7.1 भूमिका
अब तक हमने दिष्टधारा स्रोतों एवं दिष्टधारा स्रोतों से युक्त परिपथों पर विचार किया है। समय के साथ इन धाराओं की दिशा में परिवर्तन नहीं होता। तथापि, समय के साथ परिवर्तित होने वाली धाराओं और वोल्टताओं का मिलना एक आम बात है। हमारे घरों एवं दफ्तरों में पाया जाने वाला मुख्य विद्युत प्रदाय (electric mains supply) एक ऐसी ही वोल्टता का स्रोत है जो समय के साथ ज्या फलन (sine function) की भाँति परिवर्तित होता है। ऐसी वोल्टता को प्रत्यावर्ती (ac) वोल्टता तथा किसी परिपथ में इसके द्वारा अचालित धारा को प्रत्यावर्ती धारा (ac धारा)* कहते हैं। आजकल जिन वैद्युत युक्तियों का हम उपयोग करते हैं उनमें से अधिकांश के लिए वोल्टता की ही आवश्यकता होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकांश विद्युत कंपनियों द्वारा बेची जा रही विद्युत ऊर्जा प्रत्यावर्ती धारा के रूप में ही संप्रेषित एवं वितरित होती है। dc पर के उपयोग को वरीयता दिए जाने का मुख्य कारण यह है कि वोल्टताओं को ट्रांसफॉर्मरों द्वारा आसानी से एवं दक्षता के साथ एक वोल्टता से दूसरी वोल्टता में बदला जा सकता है। इसके अतिरिक्त के रूप में लंबी दूरियों तक वैद्युत ऊर्जा का संप्रेषण भी अपेक्षाकृत कम खर्चीला होता है। प्रत्यावर्ती धारा परिपथ ऐसे अभिलक्षण प्रदर्शित करता है जिनका उपयोग दैनिक जीवन में काम आने वाली अनेक युक्तियों में किया जाता है। उदाहरणार्थ, जब हम अपने रेडियो को अपने मनपसंद स्टेशन से समस्वरित करते हैं तो परिपथों के एक विशिष्ट गुण का लाभ उठाते हैं जो उन अनेक गुणों में से एक है जिनका अध्ययन आप इस अध्याय में करेंगे।
वोल्टता एवं धारा, ये वाक्यांश असंगत एवं अनुप्रयुक्त हैं, क्योंकि इनका शब्दिक अर्थ है क्रमशः ‘प्रत्यावर्ती धारा वोल्टता’ एवं ‘प्रत्यावर्ती धारा धारा’। तब भी संकेताक्षर ac समय के अनुसार सरल आवर्ती क्रम में परिवर्तित होने वाली वैद्युत राशि को व्यक्त करने के लिए इतनी सार्वभौमिक स्वीकृति पा चुका है कि इसके प्रयोग में हम प्रचलित परिपाटी का ही अनुसरण करेंगे। इसके अतिरिक्त, सामान्यतः प्रयुक्त होने वाले शब्द वोल्टता का अर्थ दो बिंदुओं के बीच विभवांतर होता है।
7.2 प्रतिरोधक पर प्रयुक्त ac वोल्टता
चित्र 7.1 में वोल्टता स्रोत से जुड़ा प्रतिरोधक दर्शाया गया है। परिपथ आरेख में म्रोत का संकेत चि्न है। यहाँ हम एक ऐसे स्रोत की बात कर रहे हैं जो अपने सिरों के बीच ज्यावक्रीय रूप में परिवर्तनशील विभवांतर उत्पन्न करता है, माना कि यह विभवांतर जिसे वोल्टता भी कहा जाता है, निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जाए
यहाँ दोलायमान विभवांतर का आयाम एवं इसकी कोणीय आवृत्ति है।

चित्र 7.1 प्रतिरोधक पर प्रयुक्त वोल्टता।
प्रतिरोधक में प्रवाहित होने वाली धारा का मान प्राप्त करने के लिए हम चित्र 7.1 में दर्शाए गए परिपथ पर किरोफ का लूप नियम , (खण्ड 3.12 देखें) लागू करते हैं जिससे हमें प्राप्त होता है :
अथवा
चूँकि एक नियतांक है, हम इस समीकरण को इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं :

निकोला टेस्ला (1856 - 1943) सर्बिया-अमेरिका के वैज्ञानिक, आविष्कर्ता एवं प्रतिभावान व्यक्ति। चुंबकीय क्षेत्र को घुमाने का उनका विचार ही व्यावहारिक रूप में सब प्रत्यावर्ती धारा मशीनों का आधार बना जिसके कारण विद्युत शक्ति के युग में प्रवेश किया जा सका। अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त, प्रेरण मोटर, ac शक्ति की बहुफेज़ प्रणाली; रेडियो, टेलीविजन तथा अन्य वैद्युत उपकरणों पर लगने वाली उच्च आवृत्ति प्रेरण कुंडली (टेस्ला कुंडली) का आविष्कार भी उन्होंने किया। चुंबकीय क्षेत्र के SI मात्रक का नाम उनके सम्मान में रखा गया है।
यहाँ धारा आयाम के लिए सूत्र है :
समीकरण (7.3) ओम का नियम है जो प्रतिरोधकों के प्रकरण में ac एवं दोनों प्रकार की वोल्टताओं के लिए समान रूप से लागू होता है। समीकरण (7.1) एवं समीकरण (7.2) द्वारा व्यक्त किसी शुद्ध प्रतिरोधक के सिरों के बीच लगाई गई वोल्टता एवं इसमें प्रवाहित होने वाली धारा को चित्र 7.2 में समय के फलन के रूप में आलेखित किया गया है। इस तथ्य पर विशेष ध्यान दीजिए कि एवं दोनों ही शून्य, न्यूनतम एवं अधिकतम मानों की स्थितियाँ साथ-साथ ही प्राप्त करती हैं। अतः स्पष्ट है कि वोल्टता एवं धारा एक दूसरे के साथ समान कला में हैं।
हम देखते हैं कि प्रयुक्त वोल्टता की भाँति ही धारा भी ज्या-वक्रीय रूप में परिवर्तित होती है और तदनुसार ही प्रत्येक चक्र में इसके धनात्मक एवं ऋणात्मक मान प्राप्त होते हैं। अतः एक संपूर्ण चक्र में तात्क्षणिक धारा मानों का योग शून्य होता है तथा माध्य धारा शून्य होती है। तथापि माध्य धारा शून्य है इस तथ्य का यह अर्थ नहीं है कि व्यय होने

चित्र 7.2 शुद्ध प्रतिरोधक में वोल्टता एवं धारा एक ही कला में हैं। निम्निष्ठ, शून्य तथा उच्चिष्ठ क्रमशः एक ही समय में बनते हैं। वाली माध्य शक्ति भी शून्य है, और विद्युत ऊर्जा का क्षय नहीं हो रहा है। जैसा कि आप

जॉर्ज वेस्टिंगहाउस (1846 - 1914) दिष्टधारा की तुलना में प्रत्यावर्ती धारा के प्रमुख पक्षधर। अतः दिष्टधारा के समर्थक थॉमस अल्वा एडीसन से उनका सीधा संघर्ष हुआ। वेस्टिंगहाउस का पूर्ण विश्वास था कि प्रत्यावर्ती धारा प्रौद्योगिकी के हाथ में ही वैद्युतीय भविष्य की कुंजी है। उन्होंने अपने नाम वाली प्रसिद्ध कम्पनी की स्थापना की और निकोला टेस्ला एवं अन्य आविष्कारकों को प्रत्यावर्ती धारा मोटरों एवं उच्च वोल्टता पर विद्युत धारा के संप्रेषण संबंधी उपकरणों के विकास के लिए नियुक्त किया, जिससे बड़े पैमाने पर प्रकाश प्राप्त करने का मार्ग खुला।
जानते हैं जूल द्वारा व्यक्त होता है और (जो सदैव धनात्मक ही होता है चाहे धनात्मक हो या ऋणात्मक) पर निर्भर करता है, न कि पर। अतः जब किसी प्रतिरोधक से धारा प्रवाहित होती है तो जूल तापन एवं वैद्युत ऊर्जा का क्षय होता है।
प्रतिरोधकता के क्षयित होने वाली तात्क्षणिक शक्ति होती है
एक समय चक्र में का माध्य मान है*
जहाँ किसी अक्षर के ऊपर लगी रेखा (यहाँ ) उसका माध्य मान निर्दिष्ट करती है एवं <…..> यह सूचित करता है कि कोष्ठक के अंदर की राशि का माध्य लिया गया है। चूँकि एवं नियत राशियाँ हैं
त्रिकोणमितीय सर्वसमिका , का उपयोग करने पर और चूँकि **, इसीलिए
अतः,
शक्ति को उसी रूप में व्यक्त करने के लिए जिसमें dc शक्ति को व्यक्त किया जाता है धारा के एक विशिष्ट मान का उपयोग किया जाता है जिसे वर्ग माध्य मूल (rms) अथवा प्रभावी (effective) धारा (चित्र 7.3 ) कहते हैं और इसे अथवा द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है।

चित्र धारा , शिखरधारा से सूत्र द्वारा संबंधित है।
- किसी फलन का समयावधि में माध्यमान ज्ञात करने के लिए सूत्र है
**
इसे इस प्रकार व्यक्त किया जाता है
के पदों में व्यक्त करें तो द्वारा निर्दिष्ट माध्य शक्ति
इसी प्रकार, rms वोल्टता अथवा प्रभावी वोल्टता को हम व्यक्त करते हैं :
समीकरण (7.3) के आधार पर
अथवा
अथवा
समीकरण (7.9) धारा एवं वोल्टता के बीच संबंध बताती है जो में इन राशियों के संबंध के समान ही है। यह मानों की अवधारणा के लाभ दर्शाती है। rms मानों के पदों में, परिपथों के लिए शक्ति का समीकरण (7.7) एवं धारा तथा वोल्टता का संबंध वही है जो के लिए होता है।
परंपरा यह कि ac राशियों को उनके rms मानों के पदों में मापा और व्यक्त किया जाए। उदाहरणार्थ, घरेलू आपूर्ति में वोल्टता का मान है जिसका शिखर मान है
वास्तव में, अथवा धारा उस dc धारा के समतुल्य है जो वही माध्य शक्ति ह्रास करेगी जो प्रत्यावर्ती धारा करती है। समीकरण (7.7) को निम्नलिखित रूप में भी प्रस्तुत कर सकते हैं-
7.3 धारा एवं वोल्टता का घूर्णी सदिश द्वारा निरूपणकलासमंजक ( फेजर्स )
पिछले अनुभाग में हमने सीखा कि किसी प्रतिरोधक में प्रवाहित होने वाली धारा तथा वोल्टता समान कला में रहते हैं। परन्तु प्रेरक, संधारित्र अथवा इनके संयोजन युक्त परिपथों में ऐसा नहीं होता

(a) (b)
चित्र 7.4 (a) चित्र 7.1 में दर्शाए गए परिपथ के लिए फेजर आरेख (b) एवं तथा के बीच ग्राफ। है। परिपथ में धारा एवं वोल्टता के बीच कला संबंध दर्शाने के लिए हम फेजर्स की धारणा का उपयोग करते हैं। फेजर चित्र के उपयोग से परिपथ का विश्लेषण सरलतापूर्वक हो जाता है। फेजर* जैसा कि चित्र 7.4 में दर्शाया गया है, एक सदिश है जो मूल बिंदु के परितः कोणीय वेग से घूर्णन करता है। फेजर्स एवं I के ऊर्ध्वाधर घटक ज्यावक्रीय रूप से परिवर्तनशील राशियाँ एवं निरूपित करते हैं। फेजर्स एवं के परिमाण इन दोलायमान राशियों के आयाम अथवा शिखरमान एवं निरूपित करते हैं। चित्र 7.4 (a) चित्र 7.1 के संगत किसी प्रतिरोधक के सिरों से जुड़ी वोल्टता की, किसी क्षण पर, वोल्टता एवं धारा के फेजर्स और उनका पारस्परिक संबंध दर्शाता है। वोल्टता एवं धारा के ऊर्ध्वाधर अक्ष पर प्रक्षेप अर्थात एवं , क्रमशः, उस क्षण विशेष पर वोल्टता एवं धारा के मान निरूपित करते हैं। ज्यों-ज्यों वे आवृत्ति से घूर्णन करते हैं चित्र 7.4(b) में दर्शाए गए वक्र जैसे होते हैं।
चित्र 7.4(a) से हम यह समझ सकते हैं कि प्रतिरोधक के लिए फेजर्स एवं एक ही दिशा में होते हैं। ऐसा हर समय होता है। इसका अर्थ है कि वोल्टता एवं धारा के बीच कला कोण शून्य होता है।
7.4 प्रेरक पर प्रयुक्त ac वोल्टता
चित्र 7.5 एक प्रेरक के सिरों पर लगा ac स्रोत दर्शाता है। प्राय: प्रेरक के लपेटों में लगे तार का

चित्र 7.5 प्रेरक से जुड़ा एक स्रोत। अच्छा खासा प्रतिरोध होता है, लेकिन यहाँ हम यह मानेंगे कि इस प्रेरक का प्रतिरोध नगण्य है। अतः यह परिपथ विशुद्ध प्रेरणिक परिपथ है। माना कि स्रोत के सिरों के बीच वोल्टता है क्योंकि परिपथ में कोई प्रतिरोधक नहीं है। किरखोफ लूप नियम , का उपयोग करने से
यहाँ समीकरण का दूसरा पद प्रेरक में स्वप्रेरित फैराडे है, एवं प्रेरक का स्व-प्रेरकत्व है। ॠणात्मक चिन्न लेंज के नियम का अनुसरण करने से
- यद्यपि ac परिपथ में वोल्टता एवं धारा को घूर्णन करते सदिशों-फेजर्स द्वारा निरूपित किया जाता है, अपने आप में वे सदिश नहीं हैं। वे अदिश राशियाँ हैं। होता यह है, कि आवर्ती रूप से परिवर्तित होते अदिशों की कलाएँ एवं आयाम गणितीय रूप से उसी प्रकार संयोजित होते हैं जैसे कि उन्हीं परिमाण एवं दिशाओं वाले घूर्णन सदिशों के प्रक्षेप। आवर्ती रूप से परिवर्तित होने वाली अदिश राशियों को, घूर्णन सदिशों द्वारा निरूपित करने से हम इन राशियों का संयोजन एक सरल विधि द्वारा, एक पहले से ही ज्ञात नियम का प्रयोग करके, कर सकते हैं।
समाविष्ट होता है (अध्याय 6)। समीकरण (7.1) एवं समीकरण (7.10) को संयोजित करने पर
समीकरण (7.11) में यह सन्निहित है कि धारा के लिए समीकरण समय का ऐसा फलन होना चाहिए कि इसकी प्रवणता, एक ज्यावक्रीय रूप में परिवर्तनशील राशि हो जो स्रोत वोल्टता के साथ समान कला में रहती हो और जिसका आयाम द्वारा प्राप्त होता हो। धारा का मान प्राप्त करने के लिए, हम को समय के सापेक्ष समाकलित करते हैं,
इससे हमें प्राप्त होता है :
यहाँ समाकलन नियतांक की विमा, धारा की विमा होती है और यह समय पर निर्भर नहीं करती। चूँकि, स्रोत का emf शून्य के परितः सममितीय रूप से दोलन करता है; वह धारा, जो इसके कारण बहती है, भी सममितीय रूप से दोलन करती है। अतः न तो धारा का कोई नियत, न ही समय पर निर्भर करने वाला अवयव, अस्तित्व में आता है। इसलिए, समाकलन नियतांक का मान शून्य होता है।
यहाँ धारा का आयाम है। राशि प्रतिरोध के सदृश है, इसे प्रेरकीय प्रतिघात कहा जाता है एवं इसे द्वारा व्यक्त करते हैं।
तब, धारा का आयाम है :
प्रेरकीय प्रतिघात की विमाएँ वही हैं तो प्रतिरोध की और इसका SI मात्रक ओम है। प्रेरकीय प्रतिघात एक शुद्ध प्रेरणिक परिपथ में धारा को वैसे ही नियंत्रित करता है जैसे प्रतिरोध एक शुद्ध प्रतिरोधक परिपथ में। प्रेरकीय प्रतिघात, प्रेरकत्व एवं धारा की आवृत्ति के अनुक्रमानुपाती होता है।
स्रोत वोल्टता एवं प्रेरक में प्रवाहित होने वाली धारा के समीकरण (7.1) एवं (7.12) की तुलना से यह ज्ञात होता है कि धारा वोल्टता से अथवा चक्र पीछे रहती है। चित्र 7.6 (a) प्रस्तुत प्रकरण के क्षण पर, वोल्टता एवं धारा फेजर्स दर्शाता है। धारा फेजर वोल्टता फेजर से पीछे है। जब उन्हें आवृत्ति से वामावर्त दिशा में घूर्णन कराते हैं तो ये वोल्टता एवं धारा जनित करते हैं जो क्रमशः समीकरण (7.1) एवं (7.12) द्वारा व्यक्त की जाती है और जिसे चित्र 7.6 (b) में दर्शाया गया है।

(a)
(b)
चित्र 7.6 (a) चित्र 7.5 में दर्शाए गए परिपथ का फेजर आरेख (b) एवं तथा के बीच ग्राफ़।
हम देखते हैं कि धारा, वोल्टता की अपेक्षा चौथाई आवर्त काल के पश्चात अपने अधिकतम मान को प्राप्त करती है। आपने देखा कि एक प्रेरक में प्रतिघात होता है जो धारा को उसी प्रकार नियंत्रित करता है जैसे परिपथ में प्रतिरोध करता है। पर, क्या प्रतिरोध की तरह ही इसमें भी शक्ति व्यय होती है? आइए, इसका पता लगाने का प्रयास करें।
प्रेरक को आपूर्त तात्क्षणिक शक्ति
अतः एक पूरे चक्र में माध्य शक्ति
क्योंकि, एक पूरे चक्र में का माध्य शून्य होता है
इसलिए एक पूरे चक्र में किसी प्रेरक को आपूर्त माध्य शक्ति भी शून्य होती है।
उदाहरण का एक शुद्ध प्रेरक के एक स्रोत से जुड़ा है। यदि स्रोत की आवृत्ति हो तो परिपथ का प्रेरकीय प्रतिघात एवं धारा ज्ञात कीजिए।
हल प्रेरकीय प्रतिघात
परिपथ में धारा
7.5 संधारित्र पर प्रयुक्त ac वोल्टता
चित्र 7.7 में एक संधारित्रीय परिपथ दर्शाया गया है जिसमें केवल एक संधारित्र एक ऐसे स्रोत से जुड़ा है जो वोल्टता प्रदान करता है।
जब dc परिपथ में वोल्टता स्रोत से किसी संधारित्र को जोड़ा जाता है तो इसमें धारा, उस अल्पकाल के लिए ही प्रवाहित होती है जो संधारित्र की प्लेटों पर एकत्रित होता है, उनके बीच विभवांतर बढ़ता है, जो धारा का विरोध करता है। अर्थात परिपथ में ज्यों-ज्यों संधारित्र आवेशित होता है यह परिपथ धारा को सीमित करता है अथवा उसके प्रवाह का विरोध करता है। जब संधारित्र पूरी तरह आवेशित हो जाता है तो परिपथ में धारा गिर कर शून्य हो जाती है।
जब संधारित्र को स्रोत से जोड़ा जाता है, जैसा कि चित्र 7.7 में दर्शाया गया है तो यह धारा को नियंत्रित तो करता है, पर आवेश के प्रवाह

चित्र 7.7 एक संधारित्र से जुड़ी वोल्टता। को पूरी तरह रोकता नहीं है। क्योंकि धारा प्रत्येक अर्द्ध चक्र में प्रत्यावर्तित होती है संधारित्र भी एकांतर क्रम में आवेशित एवं अनावेशित होता है। माना कि किसी क्षण पर संधारित्र पर आवेश है। तो संधारित्र के सिरों के बीच तात्क्षणिक वोल्टता है,
किरखोफ के लूप नियम के अनुसार, स्रोत एवं संधारित्र के सिरों के बीच वोल्टताएँ समान हैं, अतः
धारा का मान ज्ञात करने के लिए हम संबंध का उपयोग करते हैं
संबंध, , का उपयोग करने से हम पाते हैं,
यहाँ, दोलायमान धारा का आयाम है। इसको हम
के रूप में लिखें और विशुद्ध प्रतिरोधकीय परिपथ के तदनुरूपी सूत्र से तुलना करें तो हम पाते हें कि की भूमिका प्रतिरोध जैसी ही है। इसको संधारित्र प्रतिघात कहते हैं और से निरूपित करते हैं।
अतः धारा का आयाम है,

(a)
(b)
चित्र 7.8 (a) चित्र 7.7 में दर्शाए गए परिपथ का फेजर आरेख
(b) एवं का समय के सापेक्ष ग्राफ़।
संधारित्रीय प्रतिघात की विमाएँ वही हैं जो प्रतिरोध की और इसका SI मात्रक ओम है। संधारित्रीय प्रतिघात उसी प्रकार विशुद्ध संधारित्रीय परिपथ में धारा को नियंत्रित करता है जैसे विशुद्ध प्रतिरोधकीय परिपथ में प्रतिरोध, परंतु इसका मान आवृत्ति एवं धारिता के व्युत्क्रमानुपाती होता है।
समीकरण (7.16) की स्रोत वोल्टता की समीकरण (7.1) से तुलना करने पर हम पाते हैं कि धारा, वोल्टता से अग्रगामी होती है। चित्र 7.8 (a) किसी क्षण पर फेजर आरेख दर्शाता है। यहाँ धारा फेजर , वोल्टता फेजर से कोण अग्रगामी है जब वे वामावर्त घूर्णन करते हैं। चित्र 7.8 (b), वोल्टता एवं धारा में समय के साथ होने वाला परिवर्तन दर्शाता है। हम देखते हैं कि धारा, वोल्टता की तुलना में चौथाई समयकाल पहले अधिकतम मान ग्रहण करती है। संधारित्र को आपूर्त तात्कणिक शक्ति,
अतः संधारित्र के प्रकरण में, माध्य शक्ति
क्योंकि एक पूर्ण चक्र पर
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेरक के प्रकरण में धारा, वोल्टता से कोण पश्चगामी एवं संधारित्र के प्रकरण में धारा, वोल्टता से कोण अग्रगामी होती है।
7.6 श्रेणीबद्ध LCR परिपथ पर प्रयुक्त ac वोल्टता
चित्र 7.10, स्रोत से जुड़ा श्रेणीबद्ध परिपथ दर्शाता है। पहले की ही भाँति हम स्रोत की वोल्टता लेते हैं।
यदि संधारित्र पर आवेश एवं किसी क्षण पर परिपथ में प्रवाहित धारा है तो किरोफ़ पाश नियम से
हम तात्क्षणिक धारा और प्रयुक्त प्रत्यावर्ती वोल्टता के साथ इसका कला संबंध ज्ञात करना चाहते हैं। हम इस समस्या को हल करने के लिए दो विधियों का उपयोग करेंगे। पहली विधि में हम फेजर्स तकनीक का उपयोग करेंगे और दूसरी विधि में हम समीकरण (7.20) को विश्लेषणात्मक रूप से हल करके की कालाश्रितता प्राप्त करेंगे।

चित्र 7.10 किसी स्रोत से संयोजित श्रेणीबद्ध LCR परिपथ।
7.6.1 फेजर आरेख द्वारा हल
चित्र 7.10 में दर्शाए गए परिपथ में प्रतिरोधक, प्रेरक एवं संधारित्र श्रेणीक्रम में जुड़े हैं। अतः किसी क्षण विशेष पर परिपथ के हर घटक में धारा, उसके आयाम एवं कला समान हैं। माना कि
यहाँ स्रोत की वोल्टता और परिपथ में प्रवाहित होने वाली धारा में कला-अंतर है। पिछले अनुभागों में हमने जो सीखा है उसके आधार पर हम वर्तमान प्रकरण का एक फेजर आरेख बनाएँगे।
मान लीजिए कि समीकरण (7.21) द्वारा प्रदत्त परिपथ की धारा को फेजर द्वारा व्यक्त करें। और प्रेरक, प्रतिरोधक, संधारित्र एवं स्रोत के सिरों के बीच वोल्टताओं को क्रमशः , एवं से निरूपित करें तो पिछले अनुभाग से हम जानते हैं कि के समातर है, धारा

(a)

(b) से रेडियन पीछे है तथा से रेडियन आगे है। चित्र 7.11 (a) में एवं को समुचित कला संबंधों के साथ दर्शाया गया है।
इन फेजर्स की लंबाई अर्थात एवं के आयाम हैं :
परिपथ के लिए वोल्टता समीकरण (7.20) को इस प्रकार लिखा जा सकता है
वह फेजर संबंध जिसके ऊर्ध्वाधर घटकों द्वारा उपरोक्त समीकरण
चित्र 7.11 (a) फेजर्स , एवं के बीच पारस्परिक संबंध (b) फेर्जस , एवं
के बीच 7.10 में दर्शाए गए परिपथ के लिए संबंध।
बनती है, वह है
इस संबंध को चित्र 7.11 (b) में प्रस्तुत किया गया है। चूँकि, एवं सदैव एक ही सरल रेखा में और एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में होते हैं, उनको एक एकल फेजर के रूप में संयोजित किया जा सकता है जिसका परिमाण होता है। चूँकि उस समकोण त्रिभुज के कर्ण से निरूपित किया गया है जिसकी भुजाएँ एवं हैं, पाइथागोरस प्रमेय द्वारा,
समीकरण (7.22) से , एवं के मान प्रत्येक समीकरण में रखने पर
अथवा
किसी परिपथ में प्रतिरोध से समतुल्यता के आधार पर हम परिपथ के लिए प्रतिबाधा, पद को उपयोग में लाएँ तो
चूँकि फेजर सदैव फेजर के समांतर होता है, कला कोण एवं के बीच बना कोण है और चित्र 7.12 के आधार पर इसका मान ज्ञात किया जा सकता है
समीकरण (7.22) का उपयोग करने पर,
समीकरणों (7.26) एवं (7.27) का ग्राफीय निरूपण चित्र (7.12) में प्रस्तुत किया गया है। यह प्रतिबाधा आरेख कहलाता है। यह एक समकोण त्रिभुज है जिसका कर्ण है।

चित्र 7.12 प्रतिबाधा आरेख। समीकरण 7.25(a) धारा का आयाम बताती है एवं समीकरण (7.27) से कलाकोण का मान प्राप्त होता है। इनके साथ मिलकर समीकरण (7.21) पूर्णतः निर्दिष्ट हो जाती है। यदि धनात्मक होता है तथा परिपथ का धारितात्मक व्यवहार प्रधान हो जाता है। परिणामतः परिपथ में धारा स्रोत वोल्टता से अग्र हो जाती है। यदि ॠणात्मक होता है तथा परिपथ का प्रेरकीय व्यवहार प्रमुख हो जाता है। परिणामतः परिपथ में धारा स्रोत वोल्टता से पश्च हो जाती है।
चित्र 7.13, के प्रकरण के लिए फेजर आरेख है और यह के साथ एवं में होने वाले परिवर्तन को दर्शाता है।
इस प्रकार, फेजर्स तकनीक का उपयोग करके, हमने श्रेणीबद्ध परिपथ में धारा का आयाम एवं कला ज्ञात कर ली है। लेकिन परिपथों के विश्लेषण की इस विधि में कुछ कमियाँ हैं। प्रथम तो यह कि फेज़र आरेख प्रारंभिक स्थितियों के विषय में कोई सूचना नहीं देते। आप का कोई भी यादृच्छिक मान (जैसा कि इस अध्याय में सब जगह लिया गया है) ले सकते हैं और विभिन्न फेजर्स के बीच सापेक्षिक कोण दर्शाते हुए अलग-अलग फेजर्स आरेख बना सकते हैं। इस प्रकार प्राप्त हल को स्थायी अवस्था हल कहते हैं। यह कोई व्यापक हल नहीं है। इसके अतिरिक्त एक

(a) क्षणिक हल भी होता है जो के लिए भी लागू होता है। व्यापक हल, क्षणिक हल एवं स्थायी अवस्था हल के योग से प्राप्त होता है। पर्याप्त दीर्घकाल के पश्चात क्षणिक हल के प्रभाव निष्प्रभावी हो जाते हैं और परिपथ के आचरण का वर्णन स्थायी अवस्था द्वारा ही हल किया जाता है।
7.6.2 अनुनाद
चित्र 7.13 (a) एवं के लिए फेजर आरेख
(b) श्रेणीबद्ध LCR परिपथ के लिए के साथ एवं में परिवर्तन दर्शाने वाले ग्राफ (यहाँ )।
श्रेणीबद्ध RLC परिपथ का एक रोचक अभिलक्षण अनुनाद की परिघटना है। अनुनाद ऐसे सभी निकायों की एक सामान्य परिघटना है जिनमें एक विशिष्ट आवृत्ति से दोलन की प्रवृत्ति होती है। यह आवृत्ति उस निकाय की प्राकृतिक आवृत्ति कहलाती है। यदि इस प्रकार का कोई निकाय किसी ऐसे ऊर्जा स्रोत द्वारा संचालित हो जिसकी आवृत्ति निकाय की प्राकृतिक आवृत्ति के सन्निकट हो तो निकाय बहुत अधिक आयाम के साथ दोलन करता हुआ पाया जाता है। इसका एक सुपरिचित उदाहरण झूले पर बैठा हुआ बच्चा है। झूले की, लोलक की ही तरह मूल बिन्दु के इधर-उधर दोलन
की एक प्राकृतिक आवृत्ति होती है। यदि बच्चा रस्सी को नियमित समय-अंतरालों पर खींचता है और खींचने की आवृत्ति लगभग झूले के दोलनों की प्राकृतिक आवृत्ति के बराबर हो तो झूलने का आयाम अधिक होगा (देखिए कक्षा 11 का अध्याय 13)।
आयाम एवं आवृत्ति की वोल्टता द्वारा संचालित परिपथ के लिए हम पाते हैं कि धारा आयाम,
यहाँ एवं अतः यदि को परिवर्तित किया जाए तो एक विशिष्ट आवृत्ति पर एवं प्रतिबाधा का मान न्यूनतम हो जाता है। यह आवृत्ति अनुनादी आवृत्ति कहलाती है :
अनुनादी आवृत्ति पर धारा का आयाम अधिकतम होता है और

चित्र 7.14 दो प्रकरणों (i) एवं (ii) के लिए. के साथ का परिवर्तन। दोनों प्रकरणों में
इसका मान है,
चित्र 7.14 किसी श्रेणीक्रम परिपथ के लिए के साथ का परिवर्तन दर्शाता है। यहाँ है तथा के दो अलग-अलग मान (i) एवं (ii) लिए गए हैं। प्रयुक्त स्रोत के लिए , इस प्रकरण में
हम देखते हैं कि अनुनादी आवृत्ति पर धारा का आयाम अधिकतम होता है। चूँकि अनुनाद की स्थिति में, प्रकरण (i) में धारा का परिमाण प्रकरण (ii) की स्थिति में धारा के परिमाण से दोगुना है।
अनुनादी परिपथों के तरह-तरह के अनुप्रयोग होते हैं उदाहरणार्थ, रेडियो एवं टीवी सेटों के समस्वरण की क्रियाविधि। किसी रेडियो का ऐंटिना अनेक प्रसारक स्टेशनों से संकेतों का अभिग्रहण करता है। ऐंटिना द्वारा अभिग्रहित संकेत, रेडियो के समस्वरण परिपथ में स्रोत का कार्य करते हैं, इसलिए परिपथ अनेक आवृत्तियों पर संचालित किया जा सकता है। परंतु किसी विशिष्ट रेडियो स्टेशन को सुनने के लिए हम रेडियो को समस्वरित करते हैं। समस्वरण के लिए हम समस्वरण परिपथ में लगे संधारित्र की धारिता को परिवर्तित कर परिपथ की आवृत्ति को परिवर्तित कर इस स्थिति में लाते हैं कि उसकी अनुनादी आवृत्ति अभिगृहित रेडियो संकेतों की आवृत्ति के लगभग बराबर हो जाए। जब ऐसा होता है तो परिपथ में उस विशिष्ट रेडियो स्टेशन से आने वाले संकेतों की आवृत्ति के धारा आयाम का मान अधिकतम हो जाता है।
एक महत्वपूर्ण एवं ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि अनुनाद की परिघटना केवल उन्हीं परिपथों द्वारा प्रदर्शित की जाती है जिनमें एवं दोनों विद्यमान होते हैं। क्योंकि केवल तभी एवं के सिरों के बीच की वोल्टता (विपरीत कला में होने के कारण) एक दूसरे को निरस्त करती हैं और
धारा आयाम होता है तथा कुल स्रोत वोल्टता के सिरों के बीच ही प्रभावी पायी जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि या परिपथ में अनुनाद नहीं।
7.7 परिपथों में शक्ति : शक्ति गुणांक
हम देख चुके हैं कि श्रेणीबद्ध परिपथ में प्रयुक्त कोई वोल्टता इस परिपथ में धारा प्रवाहित करती है। यहाँ,
इसलिए स्रोत द्वारा आपूर्त तात्क्षणिक शक्ति है,
एक पूर्ण चक्र में माध्य शक्ति समीकरण (7.29) के दाएँ पक्ष के दोनों पदों का माध्य लेने से प्राप्त हो सकती है। इनमें केवल दूसरा पद ही समय पर निर्भर करता है, और इसका माध्य शून्य है (कोज्या (cosine) का धनात्मक अर्द्ध इसके ॠणात्मक अर्द्ध को निरस्त कर देता है।) इसलिए,
इसको इस प्रकार भी लिखा जा सकता है
अतः क्षयित माध्य शक्ति, न केवल वोल्टता एवं धारा पर निर्भर करती है बल्कि उनके बीच के कला-कोण की कोज्या (cosine) पर भी निर्भर करती है। राशि को शक्ति गुणांक कहा जाता है। आइए निम्नलिखित प्रकरणों पर चर्चा करें :
प्रकरण (i) प्रतिरोधकीय परिपथ : यदि परिपथ में केवल शुद्ध है तो यह परिपथ प्रतिरोधकीय परिपथ कहलाता है। इस परिपथ के लिए इसमें अधिकतम शक्ति क्षय होती है। प्रकरण (ii) शुद्ध प्रेरकीय अथवा धारितीय परिपथ : यदि परिपथ में केवल एक प्रेरक अथवा संधारित्र हो तो हम जानते हैं कि धारा एवं वोल्टता के बीच कला अंतर होता है। इसलिए और इसलिए यद्यपि परिपथ में धारा प्रवाहित होती है तो भी कोई शक्ति क्षय नहीं होती। इस धारा को कभी-कभी वाटहीन धारा भी कहा जाता है।
प्रकरण (iii) श्रेणीबद्ध परिपथ : किसी परिपथ में शक्ति क्षय समीकरण (7.30) के अनुसार होता है। यहाँ अतः किसी या या परिपथ में शून्येतर हो सकता है। इन परिपथों में भी शक्ति केवल प्रतिरोधक में ही क्षयित होती है।
प्रकरण (iv) परिपथ में अनुनाद स्थिति में शक्ति क्षय : अनुनाद की स्थिति में एवं इसलिए एवं अर्थात परिपथ में अधिकतम शक्ति ( के माध्यम से) अनुनाद की स्थिति में क्षयित होती है।
7.8 ट्रांसफॉर्मर
अनेक उद्देश्यों के लिए वोल्टता को एक मान से दूसरे अधिक या कम मान में परिवर्तित करना (या रूपांतरित करना) आवश्यक हो जाता है। ऐसा अन्योन्य प्रेरण के सिद्धांत पर आधारित एक युक्ति के द्वारा किया जाता है जिसे ट्रांसफॉर्मर कहते हैं।
ट्रांसफार्मर में दो कुंडलियाँ होती हैं जो एक दूसरे से विद्युतरुद्ध होती हैं। वे एक कोमल-लौह-क्रोड पर लिपटी होती हैं। लपेटने की विधि या तो चित्र 7.16 (a) की भाँति होती है, जिसमें एक कुंडली दूसरी के ऊपर लिपटी होती है, या फिर चित्र 7.16 (b) की भाँति जिसमें दोनों कुंडलियाँ क्रोड की अलग-अलग भुजाओं पर लिपटी होती हैं। एक कुंडली को प्राथमिक कुंडली (primary coil) कहते हैं इसमें लपेटे होते हैं। दूसरी कुंडली को द्वितीयक कुंडली (secondary coil) कहते हैं, इसमें लपेटे होते हैं। प्राय: प्राथमिक कुंडली निवेशी कुंडली होती है एवं द्वितीयक कुंडली ट्रांसफार्मर की निर्गत कुंडली होती है।

(a)
(b)
चित्र 7.16 किसी ट्रांसफॉर्मर में प्राथमिक एवं द्वितीयक कुंडलियों को लपेटने की दो व्यवस्थाएँ:
(a) एक दूसरे के ऊपर लपेटी गई दो कुंडलियाँ (b) क्रोड की अलग-अलग भुजाओं पर लिपटी कुंडलियाँ
जब प्राथमिक कुंडली के सिरों के बीच प्रत्यावर्ती वोल्टता लगाई जाती है तो परिणामी धारा एक प्रत्यावर्ती चुंबकीय फ्लक्स उत्पन्न करती है जो द्वितीयक कुंडली से संयोजित होकर इसके सिरों के बीच एक emf प्रेरित करता है। इस emf का मान द्वितीयक कुंडली में फेरों की संख्या पर निर्भर करता है। हम मान लेते हैं कि हमारा ट्रांसफॉर्मर एक आदर्श ट्रांसफॉर्मर है जिसकी प्राथमिक कुंडली का प्रतिरोध नगण्य है, और क्रोड का संपूर्ण फ्लक्स प्राथमिक एवं द्वितीयक दोनों कुंडलियों से गुजरता है। प्राथमिक कुंडली के सिरों के बीच वोल्टता लगाने से, माना किसी क्षण पर, इस कुंडली का प्रत्येक फेरा क्रोड में फ्लक्स उत्पन्न करता है।
तब लपेटों वाली द्वितीयक कुंडली के सिरों के बीच प्रेरित या वोल्टता है
प्रत्यावर्ती फ्लक्स, प्राथमिक कुंडली में भी एक प्रेरित करता है जिसे पश्च विद्युत वाहक बल कहते हैं। यह है,
लेकिन, यदि ऐसा नहीं होता तो प्रारंभिक कुंडली (जिसका प्रतिरोध हमने शून्य माना है) में अनंत परिमाण की धारा प्रवाहित होती। यदि द्वितीयक कुंडली के सिरे मुक्त हों अथवा इससे बहुत कम धारा ली जा रही हो तो पर्याप्त सन्निकट मान तक
यहाँ द्वितीयक कुंडली के सिरों के बीच वोल्टता है। अतः समीकरणों (7.31) एवं (7.32) को हम इस प्रकार लिख सकते हैं -
समीकरण [7.31 (a)] एवं [7.32 (a)] से,
ध्यान दीजिए कि उपरोक्त संबंध की व्युत्पत्ति में हमने तीन परिकल्पनाओं का उपयोग किया है जो इस प्रकार हैं- (i) प्राथमिक कुंडली का प्रतिरोध एवं इसमें प्रवाहित होने वाली धारा कम है; (ii) प्राथमिक एवं द्वितीयक कुंडली से समान फ्लक्स बाहर निकल पाता है; एवं (iii) द्वितीयक कुंडली में बहुत कम धारा प्रवाहित होती है।
यदि यह मान लिया जाए कि ट्रांसफॉर्मर की दक्षता है (कोई ऊर्जा क्षय नहीं होता); तो निवेशी शक्ति, निर्गत शक्ति के बराबर होगी और चूँकि ,
यद्यपि कुछ न कुछ ऊर्जा क्षय तो सदैव होता ही है, फिर भी यह एक अच्छा सन्निकटन है, क्योंकि एक भली प्रकार अभिकल्पित ट्रांसफॉर्मर की दक्षता से अधिक होती है। समीकरण (7.33) एवं (7.34) को संयोजित करने पर,
क्योंकि एवं दोनों की दोलन आवृत्ति वही है जो स्रोत की, समीकरण (7.35) से संगत राशियों के आयामों अथवा मानों का अनुपात भी प्राप्त होता है।
अब, हम देख सकते हैं कि ट्रांसफॉर्मर किस प्रकार वोल्टता एवं धारा के मानों को प्रभावित करता है। हम जानते हैं कि :
अर्थात यदि द्वितीयक कुंडली में प्राथमिक कुंडली से अधिक फेरे हैं तो वोल्टता बढ़ जाती है । इस प्रकार की व्यवस्था को उच्चायी ट्रांसफॉर्मर (step-up transformer) कहते हैं। तथापि, इस व्यवस्था में, द्वितीयक कुंडली में धारा प्राथमिक कुंडली से कम होती है एवं । उदाहरणार्थ, यदि किसी ट्रांसफॉर्मर की प्राथमिक कुंडली में 100 एवं द्वितीयक कुंडली में 200 फेरे हों तो एवं । अत: , का निवेश, बढ़कर का निर्गम पर देगा।
यदि द्वितीयक कुंडली में प्राथमिक कुंडली से कम फेरे हैं तो यह ट्रांसफॉर्मर अपचयी (step-down transformer) है। इस ट्रांसफार्मर में एवं अर्थात वोल्टता कम हो जाती है तथा धारा बढ़ जाती है।
ऊपर प्राप्त की गई समीकरण आदर्श ट्रांसफॉर्मरों के लिए ही लागू होती है (जिनमें कोई ऊर्जा क्षय नहीं होता)। परंतु वास्तविक ट्रॉसफॉर्मरों में निम्नलिखित कारणों से अल्प मात्रा में ऊर्जा क्षय होता है-
(i) फ्लक्स क्षरण-सदैव कुछ न कुछ फ्लक्स तो क्षरित होता ही है, अर्थात क्रोड के खराब अभिकल्पन या इसमें रही वायु रिक्ति के कारण, प्राथमिक कुंडली का समस्त फ्लक्स द्वितीयक कुंडली से नहीं गुजरता। प्राथमिक एवं द्वितीयक कुंडलियों को एक दूसरे के ऊपर लपेट कर फ्लक्स क्षरण को कम किया जाता है।
(ii) कुंडलनों का प्रतिरोध- कुंडलियाँ बनाने में लगे तारों का कुछ न कुछ प्रतिरोध तो होता ही है और इसलिए इन तारों में उत्पन्न ऊष्मा के कारण ऊर्जा क्षय होता है। उच्च धारा, निम्न वोल्टता कुंडलनों में मोटे तार का उपयोग करके, इनमें होने वाले ऊर्जा क्षय को कम किया जाता है।
(iii) भँवर धाराएँ-प्रत्यावर्ती चुंबकीय फ्लक्स, लौह-क्रोड में भँवर धाराएँ प्रेरित करके, इसे गर्म कर देता है। स्तरित क्रोड का उपयोग करके इस प्रभाव को कम किया जाता है।
(iv) शैथिल्य (Hysteresis)-प्रत्यावर्ती चुंबकीय क्षेत्र द्वारा क्रोड का चुंबकन बार-बार उत्क्रमित होता है। इस प्रक्रिया में व्यय होने वाली ऊर्जा क्रोड में ऊष्मा के रूप में प्रकट होती है। कम शैथिल्य वाले पदार्थ का क्रोड में उपयोग करके इस प्रभाव को कम रखा जाता है।
विद्युत ऊर्जा का लंबी दूरियों तक, बड़े पैमाने पर संप्रेषण एवं वितरण करने के लिए ट्रांसफॉर्मरों का उपयोग किया जाता है। जनित्र की निर्गत वोल्टता को उच्चायित किया जाता है (ताकि धारा कम हो जाती है और परिणामस्वरूप हानि घट जाती है। इसकी लंबी दूरी के उपभोक्ता के समीप स्थित क्षेत्रीय उप-स्टेशन तक संप्रेषित किया जाता है। वहाँ वोल्टता को अपचयित किया जाता है। वितरण उप-स्टेशनों एवं खंभों पर फिर से अपचयित करके की शक्ति आपूर्ति हमारे घरों को पहुँचायी जाती है।
सारांश
1. जब किसी प्रतिरोधक के सिरों पर कोई प्रत्यावर्ती वोल्टता लगाई जाती है तो उसमें धारा संचालित होती है जहाँ, . यह धारा प्रयुक्त वोल्टता की कला में होती है।
2. किसी प्रतिरोधक से प्रवाहित प्रत्यावर्ती धारा के लिए जूल तापन के कारण माध्य शक्ति क्षय होता है। इसे उसी रूप में व्यक्त करने के लिए जिसमें शक्ति , को व्यक्त करते हैं, धारा के एक विशिष्ट मान का उपयोग किया जाता है। इसे वर्ग माध्य मूल (rms) धारा कहते हैं तथा से व्यक्त करते हैं :
इसी प्रकार, वोल्टता
माध्य शक्ति के लिए व्यंजक
3. किसी शुद्ध प्रेरक के किसी पर प्रयुक्त ac वोल्टता इसमें , धारा संचालित करता है, यहाँ
जहाँ
को प्रेरणिक प्रतिघात कहते हैं। प्रेरक में धारा वोल्टता से रेडियन से पीछे होती है। एक पूरे चक्र में किसी प्रेरिक को आपूर्ति माध्य शक्ति शून्य होती है।
4. किसी संधारित्र के सिरों पर प्रयुक्त ac वोल्टता उसमें
2) धारा संचालित करता है। यहाँ
को धारिता प्रतिघात कहते हैं। संधारित्र में प्रवाहित धारा प्रयुक्त वोल्टता से रेडियन आगे होती है। प्रेरक के समान ही एक पूरे चक्र में संधारित्र को आपूर्त माध्य शक्ति शून्य होती है।
5. वोल्टता , द्वारा संचालित किसी श्रेणीबद्ध परिपथ में धारा का मान निम्नलिखित व्यंजक से दिया जाता है,
यहाँ
तथा
होता है।
को परिपथ की प्रतिबाधा कहते हैं।
एक पूरे चक्र में माध्य शक्ति क्षय को निम्न सूत्र से व्यक्त करते हैं,
पद को शक्ति गुणांक कहते हैं।
6. किसी विशुद्ध प्रेरणिक अथवा धारिता परिपथ के लिए । ऐसे परिपथ में यद्यपि धारा तो प्रवाहित होती है तथापि शक्ति क्षय नहीं होता है। ऐसे उदाहरणों में धारा को वाटहीन (Wattless) धारा कहते हैं।
7. किसी ac परिपथ में धारा व वोल्टता के मध्य कला के संबंध को सुगमता से व्यक्त किया जा सकता है। इसमें वोल्टता तथा धारा को घूर्णी सदिशों से निरूपित करते हैं। घूर्णी सदिश को फेजर कहते हैं। फेजर एक सदिश के समान है जो चाल से मूल बिंदु के चतुर्दिश घूर्णन करता है। फेजर का परिमाण फेजर द्वारा निरूपित राशि (वोल्टता या धारा) के आयाम या शिखर मान को व्यक्त करता है।
फेजर-आरेख के उपयोग से किसी परिपथ का विश्लेषण आसान हो जाता है।
8. ट्रांसफार्मर में एक लोहे का क्रोड होता है जिसमें फेरों की संख्या की एक प्राथमिक कुंडली तथा फेरों की संख्या की एक द्वितीयक कुंडली लिपटी रहती है। यदि प्राथमिक कुंडली को किसी स्रोत से जोड़ दें, तो प्राथमिक एवं द्वितीयक वोल्टता निम्नलिखित व्यंजक द्वारा संबंधित होती हैं,
तथा दोनों धाराओं के मध्य के संबंध को निम्नलिखित सूत्र से व्यक्त करते हैं
यदि प्राथमिक की तुलना में द्वितीयक कुंडली में फेरों की संख्या अधिक है तो वोल्टता उच्च हो जाती है । इस प्रकार की युक्ति को उच्चायी ट्रांसफार्मर कहते हैं। किंतु यदि प्राथमिक की तुलना में द्वितीयक में फेरों की संख्या कम है तो ट्रांसफार्मर अपचयी होता है।
भौतिक राशि |
प्रतीक |
विमा |
मात्रक |
टिप्पणी |
rms वोल्टता |
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V |
ac वोल्टता का आयाम है। |
rms धारा |
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[A] |
A |
ac धारा का आयाम है। |
प्रतिघात : प्रेरणिक धारितात्मक |
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प्रतिबाधा |
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परिपथ में विद्यमान अवयवों पर निर्भर करता है। |
अनुनादी आवृत्ति |
या |
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एक श्रेणीबद्ध परिपथ के लिए |
गुणता कारक |
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विमाह |
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श्रेणीबद्ध परिपथ के लिए |
शक्ति कारक |
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विमाहीन |
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परिपथ में आरोपित वोल्टता तथा धारा में कलांतर है |
विचारणीय विषय
1. जब ac वोल्टता या धारा को कोई मान दिया जाता है तो यह प्राय: धारा अथवा वोल्टता का rms मान होता है। आपके कमरे में लगे विद्युत स्विच के टर्मिनलों के बीच वोल्टता सामान्यतया होती है। यह वोल्टता के rms मान को निर्दिष्ट करती है। इस वोल्टता का आयाम है।
2. किसी परिपथ में प्रयुक्त अवयव की शक्ति संनिर्धारण माध्य शक्ति से निर्धारण को इंगित करती है।
3. किसी परिपथ में उपयुक्त शक्ति कभी भी ऋणात्मक नहीं होती।
4. प्रत्यावर्ती एवं दिष्ट धाराएँ दोनों ऐम्पियर में मापी जाती हैं। किंतु प्रत्यावर्ती धारा के लिए ऐम्पियर को किस प्रकार भौतिक रूप से परिभाषित किया जाए? जिस प्रकार ऐम्पियर को परिभाषित करते हैं उसी प्रकार इसे ( ऐम्पियर को) धाराओं को वहन करने वाले दो समांतर तारों के अन्योन्य आकर्षण के रूप में परिभाषित नहीं कर सकते। धारा स्रोत की आवृत्ति के साथ दिशा परिवर्तित करती है जिससे माध्य आकर्षण बल शून्य हो जाता है। अतः ac ऐम्पियर को किसी ऐसे गुण के संबंध में परिभाषित करना चाहिए जो धारा की दिशा पर निर्भर न करता हो।
जूल तापन एक ऐसा ही गुण है, तथा किसी परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा के मान को एक ऐम्पियर के रूप में परिभाषित करते हैं यदि यह धारा वही औसत ऊष्मीय प्रभाव उत्पन्न करती है, जैसा कि धारा की एक ऐम्पियर उन्हीं परिस्थितियों में करती है।
5. किसी परिपथ में विभिन्न अवयवों के सिरों के बीच वोल्टताओं का योग करते समय उनकी कलाओं का उचित ध्यान रखना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि किसी परिपथ में और क्रमशः
व के सिरों के बीच वोल्टता है तो संयोजन के सिरों के बीच वोल्टता होगी न कि क्योंकि तथा के बीच कला-अंतर है।
6. यद्यपि किसी फेजर-आरेख में वोल्टता तथा धारा को सदिशों से निरूपित करते हैं तथापि ये राशियाँ वास्तव में सदिश नहीं हैं। ये अदिश राशियाँ हैं। ऐसा होता है कि सरल आवर्त रूप से परिवर्तित होने वाले अदिशों की कलाएँ गणितीय रूप से उसी प्रकार संयोग करती हैं, जैसे कि तदनुसार परिमाणों व दिशाओं के घूर्णी सदिशों के प्रक्षेप करते हैं। ‘घूर्णी सदिश’, जो सरल आवर्त रूप से परिवर्तनशील अदिश राशियों का निरूपण करते हैं, हमें इन राशियों के जोड़ने की सरल विधि प्रदान करने के लिए सन्निविष्ट किए जाते हैं। इसके लिए हम उस नियम का उपयोग करते हैं जिसे हम सदिशों के संयोजन के नियम के रूप में पहले ही से जानते हैं।
7. किसी परिपथ में शुद्ध संधारित्रों तथा प्रेरकों से कोई शक्ति-क्षय संबद्ध नहीं होता। यदि परिपथ में किसी अवयव द्वारा शक्ति-क्षय होता है तो वह प्रतिरोधक अवयव है।
8. किसी परिपथ में अनुनाद की परिघटना तब होती है जब या । अनुनाद होने के लिए परिपथ में व दोनों अवयवों का होना आवश्यक है। इनमें से मात्र एक ( अथवा ) के होने से वोल्टता के निरस्त होने की संभावना नहीं होती और इस प्रकार अनुनाद संभव नहीं है।
9. किसी परिपथ में शक्ति गुणांक (Power Factor) इस बात को मापता है कि परिपथ अधिकतम शक्ति व्यय करने के कितने समीप है।
10. जनित्रों एवं मोटरों में निवेश तथा निर्गत की भूमिकाएँ एक-दूसरे के विपरीत होती हैं। एक मोटर में वैद्युत ऊर्जा निवेश है तथा यांत्रिक ऊर्जा निर्गत है; जनित्र में यांत्रिक ऊर्जा निवेश है तथा वैद्युत ऊर्जा निर्गत है। दोनों युक्तियाँ ऊर्जा को एक प्रकार से दूसरे में रूपांतरित करती हैं।
11. एक ट्रांसफॉर्मर (उच्चायी) निम्न वोल्टता को उच्च वोल्टता में परिवर्तित करता है। यह ऊर्जा के संरक्षण के नियम का उल्लंघन नहीं करता है। धारा उसी अनुपात में घट जाती है।