“उपसहसंयोजन यौगिक आधुनिक अकार्बनिक व जैव अकार्बनिक रसायन तथा रासायनिक उद्योगों के आधार स्तंभ हैं।”
इससे पूर्व के एकक में हमने अध्ययन किया कि संक्रमण धातुएं बड़ी संख्या में संकुल यौगिक बनाती हैं, जिनमें धातु परमाणु अनेक ऋणायनों अथवा उदासीन अणुओं से इलेक्ट्रॉनों का सहसंयोजन कर परिबद्ध रहते हैं। आधुनिक पारिभाषिक शब्दावली में ऐसे यौगिक उपसहसंयोजन यौगिक कहलाते हैं। उपसहसंयोजन यौगिकों का रसायन आधुनिक अकार्बनिक रसायन का एक महत्वपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है। रासायनिक आबंधन एवं आण्विक संरचना की नई धारणाओं ने जैविक तंत्रों के जीवन घटकों में इन यौगिकों की कार्यप्रणाली की पूरी जानकारी उपलब्ध करवाई है। क्लोरोफिल, हीमोग्लोबिन तथा विटामिन
5.1 उपसहशंयोजन यौगिकों का वर्नर का सिद्धांत
सर्वप्रथम स्विस वैज्ञानिक अल्फ्रेड वर्नर (1866-1919) ने उपसहसंयोजन यौगिकों की संरचनाओं के संबंध में अपने विचार प्रतिपादित किए। उन्होंने अनेक उपसहसंयोजन यौगिक बनाए तथा उनकी विशेषताएं बताईं एवं उनके भौतिक तथा रासायनिक व्यवहार का सामान्य प्रायोगिक तकनीकों द्वारा अध्ययन किया। वर्नर ने धातु आयन के लिए प्राथमिक संयोजकता (primary valence) तथा द्वितीयक संयोजकता (secondary valence) की धारणा प्रतिपादित की। द्विअंगी यौगिक जैसे
नाइट्रेट विलयन आधिक्य में डालने पर कुछ क्लोराइड आयन
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उपरोक्त प्रेक्षणों तथा इन यौगिकों के विलयनों के चालकता मापन के परिणामों को निम्न बिंदुओं के आधार पर समझाया जा सकता है- (i) अभिक्रिया की अवधि में कुल मिलाकर छः समूह (क्लोराइड आयन या अमोनिया अणु अथवा दोनों) कोबाल्ट आयन से जुड़े हुए माने जाएं तथा (ii) यौगिकों को सारणी 5.1 में दर्शाए अनुसार सूत्रित किया जाए, जिनमें गुरूकोष्ठक में दर्शाए परमाणुओं की एकल सत्ता है जो अभिक्रिया की परिस्थितियों में वियोजित नहीं होती। वर्नर ने धातु आयन से सीधे जुड़े समूहों की संख्या को द्वितीयक संयोजकता नाम दिया; इन सभी उदाहरणों में धातु की द्वितीयक संयोजकता छः है।
सारणी 5.1 - कोबाल्ट ( III ) क्लोराइड-अमोनिया संकुलों का सूत्रीकरण
रंग | वूत्र | विलयन चालकता संबंध |
---|---|---|
पीला | ||
नीललोहित | ||
हरा | ||
बैंगनी |
यह ध्यान देने योग्य है कि सारणी 5.1 में अंतिम दो यौगिकों के मूलानुपाती सूत्र,
- उपसहसंयोजन यौगिकों में धातुएं दो प्रकार की संयोजकताएं दर्शाती हैं- प्राथमिक तथा द्वितीयक।
- प्राथमिक संयोजकताएं सामान्य रूप से आयननीय होती हैं तथा ऋणात्मक आयनों द्वारा संतुष्ट होती हैं।
- द्वितीयक संयोजकताएं अन-आयननीय होती हैं। ये उदासीन अणुओं अथवा ऋणात्मक आयनों द्वारा संतुष्ट होती हैं। द्वितीयक संयोजकता उपसहसंयोजन संख्या (Coordination number) के बराबर होती है तथा इसका मान किसी धातु के लिए सामान्यतः निश्चित होता है।
- धातु से द्वितीयक संयोजकता से आबंधित आयन समूह विभिन्न उपसहसंयोजन संख्या के अनुरूप दिक्स्थान में विशिष्ट रूप से व्यवस्थित रहते हैं।
आधुनिक सूत्रीकरण में इस प्रकार की दिक्स्थान व्यवस्थाओं को समन्वय बहुफलक (Coordination polyhedra) कहते हैं। गुरूकोष्ठक में लिखी स्पिशीज़ संकुल तथा गुरूकोष्ठक के बाहर लिखे आयन, प्रति आयन (Counter ions) कहलाते हैं।
उन्होंने यह भी अभिधारणा दी कि संक्रमण तत्वों के समन्वय यौगिकों में सामान्यत: अष्टफलकीय, चतुष्फलकीय व वर्ग समतली ज्यामितियाँ पाई जाती हैं। इस प्रकार,
द्वि लवण तथा संकुल में अंतर
द्वि लवण तथा संकुल दोनों ही दो या इससे अधिक स्थायी यौगिकों के रससमीकरणमितीय अनुपात (stoichiometric ratio) में संगठित होने से बनते हैं। तथापि ये भिन्न हैं क्योंकि द्वि लवण जैसे कार्नेलाइट,
5.2 उपसहसंयोजन यौगिकों से संबंधित कुण्छ प्रमुख पारिभाषिक शब्दव उनकी परिभाषाडं
( क) उपसहसंयोजन सत्ता या समन्वय सत्ता (Coordination Entity )
केंद्रीय धातु परमाणु अथवा आयन से किसी एक निश्चित संख्या में आबंधित आयन अथवा अणु मिलकर एक उपसहसंयोजन सत्ता का निर्माण करते हैं। उदाहरणार्थ,
( ख) केंद्रीय परमाणु/आयन
किसी उपसहसंयोजन सत्ता में, परमाणु/आयन जो एक निश्चित संख्या में अन्य आयनों/ समूहों से एक निश्चित ज्यामिती व्यवस्था में परिबद्ध रहता है, केंद्रीय परमाणु अथवा आयन कहलाता है। उदाहरणार्थ,
वर्नर का जन्म एलसेस के फ्रांसिसी प्रदेश के एक छोटे से समुदाय मुलहाउस में 12 दिसंबर 1866 में हुआ। इन्होंने रसायन का अध्ययन कार्लसुहेह (जर्मनी) में प्रांरभ किया तथा ज्युरिख (स्विटजरलैंड) में पूर्ण किया जहाँ इन्होंने 1890 में डॉक्टरेट के शोधग्रंथ में कुछ नाइट्रोजन युक्त कार्बनिक यौगिकों के गुणों में भिन्नता को समावयवता के आधार पर स्पष्ट किया। इन्होंने वान्ट हॉफ के चतुष्फलकीय कार्बन परमाणु के सिद्धांत को विस्तृत कर इसे नाइट्रोजन के लिए रूपांतरित किया। वर्नर ने भौतिक मापदंडों के आधार पर संकुल यौगिकों के प्रकाशीय एवं विद्युतीय गुणों में अंतर को दर्शाया। वास्तव में, वर्नर ने ही पहली बार कुछ उपसहसंयोजन यौगिकों में ध्रुवण घूर्णकता की खोज की। 29 वर्ष की उम्र में ही वे 1895 में ज्युरिख के टेक्निस्के हॉक्सकुले में प्रोफ़ेसर बन गए थे। अल्फ्रेड वर्नर एक रसायनज्ञ तथा शिक्षाशास्त्री थे। उनकी उपलब्धियों में उपसहसंयोजन यौगिकों के सिद्धांत का विकास सम्मिलित है। यह परिवर्तनकारी सिद्धांत, जिसमें वर्नर ने परमाणुओं तथा अणुओं के बीच आपस में आबंधन कैसे होता है, समझाया, केवल तीन वर्ष की अवधि (1890 से 1893) में प्रतिपादित किया। अपना शेष जीवन उन्होंने अपने नए विचारों को अभिपुष्ट करने के लिए आवश्यक प्रायोगिक समर्थन एकत्रित करने में व्यतीत किया। वर्नर पहले स्विस रसायनज्ञ थे जिन्हें परमाणुओं की सहलग्नता एवं उपसहसंयोजन सिद्धांत पर किए गए कार्य के लिए 1913 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
परमाणु/ आयन क्रमशः
( ग ) लिगन्ड
उपसहसंयोजन सत्ता में केंद्रीय परमाणु/आयन से परिबद्ध आयन अथवा अणु लिगन्ड कहलाते हैं। ये सामान्य आयन हो सकते हैं जैसे
जब एक लिगन्ड, धातु आयन से एक दाता परमाणु द्वारा परिबद्ध होता है, जैसे
जब एक द्विदंतुर अथवा बहुदंतुर लिगन्ड अपने दो या अधिक दाता परमाणुओं का प्रयोग एक साथ एक ही धातु आयन से आबंधन के लिए करता है, तो यह कीलेट (chelate) लिगन्ड कहलाता है। ऐसे बंधनकारी समूहों की संख्या लिगेन्ड की दंतुरता या डेन्टिसिटी (denticity) कहलाती है। ऐसे संकुल, कीलेट संकुल (chelate complexes) कहलाते हैं तथा ये इसी प्रकार के एकदंतुर लिगन्ड युक्त संकुलों से अधिक स्थायी होते हैं। लिगन्ड, जिसमें दो भिन्न दाता परमाणु होते हैं, और उपसह संयोजन में इनमें से कोई
भी एक भाग लेता है तो उसे उभयदंती संलग्नी (उभदंती लिगन्ड ) कहते हैं। ऐसे लिगन्ड के उदाहरण हैं
( घ ) उपसहसंयोजन संख्या (Coordination Number)
एक संकुल में धातु आयन की उपसहसंयोजन संख्या
उदाहरणार्थ, संकुल आयनों,
यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि केंद्रीय परमाणु/आयन की उपसहसंयोजन संख्या केंद्रीय परमाणु/आयन तथा लिगन्ड के मध्य बने केवल
( च ) समन्वय मंडल (Coordination Sphere )
केंद्रीय परमाणु/ आयन से जुड़े लिगन्डों को गुरू कोष्ठक में लिखा जाता है तथा ये सभी मिलकर समन्वय मंडल (coordination sphere) कहलाते हैं। आयननीय समूह गुरू कोष्ठक के बाहर लिखे जाते हैं तथा ये प्रतिआयन कहलाते हैं। उदाहरणार्थ, संकुल
( छ) समन्वय बहुफलक (Coordination Polyhedron)
केंद्रीय परमाणु/ आयन से सीधे जुड़े लिगन्ड परमाणुओं की दिक्स्थान व्यवस्था (spacial arrangement) को समन्वय बहुफलक कहते हैं। इनमें अष्टफलकीय, वर्ग समतलीय तथा चतुष्फलकीय मुख्य हैं। उदाहरणार्थ,
वर्ग समतली
त्रिकोणीय पिरैमिडी
वर्ग पिरैमिडी
चित्र 5.1 - विभिन्न समन्वय बहुफलकों की आकृतियाँ-
( ज ) केंद्रीय परमाणु की ऑक्सीकरण संख्या
एक संकुल में केंद्रीय परमाणु से जुड़े सभी लिगन्डों को यदि उनके साझे के इलेक्ट्रॉन युगलों सहित हटा लिया जाए तो केंद्रीय परमाणु पर उपस्थित आवेश को उसकी ऑक्सीकरण संख्या कहते हैं। ऑक्सीकरण संख्या को उपसहसंयोजन सत्ता के नाम में केंद्रीय परमाणु के संकेत के साथ कोष्ठक में रोमन अंक से दर्शाया जाता है। उदाहरणार्थ,
( झ ) होमोलेप्टिक तथा हेट्रोलेप्टिक संकुल (Homoleptic and Heteroleptic Complexes )
संकुल जिनमें धातु परमाणु केवल एक प्रकार के दाता समूह से जुड़ा रहता है, उदाहरणार्थ
5.3 उपशहरांयोजन यौगिकों का नामकरण
उपसहसंयोजन रसायन में, विशेषतः समावयवों पर विचार करते समय सूत्रों व नामों को असंदिध्ध तथा सुस्पष्ट तरीके से लिखने के लिए नामकरण का बहुत महत्व है। उपसहसंयोजन सत्ता के सूत्र तथा जो नाम अपनाए गए हैं वे इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड ऐप्लाइड कैमिस्ट्री (IUPAC) की अनुशंसाओं पर आधारित हैं।
5.3.1 एककेंद्रकीय उपसहसंयोजन यौगिकों के सूत्र
नोट- सन् 2004 में IUPAC ने अनुशंसा की है कि लिगन्डों को वर्णमाला के आधार पर चुनना चाहिए, आवेश के आधार पर नहीं।
यौगिक का सूत्र उसके संघटन से संबंधित आधारभूत सूचना को संक्षिप्त तथा सुगम रूप से प्रकट करने का एक तरीका है। एक केंद्रकीय उपसहसंयोजन सत्ता में एक केंद्रीय धातु परमाणु होता है। सूत्र लिखते समय निम्नलिखित नियम प्रयुक्त होते हैं-
(i) सर्वप्रथम केंद्रीय परमाणु लिखा जाता है।
(ii) तत्पश्चात लिगन्डों को अंग्रेज़ी वर्णमाला के क्रम में लिखा जाता है। लिगन्ड की स्थिति उसके आवेश पर निर्भर नहीं करती।
(iii) बहुदुतुर लिगन्ड भी अंग्रेज़ी वर्णमाला के क्रम में लिखे जाते हैं। संकेताक्षर में लिखे हुए लिगन्ड के प्रथम अक्षर को ध्यान में रखकर वर्णमाला के क्रम में उसकी स्थिति निर्धारित की जाती है।
(iv) संपूर्ण उपसहसंयोजन सत्ता, आवेशित हो अथवा न हो, उसके सूत्र को एक गुरूकोष्ठक में लिखा जाता है। यदि लिगन्ड बहुपरमाणुक हों तो, उनके सूत्रों को कोष्ठक में लिखते हैं। संकेताक्षर में लिखे लिगन्ड को भी कोष्ठक में लिखते हैं।
(v) समन्वय मंडल धातु तथा लिगन्डों के सूत्रों के मध्य स्थान नहीं छोड़ा जाता।
(vi) जब आवेशयुक्त उपसहसंयोजन सत्ता का सूत्र बिना किसी प्रतिआयन के लिखते हैं तो उपसहसंयोजन सत्ता का आवेश गुरू कोष्ठक के बाहर दाईं ओर मूर्धांक (superscript) के रूप में लिखा जाता है जिसमें पहले आवेश की संख्या और फिर आवेश का चिह्न लिखते हैं। उदाहरणार्थ,
(vii) धनायन के आवेश को ऋणायन के आवेश से संतुलित किया जाता है।
5.3.2 एककेंद्रकीय उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण
उपसहसंयोजन यौगिकों के नाम योगात्मक नामकरण के सिद्धांत के आधार पर लिखे जाते हैं। इस प्रकार धातु के चारों ओर जुड़े समूहों को पहचानकर उनके नाम उपयुक्त गुणक सहित धातु के नाम से पूर्व सूचीबद्ध किए जाते हैं। उपसहसंयोजन यौगिकों के नामकरण में निम्नलिखित नियम प्रयुक्त होते हैं-
(i) धनायन अथवा ॠणायन दोनों में से कोई भी आवेशयुक्त उपसहसंयोजन सत्ता में सर्वप्रथम धनायन का नाम लिखा जाता है।
नोट- यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि सन् 2004 में IUPAC द्वारा की गई अनुशंसा के अनुसार ॠणावेशित लिगन्डों के नाम के अंत में -इडो (- ido) जुड़ता है, अतः क्लोरो को क्लोरिडो लिखते हैं।
नोट- यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि धनायन व ऋणायन दोनों में एक ही प्रकार के धातु आयन हैं फिर भी इनमें धातुओं के नाम भिन्न हैं।
(ii) केंद्रीय परमाणु/ आयन के नाम से पूर्व लिगन्डों के नाम वर्णमाला के क्रम में लिखे जाते हैं। (यह प्रक्रिया सूत्र लिखने के विपरीत है।)
(iii) ॠणावेशित लिगन्डों के नाम के अंत में -
(iv) यदि उपसहसंयोजन सत्ता में एक ही प्रकार के लिगन्ड संख्या में एक से अधिक हों तो उनकी संख्या दर्शाने के लिए उनके नाम से पूर्व डाइ, ट्राइ आदि शब्द (पद) प्रयुक्त किए जाते हैं। जब लिगन्ड के नाम में आंकिक पूर्व लग्न हो तब बिस, ट्रिस, टेट्राकिस आदि शब्द (पद) प्रयुक्त होते हैं तथा ऐसे लिगन्ड कोष्ठक में लिखे जाते हैं। उदाहरणार्थ,
डाइक्लोरिडोबिस ( ट्राइफ़ेनिलफॉस्फीन)निकैल (II)
(v) धनावेशित, ॠणावेशित तथा उदासीन उपसहसंयोजन सत्ता में धातु की ऑक्सीकरण अवस्था को रोमन अंकों में कोष्ठक में दर्शाते हैं।
(vi) यदि संकुल आयन एक धनायन हो तो धातु का नाम वही लिखते हैं जो तत्व का नाम होता है। उदाहरणार्थ, धनावेशित संकुल आयन में
(vii) उदासीन संकुल का नाम भी संकुल धनायन की भांति ही लिखा जाता है।
निम्नलिखित उदाहरण उपसहसंयोजन यौगिकों की नामकरण प्रणाली स्पष्ट करते हैं-
1.
ट्राइऐम्मीनट्राइएक्वाक्रोमियम (III) क्लोराइड
स्पष्टीकरण— संकुल आयन गुरू कोष्ठक में है, जो एक धनायन है। अंग्रेज़ी वर्ण माला के क्रमानुसार ऐम्मीन लिगन्ड एक्वा लिगन्ड से पूर्व लिखे जाते हैं। चूँकि इसमें तीन क्लोराइड आयन हैं इसलिए संकुल आयन पर +3 आवेश होना चाहिए। (चूँकि यौगिक आवेश की दृष्टि से उदासीन है) संकुल आयन पर विद्यमान आवेश तथा लिगन्डों पर उपस्थित आवेश के आधार पर धातु की ऑक्सीकरण संख्या की गणना की जा सकती है। इस उदाहरण में सभी लिगन्ड उदासीन अणु हैं। अतः क्रोमियम का ऑक्सीकरण अंक वही होगा जो संकुल आयन पर उपस्थित आवेश है, यहाँ यह +3 है।
2.
स्पष्टीकरण— इस अणु में सल्फेट प्रतिआयन है, क्योंकि यहाँ तीन सल्फेट आयन दो जटिल आयनों से आबंधित हैं, अतः प्रत्येक संकुल धनायन पर +3 आवेश होगा। इसके अतिरिक्त एथेन- 1,2 -डाइऐमीन एक उदासीन अणु है, अतः संकुल आयन में कोबाल्ट की ऑक्सीकरण संख्या +3 ही होनी चाहिए। यह स्मरण रहे कि एक आयनिक यौगिक के नाम में कभी भी धनायनों और ऋणायनों की संख्या नहीं दर्शायी जाती।
3.
डाइऐम्मीनसिल्वर(I)डाइसायनिडोअर्जेन्टेट(I)
5.4 उपसहसंयोजन यौगिकों में समावयवता
चित्र
समावयवी ऐसे दो या इससे अधिक यौगिक होते हैं जिनके रासायनिक सूत्र समान होते हैं परंतु परमाणुओं की व्यवस्था भिन्न होती है। परमाणुओं की भिन्न व्यवस्थाओं के कारण इनके एक या अधिक भौतिक अथवा रासायनिक गुणों में भिन्नता होती है। उपसहसंयोजन यौगिकों में दो प्रमुख प्रकार की समावयवताएं ज्ञात हैं। इनमें से प्रत्येक को पुनः प्रविभाजित किया जा सकता है।
1. त्रिविम समावयवता
(क) ज्यामितीय समावयवता
(ख) ध्रुवण समावयवता
2. संरचनात्मक समावयवता
(क) बंधनी समावयवता
( ग) आयनन समावयवता
(ख) उपसहसंयोजन समावयवता
(घ) विलायकयोजन समावयवता
त्रिविमीय समावयवों के रासायनिक सूत्र व रासायनिक आबंध समान होते हैं परंतु उनकी दिक्-स्थान व्यवस्थाएं भिन्न होती हैं। संरचनात्मक समावयवों में आबंध भिन्न होते हैं। इन समावयवों का वर्णन विस्तार से नीचे किया जा रहा है।
5.4.1 ज्यामितीय समावयवता
इस प्रकार की समावयवता हेट्रोलेप्टिक संकुलों में पाई जाती है जिनमें लिगन्डों की भिन्न ज्यामितीय व्यवस्थाएं संभव हो सकती हैं। इस प्रकार के व्यवहार के प्रमुख उदाहरण 4 व 6 उपसहसंयोजन संख्या वाले संकुलों में पाए जाते हैं।
MABXL (जहाँ
समपक्ष समावयव
चित्र 5.3-
इस प्रकार की समावयवता उन संकुलों में भी पाई जाती है जिनका सूत्र
समावयवी प्राप्त होते हैं। यदि ये तीन दाता परमाणु अष्टफलक के ध्रुववृत्त पर स्थित हों तो रेखांशिक [meridional (mer)] समावयवी प्राप्त होते हैं। (चित्र 5.5)।
समपक्ष समावयव
विपक्ष समावयव
समावयव
समावयव
चित्र 5.4-
5.4.2 ध्रुवण समावयवता
ध्रुवण समावयव एक-दूसरे के दर्पण प्रतिबिंब होते हैं जिन्हें एक-दूसरे पर अध्यारोपित नहीं किया जा सकता। इन्हें प्रतिबिंब रूप या एनैन्टिओमर (enantiomers) कहते हैं। अणु अथवा आयन जो एक-दूसरे पर अध्यारोपित नहीं किए जा सकते, काइरल (chiral) कहलाते हैं। ये दो रूप दक्षिण-ध्रुवण घूर्णक
चित्र
चित्र 5.7- समपक्ष,
वामावर्ती
वामावर्ती दक्षिण ध्रुवण घूर्णक
5.4.3 बंधनी समावयवता
उभयदंती संलग्नी युक्त उपसहसंयोजन यौगिक में बंधनी समावयवता पाई जाती है। इस प्रकार की समावयवता का एक सरल उदाहरण है- थायोसायनेट लिगन्ड,
5.4.4 उपसहसंयोजन समावयवता
किसी संकुल में उपस्थित भिन्न धातुओं की धनायनिक एवं ऋणायनिक उपसहसंयोजन सत्ता के मध्य लिगन्डों के अंतरपरिवर्तन से इस प्रकार की समावयवता उत्पन्न होती है। संकुल
5.4.5 आयनन समावयवता
जब किसी संकुल में उसका प्रतिआयन स्वयं एक संभावित लिगन्ड हो तथा किसी लिगन्ड को प्रतिस्थापित कर सके और विस्थापित लिगन्ड प्रतिआयन बन सके, तो इस प्रकार की समावयवता उत्पन्न होती है। संकुल
5.4.6 विलायकयोजन समावयवता
जब जल विलायक के रूप में प्रयुक्त होता है तो इस प्रकार की समावयवता ‘हाइड्रेट समावयवता’ कहलाती है। यह आयनन समावयवता के समान है। विलायकयोजन समावयवों में केवल इतना अंतर होता है कि एक समावयव में विलायक अणु धातु आयन से लिगन्ड के रूप में सीधा बंधित रहता है तथा दूसरे समावयव में विलायक अणु संकुल के क्रिस्टल जालक में मुक्त रूप से विद्यमान रहता है। इस प्रकार का एक उदाहरण हैएक्वासंकुल
5.5 उपसहसंयोजन यौगिकों में आबंधन
उपसहसंयोजक यौगिकों में आबंधन की प्रकृति का वर्णन सर्वप्रथम वर्नर ने किया था। परंतु यह सिद्धांत निम्न आधारभूत प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सका-
(i) क्यों कुछ ही तत्वों में उपसहसंयोजन यौगिक बनाने का विशिष्ट गुण पाया जाता है?
(ii) उपसहसंयोजन यौगिकों के आबंधों में दिशात्मक गुण क्यों पाए जाते हैं?
(iii) क्यों उपसहसंयोजन यौगिकों में विशिष्ट चुंबकीय तथा ध्रुवण घूर्णक गुण पाए जाते हैं?
उपसहसंयोजन यौगिकों में आबंधन की प्रकृति को समझने के लिए अनेक प्रस्ताव दिए गए यथा संयोजकता आबंध सिद्धांत (VBT), क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (CFT), लिगन्ड क्षेत्र सिद्धांत (LFT), आण्विक कक्षक सिद्धांत (MOT)। हम यहाँ केवल VBT तथा CFT के प्राथमिक विवेचन पर ही अपना ध्यान केंद्रित करेंगे।
5.5.1 संयोजकता आबंध सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार, लिगन्डों के प्रभाव में धातु परमाणु/ आयन अपने (
सारणी 5.2- कक्षकों की संख्या तथा संकरणों के प्रकार
समन्वय संख्या | संकरण का प्रकार | संकरित कक्षकों का आकाशीय वितरण |
---|---|---|
4 | चतुष्फलकीय | |
4 | वर्ग समतली | |
5 | त्रिकोणीय द्विपिरैमिडी | |
6 | अष्टफलकीय | |
6 | अष्टफलकीय |
संयोजकता आबंध सिद्धांत के आधार पर संकुल के चुंबकीय व्यवहार से सामान्यतः इसकी ज्यामिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
प्रतिचुंबकीय अष्टफलकीय संकुल
संकरित कक्षक
( आंतरिक कक्षक या
निम्न प्रचक्रण संकुल)
छः
छः
संकरित कक्षक
( बाह्य कक्षक या उच्च प्रचक्रण संकुल)
चतुष्फलकीय संकुलों में एक
प्रत्येक
छः
संकरित कक्षक
(उच्च प्रचक्रण संकुल)
वर्ग समतलीय संकुलों में
संकरित कक्षक
(निम्न प्रचक्रण संकुल)
5.5.2 उपसहसंयोजन यौगिकों के चुंबकीय गुण
उपसहसंयोजन यौगिकों के चुंबकीय आघूर्ण का मापन चुंबकीय प्रवृत्ति (magnetic susceptibility) प्रयोगों द्वारा किया जा सकता है। इसके परिणामों का उपयोग संकुलों में अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या तथा संरचनाओं की जानकारी के लिए किया जा सकता है। प्रथम संक्रमण श्रेणी के धातुओं के उपसहसंयोजन यौगिकों के चुंबकीय आँकड़ों का विवेचनात्मक अध्ययन कुछ जटिलता दर्शाता है। धातु आयनों के लिए जिनके
अनेक स्थितियों, विशेषतौर से
के युक्त संकुलों में जटिलताएं पाई जाती हैं।
5.5.3 संयोजकता आबंध सिद्धांत की सीमाएं
यद्यपि संयोजकता आबंध सिद्धांत (VBT), उपसहसंयोजन यौगिकों के बनने तथा उनकी संरचनाओं एवं चुंबकीय व्यवहार का व्यापक स्तर पर स्पष्टीकरण देता है, फिर भी इसमें निम्नलिखित कमियाँ हैं -
(i) इसमें अनेक प्रकार के पूर्वानुमान हैं।
(ii) यह चुंबकीय आँकड़ों की कोई मात्रात्मक व्याख्या नहीं देता।
(iii) यह उपसहसंयोजन यौगिकों द्वारा दर्शाए गए रंगों का स्पष्टीकरण नहीं देता।
(iv) यह उपसहसंयोजन यौगिकों के ऊष्मागतिकीय और गतिक स्थायित्व की कोई भी मात्रात्मक व्याख्या नहीं करता।
(v) यह 4 समन्वयी संकुलों के लिए चतुष्फलकीय तथा वर्गसमतल संरचनाओं का सही अनुमान नहीं लगा पाता।
(vi) यह दुर्बल तथा प्रबल लिगन्डों के मध्य विभेद नहीं करता।
5.5.4 क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत
क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (CFT) एक स्थिर वैद्युत मॉडल है जिसके अनुसार धातु-लिगन्ड आबंध आयनिक होते हैं जो केवल धातु आयन तथा लिगन्ड के मध्य स्थिरवैद्युत अन्योन्य क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं। ऋणावेशित लिगन्डों को एक बिंदु आवेश के रूप में एवं उदासीन लिगन्डों को बिंदु द्विध्रुवों के रूप में माना जाता है। किसी विलगित गैसीय धातु परमाणु/ आयन के पाँचों
ॠणात्मक भाग जैसे
(क) अष्टफलकीय उपसहसंयोजन समूहों में क्रिस्टल क्षेत्र विपाटन
एक अष्टफलकीय उपसहसंयोजन सत्ता, जिसमें धातु परमाणु/आयन छः लिगन्डों द्वारा घिरा रहता है, में धातु के
क्रिस्टल क्षेत्र विपाटन,
मुक्त धातु आयन
चित्र 5.8 - अष्टफलकीय क्रिस्टल क्षेत्र में
इस प्रकार की श्रेणी स्पेक्ट्रमी रासायनिक श्रेणी (spectrochemical series) कहलाती है। यह विभिन्न लिगन्डों के साथ बने संकुलों द्वारा प्रकाश के अवशोषण पर आधारित प्रायोगिक तथ्यों द्वारा निर्धारित श्रेणी है। आइए, हम अष्टफलकीय उपसहसंयोजन सत्ता में उपस्थित धातु आयन के
निम्नलिखित दो विकल्प हैं-
(i) यदि
(ii) यदि
गणनाएं दर्शाती हैं कि
(ख) चतुष्फलकीय उपसहसंयोजन समूहों में क्रिस्टल क्षेत्र विपाटन
चतुष्फलकीय सहसंयोजन सत्ता के विरचन में,
चित्र 5.9 - चतुष्फलकीय क्रिस्टल क्षेत्र में
5.5.5 उपसहसंयोजन यौगिकों में रंग
इससे पहले के एकक में हमने पढ़ा कि संक्रमण धातुओं के संकुलों की एक विशेषता उनके रंगों का विस्तृत परास है। इसका अर्थ है कि जब श्वेत प्रकाश प्रतिदर्श (Sample) में से होकर बाहर निकलता है तो ये उसका कुछ भाग अवशोषित कर लेते हैं अतः बाहर निकलने वाला प्रकाश अब श्वेत नहीं रहता। संकुल का रंग वह दिखाई देता है जो उसके द्वारा अवशोषित रंग का पूरक होता है। पूरक रंग अवशेष तरंग दैर्घ्य द्वारा उत्पन्न होता है। यदि संकुल हरा रंग अवशोषित करता है, तो यह लाल दिखाई पड़ता है। सारणी 5.3 में विभिन्न अवशोषित तरंगदैर्घ्य (वेवलेंथ) तथा प्रेक्षित रंग के मध्य संबंध दर्शाया गया है।
सारणी 5.3-कुछ उपसहसंयोजन सत्ताओं के प्रेक्षित रंग तथा अवशोषित प्रकाश तरंगदैर्घ्य के बीच संबंध
उपसहसंयोजक समूह | अवशोषित प्रकाश का तरंगदैर्घ्य (nm) | अवशोषित प्रकाश का रंग | उपसहसंयोजक समूह का रंग |
---|---|---|---|
535 | पीला | बैंगनी | |
500 | नीला-हरा | लाल | |
475 | पीला-नारंगी | ||
310 | द्वश्य प्रक्षेत्रत्रहीं है | हल्का पीला | |
600 | लाल | नीला | |
498 | नील लोहित |
उपसहसंयोजन यौगिकों में रंगों की व्याख्या क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत के आधार पर सहज ही की जा सकती है। संकुल
चित्र
यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि लिगन्ड की अनुपस्थिति में, क्रिस्टल क्षेत्र विपाटन नहीं होता, अतः पदार्थ रंगहीन होता है। उदाहरणार्थ,
चित्र 5.11-निकैल (II) संकुलों के जलीय विलयन जिनमें एथेन- 1,2 -डाइऐमीन लिगन्ड बढ़ते हुए अनुपात में है।
कुछ रत्नों के रंग
संक्रमण धातु आयन के
पन्ना (emerald) (चित्र 5.12 ख) में,
(क)
(ख)
चित्र 5.12 - (क) माणिक्य- यह रत्न मोगोक (म्याँमार) से प्राप्त संगमरमर में पाया गया; (ख) पन्ना- यह रत्न कोलंबिया के म्यूज़ो (Muzo) में पाया गया। रंग के क्षेत्र वाला प्रकाश प्रसारित होता है।
5.5.6 क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत की सीमाएं
क्रिस्टल क्षेत्र मॉडल के द्वारा उपसहसंयोजन यौगिकों के बनने, उनकी संरचना, रंग तथा चुंबकीय गुणों को काफ़ी हद तक सफलतापूर्वक समझाया जा सकता है, परंतु इन अवधारणाओं से कि लिगन्ड बिंदु आवेश हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि ॠणायन लिगन्ड द्वारा
5.6 धातु कार्बोनिलो में आबंधन
होमोलेप्टिक कार्बोनिल (यौगिक जिनमें केवल कार्बोनिल लिगन्ड हों) अधिकतर संक्रमण धातुओं द्वारा निर्मित होते हैं। इन कार्बोनिलों की संरचनाएं सरल तथा सुस्पष्ट होती हैं। टेट्राकार्बोनिलनिकैल
डेकाकार्बोनिलडाइमैंगनीज
।
चतुष्फलकीय
त्रिकोणीय द्विपिरैमिडी
चित्र 5.13 - कुछ प्रतिनिधिक होमोलेप्टिक धातु कार्बोनिलों की संरचनाएं
चित्र 5.14- कार्बोनिल संकुल में सहक्रियाशीलता आबंधन अन्योन्यक्रिया का उदाहरण।
धातु कार्बोनिलों के धातु-कार्बन आबंध में
5.7 उपसहरंयोजन यौगिकों का महत्व तथा अनुप्रयोग
उपसहसंयोजन यौगिक बहुत महत्व के हैं। ये यौगिक खनिजों, पेड़-पौधों व जीव जगत में व्यापक रूप से पाए जाते हैं तथा विश्लेषणात्मक रसायन, धातुकर्म, जैविक प्रणालियों, उद्योगों तथा औषध के क्षेत्र में इनकी महत्वपूर्ण भूमिकाएं हैं। इनका वर्णन नीचे किया गया है-
- गुणात्मक (qualitative) तथा मात्रात्मक (quantative) रासायनिक विश्लेषणों में उपसहसंयोजन यौगिकों के अनेक उपयोग हैं। अनेक परिचित रंगीन अभिक्रियाएं जिनमें धातु आयनों के साथ अनेक लिगन्डों (विशेष रूप से कीलेट लिगन्ड) की उपसहसंयोजन सत्ता बनने के कारण रंग उत्पन्न होता है। चिरसम्मत (classical) तथा यांत्रिक (instrumental) विधियों द्वारा धातु आयनों की पहचान व उनके मात्रात्मक आकलन का आधार हैं। ऐसे अभिकर्मकों के उदाहरण हैं-EDTA, DMG (डाइमेथिल ग्लाईऑक्सीम ),
-नाइट्रोसो- -नेम्भथल, क्यूपफेरॉन आदि। - जल की कठोरता का आकलन
EDTA के साथ अनुमापन द्वारा किया जाता है। व आयन EDTA के साथ स्थायी संकुल बनाते हैं। इन आयनों का चयनात्मक आकलन किया जा सकता है क्योंकि कैल्सियम तथा मैग्नीशियम के संकुलों के स्थायित्व स्थिरांक में अंतर होता है। - धातुओं की कुछ प्रमुख निष्कर्षण विधियों में जैसे सिल्वर तथा गोल्ड के लिए संकुल विरचन का उपयोग होता है। उदाहरणार्थ, ऑक्सीजन तथा जल की उपस्थिति में गोल्ड, सायनाइड आयन से संयोजित होकर जलीय विलयन में सहसंयोजन सत्ता,
बनाता है। इस विलयन में जिंक मिलाकर गोल्ड को पृथक किया जा सकता है। - इसी प्रकार से धातुओं का शुद्धिकरण उनके संकुल बनाकर तथा उसे पुन: विघटित करके किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, अशुद्ध निकैल को
में परिवर्तित किया जाता है तथा इसे अपघटित कर शुद्ध निकैल प्राप्त कर लेते हैं। - उपसहसंयोजन यौगिक जैव तंत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। प्रकाश संश्लेषण के लिए उत्तरदायी वर्णक, क्लोरोफिल, मैग्नीशियम का उपसहसंयोजन यौगिक है। रक्त का लाल वर्णक हीमोग्लोबीन, जो कि ऑक्सीजन का वाहक है, आयरन का एक उपसहसंयोजन यौगिक है। विटामिन
सायनाकोबालऐमीन, प्रतिप्रणाली अरक्तता कारक (anti-pernicious anaemia factor), कोबाल्ट का एक उपसहसंयोजन यौगिक है। जैविक महत्व के अन्य धातु आयन युक्त उपसहसंयोजन यौगिक जैसेकार्बोक्सीपेप्टिडेज-A (carboxypeptidase A) तथा कार्बोनिक एनहाइड्रेज (carbonic anhydrase) (जैव प्रणाली के उत्प्रेरक) एन्जाइम हैं। - अनेक औद्योगिक प्रक्रमों में उपसहसंयोजन यौगिकों का उपयोग उत्प्रेरकों के रूप में किया जाता है। उदाहरणार्थ, रोडियम संकुल,
, एक विल्किन्सन उत्प्रेरक है, जो एल्कीनों के हाइड्रोजनीकरण में उपयोग में आता है। - वस्तुओं पर सिल्वर और गोल्ड का वैद्युत लेपन धातु आयनों के विलयन से करने की अपेक्षा उनके संकुल आयनों
तथा के विलयन से करने पर लेपन कहीं अधिक एकसार व चिकना होता है। - श्याम-श्वेत फ़ोटोग्राफी में, विकसित की हुई फ़िल्म का स्थायीकरण (fixation) हाइपो विलयन में धोकर किया जाता है, जो अनअपघटित
से संकुल आयन, बनाकर जल में घोल लेता है। - औषध रसायन में कीलेट चिकित्सा के उपयोग में अभिरुचि बढ़ रही है। इसका एक उदाहरण है- पौधै/जीव जंतु निकायों में विषैले अनुपात में विद्यमान धातुओं के द्वारा उत्पन्न समस्याओं का उपचार। इस प्रकार कॉपर तथा आयरन की अधिकता को
-पेनिसिलऐमीन तथा डेसफेरीऑक्सिम लीगन्डों के साथ उपसहसंयोजन यौगिक बनाकर दूर किया जाता है। EDTA को लेड की विषाक्ता के उपचार में प्रयुक्त किया जाता है। प्लेटिनम के कुछ उपसहसंयोजन यौगिक ट्यूमर वृद्धि को प्रभावी रूप से रोकते हैं। उदाहरण हैं- समपक्ष-प्लेटिन (cis-platin) तथा संबंधित यौगिक।
शारांश
उपसहसंयोजन यौगिकों का रसायन, आधुनिक अकार्बनिक रसायनशास्त्र का एक महत्वपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है। पिछले पचास वर्षो में इस क्षेत्र में हुए विकास के फलस्वरूप आबंधन के मॉडल तथा आण्विक संरचनाओं के विषय में नई अवधारणाएं विकसित हुईं, रासायनिक उद्योग के क्षेत्रों में विलक्षण भेदन तथा जैव प्रणालियों में कार्य करने वाले क्रांतिक घटकों में महत्वपूर्ण अंतः दृष्टि प्राप्त हुई है।
उपसहसंयोजन यौगिकों के विरचन, अभिक्रियाएं, संरचनाएं एवं आबंधन को समझाने के लिए सर्वप्रथम ए. वर्नर द्वारा प्रयास किया गया। उनके सिद्धांत के अनुसार, उपसहसंयोजन यौगिकों में विद्यमान धातु परमाणु / आयन दो प्रकार की संयोजकताओं (प्राथमिक संयोजकता तथा द्वितीयक संयोजकता) का उपयोग करते हैं। रसायन विज्ञान की आधुनिक भाषा में इन संयोजकताओं को क्रमशः आयनीकृत (आयनिक) तथा अनायनीकृत (सहसंयोजक) आबंध कहते हैं। समावयवता के गुण का उपयोग करते हुए, वर्नर ने अनेक उपसहसंयोजन समूहों की ज्यामितीय आकृतियों के बारे में भविष्यवाणियाँ की।
संयोजकता आबंध सिद्धांत (VBT ) उपसहसंयोजन यौगिकों के बनाने, चुंबकीय व्यवहार तथा ज्यामितीय आकृतियों का सफलतापूर्वक यथोचित स्पष्टीकरण देता है। फिर भी यह सिद्धांत, उपसहसंयोजन यौगिकों के चुंबकीय व्यवहार की मात्रात्मक व्याख्या करने में असफल रहा है तथा इन यौगिकों के ध्रुवण गुणों के संबंध में कुछ भी नहीं कहता।
क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत ( CFT ) उपसहसंयोजन यौगिकों में विद्यमान केंद्रीय धातु परमाणु/आयन के
धातु कार्बोनिलों के धातु-कार्बन आबंधों में
उपसहसंयोजन यौगिक बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन यौगिकों से जैव-प्रणालियों में कार्य करने वाले जैव घटकों की कार्यप्रणाली तथा संरचनाओं की महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। उपसहसंयोजन यौगिक के धातुकर्म प्रक्रमों, विश्लेषणात्मक तथा औषध रसायन में अनेक अनुप्रयोग हैं।