अध्याय 13 नाभिक

13.1 भूमिका

पिछले अध्याय में हमने पढ़ा है कि प्रत्येक परमाणु का धनावेश घनीभूत होकर इसके केंद्र में संकेंद्रित हो जाता है और परमाणु का नाभिक बनाता है। नाभिक का कुल साइज़ परमाणु के साइज़ की तुलना में काफ़ी कम होता है। $\alpha$-कणों के प्रकीर्णन संबंधी प्रयोगों ने यह प्रदर्शित किया है कि नाभिक की त्रिज्या, परमाणु की त्रिज्या की तुलना में $10^{4}$ गुने से भी कम होनी चाहिए। इसका अर्थ है कि नाभिक का आयतन परमाणु के आयतन के $10^{-12}$ गुने के लगभग है। दूसरे शब्दों में कहें तो परमाणु में अधिकांशतः रिक्त स्थान ही है। यदि हम परमाणु का साइज़ बढ़ाकर कक्षा के कमरे के बराबर कर दें तो नाभिक इसमें एक पिन के शीर्ष के साइज़ का दिखाई देगा। तथापि, परमाणु का लगभग संपूर्ण द्रव्यमान ( $99.9 %$ से अधिक) नाभिक में ही समाहित होता है।

परमाणु की संरचना के समरूप क्या नाभिक की भी कोई संरचना है? यदि ऐसा है तो इसके अवयव क्या-क्या हैं? वे परस्पर किस प्रकार जुड़े हैं? इस अध्याय में हम इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे। हम नाभिकों के विशिष्ट गुणों, जैसे-उनके साइज़, द्रव्यमान तथा स्थायित्व की चर्चा के साथ इनसे संबद्ध रेडियोऐक्टिवता, विखंडन एवं संलयन जैसी नाभिकीय परिघटनाओं की भी विवेचन करेंगे।

13.2 परमाणु द्रव्यमान एवं नाभिक की संरचना

परमाणु का द्रव्यमान किलोग्राम की तुलना में बहुत कम होता है। उदाहरण के लिए, कार्बन के परमाणु ${ }^{12} \mathrm{C}$ का द्रव्यमान $1.992647 \times 10^{-26} \mathrm{~kg}$ है। इतनी छोटी राशियों को मापने के लिए

किलोग्राम बहुत सुविधाजनक मात्रक नहीं है। अतः परमाणु द्रव्यमानों को व्यक्त करने के लिए द्रव्यमान का एक अन्य मात्रक प्रस्तुत किया गया। इस मात्रक को परमाणु द्रव्यमान मात्रक $(\mathrm{u})$ कहते हैं। इसको ${ }^{12} \mathrm{C}$ परमाणु के द्रव्यमान के बारहवें $1 / 12^{\text {th }}$ भाग से व्यक्त करते हैं।

अतः इस परिभाषा के अनुसार

$$ \begin{align*} 1 \mathrm{u} & =\frac{{ }^{12} \mathrm{C} \text { परमाणु का द्रव्यमान }}{12} \\ & =\frac{1.992647 \times 10^{-26} \mathrm{~kg}}{12} \\ & =1.660539 \times 10^{-27} \mathrm{~kg} \tag{13.1} \end{align*} $$

परमाणु द्रव्यमान मात्रक $(\mathrm{u})$ में व्यक्त करने पर विभिन्न तत्वों के परमाणु द्रव्यमान, हाइड्रोजन परमाणु के द्रव्यमान के पूर्ण गुणज के निकट पाए जाते हैं। परंतु इस नियम के अनेक प्रभावशाली अपवाद भी हैं। उदाहरण के लिए, क्लोरीन का परमाणु द्रव्यमान $35.46 \mathrm{u}$ है।

परमाणु द्रव्यमानों का यथार्थ मापन, द्रव्यमान वर्णक्रममापी (स्पेक्ट्रोमीटर) द्वारा किया जाता है। परमाणु द्रव्यमानों के मापन से पता चलता है कि एक ही तत्व के विभिन्न प्रकार के ऐसे परमाणुओं का अस्तित्व है जिनके रासायनिक गुण तो समान होते हैं पर इनके द्रव्यमानों में अंतर होता है। एक ही तत्व की ऐसी परमाणु प्रजातियाँ जिनके द्रव्यमानों में अंतर होता है, समस्थानिक कहलाती हैं (यूनानी शब्द आइसोटॉप का अर्थ हिंदी में समस्थानिक है, यह नाम इन्हें इसलिए दिया गया है क्योंकि तत्वों की आवर्त सारणी में ये सभी एक ही स्थान पर पाए जाते हैं)। शोध से पता चला कि प्रत्येक तत्व व्यावहारिक रूप से कई समस्थानिकों का मिश्रण है। विभिन्न समस्थानिकों की सापेक्ष बहुलता तत्व बदलने के साथ बदलती है।

उदाहरण के लिए, क्लोरीन के दो समस्थानिक हैं जिनके द्रव्यमान क्रमशः $34.98 \mathrm{u}$ एवं $36.98 \mathrm{u}$ हैं, जो कि हाइड्रोजन परमाणु द्रव्यमान के पूर्ण गुणज के सन्निकट हैं। इन समस्थानिकों की सापेक्ष बहुलता क्रमशः 75.4 एवं $24.6 %$ है। इस प्रकार, प्राकृतिक क्लोरीन परमाणु का द्रव्यमान इन समस्थानिकों का भारित-औसत है। अतः, प्राकृतिक क्लोरीन परमाणु का द्रव्यमान,

$$ \begin{aligned} & =\frac{75.4 \times 34.98+24.6 \times 36.98}{100} \\ & =35.47 \mathrm{u} \end{aligned} $$

वही मान है जो क्लोरीन का परमाणु द्रव्यमान है।

यहाँ तक कि सबसे हलके तत्व हाइड्रोजन के भी तीन समस्थानिक हैं जिनके द्रव्यमान $1.0078 \mathrm{u}, 2.0141 \mathrm{u}$ एवं $3.0160 \mathrm{u}$ हैं। सबसे हलके हाइड्रोजन परमाणु जिसकी सापेक्ष बहुलता $99.985 %$ है, का नाभिक, प्रोटॉन कहलाता है। एक प्रोटॉन का द्रव्यमान है,

$$ \begin{equation*} m _{p}=1.00727 \mathrm{u}=1.67262 \times 10^{-27} \mathrm{~kg} \tag{13.2} \end{equation*} $$

यह हाइड्रोजन परमाणु के द्रव्यमान $1.00783 \mathrm{u}$ में से, इसमें विद्यमान एक इलेक्ट्रॉन के द्रव्यमान $m _{e}=0.00055 \mathrm{u}$ को घटाने से प्राप्त द्रव्यमान के बराबर है। हाइड्रोजन के दूसरे दो समस्थानिक ड्यूटीरियम एवं ट्राइटियम कहलाते हैं। ट्राइटियम नाभिक अस्थायी होने के कारण प्रकृति में नहीं पाए जाते और कृत्रिम विधियों द्वारा प्रयोगशालाओं में निर्मित किए जाते हैं।

नाभिक में धन आवेश प्रोटॉनों का ही होता है। प्रोटॉन पर एकांक मूल आवेश होता है और यह स्थायी कण है। पहले यह विचार था कि नाभिक में इलेक्ट्रॉन होते हैं पर क्वांटम सिद्धांत पर आधारित तर्कों के कारण इस मान्यता को नकार दिया गया। किसी परमाणु के सभी इलेक्ट्रॉन उसके नाभिक के बाहर होते हैं। हम जानते हैं कि किसी परमाणु के नाभिक के बाहर इन इलेक्ट्रॉनों की संख्या

उसके परमाणु क्रमांक $Z$, के बराबर होती है। अतः परमाणु में इलेक्ट्रॉनों का कुल आवेश $(-Z e)$ उसके नाभिक के कुल आवेश $(+Z e)$ के बराबर होता है, क्योंकि परमाणु विद्युतीय रूप से उदासीन होता है। इसलिए किसी परमाणु के नाभिक में प्रोटॉनों की संख्या, तथ्यतः इसका परमाणु क्रमांक, $Z$ होती है।

न्यूट्रॉन की खोज

क्योंकि ड्यूटीरियम एवं ट्राइटियम हाइड्रोजन के ही समस्थानिक हैं, इनमें से प्रत्येक के नाभिक में एक प्रोटॉन होना चाहिए। लेकिन हाइड्रोजन, ड्यूटीरियम एवं ट्राइटियम के नाभिकों के द्रव्यमानों में अनुपात $1: 2: 3$ है। इसलिए ड्यूटीरियम एवं ट्राइटियम के नाभिकों में प्रोटॉन के अतिरिक्त कुछ उदासीन द्रव्य भी होना चाहिए। इन समस्थानिकों के नाभिकों में विद्यमान उदासीन अनाविष्ट द्रव्य की मात्रा को प्रोटॉन-द्रव्यमान के मात्रकों में व्यक्त करें तो क्रमशः एक एवं दो मात्रकों के लगभग होता है। यह तथ्य इंगित करता है कि परमाणुओं के नाभिकों में प्रोटॉनों के अतिरिक्त विद्यमान रहने वाला यह उदासीन द्रव्य भी एक मूल मात्रक के गुणजों के रूप में ही होता है। इस परिकल्पना की पुष्टि, 1932 में, जेम्स चैडविक द्वारा की गई जिन्होंने देखा कि जब बेरिलियम नाभिकों पर ऐल्फ़ा कणों (ऐल्फ़ा कण, हीलियम नाभिक होते हैं जिनके विषय में हम अगले अनुभाग में चर्चा करेंगे) की बौछार की जाती है, तो इनसे कुछ उदासीन विकिरण उत्सर्जित होते हैं। यह भी पाया गया कि ये उदासीन विकिरण, हीलियम, कार्बन एवं नाइट्रोजन जैसे हलके नाभिकों से टकराकर उनसे प्रोटॉन बाहर निकालते हैं। उस समय तक ज्ञात एक मात्र उदासीन विकिरण फोटॉन (विद्युत चुंबकीय विकिरण) ही थे। ऊर्जा एवं संवेग संरक्षण के नियमों का प्रयोग करने पर पता चला कि यदि ये उदासीन विकिरण फोटॉनों के बने होते तो इनकी ऊर्जा उन विकिरणों की तुलना में बहुत अधिक होती जो बेरिलियम नाभिकों पर ऐल्फ़ा कणों की बौछार से प्राप्त होते हैं। इस समस्या के समाधान का सूत्र, जिसे चैडविक ने संतोषजनक ढंग से हल किया, इस कल्पना में समाहित था कि उदासीन विकिरणों में एक नए प्रकार के उदासीन कण होते हैं जिन्हें न्यूट्रॉन कहते हैं। ऊर्जा एवं संवेग संरक्षण नियमों का उपयोग कर, उन्होंने इस नए कण का द्रव्यमान ज्ञात करने में सफलता प्राप्त की, जिसे प्रोटॉन के द्रव्यमान के लगभग बराबर पाया गया।

अब हम न्यूट्रॉन का द्रव्यमान अत्यधिक यथार्थता से जानते हैं। यह है,

$$ \begin{equation*} m _{\mathrm{n}}=1.00866 \mathrm{u}=1.6749 \times 10^{-27} \mathrm{~kg} \tag{13.3} \end{equation*} $$

न्यूट्रॉन की खोज के लिए चैडविक को 1935 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। एक मुक्त प्रोटॉन के विपरीत एक मुक्त न्यूट्रॉन अस्थायी होता है। यह एक प्रोट्रॉन, एक इलेक्ट्रॉन एवं एक प्रतिन्यूट्रिनो (अन्य मूल कण) के रूप में क्षयित हो जाता है। इसकी औसत आयु लगभग $1000 \mathrm{~s}$ होती है। तथापि, नाभिक के भीतर यह स्थायी होता है।

अब, नाभिक की संरचना निम्नलिखित पदों एवं संकेत चिह्नों का उपयोग करके समझायी जा सकती है।

$Z$ - परमाणु क्रमांक $=$ प्रोटॉनों की संख्या

$N$ - न्यूट्रान संख्या $=$ न्यूट्रॉनों की संख्या

[13.4(b)]

$A$ - द्रव्यमान संख्या $=Z+N$

$$ \begin{equation*} \text { = न्यूट्रॉनों एवं प्रोटॉनों की कुल संख्या } \tag{c} \end{equation*} $$

प्रोटॉन एवं न्यूट्रॉन के लिए न्यूक्लियॉन शब्द का भी उपयोग किया जा सकता है। अत: किसी परमाणु में न्यूक्लियॉन संख्या उसकी द्रव्यमान संख्या $\mathrm{A}$ होती है।

किसी नाभिकीय प्रजाति या नाभिक को संकेत चिह्न ${ } _{Z}^{A} \mathrm{X}$ द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। जहाँ $\mathrm{X}$ उस प्रजाति का रासायनिक चिह्न है। उदाहरण के लिए, स्वर्ण-नाभिक को संकेत ${ } _{79}^{197} \mathrm{Au}$ द्वारा व्यक्त करते हैं। इसमें 197 न्यूक्लियॉन होते हैं जिनमें 79 प्रोटॉन एवं 118 न्यूट्रॉन होते हैं।

अब किसी तत्व के समस्थानिकों की संरचना को सरलता से समझाया जा सकता है। किसी दिए गए तत्व के समस्थानिकों के नाभिकों में प्रोटॉनों की संख्या तो समान होती है, परंतु वे एक-दूसरे से न्यूट्रॉनों की संख्या की दृष्टि से भिन्न होते हैं। ड्यूटीरियम ${ } _{1}^{2} \mathrm{H}$ जो हाइड्रोजन का एक समस्थानिक है, इसमें एक प्रोटॉन एवं एक न्यूट्रॉन होता है। इसके दूसरे समस्थानिक ट्राइटियम ${ } _{1}^{3} \mathrm{H}$ में एक प्रोटॉन एवं दो न्यूट्रॉन होते हैं। तत्व स्वर्ण के 32 समस्थानिक होते हैं जिनकी द्रव्यमान संख्याओं का परास $A=173$ से $A=204$ तक होता है। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि तत्वों के रासायनिक गुण उनके इलेक्ट्रॉनिक विन्यास पर निर्भर करते हैं। चूँकि, समस्थानिक परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास समान होते हैं उनका रासायनिक व्यवहार भी एक जैसा होता है और इसलिए उनको आवर्त सारणी में एक ही स्थान पर रखा जाता है।

ऐसे सभी नाभिक जिनकी द्रव्यमान संख्या $A$ समान होती है समभारिक कहलाते हैं। उदाहरणार्थ, नाभिक ${ } _{1}^{3} \mathrm{H}$ एवं ${ } _{2}^{3} \mathrm{He}$ समभारिक हैं। ऐसे नाभिक जिनकी न्यूट्रॉन संख्या $N$ समान हो लेकिन परमाणु क्रमांक $Z$ भिन्न हो समन्यूट्रॉनिक कहलाते हैं। उदाहरणार्थ, ${ } _{80}^{198} \mathrm{Hg}$ एवं ${ } _{79}^{197} \mathrm{Au}$ समन्यूट्रॉनिक हैं।

13.3 नाभिक का साइज़

जैसा हमने अध्याय 12 में देखा है, रदरफोर्ड वह अग्रणी वैज्ञानिक थे जिन्होंने परमाणु नाभिक के अस्तित्व की परिकल्पना एवं स्थापना की। रदरफोर्ड के सुझाव पर गीगर एवं मार्सडन ने स्वर्ण के वर्क पर ऐल्फ़ा कणों के प्रकीर्णन से संबंधित प्रसिद्ध प्रयोग किया। उनके प्रयोगों से यह स्पष्ट हुआ कि $5.5 \mathrm{MeV}$ गतिज ऊर्जा के ऐल्फ़ा कणों की स्वर्ण नाभिकों के निकटस्थ पहुँच की दूरी लगभग $4.0 \times 10^{-14} \mathrm{~m}$ है। स्वर्ण की परत से $\alpha$-कणों के प्रकीर्णन को रदरफोर्ड ने यह मानकर समझाया कि प्रकीर्णन के लिए केवल कूलॉम का प्रतिकर्षण बल ही उत्तरदायी है। चूँकि, धनात्मक आवेश नाभिक में निहित होता है, नाभिक का वास्तविक साइज़ $4.0 \times 10^{-14} \mathrm{~m}$ से कम होना चाहिए।

यदि हम $5.5 \mathrm{MeV}$ से अधिक ऊर्जा के $\alpha$-कण प्रयोग करें तो इनके स्वर्ण नाभिकों के निकटस्थ पहुँच की दूरी और कम हो जाएगी और तब प्रकीर्णन अल्प परास नाभिकीय बलों से प्रभावित होने लगेगा और रदरफोर्ड द्वारा किए गए परिकलनों से प्राप्त मान बदल जाएँगे। रदरफोर्ड के परिकलन ऐल्फ़ा कणों एवं स्वर्ण नाभिकों के धनावेश युक्त कणों के बीच लगने वाले शुद्ध कूलॉम प्रतिकर्षण बल पर आधारित हैं। उस दूरी के द्वारा जिस पर रदरफोर्ड के परिकलनों में आने वाले अंतर स्पष्ट होने लगते हैं, नाभिकीय साइज़ों के विषय में निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

ऐसे प्रकीर्णन प्रयोग करके जिनमें $\alpha$-कणों के स्थान पर तीव्र गति इलेक्ट्रॉनों की विभिन्न तत्वों के ऊपर बौछार की गई हो, इन तत्वों के नाभिकीय साइज़ अत्यंत परिशुद्धता से ज्ञात किए गए।

यह पाया गया कि $A$ द्रव्यमान संख्या के नाभिक की त्रिज्या है :

$R=R _{0} A^{1 / 3}$

जहाँ $R _{0}=1.2 \times 10^{-15} \mathrm{~m}\left(=1.2 \mathrm{fm} ; 1 \mathrm{fm}=10^{-15} \mathrm{~m}\right)$ इसका अर्थ है कि नाभिक का आयतन (जो $R^{3}$ के अनुक्रमानुपाती है) द्रव्यमान संख्या $A$ के अनुक्रमानुपाती होता है। अतः नाभिक का घनत्व नियत होता है, अर्थात, सभी नाभिकों के लिए इसका मान $A$ पर निर्भर नहीं करता है। विभिन्न नाभिक इस नियत घनत्व के द्रव की बूँद की तरह होते हैं। नाभिकीय द्रव्य का घनत्व $2.3 \times 10^{17} \mathrm{~kg} \mathrm{~m}^{-3}$ के सन्निकट होता है। सामान्य पदार्थों की तुलना में घनत्व का यह मान बहुत अधिक होता है, जैसे जल के लिए घनत्व केवल $10^{3} \mathrm{~kg} \mathrm{~m}^{-3}$ ही होता है। इस तथ्य को आसानी से समझा भी जा सकता है, क्योंकि यह हम पहले ही देख चुके हैं कि परमाणु अधिकांशतः भीतर से रिक्त होता है। सामान्य परमाणुओं से बने द्रव्य में बड़ी मात्रा में रिक्त स्थान होता है।

13.4 द्रव्यमान-ऊर्जा तथा नाभिकीय बंधन-ऊर्जा

13.4.1 द्रव्यमान-ऊर्जा

आइंस्टाइन ने अपने विशिष्ट आपेक्षिकता सिद्धांत के आधार पर यह दर्शाया कि द्रव्यमान ऊर्जा का ही एक दूसरा रूप है। विशिष्ट आपेक्षिकता सिद्धांत से पहले यह माना जाता था कि किसी अभिक्रिया में द्रव्यमान एवं ऊर्जा अलग-अलग संरक्षित होते हैं। परंतु आइंस्टाइन ने यह दर्शाया कि द्रव्यमान केवल ऊर्जा का दूसरा रूप है और हम द्रव्यमान-ऊर्जा को ऊर्जा के अन्य रूपों, जैसे-गतिज ऊर्जा में, परिवर्तित कर सकते हैं तथा विपरीत प्रक्रम अर्थात ऊर्जा को द्रव्यमान में रूपांतरित करना भी संभव है।

इसके लिए आइंस्टाइन ने जो प्रसिद्ध द्रव्यमान-ऊर्जा समतुल्यता संबंध दिया वह है :

$E=m c^{2}$

यहाँ $E$, द्रव्यमान $m$ के समतुल्य ऊर्जा है एवं $c$ निर्वात में प्रकाश का वेग है जिसका सन्निकट मान $3 \times 10^{8} \mathrm{~m} \mathrm{~s}^{-1}$ है।

आइंस्टाइन के द्रव्यमान-ऊर्जा संबंध की प्रायोगिक पुष्टि, न्यूक्लियॉनों, नाभिकों, इलेक्ट्रॉनों एवं अन्य हाल ही में खोजे गए कणों के बीच होने वाली नाभिकीय अभिक्रियाओं के अध्ययन में हो चुकी है। किसी अभिक्रिया में ऊर्जा संरक्षण नियम से अभिप्राय है कि यदि द्रव्यमान से संबद्ध ऊर्जा को भी परिकलनों में सम्मिलित करें तो प्रारंभिक ऊर्जा अंतिम ऊर्जा के बराबर होती है। यह संकल्पना, नाभिकों की पारस्परिक अन्योन्य क्रियाओं एवं नाभिकीय द्रव्यमानों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। यही अगले कुछ अनुभागों की विषय-वस्तु है।

13.4.2 नाभिकीय बंधन-ऊर्जा

अनुभाग 13.2 में हमने देखा कि नाभिक न्यूट्रॉन एवं प्रोटॉन का बना है। अतः यह अपेक्षित है कि नाभिक का द्रव्यमान, इसमें विद्यमान न्यूट्रॉनों एवं प्रोटॉनों के द्रव्यमानों के कुल योग $\Sigma m$ के बराबर होगा। लेकिन, नाभिकीय द्रव्यमान $M$, सदैव $\Sigma m$ से कम पाया जाता है। उदाहरण के लिए, आइए ${ } _{8}^{16} \mathrm{O}$ को लें। इसमें 8 प्रोटॉन एवं 8 न्यूट्रॉन हैं। अतः,

8 न्यूट्रॉनों का द्रव्यमान $=8 \times 1.00866 \mathrm{u}$

8 प्रोटॉनों का द्रव्यमान $=8 \times 1.00727 \mathrm{u}$

8 इलेक्ट्रॉनों का द्रव्यमान $=8 \times 0.00055 \mathrm{u}$

इसलिए ${ } _{8}^{16} \mathrm{O}$ के नाभिक का अपेक्षित द्रव्यमान $=8 \times 2.01593 \mathrm{u}=16.12744 \mathrm{u}$

द्रव्यमान वर्णक्रममापी के प्रयोगों द्वारा प्राप्त ${ } _{8}^{16} \mathrm{O}$ का परमाणु द्रव्यमान $15.99493 \mathrm{u}$ है। इसमें से 8 इलेक्ट्रॉनों का द्रव्यमान $(8 \times 0.00055 \mathrm{u})$ घटाने पर ${ } _{8}^{16} \mathrm{O}$ के नाभिक का प्रायोगिक मान $15.99053 \mathrm{u}$ है।

अतः हम पाते हैं कि ऑक्सीजन ${ } _{8}^{16} \mathrm{O}$ नाभिक का द्रव्यमान, इसके घटकों के कुल द्रव्यमान से $0.13691 \mathrm{u}$ कम है। नाभिक के द्रव्यमान एवं इसके घटकों के द्रव्यमान के अंतर $\Delta M$, को द्रव्यमान क्षति कहते हैं, और इसका मान इस प्रकार व्यक्त किया जाता है :

$$ \begin{equation*} \Delta M=\left[Z m _{p}+(A-Z) m _{n}\right]-M \tag{13.7} \end{equation*} $$

द्रव्यमान-क्षति का अर्थ क्या है? यहीं पर आइंस्टाइन का द्रव्यमान-ऊर्जा समतुल्यता सिद्धांत अपनी भूमिका निभाता है। चूँकि, ऑक्सीजन नाभिक का द्रव्यमान इसके घटकों के द्रव्यमानों के योग (अबंधित अवस्था में 8 प्रोटॉन एवं 8 न्यूट्रॉन का) से कम होता है, ऑक्सीजन नाभिक की समतुल्य ऊर्जा इसके घटकों की समतुल्य ऊर्जाओं के योग से कम होती है। यदि आप ऑक्सीजन नाभिक को 8 प्रोटॉनों एवं 8 न्यूट्रॉनों में विखंडित करना चाहें तो आपको यह अतिरिक्त ऊर्जा, $\Delta M c^{2}$, इस नाभिक को प्रदान करनी होगी। इसके लिए आवश्यक यह ऊर्जा $E _{\mathrm{b}}$, द्रव्यमान क्षति से निम्नलिखित समीकरण द्वारा संबंधित होती है :

$$ \begin{equation*} E _{b}=\Delta M c^{2} \tag{13.8} \end{equation*} $$

यदि कुछ न्यूट्रॉनों एवं प्रोटॉनों को पास-पास लाकर, निश्चित आवेश एवं द्रव्यमान वाला एक नाभिक बनाया जाए तो इस प्रक्रिया में $\Delta E _{b}$ ऊर्जा मुक्त होगी। यह ऊर्जा $\Delta E _{b}$ नाभिक की

बंधन-ऊर्जा कहलाती है। यदि हमें किसी नाभिक के नाभिक-कणों को अलग-अलग करना हो तो हमें इन कणों को कुल ऊर्जा $E _{b}$ प्रदान करनी होगी। यद्यपि नाभिक को हम इस प्रकार तोड़ नहीं सकते, फिर भी, नाभिक की बंधन-ऊर्जा यह तो बताती ही है कि किसी नाभिक में न्यूक्लियॉन परस्पर कितनी अच्छी तरह से जुड़े हैं। नाभिक के कणों की बंधन शक्ति का एक और अधिक उपयोगी माप बंधन-ऊर्जा प्रति न्यूक्लियॉन, $E _{b n}$ है; जो कि नाभिक की बंधन-ऊर्जा, $E _{b}$ एवं इसमें विद्यमान न्यूक्लिऑनों की संख्या $A$ का अनुपात है।

$$ \begin{equation*} \Delta E _{b n}=\Delta E _{b} / A \tag{13.9} \end{equation*} $$

हम प्रति न्यूक्लियॉन बंधन-ऊर्जा को ऐसा मान सकते हैं कि यह किसी नाभिक को इसके न्यूक्लिऑनों में पृथक्कृत करने के लिए आवश्यक औसत ऊर्जा है।

चित्र 13.1 में बहुत से नाभिकों के

चित्र 13.1 द्रव्यमान संख्या के फलन के रूप में प्रति न्यूक्लियॉन बंधन-ऊर्जा। लिए प्रति न्यूक्लियॉन बंधन ऊर्जा $E _{b n}$ एवं द्रव्यमान संख्या $A$ में ग्राफ दिखाया गया है। इस ग्राफ में हमें निम्नलिखित लक्षण पर विशेष दृष्टिगोचर होते हैं -

(i) मध्यवर्ती द्रव्यमान संख्याओं $(30<\mathrm{A}$ $<170$ ) के लिए, प्रति न्यूक्लियॉन बंधन-ऊर्जा, $E _{b n}$, का मान व्यावहारिक रूप में नियत रहता है, अर्थात परमाणु क्रमांक के साथ परिवर्तित नहीं होता है। वक्र $\mathrm{A}=56$ के लिए लगभग 8.75 $\mathrm{MeV}$ का अधिकतम मान एवं $A=$ 238 के लिए $7.6 \mathrm{MeV}$ दर्शाता है।

(ii) हलके नाभिकों $(A<30)$ एवं भारी नाभिकों $(A>170)$ दोनों के लिए ही $E _{\mathrm{bn}}$ का मान मध्यवर्ती परमाणु क्रमांक के नाभिकों की तुलना में अपेक्षाकृत कम होता है।

इस प्रकार निम्न निष्कर्षों पर पहुँच सकते हैं :

(i) यह बल आकर्षी है तथा प्रति न्यूक्लियॉन कुछ $\mathrm{MeV}$ बंधन उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त प्रबल है।

(ii) $30<\mathrm{A}<170$ के परास में बंधन-ऊर्जा की अचरता इस तथ्य का परिणाम है कि नाभिकीय बल लघु परासी बल होते हैं। बड़े नाभिक के भीतर स्थित किसी न्यूक्लियॉन पर विचार कीजिए। यह अपने पास-पड़ोस के केवल उन न्यूक्लिऑनों से प्रभावित होगा जो इसके नाभिकीय बल के परिसर में आते हैं। यदि कोई अन्य न्यूक्लियॉन इस विशिष्ट न्यूक्लियॉन के नाभिकीय बल के परिसर से अधिक दूरी पर है, तो यह विचाराधीन नाभिक की बंधन-ऊर्जा को तनिक भी प्रभावित नहीं करेगा। यदि किसी नाभिक के नाभिकीय बल के परिसर में अधिकतम $p$ न्यूक्लियॉन हो सकते हों, तो इसकी बंधन-ऊर्जा $p$ के अनुक्रमानुपाती होगी। माना कि किसी नाभिक की बंधन-ऊर्जा $p k$ है, जहाँ $k$ एक नियतांक है जिसकी विमाएँ वही हैं जो ऊर्जा की होती हैं। अब यदि हम न्यूक्लियॉनों की संख्या बढ़ाकर $A$ का मान बढ़ाएँ, तो इससे नाभिक के भीतर न्यूक्लियॉनों की बंधन-ऊर्जा प्रभावित नहीं होगी। क्योंकि, किसी भी बड़े नाभिक में अधिकांश न्यूक्लियॉन इसके भीतर रहते हैं तथा पृष्ठ की अपेक्षा, नाभिक की बंधन-ऊर्जा पर $A$ की वृद्धि का

मान $p k$ के बराबर होता है। नाभिकों का वह गुण जिसके कारण कोई नाभिक केवल अपने निकट के नाभिकों को ही प्रभावित करता है, नाभिकीय बलों का संतृप्ति गुण कहलाता है।

(iii) एक अत्यधिक भारी नाभिक, जैसे $A=240$, की प्रति न्यूक्लियॉन बंधन-ऊर्जा, $A=120$ के नाभिक की तुलना में कम होती है। अतः, यदि $A=240$ का कोई नाभिक, $A=120$ के दो नाभिकों में टूटता है तो, इनमें न्यूक्लियॉन अधिक दृढ़ता से परिबद्ध होंगे। यह इंगित करता है कि इस प्रक्रिया में ऊर्जा विमुक्त होगी। यह विखंडन द्वारा ऊर्जा विमुक्त होने की महत्वपूर्ण संभावना को अभिव्यक्त करता है जिसके विषय में हम अनुभाग 13.7.1 में चर्चा करेंगे।

(iv) कल्पना कीजिए कि दो हलके नाभिक $(A \leq 10)$ संलयित होकर एक भारी नाभिक बनाते हैं। संलयन द्वारा बने इस भारी नाभिक की प्रति न्यूक्लियन बंधन-ऊर्जा, हलके नाभिकों की प्रति न्यूक्लियॉन बंधन ऊर्जा से अधिक होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अंतिम निकाय में कण प्रारंभिक निकाय की तुलना में अधिक दृढ़ता से बंधित हैं। यहाँ संलयन की इस प्रक्रिया में भी ऊर्जा विमुक्त होगी। यही सूर्य की ऊर्जा का स्रोत है जिसके विषय में हम अनुभाग 13.7.2 में चर्चा करेंगे।

13.5 नाभिकीय बल

वह बल जो परमाणु में इलेक्ट्रॉनों की गति नियंत्रित करता है हमारा सुपरिचित कूलॉम बल है। अनुभाग 13.4 में हमने देखा कि औसत द्रव्यमान के नाभिक के लिए प्रति न्यूक्लियॉन बंधन-ऊर्जा लगभग $8 \mathrm{MeV}$ है जो परमाणु की बंधन-ऊर्जा की तुलना में बहुत अधिक है। अतः नाभिक में कणों को परस्पर बाँधे रखने के लिए एक भिन्न प्रकार के शक्तिशाली आकर्षण बल की आवश्यकता है। यह बल इतना अधिक शक्तिशाली होना चाहिए कि (धनावेशित) प्रोटॉनों के बीच लगे प्रतिकर्षण बलों से अधिक प्रभावी होकर प्रोटॉनों एवं न्यूट्रॉनों दोनों को नाभिक के सूक्ष्म आयतन में बाँधे रख सके। हम यह पहले ही देख चुके हैं कि प्रति न्यूक्लियॉन बंधन ऊर्जा की अचरता को इन बलों की लघु परासी प्रकृति से समझा जा सकता है। नाभिकीय बंध न बलों के कुछ अभिलक्षणों को संक्षेप में नीचे दिया गया है। यह ज्ञान 1930 से 1950 के बीच किए गए विभिन्न प्रयोगों द्वारा प्राप्त हुआ है।

(i) नाभिकीय बल, आवेशों के बीच लगने वाले कूलॉम बल एवं द्रव्यमानों के बीच लगने वाले गुरुत्वाकर्षण बल की तुलना में अत्यधिक शक्तिशाली होता है। नाभिकीय बंधन बल को, नाभिक के भीतर प्रोटॉनों के बीच लगने वाले कूलॉम प्रतिकर्षण बल पर आधिपत्य करना होता है। यह इसीलिए संभव हो पाता है, क्योंकि नाभिकीय बल कूलॉम बलों की तुलना में अत्यधिक प्रबल होते हैं। गुरुत्वाकर्षण बल तो कूलॉम बल की तुलना में भी अत्यंत दुर्बल होता है।

(ii) न्यूक्लिऑनों के बीच दूरी बढ़ाकर कुछ फेम्टोमीटर से अधिक करने पर उनके बीच लगने वाला नाभिकीय बल तेज़ी से घटकर शून्य हो जाता है। इस कारण, औसत अथवा बड़े साइज़ के नाभिकों में ‘बलों की संतृप्तता’ की स्थिति आ जाती है जिसके परिणामस्वरूप प्रति न्यूक्लियॉन बंधन-ऊर्जा नियत हो जाती है। दो नाभिकों की स्थितिज ऊर्जा और उनके बीच की दूरी में संबंध दर्शाने वाला एक अपरिष्कृत आरेख चित्र 13.2 में दर्शाया गया है। लगभग $0.8 \mathrm{fm}$ की दूरी $r _{0}$ पर स्थितिज ऊर्जा का मान न्यूनतम होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि नाभिकों के बीच

चित्र 13.2 एक नाभिकीय युग्म की स्थितिज ऊर्जा उनके बीच की दूरी के फलन के रूप में। $r _{0}$ से अधिक दूरी होने पर बल आकर्षण बल होता है एवं $r _{0}$ से कम दूरी पर तीव्र प्रतिकर्षण बल। आकर्षण बल सर्वाधिक प्रबल तब होता है जब नाभिकों के बीच की दूरी $r _{0}$ होती है। दूरी $0.8 \mathrm{fm}$ से अधिक होती है तो ये बल आकर्षण बल होते हैं और $0.8 \mathrm{fm}$ से कम दूरियों के लिए ये प्रतिकर्षण बल होते हैं। (iii) न्यूट्रॉन-न्यूट्रॉन, न्यूट्रॉन-प्रोटॉन एवं प्रोटॉन-प्रोटॉन के बीच लगने वाले नाभिकीय बल लगभग समान परिमाण के होते हैं। नाभिकीय बल विद्युत आवेशों पर निर्भर नहीं करते। कूलॉम के नियम अथवा न्यूटन के गुरुत्वीय नियम की भाँति नाभिकीय बलों का कोई सरल गणितीय रूप नहीं है।

मैरी स्क्लाडोवका क्यूरी (18671934) पोलैंड में जन्मी। भौतिकविज्ञानी एवं रसायनज्ञ दोनों रूपों में पहचान मिली। 1896 में हेनरी बैकेरल द्वारा रेडियोऐक्टिवता की खोज ने मैरी और उनके पति पियरे क्यूरी को उनके अनुसंधानों एवं विश्लेषणों के लिए प्रेरित किया, जिसके फलस्वरूप तत्वों- रेडियम एवं पोलोनियम- का पृथक्करण संभव हुआ। वह प्रथम वैज्ञानिक थीं जिन्हें दो नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुए : पहला 1903 में भौतिकी के लिए और दूसरा 1911 में रसायनविज्ञान के लिए।

13.6 रेडियोऐक्टिवता

रेडियोऐक्टिवता की खोज ए.एच. बैकेरल ने सन् 1896 में संयोगवश की। यौगिकों को दृश्य प्रकाश से विकीर्णित करके उनकी प्रतिदीप्ति एवं स्फुरदीप्ति का अध्ययन करते हुए बैकेरल ने एक रोचक परिघटना देखी। यूरेनियम-पोटैशियम सल्फेट के कुछ टुकड़ों पर दृश्य प्रकाश डालने के बाद उसने उनको काले कागज़ में लपेट दिया। इस पैकेट और फ़ोटोग्राफ़िक प्लेट के बीच एक चाँदी का टुकड़ा रखा। इसी प्रकार कई घंटे तक रखने के बाद जब फ़ोटोग्राफ़िक प्लेट को डेवेलप किया गया तो यह पाया गया कि यह प्लेट काली पड़ चुकी थी। यह किसी ऐसी चीज़ के कारण हुआ होगा जो यौगिक से उत्सर्जित हुई होगी तथा काले कागज़ और चाँदी दोनों को भेद कर फ़ोटोग्राफ़िक प्लेट तक पहुँच गई होगी।

बाद में किए गए प्रयोगों ने दर्शाया कि रेडियोऐक्टिवता एक नाभिकीय परिघटना है जिसमें अस्थायी नाभिक क्षयित होता है। इसे रेडिोऐक्टिव क्षय कहते हैं। प्रकृति में तीन प्रकार के रेडियोक्टिव क्षय होते हैं :

(i) $\alpha$-क्षय, जिसमें हीलियम नाभिक $\left({ } _{2}^{4} \mathrm{He}\right)$ उत्सर्जित होते हैं,

(ii) $\beta$-क्षय, जिसमें इलेक्ट्रॉन अथवा पॉजीट्रॉन (ऐसे कण जिसका द्रव्यमान तो इलेक्ट्रॉन के बराबर ही होता है पर आवेश ठीक इलेक्ट्रॉन के विपरीत होता है) उत्सर्जित होते हैं।

(iii) $\gamma$-क्षय, जिसमें उच्च ऊर्जा ( $100 \mathrm{keV}$ अथवा अधिक) फोटॉन उत्सर्जित होते हैं।

इनमें प्रत्येक प्रकार के क्षय पर आगामी उपअनुभागों में विचार किया जाएगा।

13.7 नाभिकीय ऊर्जा

चित्र 13.1 में दर्शाये गए प्रति न्यूक्लिऑन बंधन-ऊर्जा $E _{\mathrm{bn}}$ वक्र में $A=30$ एवं $A=170$ के बीच एक लंबा सपाट भाग है। इस भाग में प्रति न्यूक्लिऑन बंधन-ऊर्जा लगभग अचर $(8.0 \mathrm{MeV})$ है। हलके नाभिकों, $A>30$, वाले भाग एवं भारी नाभिकों, $A>170$, वाले भाग में, जैसा हम पहले ही देख चुके हैं, प्रति न्यूक्लिऑन बंधन-ऊर्जा $8.0 \mathrm{MeV}$ से कम है। यदि बंधन-ऊर्जा अधिक हो तो उस बंधित निकाय जैसे नाभिक का कुल द्रव्यमान कम होगा। परिणामस्वरूप यदि कोई कम कुल बंधन-ऊर्जा वाला नाभिक किसी अधिक बंधन-ऊर्जा वाले नाभिक में रूपांतरित हो तो कुल ऊर्जा विमुक्त होगी। किसी भारी नाभिक के दो या दो से अधिक माध्यमिक द्रव्यमान खंडों (विखंडन) अथवा हलके नाभिकों का किसी भारी नाभिक में संयोजन (संलयन) की प्रक्रिया में ऐसा ही होता है।

कोयले एवं पेट्रोलियम जैसे पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों में ऊष्माक्षेपी रासायनिक अभिक्रियाएँ होती हैं। यहाँ विमुक्त होने वाली ऊर्जा इलेक्ट्रॉन वोल्ट की कोटि की होती है। जबकि किसी नाभिकीय प्रक्रिया में, $\mathrm{MeV}$ कोटि की ऊर्जा विमुक्त होती है। अतः द्रव्य की समान मात्रा के लिए, रासायनिक स्रोतों की अपेक्षा नाभिकीय स्रोत लाखों गुना ऊर्जा विमुक्त करते हैं। उदाहरण के लिए, $1 \mathrm{~kg}$ यूरेनियम के विखंडन से लगभग $10^{14} \mathrm{~J}$ ऊर्जा प्राप्त होती है, जबकि $1 \mathrm{~kg}$ कोयले के दहन से $10^{7} \mathrm{~J}$ ऊर्जा प्राप्त होती है।

13.7.1 विखंडन

प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव क्षयों के अलावा नाभिकों पर अन्य नाभिकीय कणों जैसे प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, ऐल्फा कण आदि के प्रकार से होने वाली नाभिकीय प्रक्रियाओं पर ध्यान देने से नई संभावनाएँ बनती हैं।

विखंडन एक महत्वपूर्ण न्यूट्रॉन-प्रेरक नाभिकीय प्रक्रिया है। विखंडन के उदाहरणतः जब किसी यूरेनियम समस्थानिक ${ } _{92}^{235} \mathrm{U}$ पर न्यूट्रॉन से प्रहार कराया जाता है तो वह दो माध्यमिक द्रव्यमान वाले नाभिकीय खंडों में विखंडित हो जाता है :

${ } _{0}^{1} \mathrm{n}+{ } _{92}^{235} \mathrm{U} \rightarrow{ } _{92}^{236} \mathrm{U} \rightarrow{ } _{56}^{144} \mathrm{Ba}+{ } _{36}^{89} \mathrm{Kr}+3{ } _{0}^{1} \mathrm{n}$

इसी क्रिया में माध्यमिक द्रव्यमान वाले नाभिकों के भिन्न युग्म भी उत्पन्न हो सकते हैं :

${ } _{0}^{1} \mathrm{n}+{ } _{92}^{235} \mathrm{U} \rightarrow{ } _{92}^{236} \mathrm{U} \rightarrow{ } _{51}^{133} \mathrm{Sb}+{ } _{41}^{99} \mathrm{Nb}+4{ } _{0}^{1} \mathrm{n}$

एक अन्य उदाहरण है :

${ } _{0}^{1} \mathrm{n}+{ } _{92}^{235} \mathrm{U} \rightarrow{ } _{54}^{140} \mathrm{Xe}+{ } _{38}^{94} \mathrm{Sr}+2{ } _{0}^{1} \mathrm{n}$

ये विखंडित उत्पाद रेडियोऐक्टिव नाभिक होते हैं और इनमें तब तक $\beta$-क्षय का क्रम चलता रहता है जब तक कि अंत में स्थायी खंड प्राप्त न हो जाएँ।

यूरेनियम जैसे नाभिक की विखंडन अभिक्रिया में निर्मुक्त ऊर्जा ( $Q$ - मान) प्रति विखंडित नाभिक $200 \mathrm{MeV}$ की कोटि की होती है। इसका आकलन हम निम्नवत करते हैं :

माना कि एक नाभिक का $A=240$ है और यह $A=120$ के दो खंडों में विखंडित होता है। तब

$A=240$ नाभिक के लिए $E _{b n}$ लगभग $7.6 \mathrm{MeV}$ है (चित्र 13.1 देखें)।

$A=120$ वाले विखंडित नाभिक के लिए $E _{b n}$ लगभग $8.5 \mathrm{MeV}$ है।

$\therefore$ प्रति न्यूक्लियॉन बंधन-ऊर्जा की लब्धि लगभग $0.9 \mathrm{MeV}$ है।

अतः बंधन-ऊर्जा में कुल लब्धि $240 \times 0.9$ अथवा $216 \mathrm{MeV}$ है।

विखंडन की घटनाओं की विघटन ऊर्जा पहले क्षय-उत्पादों तथा न्यूट्रॉनों की गतिज ऊर्जा के रूप में संलग्नित होती है। अंत में यह आसपास के द्रव्य को हस्तांतरित होकर ऊष्मा के रूप में परिणित हो जाती है। नाभिकीय रिएक्टरों में नाभिकीय विखंडन ऊर्जा से विद्युत उत्पादन होता है। परमाणु बम में विमुक्त होने वाली बृहत ऊर्जा अनियंत्रित नाभिकीय विखंडन से ही उत्पन्न होती है।

13.7.2 नाभिकीय संलयन-तारों में ऊर्जा जनन

चित्र 13.1 में दर्शाया गया बंधन-ऊर्जा वक्र यह भी दर्शाता है कि यदि दो हलके नाभिक मिलकर एक अपेक्षाकृत बड़ा नाभिक बनाएँ तो ऊर्जा निर्मुक्त होती है। इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं। इस तरह की ऊर्जा विमोचक अभिक्रियाओं के कुछ उदाहरण आगे दिए गए हैं :

$$ \begin{align*} & { } _{1}^{1} \mathrm{H}+{ } _{1}^{1} \mathrm{H} \rightarrow{ } _{1}^{2} \mathrm{H}+e^{+}+v+0.42 \mathrm{MeV} \tag{a} \\ & { } _{1}^{2} \mathrm{H}+{ } _{1}^{2} \mathrm{H} \rightarrow{ } _{2}^{3} \mathrm{He}+n+3.27 \mathrm{MeV} \tag{b} \\ & { } _{1}^{2} \mathrm{H}+{ } _{1}^{2} \mathrm{H} \rightarrow{ } _{1}^{3} \mathrm{H}+{ } _{1}^{1} \mathrm{H}+4.03 \mathrm{MeV} \tag{c} \end{align*} $$

अभिक्रिया 13.13 (a) में दो प्रोटॉन मिलकर एक ड्यूट्रॉन एवं एक पॉज़िट्रॉन बनाते हैं और इस प्रक्रिया में $0.42 \mathrm{MeV}$ ऊर्जा निकलती है। अभिक्रिया 13.13 (b) में दो ड्यूट्रॉन मिलकर हीलियम का हलका समस्थानिक बनाते हैं। अभिक्रिया 13.13 (c) में दो ड्यूट्रॉन मिलकर एक ट्रीटियम एवं एक प्रोटॉन बनाते हैं। संलयन के लिए दो नाभिकों का इतने अधिक पास आना आवश्यक है जिससे कि उनके बीच आकर्षित लघु-परासीय नाभिकीय बल कार्य कर सके। हालाँकि दोनों नाभिक धनात्मक आवेशित हैं, अतः उनके बीच कूलॉम प्रतिकर्षण होगा। अतः इनमें कूलॉम अवरोध पार करने के लिए समुचित ऊर्जा होनी आवश्यक है। इस कूलॉम अवरोध की ऊँचाई आवेशों एवं अन्योन्यक्रिया गत नाभिकों की त्रिज्याओं पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, यह आसानी से दर्शाया जा सकता है कि दो प्रोटॉनों के लिए यह अवरोधतुंगता (barrier height) लगभग 400 $\mathrm{keV}$ है। अधिक आवेशधारी नाभिकों के लिए अवरोधतुंगता और भी अधिक होगी। किसी प्रोटॉन गैस में प्रोटॉनों द्वारा कूलॉम अवरोध को पार करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा $3 \times 10^{9} \mathrm{~K}$ ताप पर प्राप्त हो सकती है। इस ताप का परिकलन, सूत्र (3/2) $k T=K$ में $K$ का मान $400 \mathrm{keV}$ रखने पर किया जा सकता है।

ऊर्जा की उपयोगी मात्रा उत्पन्न करने के लिए नाभिकीय संलयन स्थूल-द्रव्य में होना चाहिए। आवश्यकता बस इस बात की है कि द्रव्य का ताप तब तक बढ़ाया जाए जब तक कि इसके कण मात्र अपनी तापीय गति के कारण, कूलॉम अवरोध को पार न कर जाएँ। इस प्रक्रिया को ताप नाभिकीय संलयन कहते हैं।

तारों के अंतः पटल में निर्गत ऊर्जा का स्रोत ताप नाभिकीय संलयन है। सूर्य के क्रोड का ताप लगभग $1.5 \times 10^{7} \mathrm{~K}$ है, जो कि औसत ऊर्जा के कणों के संलयन के लिए आवश्यक अनुमानित ताप से काफी कम है। स्पष्टतः सूर्य में होने वाली संलयन प्रक्रियाओं में औसत ऊर्जाओं से बहुत अधिक ऊर्जा वाले प्रोटॉन भाग लेते हैं।

अतः ताप नाभिकीय संलयन बहुत उच्च ताप एवं दाब पर ही हो सकता है और ताप एवं दाब की ऐसी स्थितियाँ केवल तारों के अंतरंग में ही उपलब्ध हैं। तारों में ऊर्जा जनन ताप-नाभिकीय संलयन के माध्यम से ही होता है।

सूर्य में होने वाली संलयन अभिक्रिया एक बहुचरण प्रक्रिया है जिसमें हाइड्रोजन हीलियम में बदलती है। अतः सूर्य के क्रोड में हाइड्रोजन ईंधन है। प्रोटॉन-प्रोटॉन $(p-p)$ चक्र जिसके द्वारा यह घटित होता है, निम्नलिखित अभिक्रियाओं के समुच्चय द्वारा व्यक्त किया जा सकता है।

$$ \begin{align*} & { } _{1}^{1} \mathrm{H}+{ } _{1}^{1} \mathrm{H} \rightarrow{ } _{1}^{2} \mathrm{H}+e^{+}+v+0.42 \mathrm{MeV} \tag{i} \\ & e^{+}+e^{-} \rightarrow \gamma+\gamma+1.02 \mathrm{MeV} \tag{ii} \\ & { } _{1}^{2} \mathrm{H}+{ } _{1}^{1} \mathrm{H} \rightarrow{ } _{2}^{3} \mathrm{He}+\gamma+5.49 \mathrm{MeV} \tag{iii} \\ & { } _{2}^{3} \mathrm{H}+{ } _{2}^{3} \mathrm{H} \rightarrow{ } _{2}^{4} \mathrm{He}+{ } _{1}^{1} \mathrm{H}+{ } _{1}^{1} \mathrm{H}+12.86 \mathrm{MeV} \tag{iv} \end{align*} $$

चौथी अभिक्रिया होने के लिए यह आवश्यक है कि पहली तीन अभिक्रियाएँ दो-दो बार हों और इस प्रकार दो हलके हीलियम नाभिक मिलकर सामान्य हीलियम का एक नाभिक बनाएँ। अगर हम 2 (i) + 2(ii) + 2(iii) +(iv) पर विचार करें तो कुल प्रभाव होगा,

$$ \begin{equation*} 4{ } _{1}^{1} \mathrm{H}+2 e^{-} \rightarrow{ } _{2}^{4} \mathrm{He}+2 v+6 \gamma+26.7 \mathrm{MeV} \tag{13.15} \end{equation*} $$

या $\left(4{ } _{1}^{1} \mathrm{H}+4 e^{-}\right) \rightarrow\left({ } _{2}^{4} \mathrm{He}+2 e^{-}\right)+2 v+6 \gamma+26.7 \mathrm{MeV}$

अतः चार हाइड्रोजन परमाणु मिलकर एक ${ } _{2}^{4} \mathrm{He}$ परमाणु बनाते हैं और इस प्रक्रिया में 26.7 MeV ऊर्जा निर्मुक्त होती है।

किसी तारे के अंतः पटल में केवल हीलियम का ही निर्माण नहीं होता। जैसे-जैसे क्रोड में हाइड्रोजन (हीलियम में बदल कर) कम होती है, क्रोड ठंडा होने लगता है। इससे तारा अपने गुरुत्व के कारण संकुचित होता है जिससे क्रोड का ताप बढ़ जाता है। यदि क्रोड का ताप $10^{8} \mathrm{~K}$ तक बढ़ जाये तो संलयन की क्रिया पुनः होने लगेगी, पर इस बार हीलियम कार्बन में परिवर्तित होगी। इस प्रकार की प्रक्रिया में संलयन द्वारा बड़े द्रव्यमान संख्या वाले तत्वों का जनन हो सकता है। परन्तु बंधन-ऊर्जा वक्र (चित्र 13.1) के शीर्ष पर स्थित भारी तत्वों का निर्माण इस प्रक्रिया से नहीं हो सकता।

सूर्य की आयु लगभग $5 \times 10^{9}$ वर्ष है तथा यह अनुमान लगाया जाता है कि सूर्य को और 5 अरब वर्षों तक बनाये रखने के लिए आवश्यक हाइड्रोजन उपलब्ध है। इसके पश्चात्, हाइड्रोजन का जलना रुक जाएगा तथा सूर्य ठंडा होने लगेगा। इससे सूर्य अपने गुरुत्व के कारण संकुचित होने लगेगा जिससे सूर्य की क्रोड का ताप बढ़ेगा। इससे सूर्य का बाहरी आवरण फैलने लगेगा जिससे सूर्य एक लाल दानव (red giant) में परिवर्तित हो जाएगा।

13.7.3 नियंत्रित ताप नाभिकीय संलयन

किसी तारे में होने वाली ताप-नाभिकीय प्रक्रिया का रूपांतरण एक ताप-नाभिकीय युक्ति से किया जाता है। किसी नियंत्रित संलयन रिएक्टर का उद्देश्य नाभिकीय ईंधन को $10^{8} \mathrm{~K}$ ताप के परास में गरम कर स्थायी शक्ति जनन करना होता है। इस ताप पर ईंधन धनात्मक आयनों तथा इलेक्ट्रॉनों (प्लाज्मा) का मिश्रण होता है। चूंकि इस ताप को बनाये रखने के लिए कोई वस्तु उपलब्ध नहीं है, अतः इस ताप को बनाये रखना एक चुनौती है। भारत सहित विश्व के कई देश इस संबंध में युक्तियों के विकास में प्रयासरत हैं। इन प्रयासों के सफल होने पर, संभावना है कि संलयन रिएक्टर समाज को लगभग अनियमित शक्ति प्रदान कर सकेंगे।

सारांश

1. प्रत्येक परमाणु में एक नाभिक होता है। नाभिक धनावेशित होता है। नाभिक की त्रिज्या परमाणु की त्रिज्या से $10^{4}$ गुना छोटी होती है। परमाणु का $99.9 %$ से अधिक द्रव्यमान नाभिक में समाहित होता है।

2. परमाणुओं के स्तर पर द्रव्यमान, परमाणु द्रव्यमान इकाइयों $(\mathrm{u})$ में मापे जाते हैं। परिभाषा के अनुसार 1 परमाणु द्रव्यमान इकाई $(1 \mathrm{u}),{ }^{12} \mathrm{C}$ के एक परमाणु के द्रव्यमान के $1 / 12$ वें भाग के बराबर होती है। $\mathrm{lu}=1.660563 \times 10^{-27} \mathrm{~kg}$

3. नाभिक में एक निरावेशित कण होता है जिसे न्यूट्रॉन कहते हैं। इसका द्रव्यमान लगभग उतना ही होता है जितना प्रोटॉन का।

4. किसी तत्व की परमाणु संख्या $Z$ उस तत्व के परमाण्विक नाभिक में प्रोटॉनों की संख्या होती है। द्रव्यमान संख्या $A$, परमाण्विक नाभिक में प्रोटॉनों एवं न्यूट्रॉनों की कुल संख्या के बराबर होती है; $A=Z+N$; यहाँ $N$ नाभिक में विद्यमान न्यूट्रॉनों की संख्या निर्दिष्ट करता है। एक नाभिकीय प्रजाति अथवा एक न्यूक्लाइड (nuclide) को ${ } _{Z}^{A} X$ द्वारा व्यक्त करते हैं, जहाँ $X$ उस रासायनिक प्रजाति का संकेत है।

समान परमाणु संख्या $Z$, परंतु विभिन्न न्यूट्रॉन संख्या $N$ के न्यूक्लाइड समस्थानिक कहलाते हैं। वे न्यूक्लाइड जिनके लिए द्रव्यमान संख्या $A$ का मान समान हो सममारिक तथा वे जिनके लिए न्यूट्रॉन संख्या $N$ का मान समान हो समन्युट्रॉनिक कहलाते हैं। अधिकांश तत्व दो या अधिक समस्थानिकों के मिश्रण होते हैं। तत्व का परमाणु द्रव्यमान उसके समस्थानिकों के द्रव्यमानों का भारित माध्य होता है। जहाँ भार से तात्पर्य समस्थानिकों की सापेक्ष बहुलता से है।

5. नाभिक को गोलाकार मानकर उसकी एक त्रिज्या निर्धारित की जा सकती है। इलेक्ट्रॉन प्रकीर्णन प्रयोगों के आधार पर नाभिक की त्रिज्या ज्ञात की जा सकती है। यह पाया गया है कि नाभिकों की त्रिज्या निम्नलिखित सूत्र से व्यक्त होती है।

$R=R _{0} A^{1 / 3}$,

जहाँ $R _{0}=$ एक नियतांक $=1.2 \mathrm{fm}$. यह दर्शाता है कि नाभिक का घनत्व $A$ पर निर्भर नहीं करता और यह $10^{17} \mathrm{~kg} / \mathrm{m}^{3}$ की कोटि का होता है।

6. नाभिक के अंदर न्यूट्रॉन एवं प्रोटॉन अल्प परासी प्रबल नाभिकीय बल द्वारा बँधे होते हैं। नाभिकीय बल न्यूट्रॉन एवं प्रोटॉन में विभेद नहीं करता।

7. नाभिकीय द्रव्यमान $M$ हमेशा अपने अवयवों के कुल द्रव्यमान $\Sigma m$ से कम होता है। नाभिक और इसके अवयवों के द्रव्यमानों का अंतर द्रव्यमान क्षति कहलाता है।

$\Delta M=\left(Z m _{p}+(A-Z) m _{n}\right)-M$

आइंसटाइन का द्रव्यमान-ऊर्जा सिद्धांत $E=m c^{2}$ इस द्रव्यमान अंतर को ऊर्जा के रूप में इस प्रकार व्यक्त करता है :

$\Delta E _{b}=\Delta M c^{2}$

ऊर्जा $\Delta E _{b}$ नाभिक की बंधन-ऊर्जा कहलाती है। $A=30$ से लेकर $A=170$ द्रव्यमान संख्या के परास में प्रति न्यूक्लियॉन बंधन-ऊर्जा का मान लगभग नियत है। यह लगभग 8 $\mathrm{MeV}$ प्रति न्यूक्लियॉन है।

8. नाभिकीय प्रक्रियाओं से जुड़ी ऊर्जा रासायनिक प्रक्रियाओं की तुलना में लगभग दस लाख गुना अधिक होती है।

9. किसी नाभिकीय प्रक्रिया का $Q$-मान है :

$Q=$ अंतिम गतिज ऊर्जा - प्रारंभिक गतिज ऊर्जा

द्रव्यमान-ऊर्जा संरक्षण के कारण, कह सकते हैं कि

$Q=$ (प्रारंभिक द्रव्यमानों का योग - अंतिम द्रव्यमानों का योग) $c^{2}$

10. रेडियोऐक्टिवता वह परिघटना है जिसमें दी गई प्रजाति के नाभिक, $\alpha$ या $\beta$ या $\gamma$ किरणें उत्सर्जित करके रूपांतरित हो जाती हैं, जहाँ $\alpha$-किरणें हीलियम के नाभिक हैं; $\beta$-किरणें इलैक्ट्रॉन हैं तथा $\gamma$-किरणें $X$-किरणों, से भी छोटी तरंगदैर्घ्य के विद्युत चुंबकीय विकिरण हैं।

11. जब कम दृढ़ता से बंधित नाभिक अधिक दृढ़ता से बंधित नाभिक में परिवर्तित होता है तो ऊर्जा विमुक्त होती है। विखंडन में एक भारी नाभिक दो छोटे खंडों में विभाजित हो जाता है उदाहरणार्थ, ${ } _{92}^{235} \mathrm{U}+{ } _{0}^{1} \mathrm{n} \rightarrow{ } _{51}^{133} \mathrm{Sb}+{ } _{41}^{99} \mathrm{Nb}+4{ } _{0}^{1} \mathrm{n}$

12. संलयन में हलके नाभिक मिलकर एक बड़ा नाभिक बनाते हैं। सूर्य सहित सभी तारों में हाइड्रोजन नाभिकों का हीलियम नाभिकों में संलयन ऊर्जा का स्रोत है।

भौतिक राशि प्रतीक विमाएँ मात्रक टिप्पणी
परमाणु द्रव्यमान
इकाई
[M] u परमाणु या नाभिकीय द्रव्यमानों को व्यक्त
करने के लिए द्रव्यमान मात्रक। एक परमाणु
द्रव्यमान इकाई, ${ }^{12} \mathrm{C}$ परमाणु के द्रव्यमान
के के $1 / 12$ वें भाग के बराबर है।
विघटन या क्षय
नियतांक
$\lambda$ $\left[\mathrm{T}^{-1}\right]$ $\mathrm{s}^{-1}$
अर्धायु $T _{1 / 2}$ $[\mathrm{~T}]$ $\mathrm{s}$ वह समय जिसमें रेडियोऐक्टिव नमूने के
नाभिकों की संख्या प्रारंभिक संख्या की
आधी रह जाती है।
रेडियोऐक्टिव
नमूने की ऐक्टिवता
$R$ $\left[\mathrm{~T}^{-1}\right]$ एक रेडियोऐक्टिव स्रोत की ऐक्टिवता
की माप।

विचारणीय विषय

1. नाभिकीय द्रव्य का घनत्व नाभिक के साइज़ पर निर्भर नहीं करता है। परमाणु द्रव्यमान घनत्व इस नियम का पालन नहीं करता।

2. इलेक्ट्रॉन प्रकीर्णन द्वारा ज्ञात की गई नाभिक की त्रिज्या का मान ऐल्फ़ा कण प्रकीर्णन के आधार पर ज्ञात की गई त्रिज्या से कुछ भिन्न पाया गया है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि, इलेक्ट्रॉन प्रकीर्णन नाभिक के आवेश वितरण से प्रभावित होता है जबकि ऐल्फ़ा कण और उस जैसे अन्य कण नाभिकीय द्रव्य से प्रभावित होते हैं।

3. आइंस्टाइन द्वारा द्रव्यमान एवं ऊर्जा की समतुल्यता $E=m c^{2}$ प्रदर्शित किए जाने के बाद अब हम द्रव्यमान संरक्षण एवं ऊर्जा संरक्षण के पृथक नियमों की बात नहीं करते, वरन द्रव्यमान-ऊर्जा संरक्षण के एक एकीकृत नियम की बात करते हैं। प्रकृति में यह नियम वस्तुत: प्रभावी है तथा इसका विश्वसनीय प्रमाण नाभिकीय भौतिकी में पाया जाता है। द्रव्यमान एवं ऊर्जा की समतुल्यता के नियम, नाभिकीय ऊर्जा एवं उसके शक्ति स्रोत के रूप में उपयोग का आधार है। इस नियम का उपयोग करके, किसी नाभिकीय प्रक्रिया (क्षय अथवा अभिक्रिया) के $Q$-मान को प्रारंभिक एवं अंतिम द्रव्यमानों के पदों में व्यक्त किया जा सकता है।

4. (प्रति न्यूक्लियॉन) बंधन-ऊर्जा वक्र की प्रकृति यह दर्शाती है कि ऊष्माक्षेपी नाभिकीय अभिक्रियाएँ संभव हैं जो दो हलके नाभिकों के संलयन से या एक भारी नाभिक के माध्यमिक द्रव्यमान वाले दो नाभिकों के विखंडन में देखी जा सकती हैं।

5. संलयन के लिए हलके नाभिकों में पर्याप्त प्रारंभिक ऊर्जा होनी चाहिए ताकि वे कूलॉम विभव अवरोध को पार कर सकें। यही कारण है कि संलयन के लिए अत्युच्च ताप की आवश्यकता होती है।

6. यद्यपि (प्रति न्यूक्लियॉन) बंधन-ऊर्जा वक्र संतत है और इसमें धीरे-धीरे ही परिवर्तन आता है परंतु इसमें ${ }^{4} \mathrm{He},{ }^{16} \mathrm{O}$ आदि न्यूक्लाइडों के लिए शिखर होते हैं। यह परमाणु की तरह ही नाभिक में भी शैल संरचना की विद्यमानता का प्रमाण माना जाता है।

7. ध्यान दें कि इलेक्ट्रॉन-पॉजिट्रॉन एक कण-प्रतिकण युग्म है। इनके द्रव्यमान एकसमान हैं। इनके आवेशों के परिमाण समान परंतु विपरीत प्रकृति के होते हैं।

(यह पाया गया है कि जब एक इलेक्ट्रॉन एवं एक पॉजिट्रॉन एक साथ आते हैं तो एक-दूसरे का विलोपन (annihilation) कर देते हैं और $\gamma$-किरण फोटॉनों के रूप में ऊर्जा प्रदान करते हैं।)

8. रेडियोऐक्टिवता नाभिक के अस्थायित्व का संसूचन है। हलके नाभिकों में स्थायित्व के लिए न्यूट्रॉनो एवं प्रोट्रॉनों की संख्या का अनुपात लगभग $1: 1$ होना चाहिए। भारी नाभिकों के स्थायित्व के लिए यह अनुपात $3: 2$ होना चाहिए। (प्रोटॉनों के मध्य लगने वाले प्रतिकर्षण के प्रभाव के निरसन के लिए अधिक न्यूट्रॉनों की आवश्यकता होगी।) इन स्थायित्व अनुपातों को न रखने वाले नाभिक अस्थायी होते हैं। इन नाभिकों में न्यूट्रॉनों अथवा प्रोटॉनों की अधिकता होती है। वास्तव में, (सभी तत्वों के) ज्ञात समस्थानिकों के मात्र लगभग $10 %$ ही स्थायी हैं। अन्य नाभिक कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में बनाये जाते हैं (ये स्थायी नाभिकीय प्रजातियों पर $\alpha, \mathrm{p}, \mathrm{d}, \mathrm{n}$ अथवा अन्य कणों के प्रघात द्वारा बनाये जाते हैं।)। अस्थायी समस्थानिक विश्व में पदार्थों के खगोलीय प्रेक्षणों में भी अवलोकित किए जाते हैं।



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