अध्याय 3 विद्युत धारा
3.1 भूमिका
अध्याय 1 में सभी आवेशों को चाहे वे स्वतंत्र हों अथवा परिबद्ध, विरामावस्था में माना गया था। गतिमान आवेश विद्युत धारा का निर्माण करते हैं। ऐसी ही धारा प्रकृति में बहुत-सी स्थितियों में पाई जाती है। तड़ित एक ऐसी परिघटना है जिसमें आवेश बादलों से पृथ्वी तक वायुमंडल से होकर पहुँचते हैं, जिनका परिणाम कभी-कभी भयंकर होता है। तड़ित में आवेश का प्रवाह स्थायी नहीं होता, परंतु हम अपने दैनिक जीवन में बहुत-सी युक्तियों में आवेशों को उसी प्रकार प्रवाहित होते हुए देखते हैं जिस प्रकार नदियों में जल प्रवाहित होता रहता है। टॉर्च तथा सेल से चलने वाली घड़ी इस प्रकार की युक्तियों के कुछ उदाहरण हैं। इस अध्ययन में हम अपरिवर्ती अथवा स्थायी विद्युत धारा से संबंधित कुछ मूल नियमों का अध्ययन करेंगे।
3.2 विद्युत धारा
आवेश प्रवाह के लंबवत एक लघु क्षेत्रफल की कल्पना कीजिए। इस क्षेत्र से होकर धनात्मक और ॠणात्मक दोनों ही प्रकार के आवेश अग्र अथवा पश्च दिशा में प्रवाहित हो सकते हैं। मान लीजिए, किसी काल-अंतराल $t$ में इस क्षेत्र से प्रवाहित होने वाला नेट अग्रगामी धनावेश $q _{+}$(अर्थात अग्रगामी तथा पश्चगामी का अंतर) है। इसी प्रकार, मान लीजिए इसी क्षेत्र से प्रवाहित होने वाला नेट अग्रगामी ॠणावेश $q _{-}$है। तब इस काल अंतराल $t$ में इस क्षेत्र से प्रवाहित होने वाला नेट आवेश $q=q _{+}-q _{-}$है। स्थायी धारा के लिए यह $t$ के अनुक्रमानुपाती है और भागफल
$$ \begin{equation*} I=\frac{q}{t} \tag{3.1} \end{equation*} $$
क्षेत्र से होकर अग्रगामी दिशा में प्रवाहित विद्युत धारा को परिभाषित करता है। (यदि यह संख्या ॠणात्मक है तो इससे यह संकेत प्राप्त होता है कि विद्युत धारा पश्चदिशा में है।)
विद्युत धाराएँ सदैव अपरिवर्ती नहीं होतीं, इसलिए अधिक व्यापक रूप में हम विद्युत धारा को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं। मान लीजिए काल-अंतराल $\Delta t$ [अर्थात काल $t$ तथा $(t+\Delta t)$ के बीच] में किसी चालक की अनुप्रस्थ काट से प्रवाहित होने वाला नेट आवेश $\Delta Q$ है। तब काल $t$ पर चालक के इस अनुप्रस्थ काट से प्रवाहित विद्युत धारा को $\Delta Q$ या $\Delta t$ के अनुपात के मान के रूप में इस प्रकार परिभाषित किया जाता है जिसमें $\Delta t$ की सीमा शून्य की ओर प्रवृत्त है,
$$ \begin{equation*} I(t) \equiv \lim _{\Delta t \rightarrow 0} \frac{\Delta Q}{\Delta t} \tag{3.2} \end{equation*} $$
S I मात्रकों में विद्युत धारा का मात्रक ऐम्पियर है। एक ऐम्पियर को विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव द्वारा परिभाषित किया जाता है जिसका हम अगले अनुच्छेद में अध्ययन करेंगे। घरेलू वैद्युत-साधित्रों में प्रवाहित होने वाली प्रतिरूपी विद्युत धारा के परिमाण की कोटि एक ऐम्पियर होती है। जहाँ एक ओर किसी औसत तड़ित में हज़ारों ऐम्पियर कोटि की धारा प्रवाहित हो जाती है, वहीं दूसरी ओर हमारी तंत्रिकाओं से प्रवाहित होने वाली धाराएँ कुछ माइक्रोऐम्पियर कोटि की होती हैं।
3.3 चालक में विद्युत धारा
यदि किसी वैद्युत आवेश पर कोई विद्युत क्षेत्र को अनुप्रुयुक्त किया जाए तो वह एक बल का अनुभव करेगा। यदि यह गति करने के लिए स्वतंत्र है तो यह भी गतिमान होकर विद्युत धारा उत्पन्न करेगा। वायुमंडल के ऊपरी स्तर जिसे आयनमंडल कहते हैं, की भाँति प्रकृति में मुक्त आवेशित कण पाए जाते हैं। तथापि, अणुओं तथा परमाणुओं में ऋणावेशित इलेक्ट्रॉन तथा धनावेशित इलेक्ट्रॉन एक-दूसरे से परिबद्ध होने के कारण गति करने के लिए स्वतंत्र नहीं होते हैं। स्थूल पदार्थ अनेक अणुओं से निर्मित होते हैं, उदाहरण के लिए, एक ग्राम जल में लगभग $10^{22}$ अणु होते हैं। ये अणु इतने संकुलित होते हैं कि इलेक्ट्रॉन अब एक व्यष्टिगत नाभिक से ही जुड़ा नहीं रहता। कुछ पदार्थों में इलेक्ट्रॉन अभी भी परिबद्ध होते हैं, अर्थात विद्युत-क्षेत्र अनुप्रयुक्त करने पर भी त्वरित नहीं होते। कुछ दूसरे पदार्थों में विशेषकर धातुओं में कुछ इलेक्ट्रॉन स्थूल पदार्थ के भीतर वास्तविक रूप से, गति करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। इन पदार्थों जिन्हें सामान्यतः चालक कहते हैं, में विद्युत क्षेत्र अनुप्रयुक्त करने पर विद्युत धारा उत्पन्न हो जाती है।
यदि हम ठोस चालक पर विचार करें तो वास्तव में इनमें परमाणु आपस में निकट रूप से, कस कर आबद्ध होते हैं जिसके कारण ऋण आवेशित इलेक्ट्रॉन विद्युत धारा का वहन करते हैं। तथापि, अन्य प्रकार के चालक भी होते हैं जैसे विद्युत अपघटनी विलयन, जिनमें धनावेश तथा ऋणावेश दोनों गति कर सकते हैं। हम अपनी चर्चा को ठोस चालकों पर ही केंद्रित रखेंगे जिसमें स्थिर धनायनों की पृष्ठभूमि में ऋण आवेशित इलेक्ट्रॉन विद्युत धारा का वहन करते हैं।
पहले हम ऐसी स्थिति पर विचार करते हैं जहाँ कोई विद्युत क्षेत्र उपस्थित नहीं है। इलेक्ट्रॉन तापीय गति करते समय आबद्ध आयनों से संघट्ट करते हैं। संघट्ट के पश्चात इलेक्ट्रॉन की चाल अपरिवर्तित रहती है। अतः टकराने के बाद चाल की दिशा पूर्णतया यादृच्छिक होती है। किसी दिए हुए समय पर इलेक्ट्रॉनों की चाल की कोई अधिमानिक दिशा नहीं होती है। अतः औसत रूप से
किसी एक विशेष दिशा में गमन करने वाले इलेक्ट्रॉनों की संख्या, उस दिशा के ठीक विपरीत दिशा में गमन करने वाले इलेक्ट्रॉनों की संख्या के ठीक बराबर होती है। अतः कोई नेट विद्युत धारा नहीं होगी।
आइए अब हम यह देखें कि इस प्रकार के चालक के किसी टुकड़े पर कोई विद्युत क्षेत्र अनुप्रयुक्त करने पर क्या होता है। अपने विचारों को केंद्रित करने के लिए $R$ त्रिज्या के बेलनाकार चालक की कल्पना कीजिए (चित्र 3.1)। मान
चित्र 3.1 धात्विक बेलन के सिरों पर रखे $+B$ और $-Q$ आवेश। आवेशों को उदासीन करने के लिए उत्पन्न विद्युत क्षेत्र के कारण इलेक्ट्रॉनों का अपवाह होगा। यदि आवेश $+B$ और $-C$ की पुन: पूर्ति सतत न की गई तो कुछ देर में विद्युत धारा प्रवाह समाप्त
हो जाएगा। लीजिए परावैद्युत पदार्थ की बनी दो पतली वृत्ताकार डिस्क लेते हैं जिनकी त्रिज्याएँ चालक के समान हैं और जिनमें एक पर धनावेश $+Q$ तथा दूसरे पर ऋणावेश $-Q$ एकसमान रूप से वितरित हैं। इन दोनों डिस्कों को बेलन की दो चपटी पृष्ठों से जोड़ देते हैं। ऐसा करने पर एक विद्युत क्षेत्र उत्पन्न हो जाएगा जिसकी दिशा धनावेश से ऋणावेश की ओर होगी। इस क्षेत्र के कारण इलेक्ट्रॉन $+Q$ की तरफ त्वरित होंगे। इस प्रकार वे आवेशों को उदासीन करने के लिए गति करेंगे। जब तक इलेक्ट्रॉन का प्रवाह बना रहेगा, विद्युत धारा बनी रहेगी। इस प्रकार विचाराधीन परिस्थिति में बहुत अल्प समय के लिए विद्युत धारा बहेगी और उसके पश्चात कोई धारा नहीं होगी।
हम ऐसी युक्तियों की भी कल्पना कर सकते हैं जो बेलन के सिरों पर, चालक के अंदर गतिमान इलेक्ट्रॉनों द्वारा उदासीन सभी आवेशों की नए आवेशों से पुनः पूर्ति कराएँ। उस प्रकाश में चालक में एक स्थायी विद्युत क्षेत्र स्थापित होगा, जिसके परिणामस्वरूप जो धारा उत्पन्न होगी वह अल्पावधि की न होकर, सतत विद्युत धारा होगी। इस प्रकार स्थायी विद्युत क्षेत्र उत्पन्न करने वाली युक्तियाँ विद्युत सेल अथवा बैटरियाँ होती हैं जिनके विषय में हम इस अध्याय में आगे अध्ययन करेंगे। अगले अनुभागों में हम चालकों में स्थायी विद्युत-क्षेत्रों से प्राप्त स्थायी विद्युत धारा का अध्ययन करेंगे।
3.4 ओम का नियम
विद्युत धारा के प्रवाह के लिए उत्तरदायी भौतिक युक्तियों की खोज से काफी पहले जी. एस. ओम ने सन् 1828 में धारा प्रवाह से संबद्ध एक मूल नियम की खोज कर ली थी। एक चालक की परिकल्पना कीजिए जिससे धारा $I$ प्रवाहित हो रही है और मान लीजिए $V$, चालक के सिरों के मध्य विभवान्तर है। तब ओम के नियम का कथन है कि $$ V \propto I $$
अथवा $V=R I$ यहाँ आनुपातिकता स्थिरांक $R$, चालक का प्रतिरोध कहलाता है। प्रतिरोध का SI मात्रक ओम है और यह प्रतीक $\Omega$ द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है। प्रतिरोध $R$ चालक के केवल पदार्थ पर ही नहीं बल्कि चालक के विस्तार पर भी निर्भर करता है। प्रतिरोध की चालक के विस्तार पर निर्भरता नीचे दिए अनुसार आसानी से ज्ञात की जा सकती है।
लंबाई $l$ तथा अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल $A$ की किसी आयताकार सिल्ली पर विचार कीजिए जो समीकरण (3.3) को संतुष्ट करता है [चित्र 3.2 ]। कल्पना कीजिए ऐसी दो सर्वसम सिल्लियाँ सिरे से सिरे को मिलाते हुए इस प्रकार रखी हुई हैं कि संयोजन की लंबाई $2 l$ है। इस संयोजन से उतनी ही धारा प्रवाहित होगी जितनी कि दोनों में से किसी एक सिल्ली से होगी। यदि पहली सिल्ली के
(a)
(b)
(c)
चित्र 3.2 लंबाई $l$ तथा
अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल $A$ की
आयताकार सिल्ली के संबंध
$R=\rho l / A$ का निदर्श चित्र। समीकरण (3.3) को संतुष्ट करता है [चित्र 3.2 ]। कल्पना कीजिए ऐसी दो सर्वसम सिल्लियाँ सिरे से सिरे को मिलाते हुए इस प्रकार रखी हुई हैं कि संयोजन की लंबाई $2 l$ है। इस संयोजन से उतनी ही धारा प्रवाहित होगी जितनी कि दोनों में से किसी एक सिल्ली से होगी। यदि पहली सिल्ली के
जॉर्ज साइमन ओम (1787-1854) जर्मन भौतिकविज्ञानी, म्यूनिख में प्रोफ़ेसर थे। ओम ने अपने नियम की खोज ऊष्मा-चालन से सदृश्य के आधार पर की- विद्युत क्षेत्र ताप-प्रवणता के तुल्य है और विद्युत धारा ऊष्मा-प्रवाह के।
सिरों के मध्य विभवांतर $V$ है, तब दूसरी सिल्ली के सिरों के मध्य भी विभवांतर $V$ होगा, क्योंकि दूसरी सिल्ली पहली के समान है और दोनों से समान धारा प्रवाहित हो रही है। स्पष्टतया संयोजन के सिरों के मध्य विभवांतर, दो पृथक सिल्लियों के मध्य विभवांतरों का योग है, अत: $2 V$ के बराबर है। संयोजन से होकर प्रवाहित धारा $I$ है तब समीकरण (3.3) से संयोजन का प्रतिरोध $R _{\mathrm{C}}$
$$ \begin{equation*} R _{C}=\frac{2 V}{I}=2 R \tag{3.4} \end{equation*} $$
चूँकि $V / I=R$, दोनों में से किसी एक सिल्ली का प्रतिरोध है। इस प्रकार चालक की लंबाई दोगुनी करने पर इसका प्रतिरोध दोगुना हो जाता है। तब व्यापक रूप से प्रतिरोध लंबाई के अनुक्रमानुपाती होता है
$$ \begin{equation*} R \propto l \tag{3.5} \end{equation*} $$
इसके बाद इस सिल्ली को लंबाई में दो समान भागों में विभाजित करने की कल्पना कीजिए जिससे कि सिल्ली को लंबाई $l$ की दो सर्वसम सिल्लियों जिनमें प्रत्येक का अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल $A / 2$ है, के संयोजन जैसा समझा जा सके [चित्र 3.2 (c)]।
सिल्ली के सिरों के मध्य दिए गए विभवांतर $V$ के लिए यदि पूरी सिल्ली से प्रवाहित होने वाली धारा $I$ है तो स्पष्टता प्रत्येक आधी सिल्ली से प्रवाहित होने वाली धारा $I / 2$ होगी। चूँकि आधी सिल्ली के सिरों के मध्य विभवांतर $V$ है, अर्थात उतना ही है जितना कि पूरी सिल्ली के सिरों के मध्य विभवांतर है, इसलिए प्रत्येक आधी सिल्ली का प्रतिरोध $R _{1}$ इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
$$ \begin{equation*} R _{1}=\frac{V}{(I / 2)}=2 \frac{V}{I}=2 R \tag{3.6} \end{equation*} $$
इस प्रकार चालक की अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल को आधा करने पर प्रतिरोध दोगुना हो जाता है। व्यापक रूप से तब प्रतिरोध $R$, अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल $(A)$ के व्युत्क्रमानुपाती होता है, अर्थात
$$ \begin{equation*} R \propto \frac{1}{A} \tag{3.7} \end{equation*} $$
समीकरण (3.5) और (3.7) के संयोजन से
$$ \begin{equation*} R \propto \frac{l}{A} \tag{3.8} \end{equation*} $$
अतः, किसी दिए गए चालक के लिए
$$ \begin{equation*} R=\rho \frac{l}{A} \tag{3.9} \end{equation*} $$
यहाँ $\rho$ एक आनुपातिकता स्थिरांक है जो चालक के पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है, इसके विस्तार पर नहीं। $\rho$ को प्रतिरोधकता कहते हैं।
समीकरण (3.9) का प्रयोग करने पर, ओम के नियम को इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं
$V=I \times R=\frac{I \rho l}{A}$ $j$ द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है। धारा घनत्व का $\mathrm{SI}$ मात्रक $\mathrm{A} / \mathrm{m}^{2}$ है। इसके अतिरिक्त यदि एकसमान विद्युत क्षेत्र $E$ के किसी चालक की लंबाई $l$ है तो इस चालक के सिरों के बीच विभवांतर का परिणाम $E l$ होता है। इसका उपयोग करने पर समीकरण (3.10) को इस प्रकार व्यक्त करते हैं
$$ \begin{equation*} E l=j \rho l \tag{3.11} \end{equation*} $$
अथवा $E=j \rho$
$\mathbf{E}$ तथा $\mathbf{j}$ के परिमाण के लिए उपरोक्त समीकरण को अवश्य ही सदिश रूप में व्यक्त किया जा सकता है। धारा घनत्व (जिसे हमने धारा के अभिलंबवत प्रति एकांक क्षेत्रफल के रूप में परिभाषित किया है) भी $\mathbf{E}$ की ओर निर्दिष्ट है और $j(\equiv j \mathbf{E} / E)$ एक सदिश भी है। इस प्रकार समीकरण (3.11) को इस प्रकार से व्यक्त करते हैं
$$ \begin{equation*} \mathbf{E}=\mathbf{j} \rho \tag{3.12} \end{equation*} $$
$$ \begin{equation*} \text { अथवा } \mathbf{j}=\sigma \mathbf{E} \tag{3.13} \end{equation*} $$
जहाँ $\sigma=1 / \rho$ को चालकता कहते हैं। ओम के नियम को प्राय: समीकरण (3.3) के अलावा समीकरण (3.13) द्वारा भी समतुल्य रूप में व्यक्त किया जाता है। अगले अनुच्छेद में हम ओम के नियम के उद्गम को इस रूप में समझने का प्रयास करेंगे जैसे कि यह इलेक्ट्रॉनों के अपवाह के अभिलक्षणों से उत्पन्न हुआ है।
3.5 इलेक्ट्रॉन का अपवाह एवं प्रतिरोधकता का उद्गम
हमने पहले देखा है कि जब कोई इलेक्ट्रॉन किसी भारी आयन से संघट्ट करता है तो संघट्ट के बाद उसी चाल से चलता है लेकिन इसकी दिशा यादृच्छिक हो जाती है। यदि हम सभी इलेक्ट्रॉनों पर विचार करें तो उनका औसत वेग शून्य होगा, क्योंकि उनकी दिशाएँ यादृच्छिक हैं। इस प्रकार यदि $i^{\text {th }}$ इलेक्टॉन $(i=1,2,3, \ldots \mathrm{N})$ का वेग किसी दिए समय में $\mathbf{v} _{i}$ हो तो
$$ \begin{equation*} \frac{1}{N} \sum _{i=1}^{N} \mathbf{v} _{i}=0 \tag{3.14} \end{equation*} $$
अब ऐसी स्थिति पर विचार करें जब यह चालक किसी विद्युत क्षेत्र में उपस्थित है। इस क्षेत्र के कारण इलेक्ट्रॉन में त्वरण उत्पन्न होगा
$$ \begin{equation*} \mathbf{a}=\frac{-e \mathbf{E}}{m} \tag{3.15} \end{equation*} $$
जहाँ $-e$ इलेक्ट्रॉन का आवेश तथा $m$ इसका द्रव्यमान है। दिए गए समय $t$ में $i^{\text {th }}$ इलेक्ट्रॉन पर पुनः विचार करें। यह इलेक्ट्रॉन $t$ के कुछ समय पहले अंतिम बार संघट्ट करेगा और मान लीजिए, $t _{i}$ इसके अंतिम संघट्ट के बाद व्यतीत समय है। यदि $v _{i}$ अंतिम संघट्ट के तुरंत पश्चात का वेग था तब समय $t$ पर इसका वेग
$$ \begin{equation*} \mathbf{v} _{i}=\mathbf{v} _{i}+\left(-\frac{e \mathbf{E}}{m}\right) t _{i} \tag{3.16} \end{equation*} $$
चूँकि अपने अंतिम संघट्ट से आरंभ करने के पश्चात यह इलेक्ट्रॉन किसी समय अंतराल $t _{i}$ के लिए समीकरण (3.15) द्वारा दिए गए त्वरण के साथ त्वरित हुआ था। सभी इलेक्ट्रॉनों का समय $t$ पर औसत वेग सभी $\mathbf{V} _{i}$ का औसत है।
चित्र 3.3 किसी बिंदु $\mathrm{A}$ से दूसरे बिंदु $\mathrm{B}$ तक बारम्बार संघट्टों के द्वारा इलेक्ट्रॉन की गति तथा संघट्टों के बीच रैखिक गति का आरेखीय चित्रण (सतत रेखाएँ)। यदि दर्शाए अनुसार कोई विद्युत क्षेत्र लगाया जाता है तो इलेक्ट्रॉन $\mathrm{B}^{\prime}$ पर रुक जाता है (बिंदुकृत रेखाएँ)। विद्युत क्षेत्र के विपरीत दिशा में मामूली अपवाह दिखलाई दे रहा है।
$\mathbf{v} _{i}$ का औसत शून्य है [समीकरण (3.14)] क्योंकि संघट्ट के तुरंत बाद एक इलेक्ट्रॉन के वेग की दिशा पूर्णतया यादृच्छिक होती है। इलेक्ट्रॉनों के संघट्ट नियमित काल-अंतरालों पर न होकर यादृच्छिक समय में होते हैं। यदि लगातार (क्रमिक) संघट्टों के बीच औसत समय को हम लोग $\tau$ से निर्दिष्ट करें तो किसी दिए गए समय में कुछ इलेक्ट्रॉन $\tau$ से ज्यादा और कुछ $\tau$ से कम समय व्यतीत किए होंगे। दूसरे शब्दों में, जैसे-जैसे हम $i=1,2 \ldots . . N$ विभिन्न मान देते हैं तो हमें समीकरण (3.16) के अनुसार समय $t _{i}$ के मान कुछ के लिए $\tau$ से ज्यादा होंगे तथा कुछ के लिए $\tau$ से कम होंगे। तब $t _{i}$ का औसत मान $\tau$ होगा (जिसे विश्रांति काल कहते हैं)। इस प्रकार किसी दिए समय $t$ पर $N$ इलेक्ट्रॉनों के लिए समीकरण (3.16) का औसत लेने पर हमें औसत वेग $\mathbf{v} _{d}$ प्राप्त होता है
चित्र 3.4 धात्विक चालक में विद्युत धारा। धातु में धारा घनत्व का परिमाण एकांक क्षेत्रफल तथा $\mathbf{v} _{d}$ ऊँचाई के बेलन में अंतर्विष्ट आवेश के परिमाण के बराबर है।
$$ \begin{align*} & \mathbf{v} _{d} \equiv\left(\mathbf{v} _{i}\right) _{\text {औसत }}=\left(\mathbf{v} _{i}\right) _{\text {औसत }}-\frac{e \mathbf{E}}{m}\left(t _{i}\right) _{\text {औसत }} \\ & =0-\frac{e \mathbf{E}}{m} \tau=-\frac{e \mathbf{E}}{m} \tau \tag{3.17} \end{align*} $$
यह अंतिम परिणाम आश्चर्यजनक है। यह हमें बताता है कि इलेक्ट्रॉन, यद्यपि त्वरित है, एक औसत वेग से गतिमान है जो समय पर निर्भर नहीं करता है। यह परिघटना अपवाह की है और समीकरण (3.17) का वेग $\mathbf{v} _{d}$ अपवाह वेग कहलाता है।
अपवाह के कारण, विद्युत क्षेत्र $\mathbf{E}$ के लंबवत किसी क्षेत्र से होकर आवेशों का नेट परिवहन होगा। चालक के अंदर एक समतलीय क्षेत्र पर विचार करें जो कि $\mathbf{E}$ के समांतर क्षेत्र पर अभिलंब है (चित्र 3.4)। तब अपवाह के कारण, अत्यणु समय $\Delta t$ में, क्षेत्र की बायीं ओर के सभी इलेक्ट्रॉन $\left|\mathbf{v} _{d}\right| \Delta t$ दूरी पार कर लिए होंगे। यदि चालक में प्रति एकांक आयतन मुक्त इलेक्ट्रॉनों की संख्या $n$ है तो $n \Delta t\left|\mathbf{v} _{d}\right| A$ ऐसे इलेक्ट्रॉन होंगे। चूँकि प्रत्येक इलेक्ट्रॉन आवेश $-e$ वहन करता है, $\Delta t$ समय में क्षेत्र $A$ की दायीं ओर परिवहित कुल आवेश $-n e A\left|\mathbf{v} _{d}\right| \Delta t$ है। $\mathbf{E}$ बायीं ओर निर्दिष्ट है, अतः इस क्षेत्र से होकर $\mathbf{E}$ के अनुदिश परिवहित कुल आवेश इसके ऋणात्मक होगा। परिभाषानुसार [समीकरण (3.2)] क्षेत्र $A$ को समय $\Delta t$ में पार करने वाले आवेश $I \Delta t$ होंगे, यहाँ $I$ धारा का परिमाण है। अतः
$$ \begin{equation*} I \Delta t=+n e A\left|\mathbf{v} _{d}\right| \Delta t \tag{3.18} \end{equation*} $$
$\left|\mathbf{v} _{d}\right|$ के मान को समीकरण (3.17) से प्रतिस्थापित करने पर
$$ \begin{equation*} I \Delta t=\frac{e^{2} A}{m} \tau n \Delta t|\mathbf{E}| \tag{3.19} \end{equation*} $$
परिभाषानुसार, धारा घनत्व के परिमाण $|\mathbf{j}|$ से $I$ संबंधित है
$$ \begin{equation*} I=|\mathbf{j}| A \tag{3.20} \end{equation*} $$
अतः समीकरण (3.19) तथा (3.20) से,
$$ |\mathbf{j}|=\frac{n e^{2}}{m} \tau|\mathbf{E}| $$
सदिश $\mathbf{j}, \mathbf{E}$ के समांतर है, इसलिए हम समीकरण (3.21) को सदिश रूप में लिख सकते हैं
$$ \begin{equation*} \mathbf{j}=\frac{n e^{2}}{m} \tau \mathbf{E} \tag{3.22} \end{equation*} $$
अगर हम चालकता $\sigma$ का तादात्म्य स्थापित करें
$$ \sigma=\frac{n e^{2}}{m} \tau $$
तो समीकरण (3.13) से तुलना करने पर यह व्यक्त होता है कि समीकरण (3.22) तथ्यतः ओम
का नियम है। यदि हम चालकता को $\sigma$ द्वारा निर्दिष्ट करें तो $\sigma=\frac{n e^{2}}{m} \tau$
इस प्रकार हम देखते हैं कि विद्युत चालकता का एक बहुत सरल चित्रण ओम के नियम की प्रतिकृति तैयार करता है। अवश्य ही हमने यह पूर्वधारणा बनाई है कि $\tau$ और $n, E$ से स्वतंत्र स्थिरांक हैं। अगले अनुच्छेद में हम ओम के नियम की सीमाओं का विवेचन करेंगे।
3.5.1 गतिशीलता
जैसा कि हम देख चुके हैं, चालकता गतिमान आवेश वाहकों से उत्पन्न होती है। धातुओं में यह गतिमान आवेश वाहक इलेक्ट्रॉन हैं, आयनित गैस में ये इलेक्ट्रॉन तथा धन आवेशित आयन हैं, विद्युत अपघट्य में ये धनायन तथा ऋणायन दोनों हो सकते हैं।
एक महत्वपूर्ण राशि गतिशीलता $\mu$ है जिसे प्रति एकांक विद्युत क्षेत्र के अपवाह वेग के परिमाण के रूप में परिभाषित करते हैं
$$ \begin{equation*} \mu=\frac{\left|\mathbf{v} _{d}\right|}{E} \tag{3.24} \end{equation*} $$
गतिशीलता का SI मात्रक $\mathrm{m}^{2} / \mathrm{Vs}$ है और इसके प्रायोगिक मात्रक $\left(\mathrm{cm}^{2} / \mathrm{Vs}\right)$ का $10^{4}$ गुना है। गतिशीलता धनात्मक होती है। समीकरण (3.17) में,
$$ v _{d}=\frac{e \tau E}{m} $$
अत:
$$ \begin{equation*} \mu=\frac{v _{d}}{E}=\frac{e \tau}{m} \tag{3.25} \end{equation*} $$
जहाँ $\tau$ इलेक्ट्रॉन के लिए संघट्टन का औसत समय है।
3.6 ओम के नियम की सीमाएँ
यद्यपि ओम का नियम पदार्थों के विस्तृत वर्ग के लिए मान्य है, विद्युत परिपथों में उपयोग होने वाले कुछ ऐसे पदार्थ एवं युक्तियाँ विद्यमान हैं जहाँ $V$ तथा $I$ की आनुपातिकता लागू नहीं होती है। मोटे तौर पर, यह विचलन निम्नलिखित एक या अधिक प्रकार का हो सकता है
(a) $V$ की $I$ से आनुपातिकता समाप्त हो जाती है (चित्र 3.5)
(b) $V$ तथा $I$ के मध्य संबंध $V$ के चिह्न पर निर्भर करता है। दूसरे शब्दों में, यदि कुछ $V$ के लिए धारा $I$ है, तो $V$ का परिमाण स्थिर रख कर इसकी दिशा बदलने पर, विपरीत दिशा में $I$ के समान परिमाण की धारा उत्पन्न नहीं होती है (चित्र 3.6)। उदाहरण के लिए, डायोड में ऐसा होता है जिसका अध्ययन हम अध्याय 14 में करेंगे।
वोल्टता तथा धारा के ऋण व धन मानों के लिए
चित्र 3.5 बिंदुकित रेखा रैखिक ओम-नियम को निरूपित करती है। सतत रेखा अच्छे चालक के लिए $V$ तथा $I$ के संबंध को दर्शाती है।
चित्र 3.7 GaAs में वोल्टता के सापेक्ष धारा में परिवर्तन। विभिन्न पैमानों को नोट कीजिए।
(c) $V$ तथा $I$ के मध्य संबंध एकमात्र संबंध नहीं है अर्थात उसी धारा $I$ के लिए $V$ के एक से अधिक मान हो सकते हैं (चित्र 3.7)।
पदार्थ तथा युक्तियाँ जो समीकरण (3.3) के रूप में ओम के नियम का पालन नहीं करती हैं, यथार्थ में, इलेक्ट्रॉनिक परिपथ में व्यापक रूप से उपयोग की जाती हैं। तथापि इस अध्याय तथा परवर्ती अध्याय में, हम उस पदार्थ में विद्युत धारा का अध्ययन करेंगे जो ओम के नियम का पालन करते हैं।
3.7 विभिन्न पदार्थों की प्रतिरोधकता
प्रतिरोधकता पर निर्भरता तथा उनके बढ़ते हुए मान के अनुसार पदार्थों का वर्गीकरण चालक, अधचालक तथा विद्युतरोधी में किया जाता है। धातुओं की प्रतिरोधकता $10^{-8} \Omega \mathrm{m}$ से $10^{-6} \Omega \mathrm{m}$ के परिसर में होती है। इसके विपरीत मृत्तिका (सिरेमिक), रबर तथा प्लास्टिक जैसे विद्युतरोधी पदार्थ भी हैं जिनकी प्रतिरोधकता, धातुओं की तुलना में $10^{18}$ गुनी या अधिक है। इन दोनों के मध्य अर्धचालक हैं। इनकी प्रतिरोधकता, तथापि ताप बढ़ाने पर अभिलाक्षणिक रूप से घटती है। अर्धचालक की प्रतिरोधकता उपयुक्त अशुद्धियों को अल्प मात्रा में मिलाने पर कम की जा सकती है। इस अंतिम विशिष्टता का लाभ, इलेक्ट्रॉनिक युक्तियों में उपयोग होने वाले अर्धचालकों के निर्माण में किया जाता है।
3.8 प्रतिरोधकता की ताप पर निर्भरता
पदार्थ की प्रतिरोधकता ताप पर निर्भर पाई जाती है। विभिन्न पदार्थ एक जैसी निर्भरता प्रदर्शित नहीं करते। एक सीमित ताप परिसर में, जो बहुत अधिक नहीं होता, किसी धात्विक चालक की लगभग प्रतिरोधकता को इस प्रकार व्यक्त करते हैं
$$ \begin{equation*} \rho _{\mathrm{T}}=\rho _{0}\left[1+\alpha\left(T-T _{0}\right)\right] \tag{3.26} \end{equation*} $$
जहाँ $\rho _{\mathrm{T}}$ ताप $T$ पर प्रतिरोधकता है तथा $\rho _{0}$ संदर्भ ताप $T _{0}$ पर इसका माप है। $\alpha$ को प्रतिरोधकता ताप-गुणांक कहते हैं और समीकरण (3.26) से $\alpha$ की विमा (ताप) $)^{-1}$ है। धातुओं के लिए $\alpha$ का मान धनात्मक होता है।
समीकरण (3.26) के संबंध से यह ध्वनित होता है कि $T$ और $\rho _{\mathrm{T}}$ के बीच ग्राफ एक सरल रेखा होती है। तथापि, $0^{\circ} \mathrm{C}$ से बहुत कम तापों पर, ग्राफ एक सरल रेखा से काफी विचलित हो जाता है।
अतः समीकरण (3.26) को किसी संदर्भ ताप $T _{0}$ के लगभग किसी सीमित परिसर में उपयोग कर सकते हैं, जहाँ ग्राफ करीब-करीब एक सरल रेखा होगी।
कुछ पदार्थ जैसे कि निक्रोम (जो कि निकैल, लोहा तथा क्रोमियम की मिश्रातु है) बहुत दुर्बल ताप-निर्भरता प्रदर्शित करता है (चित्र 3.9)। मैंगनीन तथा कांसटेंटन में भी इसी प्रकार के गुण हैं। चूँकि इनके प्रतिरोध की ताप-निर्भरता बहुत कम है, इसलिए ये पदार्थ तार आबद्ध मानक प्रतिरोधकों के निर्माण में व्यापक रूप से उपयोग किए जाते हैं।
धातुओं के विपरीत, अर्धचालकों की प्रतिरोधकता ताप में वृद्धि होने पर कम हो जाती है। इस प्रारूपिक निर्भरता को चित्र 3.10 में दर्शाया गया है।
हम समीकरण (3.23) में व्युत्पन्न परिणामों के आधार पर प्रतिरोधकता की ताप-निर्भरता को गुणात्मक रूप में समझ सकते हैं। इस समीकरण से किसी पदार्थ की प्रतिरोधकता व्यक्त की जाती है
$$ \begin{equation*} \rho=\frac{1}{\sigma}=\frac{m}{n e^{2} \tau} \tag{3.27} \end{equation*} $$
किसी पदार्थ की प्रतिरोधकता प्रति एकांक आयतन में इलेक्ट्रॉनों की संख्या तथा उसमें होने वाले संघट्टों पर प्रतिलोमी रूप से निर्भर करती है। जैसे-जैसे हम ताप बढ़ाते हैं, विद्युत धारा वहने करने वाले इलेक्ट्रॉनों की औसत चाल बढ़ती जाती है जिसके परिणामस्वरूप संघट्ट की आवृत्ति भी बढ़ती जाती है। इसलिए संघट्टों का औसत समय $\tau$, ताप के साथ घटता है।
चित्र 3.8 ताप $\mathrm{T}$ के फलन के रूप में ताँबे की
चित्र 3.9 परम ताप $\mathrm{T}$ के फलन के रूप में निक्रोम की प्रतिरोधकता।
चित्र 3.10 विशिष्ट अर्द्धचालक के लिए प्रतिरोधकता की ताप-निर्भरता।
प्रतिरोधकता $\rho _{T}$ ।
धातुओं में $n$ की ताप निर्भरता उपेक्षणीय है, इसलिए ताप बढ़ने से $\tau$ के मान के घटने के कारण $\rho$ बढ़ता है, जैसा कि हमने प्रेक्षण किया है।
तथापि, विद्युतरोधियों एवं अर्धचालकों में ताप में वृद्धि के साथ $n$ में भी वृद्धि होती है। यह वृद्धि समीकरण (3.23) में $\tau$ में होने वाली किसी भी कमी से भी अधिक की क्षतिपूर्ति करती है जिसके फलस्वरूप ऐसे पदार्थों के लिए प्रतिरोधकता $\rho$ का मान ताप के साथ घट जाता है।
3.9 विद्युत ऊर्जा, शक्ति
किसी चालक $\mathrm{AB}$ पर विचार कीजिए जिसमें $\mathrm{A}$ से $\mathrm{B}$ की ओर $I$ धारा प्रवाहित हो रही है। $\mathrm{A}$ तथा $\mathrm{B}$ पर विद्युत विभव क्रमशः $V(\mathrm{~A})$ एवं $V(\mathrm{~B})$ से निरूपित किए गए हैं। चूँकि धारा $\mathrm{A}$ से $\mathrm{B}$ की ओर प्रवाहित हो रही है, $V(\mathrm{~A})>V(\mathrm{~B})$ और चालक $\mathrm{AB}$ के सिरों के बीच विभवांतर $V=V(\mathrm{~A})-V(\mathrm{~B})>0$ है।
$\Delta t$ काल अंतराल में, आवेश की एक मात्रा $\Delta Q=I \Delta t \mathrm{~A}$ से $\mathrm{B}$ की ओर चलती है। परिभाषानुसार बिंदु $\mathrm{A}$ पर आवेश की स्थितिज ऊर्जा $\mathrm{Q} V(\mathrm{~A})$ थी तथा इसी प्रकार बिंदु $\mathrm{B}$ पर आवेश की स्थितिज ऊर्जा $\mathrm{Q} V(\mathrm{~B})$ है। इसलिए स्थितिज ऊर्जा में यह परिवर्तन $\Delta U _{p o t}$ है
$$ \begin{align*} \Delta U _{p o t} & =\text { अंतिम स्थितिज ऊर्जा - प्रारंभिक स्थितिज ऊर्जा } \\ & =\Delta \mathrm{Q}[(V(\mathrm{~B})-V(\mathrm{~A})]=-\Delta Q V \\ & =-I V \Delta t<0 \tag{3.28} \end{align*} $$
यदि आवेश चालक के अंदर बिना संघट्ट किए गतिमान हैं तो उनकी गतिज ऊर्जा भी परिवर्तित होती है जिससे कि समस्त ऊर्जा अपरिवर्तित रहे। समस्त ऊर्जा के संरक्षण से यह परिणाम निकलता है कि
$$ \begin{equation*} \Delta K=-\Delta U _{p o t} \tag{3.29} \end{equation*} $$
अथवा
$$ \begin{equation*} \Delta K=I V \Delta t>0 \tag{3.30} \end{equation*} $$
अतः चालक के अंदर विद्युत क्षेत्र के प्रभाव से अगर आवेश मुक्त रूप से गतिमान रहते तो उनकी गतिज ऊर्जा बढ़ जाती। तथापि, हमने पहले समझा है कि सामान्य तौर पर, आवेश त्वरित गति से गमन नहीं करते हैं बल्कि अपरिवर्ती अपवाह वेग से चलते हैं। यह पारगमन की अवधि में आयनों तथा परमाणुओं से संघट्ट के कारण होता है। संघट्टों के समय आवेशों द्वारा प्राप्त की गई ऊर्जा, परमाणुओं के साथ आपस में बाँट ली जाती है। परमाणु ज्यादा प्रबल रूप से कंपन करते हैं अर्थात चालक गर्म हो जाते हैं। इस प्रकार एक वास्तविक चालक में काल अंतराल $\Delta t$ में ऊष्मा के रूप में क्षयित ऊर्जा का परिमाण
$\Delta W=I V \Delta t$
प्रति एकांक समय में क्षय हुई ऊर्जा क्षयित शक्ति के बराबर है $P=\Delta W / \Delta t$ और हम प्राप्त कर सकते हैं
ओम के नियम $V=I R$ का उपयोग करने पर हम पाते हैं
$$ \begin{equation*} P=I^{2} R=V^{2} / R \tag{3.33} \end{equation*} $$
जो कि $R$ प्रतिरोध के चालक जिससे $I$ विद्युत धारा प्रवाहित हो रही है, में होने वाला शक्ति क्षय (ओमी क्षय) है। यह वही शक्ति है जो, उदाहरण के लिए किसी तापदीप्त विद्युत लैंप की कुंडली को प्रदीप्त करती है, जिसके कारण वह ऊष्मा तथा प्रकाश को विकिरण करता है।
यह शक्ति कहाँ से आती है? जैसा कि हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि किसी चालक में स्थायी धारा का प्रवाह बनाए रखने के लिए हमें एक बाह्य स्रोत की आवश्यकता होती है। स्पष्टतया यही स्रोत है जिसे इस शक्ति की आपूर्ति करनी चाहिए। चित्र (3.11) में विद्युत सेल के साथ दर्शाए गए एक सरल परिपथ में यह सेल की ही रासायनिक ऊर्जा है जो इस शक्ति की आपूर्ति जब तक कर सके, करती है।
समीकरणों (3.32) तथा (3.33) में शक्ति के लिए दिए गए व्यंजक से यह स्पष्ट होता है कि किसी प्रतिरोधक $R$ में क्षयित शक्ति उस चालक में प्रवाहित धारा तथा उसके सिरों पर वोल्टता पर किस प्रकार निर्भर करती है।
समीकरण (3.33) का विद्युत शक्ति संचरण में महत्वपूर्ण अनुप्रयोग
चित्र 3.11 सेल के टर्मिनलों से संयोजित प्रतिरोधक में $R$ ऊष्मा उत्पन्न होती है। प्रतिरोधक $R$ में क्षयित ऊर्जा विद्युत अपघट्य की रासायनिक ऊर्जा से आती है। है। विद्युत शक्ति का संचरण पावर स्टेशन से घरों तथा कारखानों में संचरण केबल द्वारा किया जाता है जो कि सैकड़ों मील दूर हो सकते हैं। स्पष्ट है कि हम पावर स्टेशनों से घरों तथा कारखानों से जोड़ने वाले संचरण केबिल में होने वाले शक्ति क्षय को न्यूनतम करना चाहेंगे। अब समझेंगे कि इसमें हम कैसे सफल हो सकते हैं। एक युक्ति $R$ पर विचार करें जिसमें $R _{c}$ प्रतिरोध वाले संचरण केबिल से होकर शक्ति $\mathrm{P}$ को पहुँचाना है, जिसे अंतिमतः क्षयित होना है यदि $R$ के सिरों के बीच वोल्टता $V$ है और उससे $I$ विद्युत धारा प्रवाहित हो रही है तो $P=V I$
पावर स्टेशन से युक्ति को संयोजित करने वाले संयोजी तारों का प्रतिरोध परिमित है और यह $R _{c}$ है। संयोजक तारों में ऊर्जा क्षय $P _{c}$ जो कि व्यर्थ व्यय होता है
$$ \begin{align*} & P _{\mathrm{c}}=I^{2} R _{c} \\ & =\frac{P^{2} R _{c}}{V^{2}} \tag{3.35} \end{align*} $$
समीकरण (3.32) से। अतः शक्ति $P$ की किसी युक्ति को संचालित करने के लिए, संयोजक तार में शक्ति अपव्यय $V^{2}$ के व्युत्क्रमानुपाती है। पावर स्टेशन से आने वाले संचरण केबल सैकड़ों मील लंबे होते हैं तथा उनका प्रतिरोध $R _{c}$ काफी अधिक होता है। संचरण में होने वाले शक्ति-क्षय $P _{\mathrm{c}}$ को कम करने के लिए इन विद्युतवाही तारों में बृहत वोल्टता $V$ पर विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है। यही कारण है कि इन शक्ति संचरण लाइनों पर उच्च वोल्टता के खतरे का चिह्न बना होता है, जो कि आबादी वाले क्षेत्र से दूर जाने पर एक सामान्य दृश्य होता है। इतनी उच्च वोल्टता पर विद्युत का प्रयोग सुरक्षित नहीं है। अतः इस धारा की वोल्टता को उपयोग के लिए उपयुक्त मान तक एक युक्ति द्वारा जिसे ट्रांसफार्मर कहते हैं, कम किया जाता है।
3.10 सेल, विद्युत वाहक बल (emf), आंतरिक प्रतिरोध
हमने पहले ही उल्लेख किया है कि विद्युत अपघटनी सेल विद्युत परिपथ में स्थायी धारा को बनाए रखने के लिए एक सरल युक्ति है। जैसा कि चित्र 3.12 में दिखाया गया है, मूल रूप से एक सेल के दो इलैक्ट्रोड होते हैं, जो कि धनात्मक $(\mathrm{P})$ तथा ऋणात्मक $(\mathrm{N})$ कहलाते हैं। ये एक विद्युत
(a)
(b)
चित्र 3.12 (a) धनात्मक टर्मिनल $\mathrm{P}$ तथा ॠणात्मक टर्मिनल $\mathrm{N}$ के साथ एक विद्युत अपघटनीय सेल का रेखा चित्र। स्पष्टता के लिए इलैक्ट्रोडों के मध्य अंतराल बढ़ाए गए हैं। विद्युत अपघट्य में $A$ तथा $B$ बिंदु प्रारूपिक तौर पर $\mathrm{P}$ एवं $\mathrm{N}$ के निकट हैं।
(b) एक सेल का संकेत। + चिह्न $\mathrm{P}$ को तथा - का चिह्न $N$ इलैक्ट्रोड को इंगित करता है। सेल के साथ विद्युतीय संयोजन $\mathrm{P}$ तथा $\mathrm{N}$ पर बनाए जाते हैं। अपघटनी विलयन में डूबे रहते हैं। विलयन में डूबे इलैक्ट्रोड विद्युत अपघट्य के साथ आवेशों का आदान-प्रदान करते हैं। इसके फलस्वरूप धनात्मक इलैक्ट्रोड के ठीक पास विद्युत अपघटनी विलयन के किसी बिंदु A पर [चित्र (3.12(a)] तथा स्वयं इस इलैक्ट्रोड के बीच एक विभवांतर $V _{+}\left(V _{+}>0\right)$ होता है। इसी प्रकार ऋणात्मक इलैक्ट्रोड अपने ठीक पास के विद्युत अपघटनी विलयन के किसी बिंदु $\mathrm{B}$ के सापेक्ष एक ॠणात्मक विभव $\left(V _{-}\right)\left(V _{-} \geq 0\right)$ पर हो जाता है। जब कोई विद्युत धारा नहीं प्रवाहित होती है तो समस्त विद्युत अपघटनी विलयन का समान विभव होता है, जिससे कि $\mathrm{P}$ तथा $\mathrm{N}$ के मध्य विभवांतर $V _{+}-\left(-V _{-}\right)=V _{+}+V _{-}$रहता है। इस अंतर को सेल का विद्युत वाहक बल (emf) कहते हैं और इसे $\varepsilon$ से निर्दिष्ट करते हैं। इस प्रकार
$$ \begin{equation*} \varepsilon=V _{+}+V _{-}>0 \tag{3.36} \end{equation*} $$
ध्यान दीजिए कि $\varepsilon$ वास्तव में एक विभवांतर है, बल नहीं। तथापि, इसके नाम के लिए विद्युत वाहक बल का उपयोग ऐतिहासिक कारणों से करते हैं और यह नाम उस समय दिया गया था जब यह परिघटना उचित रूप से समझी नहीं गई थी।
$\varepsilon$ का महत्त्व समझने के लिए, सेल से संयोजित एक प्रतिरोधक $R$ पर विचार कीजिए (चित्र 3.12)। $R$ से होकर एक विद्युत धारा $\mathrm{C}$ से $\mathrm{D}$ की ओर प्रवाहित होती है। जैसी कि पहले व्याख्या की जा चुकी है, एक स्थायी धारा बनाए रखी जाती है, क्योंकि विद्युत धारा, विद्युत अपघट्य से होकर $\mathrm{N}$ से $\mathrm{P}$ की ओर प्रवाहित होती है। स्पष्टतः विद्युत अपघट्य से होकर यही धारा $\mathrm{N}$ से $\mathrm{P}$ की ओर प्रवाहित होती है जबकि $R$ से होकर यही धारा $\mathrm{P}$ से $\mathrm{N}$ की ओर प्रवाहित होती है।
जिस विद्युत अपघट्य से होकर यह धारा प्रवाहित होती है उसका एक परिमित प्रतिरोध $r$ होता है, जिसे सेल का आंतरिक प्रतिरोध कहते हैं। पहले हम ऐसी स्थिति पर विचार करें जब $R$ अनंत है जिससे कि $I=V / R=0$, जहाँ $V, \mathrm{P}$ तथा $\mathrm{N}$ के मध्य विभवांतर है।
अब,
$$ \begin{align*} V= & \mathrm{P} \text { तथा } \mathrm{A} \text { के मध्य विभवांतर } \\ & +\mathrm{A} \text { तथा } \mathrm{B} \text { के मध्य विभवांतर } \\ & +\mathrm{B} \text { तथा } \mathrm{N} \text { के मध्य विभवांतर } \\ = & \varepsilon \tag{3.37} \end{align*} $$
अतः विद्युत वाहक बल $\varepsilon$ एक खुले परिपथ में (अर्थात जब सेल से होकर कोई धारा नहीं प्रवाहित हो रही है) धनात्मक तथा ॠणात्मक इलैक्ट्रोड के मध्य विभवांतर है।
तथापि, यदि $R$ परिमित है तो $I$ शून्य नहीं होगा। उस स्थिति में $\mathrm{P}$ तथा $\mathrm{N}$ के मध्य विभवांतर
$$ \begin{align*} V & =V _{+}+V _{-}-I r \\ & =\varepsilon-I r \tag{3.38} \end{align*} $$
$\mathrm{A}$ तथा $\mathrm{B}$ के मध्य विभवांतर के लिए व्यजंक ( $I r$ ) में ऋणात्मक चिह्न पर ध्यान दीजिए। यह इसलिए है कि विद्युत अपघट्य में धारा $I, \mathrm{~B}$ से $\mathrm{A}$ की ओर प्रवाहित होती है।
प्रायोगिक परिकलनों में, जब धारा $I$ ऐसी है कि $\varepsilon»I$, तब परिपथ में सेल के आंतरिक प्रतिरोध को नगण्य माना जा सकता है। सेल के आंतरिक प्रतिरोध के वास्तविक मान, विभिन्न सेलों के लिए भिन्न-भिन्न होते हैं। तथापि, शुष्क सेल के लिए आंतरिक प्रतिरोध, सामान्य विद्युत अपघटनी सेल से बहुत अधिक होता है।
हमने यह भी अवलोकन किया है कि जब $R$ से होकर विभवांतर $V$ है तो ओम के नियम से
$V=I R$
समीकरण (3.38) तथा (3.39) को संयोजित करने पर,
$I R=\varepsilon-I r$
अथवा $I=\frac{\varepsilon}{R+r}$
$R=0$ के लिए सेल से अधिकतम धारा प्राप्त की जा सकती है $I _{\text {अधिकतम }}=\varepsilon / r$ तथापि अधिकांश सेलों में अधिकतम अनुमत धारा इससे बहुत कम होती है जिससे सेल को स्थायी क्षति से बचाया जा सके।
3.11 श्रेणी तथा पार्श्वक्रम में सेल
प्रतिरोधकों की भाँति, विद्युत परिपथ में सेलों को भी संयोजित किया जा सकता है। प्रतिरोधकों की ही भाँति परिपथ में धारा तथा विभवांतर के परिकलन के लिए सेलों के संयोजन को एक तुल्य सेल से प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
चित्र 3.13 विद्युत वाहक बल $\varepsilon _{1}$ तथा $\varepsilon _{2}$ के दो सेल श्रेणीक्रम में संयोजित हैं। $r _{1}$ तथा $r _{2}$ उनके आंतरिक प्रतिरोध हैं। $\mathrm{A}$ तथा $\mathrm{C}$ के मध्य संबंधन के लिए संयोजन को विद्युत वाहक बल $\varepsilon _{\mathrm{eq}}$ तथा आंतरिक प्रतिरोध $r _{\mathrm{eq}}$ के एक सेल के जैसा समझा जा सकता है।
पहले, श्रेणीक्रम में दो सेलों पर विचार करें (चित्र 3.13), जहाँ प्रत्येक के एक टर्मिनल को मुक्त छोड़कर, दोनों सेलों के एक टर्मिनल एक दूसरे से संयोजित हैं। $\varepsilon _{1}, \varepsilon _{2}$ दोनों सेलों के विद्युत वाहक बल हैं, तथा $r _{1}, r _{2}$ क्रमशः उनके आंतरिक प्रतिरोध हैं।
चित्र 3.13 में दर्शाए अनुसार मानिए बिंदु $\mathrm{A}, \mathrm{B}$ तथा $\mathrm{C}$ पर, विभव क्रमशः $V(\mathrm{~A}), V(\mathrm{~B})$ तथा $V(\mathrm{C})$ हैं। तब $V(\mathrm{~A})-V(\mathrm{~B})$ पहले सेल के धनात्मक तथा ऋणात्मक टर्मिनल के मध्य विभवांतर है। समीकरण (3.38) में इसे हमने पहले ही परिकलित किया है, अतः
$$ \begin{equation*} V _{A B} \equiv V(\mathrm{~A})-V(\mathrm{~B})=\varepsilon _{1}-I r _{1} \tag{3.41} \end{equation*} $$
इसी प्रकार
$$ \begin{equation*} V _{B C} \equiv V(\mathrm{~B})-V(\mathrm{C})=\varepsilon _{2}-I r _{2} \tag{3.42} \end{equation*} $$
अतः संयोजन के टर्मिनल $\mathrm{A}$ तथा $\mathrm{C}$ के मध्य विभवांतर
$$ \begin{align*} V _{A C} & \equiv V(\mathrm{~A})-V(\mathrm{C})=[V(\mathrm{~A})-V(\mathrm{~B})]+[V(\mathrm{~B})-V(\mathrm{C})] \\ & =\left(\varepsilon _{1}+\varepsilon _{2}\right)-I\left(r _{1}+r _{2}\right) \tag{3.43} \end{align*} $$
यदि हम संयोजन को $\mathrm{A}$ तथा $\mathrm{C}$ के मध्य किसी एकल सेल से प्रतिस्थापित करना चाहें जिसका विद्युत वाहक बल $\varepsilon _{e q}$ तथा आंतरिक प्रतिरोध $r _{e q}$ हो, तब हमें प्राप्त होता है
$$ \begin{equation*} V _{A C}=\varepsilon _{e q}-I r _{e q} \tag{3.44} \end{equation*} $$
समीकरणों (3.43) तथा (3.44) को संयोजित करने पर
$$ \begin{equation*} \varepsilon _{e q}=\varepsilon _{1}+\varepsilon _{2} \tag{3.45} \end{equation*} $$
तथा
$$ \begin{equation*} r _{e q}=r _{1}+r _{2} \tag{3.46} \end{equation*} $$
$\equiv \stackrel{\mathrm{A}}{\leftarrow} \stackrel{\varepsilon _{\text {I }}}{\stackrel{\varepsilon _{\text {eq }}}{ }} \underset{r _{\text {eq }}}{\leftrightarrows} \leftrightarrows \mathrm{C}$
चित्र 3.14 दो सेलों का पार्श्व संयोजन $\mathrm{A}$ तथा $\mathrm{C}$ के बीच इस संयोजन को आंतरिक प्रतिरोध $r _{e q}$ तथा विद्युत वाहक बल $\varepsilon _{\text {eq }}$ (जिनके मान समीकरण (3.54 तथा (3.55) में दिए गए हैं) के किसी एकल सेल से प्रतिस्थापित कर सकते हैं।
चित्र 3.13 में हमने पहले सेल के ऋणात्मक इलैक्ट्रोड को दूसरे सेल के धनात्मक इलैक्ट्रोड से संबद्ध किया है। इसके स्थान पर यदि हम दोनों सेलों के ॠणात्मक टर्मिनलों को संबद्ध करें, तो समीकरण (3.42) से $V _{B C}=-\varepsilon _{2}-I r _{2}$
और हमें प्राप्त होता है:
$\varepsilon _{e q}=\varepsilon _{1}-\varepsilon _{2}\left(\varepsilon _{1}>\varepsilon _{2}\right)$
स्पष्टतः श्रेणी संयोजन के नियम को सेलों की किसी भी संख्या के लिए विस्तारित किया जा सकता है:
(i) $n$ सेलों के श्रेणी संयोजन का तुल्य विद्युत वाहक बल उनके व्यष्टिगत विद्युत वाहक बलों का योग मात्र है, तथा
(ii) $n$ सेल के श्रेणी संयोजन का तुल्य आंतरिक प्रतिरोध उनके आंतरिक प्रतिरोधों का योग मात्र है।
ऐसा तब है, जब धारा प्रत्येक सेल के धनात्मक इलैक्ट्रोड से निकलती है। यदि इस संयोजन में धारा किसी सेल के ॠणात्मक इलैक्ट्रोड से निकले तो $\varepsilon _{e q}$ के व्यंजक में, सेल का विद्युत वाहक बल ॠणात्मक चिह्न के साथ सम्मिलित होता है, जैसा कि समीकरण (3.47) में हुआ है।
अब हम सेलों के पार्श्व संयोजन पर विचार करते हैं। $I _{1}$ तथा $I _{2}$ सेल के धनात्मक इलैक्ट्रोड से निकलने वाली धाराएँ हैं। दो विद्युत धाराएँ $I _{1}$ तथा $I _{2}$ बिंदु $B _{1}$ पर प्रवेश करती हैं जबकि इस बिंदु से $I$ धारा बाहर निकलती है।
चूँकि उतने ही आवेश अन्दर प्रवाहित होते हैं जितने कि बाहर, हमें प्राप्त होता है
$I=I _{1}+I _{2}$
मान लीजिए बिंदुओं $\mathrm{B} _{1}$ तथा $\mathrm{B} _{2}$ पर विभव क्रमशः $V\left(\mathrm{~B} _{1}\right)$ तथा $V\left(\mathrm{~B} _{2}\right)$ हैं। तब पहले सेल पर विचार करने पर इसके टर्मिनलों के मध्य विभवांतर $V\left(\mathrm{~B} _{1}\right)-V\left(\mathrm{~B} _{2}\right)$ होगा। अतः समीकरण (3.38) से
$$ \begin{equation*} V \equiv V\left(\mathrm{~B} _{1}\right)-V\left(\mathrm{~B} _{2}\right)=\varepsilon _{1}-I _{1} r _{1} \tag{3.49} \end{equation*} $$
बिंदु $\mathrm{B} _{1}$ तथा $\mathrm{B} _{2}$ इसी प्रकार ठीक-ठीक दूसरे सेल से भी संबद्ध हैं। अतः यहाँ दूसरे सेल पर विचार करने से हमें प्राप्त होता है
$$ \begin{equation*} V \equiv V\left(\mathrm{~B} _{1}\right)-V\left(\mathrm{~B} _{2}\right)=\varepsilon _{2}-I _{2} r _{2} \tag{3.50} \end{equation*} $$
पिछले तीनों समीकरणों को संयोजित करने पर
$$ \begin{align*} I & =I _{1}+I _{2} \\ & =\frac{\varepsilon _{1}-V}{r _{1}}+\frac{\varepsilon _{2}-V}{r _{2}}=\left(\frac{\varepsilon _{1}}{r _{1}}+\frac{\varepsilon _{2}}{r _{2}}\right)-V\left(\frac{1}{r _{1}}+\frac{1}{r _{2}}\right) \tag{3.51} \end{align*} $$
इस प्रकार $V$ का मान है
$$ \begin{equation*} V=\frac{\varepsilon _{1} r _{2}+\varepsilon _{2} r _{1}}{r _{1}+r _{2}}-I \frac{r _{1} r _{2}}{r _{1}+r _{2}} \tag{3.52} \end{equation*} $$
यदि सेलों के इस संयोजन को हम बिंदु $\mathrm{B} _{1}$ और $\mathrm{B} _{2}$ के बीच किसी ऐसे एकल सेल से प्रतिस्थापित करें जिसका विद्युत वाहक बल $\varepsilon _{e q}$ तथा आंतरिक प्रतिरोध $r _{e q}$ हो तो हमें प्राप्त होता है
समीकरण (3.52) तथा (3.53) समान होने चाहिए, अतः
$\varepsilon _{e q}=\frac{\varepsilon _{1} r _{2}+\varepsilon _{2} r _{1}}{r _{1}+r _{2}}$
$r _{e q}=\frac{r _{1} r _{2}}{r _{1}+r _{2}}$
इन समीकरणों को हम और सरल रूप में तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं
$\frac{1}{r _{e q}}=\frac{1}{r _{1}}+\frac{1}{r _{2}}$
$\frac{\varepsilon _{e q}}{r _{e q}}=\frac{\varepsilon _{1}}{r _{1}}+\frac{\varepsilon _{2}}{r _{2}}$
चित्र (3.14) में हमने दोनों टर्मिनलों को एक साथ तथा इसी प्रकार दोनों ॠण टर्मिनलों को भी एक साथ संबद्ध किया है जिससे विद्युत धाराएँ $I _{1}$ तथा $I _{2}$ धन टर्मिनलों से बाहर निकलती हैं। यदि दूसरे का ऋणात्मक टर्मिनल पहले के धनात्मक टर्मिनल से संबद्ध कर दिया जाए, तब भी समीकरण (3.56) तथा (3.57) $\varepsilon _{2} \rightarrow-\varepsilon _{2}$ के साथ मान्य होंगे।
समीकरण (3.56) तथा (3.57) को आसानी से विस्तारित किया जा सकता है। यदि हमारे पास $n$ सेल हैं जिनके विद्युत वाहक बल $\varepsilon _{1}, \ldots \varepsilon _{n}$ तथा आंतरिक प्रतिरोध $r _{1}, \ldots r _{n}$ हैं और वे पार्श्व संबंधन में हैं तो यह संयोजन उस एकल सेल के तुल्य होगा जिसका विद्युत वाहक बल $\varepsilon _{e q}$ तथा आंतरिक
गुस्ताव रॉबर्ट किरखोफ (1824 - 1887) जर्मनी के भौतिकविज्ञानी हीडलबर्ग एवं बर्लिन में प्रोफ़ेसर रहे। मुख्यतः स्पेक्ट्रमिकी के विकास के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने गणितीय भौतिकी में भी काफी महत्वपूर्ण योगदान किया जिसमें परिपथों के लिए प्रथम एवं द्वितीय नियम शामिल हैं।
प्रतिरोध $r _{e q}$ है जिससे कि
$$ \begin{align*} & \frac{1}{r _{e q}}=\frac{1}{r _{1}}+\quad+\frac{1}{r _{n}} \tag{3.58} \\ & \frac{\varepsilon _{e q}}{r _{e q}}=\frac{\varepsilon _{1}}{r _{1}}++\frac{\varepsilon _{n}}{r _{n}} \tag{3.59} \end{align*} $$
3.12 किरोफ के नियम
विद्युत परिपथों में कभी-कभी कई प्रतिरोधक एवं सेल जटिल ढंग से संबद्ध होते हैं। श्रेणी एवं पार्श्व संयोजन के लिए जो सूत्र हमने पहले व्युत्पन्न किए हैं, वे परिपथ के सभी विद्युत धाराओं तथा विभवांतरों के लिए हमेशा पर्याप्त नहीं होते। दो नियम, जिन्हें किरखोफ के नियम कहते हैं, विद्युत परिपथों के विश्लेषण में बहुत उपयोगी होते हैं।
दिए गए परिपथ में हम प्रत्येक प्रतिरोधक में प्रवाहित धारा को किसी प्रतीक जैसे $I$ से नामांकित करते हुए और तीर के चिह्न द्वारा प्रतिरोध के अनुदिश धारा के प्रवाह को निर्दिष्ट करते हुए आगे बढ़ते हैं। यदि अंततः $I$ धनात्मक निर्धारित होता है तो प्रतिरोधक में विद्युत धारा की वास्तविक दिशा, तीर की दिशा में है। यदि यह ऋणात्मक निकलता है, तो वास्तव में विद्युत धारा तीर की दिशा के विपरीत प्रवाहित हो रही है। इसी प्रकार, प्रत्येक स्रोत (अर्थात सेल या विद्युत शक्ति का कोई दूसरा स्रोत) के लिए धनात्मक तथा ऋणात्मक इलैक्ट्रोड को, सेल में प्रवाह हो रही धारा के संकेत के अलावा एक निर्देशित तीर से चिह्नित करते हैं। यह हमें धनात्मक टर्मिनल P तथा ऋणात्मक टर्मिनल
चित्र 3.15 संधि $a$ पर निकलने वाली विद्युत धारा $I _{1}+I _{2}$ तथा प्रवेश करने वाली विद्युत धारा $I _{3}$ है। संधि के नियमानुसार $I _{3}=I _{1}+I _{2}$. बिंदु $h$ पर प्रवेश करने वाली धारा $I _{1}$ है। $h$ से निकलने वाली भी एक ही धारा है और संधि नियम से, ये भी $I _{1}$ होगा। दो पाशों ‘ahdcba’ तथा ‘ahdefga’ के लिए पाश नियम प्रदत्त करते हैं - $30 I _{1}$ $-41 I _{3}+45=0$ तथा $-30 I _{1}+21 I _{2}-80=0$ $\mathrm{N}$ के बीच विभवांतर बताएगा, $V=V(\mathrm{P})-V(\mathrm{~N})=\varepsilon-I r$ [समीकरण (3.38), $I$ यहाँ सेल के अंदर $\mathrm{N}$ से होकर $\mathrm{P}$ की ओर प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा है]। यदि सेल से होकर बहने वाली धारा को चिह्नित करते हुए हम $\mathrm{P}$ से $\mathrm{N}$ की ओर बढ़ते हैं तो स्पष्टतः
$$ \begin{equation*} V=\varepsilon+I r \tag{3.60} \end{equation*} $$
चिह्नों को बनाने कि प्रक्रिया को स्पष्ट करने के बाद अब हम नियमों तथा उपपत्तियों को अभिव्यक्त करेंगे :
चिह्नों को बनाने कि प्रक्रिया को स्पष्ट करने के बाद अब हम नियमों तथा उपपत्तियों को अभिव्यक्त करेंगे :
(a) संधि नियम-किसी संधि पर संधि से प्रवेश करने वाली विद्युत धाराओं का योग इस संधि से निकलने वाली विद्युत धाराओं के योग के बराबर होता है (चित्र 3.15)।
इस नियम का प्रमाण इस तथ्य से समझते हैं कि जब विद्युत धारा स्थायी होती है, किसी संधि या चालक के किसी बिंदु पर आवेश संचित नहीं होता है। अतः प्रवेश करने वाली कुल विद्युत धाराएँ (जो कि संधि में आवेश के प्रवाह की दर है) बाहर निकलने वाली कुल विद्युत धाराओं के बराबर होती हैं।
(b) पाश (लूप) नियम-प्रतिरोधकों तथा सेलों से सम्मिलित किसी बंद पाश के चारों ओर विभव में परिवर्तनों का बीजगणितीय योग शून्य होता है (चित्र 3.15)।
यह नियम भी सुस्पष्ट है, क्योंकि विद्युत विभव बिंदु की अवस्थिति पर निर्भर करता है। अतः किसी बिंदु से प्रस्थान कर यदि हम वापस उसी बिंदु पर आते हैं, तो कुल परिवर्तन शून्य होने चाहिए। एक बंद पाश में हम प्रस्थान बिंदु पर वापस आ जाते हैं, यह नियम इसीलिए है।
इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि परिपथ नेटवर्क की सममिति के कारण उदाहरण 3.5 में किरखोफ के नियमों की विशाल शक्ति का उपयोग नहीं किया गया है। एक सामान्य परिपथ नेटवर्क में सममिति के कारण इस प्रकार का सरलीकरण नहीं होता। इसलिए संधियों एवं बंद पाशों में (इनकी संख्या उतनी होनी चाहिए जितनी कि नेटवर्क में अज्ञात राशियाँ हैं) किरखोफ के नियमों के उपयोग द्वारा समस्या को हल कर सकते हैं। यह उदाहरण 3.6 में स्पष्ट किया गया है।
3.13 न्हीटस्टोन सेतु
किरोफ के एक अनुप्रयोग के रूप में चित्र 3.18 में दिखाए परिपथ पर विचार कीजिए, जो कि व्हीटस्टोन सेतु कहलाता है। सेतु में चार प्रतिरोधक $R _{1}, R _{2}, R _{3}$ तथा $R _{4}$ होते हैं। विकर्णतः विपरीत बिंदुओं (चित्र में $\mathrm{A}$ तथा $\mathrm{C}$ ) के एक युग्म से कोई विद्युत स्रोत संबद्ध है। यह (अर्थात $A C$ ) बैटरी भुजा कहलाती है। दूसरे दो शीर्ष बिंदुओं, $B$ तथा $D$ के मध्य एक गैल्वेनोमीटर (जो विद्युत धारा के संसूचन की एक युक्ति है) संबद्ध है। यह लाइन, जिसे चित्र में $\mathrm{BD}$ से दिखाया गया है, गैल्वेनोमीटर भुजा कहलाती है।
सरलता के लिए हम कल्पना करते हैं कि सेल में कोई आंतरिक प्रतिरोध नहीं है। सामान्यतः $G$ से होकर विद्युत धारा $I _{g}$ तथा सभी प्रतिरोधकों से होकर भी धारा प्रवाहित होगी। उस संतुलित सेतु का उदाहरण एक विशेष महत्व रखता है जिसमें प्रतिरोधक ऐसे हों कि $I _{\mathrm{g}}=0$ । हम आसानी से ऐसी संतुलन अवस्था प्राप्त कर सकते हैं जिससे $\mathrm{G}$ से होकर कोई धारा प्रवाहित नहीं होती। ऐसे प्रकरण में, संधि $\mathrm{D}$ तथा $\mathrm{B}$ के लिए (चित्र देखिए) किरोफ के संधि नियम को अनुप्रयुक्त करने पर हमें संबंध $I _{1}=I _{3}$ तथा $I _{2}=I _{4}$ तुरंत
प्राप्त हो जाते हैं। उसके बाद, हम बंद पाशों $\mathrm{ADBA}$ तथा $\mathrm{CBDC}$ पर किरोफ के पाश नियम को अनुप्रयुक्त करते हैं। पहले पाश से प्राप्त होता है
$$ \begin{equation*} -I _{1} R _{1}+0+I _{2} R _{2}=0 \quad\left(I _{g}=0\right) \tag{3.62} \end{equation*} $$
तथा $I _{3}=I _{1}, I _{4}=I _{2}$ को उपयोग करने पर द्वितीय पाश से प्राप्त होता है
$$ \begin{equation*} I _{2} R _{4}+0-I _{1} R _{3}=0 \tag{3.63} \end{equation*} $$
समीकरण (3.62) से हम प्राप्त करते हैं
$$ \frac{I _{1}}{I _{2}}=\frac{R _{2}}{R _{1}} $$
जबकि समीकरण (3.63) से हम प्राप्त करते हैं
$$ \frac{I _{1}}{I _{2}}=\frac{R _{4}}{R _{3}} $$
अतः हम प्रतिबंध प्राप्त करते हैं।
$$ \begin{equation*} \frac{\mathrm{R} _{2}}{\mathrm{R} _{1}}=\frac{\mathrm{R} _{4}}{\mathrm{R} _{3}} \tag{a} \end{equation*} $$
चार प्रतिरोधकों में संबंध दिखलाने वाले समीकरण [3.64(a)] को गैल्वेनोमीटर में शून्य अथवा नगण्य विक्षेप के लिए संतुलन प्रतिबंध कहते हैं।
व्हीटस्टोन सेतु तथा इसका संतुलन प्रतिबंध अज्ञात प्रतिरोध के निर्धरण के लिए एक प्रायोगिक विधि देता है। कल्पना कीजिए कि हमारे पास कोई अज्ञात प्रतिरोध है जिसे हम चौथी भुजा में लगाते हैं; इस प्रकार $R _{4}$ ज्ञात नहीं है। ज्ञात प्रतिरोधकों $R _{1}$ तथा $R _{2}$ को सेतु की पहली तथा दूसरी भुजा में रखते हुए, हम $R _{3}$ को तब तक परिवर्तित करते जाते हैं जब तक गैल्वेनोमीटर नगण्य विक्षेप नहीं दिखलाता है। सेतु तब संतुलित है तथा संतुलन प्रतिबंध से अज्ञात प्रतिरोध $R _{4}$ का मान प्राप्त होता है,
$$ \begin{equation*} R _{4}=R _{3} \cdot \frac{R _{2}}{R _{1}} \tag{b} \end{equation*} $$
इस सिद्धांत को उपयोग करने वाली प्रायोगिक युक्ति मीटर सेतु कहलाती है।
सारांश
1. किसी चालक के दिए गए क्षेत्रफल से प्रवाहित धारा उस क्षेत्रफल से प्रति एकांक समय में गुज़रने वाला नेट आवेश होता है।
2. एक स्थायी धारा बनाए रखने के लिए हमें एक बंद परिपथ चाहिए जिसमें एक बाह्य स्रोत विद्युत आवेश को निम्न से उच्च स्थितिज ऊर्जा की ओर प्रवाहित कराता है। आवेश को निम्न से उच्च स्थितिज ऊर्जा (अर्थात स्रोत के एक टर्मिनल से दूसरे तक) की ओर ले जाने में स्रोत द्वारा प्रति एकांक आवेश पर किया गया कार्य स्रोत का विद्युत वाहक बल (electromotive force) या emf कहलाता है। ध्यान दीजिए कि emf एक बल नहीं है, बल्कि यह खुले परिपथ में स्रोत के दोनों टर्मिनलों के बीच वोल्टता का अंतर है।
3. ओम का नियम- किसी चालक में प्रवाहित धारा $I$ उसके सिरों के बीच विभवांतर $V$ के अनुक्रमानुपातिक है अर्थात $V \propto I$ अथवा $V=R I$, जहाँ $R$ को चालक का प्रतिरोध कहते हैं। प्रतिरोध का मात्रक ओम है- $1 \Omega=1 \mathrm{~V} \mathrm{~A}^{-1}$
4. चालक के प्रतिरोध $R$, संबंध
$$ R=\frac{\rho l}{A} $$
के द्वारा चालक की लंबाई और अनुप्रस्थ काट पर निर्भर है, जहाँ $\rho$, जिसे प्रतिरोधकता कहते हैं, पदार्थ का गुण है जो ताप और दाब पर निर्भर करता है।
5. पदार्थों की विद्युत प्रतिरोधकता विस्तृत परिसर में परिवर्तित होती है। धातुओं की प्रतिरोधकता कम ( $10^{-8} \Omega \mathrm{m}$ से $10^{-6} \Omega \mathrm{m}$ परिसर में) होती है। विद्युतरोधी जैसे काँच या रबर की प्रतिरोधकता $10^{22}$ से $10^{24}$ गुना होती है, लघुगणकीय पैमाने पर, अर्द्धचालकों जैसे $\mathrm{Si}$ और $\mathrm{Ge}$ की प्रतिरोधकता उसके मध्य परिसर में होती है।
6. अधिकतर पदार्थों में धारा के वाहक इलेक्ट्रॉन होते हैं, कुछ स्थितियों उदाहरणार्थ, आयनी क्रिस्टलों और विद्युत अपघट्य, में धारा वहन धनायनों तथा ऋणायनों द्वारा होता है।
7. धारा घनत्व $\mathbf{j}$ प्रति सेकंड प्रति एकांक प्रवाह के अभिलंब, क्षेत्रफल से प्रवाहित आवेश की मात्रा देता है
$$ \mathbf{j}=n q \mathbf{v} _{d} $$
जहाँ $n$ आवेश वाहकों, जिनमें प्रत्येक का आवेश $q$ है, की संख्या घनत्व (प्रति एकांक आयतन में संख्या) तथा आवेश वाहकों का अपवाह वेग $\mathbf{v} _{d}$ है। इलेक्ट्रॉन के लिए $q=-e$ है। यदि $\mathbf{j}$ एक अनुप्रस्थ काट $\mathbf{A}$ के अभिलंब है और क्षेत्रफल पर एकसमान है तो क्षेत्रफल में धारा का परिमाण $I\left(=n e v _{d} A\right)$ है।
8. $E=V / l, I=n e v _{d} A$ और ओम के नियम का उपयोग करते हुए निम्न व्यंजक प्राप्त होता है
$$ \frac{e E}{m}=\rho \frac{n e^{2}}{m} v _{d} $$
यदि हम मान लें कि इलेक्ट्रॉन धातु के आयनों से संघट्ट करते (टकराते) हैं जो उन्हें यादृच्छिकतः विक्षेपित कर देते हैं तो बाह्य बल $E$ के कारण धातु में इलेक्ट्रॉनों पर लगने वाले बल $e E$ और अपवाह वेग $v _{d}$ (त्वरण नहीं) में आनुपातिकता को समझा जा सकता है। यदि ऐसे संघट्ट औसत काल अंतराल $\tau$ में होते हैं तो
$$ v _{d}=a \tau=e E \tau / m $$
जहाँ $a$ इलेक्ट्रॉन का त्वरण है। अत:
$$ \rho=\frac{m}{n e^{2} \tau} $$
9. उस ताप परिसर में जिसमें प्रतिरोधकता ताप के साथ रैखिक रूप से बढ़ती है, प्रतिरोधकता के ताप गुणांक $\alpha$ को प्रति एकांक ताप वृद्धि से प्रतिरोधकता में भिन्नात्मक वृद्धि के रूप में परिभाषित किया जाता है।
10. ओम के नियम का पालन बहुत से पदार्थ करते हैं परंतु यह प्रकृति का मूलभूत नियम नहीं है। यह असफल है यदि
(a) $V$ अरैखिक रूप से $I$ पर निर्भर है।
(b) $V$ के उसी परम मान के लिए $V$ और $I$ में संबंध $V$ के चिह्न पर निर्भर है।
(c) $V$ और $I$ में संबंध अद्वितीय नहीं है।
(a) का एक उदाहरण यह है कि जब $\rho, I$ के साथ बढ़ता है (यद्यपि ताप को स्थिर रखते हैं)। एक दिष्टकारी (rectifier) (a) तथा (b) लक्षणों को संयोजित करता है। $\mathrm{Ga} \mathrm{As}$ (c) लक्षण को दर्शाता है।
11. जब $\varepsilon$ विद्युत वाहक बल के एक स्रोत को बाह्य प्रतिरोध $R$ से संयोजित किया जाता है तो $R$ पर वोल्टता $V _{\text {बाह्य }}$ निम्न द्वारा दी जाती है
$$ V _{\text {बाह्य }}=I R=\frac{\varepsilon}{R+r} R $$
12. किरखोफ के नियम-
(a) प्रथम नियम (संधि नियम) - परिपथ के अवयवों की किसी संधि पर आगत धाराओं का योग निर्गत धाराओं के योग के तुल्य होना चाहिए।
(b) द्वितीय नियम [पाश नियम]- किसी बंद पाश (लूप) के चारों ओर विभव में परिवर्तन का बीजगणितीय योग शून्य होना चाहिए।
13. व्हीटस्टोन सेतु जैसा कि पाठ्यपुस्तक में दिखाया गया है, चार प्रतिरोधों $-R _{1}, R _{2}, R _{3}$, $R _{4}$ का विन्यास है तथा शून्य विक्षेप अवस्था में
$$ \frac{R _{1}}{R _{2}}=\frac{R _{3}}{R _{4}} $$
द्वारा यदि तीन प्रतिरोध ज्ञात हों तो चौथे प्रतिरोध के अज्ञात मान को निर्धारित किया जा सकता है।
भौतिक राशि | प्रतीक | विमा | मात्रक | टिप्पणी |
---|---|---|---|---|
विद्युत धारा | $I$ | $[\mathrm{~A}]$ | A | SI आधारी मात्रक |
आवेश | $Q, q$ | $[\mathrm{TA}$ A] | $\mathrm{C}$ | |
वोल्टता, विद्युत विभवांतर |
V | $\left[\mathrm{M} \mathrm{L}^{2} \mathrm{~T}^{-3} \mathrm{~A}^{-1}\right]$ | V | |
विद्युत वाहक बल | $\varepsilon$ | $\left[\mathrm{M} \mathrm{L}^{2} \mathrm{~T}^{-}\right.$ | V | कार्य/आवेश |
प्रतिरोध | $R$ | $\left[\mathrm{M} \mathrm{L}^{2} \mathrm{~T}^{-3} \mathrm{~A}\right.$ | $\Omega$ | $R=V / I$ |
प्रतिरोधकता | $\rho$ | $\left[\mathrm{M} \mathrm{L}^{3} \mathrm{~T}^{-3} \mathrm{~A}^{-2}\right]$ | $\Omega \mathrm{m}$ | $R=\rho l / A$ |
वैद्युत चालकता | $\sigma$ | $\left[\mathrm{M}^{-1} \mathrm{~L}^{-3} \mathrm{~T}^{3}\right.$ | $\mathrm{C}$ | $\sigma=1 / \rho$ |
विद्युत क्षेत्र | $\mathbf{E}$ | $\mathrm{V} \mathrm{m}^{-1}$ | विद्युत बल | |
अपवाह चाल | $\left[\mathrm{L} \mathrm{T}^{-1}\right]$ | $\mathrm{m} \mathrm{s}^{-1}$ | $v _{d}=\frac{e E \tau}{m}$ | |
विश्रांति काल | $\tau$ | $[\mathrm{T}]$ | $\mathrm{s}$ | |
धारा घनत्व | $\mathbf{j}$ | $\left[L^{-2} \mathrm{~A}\right]$ | $\mathrm{A} \mathrm{m}^{-2}$ | धारा/क्षेत्रफल |
गतिशीलता | $\mu$ | $\left[\mathrm{M} \mathrm{L}^{3} \mathrm{~T}^{-4} \mathrm{~A}^{-1}\right]$ | $\mathrm{m}^{2} \mathrm{~V}^{-1} \mathrm{~s}^{-1}$ | $v _{d} / E$ |
विचारणीय विषय
1. यद्यपि हम धारा की दिशा को परिपथ में एक तीर से दर्शाते हैं परंतु यह एक अदिश राशि है। धाराएँ सदिश योग के नियम का पालन नहीं करतीं। धारा एक अदिश है, इसे इसकी परिभाषा से भी समझ सकते हैं : किसी अनुप्रस्थ काट से प्रवाहित विद्युत धारा $I$ दो सदिशों के अदिश गुणनफल द्वारा व्यक्त की जाती है
जहाँ $\mathbf{j}$ तथा $\Delta \mathbf{S}$ सदिश हैं।
$I=\mathbf{j} \cdot \Delta \mathbf{S}$
2. पाठ्य में प्रदर्शित किसी प्रतिरोधक और किसी डायोड के $V-I$ वक्र पर ध्यान दीजिए। प्रतिरोधक ओम के नियम का पालन करता है जबकि डायोड नहीं करता है। यह दृढ़कथन कि $V=I R$ ओम के नियम का प्रकथन है, सत्य नहीं है। यह समीकरण प्रतिरोध को परिभाषित करता है और इसे सभी चालक युक्तियों में प्रयुक्त कर सकते हैं चाहे वह ओम
के नियम का पालन करती हैं या नहीं। ओम का नियम दावा करता है कि $V$ तथा $I$ के बीच ग्राफ रैखिक है अर्थात $R, V$ पर निर्भर नहीं करता है। ओम के नियम का समीकरण
$$ \mathbf{E}=\rho \mathbf{j} $$
ओम के नियम के दूसरे प्रकथन की ओर ले जाता है, अर्थात कोई चालक पदार्थ तभी ओम के नियम का पालन करता है जब उस पदार्थ की प्रतिरोधकता लगाए गए विद्युत क्षेत्र के परिमाण और दिशा पर निर्भर नहीं करती।
3. समांगी चालक जैसे सिल्वर या अर्द्धचालक जैसे शुद्ध जर्मेनियम या अशुद्धियुक्त जर्मेनियम विद्युत क्षेत्र के मान के कुछ परिसर में ओम के नियम का पालन करते हैं। यदि क्षेत्र अति प्रबल है तो इन सभी उदाहरणों में ओम के नियम का पालन नहीं होगा।
4. विद्युत क्षेत्र $\mathbf{E}$ में इलेक्ट्रॉन की गति (i) यादृच्छिक संघट्टों के कारण (ii) $\mathbf{E}$ के कारण उत्पन्न गतियों के योग के बराबर है। यादृच्छिक संघट्टों के कारण गति का औसत शून्य हो जाता है और $v _{d}$ (अपवाह चाल) में योगदान नहीं करता (देखिए अध्याय 10 , कक्षा XI की पाठ्यपुस्तक)। इस प्रकार इलेक्ट्रॉन की अपवाह चाल $v _{d}$ केवल इलेक्ट्रॉन पर लगाए गए विद्युत क्षेत्र के कारण ही है।
5. संबंध $\mathbf{j}=\rho \mathbf{v}$ प्रत्येक प्रकार के आवेश वाहक पर अलग-अलग प्रयुक्त होना चाहिए। किसी चालक तार में कुल धारा तथा धारा घनत्व धन और ऋण दोनों प्रकार के आवेशों से उत्पन्न होती है।
$$ \begin{aligned} & \mathbf{j}=\rho _{+} \mathbf{v} _{+}+\rho _{-} \mathbf{v} _{-} \\ & \rho=\rho _{+}+\rho _{-} \end{aligned} $$
एक उदासीन तार जिसमें धारा प्रवाहित हो रही है, में
$$ \rho _{+}=-\rho _{-} $$
इसके अतिरिक्त, $\mathbf{v} _{+} \sim 0$ है जिसके कारण हमें प्राप्त होता है
$$ \begin{aligned} & \rho=0 \\ & \mathbf{j}=\rho _{-} \mathbf{v} \end{aligned} $$
इस प्रकार संबंध $\mathbf{j}=\rho \mathbf{v}$ कुल धारा आवेश घनत्व पर लागू नहीं होता।
6. किरखोफ का संधि नियम आवेश संरक्षण नियम पर आधारित है : किसी संधि पर निर्गत धाराओं का योग संधि पर आगत धाराओं के योग के तुल्य होता है। तारों को मोड़ने या पुन: अभिविन्यसित करने के कारण किरखोफ के संधि नियम की वैधता नहीं बदलती।