अध्याय 03 टोपी शुक्ला

राही मासूम रज़ा
सन् 1927-1992

राही मासूम रज़ा का जन्म 1 सितंबर 1927 को पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के गंगौली गाँव में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। अलीगढ़ युनिवर्सिटी से उर्दू साहित्य में पीएच.डी. करने के बाद उन्होंने कुछ साल तक वहीं अध्यापन कार्य किया। फिर वे मुंबई चले गए जहाँ सैकड़ों फ़िल्मों की पटकथा, संवाद और गीत लिखे। प्रसिद्ध धारावाहिक ‘महाभारत’ को पटकथा और संवाद लेखन ने उन्हें इस क्षेत्र में सर्वाधिक ख्याति दिलाई।

राही मासूम रज़ा एक ऐसे कवि-कथाकार थे जिनके लिए भारतीयता आदमीयत का पर्याय रही। इनके पूरे लेखन में आम हिंदुस्तानी की पीड़ा, दुख-दर्द, उसकी संघर्ष क्षमता की अभिव्यक्ति है। राही ने जनता को बाँटने वाली शक्तियों, राजनीतिक दलों, व्यक्तियों, संस्थाओं का खुला विरोध किया। उन्होंने संकीर्णताओं और अंधविश्वासों, धर्म और राजनीति के स्वार्थी गठजोड़ आदि को भी बेनकाब किया।

राही मासूम रज़ा की प्रमुख कृतियाँ हैं-आधा गाँव, टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, कटरा बी आर्जू, असंतोष के दिन, नीम का पेड़ (सभी हिंदी उपन्यास); मुहब्बत के सिवा (उर्दू उपन्यास); मैं एक फेरी वाला (कविता संग्रह); नया साल, मौजे गुल : मौजे सबा, रक्से-मय, अजनबी शहर : अजनबी रास्ते (सभी उर्दू कविता संग्रह), अद्रारह सौ सत्तावन (हिंदी-उर्दू महाकाव्य) और छोटे आदमी को बड़ी कहानी (जीवनी)। राही का निधन 15 मार्च 1992 को हुआ।

टोपी शुक्ला

इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है कि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी ने सदा इफ्फन कहा। इफ़्फ़न ने इसका बुरा माना। परंतु वह इफ्फन पुकारने पर बोलता रहा। इसी बोलते रहने में उसकी बड़ाई थी। यह नामों का चक्कर भी अजीब होता है। उर्दू और हिंदी एक ही भाषा, हिंदवी के दो नाम हैं। परंतु आप खुद देख लीजिए कि नाम बदल जाने से कैसे-कैसे घपले हो रहे हैं। नाम कृष्ण हो तो उसे अवतार कहते हैं और मुहम्मद हो तो पैगंबर। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल गए कि दोनों ही दूध देने वाले जानवर चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोबरधन और ब्रज-कुमार थे। इसीलिए तो कहता हूँ कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल यह कि अधूरे हैं बल्कि बेमानी हैं। इसलिए इ़़फ़़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही हैं और पररपराओं’ के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं।

इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परंतु हम लोग टोपी की कहानी कह-सुन रहे हैं। इसीलिए मैं इ़़फ़न की पूरी कहानी नहों सुनाऊँगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाऊँगा जितनी टोपी की कहानी के लिए ज़रूरी है।

मैंने इसे ज़रूरी जाना कि इफ़फ़ के बारे में आपको कुछ बता दूँ क्योंकि इफ़फ़न आपको इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देगा। न टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की। ये दोनों दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का डेवलपमेंट ${ }^{2}$ एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ। इन दोनों को दो तरह की घरेलू परंपराएँ मिलीं। इन दोनों ने जीवन के बारे में अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट ${ }^{3}$ हिस्सा है। यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है।

मैं हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं यह बेवकूफ़ी क्यों करूँ! क्या मैं रोज़ अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता हूँ कि हम दोनों भाई-भाई हैं? यदि मैं नहीं कहता तो क्या आप कहते है? हिंदू-मुसलमान अगर भाई-भाई हैं तो कहने की ज़रूरत नहीं। यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा। मुझे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है।

मैं तो एक कथाकार हूँ और एक कथा सुना रहा हूँ। मैं टोपी और इफ़्फ़न की बात कर रहा हूँ। ये इस कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को टोपी कहा गया और दूसरे को इफ़्फ़न।

इप़फ़न के दादा और परदादा बहुत प्रसिद्ध मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परंतु वसीयत ${ }^{4}$ करके मरे कि लाश करबला ${ }^{5}$ ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने इस देश में एक साँस तक न ली। उस खानदान में जो पहला हिंदुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह बढ़कर इफ़फ़न का बाप हुआ।

जब इफ़फ़न के पिता सय्यद मुरतुजा हुसैन मरे तो उन्होंने यह वसीयत नहों की कि उनकी लाश करबला ले जाई जाए। वह एक हिंदुस्तानी कब्रिस्तान में दफ़़न किए गए।

इ़़फ़न की परदादी भी बड़ी नमाजी बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काजमैन और जाने कहाँ की यात्रा कर आई थीं। परंतु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा ज़रूर रखवातीं और माश का सदका ${ }^{7}$ भी ज़रूर उतरवातीं।

इए़फ़़न की दादी भी नमाज़-रोज़े की पाबंद थीं परंतु जब इकलौते बेटे को चेचक ${ }^{8}$ निकली तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुईं और बोलीं, “माता मोरे बच्चे को माफ़ करद्यो।” पूरब की रहने वाली थीं। नौ या दस बरस की थीं जब ब्याह कर लखनऊ आईं, परंतु जब तक ज़िदा रहीं पूरबीं बोलती रहीं। लखनऊ की उर्दू ससुराली थी। वह तो मायके की भाषा को गले लगाए रहीं क्योंकि इस भाषा के सिवा इधर-उधर कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझता। जब बेटे की शादी के दिन आए तो गाने-बजाने के लिए उनका दिल फड़का परंतु मौलवी के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था! बेचारी दिल मसोसकर रह गईं। हाँ इफ़फ़न की छठी ${ }^{10}$… पर उन्होंने जी भरकर जश्न ${ }^{11}$ मना लिया।

बात यह थी कि इफ़़्फ़ अपने दादा के मरने के बाद पैदा हुआ था। मर्दों और औरतों के इस फ़र्क को ध्यान में रखना ज़रूरी है क्योंकि इस बात को ध्यान में रखे बगैर इफ़फ़न की आत्मा का नाक-नक्शा ${ }^{12}$ समझ में नहीं आ सकता।

इए़फ़़न की दादी किसी मौलवी की बेटी नहीं थीं बल्कि एक ज़मींदार की बेटी थीं। दूध-घी खाती हुई आई थीं परंतु लखनऊ आकर वह उस दही के लिए तरस गईं जो घी पिलाई हुई काली हाँडियों में असामियों के यहाँ से आया करता था। बस मायके जातीं तो लपड़-शपड़ जी भर के खा लेतों। लखनऊ आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने मियाँ से उन्हें यही तो एक शिकायत थी कि वक्त देखें न मौका, बस मौलवी ही बने रहते हैं।

ससुराल में उनकी आत्मा सदा बेचैन रही। जब मरने लगीं तो बेटे ने पूछा कि लाश करबला जाएगी या नजफ़, तो बिगड़ गईं। बोलीं, “ए बेटा जउन तूँ से हमरी लाश ना सँभाली जाए त हमरे घर भेज दिहो।”

मौत सिर पर थी इसलिए उन्हें यह याद नहीं रह गया कि अब घर कहाँ है। घरवाले कराची में हैं और घर कस्टोडियन ${ }^{13}$ का हो चुका है। मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं। उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज़्यादा खूबसूरत सपने देखता है (यह कथाकार का खयाल है, क्योंकि वह अभी तक मरा नहीं है!) इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी की बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ ${ }^{14}$ याद आया जो उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और जो उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बेशुमार ${ }^{15}$ चीज़ें याद आईं। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नजफ़ कैसे जा सकती थीं!

वह बनारस के ‘फ़ातमैन’ में दफ़न की गईं क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी बीबी कही जाती थीं।

इफ़्फ़न तब चौथे में पढ़ता था और टोपी से उसकी मुलाकात हो चुकी थी।

इ़़फ़़न को अपनी दादी से बड़ा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अपनी अम्मी, अपनी बाजी $^{16}$ और छोटी बहन नुज़हत से भी था परंतु दादी से वह ज़रा ज़्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार डाँट मार लिया करती थीं। बाजी का भी यही हाल था। अब्बू भी कभी-कभार घर को कचहरी ${ }^{17}$ समझकर फैसला सुनाने लगते थे। नुज़हत को जब मौका मिलता उसकी कापियों पर तसवीरें बनाने लगती थीं। बस एक दादी थी जिन्होंने कभी उसका दिल नहीं दुखाया। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थीं।

“सोता है संसार जागता है पाक ${ }^{18}$ परवरदिगार। आँखों की देखी नहों कहती। कानों की सुनी कहती हूँ कि एक मुलुक ${ }^{19}$ में एक बादशाह रहा….”

दादी की भाषा पर वह कभी नहीं मुसकराया। उसे तो अच्छी-भली लगती थी। परंतु अब्बू नहीं बोलने देते थे। और जब वह दादी से इसकी शिकायत करता तो वह हँस पड़तीं, “अ मोरा का है बेटा! अनपढ़ गँवारन की बोली तूँ काहे को बोले लग्यो। तूँ अपने अब्बा ही की बोली बोलौ।” बात खत्म हो जाती और कहानी शुरू हो जाती-

“त ऊ बादशा का किहिस कि तुरंते ऐक ठो हिरन मार लिआवा…।”

यही बोली टोपी के दिल में उतर गई थी। इफ़फ़न की दादी उसे अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दीं। अपनी दादी से तो उसे नफ़रत थी, नफ़रत। जाने कैसी भाषा बोलती थीं। इ़़फ़न के अब्बू और उसकी भाषा एक थी।

वह जब इफ़़्फ़ के घर जाता तो उसकी दादी ही के पास बैठने की कोशिश करता। इए़फ़न की अम्मी और बाजी से वह बातचीत करने की कभी कोशिश ही न करता। वे दोनों अलबत्ता ${ }^{20}$ उसकी बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तों परंतु जब बात बढ़ने लगती तो दादी बीच-बचाव करवा देतों-

“तैं काहे को जाथै उन सभन के पास मुँह पिटावे को झाड़ू मारे। चल इधिर आ…” वह डाँटकर कहतीं। परंतु हर शब्द शक्कर का खिलौना बन जाता। अमावट ${ }^{21}$ बन जाता। तिलवा ${ }^{22}$ बन जाता…और वह चुपचाप उनके पास चला जाता।

“तोरी अम्माँ का कर रहीं…” दादी हमेशा यहीं से बात शुरू करतीं। पहले तो वह चकरा जाता कि यह अम्माँ क्या होता है। फिर वह समझ गया कि माता जी को कहते हैं।

यह शब्द उसे अच्छा लगा। अम्माँ। वह इस शब्द को गुड़ की डली की तरह चुभलाता रहा। अम्माँ। अब्बू। बाजी।

फिर एक दिन गज़ब हो गया।

डॉक्टर भृगु नारायण शुक्ला नीले तेल वाले के घर में भी बीसवों सदी प्रवेश कर चुकी थी। यानी खाना मेज़-कुरसी पर होता था। लगती तो थालियाँ ही थीं परंतु चौके पर नहीं।

उस दिन ऐसा हुआ कि बैंगन का भुरता उसे ज़रा ज़्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी खाना परोस रही थी। टोपी ने कहा-

“अम्मी, ज़रा बैगन का भुरता।”

अम्मी!

मेज़ पर जितने हाथ थे रुक गए। जितनी आँखें थीं वो टोपी के चेहरे पर जम गईं। अम्मी! यह शब्द इस घर में कैसे आया। अम्मी! परंपराओं की दीवार डोलने लगी। “ये लफ़्ज़़ ${ }^{23}$ तुमने कहाँ सीखा?” सुभद्रादेवी ने सवाल किया।

“लफ़्ज़?” टोपी ने आँखें नचाईं। “लफ़्ज़ का होता है माँ?”

“ये अम्मी कहना तुमको किसने सिखाया है?” दादी गरज़ीं।

“ई हम इफ़्फ़न से सीखा है।”

“उसका पूरा नाम क्या है?”

“ई हम ना जानते।”

“तैं कउनो मियाँ के लइका से दोस्ती कर लिहले बाय का रे?”

रामदुलारी की आत्मा गनगना गई।

“बहू, तुमसे कितनी बार कहूँ कि मेरे सामने गँवारों की यह ज़बान न बोला करो।” सुभद्रादेवी रामदुलारी पर बरस पड़ीं।

लड़ाई का मोरचा बदल गया।

दूसरी लड़ाई के दिन थे। इसलिए जब डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले को यह पता चला कि टोपी ने कलेक्टर साहब के लड़के से दोस्ती गाँठ ली है तो वह अपना गुस्सा पी गए और तीसरे ही दिन कपड़े और शक्कर के परमिट ले आए।

परंतु उस दिन टोपी की बड़ी दुर्गति ${ }^{24}$ बनी। सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गईं और रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा।

“तैं फिर जय्यबे ओकरा घरे?”

“हाँ।”

“अरे तोहरा हाँ में लुकारा आगे माटी मिलऊ।”

…रामदुलारी मारते-मारते थक गई। परंतु टोपी ने यह नहीं कहा कि वह इफ़फ़न के घर नहीं जाएगा। मुन्नी बाबू और भैरव उसकी कुटाई 25 का तमाशा देखते रहे।

“हम एक दिन एको रहीम कबाबची ${ }^{26}$ की दुकान पर कबाबो खाते देखा रहा।” मुन्नी बाबू ने टुकड़ा लगाया।

कबाब!

“राम राम राम!” रामदुलारी घिन्ना के दो कदम पीछे हट गईं। टोपी मुन्नी की तरफ़ देखने लगा। क्योंकि असलियत यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी। टोपी को यह मालूम था परंतु वह चुगलखोर नहीं था। उसने अब तक मुन्नी बाबू की कोई बात इफ़्फ़न के सिवा किसी और को नहीं बताई थी।

“तूँ हम्में कबाब खाते देखे रह्यो?”

“ना देखा रहा ओह दिन?” मुन्नी बाबू ने कहा।

“तो तुमने उसी दिन क्यों नहीं बताया?” सुभद्रादेवी ने सवाल किया।

“इ झुट्ठा है दादी!” टोपी ने कहा।

उस दिन टोपी बहुत उदास रहा। वह अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि झूठ और सच के किस्से में पड़ता-और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी नहीं हो सका। उस दिन तो वह इतना पिट गया था कि उसका सारा बदन दुख रहा था। वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि अगर एक दिन के वास्ते वह मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाता तो समझ लेता उनसे। परंतु मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाना उसके बस में तो था नहीं। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और उनसे छोटा ही रहा। दूसरे दिन वह जब स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे सारी बातें बता दीं। दोनों जुगराफ़िया ${ }^{27}$ का घंटा छोड़कर सरक गए। पंचम की दूकान से इफ़फ़न ने केले खरीदे। बात यह है कि टोपी फल के अलावा और किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था।

“अय्यसा ना हो सकता का की हम लोग दादी बदल लें,” टोपी ने कहा। “तोहरी दादी हमरे घर आ जाएँ अउर हमरी तोहरे घर चली जाएँ। हमरी दादी त बोलियो तूँहीं लोगन को बो-ल-थीं।”

“यह नहीं हो सकता।” इफ़्फ़न ने कहा, “अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। और मुझे कहानी कौन सुनाएगा? तुम्हारी दादी को बारह बुर्ज की कहानी आती है?”

“तूँ हम्मे एक ठो दादियो ना दे सकत्यो?” टोपी ने खुद अपने दिल के टूटने की आवाज़ सुनी।

“जो मेरी दादी हैं वह मेरे अब्बू की अम्माँ भी तो हैं।” इफ़फ़न ने कहा।

यह बात टोपी की समझा में आ गई।

“तुम्हारी दादी मेरी दादी की तरह बूढ़ी होंगी?”

“हाँ।”

“तो फ़िकर न करो।” इफ़्फ़न ने कहा, “मेरी दादी कहती हैं कि बूढ़े लोग मर जाते हैं।” “हमरी दादी ना मरिहे।”

“मरेगी कैसे नहीं? क्या मेरी दादी झूठी हैं?”

ठीक उसी वक्त नौकर आया और पता चला कि इफ़्फ़न की दादी मर गईं।

इफ़्फ़न चला गया। टोपी अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिमनेज़ियम में चला गया। बूढ़ा चपरासी एक तरफ़ बैठा बीड़ी पी रहा था। वह एक कोने में बैठकर रोने लगा।

शाम को वह इफ़फ़न के घर गया तो वहाँ सन्नाटा था। घर भरा हुआ था। रोज़ जितने लोग हुआ करते थे उससे ज़्यादा ही लोग थे। परंतु एक दादी के न होने से टोपी के लिए घर खाली हो चुका था। जबकि उसे दादी का नाम तक नहीं मालूम था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों का पाबंद नहीं होता। टोपी और दादी में एक ऐसाइफ़्फ़न

ही संबंध हो चुका था। इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह भी इस संबंध को बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले न समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों प्यासे थे। एक ने दूसरे की प्यास बुझा दी थी। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे। दोनों ने एक-दूसरे का अकेलापन मिटा दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का।

“तोरी दादी की जगह हमरी दादी मर गई होतीं त ठीक भया होता।” टोपी ने इफ़्फ़न को पुरसा ${ }^{28}$ दिया।

इए़फ़न ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे इस बात का जवाब आता ही नहीं था। दोनों दोस्त चुपचाप रोने लगे।

टोपी ने दस अक्तूबर सन् पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी ऐसे लड़के से दोस्ती नहीं करेगा जिसका बाप ऐसी नौकरी करता हो जिसमें बदली होती रहती है।

दस अक्तूबर सन् पैंतालीस का यूँ तो कोई महत्त्व नहीं परंतु टोपी के आत्म-इतिहास में इस तारीख का बहुत महत्त्व है, क्योंकि इसी तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। इफ़्फ़न की दादी के मरने के थोड़े ही दिनों बाद यह तबादला ${ }^{29}$ हुआ था, इसलिए टोपी और अकेला हो गया क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त न बन सका। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परंतु केवल अंग्रेज़ी बोलता था। और यह बात भी थी कि उन तीनों को इसका एहसास ${ }^{30}$ था कि वे कलेक्टर के बेटे हैं। किसी ने टोपी को मुँह नहीं लगाया।

माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए वह बाँगले में चला गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने हिट किया। गेंद सीधी टोपी के मुँह पर आई। उसने घबराकर हाथ उठाया। गेंद उसके हाथों में आ गई।

“हाउज़ दैट!”

हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। वह बेचारा केवल यह समझ सका कि जब ‘हाउज दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए।

“हू आर यू?” डब्बू ने सवाल किया।

“बलभद्दर नरायन।” टोपी ने जवाब दिया।

“हू इज़ योर फ़ादर?” यह सवाल गुड्डू ने किया।

“भृगु नरायण।”

“ऐं।” बीलू ने अंपायर को आवाज़ दी, “ई भिरगू नरायण कौन ऐ? एनी ऑफ़ अवर चपरासीज़?”

“नाहीं साहब।” अंपायर ने कहा, “सहर के मसहूर दागदर हैं।”

“यू मीन डॉक्टर?” डब्बू ने सवाल किया।

“यस सर!” हेड माली को इतनी अंग्रेज़ी आ गई थी।

“बट ही लुक्स सो क्लम्ज़ी।” बीलू बोला।

“ए!” टोपी अकड़ गया। “तनी जबनिया सँभाल के बोलो। एक लप्पड़ में नाचे लगिहो।”

“ओह यू…” बीलू ने हाथ चला दिया। टोपी लुढ़क गया। फिर वह गालियाँ बकता हुआ उठा। परंतु हेड माली बीच में आ गया और डब्बू ने अपने अलसेशियन को शुशकार ${ }^{31}$ दिया।

पेट में सात सुइयाँ भुकों तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले का रुख नहीं किया। परंतु प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आखिर वह करे क्या? घर में ले-देकर बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुख-दर्द समझती थी। तो वह उसी के पल्लू में चला गया और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे।

“टेक मत किया करो बाबू!” एक रात जब मुन्नी बाबू और भैरव का दाज ${ }^{32}$ करने पर वह बहुत पिटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी में ले जाकर समझाना शुरू किया।

बात यह हुई कि जाड़ों के दिन थे। मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया। भैरव के लिए भी नया कोट बना। टोपी को मुन्नी बाबू का कोट मिला। कोट बिलकुल नया था। मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो था उन्हीं के लिए। था तो उतरन। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी जाने वाली चीज़ वापस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी जाड़ा खाए।

“हम जाड़ा-ओड़ा ना खाएँगे। भात खाएँगे।” टोपी ने कहा।

“तुम जूते खाओगे।” सुभद्रादेवी बोलीं।

“आपको इहो ना मालूम की जूता खाया ना जात पहिना जात है।”

“दादी से बदतमीज़ी करते हो।” मुन्नी बाबू ने बिगड़कर कहा।

“त का हम इनकी पूजा करें।”

फिर क्या था! दादी ने आसमान सिर पर उठा लिया। रामदुलारी ने उसे पीटना शुरू किया..

“तूँ दसवाँ में पहुँच गइल बाड़।” सीता ने कहा, “तूँहें दादी से टर्राव³ के त ना न चाही। किनों ऊ तोहार दादी बाड़िन।"

सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि वह दसवें में पहुँच गया है, परंतु यह बात इतनी आसान नहीं थी। दसवें में पहुँचने के लिए उसे बड़े पापड़ बेलने पड़े। दो साल तो वह फ़ेल ही हुआ। नवें में तो वह सन् उनचास ही में पहुँच गया था, परंतु दसवें में वह सन् बावन में पहुँच सका।

जब वह पहली बार फ़ेल हुआ तो मुन्नी बाबू इंटरमीडिएट में फ़र्स्ट आए और भैरव छठे में। सारे घर ने उसे ज़बान की नोक पर रख लिया। वह बहुत रोया। बात यह नहीं थी कि वह गाउदी ${ }^{34}$ था। वह काफ़ी तेज़ था परंतु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। वह जब पढ़ने बैठता मुन्नी बाबू को कोई काम निकल आता या रामदुलारी को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी-यह सब कुछ न होता तो पता चलता कि भैरव ने उसकी कापियों के हवाई जहाज़ उड़ा डाले हैं।

दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया।

तीसरे साल वह थर्ड डिवीज़न में पास हो गया। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टीके की तरह उसके माथे से चिपक गया।

परंतु हमें उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए।

सन् उनचास में वह अपने साथियों के साथ था। वह फ़ेल हो गया। साथी आगे निकल गए। वह रह गया। सन् पचास में उसे उसी दर्जे में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो पिछले साल आठवें में थे।

पीछे वालों के साथ एक ही दर्जे में बैठना कोई आसान काम नहीं है। उसके दोस्त दसवें में थे। वह उन्हीं से मिलता, उन्हीं के साथ खेलता। अपने साथ हो जाने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती न हो सकी। वह जब भी क्लास में बैठता उसे अपना बैठना अजीब लगता। उस पर सितम ${ }^{35}$ यह हुआ कि कमज़ोर लड़कों को मास्टर जी समझाते तो उसकी मिसाल देते-

“क्या मतलब है साम अवतार (या मुहम्मद अली?) बलभद्र की तरह इसी दर्जे में टिके रहना चाहते हो क्या?”

यह सुनकर सारा दर्जा हँस पड़ता। हँसने वाले वे होते जो पिछले साल आठवें में थे।

वह किसी-न-किसी तरह इस साल को झेल गया। परंतु जब सन् इक्यावन में भी उसे नवें दर्जे में ही बैठना पड़ा तो वह बिलकुल गीली मिट्टी का लौंदा ${ }^{36}$ हो गया, क्योंकि अब तो दसवें में भी

कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। आठवें वाले दसवें में थे। सातवें वाले उसके साथ! उनके बीच में वह अच्छा-खासा बूढ़ा दिखाई देता था।

वह अपने भरे-पूरे घर ही की तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसका नोटिस लेना बिलकुल ही छोड़ दिया था। कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए वह भी हाथ उठाता तो कोई मास्टर उससे जवाब ना पूछता। परंतु जब उसका हाथ उठता ही रहा तो एक दिन अंग्रेज़ी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा-

“तीन बरस से यही किताब पढ़ रहे हो, तुम्हें तो सारे जवाब ज़बानी याद हो गए होंगे! इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल का इम्तहान देना है। तुमसे पारसाल पूछ लूँगा।”

टोपी इतना शर्माया कि उसके काले रंग पर लाली दौड़ गई। और जब तमाम बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े तो वह बिलकुल मर गया। जब वह पहली बार नवें में आया था तो वह भी इन्हीं बच्चों की तरह बिलकुल बच्चा था।

फिर उसी दिन अबदुल वहीद ने रिसेज़ में वह तीर मारा कि टोपी बिलकुल बिलबिला उठा। वहीद क्लास का सबसे तेज़ लड़का था। मॉनीटर भी था। और सबसे बड़ी बात यह है कि वह लाल तेल वाले डॉक्टर शरफ़ुद्दीन का बेटा था।

उसने कहा, “बलभद्दर! अबे तो हम लोगन ${ }^{37}$ में का घुसता है। एड्थ वालन से दोस्ती कर। हम लोग तो निकल जाएँगे, बाकी तुहें त उन्हीं सभन के साथ रहे को हुइहै।”

यह बात टोपी के दिल के आर-पार हो गई और उसने कसम खाई कि टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, उसे पास होना है।

परंतु बीच में चुनाव आ गए।

डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो गया हो उसमें कोई पढ़-लिख कैसे सकता है!

वह तो जब डॉक्टर साहब की ज़मानत ज़ब्त हो गई तब घर में ज़रा सन्नाटा हुआ और टोपी ने देखा कि इम्तहान सिर पर खड़ा है।

वह पढ़ाई में जुट गया। परंतु ऐसे वातावरण में क्या कोई पढ़ सकता था? इसलिए उसका पास ही हो जाना बहुत था।

“वाह!” दादी बोलीं, “भगवान नज़रे-बद” से बचाए। रफ़्तार अच्छी है। तीसरे बरस तीसरे दर्जे में पास तो हो गए।…"

बोध-प्रश्न

1. इफ़्फ़न टोपी शुक्ला की कहानी का महत्त्वपूर्ण हिस्सा किस तरह से है?

2. इफ़्फ़न की दादी अपने पीहर क्यों जाना चाहती थीं?

3. इफ़्फ़न की दादी अपने बेटे की शादी में गाने-बजाने की इच्छा पूरी क्यों नहीं कर पाईं?

4. ‘अम्मी’ शब्द पर टोपी के घरवालों की क्या प्रतिक्रिया हुई?

5. दस अक्तूबर सन् पैंतालीस का दिन टोपी के जीवन में क्या महत्त्व रखता है?

6. टोपी ने इ़्फ़्रन से दादी बदलने की बात क्यों कही?

7. पूरे घर में इफ़्फ़न को अपनी दादी से ही विशेष स्नेह क्यों था?

8. इफ़्फ़न की दादी के देहांत के बाद टोपी को उसका घर खाली-सा क्यों लगा?

9. टोपी और इफ़्फ़न की दादी अलग-अलग मजहब और जाति के थे पर एक अनजान अटूट रिश्ते से बँधे थे। इस कथन के आलोक में अपने विचार लिखिए।

10. टोपी नवीं कक्षा में दो बार फ़ेल हो गया। बताइए-

(क) ज़हीन होने के बावजूद भी कक्षा में दो बार फ़ेल होने के क्या कारण थे?

(ख) एक ही कक्षा में दो-दो बार बैठने से टोपी को किन भावात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

(ग) टोपी की भावात्मक परेशानियों को मद्देनज़र रखते हुए शिक्षा व्यवस्था में आवश्यक बदलाव सुझाइए?

11. इप़फ़न की दादी के मायके का घर कस्टोडियन में क्यों चला गया?



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