख) झूमरा 2. ख्याल गायिका
(ग) तदारे दा नि 3. ध्रुपद
(घ) सरगम गीत 4. विलंबित ताल
(ङ) केसरबाई केरकर 5. स्वरमालिका


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