अध्याय 11 लंका विजय
लंका कूच की तैयारियाँ रातभर चलती रहीं। सभी तत्पर। सभी उद्यत। सुबह कूच से पहले सुग्रीव ने वानरों को संबोधित किया। युद्ध के बारे में। कहा, “युद्ध भयानक होगा। इसमें केवल वही सैनिक जाएँगे जो शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ हों। जो दुर्बल हैं, यहीं रुक जाएँ।” वानर सेना को युद्ध के नियम बताए गए। रक्षा और आक्रमण के तरीके।
सेना किष्किंधा से दहाड़ती, गरजती, किलकारियाँ भरती रवाना हुई। राम, लक्ष्मण और सुग्रीव की जयकार से आकाश गूँज उठा। लाखों वानर थे। चारों ओर कोलाहल। वे पेड़ों-पहाड़ों को रौंदते चले जा रहे थे। इसका नेतृत्व नल कर रहे थे। सुग्रीव के सेनापति। जामवंत और हनुमान सबसे पीछे थे। यह सेना की रणनीति का हिस्सा था।
दिन-रात चलकर सेना ने महेंद्र पर्वत पर डेरा डाला। वही पर्वत, जहाँ से हनुमान ने छलाँग लगाई थी। समुद्र निकट ही था। पर्वत पर सेना का ध्वज लगाया गया। तंबू लगे। पताकाएँ हवा में लहरा रही थीं। उधर, लंका में खलबली मची हुई थी। राक्षसों में बेचैनी थी। उनके मन में डर बैठ गया था। राम की शक्ति को लेकर। जिसका दूत लंका में आग लगा सकता है, वह स्वयं कितना शक्तिशाली होगा! नगर में चर्चा का विषय यही था। लेकिन रावण इससे अनभिज्ञ था। उसे कौन बताता? किसी में इतना साहस नहीं था।
ये चर्चाएँ विभीषण ने सुनीं। नगर की हताशा उनसे देखी नहीं गई। “ऐसी हताश सेना युद्ध नहीं कर सकती। उसकी पराजय निश्चित है।" वे रावण के पास गए। उसे सही स्थिति बताने। समझाने। राम से युद्ध न किया जाए। उन्होंने कहा, “आप सीता को लौटा दें। सबका कल्याण इसी में है। सीता मिल जाएँगी तो वे आक्रमण नहीं करेंगे।
रावण ने विभीषण की बात अनसुनी कर दी। उन्हें अपने कक्ष से निकाल दिया। क्रोध में वह स्वयं भी उठकर चल पड़ा। सभा कक्ष की ओर। उसे राम के समुद्र तट पर पहुँचने का समाचार मिल चुका था। सैनिकों ने राम की सेना की पताकाएँ दूर से देख ली थीं।
विभीषण रावण के पीछे चलते रहे। बोलते रहे, “सीता आपके गले में बँधा साँप है। वह आपको डस लेगा। इसे छोटी बात मत समझिए, लंकाधिराज! ये संकेत महाविनाश के हैं। मैं अब भी कहता हूँ, सीता को लौटा दीजिए। लंका बच जाएगी।”
“तुम मेरे भाई नहीं, शत्रु हो। मेरे शत्रु के शुभचिंतक हो,” रावण का क्रोध भड़क उठा। “निकल जाओ यहाँ से। मुझे तुम्हारा साथ नहीं चाहिए।” रावण सभागार की ओर मुड़ गया। विभीषण पीछे। दोनों के रास्ते अलग हो गए।
विभीषण उसी रात लंका से निकल गए। चार सहायकों के साथ। उन्होंने राम के पास जाना ठीक समझा।
समुद्र पार राम के शिविर में अचानक खलबली मची। एक वानर चिल्लाकर सबको सावधान कर रहा था। “हमारे शिविर में राक्षस आ गए हैं।” विभीषण कुछ दूर खड़े थे। वानरों ने उन्हें सुग्रीव के सामने पेश किया। “वानरराज! मैं लंका के राजा रावण का छोटा भाई हूँ। मैं राम की शरण में आया हूँ। आप मुझे उनके पास पहुँचा दें,” विभीषण के चेहरे पर डर नहीं था। विश्वास था। शब्दों में षड्यंत्र नहीं था। कातरता थी। याचना थी। सुग्रीव को उनकी बात पर फिर भी भरोसा नहीं हुआ।
“मेरा नाम विभीषण है। रावण ने मुझे लंका से निकाल दिया। मैंने उससे सीता को लौटाने की बात कही थी। क्रोध और अहंकार में चूर रावण ने मुझे सभा में अपमानित किया। मैं प्राण बचाकर आया हूँ। एक बार राम से मिलवा दें। मैं उनसे कुछ कहना चाहता हूँ।”
सुग्रीव राम के पास गए। मन में शंका अब भी थी। अंगद भी उसे संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। राम ने बात सुनी और कहा, “हमें विभीषण को स्वीकार करना चाहिए। मैं शरण में आए व्यक्ति को कभी निराश नहीं करता। यह मेरी नीति है। विभीषण को आदर से अंदर लाइए।”
विभीषण राम के पास पहुँचे। राम ने उनका सत्कार किया। लंका का समाचार पूछा। जल्दी ही विभीषण राम के विश्वासपात्र बन गए। उन्होंने लंका की बहुत सी जानकारी राम को दी। रावण और उसके योद्धाओं की शक्ति के बारे में बताया। कहा, “रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए बल और बुद्धि दोनों की आवश्यकता है।”
“विभीषण! तुम चिंता मत करो। राक्षस मारे जाएँगे। लंका की राजगद्दी तुम्हारी होगी। भविष्य तुम्हारा है,” राम ने कहा।
राम की सेना के सामने एक बड़ी चुनौती थी। समुद्र। उसे कैसे पार करें? राम ने समुद्र से विनती की। तीन दिन बैठे रहे कि समुद्र रास्ता दे दे। वह नहीं माना तो राम को क्रोध आ गया। राम का क्रोध देखते हुए समुद्र ने उन्हें सलाह दी, “आपकी सेना में नल नाम का एक वानर है। वह पुल बना सकता है। उससे वानर सेना पार उतर जाएगी।”
नल ने अगले ही दिन काम प्रारंभ कर दिया। पुल बनने लगा। वानर कँकड़, पत्थर, शिलाएँ लाते रहे। नल पुल बनाते रहे। पाँच दिन में पुल तैयार हो गया। समुद्र को दो टुकड़ों में बाँटता हुआ। उसका घमंड चूर करता हुआ। सबसे पहले विभीषण पुल से उस पार गए। पीछे-पीछे वानर सेना। सेना का अगला शिविर दूसरे तट पर बना।
“असंभव!” रावण क्रोध से चीख उठा। समुद्र पर पुल कैसे बन सकता है? इस समाचार से रावण को विस्मय हुआ। भय भी। लेकिन उसने जो मन में ठान लिया था, उससे डिगा नहीं। उसने आदेश दिया, “सेना तैयार की जाए। युद्ध का समय आ पहुँचा है।”
अब दोनों सेनाएँ समुद्र के एक ही ओर थीं। उनका आमना-सामना होना शेष था। आक्रमण की तैयारी थी। रणनीति बन चुकी थी। पहले आक्रमण की योजनाओं को अंतिम रूप दिया जा रहा था।
राम ने अपनी सेना को चार भागों में विभक्त कर दिया। लंका के चार द्वार थे। चौतरफ़ा आक्रमण होना था। हर टुकड़ी को एक द्वार सौंपा गया। राम ने पर्वत शिखर पर चढ़कर स्वयं लंका का निरीक्षण किया। लंका के वैभव से वे भी चकित थे। उन्होंने लक्ष्मण को बताया। सूर्योदय होते ही राम ने आदेश दिया, “लंका को चारों ओर से घेर लिया जाए।” वानर सेना जयकार करती चल पड़ी।
इस बीच राम ने अंगद को बुलाया। कहा, “तुम लंका जाओ। मेरे दूत बनकर। सुलह का अंतिम प्रयास करो। ताकि युद्ध टल जाए। रावण से कहो कि सीता को लौटा दे। अन्यथा उसका अंत होगा।”
अंगद ने ऐसा ही किया। पर रावण नहीं माना। राम का संदेश सुनकर रावण क्रोधित हुआ। कुछ राक्षसों ने उन पर आक्रमण किया। अंगद वहाँ से बचकर राम के पास पहुँचे। कहा, “रावण को कोई पश्चाताप नहीं है। वह हमारे साथ सुलह के लिए तैयार नहीं है। युद्ध चाहता है। अब युद्ध ही एकमात्र विकल्प है।” वानर युद्ध के लिए तैयार थे। राम के आदेश की प्रतीक्षा में थे। आदेश मिलते ही उन्होंने लंका पर चढ़ाई कर दी।
उधर, रावण के आदेश पर उसकी सेना निकल पड़ी। राक्षस उतावले थे। चीत्कार कर रहे थे। रावण के जयघोष से लगा कि आसमान फट जाएगा। वे दौड़े और वानर सेना पर टूट पड़े।
भयानक युद्ध हुआ। हर ओर दहला देने वाला शोर। हाथियों की चिंघाड़। घोड़ों की हिनहिनाहट। रथों की सरसराहट। कोलाहल। रथ हवा से बातें कर रहे थे। तलवारें खिंच गईं थीं। बाणों से आसमान भर गया था। भाले उड़ रहे थे। दोनों ओर के कई वीर मारे गए। रावण के अनेक पराक्रमी राक्षस ढेर हो गए। धरती लाल हो गई थी। क्षत-विक्षत शव बिखरे थे। कराहते घायलों की ओर किसी का ध्यान नहीं था।
शाम होने को थी। मेघनाद ने राक्षस सेना को पीछे हटते देखा। उसने अपने सैनिकों को ललकारा, “आगे बढ़ो! हम विजय के करीब हैं।” मेघनाद ने सेना का नेतृत्व सँभाल लिया। राक्षस उत्साह से आगे बढ़े। मेघनाद की दृष्टि राम-लक्ष्मण पर थी। वह छिपकर युद्ध करता था। मायावी था। किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। उसके बाण राम और लक्ष्मण को लगे। दोनों वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
मेघनाद ने समझा काम हो गया। उसने दोनों भाइयों को मृत समझ लिया। वह मैदान छोड़कर महल की ओर दौड़ा। रावण को इसकी सूचना देने। रणक्षेत्र में वानर राम-लक्ष्मण के पास एकत्र हो गए। वे चिंतित थे। अशुभ की आशंका से। विभीषण ने दोनों का उपचार कराया। उनकी मूच्च्छा टूटी। वे खड़े हुए तो वानर दल हर्ष-ध्वनि करने लगा। अगले दिन युद्ध के लिए तैयार।
रावण की सेना के महाबली एक-एक कर मारे जा रहे थे। धूम्राक्ष मारा गया। वज्रद्रष्ट धरती पर गिर पड़ा। अकंपन कुचल कर मर गया। प्रहस्त को नील ने ध्वस्त कर दिया। रावण को इसकी सूचनाएँ मिलती रहीं। वह घबरा गया। वह हड़बड़ाकर उठा और स्वयं कमान सँभाल ली। पहली मुठभेड़ में वह लक्ष्मण पर भारी पड़ा। लेकिन राम के बाणों ने उसका मुकुट धरती पर गिरा दिया। वह लज्जित होकर लौट गया।
अब तक रावण को राम की शक्ति का कुछ अनुमान हो गया था। जब उसे कोई और रास्ता नहीं सूझा तो उसने कुंभकर्ण को जगाया। वह महाबली था पर छह महीने सोता था। कुंभकर्ण दुर्ग से बाहर आया। उसे देखते ही वानर सेना में खलबली मच गई। वे उसे रोकने में अक्षम थे। उसने हनुमान और अंगद को घायल कर दिया। लक्ष्मण यह युद्ध देख रहे थे। उन्होंने राम की ओर देखा।
फिर दोनों भाइयों ने बाणों की वर्षा कर उसे मार दिया। कुंभकर्ण रणभूमि के अंक में सो गया। सदा के लिए।
रावण निराश हो गया। कुंभकर्ण पर उसे गर्व था। वह उसे अपना दाहिना हाथ मानता था। उसे लगा कि अब लंका में वीर नहीं हैं। वह अनाथ हो गई। मेघनाद ने रावण को सहारा दिया, “मेरे रहते आप क्यों चिंता करते हैं? मुझे युद्ध की अनुमति दें। मैं दोनों भाइयों को मारकर आपके चरणों में रख दूँगा।”
मेघनाद और लक्ष्मण का भीषण युद्ध हुआ। मेघनाद पराक्रमी था। उसने एक बार इंद्र को परास्त कर दिया। और इंद्रजित कहलाया। उसके बाणों ने कई प्रमुख वानरों को घायल कर दिया। मेघनाद को रोक पाना वानरसेना के बूते की बात नहीं थी। वह चक्रवात की तरह आगे बढ़ता। जो भी आसपास होता, ध्वस्त हो जाता।
वानर सेना मेघनाद की गति और शक्ति से चकित थी। चमत्कृत। उनके मन में निराशा बैठती जा रही थी। तब लक्ष्मण ने उसे चुनौती दी। दोनों का निशाना अचूक था। बाण हवा में टकराते और नष्ट हो जाते। अचानक लक्ष्मण का एक बाण उसे लगा। वह घायल हो गया। झुक गया। लक्ष्मण ने ताबड़तोड़ बाणों की बरसात कर दी। आगे बढ़ना कठिन था। मेघनाद पीछे मुड़ा। महल की ओर भागा। लक्ष्मण ने कुछ दूर तक उसका पीछा किया। फिर रुक गए। मेघनाद महल में घुस गया। लक्ष्मण को महल की संरचना नहीं पता थी। रास्ता नहीं मालूम था। विभीषण लक्ष्मण की दुविधा समझ गए। उन्होंने एक गुप्त मार्ग दिखाया। शेष काम आसान था। मेघनाद महल में ही मारा गया।
अपने ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु से रावण एकदम टूट गया। विलाप करने लगा। मूर्चित हो गया। होश आया तो उसकी दशा पागलों जैसी थी। क्रोध से बिलबिलाता हुआ। “लंका अनाथ हो गई। अब उसका कोई सहारा नहीं। अब मैं स्वयं रणक्षेत्र में जाऊँगा।”
लक्ष्मण के साथ वानर सेना भी महल में प्रवेश कर गई थी। उनके हाथों में जलती हुई मशालें थीं। वानरों ने लंका में जहाँ-तहाँ आग लगा दी। अन्न भंडार फूँक दिए। शस्त्रागार जला दिया। मारकाट मच गई। जो भी सामने पड़ा, मारा गया। कंपन, प्रजंघ, यूपाक्ष, कुंभ मारे गए। हनुमान ने निकुंभ, देवांतक और त्रिशिरा को मौत की नींद सुला दिया। अंगद ने नरांतक का काम तमाम कर दिया। लक्ष्मण ने अतिकाय का सिर काट डाला। राक्षस सेना भाग खड़ी हुई।
रावण के पास अब कोई विकल्प नहीं था। युद्धनाद हुआ। अकेला बचा रावण युद्ध के लिए निकला। फुफकारते हुए। फन कुचले साँप की तरह। वह जिधर मुड़ता, भगदड़ मच जाती। वानरों को भागते देख लक्ष्मण आगे आए। धनुष-बाण लिए। रावण के सामने अभेद्य दीवार की तरह खड़े हो गए। थोड़ी ही देर में विभीषण वहाँ पहुँच गए। उसके बाद राम। उनके सामने रावण की एक न चली।
विभीषण को राम की सेना में देख रावण उबल पड़ा। उसके लिए यह देशद्रोह था। छोटे भाई का विश्वासघात। उसने विभीषण पर निशाना लगाया। लक्ष्मण ने वह बाण बीच में ही काट दिया। उसने दूसरा घातक बाण चलाया। इस बार लक्ष्मण बीच में आ गए। उन्होंने विभीषण को अपने पीछे छिपा लिया।
बाण लगते ही लक्ष्मण अचेत हो गए। गिर पड़े। राम ने यह देखा। उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गईं। आग बरसने लगी। उन्होंने लक्ष्मण को सुग्रीव की निगरानी में छोड़ा और रावण को चुनौती दी। कहा, “रावण! काल तुझे मेरे सामने ले आया है। आज अन्याय पर न्याय की विजय होगी। तेरा अंत निश्चित है।”
उधर, हनुमान लक्ष्मण को उठाकर रणक्षेत्र से दूर ले गए। वैद्य सुषेण को बुलाया। हनुमान संजीवनी बूटी लाए। चिकित्सा शुरू हुई। धीरे-धीरे रक्त का रिसाव बंद हो गया। घाव भर गया। संजीवनी का प्रभाव चमत्कारी था। सुग्रीव ने लक्ष्मण के स्वस्थ होने की सूचना राम तक पहुँचाई। वह सिंह की भाँति रावण पर टूट पड़े।
राम-रावण युद्ध भयानक था। शस्त्रों की गति से कँपा देने वाली ध्वनियाँ निकल रही थीं। हवा थम गई थी। सूरज बादलों के पीछे छिप गया था। शस्त्रों की चमक बिजली की तरह कौंध रही थी। गड़गड़ाहट थी। थर्रा देने वाली। दोनों योद्धा अपनी पूरी शक्ति से लड़ रहे थे। कोई एक रत्ती भी पीछे खिसकने को तैयार नहीं।
कुछ ही देर में लगा कि युद्ध समाप्त होने को है। दोनों पक्ष के योद्धा हाथ बाँध कर खड़े हो गए। छोटे-छोटे युद्ध थम गए। सबकी नज़रें राम और रावण पर थीं। सबकी आँखें फटी रह गईं। पलकें झुकना भूल गईं। उन्होंने ऐसा युद्ध पहले कभी नहीं देखा था।
लेकिन महासंग्राम समाप्त नहीं हुआ था। रावण का एक बाण राम को लगा। उनके रथ की ध्वजा कटकर गिर पड़ी। राम ने प्रहार किया। बाण रावण के मस्तक में लगा। रक्त की धारा बह निकली। बीच में युद्ध कुछ पल के लिए रुका। रावण अपने महल चला गया। घोड़े और रथ बदलने। राम को इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी।
युद्ध फिर शुरू हुआ। अब उनके रथ एक-दूसरे के सामने थे। योद्धा आँखों में आँखें डालकर देख सकते थे। घोड़ों के मुँह मिल गए थे। राम के बाणों ने रावण के रथ का मुँह मोड़ दिया। यह पराजय का संकेत था। रावण हिम्मत हारने लगा। जब तक वह रथ घुमाता, राम का एक बाण उसके पार निकल गया।
रथ मुड़ा। लेकिन रावण के हाथ से धनुष छूट गया। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। मारा गया। बची हुई राक्षस सेना हड़बड़ा गई। जान बचाकर भागी। उनका दिशा-ज्ञान शून्य हो गया। जिसे जिधर अवसर मिला, भागा। कुछ राक्षस वानर सेना की ओर दौड़ पड़े। कुछ भागते हुए समुद्र में जा गिरे।
लंका विजय अभियान पूरा हुआ। राम की जयकार होने लगी। कुछ समय पूर्व का रणक्षेत्र एकदम बदल गया। शस्त्रों की टंकार की जगह किलकारियों ने ले ली। वानर सेना उछल-कूद करने लगी। समुद्र से ठंडी हवा आ रही थी। शस्त्रों से उत्पन्न गरमी वह अपने साथ बहा ले गई। कोलाहल तुमुलनाद में परिवर्तित हो गया। प्रसन्नता सर्वव्याप्त थी।
रणक्षेत्र में केवल एक व्यक्ति दुःखी था। शोक से व्याकुल। विलाप करता हुआ। अपने भाई के मृत शरीर के पास खड़ा। राम ने विभीषण को समझाया, “मित्र, शोक मत करो। रावण महान योद्धा था। उसकी अंत्येष्टि महानता के अनुरूप होनी चाहिए। मृत्यु सत्य है। उसे स्वीकार करो।”
राम ने एक-एक वानर का आभार माना। सुग्रीव को गले लगा लिया। लक्ष्मण से विभीषण के राज्याभिषेक की तैयारी करने को कहा। चाहते थे कि रावण की अंत्येष्टि के बाद राजतिलक हो। उसमें विलंब न किया जाए। उन्होंने हनुमान को बुलाया। अशोक वाटिका जाने का निर्देश दिया। “यह संदेश आपको ही सीता तक पहुँचाना है। उन्हें लंका विजय का समाचार दीजिए। उनका संदेश लेकर शीघ्र आइए।”
विभीषण के अंत्येष्टि से लौटने तक उनके राज्याभिषेक की तैयारी हो चुकी थी। लक्ष्मण राजमहल पहुँच गए थे। वानर स्वर्ण-कलश में समुद्र का पानी ले आए थे। लक्ष्मण विभीषण के पास गए। उन्हें साथ लेकर राजसिंहासन तक आए। सोने का चमचमाता हुआ सिंहासन। रत्नों-मणियों जटित। समुद्र जल से उन्होंने सभासदों के सामने विभीषण का अभिषेक किया। अब विभीषण लंका के राजा थे।
इस बीच, हनुमान अशोक वाटिका से लौट आए। राम के पास। उन्होंने कहा, “माता सीता लंका विजय का समाचार सुनकर प्रसन्न हुईं। वे आपसे मिलने के लिए अधीर हैं।” तब तक विभीषण वहीं आ गए थे। राम उनकी ओर मुड़े। कहा, “लंकापति, सीता अब भी आपकी अशोक वाटिका में हैं। उन्हें यहाँ लाने की व्यवस्था की जाए।”
वानर सेना चुहल कर रही थी। अठखेलियों में लगी थी। राम का निर्देश सुनकर उनकी उत्सुकता बढ़ गई। सुग्रीव, जामवंत और नल-नील भी उत्सुक थे। अंगद को प्रतीक्षा थी। हनुमान को छोड़कर किसी ने सीता को नहीं देखा था।
सीता आईं तो सबको अपनी कल्पनाओं से अधिक लगीं। सुंदर, सौम्य, शांत। उस सुंदरता में एक वर्ष बाद पति से मिलन की प्रसन्नता शामिल थी। कष्ट इतिहास हो गया था।