अध्याय 02 आधार ग्रंथ

सामवेद

वेदकालीन सभ्यता में सामवेद का गान किए जाने के लिखित साष्ष्य मिलते हैं जिसके साथ अनेक वाद्यों का वादन भी किया जाता था। ऋक् की ऋचाओं में से गाने योग्य ऋचाओं के गेय स्वरूप के संकलन से ही सामवेद की रचना हुई है। श्रीमद् भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है — “वेदानां सामवेदोऽस्मि” अर्थात् वेदों में मैं सामवेद हूँ। ऋग्वेद की ऋचाओं के पाठ्य स्वरूप की अपेक्षा जब उनका ‘साम’ स्वरों सहित विधिपूर्वक गान किया जाता था तो काव्य व संगीत के मंजुल समन्वय से वह ऋचाएँ इश्वर आराधना के लिए अधिक प्रभावशाली हो जाती थीं। साम संहिता और सामवेद ऐसी ही ऋचाओं का संकलन है। सामवेद के दो प्रधान भाग हैं — आर्चिक तथा गान। आर्चिक भाग ऋगेवेद की ऋचाओं का संग्रह मात्र है जबकि गान भाग साम के स्वरमय स्वरूप का द्योतक है। साम गान का महत्व यज़ आदि की दृष्टि से सर्वोपरि रहा है।

साम गान के विभाग व गायक

साधारणत: साम गान को पाँच भागों में गाया जाता था हालाँकि साम गान को सात भागों में गाने के भी कुछ संदर्भ मिलते हैं। इन पाँचों भागों को — प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन की संज्ञा दी गई थी।

‘प्रस्ताव’, साम का प्रारंभिक भाग है जिसे प्रस्तोता नामक ऋत्विज (पंडित) गाते थे। यह भाग ‘हुम्’ से प्रारंभ होता था जिसे सभी ऋत्विज एक साथ गाते थे।

‘उद्गीथ’ को साम का प्रधान ऋत्विज गाता था जिसके प्रारंभ में ‘ओम्’ का उच्चारण किया जाता था। उदागीथ को गाने वाले ऋत्विज को उद्गाता कहा जाता था।

‘प्रतिहार’ का गायक प्रतिहर्ता कहलाता था।

‘उपद्रव’ का गायन मुख्य सामगायक करता था।

‘निधन’ का गायन प्रस्तोता, उदगाता व प्रतिहर्ता तीनों ऋत्विज मिलकर करते थे। साम चाहे पंचविध हो या सप्तविध, निधन सदा साम गायन का अंतिम भाग ही होता था।

उपगायक एक स्वर पर अटल रहकर निरंतर ‘हो’ का उच्चारण करते थे, जिससे वह स्वर कायम रहे (जो आज के युग में तानपुरा द्वारा किया जाता है) अत: उपगायक उद्गाताओं को मूल स्वर देने याद दिलाने में समर्थ होते थे।

रामायण

महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण भारत का प्राचीन सांस्कृतिक महाकाव्य है जो भारत की अर्वाचीन सांस्कृतिक परंपरा के बारे में जानने का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का निर्माण गेय रूप में हुआ है अर्थात् इस महाकाव्य के सभी श्लोक छंदबद्ध एवं गाने योग्य हैं। इस ग्रंथ के माध्यम से हमें उस काल में प्रचलित विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले संगीत का उल्लेख मिलता है।

महर्षि वाल्मीकि स्वयं वैदिक व लौकिक दोनों ही संगीत में पारंगत थे और उन्होंने ही लव-कुश को संगीत की शिक्षा प्रदान की। उस समय समाज में संगीत सर्वत्र व्याप्त था। अयोध्या, किष्किंधा तथा लंका आदि नगर सदैव वाद्यों की सुमधुर ध्वनि से निनादित रहते थे। विभिन्न समारोहों, जैसे- स्वागत तथा विदाई आदि में संगीत का एक महत्वपूर्ण स्थान था। अतिथियों का स्वागत शंख एवं दुंदुभियों के उद्घोष से होता था। सूत मागध आदि जातियों के गायन से स्तुति गान किया जाता था। श्रीराम के जन्म एवं विवाह पर दुंदुभियाँ बजायी गईं व अप्सराओं का गान व नृत्य हुआ। श्रीराम के वनवास से लौटने पर कुशल वादकों ने विभिन्न वाद्य यंत्रों को बजाकर उनका स्वागत किया था। नृत्य का प्रयोग धार्मिक तथा लौकिक समारोहों में किया जाता था। रावण साम गान के माध्यम से शिव की आराधना किया करते थे तथा अर्चना के पश्चात् नृत्य भी करते थे। रावण स्वयं एक कुशल वीणा-वादक थे। उनके द्वारा बजायी जाने वाली वीणा ‘रावणहत्था’ के नाम से प्रचलित है। रामायण काल में वाद्य के लिए ‘तूर्य’ शब्द का प्रयोग किया जाता था जिसके अंतर्गत— वेणु, शंख, दुंदुभि, भेरी, मृदंगम् एवं पटह आदि वाद्यों का उल्लेख किया गया है।

संगीतकारों की विभिन्न जातियाँ थीं, जैसे- बंदी, सूत, मागध एवं वारांगना, जिनके द्वारा विभिन्न अवसरों पर संगीत की प्रस्तुति दी जाती थी। संगीत शास्त्र के लिए गांधर्व संज्ञा थी, जिसके अंतर्गत गीत तथा वाद्य दोनों का ही समावेश था। भेरी, दुंदुभि, मृदंगम् तथा शंख आदि विशिष्ट वाद्यों का प्रयोग युद्ध में उत्साहवर्धन के लिए तथा सेना संगठन को सूचित करने के लिए किया जाता था। साम गान एवं गांधर्व का भेद स्पष्टत: परिलक्षित होता है। साम गान केवल यज्ोों के अंतर्गत ऋत्विजों के द्वारा गाया जाता था। यह केवल वैदिक परंपरा-अनुयायियों तक सीमित था। गांधर्व संज्ञा के अंतर्गत मार्ग, देशी संगीत व लौकिक संगीत था। कठोर नियमों से आबद्ध मार्ग संगीत व जनरुचि के अनुकूल नियमों को शिथिल कर अपनाया जाने वाला संगीत ‘देशी संगीत’ के नाम से जाना गया। अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर यज्ञकर्म के लिए एकत्रित ऋत्विजों में उद्गाता (साम गान करने वाले मुख्य गायक) को सम्मानित स्थान प्राप्त था। श्रीरामचन्द्र के आदेश पालन पर लव-कुश ने मार्गी शैली से गांधर्व का गान किया था तथा स्वर, पद, ताल, प्रमाण एवं मूर्च्छना आदि अंगों से गान कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया था। उस काल में गांधर्व का प्रदर्शन श्रोताजनों की योग्यता के अनुकूल किया जाता था।

चित्र 2.1 - रामायण पांडुलिपि, मेवाड़ी चित्र, राजस्थान, 1653 ई.

वीणा उस समय का सर्वाधिक लोकप्रिय वाद्य था। तत् तथा अवनद्ध वाद्यों का वादन जिस दण्ड से किया जाता था उसे ‘कोण’ कहा जाता था। विपंची तथा वल्लकी वीणा वाद्य के तत्कालीन विभिन्न प्रकार थे। ताल को प्रदर्शित करने के लिए ताल-शब्दों का उच्चारण कर हाथ से ताल देने की प्रणाली प्रचलित थी। इस प्रकार रामायण में संगीत विषयक अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जिससे यह विदित होता है कि तत्कालीन सामाजिक जीवन संगीतमय था।

महाभारत

कृष्णाद्वैपायन व्यास द्वारा रचित महाभारत एक ऐसा महाकाव्य है, जिसे भारतीय साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। यह ग्रंथ भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के सर्वांगीण स्वरूप को दर्शाता है। महाभारत काल में संगीत से संबंधित विभिन्न पहलुओं की स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है।

इस काल में साम तथा गांधर्व दोनों गान प्रकार प्रचलित थे। स्वर, पद, स्तोभ आदि अंगों का अध्ययन वैदिक शिक्षा के अभिन्न अंग के रूप में किया जाता था। ऋग्वेद की ऋचाओं को साम में

चित्र 2.2 - 12 वीं सदी की महाभारत, हलेबिदु, कर्नाटक

परिवर्तित करने हेतु ‘हाऊ’, ‘हाई’, ‘अथ’, ‘इह’, ‘ई’ आदि स्तोभाक्षरों का प्रयोग करते हुए स्वर में गाया जाता था। साम गान को ईश्वरोपासना का एक प्रमुख साधन माना जाता था।

गेय प्रबंधों के अंतर्गत साम, गाथा तथा मंगल गीतों आदि का विशिष्ट उल्लेख पाया जाता है। संगीत कला को ‘गांधर्व’ संज्ञा दी गई थी तथा इसमें साम के अतिरिक्त गीत, वादन तथा नर्तन का भी समायोजन था। संगीत के दिव्य कलाकारों के रूप में गंधर्व तथा किन्नरों का स्थान प्रमुख था।

उस काल में सप्त स्वरों का प्रचलन था। पटह, भेरी, शंख, मृदंगम्, दुंदुभि आदि वाद्यों का प्रयोग मंगल अवसरों पर एवं युद्ध के समय उत्साह संचार हेतु किया जाता था। गंधर्व, किन्नर तथा राजाओं आदि के निवास स्थान पर गीत तथा वाद्यों का निनाद सदैव गुंजायमान रहता था। युधिष्ठिर की सभा में तुम्बुरू की प्ररेणा पर गंधर्वों तथा किन्नरों ने गायन प्रस्तुत किया था। गायन, वादन एवं नृत्य का प्रयोग जनजीवन के अभिन्न अंग के रूप में विविध उत्सवों आदि के अवसर पर किया जाता था। राजा द्रुपद की राजधानी में विभिन्न वाद्यों की ध्वनियाँ गूँजती रहती थीं। महापुरुषों के आगमन के उपलक्ष में सांगीतिक प्रस्तुतियों का आयोजन किया जाता था जिसमें गायक वर्ग के साथ गणिकाएँ भी भाग लेती थीं।

वाद्यों के अंतर्गत तत्, अवनद्ध, घन तथा सुषिर इन चतुर्विध वाद्यों के विभिन्न प्रकारों का ल्लेख भी मिलता है। यज्ञादि समारोहों पर सदैव ही गायन के साथ वीणा-वादन भी किया जाता था। वीणा की सप्ततंत्रियों को सप्त शुद्ध स्वरों में मिलाया जाता था तथा इनके माध्यम से नानाविध स्वरावलियों का निर्माण किया जाता था। उस समय षड्ज तथा मध्यम ग्राम के अतिरिक्त गांधार ग्राम का भी प्रचलन था। गायन तथा वादन की संगति में मृदंग आदि वाद्यों के साथ, हाथ से ताल देने वाले लोगों को नियुक्त किया जाता था, जिन्हें ‘तालज्ञ’ नाम से जाना जाता था। शिव की आराधना में नृत्य करने वाले नर्तकों के द्वारा ताल के विभिन्न अंगों का समुचित निर्वाह किया जाता था। नट, नर्तक, गायक, सूत, मागध तथा कथावाचक आदि कलाकारों को राजा तथा प्रजा दोनों की ओर से प्रोत्साहन प्राप्त था। मागध, सूत एवं वैतालिक आदि मंगलगीतों के द्वारा राजा का स्तुति गान किया करते थे। गान तथा नृत्य में निपुण कलाकारों को राजा कलाकार के रूप में नियुक्त करता था। प्रसंग के अनुसार पर गीत तथा नृत्य की प्रस्तुति होती थी। वृहन्नलारूपधारी अर्जुन को राजा विराट की कन्या तथा राजस्त्रियों को गीत, वाद्य एवं नृत्य की शिक्षा देने हेतु नियुक्त किया गया था। अर्जुन को गांधर्व विशारद माना जाता था। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत काल में स्त्रियों को संगीत शिक्षा प्रदान करने हेतु योग्य गुरुओं की नियुक्ति की जाती थी। नृत्य के अंतर्गत विविध हावभावों का प्रयोग होता था।

इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों से यह ज्ञात होता है कि महाभारत काल में संगीत विद्या का विशिष्ट स्थान था। यह जन मानस के हृदय में बसने वाली एक दिव्य कला थी। इस काल में संगीत के शास्त्र पक्ष से संबंधित कई महत्वपूर्ण पहलुओं की भी स्पष्ट जानकारी मिलती है।

1. महर्षि वाल्मीकि किसके गुरु थे? उनके शिष्य किस पद्धति में गाते थे?

2. रामायण काल में वाद्य के लिए किस शब्द का प्रयोग किया जाता था?

3. साम गान किन पाँच भागों में गाया जाता था?

4. महाभारत काल में राजा के लिए स्तुति गान कौन करते थे?

5. गांधर्व और गंधर्व में क्या अंतर है?

नाट्यशास्त्र

इस ग्रंथ के रचयिता महर्षि भरत मुनि हैं तथा इसका रचना काल ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ईसा पश्चात् दूसरी शताब्दी तक माना जाता है। प्राचीन काल में भरत शब्द (संगीत कुशल) नट के अर्थ में प्रयुक्त होता था। विद्वानों के मतानुसार नाट्यशास्त्र एक संग्रह ग्रंथ है। इसके लेखक आदि भरत आचार्य थे, परन्तु उनके अतिरिक्त उनके शिष्यों द्वारा भी सूत्रों का संग्रह किया गया और इस ग्रंथ को आगे बढ़ाया गया। इसी कारण उनके शिष्य भी

चित्र 2.3- चिदंबरम नटराज मंदिर पूर्वी गोपुरा में 13 वीं शताब्दी के नाट्यशशास्त्र नृत्य की मुद्रा

परंपरागत रूप से ‘भरत’ कहलाए। कालांतर में महर्षि भरत के वंशज भी भरत कहलाए जाने लगे और नाट़य इनकी आजीविका हो गयी। इस प्रकार धीरे-धीरे अभिनय व्यवसायी जाति का नाम भी भरत हो गया।

  • इस ग्रंभ को नाट्यवेद या पंचमवेद भी कहा गया है। इसे भारतीय संगीत का एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।
  • इसमें 36 अध्याय हैं जिनमें से 28 से 33 अध्याय तक छः अध्यायों में संगीत संबंधी विषयों की चर्चा की गई है।
  • नाट्य के संदर्भ में गायन, वादन व नृत्य संबंधी पक्षों के विवेचन के अंतर्गत गांधर्व-गान, ग्राम, मूर्छ्ना, स्वर, वर्ण, अंलकार तान, स्थान, गीति, श्रुति-जाति, स्वर साधारण, जाति-साधारण आदि के विषय में विस्तार से बताया गया है।
  • नाट्य के विभिन्न प्रसंगों (संधियों) में रसाभिव्यक्ति की दृष्टि से ध्रुवा गान के पाँच गीत प्रकारों का प्रयोग, विभिन्न प्रकार के वाद्यों (आतोद्य) का प्रयोग, तथा उनका तत, अवनद्ध घन व सुषिर वाद्यों के रूप में चतुर्विध वर्गीकरण का उल्लेख है।
  • 18 जातियों के रसानुकूल प्रयोग के लिए विभिन्न प्रकार की वीणा और उनकी वादन विधि, सुषिर वाद्यों का वर्णन, विभिन्न तालों का वर्णन, अवनद्ध वाद्य की उत्पत्ति तथा वादन विधि के अतिरिक्त अन्य अध्यायों (छठे, अठ्हाइसवें व उन्नीसवें) में रस, भाव आदि का विवेचन भी किया गया है।
  • नाट्य का एक विशेष अंग नृत्य भी है इसीलिए इस ग्रंथ में नृत्त (पद संचालन), नृत्य (अंग संचालन) तथा नाट्य (भावाभिनय) के सूक्ष्म विवेचन के साथ हस्त मुर्राओं व हस्त भेद आदि का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।
  • नाट्यशास्त्र की रचना के पूर्व ही आचार्य भरत के पूर्व आचार्यों ने सूत्रों का संग्रह प्रारंभ कर दिया था। नाट्यशास्त्र के संकलन में उनके वंशजों का जो योगदान रहा उनमें कोहल, दत्तिल, शांडिल्य आदि के नाम प्रमुख रूप से लिए जाते हैं।
  • 22 श्रुतियों का अंतर समान है या असमान, इसका प्रमाण (माप) सिद्ध करने के लिए भरतमुनि ने दो वीणाओं का प्रयोग किया। एक वीणा की तंत्रियों को सात स्वरों में मिला दिया गया जिसे ही ‘ध्रुव वीणा’ कहा गया। दूसरी वीणा को ‘चल वीणा’ कहा गया क्योंकि इस वीणा के तंत्रियों को क्रमशः विभिन्न श्रुतियों पर मिलाने की प्रक्रिया अपनाई गई। इस प्रकार नाट्य में संगीत के प्रयोग के महत्व पर प्रकाश डालने की दृष्टि से भरत ने जिस प्रकार छः अध्यायों में संगीत के विविध अंगों को परिभाषित किया है उसके कारण संगीत के इतिहास में नाट्यशास्त्र को एक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना गया है।
  • नाट्यशास्त्र बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

1. नाट्यशास्त्र में नृत्य के बारे में क्या लिखा गया है?

2. नाट्यशास्त्र के दो और नाम प्रचलित हैं?

3. आतोद्य से आप क्या समझते हैं?

4. 22 श्रुतियों को ध्यान में रखकर बताएँ कि इस ग्रंथ में किस तरह का शोध देखने को मिलता है?

बृहद्देशी

इस ग्रंथ के रचयिता मतंग मुनि हैं तथा इसका रचना काल सातवीं-आठवीं शताब्दी (लगभग) माना जाता है। मतंग मुनि द्वारा रचित इस ग्रंथ में निम्न विषयों पर विस्तार से उल्लेख किया गया है -

  • यह ग्रंथ मूलत: नाट्यशास्त्र में वर्णित विषयों पर आधारित है, जैसे— चतु: सारणा, अलंकार, स्वर, श्रुति, ग्राम, मूर्छ्छना आदि।
  • इस समय तक जाति गान से आगे चलकर राग गायन का प्रचार हो चुका था परंतु उनके पूर्व के विद्वानों ने संभवत: रागों के सैद्धांतिक विवेचन के बारे में अधिक नहीं लिखा।
  • उस समय के प्रचलित रागों के तत्वों के अनुसार मतंग मुनि ने रागों के लक्षण निर्धारित किए थे।
  • देशी संगीत के उत्पत्ति व लक्षण, नादोत्पत्ति व नाद की महिमा, नाद के पाँच भेद, जैसेसूक्ष्म, अतिसूक्ष्म, व्यक्त, अव्यक्त और कृत्रिम बताए गए हैं। इसके अतिरिक्त अलंकारों की संख्या 23 मानी गई है।
  • वादी, संवादी, अनुवादी व विवादी स्वर, मूच्च्छना व तान में अंतर, सात गीतियों और जातियों के ग्रह, अंश, न्यास आदि लक्षणों का वर्णन करते हुए इन्हें राग की जननी कहा है तथा सभी प्रबंधों को देशी प्रबंध माना है।

इस ग्रंथ में अध्यायों की संख्या उपलब्ध नहीं है परंतु एक अध्याय में छठा अध्याय शब्द लिखा गया है। इससे प्रतीत होता है कि कालक्रम में ग्रंथ का कुछ भाग अनुपलब्ध हो गया है।

मतंग मुनि ने रागों के तीन भेद शुद्ध, छायालगव संकीर्ण बताए हैं तथा उन्हें ही ‘किन्नरी’ वीणा का आविष्कारक माना जाता है। वीणा पर परदे (सारिका) बाँधने का श्रेय उन्हीं को प्राप्त है। इसके पश्चात् ही सारिका युक्त अनेक वाद्यों का आविर्भाव हुआ।

1. बृहद्देशी की रचना संभवत किस शताब्दी में हुई?

2. मतंग मुनि ने रागों के कितने भेद बताए थे?

3. राग गायन की किन बातों का बृहद्देशी में उल्लेख है?

संगीत रत्नाकर

पंडित शार्ड्गदेव द्वारा रचित ग्रंथ संगीत रत्नाकर को हिंदुस्तानी व कर्नाटक दोनों संगीत पद्धतियों में विशेष महत्व प्राप्त है। यह ग्रंथ 13 वीं शताब्दी का रचित है। इस ग्रंथ में संगीत के क्रियात्मक स्वरूप में किए जाने वाले तकनीकी प्रयोगों के साथ-साथ सैद्धांतिक रूप से भी विभिन्न तकनीकों व अवधारणाओं की परिभाषाओं के साथ-साथ उन्हें विस्तृत रूप से वर्णित भी किया गया है। ध्यानाकर्षक बात यह है कि उन्होंने अपने सैद्धांतिक विवेचन में ‘पूर्वाचार्यस्मरणम्’ कह कर अपने पूर्वाचार्यों व मनीषियों, जैसे— सदाशिव, भरत, कश्यप, मतंग आदि विद्वानों के मतों के साथ-साथ उस समय के सांगीतिक विकास के कारण संगीत में हो रहे परिवर्तनों को भी विचाराधीन रखा।

पंडित शार्ड्गयेव के दादा भास्कर तथा पिता सोढल की वंश परंपरा भारत के कश्मीर प्रांत से संबंधित थी। पश्चात्वर्ती समय में यह लोग कश्मीर से देवगिरी (आधुनिक दौलताबाद) आ गए। इसके बाद वे किन्हीं कारणों से दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान कर गए। इस प्रकार इस वंश के विद्वान भारत के उत्तर व दक्षिण दोनों भागों की कला विज्ञान व सामाजिक परंपराओं को भली-भाँति जानते थे। श्री भास्कर आयुर्वेद के ज्ञाता थे और देवगिरी के शासक के यहाँ नियुक्त थे। उनके पुत्र सोढल यहीं पर कोषाधिकारी के रूप में कार्यरत हुए और उनके पश्चात शार्ड्ड़ंगेव को भी उसी पद पर नियुक्त कर दिया गया। शार्ड्गदेव संस्कृत व तमिल भाषा के भी ज्ञाता थे। आयुर्वेद का ज्ञान उन्हें अपने पूर्वजों से मिला था जिसका प्रमाण संगीत रत्नाकर के प्रथम अध्याय से मिलता है। प्रथम अध्याय के ‘पिण्डोत्पत्ति प्रकरण’ में शार्ड्ग्यदेव ने मानव शरीर की संपूर्ण रचनात्मक प्रक्रिया तथा शरीर में अध्यात्मिक दृष्टि से रचित दस चक्रों के महत्व का वर्णन क्रिया है जिससे यह सिद्ध होता है कि पंडित शार्ड्गदेव एक महान संगीतविद् होने के साथ-साथ विज्ञान, दर्शन तथा उनके कलाओं के ज्ञाता भी थे। संगीत रत्नाकर के रचनाकार पंडित शार्ड्गदेव शिव भक्त थे। अपने ग्रंथ के प्रथम श्लोक में ही इन्होंने नाद के रूप में शिव को उपास्य मानते हुए कहा है— “वन्दे नादतनु तमुद्दुरयदीतं मुदे शङ्करम्”

उनके मतानुसार ‘नाद’ संपूर्ण जगत् में व्याप्त है और मानव शरीर में नाभि में स्थित प्राणवायु के उत्थित होने पर प्राण व अग्नि (ऊर्जा) के संयोग से नाद, कंठध्वनि से उत्पत्ति का कारण होता है। धीरे-धीरे क्रमिक रूप से 22 श्रुतियाँ, विकृत व शुद्ध स्वरों, विभिन्न तकनीकों व अवधारणाओं के रूप में पहचाना जाता है।

सामवेदादिगीतं कहते हुए शार्ड्गदेव ने सामवेद की शाखा के रूप में गीत को विशेष महत्व दिया है। गीत वाद्य व नृत्य में निपुण कलाविद् को ‘तौर्यत्रिक’ नाम से पुकारा गया।

पंडित शार्ड्गदेव ने संगीत को मार्ग संगीत व देशी संगीत के रूप में विभाजित किया है। जिस संगीत को ब्रह्मा आदि देवों द्वारा खोजा गया व भरत आदि मुनियों द्वारा जिसका प्रयोग किया गया उसे मार्ग व लोकरुचि के अनुरूप विकसित संगीत को ‘देशी’ कहा जाता है।

संगीत रत्नाकर को ‘सप्ताध्यायी’ के नाम से भी जाना जाता है। इस ग्रंथ के सात अध्याय हैं जिनमें निहित महत्वपूर्ण संगीत संबंधी सामग्री को ही यहाँ रेखांकित किया जा रहा है।

इन 7 अध्यायों के नाम इस प्रकार है-

  1. स्वरगताध्याय
  2. रागविवेकाध्याय
  3. प्रकीर्णकाध्याय
  4. प्रबन्धाध्याय
  5. तालाध्याय
  6. वाद्याध्याय
  7. नर्तनाध्याय

1. स्वरगताध्याय— प्रथम अध्याय के द्वितीय व तृतीय प्रकरणों में नाद, श्रुति, स्वर, स्वरों के देवता व रस, ग्राम, वर्ण, अलंकार जाति, सप्तक आदि सांगीतिक संज्ञाओं का वर्णन किया गया है। इनके उचित प्रयोगों से असंख्य गीत रचनाएँ, धुनें, विधाएँ व सांगीतिक क्रियाएँ अपना विशिष्ट स्वरूप ग्रहण करती हैं। इसी अध्याय के चौथे व पाँचवें प्रकरण में ग्राम, मूर्च्छना, तान आदि का वर्णन करते हुए षड्ज ग्राम व मध्यम ग्राम पर विशेष बल दिया है और उनसे उत्पन्न होने वाली मूर्च्छना तानों का विवेचन भी किया है। सातवें व आठवें प्रकरण में वर्ण, अलंकार, जाति तथा गीति आदि की चर्चा की गई है।

2. रागविवेकाध्याय- इस अध्याय में राग की परिभाषा, उद्देश्य व महत्व का संकेत देने के साथ-साथ रागों को मार्ग व देशी रागों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मार्ग रागों को छ: तथा देशी रागों को चार प्रमुख वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। इस वर्गीकरण को ही ‘दशविधरागवर्गीकरण’ के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें 264 रागों के वर्णन तथा उनकी उद्राहक तानों का संकेत भी किया गया है। गीतियों (शुद्ध, भिन्ना गौड़ी, वेसरा, साधारणी) के आधार पर पाँच प्रकार के ग्रामरागों का निर्देश भी दिया गया है।

3. प्रकीर्णकाध्याय— इस अध्याय में आलप्ति के विषय में वर्णन किया गया है, जिसमें रागालप्ति, रूपकालप्ति आदि की चर्चा समाविष्ट है। इसमें कलाकार को नियमों का पालन करने के साथ-साथ अपनी कलात्मक प्रतिभा से संगीत को विस्तरित करने का अवसर भी प्राप्त होता है। कुशल संगीतकार होने के साथ-साथ श्रेष्ठ रचनाकार भी हो ऐसे व्यक्ति को ‘वाग्गेयकार’ की संज्ञा देकर उसके लक्षणों का वर्णन करन के साथ-साथ गायक के गुण-दोषों को भी चिह्नित किया गया है। इस अध्याय में कंठध्वनि के उचित प्रयोगों से संबंधित तकनीक के रूप में ‘काकु’ तथा उसके छ: प्रकारों का वर्णन भी किया गया है।

4. प्रबन्धाध्याय— इस अध्याय में गान को दो भागों ‘निबद्ध’ और ‘अनिबद्ध’ के रूप में विभाजित किया गया है। अनिबद्ध गान वह है जो धातु व अंगों से आबद्ध नहीं है और आलाप व आलप्ति के रूप में राग के स्वरूप व उसके विस्तार से संबंधित है। जबकि निबद्ध गान अपनी कुछ आंशिक भिन्नताओं के कारण प्रबंध, वस्तु व रूपक नामों से नामांकित किया जाता है। प्रबंध का शाब्दिक अर्थ है— बँधा हुआ या व्यवस्थित। अत: इसी अर्थ को सम्मुख रखते हुए प्रबंध को 4 धातुओं व 6 अंगों तथा जातियों से संबंधित नियमों से व्यवस्थित करते हुए उसके अनेक प्रकारों का वर्णन किया गया है।

5. तालाध्याय— इस अध्याय में रागाध्याय में वर्णित मार्ग व देशी रागों की भाँति ही तालों को भी मार्ग व देशी तालों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ताल की परिभाषा व उसका संगीत में महत्व दर्शाने के साथ-साथ प्रमुख रूप से 5 मार्ग तालों व 20 देशी तालों को निर्धारित किया गया है। ताल प्रक्रिया को व्यवस्थित करने की दृष्टि से दस प्राणों अर्थात् प्रक्रियाओं का भी विस्तृत वर्णन किया गया है जिसे ‘तालदशप्राण’ की संज्ञा दी गई है।

6. वाद्याध्याय— इस अध्याय में ग्रंथकार ने भारत के प्राचीन व अधुना अर्थात् 13 वों शताब्दी तक प्रचलित संगीत वाद्यों का वर्णन करते हुए उन्हें चार वर्गों में वर्गीकृत किया है। उनके पूर्वाचार्यों ने भी इसी चतुर्विध वर्गीकरण को वाद्यों के वर्गीकरण का आधार बनाया था (आज भी वैज्ञानिक यंत्रों को छोड़कर, अन्य वाद्यों को वर्गीकृत करते हुए इसी वर्गीकरण को अपनाया जा रहा है। यह चार वर्ग हैं- (1) तत् या तंत्री वाद्य (2) सुषिर या फूँक से बनाए जाने वाले वाद्य (3) अवनद्ध या चर्म मढ़े हुए वाद्य (4) घन या धातु के उपधातु से बनने वाले वाद्य। ग्रंथ में वाद्यों की बनावट उनके आकार-प्रकार तथा वादन तकनीकों का विस्तृत वर्णन किया गया है।

7. नर्तनाध्याय— इस अध्याय में 13 वीं शताब्दी तक भारत में प्रचलित नृत्य विधाओं, नृत्य शैलियों, नृत्य की अंग भंगिमाओं, आंगिक भाव प्रदर्शन, रस सिद्धांत आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसमें विभिन्न नृत्य मुद्राओं एवं हस्त मुद्राओं पर भी प्रकाश डाला गया है।

इस प्रकार संगीत रत्नाकर भारत में मुस्लिम साम्राज्य स्थापित होने से पूर्व काल का अंतिम ग्रंथ है। इसमें वर्णित सामग्री उत्तर व दक्षिण भारतीय दोनों संगीत पद्धतियों के लिए महत्वपूर्ण है। इसका कारण है कि दो भिन्न पद्धतियों के अस्तित्व में आने से पूर्व सामवेद से चली आ रही एक ही संगीत पद्धति जिसे ‘भारतीय संगीत पद्धति’ के नाम से जाना जाता था, संपूर्ण भारत में संगीतविदों द्वारा अपनाई जाती थी। उत्तर भारत में मुस्लिम शासन काल में मुस्लिम संस्कृति के प्रभाव के कारण आए परिवर्तनों के फलस्वरूप 13 वीं शताब्दी के बाद से उत्तर भारत में पंजाब, दिल्ली व अन्य प्रदेशों के संगीत में कुछ अंतर परिलक्षित होने लगे। इससे पहले कि यह अंतर दक्षिण भारत के संगीत को प्रभावित करते, मुस्लिम शासन भारत में समाप्ति पर आ गया। धोरे-धीरे यह परिवर्तन या अंतर दो पद्धतियों के स्वरूप के रूप में चि््नित किए जाने लगे। परंतु फिर भी संगीत के परंपरागत सिद्धांत, तकनीकी प्रयोग तथा आकार-प्रकार में संबंधित शास्त्रों में वर्णित साम्रगी न केवल भारतीय संगीत की दृढ़ आधारशिला बन कर सामवेद में चली आ रही संगीत सरिता का संरक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इसके साथ ही समय-समय पर होने वाले नवीन परिवर्तनों एक मर्यादाबद्ध रूप में समन्वित करने का दिशानिर्देश देते हुए, संगीत के विकास मार्ग को प्रशस्त करने की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वूपर्ण सिद्ध हो रही है।

1. संगीत रत्नाकर में शार्ड्गदेव ने किन विद्वानों का उल्लेख किया है?

2. पिण्डोत्पत्ति प्रकरण से क्या समझ में आता हैं?

3. पंडित शार्ड्गदेव के वंश की आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए?

4. तौर्यत्रिक शब्द से आप क्या समझते हैं?

5. संगीत के विशेष तथ्यों को लिखिए?

  • द्वितीय व तृतीय प्रकरण
  • चौथे व पाँचवे प्रकरण

6. दशविधरागवर्गीकरण क्या है?

7. किन गीतियों के आधार पर पाँच प्रकार के ग्रामरागों का निर्देश दिया गया है?

8. वागेयकार किसको कहा जाता था?

9. निबद्ध और अनिबद्ध में क्या भिन्नता पाई जाती है?

10. तालदशप्राण किसे कहा गया है?

सारांश

संगीत में प्राचीन ग्रंथों को ही आधार माना गया है। वैदिक काल से मध्य काल तक संगीत के शास्त्र पक्ष में अनेक शोध, वैच्त्रिय एवं विकास देखा गया है। आज के युग जैसे रिकार्डिंग की अवधारणा उस समय सोची भी नहीं गई थी। इसी ग्रंथों में संकलित संगीत के विभिन्न तत्व ही हमारे लिए विचारणीय एवं ज्ञान के स्रोत हैं। प्रस्तुत अध्याय में सामवेद, रामायण, महाभारत, नाट्यशास्त्र, बृहदेशी एवं संगीत रत्नाकार की विशेष बातों की चर्चा की गई है। नाद, श्रुति, स्वर ताल, लय, वाद्ययंत्र इत्यादि सभी संगीतिक परिदृश्य को समझाने एवं महत्व को समझाने का प्रयास किया गया है।

अभ्यास

आइये, ढेखते हैं क्या इस पाठ को पढ़कर हम निम्न प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं-

1. नाट्यशास्त्र के कितने अध्यायों में संगीत विषयों की चर्चा की गई है?

2. मतंग मुनि किस वीणा के आविष्कारक माने जाते हैं?

3. नाट्यशास्त्र में कितनी जातियों का वर्णन किया गया है?

4. साम किसे कहते हैं तथा सामवेद के दो प्रधान भाग कौन-से हैं?

5. मतंग मुनि ने रागों के कितने भेद बताए हैं?

6. साम गीत को कितने भागों में विभाजित किया जाता था?

7. मतंगकृत बृहद्देशी में वर्णित विषयों एवं सिद्धांतों को विस्तार से समझाइए।

8. बृहद्देशी में दिए गए नाटक के पाँच भेद बताइए?

9. रामायण काल में वाद्य के लिए किस शब्द का प्रयोग किया गया है तथा इसके अंतर्गत कौन-कौन से वाद्य आते हैं?

10. रामायण काल में संगीतकारों की विभिन्न जातियाँ कौन-कौन सी थीं?

11. रावण शिव आराधना किस प्रकार किया करता था तथा उसके द्वारा बजाया जाने वाला वाद्य कौन-सा था?

12. महाभारत काल में साम तथा गांधर्व गान का प्रचार प्रसार किस प्रकार हुआ?

13. भरतकृत नाट्यशास्त्र में वर्णित विषय वस्तु पर प्रकाश डालिए।

14. वैदिक काल से संगीत के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए संगीत में सामवेद के महत्व को समझाइए।

सही या गलत बताइए-

1. महाभारत महाकाव्य की रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी।

(सही/गलत)

2. रामायण काल में अयोध्या आदि नगरों में वाद्यों का प्रचलन नहीं था।

(सही/गलत)

3. रावण द्वारा बजाया जाने वाला वाद्य रावणहत्था एक प्रकार का सुषिर वाद्य है।

(सही/गलत)

4. महाकाव्य रामायण के सभी श्लोक छंदबद्ध व गाने योग्य हैं।

(सही/गलत)

5. भेरी, दुंदुभि व मृंदगम वाद्य अवनद्ध वाद्यों की श्रेणी में आते हैं।

(सही/गलत)

6. महाभारत काल में साम तथा गांधर्व दोनों गान प्रकारों का प्रचार-प्रसार था।

(सही/गलत)

7. सामगान का उद्देश्य परमात्मा की आराधना माना जाता था।

(सही/गलत)

8. ऋग्वेद मंत्रों में से कुछ मंत्रों को गेय बनाकर सामवेद के रूप में संकलित किया गया।

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

1. साम का आरंभ एवं शेष ____________ से किया जाता था।

2. मतंग _________ वीणा के अविष्कारक माने जाते हैं।

3. प्राचीन सांस्कृतिक महाकाव्य रामायण की रचना __________ ने की।

4. बृहद्देशी के रचयिता __________ हैं।

5. ऋक की ऋचाओं में से ___________ योम्ये ऋचाओं के __________ स्वरूप के संकलन से सामवेद की रचना हुई।

6. साम का प्रारंभिक भाग ___________ है।

7. उद्गीथ को गाने वाले ऋत्विज को ____________ कहा जाता था।

8. साम गान का मुख्य गायक ___________ करता था।

9. विपंची तथा वल्लकी ____________ वाद्य के विभिन्न प्रकार थे।

10. साम गान के गायक को ___________ कहते हैं।

11. बृहद्देशी के रचयिता ____________ मुनि थे।

12. साम गीत के प्रारंभिक भाग को ____________ नामक ऋत्विज गाते हैं।

13. _____________, ____________ एवं ___________ मंगलगीतों के द्वारा राजा का स्तुतिगान किया करते थे।

14. साम गान करने वाले मुख्य गायकों को _____________ की संज्ञा प्रदान की गई थी।

15. महाकाव्य महाभारत की रचना _____________ ने की।

विभाग ‘अ’ के शब्दों का ‘आ’ विभाग में दिए गु शब्दों से मिलान करें-

(क) अर्जुन 1. रामायण
(ख) व्यास 2. भरतमुनि
(ग) उद्गाता 3. स्तुतिगान
(घ) किन्नरी वीणा 4. ऋचाएँ
(ङ$\cdot$) अष्टाध्यायी 5. वृहन्नला
(च) रावणहत्था 6. अवनद्ध वाद्य
(छ) महर्षि वाल्मीकि 7. चौथी शताब्दी
(ज) वृंदवादन 8. मतंग
(झ) वैतालिक 9. सुषिर वाद्य
(उ) तूर्य 10. वीणा
(ट) नाट्यशास्त 11. साम गान
(ठ) कोण 12. वाद्य
(ड) भेरि 13. दण्ड
(ढ) पंचमवेद 14. पाणिनि
(ग) घोष 15. महाभारत
(त) सारणा चतुष्टयी 16. कुतुप


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