अध्याय 10 मीरा

मीरा

( सन् 1498-1546 )

जन्म : सन् 1498, कुड़की गाँव (मारवाड़ रियासत)

प्रमुख रचनाएँ: मीरा पदावली, नरसीजी-रो-माहेरो

मृत्यु : सन् 1546

मीरा सगुण धारा की महत्वपूर्ण भक्त कवयित्री थीं। कृष्ण की उपासिका होने के कारण उनकी कविता में सगुण भक्ति मुख्य रूप से मौजूद है लेकिन निर्गुण भक्ति का प्रभाव भी मिलता है। संत कवि रैदास उनके गुरु माने जाते हैं। बचपन से ही उनके मन में कृष्ण भक्ति की भावना जन्म ले चुकी थी। इसलिए वे कृष्ण को ही अपना आराध्य और पति मानती रहीं।

अन्य भक्तिकालीन कवियों की तरह मीरा ने भी देश में दूर-दूर तक यात्राएँ कीं। चित्रौड़ राजघराने में अनेक कष्ट उठाने के बाद मीरा वापस मेड़ता आ गईं। यहाँ से उन्होंने कृष्ण की लीला भूमि वृन्दावन की यात्रा की। जीवन के अंतिम दिनों में वे द्वारका चली गईं। माना जाता है कि वहीं रणछोड़ दास जी की मंदिर की मूर्ति में वे समाहित हो गईं।

उन्होंने लोकलाज और कुल की मर्यादा के नाम पर लगाए गए सामाजिक और वैचारिक बंधनों का हमेशा विरोध किया। पर्दा प्रथा का भी पालन नहों किया तथा मंदिर में सार्वजनिक रूप से नाचने-गाने में कभी हिचक महसूस नहीं की।

मीरा मानती थीं कि महापुरुषों के साथ संवाद (जिसे सत्संग कहा जाता था) से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से मुक्ति मिलती है। अपनी इन मान्यताओं को लेकर वे दृढ़निश्चयी थीं। निंदा या बंदगी उनको अपने पथ से विचलित नहीं कर पाई। जिस पर विश्वास किया, उस पर अमल किया। इस अर्थ में उस युग में जहाँ रूढ़ियों से ग्रस्त समाज का दबदबा था, वहाँ मीरा स्त्री मुक्ति की आवाज़ बनकर उभरीं। मीरा की कविता में प्रेम की गंभीर अभिव्यंजना है। उसमें विरह की वेदना है और मिलन का उल्लास भी। मीरा की कविता का प्रधान गुण सादगी और सरलता है। कला का अभाव ही उसकी सबसे बड़ी कला है। उन्होंने मुक्तक गेय पदों की रचना की। लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत दोनों क्षेत्रों में उनके पद आज भी लोकप्रिय हैं। उनकी भाषा मूलतः राजस्थानी है तथा कहीं-कहीं ब्रजभाषा का प्रभाव है। कृष्ण के प्रेम की दीवानी मीरा पर सूफ़ियों के प्रभाव को भी देखा जा सकता है। मीरा की कविता के मूल में दर्द है। वे बार-बार कहती हैं कि कोई मेरे दर्द को पहचानता नहीं, न शत्रु न मित्र।

यहाँ प्रस्तुत पद में मीरा ने कृष्ण से अपनी अनन्यता व्यक्त की है तथा व्यर्थ के कार्यों में व्यस्त लोगों के प्रति दुख प्रकट किया है।

पद नरोत्तम दास स्वामी द्वारा संकलित-संपादित मीराँ मुक्तावली से लिया गया है।

पद 1

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई

जा के सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई

छांड़ि दयी कुल की कानि, कहा करिहै कोई?

संतन ढिग बैठि-बैठि, लोक-लाज खोयी

अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बेलि बोयी

अब त बेलि फैलि गयी, आणंद-फल होयी

दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलोयी

दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी

भगत देखि राजी हुयी, जगत देखि रोयी

दासि मीरां लाल गिरधर! तारो अब मोही

अभ्यास

पद के साथ

1. मीरा कृष्ण की उपासना किस रूप में करती हैं? वह रूप कैसा है?

2. भाव व शिल्प सौंदर्य स्पष्ट कीजिए -

(क) अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बेलि बोयी

अब त बेलि फैलि गई, आणंद-फल होयी

(ख) दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलोयी

दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी

3. मीरा जगत को देखकर रोती क्यों हैं?

पद के आस-पास

1. कल्पना करें, प्रेम प्राप्ति के लिए मीरा को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा।

2. लोक लाज खोने का अभिप्राय क्या है?

शब्द-छवि

कानि - मर्यादा
ढिग - साथ
बेलि - प्रेम की बेल
विलोयी - मथी
छोयी - छाछ, सारहीन अंश


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