अध्याय 06 कणों के निकाय तथा घूर्णी गति
6.1 भूमिका
पिछले अध्यायों में हमने मुख्य रूप से आदर्श बिन्दु कण (एक कण जिसे द्रव्यमान युक्त बिन्दु के रूप में व्यक्त किया जाए तथा इसका कोई आकार नहीं हो) की गति का अध्ययन किया था। फिर, यह मानते हुए कि परिमित आकार के पिण्डों की गति को बिन्दु कण की गति के पदों में व्यक्त किया जा सकता है, हमने उस अध्ययन के परिणामों को परिमित आकार के पिण्डों पर भी लागू कर दिया था।
दैनिक जीवन में जितने पिण्ड हमारे संपर्क में आते हैं वे सभी परिमित आकार के होते हैं। एक विस्तृत पिण्ड (परिमित आकार के पिण्ड) की गति को पूरे तौर पर समझने के लिए आमतौर पर उसका बिन्दुवत् आदर्श अपर्याप्त रहता है। इस अध्याय में हम इस प्रतिबंध के परे जाने की चेष्टा करेंगे और विस्तृत, पर परिमित पिण्डों की गति को समझने का प्रयास करेंगे। एक विस्तृत पिण्ड प्रथमतया कणों का एक निकाय है। अतः हम अपना विवेचन एक निकाय की गति से ही शुरू करना चाहेंगे। यहाँ कणों के निकाय का द्रव्यमान केन्द्र एक मुख्य अवध रणणा होगी। हम कणों के निकाय के द्रव्यमान केन्द्र की गति का वर्णन करेंगे और फिर, परिमित आकार के पिण्डों की गति को समझने में इस अवधारणा की उपयोगिता बतायेंगे।
बड़े पिण्डों से जुड़ी बहुत सी समस्याएं उनको दृढ़ पिण्ड मानकर हल की जा सकती हैं। आदर्श दृढ़ पिण्ड एक ऐसा पिण्ड है जिसकी एक सुनिश्चित और अपरिवर्तनीय आकृति होती है। इस प्रकार के ठोस के सभी कण युग्मों के बीच की दूरियाँ परिवर्तित नहीं होती। दृढ़ पिण्ड की इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि कोई भी वास्तविक पिण्ड पूरी तरह दृढ़ नहीं होता, क्योंकि सभी व्यावहारिक पिण्ड बलों के प्रभाव से विकृत हो जाते हैं। परन्तु ऐसी बहुत सी स्थितियाँ होती हैं जिनमें विकृतियाँ नगण्य होती हैं। अतः कई प्रकार की स्थितियों में यथा पहिये, लट्टू, स्टील के शहतीर और यहाँ तक कि अणु, ग्रह जैसे पिण्डों की गति का अध्ययन करते समय, हम ध्यान न देंगे कि उनमें विकृति आती है, वे मुड़ते हैं या कम्पन करते हैं। हम उन्हें दृढ़ पिण्ड मान कर उनकी गति का अध्ययन करेंगे।
Fig 6.1 नत-तल पर एक ब्लॉक की अधोमुखी स्थानांतरण (फिसलन) गति (ब्लॉक का प्रत्येक बिंदु यथा $P _{1}, P _{2} \ldots$ किसी भी क्षण समान गति में हैं)
6.1.1 एक दृढ़ पिण्ड में किस प्रकार की गतियाँ हो सकती हैं?
आइये, दृढ़ पिण्डों की गति के कुछ उदाहरणों से इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने की कोशिश करें। प्रथम एक आयताकार ब्लॉक पर विचार करें जो एक नत तल पर सीधा (बिना इधर-उधर हटे) नीचे की ओर फिसल रहा है। ब्लॉक एक दृढ़ पिण्ड लिया है। नत तल पर नीचे की ओर इसकी गति ऐसी है कि इसके सभी कण साथ-साथ चल रहे हैं, अर्थात् किसी क्षण सभी कण समान वेग से चलते हैं (चित्र 6.1)। यहाँ यह दृढ़ पिंड शुद्ध स्थानांतरण गति में है।
शुद्ध स्थानांतरण गति में किसी क्षण विशेष पर पिण्ड का प्रत्येक कण समान वेग से चलता है।
चित्र 6.2 नत तल पर नीचे की ओर लुढ़कता सिलिंडर (बेलन)। यह शुद्ध स्थानांतरण गति नहीं है। किसी क्षण पर बिन्दु $P _{1}, P _{2}$, $P _{3}$ एवं $P _{4}$ के अलग-अलग वेग हैं (जैसा कि तीर दर्शाते हैं।। वास्तव में सम्पर्क बिन्दु $P _{3}$ का वेग किसी भी क्षण शून्य है यदि बेलन बिना फिसले हुए लुढ़कता है।
आइये, अब उसी नत तल पर नीचे की ओर लुढ़कते हुए एक धातु या लकड़ी के बेलन की गति पर विचार करते हैं (चित्र 6.2)। यह दृढ़ पिण्ड (बेलन) नत तल के शीर्ष से उसकी तली तक स्थानांतरित होता है, अतः इसमें स्थानांतरण गति प्रतीत होती है। लेकिन चित्र 6.2 यह भी दर्शाता है कि इसके सभी कण क्षण विशेष पर एक ही वेग से नहीं चल रहे हैं। अतः पिण्ड शुद्ध स्थानांतरण गति में नहीं है। अतः इसकी गति स्थानांतरीय होने के साथ-साथ ‘कुछ और अलग’ भी है। यह ‘कुछ और अलग’ भी क्या है? यह समझने के लिए, आइये, हम एक ऐसा दृढ़ पिंड लें जिसको इस प्रकार व्यवरुद्ध कर दिया गया है कि यह स्थानांतरण गति न कर सके। किसी दृढ़ पिण्ड की स्थानांतरण गति को निरुद्ध करने की सर्व सामान्य विधि यह है कि उसे एक सरल रेखा के अनुदिश स्थिर कर दिया जाए। तब इस दृढ़ पिण्ड की एकमात्र संभावित गति घूर्णी गति होगी। वह सरल रेखा जिसके अनुदिश इस दृढ़ पिण्ड को स्थिर बनाया गया है इसकी घूर्णन-अक्ष कहलाती है। यदि आप अपने चारों ओर देखें तो आपको छत का पंखा, कुम्हार का चाक (चित्र 6.3(a) एवं (b)), विशाल चक्री-झूला (जॉयन्ट व्हील), मेरी-गो-राउण्ड जैसे अनेक ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ किसी अक्ष के परितः घूर्णन हो रहा हो।
(a)
(b)
चित्र 6.3 एक स्थिर अक्ष के परितः घूर्णन
(a) छत का पंखा
(b) कुम्हार का चाक
आइये, अब हम यह समझने की चेष्टा करें कि घूर्णन क्या है, और इसके क्या अभिलक्षण हैं? आप देख सकते हैं कि एक दृढ़ पिण्ड के एक स्थिर अक्ष के परितः घूर्णन में, पिण्ड का हर कण एक वृत्त में घूमता है। यह वृत्त अक्ष के लम्बवत् तल में है और इनका केन्द्र अक्ष पर अवस्थित है। चित्र 6.4 में एक
चित्र $6.4 \mathrm{Z}$-अक्ष के परितः एक दृढ़ पिण्ड का घूर्णन। पिण्ड का प्रत्येक बिन्दु $P _{1}$ या $P _{2}$ एक वृत्त पर घूमता है जिसका केन्द्र $\left(C _{1}\right.$ या $\left.C _{2}\right)$ अक्ष पर स्थित है। वृत्त की त्रिज्या $\left(r _{1}\right.$ या $\left.r _{2}\right)$ अक्ष से बिन्दु $\left(P _{1}\right.$ या $\left.P _{2}\right)$ की लम्बवत् दूरी है। अक्ष पर स्थित $P _{3}$ जैसा बिन्दु स्थिर रहता है।
स्थिर अक्ष (निर्देश फ्रेम की $z$-अक्ष) के परितः किसी दृढ़ पिण्ड की घूर्णन गति दर्शायी है। हम अक्ष से $r _{1}$ दूरी पर स्थित दृढ़ पिण्ड का कोई स्वेच्छ कण $\mathrm{P} _{1}$ लें। यह कण अक्ष के परितः $r _{1}$ त्रिज्या के वृत्त पर घूमता है जिसका केन्द्र $\mathrm{C} _{1}$ अक्ष पर स्थित है। यह वृत्त अक्ष के लम्बवत् तल में अवस्थित है। चित्र में एक दूसरा कण $\mathrm{P} _{2}$ भी दर्शाया गया है जो स्थिर अक्ष से $r _{2}$ दूरी पर है। कण $\mathrm{P} _{2}, r _{2}$ त्रिज्या के वृत्ताकार पथ पर चलता है जिसका केन्द्र अक्ष पर $\mathrm{C} _{2}$ है। यह वृत्त भी अक्ष के लम्बवत् तल में है। ध्यान दें कि $\mathrm{P} _{1}$ एवं $\mathrm{P} _{2}$ द्वारा बनाये गए वृत्त अलग-अलग तलों में हैं पर ये दोनों तल स्थिर अक्ष के लम्बवत् हैं। अक्ष पर स्थित किसी बिन्दु, जैसे $\mathrm{P} _{3}$ के लिए, $r=0$ । ये कण, पिण्ड के घूमते समय भी स्थित रहते हैं। यह अपेक्षित भी है क्योंकि घूर्णन अक्ष स्थिर है।
तथापि, घूर्णन के कुछ उदाहरणों में, अक्ष स्थिर नहीं भी रहती। इस प्रकार के घूर्णन के मुख्य उदाहरणों में एक है, एक ही स्थान पर घूमता लट्टू (चित्र 6.5(a))। (लट्टू की गति के संबंध में हमने यह मान लिया है कि यह एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित नहीं होता और इसलिए इसमें स्थानांतरण गति नहीं है।) अपने अनुभव के आधार पर हम यह जानते हैं कि इस प्रकार घूमते लट्टू की अक्ष, भूमि पर इसके सम्पर्क-बिन्दु से गुजरते अभिलम्ब के परितः एक शंकु बनाती है जैसा कि चित्र 6.5(a) में दर्शाया गया है। (ऊध्र्वाधर के परितः लट्टू की अक्ष का इस प्रकार घूमना पुरस्सरण कहलाता है)। ध्यान दें कि लट्टू का वह बिन्दु जहाँ यह धरातल को छूता है, स्थिर है। किसी भी क्षण, लट्टू की घूर्णन-अक्ष, इसके सम्पर्क बिन्दु से गुजरती है। इस प्रकार की घूर्णन गति का दूसरा सरल उदाहरण घूमने वाला मेज का पंखा या पीठिका-पंखा है। आपने देखा होगा कि इस प्रकार के पंखे की अक्ष, क्षैतिज तल में, दोलन गति (इधर से उध र घूमने की) करती है और यह गति ऊर्ध्वाधर रेखा के परितः होती है जो उस बिन्दु से गुजरती है जिस पर अक्ष की धुरी टिकी होती है (चित्र 6.5(b) में बिन्दु $\mathrm{O}$ )।
चित्र 6.5 (a) घूमता हुआ लट्टू (इसकी टिप $O$ का धरातल पर सम्पर्क बिन्दु स्थिर है)
चित्र 6.5 (b) दोलन करता हुआ मेज का पंखा जिसकी पंखुड़ियाँ घूर्णन गति में हैं। (पंखे की धुरी, बिन्दु $O$, स्थिर है)
जब पंखा घमता है और इसकी अक्ष इधर से उधर दोलन करती है तब भी यह बिन्दु स्थिर रहता है। घूर्णन गति के अधिक सार्विक मामलों में, जैसे कि लट्टू या पीठिका-पंखे के घूमने में, दृढ़ पिण्ड का एक बिन्दु स्थिर रहता है, न कि एक रेखा। इस मामले में अक्ष तो स्थिर नहीं है पर यह हमेशा एक स्थिर बिन्दु से गुजरती है। तथापि, अपने अध्ययन में, अधिकांशतः, हम ऐसी सरल एवं विशिष्ट घूर्णन गतियों तक सीमित रहेंगे जिनमें एक रेखा (यानि अक्ष) स्थिर रहती है। अतः जब तक अन्यथा न कहा जाय, हमारे लिए घूर्णी गति एक स्थिर अक्ष के परितः ही होगी।
चित्र 6.6(a) एक दृढ़ पिण्ड की गति जो शुद्ध स्थानांतरीय है
चित्र $6.6(\mathrm{~b})$ दृढ़ पिण्ड की ऐसी गति जो स्थानांतरीय और घूर्णी गतियों का संयोजन है
चित्र $6.6(a)$ एवं $6.6(b)$ एक ही पिण्ड की विभिन्न गतियाँ दर्शाते हैं। ध्यान दें, कि $P$ पिण्ड का कोई स्वेच्छ बिन्दु है; $O$ पिण्ड का द्रव्यमान केन्द्र है, जिसके विषय में अगले खण्ड में बताया गया है। यहाँ यह कहना पर्याप्त होगा कि बिन्दु $O$ के गमन पथ ही पिण्ड के स्थानांतरीय गमन पथ $T r _{1}$ एवं $T r _{2}$ हैं। तीन अलग-अलग क्षणों पर, बिन्दुओं $O$ एवं $P$ की स्थितियाँ चित्र $6.6(a)$ एवं $6.6(b)$ दोनों ही क्रमशः $O _{1}, O _{2}, O _{3}$, एवं $P _{1}, P _{2}, P _{3}$ द्वारा प्रदर्शित की गई हैं। चित्र 6.6(a) से यह स्पष्ट है कि शुद्ध स्थानांतरण की स्थिति में, पिण्ड के किन्हीं भी दो बिन्दुओं $O$ एवं $P$ के वेग, बराबर होते हैं। यह भी ज्ञातव्य है, कि इस स्थिति में $O P$, का दिग्विन्यास, यानि कि वह कोण जो $O P$ एक नियत दिशा (माना कि क्षैतिज) से बनाता है, समान रहता है अर्थात् $\alpha _{1}=\alpha _{2}=\alpha _{3}$ । चित्र $6.6(\mathrm{~b})$ स्थानांतरण एवं घूर्णन के संयोजन से निर्मित गति दर्शाता है। इस गति में बिन्दुओं $O$ एवं $P$ के क्षणिक वेगों के मान अलग-अलग हो सकते हैं और कोणों $\alpha _{1}, \alpha _{2}, \alpha _{3}$ के मान भी भिन्न हो सकते हैं। एक नत तल पर नीचे की ओर बेलन का लुढ़कना दो तरह की गतियों का संयोजन है- स्थानांतरण गति और एक स्थिर अक्ष के परितः घूर्णी गति। अतः, लुढ़कन गति के संदर्भ में जिस ‘कुछ और अलग’ का जिक्र पहले हमने किया था वह घूर्णी गति है। इस दृष्टिकोण से चित्र 6.6(a) एवं (b) को आप पर्याप्त शिक्षाप्रद पायेंगे। इन दोनों चित्रों में एक ही पिण्ड की गति, समान स्थानांतरीय गमन-पथ के अनुदिश दर्शाई गई है। चित्र 6.6(a) में दर्शाई गई गति शुद्ध स्थानांतरीय है, जबकि चित्र 6.6(b) में दर्शाई गई गति स्थानांतरण एवं घूर्णी दोनों प्रकार की गतियों का संयोजन है। (आप स्वयं भारी पुस्तक जैसा एक दृढ़ पिण्ड फेंक कर दर्शाई गई दोनों प्रकार की गतियाँ उत्पन्न करने की कोशिश कर सकते हैं।)
आइये अब हम प्रस्तुत खण्ड में वर्णित महत्वपूर्ण तथ्यों का सार फिर से आपको बतायें। एक ऐसा दृढ़ पिण्ड जो न तो किसी चूल पर टिका हो और न ही किसी रूप में स्थिर हो, दो प्रकार की गति कर सकता है - या तो शुद्ध स्थानांतरण या स्थानांतरण एवं घूर्णन गति का संयोजन। एक ऐसे दृढ़ पिण्ड की गति जो या तो चूल पर टिका हो या किसी न किसी रूप में स्थिर हो, घूर्णी गति होती है। घूर्णन किसी ऐसी अक्ष के परितः हो सकता है जो स्थिर हो (जैसे छत के पंखे में) या फिर एक ऐसी अक्ष के परितः जो स्वयं घूमती हो (जैसे इधर से उधर घूमते मेज के पंखे में)। इस अध्याय में हम एक स्थिर अक्ष के परितः होने वाली घूर्णी गति का ही अध्ययन करेंगे।
6.2 द्रव्यमान केन्द्र
पहले हम यह देखेंगे कि द्रव्यमान केन्द्र क्या है और फिर इसके महत्व पर प्रकाश डालेंगे। सरलता की दृष्टि से हम दो कणों के निकाय से शुरुआत करेंगे। दोनों कणों की स्थितियों को मिलाने वाली रेखा को हम $x$-अक्ष मानेंगे। (चित्र 6.7)
चित्र 6.7 दो कणों और उनके द्रव्यमान केन्द्र की स्थिति
माना कि दो कणों की, किसी मूल बिन्दु $\mathrm{O}$ से दूरियाँ क्रमशः $x _{1}$ एवं $x _{2}$ हैं। इन कणों के द्रव्यमान क्रमशः $m _{1}$ एवं $m _{2}$ हैं। इन दो कणों के निकाय का द्रव्यमान केन्द्र $C$ एक ऐसा बिन्दु होगा जिसकी $\mathrm{O}$ से दूरी, $X$ का मान हो
$$ \begin{equation*} X=\frac{m _{1} x _{1}+m _{2} x _{2}}{m _{1}+m _{2}} \tag{6.1} \end{equation*} $$
समीकरण (6.1) में $X$ को हम $x _{1}$ एवं $x _{2}$ का द्रव्यमान भारित माध्य मान सकते हैं। यदि दोनों कणों का द्रव्यमान बराबर हो तो $m _{1}=m _{2}=m$, तब
$$ X=\frac{m x _{1}+m x _{2}}{2 m}=\frac{x _{1}+x _{2}}{2} $$
इस प्रकार समान द्रव्यमान के दो कणों का द्रव्यमान केन्द्र ठीक उनके बीचोंबीच है।
अगर हमारे पास $n$ कण हों, जिनके द्रव्यमान क्रमशः $m _{1}$, $m _{2}, \ldots m _{n}$ हों और सबको $x$ - अक्ष के अनुदिश रखा गया हो, तो परिभाषा के अनुसार इन सब कणों का द्रव्यमान केन्द्र होगा $X=\frac{m _{1} x _{1}+m _{2} x _{2}+\ldots .+m _{n} x _{n}}{m _{1}+m _{2}+\ldots .+m _{n}}=\frac{\sum _{i=1}^{\mathrm{n}} m _{i} x}{\sum _{i=1}^{\mathrm{n}} m _{i}}=\frac{\sum m _{i} x _{i}}{\sum m _{i}}$
जहाँ $x _{1}, x _{2}, \ldots x _{\mathrm{n}}$ कणों की क्रमशः मूलबिन्दु से दूरियाँ हैं; $X$ भी उसी मूलबिन्दु से मापा गया है। संकेत $\sum$ (यूनानी भाषा का अक्षर सिग्मा ) संकलन को व्यक्त करता है जो इस मामले में $n$ कणों के लिए किया गया है। संकलन फल
$$ \sum m _{i}=M $$
निकाय का कुल द्रव्यमान है।
माना हमारे पास तीन कण हैं जो एक सरल रेखा में तो नहीं, पर एक समतल में रखे गए हैं। तब हम उस तल में जिसमें ये तीन कण रखे गए हैं $x$ - एवं $y$-अक्ष निर्धारित कर सकते हैं, और इन तीन कणों की स्थितियों को क्रमशः निर्देशांकों $\left(x _{1}, y _{1}\right)$, $\left(x _{2}, y _{2}\right)$ एवं $\left(x _{3}, y _{3}\right)$ द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। मान लीजिए कि इन तीन कणों के द्रव्यमान क्रमशः $m _{1}, m _{2}$ एवं $m _{3}$ हैं। इन तीन कणों के निकाय का द्रव्यमान केन्द्र $\mathrm{C}$ निर्देशांकों $(X, Y)$ द्वारा व्यक्त किया जायेगा जिनके मान हैं-
$$ \begin{align*} & X=\frac{m _{1} x _{1}+m _{2} x _{2}+m _{3} x _{3}}{m _{1}+m _{2}+m _{3}} \tag{6.3a} \\ & Y=\frac{m _{1} y _{1}+m _{2} y _{2}+m _{3} y _{3}}{m _{1}+m _{2}+m _{3}} \tag{6.3b} \end{align*} $$
समान द्रव्यमान वाले कणों के लिए $m=m _{1}=m _{2}=m _{3}$,
$$ \begin{aligned} & X=\frac{m\left(x _{1}+x _{2}+x _{3}\right)}{3 m}=\frac{x _{1}+x _{2}+x _{3}}{3} \\ & Y=\frac{m\left(y _{1}+y _{2}+y _{3}\right)}{3 m}=\frac{y _{1}+y _{2}+y _{3}}{3} \end{aligned} $$
अर्थात् समान द्रव्यमान वाले कणों के लिए तीन कणों का द्रव्यमान केन्द्र उनकी स्थिति बिन्दुओं को मिलाने से बने त्रिभुज के केन्द्रक पर होगा।
समीकरण (6.3a,b) के परिणामों को, सरलतापूर्वक, ऐसे $n$ कणों के एक निकाय के लिए सार्विक किया जा सकता है जो एक समतल में न होकर, अंतरिक्ष में फैले हों। इस तरह के निकाय का द्रव्यमान केन्द्र $(X, Y, Z)$ है, जहाँ
$$ \begin{align*} & X=\frac{\sum m _{i} x _{i}}{M} \tag{6.4a} \\ & Y=\frac{\sum m _{i} y _{i}}{M} \tag{6.4b} \end{align*} $$
और $Z=\frac{\sum m _{i} Z _{i}}{M}$
यहाँ $M=\sum m _{i}$ निकाय का कुल द्रव्यमान है। सूचक $i$ का मान 1 से $n$ तक बदलता है, $m _{i} i$ वें कण का द्रव्यमान है, और $i$ वें कण की स्थिति $\left(x _{\mathrm{i}}, y _{\mathrm{i}}, z _{\mathrm{i}}\right)$ से व्यक्त की गई है। यदि हम स्थिति-सदिश की अवधारणा का उपयोग करें तो समीकरण $(6.4 \mathrm{a}, \mathrm{b}, \mathrm{c})$ को संयोजित करके एकल समीकरण के रूप में लिखा जा सकता है। यदि $\mathbf{r} _{i}, i$ वें कण का स्थिति-वेक्टर है और $\mathbf{R}$ द्रव्यमान केन्द्र का स्थिति-सदिश है:
$$ \mathbf{r} _{i}=x _{i} \hat{\mathbf{i}}+y _{i} \hat{\mathbf{j}}+z _{i} \widehat{\mathbf{k}} $$
एवं $\mathbf{R}=X \hat{\mathbf{i}}+Y \hat{\mathbf{j}}+Z \hat{\mathbf{k}}$
तब $\mathbf{R}=\frac{\sum m _{i} \mathbf{r} _{i}}{M}$
समीकरण के दाहिनी ओर लिखा गया योग सदिश-योग है। सदिशों के इस्तेमाल से समीकरणों की संक्षिप्तता पर ध्यान दीजिए। यदि संदर्भ-फ्रेम (निर्देशांक निकाय) के मूल बिन्दु को, दिए गए कण-निकाय के द्रव्यमान केन्द्र में लिया जाए तो $\sum m _{i} \mathbf{r} _{i}=0$ ।
एक दृढ़ पिण्ड, जैसे कि मीटर-छड़ या फ्लाइ व्हील, बहुत पास-पास रखे गए कणों का निकाय है; अतः समीकरण (6.4a, $\mathrm{b}, \mathrm{c}, \mathrm{d})$ दृढ़ पिण्ड के लिए भी लागू होते हैं। इस प्रकार के पिण्डों में कणों (परमाणुओं या अणुओं) की संख्या इतनी
अधिक होती है, कि इन समीकरणों में, सभी पथक-पथक कणों को लेकर संयुक्त प्रभाव ज्ञात करना असंभव कार्य है। पर, क्योंकि कणों के बीच की दूरी बहुत कम है, हम पिण्ड में द्रव्यमान का सतत वितरण मान सकते हैं। यदि पिण्ड को $n$ छोटे द्रव्यमान खण्डों में विभाजित करें जिनके द्रव्यमान $\Delta m _{1}, \Delta m _{2} \ldots \Delta m _{n}$ हैं तथा $i$-वाँ खण्ड $\Delta m _{i}$ बिन्दु $\left(x _{i}, y _{i}, z _{i}\right)$ पर अवस्थित है ऐसा सोचें तो द्रव्यमान केन्द्र के निर्देशांकों के लगभग मान इस प्रकार व्यक्त करेंगे -
$X=\frac{\sum\left(\Delta m _{i}\right) x _{i}}{\sum \Delta m _{i}}, Y=\frac{\sum\left(\Delta m _{i}\right) y _{i}}{\sum \Delta m _{i}}, Z=\frac{\sum\left(\Delta m _{i}\right) z _{i}}{\sum \Delta m _{i}}$
यदि हम $n$ को वृहत्तर करें अर्थात् $\Delta m _{i}$ को और छोटा करें तो ये समीकरण काफी यथार्थ मान बताने लगेंगे। उस स्थिति में $i$-कणों के योग को हम समाकल से व्यक्त करेंगे।
$$ \begin{aligned} & \sum \Delta m _{i} \rightarrow \int \mathrm{d} m=M, \\ & \sum\left(\Delta m _{i}\right) x _{i} \rightarrow \int x \mathrm{~d} m, \\ & \sum\left(\Delta m _{i}\right) y _{i} \rightarrow \int y \mathrm{~d} m, \end{aligned} $$
और $\quad \sum\left(\Delta m _{i}\right) z _{i} \rightarrow \int z \mathrm{~d} m$
यहाँ $M$ पिण्ड का कुल द्रव्यमान है। द्रव्यमान केन्द्र के निर्देशांकों को अब हम इस प्रकार लिख सकते हैं
$$ \begin{equation*} X=\frac{1}{M} \int x \mathrm{~d} m, Y=\frac{1}{M} \int y \mathrm{~d} m \text { और } Z=\frac{1}{M} \int z d m \tag{6.5a} \end{equation*} $$
इन तीन अदिश व्यंजकों के तुल्य सदिश व्यंजक इस प्रकार लिख सकते हैं-
$$ \begin{equation*} \mathbf{R}=\frac{1}{M} \int \mathbf{r} \mathrm{d} m \tag{6.5b} \end{equation*} $$
यदि हम द्रव्यमान केन्द्र को अपने निर्देशांक निकाय का मूल-बिन्दु चुनें तो
$$ \mathbf{R}(x, y, z)=0 $$
अर्थात्, $\quad \int \mathbf{r} \mathrm{d} m=0$
या $\int x \mathrm{~d} m=\int y \mathrm{~d} m=\int z \mathrm{~d} m=0$
प्रायः हमें नियमित आकार के समांग पिण्डों; जैसे - वलयों, गोल-चकतियों, गोलों, छड़ों इत्यादि के द्रव्यमान केन्द्रों की गणना करनी पड़ती है। (समांग पिण्ड से हमारा तात्पर्य एक ऐसी वस्तु से है जिसमें द्रव्यमान का समान रूप से वितरण हो)। सममिति का विचार करके हम सरलता से यह दर्शा सकते हैं कि इन पिण्डों के द्रव्यमान केन्द्र उनके ज्यामितीय केन्द्र ही होते हैं। आइये, एक पतली छड़ पर विचार करें, जिसकी चौड़ाई और मोटाई (यदि इसकी अनुप्रस्थ काट आयताकार है) अथवा त्रिज्या (यदि छड़ बेलनाकार है), इसकी लम्बाई की तुलना में बहुत छोटी है। छड़ की लम्बाई $x$-अक्ष के अनुदिश रखें और मूल बिन्दु इसके ज्यामितीय केन्द्र पर ले लें तो परावर्तन सममिति की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि प्रत्येक $x$ पर स्थित प्रत्येक $d m$ घटक के समान $d m$ का घटक $-x$ पर भी स्थित होगा (चित्र 6.8)।
चित्र 6.8 एक पतली छड़ का द्रव्यमान केन्द्र ज्ञात करना
समाकल में हर जोड़े का योगदान शून्य है और इस कारण स्वयं $\int x \mathrm{~d} m$ का मान शून्य हो जाता है। समीकरण (6.6) बताती है कि जिस बिन्दु के लिए समाकल शून्य हो वह पिण्ड का द्रव्यमान केन्द्र है। अतः समांग छड़ का ज्यामितीय केन्द्र इसका द्रव्यमान केन्द्र है। इसे परावर्तन सममिति के प्रयोग से समझ सकते हैं।
सममिति का यही तर्क, समांग वलयों, चकतियों, गोलों और यहाँ तक कि वृत्ताकार या आयताकार अनुप्रस्थ काट वाली मोटी छड़ों के लिए भी लागू होगा। ऐसे सभी पिण्डों के लिए आप पायेंगे कि बिन्दु $(x, y, z)$ पर स्थित हर द्रव्यमान घटक के लिए बिन्दु $(-x,-y,-z)$ पर भी उसी द्रव्यमान का घटक लिया जा सकता है। (दूसरे शब्दों में कहें तो इन सभी पिण्डों के लिए मूल बिन्दु परावर्तन-सममिति का बिन्दु है)। परिणामतः, समीकरण (6.5 a) में दिए गए सभी समाकल शून्य हो जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि उपरोक्त सभी पिण्डों का द्रव्यमान केन्द्र उनके ज्यामितीय केन्द्र पर ही पड़ता है।
6.3 द्रव्यमान केन्द्र की गति
द्रव्यमान केन्द्र की परिभाषा जानने के बाद, अब हम इस स्थिति में हैं कि $n$ कणों के एक निकाय के लिए इसके भौतिक महत्व की विवेचना कर सकें। समीकरण (6.4d) को हम फिर से इस प्रकार लिख सकते हैं-
$$ \begin{equation*} M \mathbf{R}=\sum m _{i} \mathbf{r} _{i}=m _{1} \mathbf{r} _{1}+m _{2} \mathbf{r} _{2}+\ldots+m _{n} \mathbf{r} _{n} \tag{6.7} \end{equation*} $$
समीकरण के दोनों पक्षों को समय के सापेक्ष अवकलित करने पर-
$$ M \frac{\mathrm{d} \mathbf{R}}{\mathrm{d} t}=m _{1} \frac{\mathrm{d} \mathbf{r} _{1}}{\mathrm{~d} t}+m _{2} \frac{\mathrm{d} \mathbf{r} _{2}}{\mathrm{~d} t}+\ldots+m _{n} \frac{\mathrm{d} \mathbf{r} _{n}}{\mathrm{~d} t} $$
या
$$ \begin{equation*} M \mathbf{v}=m _{1} \mathbf{v} _{1}+m _{2} \mathbf{v} _{2}+\ldots+m _{n} \mathbf{v} _{n} \tag{6.8} \end{equation*} $$
जहाँ, $\mathbf{v} _{1}\left(=\mathrm{d} \mathbf{r} _{1} / \mathrm{d} t\right)$ प्रथम कण का वेग है, $\mathbf{v} _{2}\left(=\mathrm{d} \mathbf{r} _{2} / \mathrm{d} t\right)$ दूसरे कण का वेग है, इत्यादि और $\mathbf{V}=\mathrm{d} \mathbf{R} / \mathrm{d} t$ कणों के निकाय के द्रव्यमान केन्द्र का वेग है। ध्यान दें, कि हमने यह मान लिया है कि $m _{1}, m _{2}, \ldots$ आदि के मान समय के साथ बदलते नहीं हैं। इसलिए, समय के सापेक्ष समीकरणों को अवकलित करते समय हमने उनके साथ अचरांकों जैसा व्यवहार किया है।
समीकरण (6.8) को समय के सापेक्ष अवकलित करने पर-
$$ M \frac{\mathrm{d} \mathbf{V}}{\mathrm{d} t}=m _{1} \frac{\mathrm{d} \mathbf{v} _{1}}{\mathrm{~d} t}+m _{2} \frac{\mathrm{d} \mathbf{v} _{2}}{\mathrm{~d} t}+\ldots+m _{n} \frac{\mathrm{d} \mathbf{v} _{n}}{\mathrm{~d} t} $$
या
$$ \begin{equation*} M \mathbf{A}=m _{1} \mathbf{a} _{1}+m _{2} \mathbf{a} _{2}+\ldots+m _{n} \mathbf{a} _{n} \tag{6.9} \end{equation*} $$
जहाँ $\mathbf{a} _{1}\left(=\mathrm{d} \mathbf{v} _{1} / \mathrm{d} t\right)$ प्रथम कण का त्वरण है, $\mathbf{a} _{2}\left(=\mathrm{d} \mathbf{v} _{2} / \mathrm{d} t\right)$ दूसरे कण का त्वरण है, इत्यादि और $\mathbf{A}(=\mathrm{d} \mathbf{V} / \mathrm{d} t)$ कणों के निकाय के द्रव्यमान केन्द्र का त्वरण है।
अब, न्यूटन के द्वितीय नियमानुसार, पहले कण पर लगने वाला बल है $\mathbf{F} _{1}=m _{1} \mathbf{a} _{1}$, दूसरे कण पर लगने वाला बल है $\mathbf{F} _{2}=m _{2} \mathbf{a} _{2}$, आदि। तब समीकरण (6.9) को हम इस प्रकार भी लिख सकते हैं-
$$ \begin{equation*} M \mathbf{A}=\mathbf{F} _{1}+\mathbf{F} _{2}+\ldots+\mathbf{F} _{n} \tag{6.10} \end{equation*} $$
अतः कणों के निकाय के कुल द्रव्यमान को द्रव्यमान केन्द्र के त्वरण से गुणा करने पर हमें उस कण-निकाय पर लगने वाले सभी बलों का सदिश योग प्राप्त होता है।
ध्यान दें कि जब हम पहले कण पर लगने वाले बल $\mathbf{F} _{1}$ की बात करते हैं, तो यह कोई एकल बल नहीं है, बल्कि, इस कण पर लगने वाले सभी बलों का सदिश योग है। यही बात हम अन्य कणों के विषय में भी कह सकते हैं। प्रत्येक कण पर लगने वाले उन बलों में कुछ बाह्य बल होंगे जो निकाय से बाहर के पिण्डों द्वारा आरोपित होंगे और कुछ आंतरिक बल होंगे जो निकाय के अंदर के कण एक दूसरे पर आरोपित करते हैं। न्यूटन के तृतीय नियम से हम जानते हैं कि ये आंतरिक बल सदैव बराबर परिमाण के और विपरीत दिशा में काम करने वाले जोड़ों के रूप में पाए जाते हैं और इसलिए समीकरण (6.10) में बलों को जोड़ने में इनका योग शून्य हो जाता है। समीकरण में केवल बाहय बलों का योगदान रह जाता है। समीकरण (6.10) को फिर इस प्रकार लिख सकते हैं
$$ \begin{equation*} M \mathbf{A}=\mathbf{F} _{e x t} \tag{6.11} \end{equation*} $$
जहाँ $\mathbf{F} _{\text {ext }}$ निकाय के कणों पर प्रभावी सभी बाह्य बलों का सदिश योग है।
समीकरण (6.11) बताती है कि कणों के किसी निकाय का द्रव्यमान केन्द्र इस प्रकार गति करता है मानो निकाय का संपूर्ण द्रव्यमान उसमें संकेन्द्रित हो और सभी बाह्य बल उसी पर आरोपित हों।
ध्यान दें कि द्रव्यमान केन्द्र की गति के विषय में जानने के लिए, कणों के निकाय के आंतरिक बलों के विषय में कोई जानकारी नहीं चाहिए, इस उद्देश्य के लिए हमें केवल बाहय बलों को ही जानने की आवश्यकता है।
समीकरण (6.11) व्युत्पन्न करने के लिए हमें कणों के निकाय की प्रकृति सुनिश्चित नहीं करनी पड़ी। निकाय कणों का ऐसा संग्रह भी हो सकता है जिसमें तरह-तरह की आंतरिक गतियाँ हों, और शुद्ध स्थानांतरण गति करता हुआ, अथवा, स्थानांतरण एवं घूर्णी गति के संयोजन युक्त एक दृढ़ पिण्ड भी हो सकता है। निकाय कैसा भी हो और इसके अवयवी कणों में किसी भी प्रकार की गतियाँ हों, इसका द्रव्यमान केन्द्र समीकरण (6.11) के अनुसार ही गति करेगा।
परिमित आकार के पिण्डों को एकल कणों की तरह व्यवहार में लाने के बजाय अब हम उनको कणों के निकाय की तरह व्यवहार में ला सकते हैं। हम उनकी गति का शुद्ध स्थानांतरीय अवयव यानि निकाय के द्रव्यमान केन्द्र की गति ज्ञात कर सकते हैं। इसके लिए, बस, पूरे निकाय का कुल द्रव्यमान और निकाय पर लगे सभी बाहय बलों को निकाय के द्रव्यमान केन्द्र पर प्रभावी मानना होगा।
यही कार्यविधि हमने पिण्डों पर लगे बलों के विश्लेषण और उनसे जुड़ी समस्या के हल के लिए अपनाई थी। हालांकि, इसके लिए कोई स्पष्ट कारण नहीं बताया गया था। अब हम यह समझ सकते हैं, कि पूर्व के अध्ययनों में, हमने बिन कहे ही यह मान लिया था कि निकाय में घूर्णी गति, एवं
कणों में आंतरिक गति या तो थी ही नहीं और यदि थी तो नगण्य थी। आगे से हमें यह मानने की आवश्यकता नहीं रहेगी। न केवल हमें अपनी पहले अपनाई गई पद्धति का औचित्य समझ में आ गया है, वरन्, हमने वह विधि भी ज्ञात कर ली है जिसके द्वारा (i) ऐसे दृढ़ पिण्ड की जिसमें घूर्णी गति भी हो, (ii) एक ऐसे निकाय की जिसके कणों में तरह-तरह की आंतरिक गतियाँ हों, स्थानांतरण गति को अलग करके समझा समझाया जा सकता है।
चित्र 6.12 किसी प्रक्षेप्य के खण्डों का द्रव्यमान केन्द्र विस्फोट के बाद भी उसी परवलयाकार पथ पर चलता हुआ पाया जायेगा जिस पर यह विस्फोट न होने पर चलता।
चित्र 6.12 समीकरण (6.11) को स्पष्ट करने वाला एक अच्छा उदाहरण है। अपने निर्धारित परवलयाकार पथ पर चलता हुआ एक प्रक्षेप्य हवा में फट कर टुकड़ों में बिखर जाता है। विस्फोट कारक बल आंतरिक बल है इसलिए उनका द्रव्यमान केन्द्र की गति पर कोई प्रभाव नहीं होता। प्रक्षेप्य और उसके खण्डों पर लगने वाला कुल बाह्य बल विस्फोट के बाद भी वही है जो विस्फोट से पहले था, यानि पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल। अतः, बाहय बल के अंतर्गत प्रक्षेप्य के द्रव्यमान केन्द्र का परवलयाकार पथ विस्फोट के बाद भी वही बना रहता जो विस्फोट न होने की स्थिति में होता।
6.4 कणों के निकाय का रेखीय संवेग
आपको याद होगा कि रेखीय संवेग की परिभाषा करने वाला व्यंजक है
$$ \begin{equation*} \mathbf{p}=m \mathbf{v} \tag{6.12} \end{equation*} $$
और, एकल कण के लिए न्यूटन के द्वितीय नियम को हम सांकेतिक भाषा में लिख सकते हैं
$$ \begin{equation*} \mathbf{F}=\frac{\mathrm{d} \mathbf{p}}{\mathrm{d} t} \tag{6.13} \end{equation*} $$
जहाँ $\mathbf{F}$ कण पर आरोपित बल है। आइये, अब हम $n$ कणों के एक निकाय पर विचार करें जिनके द्रव्यमान क्रमशः $m _{1}$, $m _{2}, \ldots m _{\mathrm{n}}$ है और वेग क्रमशः $\mathbf{v} _{1}, \mathbf{v} _{2}, \ldots \ldots . \mathbf{v} _{n}$ हैं। कण, परस्पर अन्योन्य क्रियारत हो सकते हैं और उन पर बाहय बल भी लगे हो सकते हैं। पहले कण का रेखीय संवेग $m _{1} \mathbf{v} _{1}$, दूसरे कण का रेखीय संवेग $m _{2} \mathbf{v} _{2}$ और इसी प्रकार अन्य कणों के रेखीय संवेग भी हैं।
$n$ कणों के इस निकाय का कुल रेखीय संवेग, एकल कणों के रेखीय संवेगों के सदिश योग के बराबर है।
$$ \begin{align*} & \mathbf{P}=\mathbf{P} _{1}+\mathbf{P} _{2}+\ldots+\mathbf{P} _{n} \\ & =m _{1} \mathbf{v} _{1}+m _{2} \mathbf{v} _{2}+\ldots+m _{n} \mathbf{v} _{n} \tag{6.14} \end{align*} $$
इस समीकरण की समीकरण (6.8) से तुलना करने पर,
$$ \begin{equation*} \mathbf{P}=M \mathbf{V} \tag{6.15} \end{equation*} $$
अतः कणों के एक निकाय का कुल रेखीय संवेग, निकाय
के कुल द्रव्यमान तथा इसके द्रव्यमान केन्द्र के वेग के गुणनफल के बराबर होता है। समीकरण (6.15) का समय के सापेक्ष अवकलन करने पर,
$\frac{\mathrm{d} \mathbf{P}}{\mathrm{d} t}=M \frac{\mathrm{d} \mathbf{V}}{\mathrm{d} t}=M \mathbf{A}$
समीकरण (6.16) एवं समीकरण (6.11) की तुलना करने
पर
$\frac{\mathrm{d} \mathbf{P}}{\mathrm{d} t}=\mathbf{F} _{e x t}$
यह गति के न्यूटन के द्वितीय नियम का कथन है जो कणों के निकाय के लिए लागू किया गया है।
यदि कणों के किसी निकाय पर लगे बाहय बलों का योग शून्य हो, तो समीकरण (6.17) के आधार पर,
$$ \begin{equation*} \frac{\mathrm{d} \mathbf{P}}{\mathrm{d} t}=0 \text { या } \mathbf{P}=\text { अचरांक } \tag{6.18a} \end{equation*} $$
अतः जब कणों के किसी निकाय पर लगे बाहय बलों का योग शून्य होता है तो उस निकाय का कुल रेखीय संवेग अचर रहता है। यह कणों के एक निकाय के लिए लागू होने वाला रेखीय संवेग के संरक्षण का नियम है। समीकरण (6.15) के कारण, इसका अर्थ यह भी होता है कि जब निकाय पर लगने वाला कुल बाह्य बल शून्य होता है तो इसके द्रव्यमान केन्द्र का वेग परिवर्तित नहीं होता। (इस अध्याय में कणों के निकाय का अध्ययन करते समय हम हमेशा यह मान कर चलेंगे कि निकाय का कुल द्रव्यमान अचर रहता है।)
ध्यान दें, कि आंतरिक बलों के कारण, यानि उन बलों के कारण जो कण एक दूसरे पर आरोपित करते हैं, किसी विशिष्ट
कण का गमन-पथ काफी जटिल हो सकता है। फिर भी, यदि निकाय पर लगने वाला कुल बाह्य बल शून्य हो तो द्रव्यमान केन्द्र अचर-वेग से ही चलता है, अर्थात्, मुक्त कण की तरह समगति से सरल रेखीय पथ पर चलता है।
सदिश समीकरण (6.18a) जिन अदिश समीकरणों के तुल्य है, वे हैं-
$$ \begin{equation*} \boldsymbol{P} _{x}=\boldsymbol{C} _{1}, \boldsymbol{P} _{\boldsymbol{y}}=C _{2} \text { तथा } \boldsymbol{P} _{z}=C _{3} \tag{6.18b} \end{equation*} $$
यहाँ $\mathrm{P} _{x}, \mathrm{P} _{y}, \mathrm{P} _{z}$ कुल रेखीय संवेग सदिश $\mathrm{P}$ के, क्रमश: $x, y$ एवं $z$ दिशा में अवयव हैं और $C _{1}, C _{2}, C _{3}$ अचरांक हैं।
(a)
(b) चित्र 6.13 (a) एक भारी नाभिक रेडियम (Ra) एक अपेक्षाकृत हलके नाभिक रेडॉन $(R n)$ एवं एक अल्फा-कण (हीलियम परमाणु का नाभिक, $\mathrm{He}$ ) में विखंडित होता है। निकाय का द्रव्यमान केन्द्र समगति में है।
(b) द्रव्यमान केन्द्र की स्थिर अवस्था में उसी भारी कण रेडियम (Ra) का विखंडन। दोनों उत्पन्न हुए कण एक दूसरे की विपरीत दिशा में गतिमान होते हैं।
एक उदाहरण के रूप में, आइये, रेडियम के नाभिक जैसे किसी गतिमान अस्थायी नाभिक के रेडियोएक्टिव क्षय पर विचार करें। रेडियम का नाभिक एक रेडन के नाभिक और एक अल्फा कण में विखंडित होता है। क्षय-कारक बल निकाय के आंतरिक बल हैं और उस पर प्रभावी बाहय बल नगण्य हैं। अतः निकाय का कुल रेखीय संवेग, क्षय से पहले और क्षय के बाद समान रहता है। विखंडन में उत्पन्न हुए दोनों कण, रेडन का नाभिक एवं अल्फा-कण, विभिन्न दिशाओं में इस प्रकार चलते हैं कि उनके द्रव्यमान केन्द्र का गमन-पथ वही बना रहता है जिस पर क्षयित होने से पहले मूल रेडियम नाभिक गतिमान था (चित्र 6.13(a))।
यदि हम एक ऐसे संदर्भ फ्रेम से इस क्षय प्रक्रिया को देखें जिसमें द्रव्यमान केन्द्र स्थिर हो, तो इसमें शामिल कणों की गति विशेषकर सरल दिखाई पड़ती है; उत्पन्न हुए दोनों कण एक दूसरे की विपरीत दिशा में इस प्रकार गतिमान होते हैं कि उनका द्रव्यमान केन्द्र स्थिर रहे, जैसा चित्र 6.13 (b) में दर्शाया गया है।
(a)
(b) चित्र 6.14 (a) बायनरी निकाय बनाते दो नक्षत्रों $S _{1}$ एवं $S _{2}$ के गमन पथ, जो क्रमशः बिन्दु रेखा एवं सतत रेखा द्वारा दर्शाये गए हैं। इनका द्रव्यमान केन्द्र $C$ समगति में है।
(b) उसी बायनरी निकाय की गति जब द्रव्यमान केन्द्र $C$ स्थिर है।
कणों की निकाय संबंधी बहुत सी समस्याओं में जैसा ऊपर बताई गई रेडियोएक्टिव क्षय संबंधी समस्या में दर्शाया है, प्रयोगशाला के संदर्भ-फ्रेम की अपेक्षा, द्रव्यमान-केन्द्र के फ्रेम में कार्य करना आसान होता है।
खगोलिकी में युग्मित (बायनरी) नक्षत्रों का पाया जाना एक आम बात है। यदि कोई बाह्य बल न लगा हो तो किसी युग्मित नक्षत्र का द्रव्यमान केन्द्र एक मुक्त-कण की तरह चलता है जैसा चित्र 6.14 (a) में दर्शाया गया है। चित्र में समान द्रव्यमान वाले दोनों नक्षत्रों के गमन पथ भी दर्शाये गए हैं; वे काफी जटिल दिखाई पड़ते हैं। यदि हम द्रव्यमान केन्द्र के फ्रेम से देखें तो हम पाते हैं कि ये दोनों नक्षत्र द्रव्यमान केन्द्र के परितः एक वृत्ताकार पथ पर गतिमान हैं जबकि द्रव्यमान केन्द्र स्थिर है। ध्यान दें, कि दोनों नक्षत्रों को वृत्ताकार पथ के व्यास के विपरीत सिरों पर बने रहना है (चित्र 6.14(b))। इस प्रकार इन नक्षत्रों का गमन पथ दो गतियों के संयोजन से निर्मित होता है (i) द्रव्यमान केन्द्र की सरल रेखा में समांग गति (ii) द्रव्यमान केन्द्र के परितः नक्षत्रों की वृत्ताकार कक्षाएँ।
उपरोक्त दो उदाहरणों से दृष्टव्य है, कि निकाय के एकल कणों की गति को द्रव्यमान केन्द्र की गति और द्रव्यमान केन्द्र के परितः गति में अलग करके देखना एक अत्यंत उपयोगी तकनीक है जिससे निकाय की गति को समझने में सहायता मिलती है।
6.5 दो सदिशों का सदिश गुणनफल
हम सदिशों एवं भौतिकी में उनके उपयोग के विषय में पहले से ही जानते हैं। अध्याय 5 (कार्य, ऊर्जा, शक्ति) में हमने दो
सदिशों के अदिश गुणन की परिभाषा की थी। एक महत्वपूर्ण भौतिक राशि, कार्य, दो सदिश राशियों, बल एवं विस्थापन के अदिश गुणनफल द्वारा परिभाषित की जाती है।
अब हम दो सदिशों का एक अन्य प्रकार का गुणन परिभाषित करेंगे। यह सदिश गुणन है। घूर्णी गति से संबंधित दो महत्वपूर्ण राशियाँ, बल आघूर्ण एवं कोणीय संवेग, सदिश गुणन के रूप में परिभाषित की जाती हैं।
सदिश गुणन की परिभाषा
दो सदिशों $\mathbf{a}$ एवं $\mathbf{b}$ का सदिश गुणनफल एक ऐसा सदिश $\mathbf{c}$ है
(i) जिसका परिमाण $c=a b \sin \theta$ है, जहाँ $a$ एवं $b$ क्रमशः $\mathbf{a}$ एवं $\mathbf{b}$ के परिमाण हैं और $\theta$ दो सदिशों के बीच का कोण है।
(ii) $\mathbf{c}$ उस तल के अभिलम्बवत् है जिसमें $\mathbf{a}$ एवं $\mathbf{b}$ अवस्थित हैं।
(iii) यदि हम एक दक्षिणावर्त्त पेंच लें और इसको इस प्रकार रखें कि इसका शीर्ष $\mathbf{a}$ एवं $\mathbf{b}$ के तल में हो और लम्बाई इस तल के अभिलम्बवत् हो और फिर शीर्ष को $\mathbf{a}$ से $\mathbf{b}$ की ओर घुमायें, तो पेंच की नोंक $\mathbf{c}$ की दिशा में आगे बढ़ेगा। दक्षिणावर्त पेंच का नियम चित्र $6.15 \mathrm{a}$ में दर्शाया गया है। यदि आप सदिशों $\mathbf{a}$ एवं $\mathbf{b}$ के तल के अभिलम्बवत् रेखा के परितः अपने दाहिने हाथ की उंगलियों को इस प्रकार मोड़ें कि उनके सिरे $\mathbf{a}$ से $\mathbf{b}$ की ओर इंगित करें, तब इस हाथ का फैला हुआ अंगूठा $\mathbf{c}$ की दिशा बतायेगा जैसा चित्र $6.15 \mathrm{~b}$ में दर्शाया गया है।
(a)
(b) चित्र 6.15(a) दो सदिशों के सदिश गुणनफल की दिशा निर्धारित करने के लिए दक्षिणावर्त पेंच का नियम
(b) सदिश गुणनफल की दिशा बताने के लिए दाहिने हाथ का नियम दाहिने हाथ के नियम को सरल रूप में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं : अपने दाहिने हाथ की हथेली को $\mathbf{a}$ से $\mathbf{b}$ की ओर संकेत करते हुए खोलो। आपके फैले हुए अंगूठे का सिरा $\mathbf{c}$ की दिशा बतायेगा।
यह याद रखना चाहिए कि $\mathbf{a}$ और $\mathbf{b}$ के बीच दो कोण बनते हैं। चित्र 6.15 (a) एवं (b) में इनमें से कोण $\theta$ दर्शाया गया है, स्पष्टतः दूसरा $\left(360^{\circ}-\theta\right.$ है। उपरोक्त नियमों में से कोई भी नियम लगाते समय $\mathbf{a}$ एवं $\mathbf{b}$ के बीच का छोटा कोण $\left(<180^{\circ}\right)$ लेकर नियम लगाना चाहिए। यहाँ यह $\theta$ है।
क्योंकि सदिश गुणन में, गुणा व्यक्त करने के लिए क्रॉस
( $x$ ) चिह्न का उपयोग किया जाता है इसलिए इस गुणन को क्रॉस गुणन भी कहते हैं।
- ध्यान दें कि दो सदिशों का अदिश गुणन क्रमविनियम नियम का पालन करता है जैसा पहले बताया गया है $\mathbf{a} . \mathbf{b}=\mathbf{b} . \mathbf{a}$ परन्तु, सदिश गुणन क्रमविनिमय नियम का पालन नहीं करता, अर्थात् $\mathbf{a} \times \mathbf{b} \neq \mathbf{b} \times \mathbf{a}$
$\mathbf{a} \times \mathbf{b}$ एवं $\mathbf{b} \times \mathbf{a}$ के परिमाण समान $(a b \sin \theta)$ हैं ; और ये दोनों ही उस तल के अभिलम्बवत् हैं जिसमें $\mathbf{a}$ एवं $\mathbf{b}$ विद्यमान है। लेकिन, $\mathbf{a} \times \mathbf{b}$ के लिए दक्षिणावर्त पेंच को $\mathbf{a}$ से $\mathbf{b}$ की ओर घुमाना होता है जबकि $\mathbf{b} \times \mathbf{a}$ के लिए $\mathbf{b}$ से $\mathbf{a}$ की ओर। परिणामतः ये दो सदिश विपरीत दिशा में होते हैं
$\mathbf{a} \times \mathbf{b}=-\mathbf{b} \times \mathbf{a}$
- सदिश गुणन का दूसरा रोचक गुण है इसका परावर्तन-गत व्यवहार। परावर्तन के अंतर्गत (यानि दर्पण में प्रतिबिम्ब लेने पर) हमें $x \rightarrow-x, y \rightarrow-y$ और $z \rightarrow-z$ मिलते हैं। परिणामस्वरूप सभी सदिशों के अवयवों के चिह्न बदल जाते हैं और इस प्रकार $a \rightarrow-a, b \rightarrow-b$ । देखें कि परावर्तन में $\mathbf{a} \times \mathbf{b}$ का क्या होता है?
$$ \mathbf{a} \times \mathbf{b} \rightarrow(-\mathbf{a}) \times(-\mathbf{b})=\mathbf{a} \times \mathbf{b} $$
अतः परावर्तन से $\mathbf{a} \times \mathbf{b}$ का चिह्न नहीं बदलता।
- अदिश एवं सदिश दोनों ही गुणन सदिश-योग पर वितरणशील होते हैं। अत:
$$ \begin{aligned} & \mathbf{a} .(\mathbf{b}+\mathbf{c})=\mathbf{a} . \mathbf{b}+\mathbf{a} . \mathbf{c} \\ & \mathbf{a} \times(\mathbf{b}+\mathbf{c})=\mathbf{a} \times \mathbf{b}+\mathbf{a} \times \mathbf{c} \end{aligned} $$
- हम $\mathbf{c}=\mathbf{a} \times \mathbf{b}$ को अवयवों के रूप में भी लिख सकते हैं। इसके लिए हमें कुछ सदिश गुणनफलों की जानकारी आवश्यक होगी :
(i) $\mathbf{a} \times \mathbf{a}=\mathbf{0}$ (0 एक शून्य सदिश है, यानि शून्य परिमाण वाला सदिश )
स्पष्टतः ऐसा इसलिए है क्योंकि $\mathbf{a} \times \mathbf{a}$ का परिमाण $a^{2} \sin 0^{\circ}=0$ ।
इससे हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि
(i) $\hat{\mathbf{i}} \times \hat{\mathbf{i}}=\mathbf{0}, \hat{\mathbf{j}} \times \hat{\mathbf{j}}=\mathbf{0}, \hat{\mathbf{k}} \times \hat{\mathbf{k}}=\mathbf{0}$
(ii) $\hat{\mathbf{i}} \times \hat{\mathbf{j}}=\hat{\mathbf{k}}$
ध्यान दें, कि $\hat{\mathbf{i}} \times \hat{\mathbf{j}}$ का परिमाण $\sin 90^{\circ}$ या 1 है, चूंकि $\hat{\mathbf{i}}$ और $\hat{\mathbf{j}}$ दोनों का परिमाण 1 है और उनके बीच $90^{\circ}$ का कोण है। अतः $\hat{\mathbf{i}} \times \hat{\mathbf{j}}$ एक एकांक सदिश है। $\hat{\mathbf{i}}$ और $\hat{\mathbf{j}}$ के तल के अभिलम्बवत् दक्षिणावर्त पेंच के नियमानुसार ज्ञात करें तो इनसे संबंधित यह एकांक सदिश $\hat{\mathbf{k}}$ है। इसी प्रकार आप यह भी पुष्ट कर सकते हैं कि
$$ \hat{\mathbf{j}} \times \hat{\mathbf{k}}=\hat{\mathbf{i}} \text { और } \hat{\mathbf{k}} \times \hat{\mathbf{i}}=\hat{\mathbf{j}} $$
सदिश गुणन के क्रम विनिमेयता गुण के आधार पर हम कह सकते हैं-
$$ \hat{\mathbf{j}} \times \hat{\mathbf{i}}=\hat{\mathbf{k}}, \quad \hat{\mathbf{k}} \times \hat{\mathbf{j}}=\hat{\mathbf{i}}, \quad \hat{\mathbf{i}} \times \hat{\mathbf{k}}=-\hat{\mathbf{j}} $$
ध्यान दें कि उपरोक्त सदिश गुणन व्यंजकों में यदि $\hat{\mathbf{i}}, \hat{\mathbf{j}}, \hat{\mathbf{k}}$ चक्रीय क्रम में आते हैं तो सदिश गुणन धनात्मक है और यदि चक्रीय क्रम में नहीं आते हैं तो सदिश गुणन ऋणात्मक है।
अब,
$\mathbf{a} \times \mathbf{b}=\left(a _{x} \hat{\mathbf{i}}+a _{y} \hat{\mathbf{j}}+a _{z} \hat{\mathbf{k}}\right) \times\left(b _{x} \hat{\mathbf{i}}+b _{y} \hat{\mathbf{j}}+b _{z} \hat{\mathbf{k}}\right)$
$=a _{x} b _{y} \hat{\mathbf{k}}-a _{x} b _{z} \hat{\mathbf{j}}-a _{y} b _{x} \hat{\mathbf{k}}+a _{y} b _{z} \hat{\mathbf{i}}+a _{z} b _{x} \hat{\mathbf{j}}-a _{z} b _{y} \hat{\mathbf{i}}$
$=\left(a _{y} b _{z}-a _{z} b _{y}\right) \hat{\mathbf{i}}+\left(a _{z} b _{x}-a _{x} b _{z}\right) \hat{\mathbf{j}}+\left(a _{x} b _{y}-a _{y} b _{x}\right) \hat{\mathbf{k}}$
उपरोक्त व्यंजक प्राप्त करने में हमने सरल सदिश गुणनफलों का उपयोग किया है। $\mathbf{a} \times \mathbf{b}$ को व्यक्त करने वाले व्यंजक को हम एक डिटरमिनेंट (सारणिक) के रूप में लिख सकते हैं जो याद रखने में आसान है।
$\mathbf{a} \times \mathbf{b}=\left|\begin{array}{ccc}\hat{\mathbf{i}} & \hat{\mathbf{j}} & \hat{\mathbf{k}} \ a _{x} & a _{y} & a _{z} \ b _{x} & b _{y} & b _{z}\end{array}\right|$
6.6 कोणीय वेग और इसका रेखीय वेग से संबंध
इस अनुभाग में हम अध्ययन करेंगे कि कोणीय वेग क्या है, और घूर्णी गति में इसकी क्या भूमिका है? हम यह समझ चुके हैं कि घूर्णी गति में पिण्ड का प्रत्येक कण एक वृत्ताकार पथ पर चलता है। किसी कण का रेखीय वेग उसके कोणीय वेग से संबंधित
चित्र 6.16 एक स्थिर अक्ष के परितः घूर्णन। स्थिर $(\mathrm{z}$-) अक्ष के परितः घूमते दृढ़ पिण्ड के किसी कण $P$ का वृत्ताकार पथ पर चलना। वृत्त का केन्द्र $(C)$, अक्ष पर अवस्थित है।
होता है। इन दो राशियों के बीच का संबंध एक सदिश गुणन से व्यक्त होता है। सदिश गुणन के विषय में आपने पिछले अनुभाग में पढ़ा है।
आइये चित्र 6.4 पुन: देंखे। जैसा ऊपर बताया गया है, किसी दृढ़ पिण्ड की एक स्थिर अक्ष के परितः घूर्णी गति में, पिण्ड का प्रत्येक कण एक वृत्त में गति करता है। ये वृत्त अक्ष के लम्बवत् समतल में होते हैं जिनके केन्द्र अक्ष के ऊपर अवस्थित होते हैं। चित्र 6.16 में हमने चित्र 6.4 को फिर से बनाया है और इसमें स्थिर $(z-)$ अक्ष के परितः घूमते, दृढ़ पिण्ड के, एक विशिष्ट कण को बिन्दु $P$ पर दर्शाया है। यह कण एक वृत्त बनाता है जिसका केन्द्र $\mathrm{C}$, अक्ष पर स्थित है। वृत्त की त्रिज्या $r$ है, जो बिन्दु $\mathrm{P}$ की अक्ष से लम्बवत् दूरी है। चित्र में हमने $\mathrm{P}$ बिन्दु पर कण का रेखीय वेग सदिश $\mathbf{v}$ भी दर्शाया है। इसकी दिशा वृत्त के $\mathrm{P}$ बिन्दु पर खींची गई स्पर्श रेखा के अनुदिश है।
माना कि $\Delta t$ समय अंतराल के बाद कण की स्थिति $\mathrm{P}^{\prime}$ है (चित्र 6.16)। कोण $\mathrm{PCP}^{\prime}, \Delta t$ समय में कण के कोणीय विस्थापन $\Delta \theta$ का माप है। $\Delta t$ समय में कण का औसत कोणीय वेग $\Delta \theta / \Delta t$ है। जैसे-जैसे $\Delta t$ का मान घटाते हुए शून्योन्मुख करते हैं, अनुपात $\Delta \theta / \Delta t$ का मान एक सीमांत मान प्राप्त करता है जो $\mathrm{P}$ बिन्दु पर कण का तात्क्षणिक कोणीय वेग $\mathrm{d} \theta / \mathrm{d} t$ है। तात्क्षणिक कोणीय वेग को हम $\omega$ से व्यक्त करते हैं। वृत्तीय गति के अध्ययन से हम जानते हैं कि रेखीय वेग सदिश का परिमाण $v$ एवं कोणीय वेग $\omega$ के बीच संबंध एक सरल समीकरण $v=\omega r$ द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, जहाँ $r$ वृत्त की त्रिज्या है।
हमने देखा कि किसी दिए गए क्षण पर समीकरण $v=\omega r$ दृढ़ पिण्ड के सभी कणों पर लागू होती है। अतः स्थिर अक्ष से $r _{i}$ दूरी पर स्थित किसी कण का, किसी क्षण पर, रेखीय वेग $v _{i}$ होगा
$$ \begin{equation*} U _{i}=\omega r _{i} \tag{6.19} \end{equation*} $$
यहाँ भी सूचकांक $i$ का मान 1 से $n$ तक बदलता है, जहाँ $n$ पिण्ड के कुल कणों की संख्या है।
अक्ष पर स्थित कणों के लिए $r=0$, और इसलिए $v=a r=0$ । अतः अक्ष पर स्थित कण रेखीय गति नहीं करते। इससे यह पुष्ट होता है कि अक्ष स्थिर है।
ध्यान दें कि हमने सभी कणों का समान कोणीय वेग लिया है। इसलिए हम $\omega$ को पूरे पिण्ड का कोणीय वेग कह सकते हैं।
किसी पिण्ड की शुद्ध स्थानांतरण गति का अभिलक्षण हमने यह बताया कि इसके सभी कण, किसी दिए गए क्षण पर समान वेग से चलते हैं। इसी प्रकार, शुद्ध घूर्णी गति के लिए हम कह सकते हैं कि किसी दिए गए क्षण पर पिण्ड के सभी कण समान कोणीय वेग से घूमते हैं। ध्यान दें कि स्थिर अक्ष के परितः घूमते दृढ़ पिण्ड की घूर्णी गति का यह अभिलक्षण, दूसरे शब्दों में (जैसा अनुभाग 6.1 में बताया गया है) पिण्ड का हर कण एक वृत्त में गति करता है और यह वृत्त अक्ष के अभिलम्बवत् तल में स्थित होता है जिसका केन्द्र अक्ष पर होता है।
हमारे अभी तक के विवेचन से ऐसा लगता है कि कोणीय वेग एक अदिश राशि है। किंतु तथ्य यह है, कि यह एक सदिश राशि है। हम इस तथ्य के समर्थन या पुष्टि के लिए कोई तर्क नहीं देंगे, बस यह मान कर चलेंगे। एक स्थिर अक्ष के परितः घूर्णन में, कोणीय वेग सदिश, घूर्णन अक्ष के अनुदिश होता है, और उस दिशा में संकेत करता है जिसमें एक दक्षिणावर्त पेंच आगे बढ़ेगा जब उसके शीर्ष को पिण्ड के घूर्णन की दिशा में घुमाया जाएगा। देखिए चित्र 6.17(a)। इस सदिश का परिमाण, $\omega=\mathrm{d} \theta / \mathrm{d} t$, जैसा ऊपर बताया गया है।
चित्र 6.17(a) यदि दक्षिणावर्त्त पेंच के शीर्ष को पिण्ड के घूर्णन की दिशा में घुमाया जाए तो पेंच कोणीय वेग $\boldsymbol{\omega}$ की दिशा में आगे बढ़ेगा। यदि पिण्ड के घूर्णन की दिशा (वामावर्त या दक्षिणावर्त) बदलेगी तो $\boldsymbol{\omega}$ की दिशा भी बदल जाएगी।
चित्र 6.17 (b) कोणीय वेग सदिश $\boldsymbol{\omega}$ की दिशा स्थिर घूर्णन अक्ष के अनुदिश है। $P$ बिन्दु पर स्थित कण का रेखीय वेग $\boldsymbol{v}=\boldsymbol{\omega} \times \boldsymbol{r}$ है। यह $\boldsymbol{\omega}$ एवं $\boldsymbol{r}$ दोनों के लम्बवत् है और कण जिस वृत्त पर चलता है उसके ऊपर खींची गई स्पर्श रेखा के अनुदिश है।
आइये, अब हम सदिश गुणनफल $\boldsymbol{\omega} \times \mathbf{r}$ को ठीक से समझें और जानें कि यह क्या व्यक्त करता है। चित्र 6.17(b) को देखें, जो वैसे तो चित्र 6.16 का ही भाग है पर, यहाँ इसे कण $\mathrm{P}$ का पथ दर्शाने के लिए दोबारा बनाया गया है। चित्र में, स्थिर $(z-)$ अक्ष के अनुदिश सदिश $\boldsymbol{\omega}$ और मूल बिन्दु $\mathrm{O}$ के सापेक्ष दृढ़ पिण्ड के बिन्दु $\mathrm{P}$ का स्थिति-सदिश $\mathrm{r}=\mathrm{OP}$ दर्शाया गया है। ध्यान दें कि मूल बिन्दु को घूर्णन अक्ष के ऊपर ही रखा गया है।
अब
$$ \omega \quad \mathrm{r}=\omega \quad \mathrm{OP}=\boldsymbol{\omega} \quad(\mathrm{OC}+\mathrm{CP}) $$
लेकिन $\boldsymbol{\omega} \times \mathrm{OC}=0$ क्योंकि के अनुदिश $\boldsymbol{\omega} \mathrm{OC}$ है।
अत $: \boldsymbol{\omega} \times \mathbf{r}=\boldsymbol{\omega} \times \mathrm{CP}$
सदिश $\boldsymbol{\omega} \times \mathrm{CP}, \boldsymbol{\omega}$ के लम्बवत् है, यानि $z$-अक्ष पर भी तथा कण $\mathrm{P}$ द्वारा बनाये गए वृत्त की त्रिज्या $\mathrm{CP}$ पर भी। अतः यह वृत्त के $\mathrm{P}$ बिन्दु पर खींची गई स्पर्श रेखा के अनुदिश है। $\boldsymbol{\omega}$ $\times \mathrm{CP}$ का परिमाण $\omega(\mathrm{CP})$ है, क्योंकि $\omega$ एवं $\mathrm{CP}$ एक दूसरे के लम्बवत् हैं। हमें $\mathrm{CP}$ को $\boldsymbol{r} _{\perp}$ से प्रदर्शित करना चाहिए ताकि इसके और $\mathrm{OP}=r$ के परिमाण में संभ्रम की स्थिति से बचा जा सके।
अत: $\boldsymbol{\omega} \times \mathrm{r}$ एक ऐसा सदिश है जिसका परिमाण $\omega r _{\perp}$ है और जिसकी दिशा कण $\mathrm{P}$ द्वारा बनाये गए वृत्त पर खींची गई स्पर्श रेखा के अनुदिश है। यही बिन्दु $\mathrm{P}$ पर रेखीय वेग सदिश का परिमाण और दिशा है। अत:
$$ \begin{equation*} \mathbf{v}=\boldsymbol{\omega} \quad \mathbf{r} \tag{6.20} \end{equation*} $$
वास्तव में, समीकरण (6.20) उन दृढ़ पिण्डों की घूर्णन गति पर भी लागू होती है जो एक बिन्दु के परितः घूमते हैं, जैसे लट्टू का घूमना (चित्र 6.6(a))। इस तरह के मामलों में, $\mathrm{r}$ कण का स्थिति सदिश प्रदर्शित करता है जो स्थिर बिन्दु को मूल बिन्दु लेकर मापा गया हो।
ध्यान दें, कि जब कोई वस्तु एक स्थिर अक्ष के परितः घूर्णन करती है तो समय के साथ सदिश $\boldsymbol{\omega}$ की दिशा नहीं बदलती। हाँ, इसका परिमाण क्षण-क्षण पर बदलता रहता है। अधिक व्यापक घूर्णन के मामलों में $\omega$ के परिमाण और दिशा दोनों समय के साथ बदलते रह सकते हैं।
6.6.1 कोणीय त्वरण
आपने ध्यान दिया होगा कि हम घूर्णी गति संबंधी अध्ययन को भी उसी तरह आगे बढ़ा रहे हैं जिस तरह हमने अपने स्थानांतरण गति संबंधी अध्ययन को आगे बढ़ाया था और जिसके बारे में अब हम भली-भाँति परिचित हैं। स्थानांतरण गति की गतिज चर राशियों यथा रेखीय विस्थापन $(\Delta \mathrm{r})$ और रेखीय वेग $(\mathrm{v})$ के सदृश ही घूर्णी गति में कोणीय विस्थापन $(\theta)$ एवं कोणीय वेग $(\omega)$ की अवधारणाएं हैं। तब यह स्वाभाविक ही है कि जैसे हमने स्थानांतरीय गति में रेखीय त्वरण को वेग परिवर्तन की दर के रूप में परिभाषित किया था वैसे ही घूर्णी गति में कोणीय त्वरण को भी परिभाषित करें। अतः कोणीय त्वरण $\boldsymbol{\alpha}$ की परिभाषा, समय के सापेक्ष कोणीय वेग परिवर्तन की दर के रूप में कर सकते हैं। यानि,
$$ \begin{equation*} \alpha=\frac{\mathrm{d} \omega}{\mathrm{d} t} \tag{6.21} \end{equation*} $$
यदि घूर्णन अक्ष स्थिर है तो $\boldsymbol{\omega}$ की दिशा और इसलिए $\boldsymbol{\alpha}$ की दिशा भी स्थिर होगी। इस स्थिति में तब सदिश समीकरण अदिश समीकरण में बदल जाती है और हम लिख सकते हैं-
$$ \begin{equation*} \alpha=\frac{\mathrm{d} \omega}{\mathrm{d} t} \tag{6.22} \end{equation*} $$
6.7 बल आघूर्ण एवं कोणीय संवेग
इस अनुभाग में, हम आपको ऐसी दो राशियों से अवगत करायेंगे जिनको दो सदिशों के सदिश गुणन के रूप में परिभाषित किया जाता है। ये राशियाँ, जैसा हम देखेंगे, कणों के निकायों, विशेषकर दृढ़ पिण्डों की गति का विवेचन करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
6.7.1 एक कण पर आरोपित बल का आघूर्ण
हमने सीखा है, कि किसी दृढ़ पिण्ड की गति, व्यापक रूप में, घूर्णन एवं स्थानांतरण का संयोजन होती है। यदि पिण्ड किसी बिन्दु या किसी रेखा के अनुदिश स्थिर है तो इसमें केवल घूर्णी गति होती है। हम जानते हैं कि किसी वस्तु की स्थानांतरीय गत्यावस्था में परिवर्तन लाने के लिए (यानि इसमें रेखीय त्वरण पैदा करने के लिए) बल की आवश्यकता होती है। तब स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि घूर्णी गति में बल के तुल्य रूप कौन सी राशि है? एक समग्र स्थिति द्वारा इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए आइये किसी द्वार को खोलने या बंद करने का उदाहरण लें। द्वार एक दृढ़ पिण्ड है जो कब्ज़ों से होकर गुजरने वाली ऊर्ध्वाधर अक्ष के परितः घूम सकता है। द्वार को कौन घुमाता है? यह तो स्पष्ट ही है कि जब तक दरवाजे पर बल नहीं लगाया जायेगा यह नहीं घूम सकता। किन्तु, किसी भी बल द्वारा यह कार्य किया जा सकता हो, ऐसा नहीं है। कब्जों से गुजरने वाली ऊर्ध्वाधर रेखा पर लगने वाला बल, द्वार में कोई भी घूर्णन गति उत्पन्न नहीं कर सकता किंतु किसी दिए गए परिमाण काद्वार को घुमाने में सबसे अधिक प्रभावी होता है। घर्णी गति में बल का परिमाण ही नहीं, बल्कि, यह कहाँ और कैसे लगाया जाता है यह भी महत्वपूर्ण होता है।
घूर्णी गति में बल के समतुल्य राशि बल आघूर्ण है। इसको ऐंठन (टॉर्क) अथवा बल युग्म भी कहा जाता है। (हम बल आघूर्ण और टॉर्क शब्दों का इस्तेमाल एकार्थी मानकर करेंगे। पहले हम एकल कण के विशिष्ट मामले में बल आघूर्ण की परिभाषा देंगे। बाद में इस अवधारणा को आगे बढ़ाकर कणों के निकाय और दृढ़ पिण्डों के लिए लागू करेंगे। हम, घूर्णन गति में इसके कारण होने वाले परिवर्तन यानि दृढ़ पिण्ड के कोणीय त्वरण से इसका संबंध भी जानेंगे।
चित्र $6.18 \tau=\mathbf{r} \times \mathbf{F}, \tau$ उस तल के लम्बवत् है जिसमें $\boldsymbol{r}$ एवं $\boldsymbol{F}$ हैं, और इसकी दिशा दक्षिणावर्त पेंच के नियम द्वारा जानी जा सकती है।
यदि, $\mathrm{P}$ बिन्दु पर स्थित किसी कण पर बल $\mathbf{F}$ लगा हो और मूल बिन्दु $O$ के सापेक्ष बिन्दु $P$ का स्थिति सदिश $\mathbf{r}$ हो (चित्र 6.18), तो मूल बिन्दु के सापेक्ष कण पर लगने वाले बल का आघूर्ण निम्नलिखित सदिश गुणनफल के रूप में परिभाषित किया जायेगा-
$$ \begin{equation*} \tau=\mathbf{r} \times \mathbf{F} \tag{6.23} \end{equation*} $$
बल आघूर्ण एक सदिश राशि है। इसका संकेत चिह्न ग्रीक वर्णमाला का एक अक्षर $\tau$ टॉव है। $\tau$ का परिमाण है
$$ \begin{equation*} \tau=r F \sin \theta \tag{6.24a} \end{equation*} $$
जहाँ $r$ स्थिति सदिश $\mathbf{r}$ का परिमाण यानि $\mathrm{OP}$ की लंबाई है, $F$, बल $\mathbf{F}$ का परिमाण है तथा $\theta, \mathbf{r}$ एवं $\mathbf{F}$ के बीच का लघु कोण है, जैसा चित्र में दर्शाया गया है।
बल आघूर्ण का विमीय सूत्र $\mathrm{M} \mathrm{L}^{2} \mathrm{~T}^{-2}$ है । इसकी विमायें वही हैं जो कार्य और ऊर्जा की। तथापि, यह कार्य से बिलकुल अलग भौतिक राशि है। बल आघूर्ण एक सदिश राशि है, जबकि, कार्य एक अदिश राशि है। बल आघूर्ण का S.I मात्रक न्यूटन मीटर $(\mathrm{Nm})$ है। चित्र से स्पष्ट है कि बल आघूर्ण के परिमाण को हम लिख सकते हैं-
$$ \begin{align*} & \tau=(r \sin \theta) F=r _{\perp} F \tag{6.24b} \\ & \text { या } \quad \tau=r F \sin \theta=r F _{\perp} \tag{6.24c} \end{align*} $$
जहाँ $r _{\perp}=r \sin \theta$ बल की क्रिया-रेखा की मूल बिन्दु से लम्बवत् दूरी है और $F _{\perp}(=F \sin \theta), \boldsymbol{r}$ के लम्बवत् दिशा में $\mathbf{F}$ का अवयव है। ध्यान दें कि जब $r=0$ या $F=0$ या $\theta=0^{\circ}$ अथवा $180^{\circ}$ तब $\tau=0$ । अतः यदि बल का परिमाण शून्य हो या बल मूल बिन्दु पर प्रभावी हो या बल की क्रिया रेखा मूल बिन्दु से गुजरती हो तो बल आघूर्ण शून्य हो जाता है।
आपका ध्यान इस बात की ओर जाना चाहिए कि $\mathbf{r} \times \mathbf{F}$ सदिश गुणन होने के कारण दो सदिशों के सदिश गुणनफल के सभी गुण इस पर भी लागू होते हैं। अतः यदि बल की दिशा उलट दी जायेगी तो बल आघूर्ण की दिशा भी उलटी हो जायेगी। परन्तु यदि $\mathbf{r}$ और $\mathbf{F}$ दोनों की दिशा उलट दी जाए तो बल आघूर्ण की दिशा में कोई परिवर्तन नहीं होगा।
6.7.2 किसी कण का कोणीय संवेग
जैसे बल आघूर्ण, रेखीय गति में बल का घूर्णी समतुल्य है, ठीक वैसे ही कोणीय संवेग, रेखीय संवेग का घूर्णी समतुल्य है। पहले हम एकल कण के विशिष्ट मामले में कोणीय संवेग को परिभाषित करेंगे और एकल कण की गति के संदर्भ में इसकी उपयोगिता देखेंगे। तब, कोणीय संवेग की परिभाषा को दृढ़ पिण्डों सहित कणों के निकायों के लिए लागू करेंगे।
बल आघूर्ण की तरह ही कोणीय संवेग भी एक सदिश गुणन है। इसको हम (रेखीय) संवेग का आघूर्ण कह सकते हैं। इस नाम से कोणीय संवेग की परिभाषा का अनुमान लगाया जा सकता है।
$m$ द्रव्यमान और $\mathbf{p}$ रेखीय संवेग का एक कण लीजिए, मूल बिन्दु $O$ के सापेक्ष, जिसका स्थिति सदिश $\mathbf{r}$ हो। तब मूल बिन्दु $\mathrm{O}$ के सापेक्ष इस कण का कोणीय संवेग $\boldsymbol{l}$ निम्नलिखित समीकरण द्वारा परिभाषित होगा-
$$ \begin{equation*} \boldsymbol{l}=\mathbf{r} \times \mathbf{p} \tag{6.25a} \end{equation*} $$
कोणीय संवेग सदिश की परिमाण है
$$ \begin{equation*} l=r p \sin \epsilon \tag{6.26a} \end{equation*} $$
जहाँ $p$ सदिश $\mathbf{p}$ का परिमाण है तथा $\theta \mathbf{r}$ एवं $\mathbf{p}$ के बीच का लघु कोण है। इस समीकरण को हम लिख सकते हैं-
$$ \begin{equation*} l=r p _{\perp} \text { या } r _{\perp} p \tag{6.26b} \end{equation*} $$
जहाँ $r _{\perp}(=r \sin \theta)$ सदिश $\mathbf{p}$ की दिशा रेखा की मूल बिन्दु से लम्बवत् दूरी है और $p _{\perp}(=p \sin \theta), \mathbf{r}$ की लम्बवत् दिशा में $\mathbf{p}$ का अवयव है। जब या तो रेखीय संवेग शून्य हो $(p=0)$ या कण मूल बिन्दु पर हो $(r=0)$ या फिर $\mathbf{p}$ की दिशा रेखा मूल बिन्दु से गुजरती हो $\theta=0^{\circ}$ या $180^{\circ}$ ) तब हम अपेक्षा कर सकते हैं कि कोणीय संवेग शून्य होगा $(l=0)$ ।
भौतिक राशियों, बल आघूर्ण एवं कोणीय संवेग में एक महत्वपूर्ण पारस्परिक संबंध है। यह संबंध भी बल एवं रेखीय संवेग के बीच के संबंध का घूर्णी समतुल्य है। एकल कण के संदर्भ में यह संबंध व्युत्पन्न करने के लिए हम $\boldsymbol{l}=\mathbf{r} \times \mathbf{p}$ को समय के आधार पर अवकलित करते हैं,
$$ \frac{\mathrm{d} \boldsymbol{l}}{\mathrm{d} t}=\frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t}(\mathbf{r} \times \mathbf{p}) $$
दाईं ओर के व्यंजक पर गुणन के अवकलन का नियम लागू करें, तो
$\frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t}(\mathbf{r} \times \mathbf{p})=\frac{\mathrm{d} \mathbf{r}}{\mathrm{d} t} \times \mathbf{p}+\mathbf{r} \times \frac{\mathrm{d} \mathbf{p}}{\mathrm{d} t}$
अब, कण का वेग $\mathbf{v}=\mathrm{d} \mathbf{r} / \mathrm{d} t$ एवं $\mathbf{p}=m \mathbf{v}$ लिखें, तो
$$ \frac{\mathrm{d} \mathbf{r}}{\mathrm{d} t} \times \mathbf{p}=\mathbf{v} \times m \mathbf{v}=0 $$
क्योंकि दो समान्तर सदिशों का सदिश गुणनफल शून्य होता है। तथा, चूंकि $\mathrm{d} \mathbf{p} / \mathrm{d} t=\mathbf{F}$,
$$ \begin{align*} & \therefore \quad \mathbf{r} \times \frac{\mathrm{d} \mathbf{p}}{\mathrm{d} t}=\mathbf{r} \times \mathbf{F}=\tau \\ & \text { अत: } \frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t}(\mathbf{r} \times \mathbf{p})=\tau \\ & \text { या, } \frac{\mathrm{d} \boldsymbol{l}}{\mathrm{d} t}=\tau \tag{6.27} \end{align*} $$
अतएव, किसी कण के कोणीय संवेग में समय के साथ होने वाले परिवर्तन की दर इस पर प्रभावी बल आघर्ण के बराबर होती है। यह समीकरण $\mathbf{F}=\mathrm{d} \mathbf{p} / \mathrm{d} t$, जो एकल कण की स्थानांतरीय गति के लिए न्यूटन के द्वितीय नियम को व्यक्त करता है, का घूर्णी समतुल्य है।
कणों के निकाय का बल आघूर्ण एवं कोणीय संवेग
कणों के किसी निकाय का, किसी दिए गए बिन्दु के परितः कुल कोणीय संवेग ज्ञात करने के लिए हमें एकल कणों के कोणीय संवेगों के सदिश योग की गणना करनी होगी। अतः $n$ कणों के निकाय के लिए,
$$ \mathbf{L}=\boldsymbol{l} _{1}+\boldsymbol{l} _{2}+\ldots+\boldsymbol{l} _{n}=\sum _{i=1}^{n} \boldsymbol{l} _{i} $$
$i$ वें कण का कोणीय संवेग होगा,
$$ \boldsymbol{l} _{i}=\mathbf{r} _{i} \times \mathbf{p} _{i} $$
जहाँ, $\mathbf{r} _{i}$ दिए गए मूल बिन्दु के सापेक्ष $i$ वें कण का स्थिति सदिश है और $\mathbf{p}=\left(m _{i} \mathbf{v} _{i}\right)$ उस कण का रेखीय संवेग है। (कण का द्रव्यमान $m _{i}$ एवं वेग $\mathbf{v} _{i}$ है)। कणों के निकाय के कुल कोणीय संवेग को हम निम्नवत् लिख सकते हैं-
$$ \begin{equation*} \mathbf{L}=\sum \boldsymbol{l} _{i}=\sum _{i} \mathbf{r} _{i} \times \mathbf{p} _{i} \tag{6.25b} \end{equation*} $$
यह समीकरण (6.25a) में दी गई एकाकी कण के संवेग की परिभाषा का कणों के निकाय के लिए किया गया व्यापकीकरण है।
समीकरणों $(6.23)$ और $(6.25 b)$ का उपयोग करें तो
$$ \begin{equation*} \frac{\mathrm{d} \mathbf{L}}{\mathrm{d} t}=\frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t}\left(\sum \boldsymbol{l} _{i}\right)=\sum _{i} \frac{\mathrm{d} \boldsymbol{l} _{i}}{\mathrm{~d} t}=\sum _{i} \tau _{i} \tag{6.28a} \end{equation*} $$
जहाँ $\tau _{i}, i$ वें कण पर प्रभावी बल आघूर्ण है;
$$ \tau _{i}=\mathbf{r} _{i} \times \mathbf{F} _{i} $$
$i$ वें कण पर लगने वाला बल $\mathbf{F} _{i}$, इस पर लगने वाले सभी बाहय बलों $\mathbf{F} _{i}^{\text {ext }}$ एवं निकाय के दूसरे कणों द्वारा इस कण पर लगने वाले आंतरिक बलों $\mathbf{F} _{i}^{\text {int }}$ का सदिश योग है। इसलिए, हम कुल बल आघूर्ण में बाह्य एवं आंतरिक बलों के योगदान को अलग-अलग कर सकते हैं।
$$ \begin{aligned} & \tau=\sum _{i} \tau _{i}=\sum _{i} \mathbf{r} _{i} \times \mathbf{F} _{i} \text { अर्थात् } \\ & \tau=\tau _{e x t}+\tau _{\text {int }}, \\ & \text { जहाँ } \quad \tau _{\text {ext }}=\sum _{i} \mathbf{r} _{i} \times \mathbf{F} _{i}^{e x t} \\ & \text { और } \quad \tau _{\text {int }}=\sum _{i} \mathbf{r} _{i} \times \mathbf{F} _{i}^{\text {int }} \end{aligned} $$
हम, न सिर्फ न्यूटन के गति का तृतीय नियम यानि यह तथ्य कि निकाय के किन्हीं दो कणों के बीच लगने वाले बल बराबर होते हैं और विपरीत दिशा में लगते हैं, बल्कि यह भी मानकर चलेंगे कि ये बल दोनों कणों को मिलाने वाली रेखा के अनुदिश लगते हैं। इस स्थिति में आंतरिक बलों का, निकाय के कुल बल आघूर्ण में योगदान शून्य होगा। क्योंकि, प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया
युग्म का परिणामी बल आघूर्ण शून्य है। अतः $\boldsymbol{\tau} _{\mathrm{int}}=\mathbf{0}$ और इसलिए $\tau=\tau _{\text {ext }}$
चूंकि $\tau=\sum \tau _{i}$, समीकरण (6.28a) से निष्कर्ष निकलता है, कि
$$ \begin{equation*} \frac{\mathrm{d} \mathbf{L}}{\mathrm{d} t}=\tau _{e x t} \tag{6.28b} \end{equation*} $$
अतः, कणों के किसी निकाय के कुल कोणीय संवेग में समय के अनुसार होने वाले परिवर्तन की दर उस पर आरोपित बाह्य बल आघूर्णों (यानि बाह्य बलो के आघूर्णों) के सदिश योग के बराबर होती है। ध्यान रहे कि जिस बिन्दु (यहाँ हमारे संदर्भ-फ्रेम का मूल बिन्दु) के परितः कुल कोणीय संवेग लिया जाता है उसी के परितः बाह्य बल आघूर्णों की गणना की जाती है। समीकरण $(6.28 \mathrm{~b})$, कणों के निकाय के व्यापकीकृत कण की समीकरण (6.27) ही है। यह भी ध्यान देने की बात है कि एक कण के मामले में आंतरिक बलों या आंतरिक बल आघूर्णों का कोई अस्तित्व नहीं होता। समीकरण (6.28 b) निम्नलिखित समीकरण (6.17) का घूर्णी समतुल्य है।
$$ \begin{equation*} \frac{\mathrm{d} \mathbf{P}}{\mathrm{d} t}=\mathbf{F} _{e x t} \tag{6.17} \end{equation*} $$
ध्यान दें कि समीकरण (6.17) की तरह ही, समीकरण (6.28b) भी कणों के सभी निकायों के लिए लागू होती है चाहे वह पिण्ड दृढ़ हो या विभिन्न प्रकार की गतियों से युक्त पृथक पृथक कणों का निकाय।
कोणीय संवेग का संरक्षण
यदि $\tau _{\text {ext }}=\mathbf{0}$, तो समीकरण (6.28b) रह जाती है
$$ \begin{equation*} \therefore \quad \mathbf{L}=\text { अचरांक } \tag{6.29a} \end{equation*} $$
अतः, कणों के किसी निकाय पर आरोपित कुल बाह्य बल आघूर्ण यदि शून्य हो तो उस निकाय का कुल कोणीय संवेग संरक्षित होता है अर्थात् अचर रहता है। समीकरण (6.29a) तीन अदिश समीकरणों के समतुल्य है।
$$ \begin{equation*} L _{x}=K _{1}, L _{y}=K _{2} \text { एवं } L _{z}=K _{3} \tag{6.29b} \end{equation*} $$
यहाँ $K _{1}, K _{2}$ एवं $K _{3}$ अचरांक हैं तथा $L _{x}, L _{y}$ और $L _{z}$ कुल कोणीय संवेग सदिश $\mathbf{L}$ के क्रमशः $x, y$ एवं $z$ दिशाओं में वियोजित अवयव हैं। यह कथन कि कुल कोणीय संवेग संरक्षित है, इसका यह भी अर्थ है कि ये तीनों अवयव भी संरक्षित हैं। समीकरण (6.29a), समीकरण (6.18a) यानि कणों के निकाय के कुल रेखीय संवेग के संरक्षण के नियम, का घूर्णी समतुल्य है। समीकरण (6.18a) की तरह ही अनेक व्यावहारिक स्थितियों में इसके अनुप्रयोग हैं। इस अध्याय में कुछ रोचक अनुप्रयोगों की हम चर्चा करेंगे।
6.8 दृढ़ पिण्डों का संतुलन
अब हम व्यापक कण-निकायों के बजाय दृढ़ पिण्डों की गति पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे।
आइये, स्मरण करें कि दृढ़ पिण्डों पर बाह्य बलों के क्या प्रभाव होते हैं? (आगे से हम विशेषण ‘बाह्य’ का प्रयोग नहीं करेंगे। जब तक अन्यथा न कहा जाय, हम केवल बाह्य बलों और बल आघूर्णों से ही व्यवहार करेंगे)। बल, किसी दृढ़ पिण्ड की स्थानांतरीय गत्यावस्था में परिवर्तन लाते हैं, अर्थात् वे समीकरण (6.17) के अनुसार, इसके कुल रेखीय संवेग को परिवर्तित करते हैं। लेकिन, बलों का यह एकमात्र प्रभाव नहीं है। यदि पिण्ड पर लगने वाला कुल बल आघूर्ण शून्य न हो तो इसके कारण, दृढ़ पिण्ड की घूर्णी गति में परिवर्तन होगा अर्थात् पिण्ड का कुल कोणीय संवेग समीकरण (6.28b) के अनुसार बदलेगा।
किसी दृढ़ पिण्ड को यांत्रिक संतुलन की अवस्था में तब कहा जाएगा जब इसके रेखीय संवेग और कोणीय संवेग दोनों का ही मान समय के साथ न बदलता हो यानि उस पिण्ड में न रेखीय त्वरण हो न कोणीय त्वरण। इसका अर्थ होगा कि
(1) पिण्ड पर लगने वाला कुल बल यानि बलों का सदिश योग शून्य हो :
$$ \begin{equation*} \mathbf{F} _{1}+\mathbf{F} _{2}+\ldots+\mathbf{F} _{n}=\sum _{i=1}^{n} \mathbf{F} _{i}=\mathbf{0} \tag{6.30a} \end{equation*} $$
यदि पिण्ड पर लगने वाला कुल बल शून्य होगा तो उस पिण्ड के रेखीय संवेग में समय के साथ कोई परिवर्तन नहीं होगा। समीकरण (6.30a) पिण्ड के स्थानांतरीय संतुलन की शर्त है।
(2) कुल बल आघूर्ण, यानि दृढ़-पिण्ड पर लगने वाले बल-आघूर्णों का सदिश योग शून्य होगा :
$$ \begin{equation*} \tau _{1}+\tau _{2}+\ldots+\tau _{n}=\sum _{i=1}^{n} \tau _{i}=\mathbf{0} \tag{6.30b} \end{equation*} $$
यदि दृढ़ पिण्ड पर आरोपित कुल बल आघूर्ण शून्य हो तो इसका कुल कोणीय संवेग समय के साथ नहीं बदलेगा। समीकरण (6.30b) पिण्ड के घूर्णी संतुलन की शर्त है। अब यह प्रश्न उठ सकता है, कि यदि वह मूल बिन्दु जिसके परितः आघूर्णों की गणना की गई है बदल जाए, तो क्या घूर्णी संतुलन की शर्त बदलेगी? यह दिखाया जा सकता है कि यदि किसी दृढ़ पिण्ड के लिए स्थानांतरीय संतुलन की शर्त समीकरण (6.30b) लागू होती है तो इस पर मूल बिन्दु के स्थानांतरण का कोई प्रभाव नहीं होगा अर्थात् घूर्णी संतुलन की शर्त उस मूल बिन्दु की स्थिति के ऊपर निर्भर नहीं करती जिसके परितः आघूर्ण लिए गए हैं। उदाहरण 6.7, में बलयुग्म (यानि स्थानांतरीय संतुलन में, किसी पिण्ड के ऊपर लगने वाले बलों का एक जोड़ा) के विशिष्ट मामले में इस तथ्य की पुष्टि की जाएगी। $n$ बलों के लिए इस परिणाम का व्यापक व्यंजक प्राप्त करना आपके अभ्यास के लिए छोड़ दिया गया है।
समीकरण (6.30a) एवं समीकरण (6.30b) दोनों ही सदिश समीकरणें हैं। इनमें से प्रत्येक तीन अदिश समीकरणों के समतुल्य हैं। समीकरण (6.30a) के संगत ये समीकरणें हैं
$$ \sum _{i=1}^{n} F _{i x}=0, \sum _{i=1}^{n} F _{i y}=0 \text { एवं } \sum _{i=1}^{n} F _{i z}=0 \text { (6.31a) } $$
जहाँ $F _{i x}, F _{i y}$ एवं $F _{i z}$ बल $\mathrm{F} _{i}$ के क्रमशः $x, y$ एवं $z$ दिशा में वियोजित अवयव हैं। इसी प्रकार, समीकरण (6.30b) जिन तीन अदिश समीकरणों के समतुल्य हैं, वे हैं
$$ \begin{equation*} \sum _{i=1}^{n} \tau _{i x}=0, \sum _{i=1}^{n} \tau _{i y}=0 \text { एव } \sum _{i=1}^{n} \tau _{i z}=0 \tag{6.31b} \end{equation*} $$
जहाँ $\tau _{i x}, \tau _{i y}$ एवं $\tau _{i z}$ क्रमशः $x, y$ एवं $z$ दिशा में बल आघूर्ण $\tau _{i}$ के अवयव हैं।
समीकरण (6.31a) एवं (6.31b), हमें किसी दृढ़ पिण्ड के यांत्रिक संतुलन के लिए आवश्यक छः ऐसी शर्ते बताते हैं जो एक दूसरे के ऊपर निर्भर नहीं करतीं। बहुत सी समस्याओं में किसी पिण्ड पर लगने वाले सभी बल एक ही तल में होते हैं। इस स्थिति में यांत्रिक संतुलन के लिए केवल तीन शर्तों को पूरी किए जाने की आवश्यकता होगी। इनमें से दो शर्तें स्थानांतरीय संतुलन के संगत होंगी, जिनके अनुसार, सभी बलों के, इस तल में स्वेच्छ चुनी गई दो परस्पर लम्बवत् अक्षों के अनुदिश, अवयवों का सदिश योग अलग-अलग शून्य होगा। तीसरी शर्त घूर्णी-संतुलन के संगत है। बलों के तल के अभिलम्बवत् अक्ष के अनुदिश बल आघूर्ण के अवयवों का योग शून्य होना चाहिए।
एक दृढ़ पिण्ड के संतुलन की शर्तों की तुलना, एकल कण के संतुलन की शर्तों से की जा सकती है। इस विषय में हमने पहले के अध्यायों में बात की है। कण पर घूर्णी गति का कोई विचार आवश्यक नहीं होता। इसके संतुलन के लिए केवल स्थानांतरीय संतुलन की शर्तें
(समीकरण $6.30 \mathrm{a}$ ) ही पर्याप्त हैं। अतः किसी कण के संतुलन के लिए इस पर आरोपित सभी बलों का सदिश योग शून्य होना चाहिए। क्योंकि ये सब बल एक ही कण पर कार्य करते हैं इसलिए संगामी भी होते हैं। संगामी बलों के तहत संतुलन का विवेचन पहले के अध्यायों में किया जा चुका है।
ज्ञातव्य है कि एक पिण्ड आंशिक संतुलन में हो सकता है यानि यह हो सकता है कि यह स्थानांतरीय संतुलन में हो परन्तु घूर्णी संतुलन में न हो या फिर घूर्णी संतुलन में तो हो पर स्थानांतरीय संतुलन में ना हो।
एक हलकी (यानि नगण्य द्रव्यमान वाली) स्वतंत्र छड़ $(A B)$ पर विचार कीजिए, जिसके दो सिरों ( $A$ एवं $B$ ) पर, बराबर परिमाण वाले दो समांतर बल, (जो समान दिशा में लगे हों) $\mathbf{F}$, चित्र 6.20(a) में दर्शाये अनुसार, छड़ के लम्बवत् लगे हों।
चित्र 6.20(a)
माना कि छड़ $\mathrm{AB}$ का मध्य बिन्दु $\mathrm{C}$ है और $\mathrm{CA}=\mathrm{CB}=$ $a$ है। $\mathrm{A}$ एवं $\mathrm{B}$ पर लगे बलों के $\mathrm{C}$ के परितः आघूर्ण, परिमाण में समान $(a F)$ हैं, पर जैसा चित्र में दिखाया गया है, विपरीत दिशाओं में प्रभावकारी हैं। छड़ पर कुल बल आघूर्ण शून्य होगा। निकाय घूर्णी संतुलन में है, पर यह स्थानांतरीय संतुलन में नहीं है, क्योंकि $\sum \mathbf{F} \neq \mathbf{0}$ ।
चित्र 6.20(b)
चित्र 6.20(b) में, चित्र (6.20a) में $\mathrm{B}$ सिरे पर लगाए गए बल की दिशा उलट दी गई है। अब उसी छड़ पर किसी क्षण पर बराबर परिमाण के दो बल, विपरीत दिशाओं में, छड़ के लम्बवत् लगे हैं एक $\mathrm{A}$ सिरे पर और दूसरा $\mathrm{B}$ सिरे पर। यहाँ दोनों बलों के आघूर्ण बराबर तो हैं पर वे विपरीत दिशा में नहीं हैं; वे एक ही दिशा में हैं और छड़ में वामावर्त घूर्णन की प्रवृत्ति लाते हैं। छड़ पर लगने वाला कुल बल शून्य है। अतः छड़ स्थानांतरीय संतुलन में है, लेकिन यह घूर्णी संतुलन में नहीं है। यद्यपि यह छड़ किसी भी तरह से स्थिर नहीं की गई है, इसमें शुद्ध घूर्णी संभव होती है (यानि स्थानांतरण रहित घूर्णन गति)।
दो बराबर परिमाण के, विपरीत दिशाओं में लगे बलों का जोड़ा जिनकी क्रिया रेखाएँ एक न हों बलयुग्म अथवा ऐंठन (टॉर्क) कहलाता है। बलयुग्म बिना स्थानांतरण के घूर्णन पैदा करता है।
जब हम घुमाकर किसी बोतल का ढक्कन खोलते हैं तो हमारी उंगलियाँ ढक्कन पर एक बलयुग्म आरोपित करती हैं। [चित्र 6.21(a)]। इसका दूसरा उदाहरण पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में रखी चुम्बकीय सुई है [चित्र $6.21(\mathrm{~b})]$ । पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र, चुम्बकीय सुई के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर बराबर बल लगाता है। उत्तरी धुव पर लगा बल उत्तर दिशा की ओर एवं दक्षिणी ध्रुव पर लगा बल दक्षिणी दिशा की ओर होता है। उस अवस्था के अतिरिक्त जब सुई उत्तर-दक्षिण दिशा में संवेत करती हो, दोनों बलों की क्रिया रेखा एक नहीं होती। अतः उस पर, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के कारण, एक बलयुग्म प्रभावी होता है।
चित्र 6.21(a) ढक्कन को घुमाने के लिए हमारी उंगलियाँ उस पर एक बलयुग्म लगाती हैं
चित्र 6.21(b) पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र, सुई के ध्रुवों पर, बराबर परिमाण वाले दो बल विपरीत दिशाओं में लगाता है। ये दो बल एक बलयुग्म बनाते हैं।
6.8.1 आघूर्णों का सिद्धांत
एक आदर्श उत्तोलक, अनिवार्य रूप से, एक ऐसी हलकी (यानि नगण्य द्रव्यमान वाली) छड़ है जो अपनी लम्बाई के अनुदिश लिए गए किसी बिन्दु के परितः घूम सकती हो। यह बिन्दु आलम्ब कहलाता है। बच्चों के खेल के मैदान में लगा सी-सा, उत्तोलक का एक प्रतिनिधिक उदाहरण है। दो बल $F _{1}$ एवं $F _{2}$, जो एक दूसरे के समांतर हैं उत्तोलक के सिरों पर, इसके लम्बवत् तथा आलम्ब से क्रमशः $d _{1}$ एवं $d _{2}$ दूरियों पर लगाये गए हैं जैसा चित्र 6.23 में दर्शाया गया है।
चित्र 6.23
यह उत्तोलक यांत्रिक रूप से एक संतुलित निकाय है। माना कि आलम्ब पर बलों का प्रतिक्रिया बल $R$ है। यह बलों $F _{1}$ एवं $\mathrm{F} _{2}$ की विपरीत दिशा में प्रभावी है। स्थानांतरीय संतुलन के लिए,
$$ \begin{equation*} R-F _{1}-F _{2}=0 \tag{i} \end{equation*} $$
और घूर्णी संतुलन में, आलम्ब के परितः आघूर्ण लेने पर, इन आघूर्णों का योग शून्य होगा। अतः
$d _{1} F _{1}-d _{2} F _{2}=0$
सामान्यतः वामावर्त आघूर्णों को धनात्मक एवं दक्षिणावर्त आघूर्णों को ऋणात्मक लिया जाता है। ध्यान दें कि $R$ आलम्ब, पर ही कार्यरत है और इसका आघूर्ण शून्य है।
उत्तोलक के मामले में, $F _{1}$ प्राय: कोई लोड होता है जिसे उठाना होता है इसे भार कहते हैं। आलम्ब से इसकी दूरी $d _{1}$ भार की भुजा कहलाती है। बल $F _{2}$, लोड को उठाने के लिए लगाया गया बल, प्रयास है। आलम्ब से इसकी दूरी प्रयास भुजा कहलाती है।
समीकरण (ii) को हम इस प्रकार भी लिख सकते हैं
$$ \begin{equation*} d _{1} F _{1}=d _{2} F _{2} \tag{6.32a} \end{equation*} $$
या, भार $\times$ भार की भुजा $=$ प्रयास $\times$ प्रयास की भुजा
उपरोक्त समीकरण, किसी उत्तोलक के लिए आघर्णों का नियम व्यक्त करती है। अनुपात $F _{1} / F _{2}$ यांत्रिक लाभ (M.A) कहलाता है।
अत: $\quad$ M.A. $=\frac{F _{1}}{F _{2}}=\frac{d _{2}}{d _{1}}$
यदि प्रयास भुजा $d _{2}$ की लम्बाई, भार-भुजा $d _{1}$ से अधि क हो, तो यांत्रिक लाभ एक से अधिक होता है। यांत्रिक लाभ एक से अधिक होने का अर्थ होता है कि कम प्रयास से अधि क भार उठाया जा सकता है। सी-सा के अतिरिक्त भी आपके इर्द-गिर्द उत्तोलकों के बहुत से उदाहरण आपको मिल जायेंगे। तुलादण्ड भी एक उत्तोलक ही है। कुछ अन्य उत्तोलकों के उदाहरण अपने परिवेश से ढूँढ़िए। प्रत्येक के लिए उनके आलम्ब, भार, भार-भुजा, प्रयास और प्रयास-भुजा की पहचान कीजिए।
आप यह सरलता से दर्शा सकते हैं कि यदि समांतर बल $F _{1}$ और $F _{2}$ उत्तोलक के लम्बवत् न हों बल्कि कोई कोण बनाते हुए लगे हों तब भी आघूर्णों का नियम लागू होता है।
6.8.2 गुरुत्व केन्द्र
आपमें से कई लोगों ने अपनी नोट बुक को अपनी उंगली की नोक पर संतुलित किया होगा। चित्र 6.24 उसी तरह का एक क्रियाकलाप है जो आप आसानी से कर सकते हैं। एक अनियमित आकार का $\mathrm{M}$ द्रव्यमान वाला गत्ते का टुकडा और पेंसिल जैसी कोई बारीक नोक वाली वस्तु लो। कुछ बार प्रयास करके आप गत्ते के टुकड़े में एक ऐसा बिन्दु $G$ ढूँढ़ सकते हैं जिसके नीचे पेंसिल की नोक रखने पर गत्ते का टुकड़ा उस नोक पर संतुलित हो जाएगा। (इस स्थिति में गत्ते का टुकड़ा पूर्णतः क्षैतिज अवस्था में रहना चाहिए)। यह संतुलन बिन्दु गत्ते के टुकड़े का गुरुत्व केन्द्र (CG) है। पेंसिल की नोक ऊर्ध्वाधरतः ऊपर की ओर लगने वाला एक बल प्रदान करती है जिसके कारण गत्ते का टुकड़ा यांत्रिक संतुलन में आ जाता है। जैसा चित्र 6.24 में दर्शाया गया है, पेंसिल की नोक का प्रतिक्रिया बल $\mathrm{R}$ गत्ते के टुकड़े के कुल भार $M \mathrm{~g}$ के बराबर और विपरीत है और इसलिए यह स्थानांतरीय संतुलनावस्था में है। साथ ही यह घूर्णी संतुलन में भी है। क्योंकि, अगर ऐसा न होता तो असंतुलित बल आघूर्ण के कारण यह एक ओर झुक जाता और गिर जाता। गुरुत्व बल के कारण गत्ते के टुकड़े पर बहुत से बल आघूर्ण प्रभावी हैं क्योंकि एकाकी कणों के भार $m _{1} \mathrm{~g}, m _{2} \mathrm{~g} \ldots$ आदि $\mathrm{G}$ से विभिन्न दूरियों पर कार्य कर रहे हैं।
चित्र 6.24 गत्ते के टुकड़े को पेंसिल की नोक पर संतुलित करना। पेंसिल की नोक गत्ते के टुकड़े का गुरुत्व केन्द्र निर्धारित करती है।
गत्ते के टुकड़े का गुरुत्व केन्द्र इस प्रकार निर्धारित किया गया है कि $m _{1} \mathrm{~g}, m _{2} \mathrm{~g} \ldots$ आदि बलों का इसके परितः लिया गया आघूर्ण शून्य है।
यदि $\mathrm{r} _{i}$ गुरुत्व केन्द्र के सापेक्ष किसी पिण्ड के $i$-वें कण का स्थिति सदिश हो, तो इस पर लगने वाले गुरुत्व बल का गुरुत्व केन्द्र के परित: बल आघूर्ण $\tau _{i}=\mathbf{r} _{i} m _{i} \mathrm{~g} \mid$ गुरुत्व केन्द्र के परितः कुल गुरुत्वीय बल आघूर्ण शून्य होने के कारण
$$ \begin{equation*} \tau _{g}=\sum \tau _{i}=\sum \mathbf{r} _{i} \times m _{i} \mathbf{g}=\mathbf{0} \tag{6.33} \end{equation*} $$
इसलिए, किसी पिण्ड के गुरुत्व-केन्द्र को हम एक ऐसे बिन्दु के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जिसके परितः पिण्ड का कुल गुरुत्वीय बल आघूर्ण शून्य हो।
हम देखते हैं कि समीरकण (6.33) में $\mathrm{g}$ सभी कणों के लिए समान है अतः यह योग-चिन्ह $\sum$ से बाहर आ सकता है। अतः, $\sum m _{i} \mathbf{r} _{i}=0$ । याद रखिए कि स्थिति सदिश $\left(\mathbf{r} _{i}\right)$ गुरुत्व केन्द्र के सापेक्ष नापे गए हैं। अब अनुभाग 6.2 की समीकरण (6.4a) के अनुसार यदि $\sum m _{i} \mathbf{r} _{i}=0$, तो मूल बिन्दु पिण्ड का द्रव्यमान केन्द्र होना चाहिए। अतः पिण्ड का गुरुत्व केन्द्र एवं द्रव्यमान केन्द्र एक ही है। हमारे ध्यान में यह बात आनी चाहिए कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि, वस्तु का आकार इतना छोटा है कि इसके सभी बिन्दुओं के लिए $g$ का मान समान है। यदि पिण्ड इतना बड़ा हो जाए कि इसके एक भाग की तुलना में दूसरे भाग के लिए $g$ का मान बदल जाए तब गुरुत्व केन्द्र एवं द्रव्यमान
केन्द सम्पाती नहीं होंगे। मूल रूप में, ये दो अलग-अलग अवध रणाएँ हैं। द्रव्यमान केन्द्र का गुरुत्व से कुछ लेना देना नहीं है। यह केवल पिण्ड में द्रव्यमान के वितरण पर निर्भर करता है।
चित्र 6.25 अनियमित आकार के फलक का गुरुत्व केन्द्र ज्ञात करना। फलक का गुरुत्व केन्द्र $G$ इसको $A$ कोने से लटकाने पर इससे होकर गुजरने वाली ऊध्ध्वाधर रेखा पर पड़ता है।
अनुभाग 6.2 में हमने कई नियमित, समांग, पिण्डों के द्रव्यमान केन्द्र की स्थिति ज्ञात की थी। स्पष्टतः, यदि पिण्ड विशालकाय नहीं है, तो उसी विधि से हम उनके गुरुत्व केन्द्र ज्ञात कर सकते हैं।
चित्र 6.25 , गत्ते के टुकड़े जैसे किसी अनियमित आकार के फलक का गुरुत्व केन्द्र ज्ञात करने की एक अन्य विधि दर्शाता है। यदि आप इस फलक को किसी बिन्दु जैसे $A$ से लटकायें तो $A$ से गुजरने वाली ऊध्र्वाधर रेखा गुरुत्व केन्द्र से गुजरेगी। हम इस ऊध्र्वाधर रेखा $\mathrm{AA} _{1}$, को अंकित कर लेते हैं। अब हम फलक को किसी दूसरे बिन्दु जैसे $\mathrm{B}$ या $\mathrm{C}$ से लटकाते हैं। इन दो ऊर्ध्वाधर रेखाओं का कटान बिन्दु गुरुत्व केन्द्र है। समझाइये कि यह विधि क्यों प्रभावी होती है? चूंकि यहाँ पिण्ड छोटा सा ही है अतः इस विधि से इसका द्रव्यमान केन्द्र भी ज्ञात किया जा सकता है।
6.9 जड़त्व आघूर्ण
हम पहले ही यह उल्लेख कर चुके हैं कि घूर्णी गति का अध्ययन हम स्थानांतरण गति के समांतर ही चलायेंगे। इस विषय में आप पहले से ही सुपरिचित हैं। इस संबंध में एक मुख्य प्रश्न का उत्तर देना अभी शेष है कि घूर्णी गति में द्रव्यमान के समतुल्य राशि क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हम प्रस्तुत अनुभाग में देंगे। विवेचना को सरल बनाए रखने के लिए हम केवल स्थिर अक्ष के परितः घूर्णन पर ही विचार करेंगे। आइये, घूर्णन करते पिण्ड की गतिज ऊर्जा के लिए व्यंजक प्राप्त करें। हम जानते हैं कि स्थिर अक्ष के परितः घूर्णन करते पिण्ड का प्रत्येक कण, एक वृत्ताकार पथ पर चलता है (देखें चित्र 6.16)। और अक्ष से $r _{i}$ दूरी पर स्थित कण का रेखीय वेग, जैसा समीकरण (6.19) दर्शाती है, $u _{i}=r _{i} \omega$ है। इस कण की गतिज ऊर्जा है
$$ k _{i}=\frac{1}{2} m _{i} v _{i}^{2}=\frac{1}{2} m _{i} r _{i}^{2} \omega^{2} $$
जहाँ $m _{i}$ कण का द्रव्यमान है। पिण्ड की कुल गतिज ऊर्जा $K$ इसके पृथक-पृथक कणों की गतिज ऊर्जाओं का योग है।
$$ K=\sum _{i=1}^{n} k _{i}=\frac{1}{2} \sum _{i=1}^{n}\left(m _{i} r _{i}^{2} \omega^{2}\right) $$
यहाँ $n$ पिण्ड के कुल कणों की संख्या है। ज्ञातव्य है कि $\omega$ सभी कणों के लिए समान है अतः $\omega^{2}$ को योग-चिह्न के बाहर निकाल सकते हैं। तब,
$$ K=\frac{1}{2} \omega^{2}\left(\sum _{i=1}^{n} m _{i} r _{i}^{2}\right) $$
हम दृढ़ पिण्ड को अभिलक्षित करने वाला एक नया प्राचल परिभाषित करते हैं जिसका नाम जड़त्त्व आघूर्ण है और जिसका व्यक्तिकरण है
$$ \begin{equation*} I=\sum _{i=1}^{n} m _{i} r _{i}^{2} \tag{6.34} \end{equation*} $$
इस परिभाषा के साथ
$$ \begin{equation*} K=\frac{1}{2} I \omega^{2} \tag{6.35} \end{equation*} $$
ध्यान दें कि प्राचल $I$ कोणीय वेग के परिमाण पर निर्भर नहीं करता। यह दृढ़ पिण्ड और उस अक्ष का अभिलक्षण है जिसके परितः पिण्ड घूर्णन करता है।
समीकरण (6.35) द्वारा व्यक्त घूर्णन करते पिण्ड की गतिज ऊर्जा की रेखीय (स्थानांतरीय) गति करते पिण्ड की गतिज ऊर्जा $K=\frac{1}{2} m v^{2}$ से तुलना कीजिए। यहाँ $m$ पिण्ड का द्रव्यमान और $V$ उसका वेग है। कोणीय वेग $\omega$ (किसी स्थिर अक्ष के घूर्णन के संदर्भ में) और रेखीय वेग $V$ (रेखीय गति के संदर्भ में) की समतुल्यता हम पहले से ही जानते हैं। अतः यह स्पष्ट है कि जड़त्व आघूर्ण $I$, प्राचल द्रव्यमान का घूर्णी समतुल्य है। (स्थिर अक्ष के परितः) घूर्णन में जड़त्व आघूर्ण वही भूमिका अदा करता है जो रेखीय गति में द्रव्यमान।
अब हम समीकरण (6.34) में दी गई परिभाषा का उपयोग दो सरल स्थितियों में जड़त्व आघूर्ण ज्ञात करने के लिए करेंगे।
a) त्रिज्या $R$ और द्रव्यमान $M$ के एक पतले वलय पर विचार कीजिए जो अपने तल में, अपने केन्द्र के परितः $\omega$ कोणीय वेग से घूर्णन कर रहा है। वलय का प्रत्येक द्रव्यमान घटक इसकी अक्ष से $R$ दूरी पर है और $V=R \omega$ चाल से चलता है। इसलिए इसकी गतिज ऊर्जा है-
$$ K=\frac{1}{2} M v^{2}=\frac{1}{2} M R^{2} \omega^{2} $$
समीकरण (6.35) से तुलना करने पर हम पाते हैं कि वलय के लिए $I=M R^{2}$
चित्र 6.28 द्रव्यमान के एक जोड़े से युक्त, 1 लंबाई की छड़, जो निकाय के द्रव्यमान केन्द्र से गुजरने वाली इसकी लंबाई के लम्बवत् अक्ष के परितः घूम रही है। निकाय का कुल द्रव्यमान $M$ है।
b) अब, हम $l$ लंबाई की दृढ़, नगण्य द्रव्यमान की छड़ के सिरों पर लगे दो द्रव्यमानों से बने एक निकाय पर विचार करेंगे। यह निकाय इसके द्रव्यमान केन्द्र से गुजरती छड़ के लम्बवत् अक्ष के परितः घूम रहा है (चित्र 6.28)। प्रत्येक द्रव्यमान $M / 2$ अक्ष से $1 / 2$ दूरी पर है। इसलिए, इन द्रव्यमानों का जड़त्व आघूर्ण होगा,
$(M / 2)(1 / 2)^{2}+(M / 2)(1 / 2)^{2}$
अतः, द्रव्यमानों के इस जोड़े का, द्रव्यमान केन्द्र से गुजरती
छड़ के लम्बवत् अक्ष के परितः जड़त्व आघूर्ण
$I=M P^{2} / 4$
सारणी 6.1 में कुछ सुपरिचित नियमित आकार के पिंडों के विशिष्ट अक्षों के परितः जड़त्व आघूर्ण केवल दिए गए हैं। (इन सूत्रों के व्युत्पन्न इस पाठ्यपुस्तक के क्षेत्र से बाहर हैं। आगे आप इनके विषय में उच्च कक्षाओं में पढ़ेंगे।)
क्योंकि, किसी पिण्ड का द्रव्यमान, उसकी रेखीय गत्यावस्था में परिवर्तन का प्रतिरोध करता है, वह उसकी रेखीय गति के जड़त्व का माप है। उसी प्रकार, दी गई अक्ष के परितः जड़त्त्व आघूर्ण, घूर्णी गति में परिवर्तन का प्रतिरोध करता है, अतः इसको पिण्ड के घूर्णी जड़त्व का माप माना जा सकता है। इस माप से यह बोध होता है कि किसी पिण्ड में पिण्ड के विभिन्न कण घूर्णन अक्ष के आपेक्ष किस प्रकार अवस्थित हैं। द्रव्यमान की तरह जड़त्व आघूर्ण एक नियत राशि नहीं होती, बल्कि, इसका मान पिण्ड के सापेक्ष इसकी अक्ष की स्थिति और दिग्विन्यास के ऊपर निर्भर करता है। किसी घूर्णन अक्ष के सापेक्ष घूर्णन करते दृढ़ पिण्ड का द्रव्यमान किस प्रकार वितरित है इसके एक माप के रूप में हम एक नया प्राचल परिभाषित करते हैं, जिसे परिभ्रमण त्रिज्या कहते हैं। यह पिण्ड के जड़त्व आघूर्ण और कुल द्रव्यमान से संबंधित है।
सारणी 6.1 विशिष्ट अक्षों के परितः कुछ नियमित आकार के पिण्डों के जड़त्त्व आघूर्ण
$\mathbf{Z}$ | पिण्ड | अक्ष | आरेख | I |
---|---|---|---|---|
1. | $R$ त्रिज्या का पतला, वृत्ताकार वलय |
वलय तल के लम्बवत् केन्द्र से गुजरती |
$M R^{2}$ | |
2. | $R$ त्रिज्या का पतला, वृत्ताकार वलय |
व्यास | $M R^{2} / 2$ | |
3. | $\mathrm{L}$ लंबाई की पतली छड़ |
मध्य बिन्दु से गुजरती लंबाई के लम्बवत् |
$M L^{2} / 12$ | |
4. | $R$ त्रिज्या की वृत्ताकार चकती |
केन्द्र से गुजरती तल के लम्बवत् |
$M R^{2} / 2$ | |
5. | $R$ त्रिज्या की वृत्ताकार चकती |
व्यास | $M R^{2} / 4$ | |
6. | $R$ त्रिज्या का खोखला बेलन |
बेलन की अक्ष | $M R^{2}$ | |
7. | $R$ त्रिज्या का ठोस बेलन |
बेलन की अक्ष | $M R^{2} / 2$ | |
8. | $R$ त्रिज्या का ठोस गोला |
व्यास | $2 M R^{2} / 5$ |
सारणी 6.1 से हम देख सकते हैं कि सभी पिण्डों के लिए, $\mathrm{I}=M k^{2}$, जहाँ $k$ की विमा वही है जो लंबाई की। मध्य बिन्दु से गुजरती छड़ के लम्बवत् अक्ष के लिए $k^{2}=L^{2} / 12$, अर्थात् $k=L / \sqrt{12}$ । इसी प्रकार वृत्ताकार चकती के उसके व्यास के परितः जड़त्व आघूर्ण के लिए $k=R / 2 । k$ पिण्ड और घूर्णन अक्ष का एक ज्यामितीय गुण है। इसे परिभ्रमण त्रिज्या कहा जाता है। किसी अक्ष के परितः किसी पिण्ड की परिभ्रमण त्रिज्या अक्ष से एक ऐसे कण की दूरी है जिसका द्रव्यमान सम्पूर्ण पिण्ड के द्रव्यमान के बराबर है। फलतः जिसका जडत्व आघूर्ण, दी गई अक्ष के परितः पिण्ड के वास्तविक जड़त्व आघूर्ण के बराबर है।
अतः, किसी दृढ़ पिण्ड का जड़त्व आघूर्ण, उसके द्रव्यमान, उसके आकार एवं आकृति, घूर्णन-अक्ष के परितः इसके द्रव्यमान के वितरण और इस अक्ष की स्थिति एवं दिग्विन्यास पर निर्भर करता है। समीकरण (6.34), में दी गई परिभाषा के आधार पर हम तुरन्त इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जड़त्व आघूर्ण का विमीय सूत्र $\mathrm{ML}^{2}$ एवं इसके SI मात्रक $\mathrm{kg} \mathrm{m}^{2}$ हैं।
किसी पिण्ड के घूर्णन के जड़त्व के माप के रूप में इस अत्यंत महत्वपूर्ण राशि $I$ के बहुत से व्यावहारिक उपयोग हैं। वाष्प इंजन और ऑटोमोबाइल इंजन जैसी मशीनें जो घूर्णी गति पैदा करती हैं, इनमें बहुत अधिक जड़त्व आघूर्ण वाली एक चकती लगी रहती है जिसे गतिपालक चक्र कहते हैं। अपने विशाल जड़त्व आघूर्ण के कारण यह चक्र वाहन की गति में अचानक परिवर्तन नहीं होने देता। इससे गति धीरे-धीरे परिवर्तित होती है, गाड़ी झटके खा-खाकर नहीं चलती और वाहन पर सवार यात्रियों के लिए सवारी आरामदेह हो जाती है।
6.10 अचल अक्ष के परितः शुद्ध घूर्णी गतिकी
हमने पहले भी स्थानांतरण गति और घूर्णी गति के बीच समतुल्यता के संकेत दिए हैं। उदारहण के लिए यह कि कोणीय वेग $\boldsymbol{\omega}$ का घूर्णी गति में वही भूमिका है जो रेखीय वेग $\mathbf{v}$ का स्थानांतरण गति में। हम इस समतुल्यता को आगे बढ़ाना चाहते हैं। ऐसा करते समय हम अपना विवेचन अचर (स्थिर) अक्ष के परितः घूर्णन तक ही सीमित रखेंगे। ऐसी गति के लिए केवल एक स्वातंत्र्य-कोटि की आवश्यकता होगी अर्थात् इसका वर्णन करने के लिए केवल एक स्वतंत्र चर कोणीय विस्थापन चाहिए। यह रेखीय गति में स्थानांतरण के संगत है। यह अनुभाग केवल शुद्ध गतिकी से संबंधित है। गति विज्ञान की ओर हम अगले अनुभाग में मुखातिब होंगे।याद करें, कि किसी घूर्णन करते हुए पिण्ड का कोणीय विस्थापन बताने के लिए हमने इस पिण्ड पर कोई कण $P$ ले लिया था (चित्र 6.29)। जिस तल में यह कण गति करता है उसमें इसका कोणीय विस्थापन $\theta$ ही सम्पूर्ण पिण्ड का कोणीय विस्थापन है; $\theta$ एक नियत दिशा से मापा जाता है, जिसको यहाँ हम $x^{\prime}$ - अक्ष ले लेते हैं जो बिन्दु $\mathrm{P}$ के गति के तल में स्थित $X$-अक्ष के समानांतर रेखा है। ध्यान दें कि $Z$-अक्ष घूर्णन-अक्ष है और कण $\mathrm{P}$ की गति का तल $x-y$ तल के समानांतर है। चित्र 6.29 में $\theta _{0}$, भी दर्शाया गया है जो $t=0$ पर कोणीय विस्थापन है। हम यह भी याद करें कि कोणीय वेग, समय के साथ कोणीय विस्थापन में होने वाले परिवर्तन की दर है। यानि, $\boldsymbol{\omega}=\mathrm{d} \boldsymbol{\theta} / \mathrm{d} t$ । ध्यान दें, कि चूंकि घूर्णन अक्ष अचल है, कोणीय वेग के साथ सदिश की तरह व्यवहार करने की आवश्यकता नहीं है। कोणीय त्वरण, $\boldsymbol{\alpha}=\mathrm{d} \boldsymbol{\omega} / \mathrm{d} t$ है।
शुद्ध घूर्णी गतिकी में प्रयुक्त होने वाली राशियाँ, कोणीय विस्थापन $(\theta)$, कोणीय वेग $(\omega)$ एवं कोणीय त्वरण $(\boldsymbol{\alpha})$ क्रमशः स्थानांतरीय शुद्ध गतिकी की राशियों रेखीय विस्थापन (x), रेखीय वेग (v) एवं रेखीय त्वरण (a) के समतुल्य हैं। सम (यानि अचर) त्वरण के तहत स्थानांतरीय शुद्ध गतिकी के समीकरण हम जानते हैं। वे हैं :
$$ \begin{align*} & v=v _{0}+a t \tag{a} \\ & x=x _{0}+v _{0} t+\frac{1}{2} a t^{2} \tag{b} \\ & v^{2}=v _{0}^{2}+2 a x \tag{c} \end{align*} $$
जहाँ $x _{0}=$ प्रारंभिक विस्थापन एवं $v _{0}=$ प्रारंभिक वेग है। शब्द ‘प्रारंभिक’ का अर्थ है $t=0$ पर राशि का मान।
इनके संगत, अचर त्वरण से घूर्णी गति करती हुई वस्तु के लिए शुद्ध घूर्णी गतिकी के समीकरण होंगे :
$$ \begin{equation*} \omega=\omega _{0}+\alpha t \tag{6.36} \end{equation*} $$
$$ \begin{align*} & \theta=\theta _{0}+\omega _{0} t+\frac{1}{2} \alpha t^{2} \tag{6.37} \\ & \text { और } \omega^{2}=\omega _{0}^{2}+2 \alpha\left(\theta-\theta _{0}\right) \tag{6.38} \end{align*} $$
जहाँ $\theta _{0}=$ घूर्णन करते पिण्ड का प्रारंभिक कोणीय विस्थापन है एवं $\omega _{0}=$ इस पिण्ड का प्रारंभिक कोणीय वेग है।
चित्र 6.29 किसी दृढ़ पिण्ड की कोणीय स्थिति बताना
6.11 अचल अक्ष के परितः घूर्णी गतिकी
सारणी 6.2 में रेखीय गति से संबंधी राशियों और उनके संगत घूर्णी गति की समतुल्य राशियों की सूची दी गई है। पिछले अनुभाग में हमने इन दोनों प्रकार की गतियों की शुद्ध गतिकी से तुलना की है। हमें यह भी पता है कि घूर्णी गति में जड़त्व आघूर्ण एवं बल आघूर्ण, रेखीय गति के क्रमशः द्रव्यमान एवं बलों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह सब जानने के बाद सारणी में दिए गए अन्य समतुल्यों के विषय में अनुमान लगा लेना अधिक कठिन नहीं है। उदाहरण के लिए, रेखीय गति में कार्य $=\mathrm{Fdx}$ । अतः एक अचल अक्ष के परितः घूर्णी गति में कार्य $\tau \mathrm{d} \theta$ होना चाहिए क्योंकि हम पहले से ही यह जानते हैं कि $\mathrm{d} x$ के संगत राशि है $\mathrm{d} \theta$ एवं $F$ के संगत राशि $\tau$ है। तथापि यह आवश्यक है कि राशियों की यह संगतता, गति विज्ञान के मजबूत आधार पर प्रतिष्ठापित की जाए। आगे हम यही करने जा रहे हैं।
इससे पहले कि हम अपनी बात शुरू करें, एक अचल अक्ष के परितः घूर्णी गति में एक सरलीकरण की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। क्योंकि अक्ष स्थिर है, हमें अपने विवेचन में बल आघूर्णों एवं कोणीय संवेगों के इसके अनुदिश अवयवों पर ही विचार करने की आवश्यकता होगी। केवल यही घटक पिण्ड को घूर्णन कराते हैं। बल आघूर्ण का अक्ष से अभिलंबवत घटक अक्ष को उसकी स्थिति से घुमाने का प्रयास करता है। हालांकि हम मानकर चलेंगे कि बल आघूर्ण के इस घटक को संतुलित करने हेतु आवश्यक बल आघूर्ण उत्पन्न होंगे जो अक्ष की स्थिति बनाए रखने के लिए उत्तरदायी होंगे। अतः इन अभिलंबवत् बल आघूर्ण के घटकों पर विचार में करने की आवश्यकता नहीं है। पर्याय में हमें निम्न विचार में लाने की आवश्यकता है:
(1) पिण्ड पर कार्य करने वाले वे बल जो घूर्णन अक्ष के लम्बवत् तल में हैं।
(2) पिण्ड के कणों की स्थिति-सदिशों के केवल वे अवयव जो घर्णन अक्ष के लम्बवत् हैं।
या यूँ कहें कि बलों और स्थिति सदिशों के अक्ष के अनुदिश लिए गए अवयवों को हमें गणना में लाने की आवश्यकता नहीं है।
बल आघूर्ण द्वारा किया गया कार्य
चित्र 6.30 एक अचल अक्ष के परितः घूमते पिण्ड के किसी कण पर लगे बल $\mathbf{F} _{1}$ द्वारा किया गया कार्य। कण, अक्ष पर स्थित केन्द्र $C$ वाले वृत्त पर चलता है। चाप $\mathrm{P} _{1} \mathrm{P} _{1}^{\prime}\left(\mathrm{d} _{1}\right)$ कण का विस्थापन बताता है।
चित्र 6.30 में एक अचल अक्ष के परितः घूर्णन करता एक दृढ़ पिण्ड दर्शाया गया है। घूर्णन अक्ष, $Z$-अक्ष है, जो पृष्ठ के अभिलम्बवत् है। जैसा ऊपर बताया गया है हमें केवल उन्हीं बलों पर विचार करने की आवश्यकता है जो अक्ष के अभिलंबवत् तल में अवस्थित है। पिण्ड के किसी कण पर, जिसकी स्थिति $\mathrm{P} _{1}$, से दर्शाई गई है, एक बल $\mathbf{F} _{1}$ लगता है जिसकी क्रिया रेखा, अक्ष के अभिलम्बवत् तल में है। सुविधा के लिए हम इसको $x^{\prime}-y^{\prime}$ तल कहते हैं (यह हमारे पृष्ठ का तल ही है)। $\mathrm{P} _{1}$ पर स्थित कण $r _{1}$ त्रिज्या के वृत्त पर चलता है जिसका केन्द्र अक्ष पर है; $\mathrm{CP} _{1}=r _{1}$ ।
$\Delta t$ समय में, कण, $\mathrm{P} _{1}{ }^{\prime}$ पर पहुँच जाता है। इसलिए कण के विस्थापन $\mathrm{d} \mathbf{s} _{1}$ का परिमाण $\mathrm{d} s _{1}=r _{1} \mathrm{~d} \theta$ है। जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। इसकी दिशा वृत्त के स्पर्श रेखा के अनुदिश हैं। कण पर बल द्वारा किया गया कार्य -
$\mathrm{d} W _{1}=\mathbf{F} _{1} \cdot \mathrm{d} \mathbf{s} _{1}=F _{1} \mathrm{~d} s _{1} \cos \varphi _{1}=F _{1}\left(r _{1} \mathrm{~d} \theta\right) \sin \alpha _{1}$ जहाँ $\varphi _{1}, \mathbf{F} _{1}$ और $\mathrm{P} _{1}$ पर खींची गई स्पर्श रेखा के बीच बना कोण है, और $\alpha _{1}, \mathbf{F} _{1}$ एवं त्रिज्या $\mathbf{O P} _{\mathbf{1}}$ के मध्य कोण हैं। $\varphi _{1}+\alpha _{1}=90^{\circ}$ ।
मूल बिन्दु के परितः $\mathbf{F} _{1}$ के कारण बल आघूर्ण $\mathbf{O P} _{1} \times \mathbf{F} _{1}$ है। $\mathbf{O P} _{1}=\mathbf{O C}+\mathbf{C P} _{1}$ [चित्र 6.17(b) देखें] चूंकि $\mathbf{O C}$ अक्ष के अनुदिश है इसके कारण बल आघूर्ण पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है। $\mathbf{F} _{1}$ के कारण प्रभाव बल आघूर्ण है : $\boldsymbol{\tau} _{1}=\mathbf{C P} _{1} \times \mathbf{F} _{1}$; यह घूर्णी अक्ष के अनुदिश है तथा इसका परिमाण $\tau _{1}=r _{1} F _{1} \sin \alpha$ है। अत:
$\mathrm{d} W _{1}=\tau _{1} \mathrm{~d} \theta$
यदि पिण्ड पर एक से अधिक बल कार्य कर रहे हों, तो उन सबके द्वारा किए गए कार्यों को जोड़ने से पिण्ड पर किया गया कुल कार्य प्राप्त होगा। विभिन्न बलों के कारण लगे बल आघूर्णों के परिमाणों को $\tau _{1}, \tau _{2}, \ldots$ इत्यादि से दर्शाएँ तो
$\mathrm{d} W=\left(\tau _{1}+\tau _{2}+\ldots\right) \mathrm{d} \theta$
सारणी 6.2 स्थानांतरीय एवं घूर्णी गति की तुलना
रेखीय गति | अचल अक्ष के परितः घूर्णी गति | |
---|---|---|
1 | विस्थापन $x$ | कोणीय विस्थापन $\theta$ |
2 | वेग $v=d x / d t$ | कोणीय वेग $\omega=d \theta / d t$ |
3 | त्वरण $a=d v / d t$ | कोणीय त्वरण, $\alpha=d \omega / d t$ |
4 | द्रव्यमान $M$ | जड़त्त्व आघूर्ण $I$ |
5 | बल $F=M a$ | बल आघूर्ण $\tau=I \alpha$ |
6 | कार्य $d W=F d s$ | कार्य $W=\tau d \theta$ |
7 | गतिज ऊर्जा $K=M v^{2} / 2$ | गतिज ऊर्जा $K=I \omega^{2} / 2$ |
8 | शक्ति $P=F v$ | शक्ति $P=\tau \omega$ |
9 रेखीय संवेग $p=M v$ | कोणीय संवेग $L=I \omega$ |
याद रहे, कि बल आघर्णों को जन्म देने वाले बल तो अलग-अलग कणों पर लग रहे हैं, मगर कोणीय विस्थापन $\mathrm{d} \theta$ सभी कणों के लिए समान है। अब जैसा कि इस अनुभाग के प्रारंभ में कहा गया था, हमारे लिए सभी बल आघूर्ण $z$-अक्ष के अनुदिश प्रभावी हैं। अतः कुल बल आघूर्ण का परिमाण $\tau$, प्रत्येक बल आघूर्णों के परिमाणों $\tau _{1}, \tau _{2} \ldots$ के बीजगणितीय योग के बराबर है। अर्थात् $\tau=\tau _{1}+\tau _{2}+\ldots$. , अतः हम कह सकते हैं
$$ \begin{equation*} \mathrm{d} W=\tau \mathrm{d} \theta \tag{6.39} \end{equation*} $$
यह समीकरण एक अचल अक्ष के परितः घूमते पिण्ड पर लगे कुल बाह्य बल आघूर्ण $\tau$ के द्वारा किया गया कार्य बताता है। रेखीय गति के संगत समीकरण
$\mathrm{d} W=F \mathrm{~d} s$
से इसकी तुल्यता स्पष्ट ही है। समीकरण (6.39) के दोनों पक्षों को $\mathrm{d} t$ से विभाजित करने पर
$$ \begin{equation*} P=\frac{\mathrm{d} W}{\mathrm{~d} t}=\tau \frac{\mathrm{d} \theta}{\mathrm{d} t}=\tau \omega \tag{6.40} \end{equation*} $$
या $P=\pi \omega$
यह तात्क्षणिक शक्ति के लिए समीकरण है। अचल अक्ष के परितः घूर्णी गति में शक्ति के इस समीकरण की तुलना रेखीय गति में शक्ति की समीकरण $P=F v$ से कर सकते हैं।
एक पूर्णतः दृढ़ पिण्ड में विभिन्न कणों की कोई आंतरिक गति नहीं होती। अतः, बाह्य बल आघूर्णों द्वारा किया गया कार्य विसरित नहीं होता। परिणामस्वरूप पिण्ड की गतिज ऊर्जा बढ़ती चली जाती है। पिण्ड पर किए गए कार्य की दर, समीकरण (6.40) द्वारा प्राप्त होती है। इसी दर से पिण्ड की गतिज ऊर्जा बढ़ती है। गतिज ऊर्जा की वृद्धि की दर
$$ \frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t} \frac{I \omega^{2}}{2}=I \frac{(2 \omega)}{2} \frac{\mathrm{d} \omega}{\mathrm{d} t} $$
हम मानते हैं कि समय के साथ पिण्ड का जड़त्व आघूर्ण नहीं बदलता। यानि कि पिण्ड का द्रव्यमान स्थिर रहता है तथा पिण्ड दृढ़ बना रहता है और इसके सापेक्ष घूर्णन अक्ष की स्थिति नहीं बदलती।
तब, चूंकि $\alpha=\mathrm{d} \omega / \mathrm{d} t$, अत:
$$ \frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t} \frac{I \omega^{2}}{2}=I \omega \alpha $$
कार्य करने की दर को गतिज ऊर्जा में वृद्धि की दर के बराबर रखने पर
$$ \begin{align*} & \tau \omega=I \omega \alpha \\ & \tau=I \alpha \tag{6.41} \end{align*} $$
समीकरण (6.41) सरल रेखीय गति के लिए न्यूटन के द्वितीय नियम $F=m a$ से मिलती जुलती है।
ठीक वैसे ही जैसे बल पिण्ड में रेखीय त्वरण उत्पन्न करता है, बल आघूर्ण इसमें कोणीय त्वरण पैदा करता है। कोणीय त्वरण, आरोपित बल आघूर्ण के समानुपाती और पिण्ड के जड़त्व आघूर्ण के व्युत्क्रमानुपाती होता है। इस संदर्भ में समीकरण (6.41) को, एक अचल अक्ष के परितः घूर्णन के लिए लागू होने वाला न्यूटन का द्वितीय नियम, कह सकते हैं।
6.12 अचल अक्ष के परितः घूर्णी गति का कोणीय संवेग
अनुभाग 6.7 में, हमने कणों के निकाय के कोणीय संवेग के विषय में पढ़ा था। उससे हम यह जानते हैं, कि किसी बिन्दु के परितः, कणों के निकाय के कुल कोणीय संवेग में समय के साथ होने वाले परिवर्तन की दर, उस निकाय पर उसी बिन्दु के परितः लिए गए कुल बाहय बल आघूर्ण के बराबर होती है। जब कुल बाह्य बल आघूर्ण शून्य हो, तो निकाय का कुल कोणीय संवेग संरक्षित रहता है।
अब हम कोणीय संवेग का अध्ययन, एक अचल अक्ष के परितः घूर्णन के विशिष्ट मामलों में करना चाहते हैं। $n$-कणों के निकाय के कुल कोणीय संवेग की व्यापक समीकरण है,
$$ \begin{equation*} \mathbf{L}=\sum _{i=1}^{N} \mathbf{r} _{i} \times \mathbf{p} _{i} \tag{6.25b} \end{equation*} $$
अब हम पहले, एक अचल अक्ष के परितः किसी दृढ़ पिण्ड के कोणीय संवेग पर विचार करेंगे। प्राप्त समीकरण को सरलतम पदों में लाकर फिर पिण्ड के सभी कणों के लिए इसका जोड़ निकालेंगे तथा पूरे पिण्ड के लिए $\mathbf{L}$ प्राप्त करेंगे। एकाकी कण के लिए, $\boldsymbol{l}=\mathbf{r} \times \mathbf{p}$.
चित्र (6.17b) देखिए। घूर्णन करती वस्तु के किसी विशिष्ट कण का स्थिति सदिश $\mathbf{O P}=\mathbf{r}$ है। चित्र में $\mathbf{r}=\mathbf{O C}+\mathbf{C P}($ क्योंकि $\mathbf{p}=m \mathbf{v}$ )
$$ \boldsymbol{l}=(\mathbf{O C} \times m \mathbf{v})+(\mathbf{O C} \times m \mathbf{v}) $$
$\mathrm{P}$ पर कण के रेखीय वेग $\mathbf{v}$ का परिमाण $v=\omega r _{\perp}$ है जहाँ $r _{\perp} \mathrm{CP}$ की लम्बाई या $P$ की घूर्णी अक्ष के लम्बवत् दूरी है। $v$ कण द्वारा बनाए गए वृत्त के बिन्दु $P$ पर स्पर्श रेखा के अनुदिश है। दाहिने हाथ के नियम द्वारा ज्ञात कर सकते हैं कि $\mathbf{C P} \times \mathbf{v}$ अचल अक्ष के अनुदिश है। घूर्णन अक्ष (जो यहाँ $z$-अक्ष है) को इकाई सदिश
$\widehat{\mathbf{k}}$ के अनुदिश व्यक्त करने पर
$$ \begin{aligned} & \mathbf{C P} \times m \mathbf{v}=r _{\perp}(m v) \hat{\mathbf{k}} \\ &=m r _{\perp}^{2} \omega \hat{\mathbf{k}} \quad\left(v=\omega r _{\perp}\right) \end{aligned} $$
इसी प्रकार हम जाँच सकते हैं कि $\mathbf{O C} \times \mathbf{v}$ अचर अक्ष के लम्बवत् हैं। अचर अक्ष (यानि $z$-अक्ष) के अनुदिश $\boldsymbol{l}$ के घटक से $\boldsymbol{l} _{z}$ से दर्शाने पर
$$ \boldsymbol{l} _{\mathrm{z}}=\mathbf{C P} \times m \mathbf{v}=m r _{\perp}^{2} \omega \hat{\mathbf{k}} $$
तथा $\boldsymbol{l}=\boldsymbol{l} _{z}+\mathbf{O C} \times m \mathbf{v}$
ध्यान दें कि $\boldsymbol{l} _{\mathrm{z}}$ अचर अक्ष के समांतर है परन्तु $\boldsymbol{l}$ नहीं। सामान्यतया किसी कण का कोणीय संवेग घूर्णी अक्ष के अनुदिश नहीं होता है अर्थात् आवश्यक नहीं कि $\boldsymbol{l}$ तथा $\boldsymbol{\omega}$ एक-दूसरे के समांतर हों। रेखीय गति में इससे संगत तथ्य से इसकी तुलना करें। रेखीय गति में किसी कण के $\mathbf{p}$ तथा $\mathbf{v}$ सदैव एक दूसरे के समांतर होते हैं।
पूरे पिण्ड का कोणीय संवेग ज्ञात करने के लिए, हम इसके सभी कणों के लिए $\boldsymbol{l} _{i}$ के मानों को जोड़ेंगे यानि $i$ का मान 1 से $n$ तक रखते हुए
$$ \mathbf{L}=\sum \boldsymbol{l} _{i}=\sum \boldsymbol{l} _{i z}+\sum \mathbf{O C} _{i} \times m _{i} \mathbf{v} _{i} $$
$z$-अक्ष के अनुदिश तथा लम्बवत् $\mathbf{L}$ के घटकों को हम $\mathbf{L} _{z}$ तथा $\mathbf{L} _{\perp}$ से दर्शात हैं।
$$ \begin{equation*} \mathbf{L} _{\perp}=\sum \mathbf{O C} _{i} \times m _{i} \mathbf{v} _{i} \tag{6.42a} \end{equation*} $$
जहाँ $m _{i}$ तथा $\mathbf{v} _{\mathrm{i}} i$ वें कण के द्रव्यमान तथा वेग हैं तथा $\mathrm{C} _{\mathrm{i}}$ कण द्वारा बनाए गए वृत्त का केन्द्र है।
$$ \mathbf{L} _{z} \sum \boldsymbol{l} _{i z}=\sum _{i} m _{i} r _{i}^{2} \omega \hat{\mathbf{k}} $$
या
$$ \begin{equation*} \mathbf{L} _{z}=I \omega \hat{\mathbf{k}} \tag{6.42b} \end{equation*} $$
समीकरण (6.42b) स्वाभाविक रूप से अनुसरित है, क्योंकि $i$ वें कण की अक्ष से लंबवत् दूरी $r _{\mathrm{i}}$ है, एवं घूर्णन अक्ष के परितः पिण्ड का जड़त्व आघूर्ण $I=\sum m _{i} r _{i}^{2}$ है। ध्यान दें $\quad \mathbf{L}=\mathbf{L} _{z}+\mathbf{L} _{\perp}$
दृढ़ पिण्ड, जिन पर हमने इस अध्याय में मुख्यतः विचार किया है, घूर्णन अक्ष के परितः सममित हैं अर्थात्, घूर्णन अक्ष उनकी सममिति अक्षों में से एक है। इस प्रकार के पिण्डों के लिए, दिए गए $\mathbf{O C}$ के संगत प्रत्येक $\mathbf{v} _{i}$ वेग युक्त कण के लिए $\mathrm{C} _{i}$ केन्द्र वाले वृत्त के, व्यास के दूसरे सिरे पर, $-\mathbf{v} _{i}$ वेग वाला दूसरा कण होता है। इस प्रकार के कण-युगलों का $\mathbf{L} _{\perp}$ में कुल योगदान शून्य होगा। परिणामस्वरूप सममित पिण्डों के लिए $\mathbf{L} _{\perp}$ शून्य होता है। अत:
$$ \begin{equation*} \mathbf{L}=\mathbf{L} _{z}=I \omega \hat{\mathbf{k}} \tag{6.42~d} \end{equation*} $$
उन पिण्डों के लिए जो घूर्णन अक्ष के परितः सममित नहीं है, $\mathbf{L} \neq \mathbf{L} _{z}$ । इसलिए $\mathbf{L}$ घूर्णन अक्ष के अनुदिश नहीं होता। सारणी 6.1 में क्या आप बता सकते हैं कि किन मामलों में $\mathbf{L}=\mathbf{L} _{z}$ लागू नहीं होता?
आइये, समीकरण (6.42a) को समय के आधार पर अवकलित करें क्योंकि $\hat{\mathbf{k}}$ एक अचर सदिश है :
$\frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t}\left(\mathbf{L} _{z}\right)=\left(\frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t}(I w)\right) \hat{\mathbf{k}}$
समीकरण (6.26b) के अनुसार
$$ \frac{\mathrm{d} \mathbf{L}}{\mathrm{d} t}=\tau $$
जैसा कि आपने पिछले भाग में देखा है एक अचर अक्ष के परितः घूर्णी पिण्ड के लिए बाहय बल आघूर्णी के केवल उन्हीं घटकों पर विचार करने की आवश्यकता है जो घूर्णी अक्ष के अनुदिश हैं। अत: $\tau=\tau \hat{\mathbf{k}}$ । चूँकि $\mathbf{L}=\mathbf{L} _{z}+\mathbf{L} _{\perp}$ तथा $\mathbf{L} _{z}$ की दिशा (सदिश $\widehat{\mathbf{k}}$ ) अचर है, एक अचर अक्ष के परितः घूर्णी पिण्ड के लिए
$$ \begin{equation*} \frac{\mathrm{d} \mathbf{L} _{z}}{\mathrm{~d} t}=\tau \widehat{\mathbf{k}} \tag{6.43a} \end{equation*} $$
तथा $\frac{\mathrm{d} \mathbf{L} _{\perp}}{\mathrm{d} t}=0$
अतः अचल अक्ष के परितः घूर्णी पिण्ड का अचल अक्ष के लम्बवत् कोणीय संवेग का घटक अचर है। चूँकि $\mathbf{L} _{z}=I \omega \hat{\mathbf{k}}$, समीकरण (6.43a) से
$$ \begin{equation*} \frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t}(I \omega)=\tau \tag{6.43c} \end{equation*} $$
यदि जड़त्व आघूर्ण $I$ समय के साथ परिवर्तित नहीं होता है तो
$$ \frac{\mathrm{d}}{\mathrm{d} t}(I \omega)=I \frac{\mathrm{d} \omega}{\mathrm{d} t}=I \alpha $$
और समीकरण $(6.43 \mathrm{c})$ से
$$ \begin{equation*} \tau=I \alpha \tag{6.41} \end{equation*} $$
कार्य-गतिज ऊर्जा संबंध से यह समीकरण हम पहले ही व्युत्पन्न कर चुके हैं।
6.12.1 कोणीय संवेग का संरक्षण
अब हम इस स्थिति में हैं कि कोणीय संवेग के संरक्षण के सिद्धांत का पुनरावलोकन कर सकें। हम अपने विवेचन को एक अचल अक्ष के परितः घूर्णन तक सीमित रखेंगे। समीकरण (6.43c) से, यदि बाह्य बल आघूर्ण शून्य है तो
$$ \begin{equation*} L _{\mathrm{z}}=I \omega=\text { अचरांक } \tag{6.44} \end{equation*} $$
सममित पिण्डों के लिए, समीकरण (6.42d) से, $L _{z}$ के स्थान पर $L$ लेते हैं। ( $L$ तथा $L _{z}$ क्रमशः $\mathbf{L}$ तथा $\mathbf{L} _{z}$ के परिमाण हैं)।
यह अचल अक्ष घूर्णन के लिए समीकरण (6.29a) का अन्य रूप है जो कोणीय संवेग के संरक्षण का व्यापक नियम व्यक्त करता है। समीकरण (6.44) हमारे दैनिक जीवन की बहुत सी स्थितियों पर उपयोगी है। अपने मित्र के साथ मिल कर आप यह प्रयोग कर सकते हैं। एक घुमाव कुर्सी पर बैठिए अपनी भुजाएँ मोड़े रखिए और पैरों को जमीन से ऊपर उठाकर रखिए। अपने मित्र से कहिए कि वह कुर्सी को तेजी से घुमाए। जबकि कुर्सी पर्याप्त कोणीय चाल से घूम रही हो अपनी भुजाओं को क्षैतिज दिशा में फैलाइये। क्या परिणाम होता है? आपकी कोणीय चाल घट जाती है। यदि आप अपनी भुजाओं को फिर शरीर के पास ले आयें तो कोणीय चाल फिर से बढ़ जाती है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें कोणीय संवेग का संरक्षण स्पष्ट है। यदि घूर्णन यंत्र व्यवस्था में घर्षण नगण्य हो, तो कुर्सी की घूर्णन अक्ष के परितः कोई बाह्य बल आघूर्ण प्रभावी नहीं रहेगा अतः $I \omega$ का मान नियत है। भुजाओं को फैलाने से घूर्णन अक्ष के परितः $I$ बढ़ जायेगा, परिणामस्वरूप कोणीय वेग $\omega$ कम हो जायेगा। भुजाओं को शरीर के पास लाने से विपरीत परिस्थिति प्राप्त होगी।
चित्र 6.32 (a) कोणीय संवेग के संरक्षण का प्रदर्शन। घुमाऊ कुर्सी पर बैठी लड़की अपनी भुजाओं को शरीर के पास लाती है/ दूर ले जाती है।
एक सरकस का कलाबाज और एक गोताखोर इस सिद्धांत का बखूबी लाभ उठाते हैं। इसके अलावा स्केटर्स और भारतीय या
चित्र 6.32 (b) कलाबाज अपने कला प्रदर्शन में कोणीय संवेग के नियम का लाभ लेते हुए।
पश्चिमी शास्त्रीय नृतक जब एक पैर के पंजे पर घूर्णन करते हैं तो वे उस सिद्धांत संबंधी अपने असाधारण प्रावीण्य का प्रदर्शन करते है।
सारांश
1. एक आदर्श दृढ़ पिंड एक ऐसा पिंड है जिसके कणों पर बल लगाने पर भी उनके बीच की दूरी नहीं बदलती।
2. एक ऐसा दृढ़ पिंड जो किसी बिन्दु पर, या किसी रेखा के अनुदिश स्थिर हो केवल घूर्णी गति ही कर सकता है। जो पिंड किसी प्रकार भी स्थिर न हो वह या तो स्थानान्तरण गति करेगा या घूर्णी और स्थानान्तरण दोनों प्रकार की संयोजित गति।
3. एक नियत अक्ष के परितः घूर्णन में, दृढ़ पिण्ड का प्रत्येक कण अक्ष के लम्बवत् तल में एक वृत्ताकार पथ पर चलता है जिसका केन्द्र अक्ष पर स्थित होता है। अर्थात् घूर्णन करते दृढ़ पिंड की अक्ष के लम्बवत् प्रत्येक रेखा का कोणीय वेग किसी क्षण विशेष पर समान रहता है।
4. शुद्ध स्थानान्तरण में, पिंड का प्रत्येक कण किसी क्षण पर समान वेग से चलता है।
5. कोणीय वेग एक सदिश है। इसका परिमाण $\omega=\mathrm{d} \theta / \mathrm{d} t$ है और इसकी दिशा घूर्णन अक्ष के अनुदिश होती है। नियत अक्ष के परितः घूर्णन के लिए, सदिश $\boldsymbol{\omega}$ की दिशा भी नियत होती है।
6. दो सदिशों $\mathbf{a}$ एवं $\mathbf{b}$ का सदिश (या क्रॉस) गुणन एक सदिश है जिसको हम $\mathbf{a} \times \mathbf{b}$ लिखते हैं। इस सदिश का परिमाण $a b \sin \theta$ है और इसकी दिशा का ज्ञान दक्षिणवर्त पेंच के नियम या दाएं हाथ के नियम द्वारा होता है।
7. नियत अक्ष के परितः घूर्णन करते दृढ़ पिंड के किसी कण का रेखीय वेग $\mathbf{v}=\boldsymbol{\omega} \times \mathbf{r}$, जहाँ $\mathbf{r}$ अक्ष पर लिए गये किसी मूल बिन्दु से कण की स्थिति बताने वाला सदिश है। यह संबंध, दृढ़ पिंड की एक नियत बिन्दु के परितः होने वाली अधिक व्यापक गति के लिए लागू होता है। उस स्थिति में $r$, स्थिर बिन्दु को मूल बिन्दु लेकर कण की स्थिति दर्शाने वाला सदिश है।
8. कणों के एक निकाय का द्रव्यमान केन्द्र एक ऐसा बिन्दु है जिसकी स्थिति सदिश हम निम्नलिखित समीकरण द्वारा व्यक्त कर सकते हैं :
$\mathbf{R}=\frac{\sum m _{i} \mathbf{r} _{i}}{M}$
9. कणों के निकाय के द्रव्यमान केन्द्र के वेग को हम $\mathbf{V}=\mathbf{P} / M$ द्वारा लिख सकते हैं। यहाँ $\mathbf{P}$ निकाय का रेखीय संवेग है। द्रव्यमान केन्द्र इस प्रकार गति करता है मानो निकाय का सम्पूर्ण द्रव्यमान इस बिन्दु पर संकेंद्रित हो और सभी बाह्य बल भी इसी बिन्दु पर प्रभावी हों। यदि निकाय पर कुल बाह्य बल शून्य है तो इसका कुल रेखीय संवेग अचर रहता है।
10. $n$ कणों के निकाय का मूल बिन्दु के परित: कोणीय संवेग,
$\mathbf{L}=\sum _{i=1}^{n} \mathbf{r} _{i} \times \mathbf{p} _{i}$
$n$ कणों के निकाय का मूल बिन्दु के परितः ऐंठन या बल आघूर्ण,
$\tau=\sum _{1} \mathbf{r} _{i} \times \mathbf{F} _{i}$
$i$ वें कण पर लगने वाले बल $\mathbf{F} _{i}$ में, बाह्य एवं आंतरिक सभी बल शामिल हैं। न्यूटन के तृतीय नियम को मानते हुए कि किन्ही दो कणों के बीच बल, उनकी स्थितियों को मिलाने वाली रेखा के अनुदिश लगते हैं, हम दर्शा सकते हैं $\tau _{\text {int }}=0$ एवं,
$\frac{\mathrm{d} \mathbf{L}}{\mathrm{d} t}=\tau _{\text {ext }}$
11. एक दृढ़ पिण्ड के यांत्रिक संतुलन में होने के लिए,
(i) यह स्थानान्तरीय संतुलन में हो, अर्थात, इस पर लगने वाला कुल बाह्य बल शून्य हो, $\boldsymbol{\Sigma} \mathbf{F} _{i}=\mathbf{0}$ एवं,
(ii) यह घूर्णी संतुलन में हो, अर्थात्, इस पर लगने वाला कुल बाह्य बल आघूर्ण शून्य हो, : $\sum \tau _{i}=\sum \mathbf{r} _{i} \times \mathbf{F} _{i}=\mathbf{0}$;
12. किसी विस्तारित आकार के पिंड का गुरुत्व केन्द्र वह बिन्दु है जिसके परितः पिंड का कुल गुरुत्वीय बल आघूर्ण शून्य होता है।
13. किसी अक्ष के परितः एक दृढ़ पिंड का जड़त्व आघूर्ण $I=\sum m _{i} r _{i}^{2}$ सूत्र द्वारा परिभाषित किया जाता है। जहाँ $r _{\mathrm{i}}$ पिण्ड के $i$-वें कण की अक्ष से लम्बवत् दूरी है। घूर्णन की गतिज ऊर्जा $K=\frac{1}{2} I \omega^{2}$ है
राशि | संकेत | विमा | मात्रक | टिप्पणी |
---|---|---|---|---|
कोणीय वेग | $\boldsymbol{\omega}$ | $\left[\mathrm{T}^{-1}\right]$ | $\mathrm{rad} \mathrm{s}^{-1}$ | $\mathbf{v}=\boldsymbol{\omega} \times \mathbf{r}$ |
कोणीय संवेग | $\mathbf{L}$ | $\left[\mathrm{ML}^{2} \mathrm{~T}^{-1}\right]$ | $\mathrm{J} \mathrm{s}$ | $\mathbf{L}=\mathbf{r} \times \mathbf{p}$ |
बल आघूर्ण | $\boldsymbol{\tau}$ | $\left[\mathrm{ML}^{2} \mathrm{~T}^{-2}\right]$ | $\mathrm{N} \mathrm{m}$ | $\mathbf{\tau}=\mathbf{r} \times \mathbf{F}$ |
जड़त्व आघूर्ण | $I$ | $\left[\mathrm{ML}^{2}\right]$ | $\mathrm{kg} \mathrm{m}^{2}$ | $I=\sum \mathrm{m} _{\mathrm{i}} r _{\mathrm{i}}^{2} \perp$ |
विचारणीय विषय
1. किसी निकाय के द्रव्यमान केन्द्र की गति ज्ञात करने के लिए निकाय के आन्तरिक बलों का ज्ञान आवश्यक नहीं है। इसके लिए हमें केवल पिण्ड पर लगने वाले बाहय बलों का ज्ञान होना चाहिए।
2. कणों के किसी निकाय की गति को, इसके द्रव्यमान केन्द्र की स्थानान्तरीय गति और द्रव्यमान केन्द्र के परितः इसकी घूर्णी गति में अलग-अलग करके विचार करना कणों के निकाय के गति विज्ञान की एक उपयोगी तकनीक है। इस तकनीक का एक उदाहरण, कणों के निकाय की गतिज ऊर्जा $K$ को, द्रव्यमान के परितः निकाय के घूर्णन की गतिज ऊर्जा $K^{\prime}$ एवं द्रव्यमान केन्द्र की गतिज ऊर्जा $M V^{2} / 2$ में पृथक करना है।
$$ K=K^{\prime}+M V^{2} / 2 $$
3. परिमित आकार के पिंडों (अथवा कणों के निकायों) के लिए लाग होने वाला न्यूटन का द्वितीय नियम कणों के लिए लागू होने वाले न्यूटन के द्वितीय एवं तृतीय नियमों के ऊपर आधारित है।
4. यह स्थापित करने के लिए कि कणों के निकाय के कुल कोणीय संवेग परिवर्तन की दर, निकाय पर आरोपित कुल बल आघूर्ण है, हमें न केवल कणों के लिए लागू होने वाले न्यूटन के द्वितीय नियम की आवश्यकता होगी वरन् तृतीय नियम भी इस शर्त के साथ लागू करना होगा कि किन्ही दो कणों के बीच बल उनको मिलाने वाली रेखा के अनुदिश ही कार्य करते हैं।
5. कुल बाहय बल का शून्य होना और कुल बाहय बल आघूर्ण का शून्य होना दो स्वतंत्र शर्तें हैं। यह हो सकता है कि एक शर्त पूरी होती हो पर दूसरी पूरी न होती हो। बलयुग्म में कुल बाह्य बल शून्य है पर बल आघूर्ण शून्य नहीं है।
6. यदि कुल बाहय बल शून्य हो तो निकाय पर लगने वाला कुल बल आघूर्ण मूल बिन्दु के ऊपर निर्भर नहीं करता।
7. किसी पिंड का गुरुत्व केन्द्र उसके द्रव्यमान केन्द्र से तभी संपाती होता है जब गुरुत्व क्षेत्र पिंड के विभिन्न भागों पर समान होता है।
8. यदि दृढ़ पिंड एक नियत अक्ष के परितः घूर्णन कर रहा हो तब भी यह आवश्यक नहीं है कि इसका कोणीय संवेग $\mathbf{L}$, कोणीय वेग $\boldsymbol{\omega}$ के समान्तर हो। तथापि, इस अध्याय में वर्णित स्थिति में, जहाँ पिंड एक नियत अक्ष के परितः घूर्णन कर रहा है और वह अक्ष पिंड की सममित अक्ष भी है, संबंध $\mathbf{L}=I \boldsymbol{\omega}$ लागू होता है जहाँ $I$ घूर्णी अक्ष के परितः पिण्ड का जड़त्व आघूर्ण है।