हैलोजनयुक्त यौगिक पर्यावरण में लंबे समय तक बने रहते हैं क्योंकि यह मृदा के जीवाणुओं द्वारा भंजन के प्रति प्रतिरोधी होते हैं।
ऐलिफैटिक अथवा ऐरोमैटिक हाइड्रोकार्बन के हाइड्रोजन परमाणु (अथवा परमाणुओं) का हैलोजन परमाणु (अथवा परमाणुओं) द्वारा प्रतिस्थापन होने से क्रमशः ऐल्किल हैलाइड (हैलोऐल्केन) तथा ऐरिल हैलाइड (हैलोऐरीन) बनते हैं। हैलोऐल्केनों में हैलोजन परमाणु ऐल्किल समूह के $s p^{3}$ संकरित कार्बन परमाणु (परमाणुओं) से जुड़ा रहता है जबकि हैलोऐरीनों में हैलोजन परमाणु ऐरिल समूह के $s p^{2}$ संकरित कार्बन परमाणु (परमाणुओं) से जुड़ा रहता है। बहुत से हैलोजनयुक्त कार्बनिक यौगिक प्रकृति में मिलते हैं तथा इनमें से कुछ चिकित्सकीय रूप से उपयोगी होते हैं। इस वर्ग के यौगिकों के उपयोगों का विस्तार उद्योगों में तथा दैनिक जीवन में बहुत बड़ा है। इनका उपयोग अपेक्षाकृत अध्रुवीय यौगिकों के लिए विलायक के रूप में तथा अनेक प्रकार के कार्बनिक यौगिकों के संश्लेषण के लिए प्रारंभिक पदार्थ के रूप में होता है। सूक्ष्मजीवियों द्वारा उत्पादित क्लोरैम्फेनिकॉल, जो कि क्लोरीनयुक्त प्रतिजैविक (ऐन्टिबायोटिक) है, आंत्रज्वर (टाइफ़ॉइड) के इलाज में अत्यधिक प्रभावी होती है। हमारे शरीर में आयोडीनयुक्त हार्मोन, थाइरॉक्सिन उत्पन्न होता है जिसकी कमी से गलगंड (घेंघा) नामक रोग हो जाता है। संश्लेषित हैलोजन यौगिक जैसे, क्लोरोक्वीन का उपयोग मलेरिया के उपचार में होता है। हैलोथेन का उपयोग शल्य चिकित्सा में निश्चेतक के रूप में होता है। कुछ पूर्णतः फ्लुओरीनीकृत यौगिकों को शल्य चिकित्सा में प्रभावी रक्त प्रतिस्थापी के रूप में देखा जा रहा है।
इस एकक में आप कार्बहैलोजन यौगिकों के विरचन की प्रमुख विधियों, भौतिक एवं रासायनिक गुणों तथा उपयोगों का अध्ययन करेंगे।
6.1 वर्गीकरण
6.1.1 हैलोजन परमाणुओं की संख्या के आधार पर
युक्त यौगिक ( $\mathbf{X}=\mathbf{F}, \mathbf{C l}, \mathbf{B r}, \mathbf{I})$हैलोऐल्केनों तथा हैलोऐरीनों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता हैसंरचना में उपस्थित एक, दो अथवा अधिक हैलोजन परमाणुओं की संख्या के आधार पर इन्हें मोनो, डाइ अथवा पॉलिहैलोजन (ट्राइ- टेट्रा- आदि) में वर्गीकृत किया जा सकता है। उदाहरणार्थ-
ट्राइहैलोऐल्केन
मोनोहैलोयौगिकों को, उस कार्बन परमाणु के संकरण के आधार पर पुनः वर्गीकृत किया जा सकता है जिससे हैलोजन परमाणु आबंधित होता है। जैसा कि नीचे वर्णित किया गया है। इस वर्ग में सम्मिलित हैं-
6.1.2 $\mathbf{s p}^{\mathbf{3}} \mathbf{~C}-\mathbf{X}$ आबंध
(क) ऐल्किल हैलाइड अथवा हैलोऐल्केन ( $\mathbf{R}-\mathbf{X}$ )
ऐल्किल हैलाइडों में हैलोजन परमाणु ऐल्किल समूह $(\mathrm{R})$ से आबंधित रहता है। ये एक सजातीय श्रेणी बनाते हैं जिसे $\mathrm{C} _{\mathrm{n}} \mathrm{H} _{2 \mathrm{n}+1} \mathrm{X}$ से प्रदर्शित करते हैं। इन्हें उस कार्बन परमाणु की प्रकृति के आधार पर पुनः प्राथमिक, द्वितीयक अथवा तृतीयक में वर्गीकृत किया गया है। जिससे हैलोजन परमाणु आबंधित होता है। यदि ऐल्किल हैलाइड में हैलोजन प्राथमिक कार्बन से जुड़ा हो तो उसे प्राथमिक ऐल्किल हैलाइड अथवा $1^{\circ}$ ऐल्किल हैलाइड कहते हैं। इसी प्रकार से यदि हैलोजन द्वितीयक या तृतीयक कार्बन परमाणु से जुड़ा हो तो उसे क्रमशः द्वितीयक (अथवा $2^{\circ}$ ) और तृतीयक (अथवा $3^{\circ}$ ) ऐल्किल हैलाइड कहते हैं।
(ख) ऐलिलिक हैलाइड
यह वे यौगिक होते हैं जिनमें हैलोजन परमाणु कार्बन-कार्बन द्विक आबंध $(\mathrm{C}=\mathrm{C})$ के समीपवर्ती $s p^{3}$ संकरित कार्बन परमाणु से आबंधित रहता है अर्थात् एक ऐलिलिक कार्बन से आबंधित होता है।
(ग) बेन्जिलिक हैलाइड
इस प्रकार के यौगिकों में हैलोजन परमाणु ऐरोमैटिक वलय से जुड़े $s p^{3}$ संकरित कार्बन परमाणु से आबंधित रहता है।
6.1.3 $\boldsymbol{s p}^{2} \mathbf{~C}-\mathbf{X}$ आबंधयुक्त यौगिक
इस वर्ग में शामिल हैं-
(क) वाइनिलिक हैलाइड
इस प्रकार के यौगिकों में हैलोजन परमाणु कार्बन-कार्बन द्विक् आबंध $(\mathrm{C}=C)$ के $s p^{2}$ संकरित कार्बन परमाणु से सीधे जुड़ा रहता है।
(ख) ऐरिल हैलाइड
इस प्रकार के यौगिकों में हैलोजन परमाणु एक ऐरोमैटिक वलय के $s p^{2}$ संकरित कार्बन परमाणु से सीधे जुड़ा रहता है।
6.2 नामपद्धति
हैलोजन यौगिकों का वर्गीकरण सीखने के पश्चात् आइए अब हम सीखें कि इन्हें नाम कैसे दिया जाता है। ऐल्किल हैलाइडों के सामान्य नाम को व्युत्पित करने के लिए ऐल्किल समूह का नाम लिखने के पश्चात हैलाइड का नाम लिखा जाता है। नामकरण की IUPAC पद्धति में ऐल्किल हैलाइड का नामकरण हैलोप्रतिस्थापी हाइड्रोकार्बन के रूप में किया जाता हैं। एक हैलोजन वाले बेन्जीन के व्युत्पन्नों के सामान्य और IUPAC नाम एक ही होते हैं। डाइहैलोजन व्युत्पन्नों के लिए सामान्य प्रणाली में $O^{-}, m$ - तथा $p$ - पूर्वलग्न का उपयोग करते हैं। जबकि जैसा आप कक्षा- 11 के एकक-8 में जान चुके हैं। IUPAC पद्धति में इसके लिए 1,$2 ; 1,3$ तथा 1,4 संख्याओं का उपयोग करते हैं।
$\mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{Br}$
सामान्य नाम- $\mathrm{n}$-प्रोपिल ब्रोमाइड IUPAC नाम- 1 -ब्रोमोप्रोपेन
सामान्य नाम-
IUPAC नाम- ब्रोमोबेन्जीन ब्रोमोबेन्जीन
आइसोप्रोपिल क्लोराइड 2-क्लोरोप्रोपेन
$m$-डाइब्रोमोबेन्जीन
1,3 -डाइब्रोमोबेन्जीन आइसोब्यूटिल क्लोराइड 1-क्लोरो-2-मेथिलप्रोपेन
sym-ट्राइब्रोमोबेन्जीन
$1,3,5$-ट्राइब्रोमोबेन्जीन
1 -क्लोरो- 2,2 -डाइमेथिलप्रोपेन
2 -ब्रोमोप्रोपेन
IUPAC नाम-
समान हैलोजन परमाणुयुक्त डाइहैलोऐल्केनों को ऐल्किलिडीन या ऐल्किलीन डाइहैलाइड कहते हैं। यदि समान हैलोजन परमाणुयुक्त डाइहैलो यौगिक में दोनों हैलोजन परमाणु शृंखला के एक ही कार्बन परमाणु पर उपस्थित हों तो इसे जेम डाइहैलाइड या जैमिनल डाइहैलाइड कहते हैं। यदि हैलोजन परमाणु शृंखला के दो निकटवर्ती कार्बन परमाणुओं पर उपस्थित हों तो उन्हें विसिनल हैलाइड कहा जाता है। सामान्य नामकरणपद्धति में जेम-डाइहैलाइड को ऐल्किलिडीन हैलाइड तथा विस-डाइहैलाइड को ऐल्किलीन डाइहैलाइड के रूप में नामित करते हैं। IUPAC पद्धति में इन्हें डाइहैलोऐल्केन के रूप में नामित करते हैं।
$$ \mathrm{H} _{3} \mathrm{C}-\mathrm{CHCl} _{2} $$
सामान्य नाम-
एथिलिडीन क्लोराइड ( जेम-डाइहैलाइड)
IUPAC नाम- 1,1 -डाइक्लोरोएथेन एथिलीन डाइक्लोराइड (विस-डाइहैलाइड)
1,2 -डाइक्लोरोएथेन
कुछ प्रमुख हैलो यौगिकों के उदाहरण सारणी 6.1 में दिए गए हैं। सारणी 6.1- कुछ हैलाइडों के सामान्य एवं IUPAC नाम
प्रारूप
$\mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{CH}(\mathrm{Cl}) \mathrm{CH} _{3}$ sec-ब्यूटिल क्लोराइड $\left(\mathrm{CH} _{3}\right) \mathrm{CCH} _{2} \mathrm{Br}$ $\left(\mathrm{CH} _{3}\right) _{3} \mathrm{CBr}$$\mathrm{CH} _{2}=\mathrm{CHCl}$
$\mathrm{CH} _{2}=\mathrm{CHCH} _{2} \mathrm{Br}$
$\mathrm{CH} _{2} \mathrm{Cl} _{2}$
$\mathrm{CHCl} _{3}$
$\mathrm{CHBr} _{3}$
$\mathrm{CCl} _{4}$
$\mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{~F}$ सामान्य नाम neo-पेन्टिल ब्रोमाइड tert-ब्यूटिल ब्रोमाइड वाइनिल क्लोराइड ऐलिल ब्रोमाइड
$o$-क्लोरोटॉलूईन
बेन्जिल क्लोराइड
मेथिलीन क्लोराइड
क्लोरोफॉर्म
ब्रोमोफॉर्म
कार्बन टेट्राक्लोराइड
$\mathrm{n}$-प्रोपिल फ्लुओराइड
IUPAC नाम
2-क्लोरोब्यूटेन
1 -ब्रोमो- 2,2 -डाइमेथिल प्रोपेन
2-ब्रोमो-2-मेथिल प्रोपेन
क्लोरोएथीन
3 -ब्रोमोप्रोपीन
1 -क्लोरो- 2 -मेथिल बेन्जीन
या
2-क्लोरोब्यूटीन
क्लोरोफ़ेनिल मेथेन
डाइक्लोरोमेथेन
ट्राइक्लोरोमेथेन
ट्राइब्रोमोमेथेन
टेट्राक्लोरोमेथेन
1 -फ्लुओरोप्रोपेन
6.3 C-X आबंध की प्रकृति
हैलोजन परमाणु, कार्बन परमाणु की तुलना में अधिक विद्युतऋणात्मक होता है अतः ऐल्किल हैलाइड का कार्बन हैलोजन आबंध ध्रुवित हो जाता है। इससे कार्बन परमाणु पर आंशिक धनावेश तथा हैलोजन परमाणु पर आंशिक ऋणावेश आ जाता है।
आवर्त सारणी में वर्ग में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर हैलोजन परमाणु का आकार बढ़ता जाता है, अतः फ्लुओरीन परमाणु सबसे छोटे आकार का तथा आयोडीन
परमाणु सबसे बड़े आकार का होता है। परिणामतः कार्बन-हैलोजन आबंध की लंबाई $\mathrm{C}-\mathrm{F}$ से $\mathrm{C}-\mathrm{I}$ तक बढ़ती जाती है। सारणी 6.2 में कुछ विशिष्ट आबंध लंबाइयाँ, आबंध एन्थैल्पी तथा द्विध्रुव आघूर्ण दिए गए हैं।
सारणी 6.2- कार्बन-हैलोजन ( $\mathbf{C}-\mathbf{X}$ ) आबंध लंबाई, आबंध एन्थैल्पी तथा द्विध्रुव आघूर्ण
आबंध | आबंध लंबाई $(\mathbf{p m})$ | $\mathbf{C - X}$ आबंध एन्थैल्पी/kJmol $\mathbf{l}^{\mathbf{1}}$ | द्विध्रुव आघूर्ण/Debye |
---|---|---|---|
$\mathrm{CH} _{3}-\mathrm{F}$ | 139 | 452 | 1.847 |
$\mathrm{CH} _{3}-\mathrm{Cl}$ | 178 | 351 | 1.860 |
$\mathrm{CH} _{3}-\mathrm{Br}$ | 193 | 293 | 1.830 |
$\mathrm{CH} _{3}-\mathrm{I}$ | 214 | 234 | 1.636 |
6.4 डेल्किल हैलाइडों के विरचन की विधियाँ
6.4.1 ऐल्कोहॉलों से
ऐल्किल हैलाइड, ऐल्कोहॉल से सर्वोत्तम प्रकार से बनाए जा सकते हैं जो आसानी से प्राप्त की जा सकती हैं। सांद्र हैलोजन अम्लों, फ़ास्फ़ोरस हैलाइड अथवा थायोनिल क्लोराइड के साथ अभिक्रिया से ऐल्कोहॉल का हाइड्रॉक्सिल समूह हैलोजन द्वारा प्रतिस्थापित हो जाता है। इनमें से थायोनिल क्लोराइड को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि इस अभिक्रिया में ऐल्किल हैलाइडों के साथ दो गैसें $\mathrm{SO} _{2}$ तथा $\mathrm{HCl}$ बनती हैं। दोनों गैसीय उत्पाद आसानी से निकल सकने वाली गैसें हैं अतः अभिक्रिया में शुद्ध ऐल्किल हैलाइड प्राप्त होता है। प्राथमिक एवं द्वितीयक ऐल्कोहॉल की $\mathrm{HCl}$ से अभिक्रिया में $\mathrm{ZnCl} _{2}$ उत्प्रेक की आवश्यकता होती है। तृतीयक ऐल्कोहॉल की अभिक्रिया कमरे के ताप पर केवल सांद्र $\mathrm{HCl}$ के साथ हिलाने पर संपन्न हो जाती है। ऐल्किल ब्रोमाइड के विरचन के लिए इसे $\mathrm{HBr}(48 \%)$ के साथ लगातार उबाला जाता है। 95 प्रतिशत ऑर्थोफ़ास्फ़ोरिक अम्ल में ऐल्कोहॉल को सोडियम अथवा पोटैशियम आयोडाइड के साथ गरम करके R-I की अच्छी लब्धि प्राप्त की जा सकती है। हैलोअम्लों से ऐल्किल हैलाइड की अभिक्रियाशीलता का क्रम $3^{\circ}>2^{\circ}>1^{\circ}$ होता है। फ़ास्फ़ोरस ट्राइब्रोमाइड तथा ट्राइआयोडाइड को सामान्यतः लाल फ़ास्फ़ोरस की क्रमशः ब्रोमीन तथा आयोडीन के साथ अभिक्रिया द्वारा स्वस्थाने यानी अभिक्रिया मिश्रण में ही उत्पन्न किया जाता है।
$$ \begin{aligned} & \mathrm{R}-\mathrm{OH}+\mathrm{HCl} \xrightarrow{\mathrm{ZnCl} _{2}} \mathrm{R}-\mathrm{Cl}+\mathrm{H} _{2} \mathrm{O} \\ & \mathrm{R}-\mathrm{OH}+\mathrm{NaBr}+\mathrm{H} _{2} \mathrm{SO} _{4} \longrightarrow \mathrm{R}-\mathrm{Br}+\mathrm{NaHSO} _{4}+\mathrm{H} _{2} \mathrm{O} \\ & 3 \mathrm{R}-\mathrm{OH}+\mathrm{PX} _{3} \longrightarrow 3 \mathrm{R}-\mathrm{X}+\mathrm{H} _{3} \mathrm{PO} _{3} \quad(\mathrm{X}=\mathrm{Cl}, \mathrm{Br}) \\ & \mathrm{R}-\mathrm{OH}+\mathrm{PCl} _{5} \longrightarrow \mathrm{R}-\mathrm{Cl}+\mathrm{POCl} _{3}+\mathrm{HCl} \\ & \text { R-OH } \xrightarrow[\mathrm{X} _{2}=\mathrm{Br} _{2}, \mathrm{I} _{2}]{\text { लाल } \mathrm{P} / \mathrm{X} _{2}} \mathrm{R}-\mathrm{X} \\ & \mathrm{R}-\mathrm{OH}+\mathrm{SOCl} _{2} \longrightarrow \mathrm{R}-\mathrm{Cl}+\mathrm{SO} _{2}+\mathrm{HCl} \end{aligned} $$
ऐल्किल क्लोराइड का विरचन ऐल्कोहॉल में शुष्क हाइड्रोजन क्लोराइड गैस को प्रवाहित करके अथवा सांद्र जलीय हैलोजन अम्लों के साथ ऐल्कोहॉल के मिश्रण को गरम करके किया जा सकता है। ऐरिल हैलाइड के विरचन के लिए उपरोक्त विधियाँ उपयुक्त नहीं हैं; क्योंकि फ़ीनॉल में कार्बन-ऑक्सीजन आबंध में आंशिक द्विआबंध के गुण होने के कारण यह एकल आबंध से अधिक मज़बूत होता है अत: इसे एकल आबंध की तुलना में तोड़ना कठिन होता है।
6.4.2 हाइड्रोकार्बनों से
(i) ऐल्केनों से मुक्त मूलक हैलोजनन द्वारा
ऐल्केनों के मुक्त मूलक क्लोरीनन अथवा ब्रोमीनन में समावयवी मोनो तथा पॉलिहैलोऐल्केनों का जटिल मिश्रण प्राप्त होता है, जिसे शुद्ध यौगिकों में पृथक् करना कठिन होता है। परिणामतः किसी भी एक यौगिक की लब्धि कम होती है। (एकक-9, कक्षा-11)
$\mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{CH} _{3} \xrightarrow[\text { या ताप }]{\mathrm{Cl} _{2} / \mathrm{UV} \text { प्रकाश }} \mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{Cl}+\mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{CHClCH} _{3}$
(ii) ऐल्कीनों से
(क) हाइड्रोजन हैलाइड के संयोजन या योगज द्वारा- हाइड्रोजन क्लोराइड, हाइड्रोजन ब्रोमाइड अथवा हाइड्रोजन आयोडाइड से अभिक्रिया करने पर ऐल्कीन संगत ऐल्किल हैलाइड में परिवर्तित हो जाती हैं।
प्रोपीन दो प्रकार के उत्पाद देती है परंतु मार्कोनीकॉफ के नियमानुसार एक उत्पाद प्रमुख होता है। (एकक-9, कक्षा-11)
$$ \begin{aligned} & \mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH}=\mathrm{CH} _{2}+\mathrm{H}-\mathrm{I} \longrightarrow \mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{I}+\mathrm{CH} _{3} \mathrm{CHICH} _{3} \\ & \text { अल्प मुख्य } \end{aligned} $$
(ख) हैलोजन के संयोजन द्वारा- $\mathrm{CCl} _{4}$ में घुली ब्रोमीन को ऐल्कीन में डालने से ब्रोमीन का लाल रंग विलुप्त हो जाता है। यह किसी अणु में द्विआबंध की पहचान करने की एक महत्वपूर्ण प्रयोगशाला विधि है। इस संयोजन के परिणामस्वरूप संनिधि डाइब्रोमाइड (Vic-dibromide) का संश्लेषण होता है जो कि रंगहीन होता है। (एकक-9, कक्षा-11)
6.4.3 हैलोजन विनिमय द्वारा
ऐल्किल आयोडाइडों का विरचन प्राय: ऐल्किल क्लोराइडोंरोमाइडों की शुष्क ऐसीटोन में $\mathrm{NaI}$ के साथ अभिक्रिया से होता है। इस अभिक्रिया को फिंकेल्स्टाइन अभिक्रिया कहते हैं।
$\mathrm{R}-\mathrm{X}+\mathrm{NaI} \longrightarrow \mathrm{R}-\mathrm{I}+\mathrm{NaX}$
$\mathrm{X}=\mathrm{Cl}, \mathrm{Br}$
हैलोऐल्केन तथा हैलोऐरीन 169
इस प्रकार प्राप्त $\mathrm{NaCl}$ तथा $\mathrm{NaBr}$ शुष्क ऐसीटोन में अवक्षेपित हो जाते हैं तथा यह ले-शातैलिए के नियमानुसार अग्र अभिक्रिया को सुगम बना देता है। धात्विक फ्लुओराइड जैसे $\mathrm{AgF}, \mathrm{Hg} _{2} \mathrm{~F} _{2}, \mathrm{CoF} _{2}$ अथवा $\mathrm{SbF} _{3}$ की उपस्थिति में ऐल्किल क्लोराइड/ब्रोमाइड को गरम करके उपलब्ध करना, ऐल्किल फ्लुओराइडों के संश्लेषण का सर्वोत्तम तरीका है। इस अभिक्रिया को स्वार्ट्स अभिक्रिया कहते हैं।
$$ \mathrm{H} _{3} \mathrm{C}-\mathrm{Br}+\mathrm{Ag} \mathrm{F} \longrightarrow \mathrm{H} _{3} \mathrm{C}-\mathrm{F}+\mathrm{AgBr} $$
6.5 हैलोडरीनों का विरचन
(i) हाइड्रोकार्बनों से इलेक्ट्रॉनरागी प्रतिस्थापन द्वारा
ऐरिल क्लोराइडों तथा ब्रोमाइडों का विरचन, आयरन या आयरन (III) क्लोराइड अथवा किसी अन्य लूईस अम्ल उत्प्रेरक की उपस्थिति में ऐरीनों के क्लोरीन अथवा ब्रोमीन द्वारा इलेक्ट्रॉनरागी प्रतिस्थापन द्वारा आसानी से किया जा सकता है।
ऑर्थो तथा पैरा समावयवों को, उनके गलनांकों में अत्यधिक अंतर होने के कारण सुगमतापूर्वक पृथक् किया जा सकता है। आयोडीन के साथ अभिक्रिया उत्क्रमणीय होती है तथा इस अभिक्रिया में उत्पन्न $\mathrm{HI}$ को ऑक्सीकृत करने के लिए ऑक्सीकरण कर्मक $\left(\mathrm{HNO} _{3}, \mathrm{HIO} _{3}\right)$ की आवश्यकता होती है। फ्लुओरीन की अत्यधिक क्रियाशीलता के कारण इस विधि द्वारा फ्लुओरीन युक्त यौगिकों का विरचन नहीं किया जाता।
(ii) ऐमीनों से सैन्डमायर-अभिक्रिया द्वारा
जब ठंडे जलीय खनिज अम्ल में घुली अथवा निलंबित किसी प्राथमिक ऐमीन को सोडियम नाइट्राइट के साथ अभिकृत किया जाता है तो डाइऐज़ोनियम लवण बनते हैं (एकक-9, कक्षा 12)। ताज़ा बने डाइऐज़ोनियम लवण तथा क्यूप्रस क्लोराइड अथवा क्यूप्रस ब्रोमाइड के विलयन को मिलाने पर डाइज़ोनियम समूह $-\mathrm{Cl}$ अथवा - $\mathrm{Br}$ के द्वारा प्रतिस्थापित हो जाता है।
आयोडीन द्वारा डाइऐज़ोनियम समूह के प्रतिस्थापन के लिए क्यूप्रस हैलाइड की उपस्थिति आवश्यक नहीं होती तथा इसे सामान्यतः डाइऐज़ोनियम लवण तथा पोटैशियम आयोडाइड के विलयन को एक साथ हिलाकर किया जाता है।
6.6 भतिक गुण
शुद्ध अवस्था में ऐल्किल हैलाइड रंगहीन यौगिक होते हैं परंतु ब्रोमाइड तथा आयोडाइड, प्रकाश के संपर्क में आने पर रंगीन हो जाते हैं। अनेक वाष्पशील हैलोजन युक्त यौगिक सुगंधमय होते हैं।
गलनांक एवं क्वथनांक
मेथिल क्लोराइड, मेथिल ब्रोमाइड, एथिल क्लोराइड तथा कुछ क्लोरोफ्लुओरोमेथेन कमरे के ताप पर गैस के रूप में होते हैं जबकि उच्च सदस्य द्रव अथवा ठोस होते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, कार्बनिक हैलोजन यौगिकों के अणु सामान्यतः ध्रुवीय होते हैं। उच्च ध्रुवता एवं जनक हाइड्रोकार्बन की तुलना में उच्च आण्विक द्रव्यमान होने के कारण हैलोजन व्युत्पन्नों में प्रबल अंतराआण्विक आकर्षण बल (द्विध्रुव-द्विध्रुव तथा वान्डरवाल्स) होते हैं। यही कारण है कि क्लोराइडों, ब्रोमाइडों तथा आयोडाइडों के क्वथनांक समतुल्य द्रव्यमान वाले हाइड्रोकार्बनों के क्वथनांकों की अपेक्षा महत्वपूर्ण रूप से अधिक होते हैं। अणुओं का आकार बड़ा होने पर तथा अधिक संख्या में इलेक्ट्रॉन उपस्थित होने पर आकर्षण बल और अधिक प्रबल हो जाते हैं। चित्र 6.1 में विभिन्न हैलाइडों के क्वथनांकों में परिवर्तन का प्रारूप दिया गया है। समान ऐल्किल समूह के लिए ऐल्किल हैलाइडों के क्वथनांकों के घटने का क्रम $-\mathrm{RI}>\mathrm{RBr}>\mathrm{RCl}>\mathrm{R}-\mathrm{F}$ है। ऐसा हैलोजन परमाणु के आकार तथा द्रव्यमान में वृद्धि होने से वान्डरवाल्स बलों के परिमाण में वृद्धि होने के कारण होता है।
अणुओं का आकार बड़ा होने पर तथा अधिक संख्या में इलेक्ट्रॉन उपस्थित होने पर आकर्षण बल और अधिक प्रबल हो जाते हैं। चित्र 6.1 में विभिन्न हैलाइडों के क्वथनांकों में परिवर्तन का प्रारूप दिया गया है। समान ऐल्किल समूह के लिए ऐल्किल हैलाइडों के क्वथनांकों के घटने का क्रम $-\mathrm{RI} > \mathrm{RBr} > \mathrm{RCl} > \mathrm{R}-\mathrm{F}$ है। ऐसा हैलोजन परमाणु के आकार तथा द्रव्यमान में वृद्धि होने से वान्डरवाल्स बलों के परिमाण में वृद्धि होने के कारण होता है।
चित्र 6.1 कुछ ऐल्किल हैलाइडों के क्वथनांकों की तुलना
समावयवी हैलोऐल्केनों में श्रृंखलन बढ़ने के साथ क्वथनांक कम होते जाते हैं। (एकक-9, कक्षा-11) उदाहरणार्थ, निम्नलिखित तीन समावयवियों में से 2-ब्रोमो-2-मेथिलप्रोपेन का क्वथनांक न्यूनतम होता है।
क्वथनांक/ $\mathrm{K} \quad 375$
346
समावयवी डाइहैलोबेन्जीन के क्वथनांक लगभग समान होते हैं परंतु पैरा-समावयवी आर्थो-तथा मेटा-समावयवियों की अपेक्षा उच्च गलनांकी होते हैं। ऐसा पैरा समावयवियों की सममिति के कारण होता है, जिसके कारण यह आर्थो तथा मेटा समावयवियों की तुलना में क्रिस्टल जालक में अधिक समायोजित होते हैं।
घनत्व
हाइड्रोकार्बनों के ब्रोमो, आयडो तथा पॉलिक्लोरो व्युत्पन्न जल की तुलना में भारी होते हैं। कार्बन परमाणुओं की संख्या, हैलोजन परमाणुओं की संख्या तथा हैलोजन परमाणु का द्रव्यमान बढ़ने से घनत्व बढ़ता जाता है (सारणी 6.3)।
सारणी 6.3- कुछ हैलोएल्केनों का घनत्व
यौगिक | घनत्व $(\mathbf{g} / \mathbf{m L})$ | यौगिक | घनत्व $(\mathbf{g} / \mathbf{m L})$ |
---|---|---|---|
$n-\mathrm{C} _{3} \mathrm{H} _{7} \mathrm{Cl}$ | 0.89 | $\mathrm{CH} _{2} \mathrm{Cl} _{2}$ | 1.336 |
$\mathrm{n}-\mathrm{C} _{3} \mathrm{H} _{7} \mathrm{Br}$ | 1.335 | $\mathrm{CHCl} _{3}$ | 1.489 |
$\mathrm{n}-\mathrm{C} _{3} \mathrm{H} _{7} \mathrm{I}$ | 1.747 | $\mathrm{CCl} _{4}$ | 1.595 |
विलेयता
हैलोऐल्केन जल में बहुत अल्प विलेय होते हैं। हैलोऐल्केन को जल में घोलने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है जिससे कि हैलोऐल्केन के अणुओं के मध्य उपस्थित आकर्षण को तथा जल के अणुओं के मध्य हाइड्रोजन आबंध को तोड़ा जा सके। हैलोऐल्केन तथा जल में अणुओं के मध्य नए आकर्षण बलों के बनने से कम ऊर्जा निर्गमित होती है, क्योंकि ये आकर्षण बल जल में उपस्थित मूल हाइड्रोजन आबंधों जितने प्रबल नहीं होते। परिणामस्वरूप, हैलोऐल्केन की जल में विलेयता बहुत कम होती है, हालाँकि हैलोऐल्केनों की प्रवृत्ति कार्बनिक विलायकों में घुलने की होती है, क्योंकि हैलोऐल्केन तथा विलायक अणु के मध्य बने नए अंतराआण्विक आकर्षण बलों की सामर्थ्य लगभग उतनी ही है जितनी की टूटने वाले अलग-अलग हैलोऐल्केन तथा विलायक अणुओं के मध्य होती है।
6.7 राभायनिक अभिक्रिग्याडँ
6.7.1 हैलोऐल्केनों की अभिक्रियाएँ
हैलोऐल्केनों की अभिक्रियाओं को निम्न संवर्गों में बाँटा गया है -
1. नाभिकरागी प्रतिस्थापन
2. निराकरण अभिक्रियाएँ
3. धातुओं के साथ अभिक्रिया
नाभिकरागी इलेक्ट्रॉन धनी स्पीशीज़ होती हैं, अतः वे क्रियाधार के उस भाग पर आक्रमण करती हैं, जहाँ इलेक्ट्रॉनों की अल्पता होती है। वह अभिक्रिया जिसमें एक नाभिकरागी, पहले से उपस्थित नाभिकरागी को प्रतिस्थापित करता है, नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रिया कहलाती है। इन अभिक्रियाओं में हैलोऐल्केन क्रियाधार होते हैं।
1. नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाएँ- इस प्रकार की अभिक्रिया में नाभिकरागी उस हैलोऐल्केन (क्रियाधार) से अभिक्रिया करता है जिसमें हैलोजन परमाणु से आबंधित कार्बन परमाणु पर आंशिक धनावेश होता है, प्रतिस्थापन अभिक्रिया होती है तथा हैलाइड आयन निकल जाता है जिसे अवशिष्ट समूह कहते हैं। चूँकि प्रतिस्थापन अभिक्रिया नाभिकरागी के द्वारा प्रारंभ होती हैं अतः इसे नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रिया कहते हैं।
यह ऐल्किल हैलाइड की कार्बनिक अभिक्रियाओं का एक प्रमुख उपयोगी संवर्ग है जिसमें हैलोजन परमाणु $s p^{3}$ संकरित कार्बन परमाणु से आबंधित होता है। हैलोऐल्केनों की कुछ सामान्य नाभिकरागियों द्वारा अभिक्रिया के उपरांत बने उत्पादों को सारणी 6.4 में दिया गया है।
सारणी 6.4- ऐल्किल हैलाइडों का नाभिकरागी प्रतिस्थापन (R-X)
$$ \mathrm{R}-\mathrm{X}+\mathrm{Nu}^{-} \rightarrow \mathrm{R}-\mathrm{Nu}+\mathrm{X}^{-} $$
अभिकर्मक | नाभिकरागी ( $\left.\mathbf{N u}^{-}\right)$ | प्रतिस्थापन उत्पाद R-Nu | मुख्य उत्पाद का वर्ग |
---|---|---|---|
$\mathrm{NaOH}(\mathrm{KOH})$ | $\mathrm{HO}^{-}$ | $\mathrm{R}-\mathrm{OH}$ | ऐल्कोहॉल |
$\mathrm{H} _{2} \mathrm{O}$ | $\mathrm{H} _{2} \mathrm{O}$ | $\mathrm{R}-\mathrm{OH}$ | ऐल्कोहॉल |
$\mathrm{NaOR}^{2}$ | $\mathrm{R}^{\prime} \mathrm{O}^{-}$ | R-OR' | ईथर |
$\mathrm{NaI}$ | R-I | ऐल्किल आयोडाइड | |
$\mathrm{NH} _{3}$ | $\ddot{\mathrm{NH}} _{3}$ | $\mathrm{RNH} _{2}$ | प्राथमिक ऐमीन |
$\mathrm{R}^{\prime} \mathrm{NH} _{2}$ | $\mathrm{R}^{\prime} \ddot{\mathrm{NH}} _{2}$ | R.NHR' | द्वितीयक ऐमीन |
$R^{\prime} R^{\prime \prime} N H$ | $R^{\prime} R^{\prime \prime} \ddot{N} H$ | RNR’R" | तृतीयक ऐमीन |
$\mathrm{KCN}$ | $\overline{\mathrm{C}} \equiv \mathrm{N}:$ | $\mathrm{RCN}$ | नाइट्राइल (सायनाइड ) |
$\mathrm{AgCN}$ | $\mathrm{Ag}-\mathrm{C} \equiv \mathrm{N}:$ | RNC ( आइसोसायनाइड) | आइसोनाइट्राइल |
$\mathrm{KNO} _{2}$ | $\mathrm{O}=\ddot{\mathrm{N}}-\overline{\mathrm{O}}$ | $\mathrm{R}-\mathrm{O}-\mathrm{N}=\mathrm{O}$ | ऐल्किल नाइट्राइट |
$\mathrm{AgNO} _{2}$ | $\mathrm{Ag}-\ddot{\mathrm{O}}-\mathrm{N}=\mathrm{O}$ | $\mathrm{R}-\mathrm{NO} _{2}$ | नाइट्रोऐल्केन |
R’COOAg | $\mathrm{R}^{\prime} \mathrm{COO}^{-}$ | R’COOR | एस्टर |
$\mathrm{LiAlH} _{4}$ | $\mathrm{H}^{-}$ | RH | हाइड्रोकार्बन |
$\mathrm{R}^{\prime-} \mathrm{M}^{+}$ | $\mathrm{R}^{\prime-}$ | $\mathrm{RR}^{\prime}$ | ऐल्केन |
सायनाइड तथा नाइट्राइट जैसे समूहों में दो नाभिकरागी केंद्र होते हैं तथा इन्हें उभदंती नाभिकरागी कहा जाता है। वास्तव में सायनाइड समूह दो अंशदायी संरचनाओं का संकर होता है। अतः यह दो भिन्न प्रकार से नाभिकरागी के रूप में कार्य कर सकता है। $\left[{ }^{\ominus} \mathrm{C} \equiv \mathrm{N} \leftrightarrow: \mathrm{C}=\mathrm{N}^{\ominus}\right]$ अर्थात् कार्बन परमाणु से जुड़ने के परिणामस्वरूप ऐल्किल सायनाइड तथा नाइट्रोजन परमाणु से जुड़ने के परिणामस्वरूप आइसोसायनाइड बनाता है। इसी प्रकार से नाइट्राइट आयन भी उभदंती नाभिकरागी के दो भिन्न संयोजन केंद्रों वाला $\left[{ }^{-} \mathrm{O}-\ddot{\mathrm{N}}=\mathrm{O}\right.$ ] है। ऑक्सीजन के द्वारा जुड़ने के परिणामस्वरूप ऐल्किल नाइट्राइट तथा नाइट्रोजन के द्वारा जुड़ने के परिणामस्वरूप यह नाइट्रोऐल्केन बनता है।
क्रियाविधि-अभिक्रिया दो भिन्न क्रियाविधियों द्वारा संपन्न होती है जिनका वर्णन नीचे किया गया है-
(क) द्विअणुक नाभिकरागी ( नाभिकस्नेही) प्रतिस्थापन अभिक्रिया $\left(\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2\right)$
$\mathrm{CH} _{3} \mathrm{Cl}$ तथा हाइड्रॉक्साइड आयन की अभिक्रिया, जिसमें मेथेनॉल तथा क्लोराइड आयन बनता है, द्वितीय कोटि बलगतिकी का अनुसरण करती है। अर्थात्, अभिक्रिया का वेग दोनों अभिक्रियकों की सांद्रता पर निर्भर करता है। इस अभिक्रिया को आरेखीय रूप में चित्र 6.2 द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
ठोस वेज़, पृष्ठ के ऊपर की ओर आने वाले आबंध को, टूटी हुई लाइन पृष्ठ से पीछे की ओर जाने वाले आबंध को तथा सीधी लाइन पृष्ठ के तल में उपस्थित आबंध को प्रदर्शित करती है।
चित्र 6.2- लाल गेंद आक्रमणकारी हाइड्रॉक्साइड आयन को तथा हरी गेंद निकलने वाले हैलाइड आयन को प्रदर्शित करती है।
आक्रमणकारी नाभिकरागी
क्रियाधार
संक्रमण अवस्था
उत्पाद
टूटने वाला नाभिकरागी
सन् 1937 में एडवर्ड डेवी ह्यूहेस एवं सर क्रिस्टोफर इन्गोल्ड ने $S _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रियाओं की क्रियाविधि दी।
ह्यूहेस ने इन्गोल्ड के निर्देशन में कार्य करके लंदन विश्वविद्यालय से डी.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की।
यह द्विअणुक नाभिकरागी प्रतिस्थापन $\left(\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2\right)$ को प्रदर्शित करता है। आक्रमणकारी नाभिकरागी की ऐल्किल हैलाइड से अन्योन्यक्रिया होने पर कार्बन-हैलाइड आबंध टूटता है तथा साथ ही कार्बन एवं आक्रमणकारी नाभिकरागी के बीच में एक नया आबंध बनता है। यहाँ पर $\mathrm{C}$ तथा $\mathrm{O}$ के मध्य $\mathrm{C}-\mathrm{O}$ बंध बनता है। ये दोनों प्रक्रियाएँ एक साथ एक ही पद में संपन्न होती हैं तथा कोई मध्यवर्ती नहीं बनता। जैसे-जैसे अभिक्रिया प्रगति करती है तथा आने वाले नाभिकरागी एवं कार्बन परमाणु के मध्य आबंध बनना प्रारंभ हो जाता है; कार्बन परमाणु एवं अवशिष्ट समूह के मध्य आबंध दुर्बल होने लगता है। जैसे ही ऐसा होता है, क्रियाधार के कार्बन-हाइड्रोजन बंध, आक्रमणकारी नाभिकरागी से दूर होने लगते हैं। संक्रमण स्थिति में तीनों $\mathrm{C}-\mathrm{H}$ बंध एक ही तल में हो जाते हैं तथा आक्रमणकारी एवं टूटने वाला नाभिकरागी कार्बन से अंशतः जुड़े रहते हैं। जैसे ही आक्रमणकारी नाभिकरागी कार्बन के समीप पहुँचता है, $\mathrm{C}-\mathrm{H}$ बंध पहले की दिशा में तब तक अग्रसर होते रहते हैं जब तक टूटने वाला समूह कार्बन से टूटकर अलग नहीं हो जाता परिणामस्वरूप आक्रमण के लिए उपलब्ध कार्बन परमाणु का विन्यास प्रतीप हो जाता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि तेज हवाओं में छाता अंदर की ओर से बाहर उलट जाता है, इसके साथ ही अवशिष्ट समूह निकल जाता है। इस प्रक्रिया को विन्यास का प्रतीपन कहते हैं। संक्रमण अवस्था में कार्बन परमाणु एक ही समय पर आने वाले नाभिकरागी तथा निकलने वाले अवशिष्ट समूह दोनों के साथ जुड़ा रहता है। अतः संक्रमण अवस्था में कार्बन परमाणु एक साथ पाँच परमाणुओं से आबंधित रहता है। इस प्रकार की संरचना अस्थायी होती है तथा इसे यौगिक के रूप में अभिक्रिया मिश्रण से पृथक नहीं किया जा सकता।
विन्यास
त्रिविम में कार्बन से जुड़े क्रियात्मक समूहों की व्यवस्था विन्यास कहलाती है। नीचे दी गई संरचना (क) तथा (ख) को सावधानी पूर्वक देखिए।
यह एक यौगिक की दो संरचनाएँ हैं। इनमें कार्बन से जुड़े क्रियात्मक समूहों की त्रिविम व्यवस्था भिन्न है। संरचना (ख) संरचना (क) की दर्पण प्रतिबिम्ब है। हम कह सकते हैं कि संरचना (ख) में कार्बन का विन्यास संरचना (क) में कार्बन के विन्यास का दर्पण प्रतिबिम्ब है।
(क)
(ख)
चूँकि इस अभिक्रिया में नाभिकरागी अवशिष्ट समूह युक्त कार्बन परमाणु के निकट आता है, अतः इस कार्बन परमाणु पर अथवा उसके निकट उपस्थित स्थूल समूह प्रभावशाली अवरोध (निरोधक प्रभाव) उत्पन्न करता है। सामान्य ऐल्किल हैलाइडों में
मेथिल हैलाइड सबसे अधिक शीघ्रता से $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया देता है क्योंकि इसमें केवल तीन छोटे हाइड्रोजन परमाणु होते हैं। तृतीयक ऐल्किल हैलाइड सबसे कम क्रियाशील होते हैं क्योंकि स्थूल समूह आगमनकारी नाभिकरागी के लिए अवरोध उत्पन्न करते हैं (चित्र 6.3)। अतः अभिक्रियाशीलता का क्रम निम्नलिखित होता हैप्राथमिक हैलाइड > द्वितीयक हैलाइड > तृतीयक हैलाइड
चित्र $6.3 \mathrm{~S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया में त्रिविम प्रभाव, $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया के तुलनात्मक वेग कोष्ठक में दिए हैं।
(ख) एकाण्विक नाभिकरागी प्रतिस्थापन $\left(\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1\right)$
$\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ अभिक्रियाएं सामान्यतः ध्रुवीय प्रोटिक विलायकों (जैसे जल, ऐल्कोहॉल, ऐसीटिक अम्ल आदि) में संपन्न होती हैं। तृतीयक-ब्यूटिल ब्रोमाइड तथा हाइड्रॉक्साइड आयन के मध्य अभिक्रिया तृतीयक-ब्यूटिल ऐल्कोहॉल देती है एवं प्रथम कोटि की बलगतिकी का अनुसरण करती है। अर्थात् अभिक्रिया का वेग केवल एक अभिक्रियक की सांद्रता पर निर्भर करता है, जो कि तृतीयक-ब्यूटिल ब्रोमाइड है।
$$ \begin{aligned} & \left(\mathrm{CH} _{3}\right) _{3} \mathrm{CBr}+\overline{\mathrm{O}} \mathrm{H} \longrightarrow\left(\mathrm{CH} _{3}\right) _{3} \mathrm{COH}+\overline{\mathrm{Br}} \\ & \text { 2-ब्रोमो-2-मेथिलप्रोपेन } 2 \text {-मेथिलप्रोपेन-2-ऑल } \end{aligned} $$
यह दो चरणों में संपन्न होती है। प्रथम चरण में ध्रुवीय $\mathrm{C}-\mathrm{Br}$ आबंध का धीमा विदलन एक कार्बोकैटायन तथा एक ब्रोमाइड आयन बनता है। द्वितीय चरण में इस प्रकार निर्मित कार्बोकैटायन पर नाभिकरागी के द्वारा आक्रमण होता है तथा प्रतिस्थापन अभिक्रिया पूर्ण होती है।
चरण-1 सबसे धीमा तथा उत्क्रमणीय होता है इसमें $\mathrm{C}-\mathrm{Br}$ आबंध का विदलन होता है जिसके लिए ऊर्जा प्रोटिक विलायकों के प्रोटॉन द्वारा हैलाइड आयन के विलायक योजन से प्राप्त होती है। चूँकि अभिक्रिया की दर सबसे धीमे चरण पर निर्भर करती है, अतः अभिक्रिया का वेग केवल ऐल्किल हैलाइड की सांद्रता पर निर्भर करता है, न कि हाइड्रॉक्साइड आयन की सांद्रता पर। इसके अतिरिक्त कार्बोकैटायन का स्थायित्व जितना अधिक होगा, ऐल्किल हैलाइड से इसका विरचन उतना ही सरल होगा तथा अभिक्रिया का वेग उतना ही अधिक होगा। ऐल्किल हैलाइडों में $3^{\circ}$ ऐल्किल हैलाइड, तीव्रता से $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ अभिक्रिया देते हैं क्योंकि $3^{\circ}$ कार्बोकैटायन का स्थायित्व सर्वाधिक होता है। हम $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ तथा $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया के लिए ऐल्किल हैलाइड की क्रियाशीलता के क्रम को संक्षेप में निम्न प्रकार से दे सकते हैं-
$\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया के लिए
तृतीयक हैलाइड; द्वितीयक हैलाइड; प्राथमिक हैलाइड; $\mathrm{CH} _{3} \mathrm{X}$
$\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ अभिक्रिया के लिए
इन्हीं कारणों से ऐलिलिक तथा बेन्ज़िलिक हैलाइड $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ अभिक्रिया के प्रति अधिक क्रियाशीलता प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार निर्मित कार्बोकैटायन अनुनाद के द्वारा स्थायित्व प्राप्त कर लेता है जैसा कि नीचे दर्शाया गया है-
दोनों क्रियाविधियों में दिए हुए ऐल्किल समूह के लिए, हैलाइड $\mathrm{R}-\mathrm{X}$ की क्रियाशीलता का क्रम इस प्रकार होता है- $\mathrm{R}-\mathrm{I}>\mathrm{R}-\mathrm{Br}>\mathrm{R}-\mathrm{Cl}>\mathrm{R}-\mathrm{F}$.
हल
$-\mathrm{CH} _{2} \mathrm{Cl}$; यह प्राथमिक हैलाइड है अतः $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया तीव्रता से देता है। I ; बड़े आकार के कारण आयोडीन बेहतर अवशिष्ट समूह है अतः आने वाले नाभिकरागी की उपस्थिति में द्रुत वेग से निकल जाएगा।
विलियम निकॉल (1768-1851) ने समतल ध्रुवित प्रकाश उत्पन्न करने वाला पहला प्रिज़्म बनाया।
जैकब्स हैन्ड्रिक्स वान्ट हॉफ (1852-1911) ने 1901 में विलयनों पर अपने कार्य के लिए रसायन का प्रथम नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया।
(ग) नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाओं के त्रिविम रासायनिक पहलू
नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाओं के त्रिविम रासायनिक पहलू को समझने के लिए हमें कुछ मूलभूत त्रिविम-रासायनिक सिद्धांतों तथा प्रतीकों (ध्रुवण घूर्णकता, काइरलता, धारण, प्रतिलोमन तथा रेसिमीकरण आदि) को सीखना होगा।
(i) ध्रुवण घूर्णकता - कुछ यौगिकों के विलयन में से समतल ध्रुवित प्रकाश गुज़ारे जाने पर (जो कि सामान्य प्रकाश को निकॉल प्रिज़्म से गुज़ारने पर प्राप्त होता है) यह इस प्रकाश के तल को घूर्णित कर देते हैं। इस प्रकार के यौगिकों को ध्रुवण घूर्णक यौगिक कहते हैं। उस कोण को जिस पर ध्रुवित प्रकाश का तल घूर्णित हो जाता है, ध्रुवणमापी नामक उपकरण के द्वारा मापा जा सकता है। यदि यौगिक समतल ध्रुवित प्रकाश के तल को दाईं ओर घुमा देता है अर्थात् घड़ी की सुई की दिशा में घुमा देता है तो उसे दक्षिण ध्रुवण घूर्णक (ग्रीक में दाहिनी ओर घूर्णन) अथवा $d$ रूप कहते हैं तथा इसे घूर्णन कोण से पूर्व धनात्मक (+) चिह्न द्वारा प्रदर्शित करते हैं। यदि प्रकाश का तल बाईं ओर घूर्णित होता है, अर्थात् घड़ी की सूई के विपरीत दिशा में, तो यौगिक को वाम ध्रुवण धूर्णक अथवा $l$ रूप कहते हैं तथा घूर्णन कोण से पूर्व ऋणात्मक (-) चिह्न लगाते हैं। इस प्रकार के (+) तथा (-) समावयवियों को ध्रुवण समावयवी कहते हैं तथा इस परिघटना को ध्रुवण समावयवता कहते हैं।
(ii) आण्विक असममितता, काइरलता एवं प्रतिबिंब रूप -लुइस पाश्चर (1848) के इस प्रेक्षण ने आधुनिक त्रिविम रसायन की आधारशिला रखी कि कुछ यौगिकों के क्रिस्टल, दर्पण प्रतिबिंब रूपों में पाए जाते हैं। उन्होंने प्रदर्शित किया कि दोनों प्रकार के क्रिस्टलों के समान सांद्रता वाले जलीय विलयन, समान परिमाण, किंतु विपरीत दिशा में ध्रुवण घूर्णन प्रदर्शित करते हैं। उनको विश्वास था कि दोनों प्रकार के क्रिस्टलों के ध्रूवण घूर्णन में अंतर इनके अणुओं में परमाणुओं की तीनों विमाओं में भिन्न व्यवस्था ( विन्यास) से संबंधित होता है। डच वैज्ञानिक जे. वान्ट हॉफ तथा फ्रांसिसी वैज्ञानिक ले बेल ने उसी वर्ष (1874), में स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए तर्क दिया कि केंद्रीय कार्बन परमाणु के चारों ओर, समूहों (संयोजकताओं) की त्रिविम व्यवस्था चतुष्फलकीय होती है और यदि कार्बन परमाणु से जुड़े सभी प्रतिस्थापी भिन्न हों तो अणु का दर्पण प्रतिबिंब अणु पर अध्यारोपित नहीं होता। ऐसे कार्बन परमाणु को असममित कार्बन परमाणु अथवा त्रिविमकेंद्र कहते हैं। परिणामी अणु की सममितता भंग हो जाती है तथा इसे असममित अणु कहते हैं। अणु की असममितता तथा दर्पण
काइरलता
वह वस्तु जो अपने दर्पण प्रतिबिंब पर अध्यारोपित नहीं हो सकती, काइरल कहलाती है।
काइरल वस्तुएं, अनअध्यारोपित दर्पण प्रतिबिंब
एकाइरल वस्तुएं, अध्यारोपित दर्पण प्रतिबिंब
चित्र 6.4- कुछ काइरल एवं अकाइरल वस्तुओं के उदाहरण
प्रतिबिंब का अणु पर अध्यारोपित न होना इस प्रकार के कार्बनिक यौगिकों में ध्रुवण घूर्णन के लिए उत्तरदायी होती है। सममितता तथा असममितता हमारे दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं में भी देखने को मिलती है। गोले, घन, शंकु, ग्लोब आदि सभी के दर्पण प्रतिबिंब उनके समान होते हैं तथा ये दर्पण प्रतिबिंब पर अध्यारोपित किए जा सकते हैं। तथापि बहुत सी वस्तुएं अपने दर्पण प्रतिबिंब पर अध्यारोपित नहीं होतीं। उदाहरणार्थ, आपका बायाँ तथा दायाँ हाथ समान दिखाई देता है; लेकिन यदि आप अपने बाएं हाथ को दाहिने हाथ पर उसी समतल में ले जाते हुए रखें तो दोनों एक दूसरे को ठीक-ठीक नहीं ढकते। वे वस्तुएं जो अपने दर्पण प्रतिबिंब पर अध्यारोपित नहीं होतीं (दोनों हाथों के समान) काइरल कहलाती हैं तथा इस गुण को काइरलता कहते हैं काइरल अणु ध्रुवण घूर्णक होते हैं तथा वे वस्तुएं जो कि अपने दर्पण प्रतिबिंब पर अध्यारोपित हो जाती हैं, उन्हें एकाइरल कहते हैं।
उपरोक्त आण्विक काइरलता के इस परीक्षण को कार्बनिक अणुओं तथा उनके दर्पण प्रतिबिंब के मॉडल बनाकर अथवा त्रिविमीय संरचना का आरेख बनाकर एवं उसे कल्पना में प्रतिबिंब पर अध्यारोपित करके किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य कई सहायक हैं जो हमें काइरल अणु की पहचान करने में मदद करते हैं। इनमें से एक सहायक असममित कार्बन परमाणु की उपस्थिति है। आइए, हम दो साधारण अणुओं, प्रोपेन-2-ऑल (चित्र 6.5) एवं ब्यूटेन-2-ऑल (चित्र 6.6) तथा उनके दर्पण प्रतिबिंब रूपों पर विचार करें।
जैसा कि आप स्पष्टतः देख सकते हैं कि प्रोपेन-2-ऑल में असममित कार्बन परमाणु नहीं है, क्योंकि चतुष्फलकीय कार्बन परमाणु से जुड़े चारों समूह असमान नहीं हैं, हम दर्पण प्रतिबिंब (ख) को $180^{\circ}$ पर घुमाते हैं तथा प्राप्त संरचना (ग) को संरचना (क) पर अध्यारोपित करने का प्रयत्न करते हैं। यह संरचनाएँ पूर्णतः अध्यारोपित हो जाती हैं। अतः प्रोपेन-2-ऑल एक एकाइरल अणु है।
प्रोपेन-2-ऑल
क
$180^{\circ}$
चित्र 6.5 - ‘क’ के प्रतिबिंब रूप ‘ख’ को $180^{\circ}$ घुमाने पर ‘ग’ प्राप्त होता है ’ $\pi$ ’ को ‘क’ पर अध्यारोपित कर सकते हैं।
ब्यूटेन-2-ऑल में चतुष्फलकीय कार्बन परमाणु से जुड़े चारों समूह भिन्न हैं। अतः अपेक्षा अनुसार यह काइरल है। काइरल अणु के सामान्य उदाहरण जैसे कि; 2-कलोरोब्यूटेन, 2,3-डाइहाइड्रॉक्सी प्रोपैनैल $\left(\mathrm{OHC}-\mathrm{CHOH}-\mathrm{CH} _{2} \mathrm{OH}\right)$; ब्रोमोक्लोरोआयडोमेथेन $(\mathrm{BrClHI}) ; 2$-ब्रोमोप्रोपेनॉइक अम्ल $\left(\mathrm{H} _{3} \mathrm{C}-\mathrm{CHBr}-\mathrm{COOH}\right)$ आदि हैं।
चित्र 6.6- ‘घ’ के प्रतिबिंब रूप ‘च’ को $180^{\circ}$ घुमाने पर ‘छ’ प्राप्त होता है ‘छ’ को ‘घ’ पर अध्यारोपित नहीं कर सकते।
चित्र 6.7- एक काइरल अणु एवं उसका दर्पण प्रतिबिंब
जिन त्रिविम समावयवियों का संबंध परस्पर अध्यारोपित न हो सकने वाले दर्पण प्रतिबिंबों की तरह होता है, उन्हें प्रतिबिंब रूप (एनेनटियोमर) कहते हैं (चित्र 6.7)। चित्र 6.6 में ‘घ’ एवं ‘च’ प्रतिबिंब रूप हैं।
प्रतिबिंब रूपों के भौतिक गुण जैसे गलनांक, क्वथनांक, अपवर्तनांक आदि समान होते हैं। इनमें अंतर केवल समतल ध्रुवित प्रकाश को घूर्णित करने में होता है। यदि एक प्रतिबिंब रूप दक्षिण ध्रुवण घूर्णक हो तो दूसरा वाम ध्रुवण घूर्णक होगा।
ध्रुवण घूर्णन के चिह्न का अणु के निरपेक्ष (वास्तविक) विन्यास से कोई संबंध नहीं होता।
दो प्रतिबिंब रूपों के समान अनुपात में मिश्रण का ध्रुवण घूर्णन शून्य होगा, क्योंकि एक समावयवी के द्वारा उत्पन्न घूर्णन को दूसरा समावयवी निरस्त कर देगा। इस प्रकार के मिश्रण को रेसिमिक मिश्रण अथवा रेसिमिक अंशातरण कहते हैं। एक रेसिमिक मिश्रण को उसके नाम से पूर्व $d l$ अथवा $( \pm)$ पूर्वलग्न लगाकर प्रदर्शित करते हैं। उदाहरणार्थ, ( $\pm$ ) ब्यूटेन-2-ऑल। प्रतिबिंब रूप के रेसिमिक मिश्रण में परिवर्तित होने के प्रक्रम को, रेसिमीकरण कहते हैं।
(iii) धारण (Retention)- रासायनिक अभिक्रिया अथवा रूपांतरण के समय एक असममित केंद्र के आबंधों के त्रिविम विन्यास की अखंडता बने रहने को विन्यास का धारण कहते हैं। सामान्यतः किसी अभिक्रिया के दौरान यदि त्रिविम केंद्र से आबंधित कोई बंध नहीं टूटता तो उत्पाद में त्रिविम केंद्र के चारों ओर समूहों का वही सामान्य विन्यास होगा जैसा कि अभिक्रियक में था। ऐसी अभिक्रिया विन्यास के धारण के साथ संपन्न होती है। उदाहरण के लिए उस अभिक्रिया पर विचार करें जिसमें (-)-2-मेथिलब्यूटेन-1-ऑल को सांद्र हाइड्रोक्लोरिक अम्ल की उपस्थिति में गरम किया जाता है।
यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि अभिक्रियक एवं उत्पाद में असममित केंद्र समान हैं। किंतु उत्पाद में ध्रुवण घूर्णक का चिन्ह बदल गया है, क्योंकि दो भिन्न यौगिकों का विन्यास असममित केंद्र पर एक समान होने पर भी ध्रुवण घूर्णन भिन्न हो सकता है। एक दक्षिण ध्रुवण घूर्णक (+चिह्न) जबकि दूसरा बाम ध्रुवण घूर्णक (-चिह्न) हो सकता है।
(iv) प्रतिलोमन, धारण तथा रेसिमीकरण- जब असममित कार्बन से जुड़ा कोई बंध टूटता है तो असममित कार्बन परमाणु पर किसी अभिक्रिया के तीन प्रकार के परिणाम होते हैं। निम्नलिखित अभिक्रिया में $\mathrm{Y}$ के द्वारा $\mathrm{X}$ समूह के प्रतिस्थापन पर विचार कीजिए-
ख
यदि केवल यौगिक ‘क’ प्राप्त होता है तो इसे विन्यास का धारण कहते हैं। नोट करें कि (क) में विन्यास सुरक्षित रहता है।
यदि केवल यौगिक ‘ख’ प्राप्त होता है तो इसे विन्यास का प्रतिलोमन कहते हैं। (ख) में विन्यास का प्रतिलोमन हो गया है।
यदि दोनों यौगिकों ‘क’ तथा ‘ख’ का मिश्रण $50: 50$ अनुपात में प्राप्त होता है तो इस प्रक्रिया को रेसिमीकरण कहते हैं तथा उत्पाद ध्रुवण घूर्णक नहीं होगा, क्योंकि एक समावयवी समतल ध्रुवित प्रकाश को दूसरे से विपरीत दिशा में घूर्णित करेगा।
आइए अब हम $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ व $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ क्रियाविधियों का ध्रुवण घूर्णक ऐल्किल हैलाइड लेकर पुनरवलोकन करें।
ध्रुवण घूर्णक ऐल्किल हैलाइडों में $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ क्रियाविधि द्वारा प्राप्त उत्पाद का विन्यास अभिक्रियक की तुलना में प्रतिलोम होगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि नाभिकरागी, जिस दिशा में हैलोजन परमाणु जुड़ा है उसके विपरीत दिशा में जुड़ता है। जब (-)-2-ब्रोमोऑक्टेन की अभिक्रिया सोडियम हाइड्रॉक्साइड से कराते हैं तो $(+)$-ऑक्टेन-2-ऑल बनता है जिसमें $-\mathrm{OH}$ समूह ब्रोमाइड के विपरीत स्थिति पर स्थान ग्रहण करता है।
अतः ध्रुवण घूर्णक हैलाइडों में $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया विन्यास के प्रतिलोमन के साथ संपन्न होती है। ध्रुवण घूर्णक ऐल्किल हैलाइडों के लिए $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ अभिक्रिया रेसिमीकरण के साथ संपन्न होती है। क्या आप सोच सकते हैं कि ऐसा क्यों होता है? वास्तव में धीमे चरण में बना कार्बोकैटायन $s p^{2}$ संकरित होने के कारण समतलीय हो जाता है (एकाइरल)। नाभिकरागी समतल कार्बोकैटायन पर समतल के ऊपर अथवा नीचे दोनों दिशाओं से आक्रमण कर सकता है। फलस्वरूप उत्पाद में ऐसा मिश्रण प्राप्त होता है जिसमें एक उत्पाद में विन्यास संरक्षित रहता है। ( $-\mathrm{OH}$ उसी स्थिति पर जुड़ता है जहाँ हैलाइड आयन था) तथा दूसरे में विन्यास ( $-\mathrm{OH}$, हैलाइड आयन के विपरीत दिशा में जुड़ता है) विपरीत होता है। इसे ध्रुवण घूर्णक- 2 -ब्रोमोब्यूटेन के जल अपघटन द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है जिससे $( \pm)$-ब्यूटेन-2-ऑल का विरचन होता है।
(+) -ब्यूटेन-2-ऑल
(-)-ब्यूटेन-2-ऑल
2. विलोपन अभिक्रिया
जब $\beta$-हाइड्रोजन परमाणु युक्त हैलोऐल्केन को पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड के ऐल्कोहॉली विलयन के साथ गरम किया जाता है तो $\beta$-कार्बन से हाइड्रोजन परमाणु तथा $\alpha$-कार्बन से हैलोजन परमाणु का विलोपन होता है। इसके परिणामस्वरूप एक ऐल्कीन
किसी अणु में $\alpha$ तथा $\beta$
कार्बन का स्थानकार्बन जिससे हैलोजन परमाणु सीधा जुड़ा रहता है, उसे $\alpha$ कार्बन कहते हैं। इससे जुड़े अगले कार्बन को $\beta$-कार्बन तथा $\beta$-कार्बन से जुड़े कार्बन को $\alpha$-कार्बन कहते हैं।
$$ -\stackrel{1}{\mathrm{C}}-\underset{\mathrm{l}}{\mathrm{l}}-\frac{\beta}{\mathrm{C}}-\mathrm{\alpha}-x $$
उत्पाद के रूप में प्राप्त होती है। चूँकि विलोपन अभिक्रिया में $\beta$-हाइड्रोजन परमाणु सम्मिलित होता है। अतः इसे सामान्यतया $\beta$-विलोपन भी कहते हैं।
$\mathrm{B}=$ क्षार $; \mathrm{X}=$ अवशिष्ट समूह
यदि एक से अधिक $\beta$-हाइड्रोजन परमाणु उपलब्ध होने के कारण एक से अधिक प्रकार की एल्कीन बनने की संभावना हो तो सामान्यतः एक ऐल्कीन मुख्य उत्पाद के रूप में बनती है। इस प्रकार के प्रारूप को सर्वप्रथम रूसी रसायनज्ञ ऐलेक्जेण्डर जेटसेफ (जिन्हें सेत्जेफ भी उच्चारित किया जाता है) ने प्रेक्षित किया। इन्होंने 1875 में एक नियम प्रतिपादित किया जिसे निम्नलिखित प्रकार से संक्षेपित किया जा सकता है “विहाइड्रोजनन के फलस्वरूप वह ऐल्कीन मुख्य रूप से निर्मित होती है जिसमें द्विक्आबंधी कार्बन परमाणुओं पर ऐल्किल समूहों की संख्या अधिक होती है।” अतः 2 -ब्रोमोपेन्टेन मुख्य उत्पाद के रूप में पेन्ट- 2 -ईन देता है।
प्रतिस्थापन
विलोपन बनाम प्रतिस्थापन
एक रासायनिक अभिक्रिया प्रतिस्पर्धा का परिणाम होती हैं जिसमें सबसे तेज़ धावक दौड़ जीतता है। अणुओं का एक समूह अधिकांशतः वह करने का प्रयास करता है जो कि उसके लिए सरल होता है। जब $\beta$ - हाइड्रोजन परमाणु युक्त एक ऐल्किल हैलाइड किसी क्षार अथवा नाभिकरागी के साथ अभिक्रिया करता है तो दो प्रतिस्पर्धात्मक पथ उपलब्ध होते हैं- प्रतिस्थापन $\left(\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1\right.$ तथा $\left.\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2\right)$ तथा विलोपन। किस पथ का चयन होगा, यह ऐल्किल हैलाइड की प्रकृति, क्षार, नाभिकरागी का आकार एवं सामर्थ्य तथा अभिक्रिया की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। अतः एक बड़ा नाभिकरागी क्षार के समान व्यवहार को प्राथमिकता देता है तथा चतुष्फलकीय कार्बन परमाणु के निकट जाने के स्थान पर एक प्रोटॉन का आहरण करता है (त्रिविम कारण)। इसी प्रकार से प्राथमिक ऐल्किल हैलाइड $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया को प्राथमिकता देगा, द्वितीयक ऐल्किल हैलाइड की प्राथमिकता $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ की होगी अथवा विलोपन की; यह क्षार अथवा नाभिकरागी की सामर्थ्य पर निर्भर करता है तथा तृतीयक ऐल्किल हैलाइड $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ को प्राथमिकता देगा अथवा विलोपन को यह कार्बोकैटायन के स्थायित्व अथवा ऐल्कीन के अधिक प्रतिस्थापन पर निर्भर करेगा।
3. धातुओं से अभिक्रिया
अधिकांश कार्बनिक क्लोराइड, ब्रोमाइड तथा आयोडाइड कुछ धातुओं के साथ अभिक्रिया करके कार्बन-धातु आबंधयुक्त यौगिक देते हैं। इस प्रकार के यौगिकों को कार्बधात्विक यौगिक कहते हैं। ऐल्किल मैग्नीशियम हैलाइड $\mathrm{RMgX}$ कार्ब-धात्विक यौगिकों का एक मुख्य वर्ग है। जिनकी खोज विक्टर ग्रीन्यार ने 1900 में की थी। इन्हें ग्रीन्यार अभिक्रियक कहा जाता है। ये अभिक्रियक हैलोऐल्केन की शुष्क ईथर की उपस्थिति में मैग्नीशियम धातु से अभिक्रिया द्वारा प्राप्त किए जाते हैं।
$$ \mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{Br}+\mathrm{Mg} \xrightarrow{\text { शुष्क ईथर }} \underset{\text { ग्रीन्यार अभिक्रियक }}{\mathrm{CH} _{3} \mathrm{CH} _{2} \mathrm{MgBr}} $$
विक्टर ग्रीन्यार की रसायनज्ञ के रूप में शैक्षणिक शुरुआत विचित्र थी। उन्होंने गणित में डिग्री प्राप्त की; किंतु वे अंततोगत्वा रसायन शास्त्र की ओर अग्रसर हुए। यह भौतिक रसायन का गणित कार्य क्षेत्र नहीं था; अपितु कार्बनिक रसायन का था। मेथिलन के लिए एक उत्कृष्ट उत्प्रेरक की खोज करते हुए उन्होंने देखा कि डाइएथिल ईथर में जिंक, इस कार्य के लिए प्रयोग में लिया जाता है। उन्होंने जानना चाहा कि क्या इसके स्थान पर मैग्नीशियम/ईथर संयोग भी सफल हो सकता है? ग्रीन्यार अभिक्रियक सर्वप्रथम 1900 में प्रस्तुत किए गए। ग्रिन्यार ने इस कार्य का उपयोग 1901 में अपनी पीएच.डी. उपाधि के लिए किया। 1910 में ग्रीन्यार नेंसी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर पद पर नियुक्त हुए। वर्ष 1912 में उन्होंने पॉल साबात्ये (Paul Sabitier) के साथ संयुक्त रूप से रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया। पॉल साबात्ये ने निकैल उत्प्रेरित हाइड्रोजनन पर कार्य किया था।
ग्रीन्यार अभिक्रियक में कार्बन मैग्नीशियम बंध सहसंयोजक आबंध होता है परंतु विद्युतधनी मैग्नीशियम के इलेक्ट्रॉन आकर्षित करने के कारण यह आबंध अत्यधिक ध्रुवीय होता है। मैग्नीशियम तथा हैलोजन आबंध आवश्यक रूप से आयनिक होता है।
$$ \begin{aligned} & \delta-\delta+ \\ & \text { R-Mg X } \end{aligned} $$
ग्रीन्यार अभिकर्मक अत्यधिक क्रियाशील होते हैं तथा किसी भी स्रोत से प्राप्त प्रोटॉन से अभिक्रिया कर हाइड्रोकार्बन देते हैं। यहाँ तक कि जल ऐल्कोहॉल तथा ऐमीन भी इन्हें संगत हाइड्रोकार्बन में परिवर्तित करने के लिए पर्याप्त अम्लीय होते हैं।
$$ \mathrm{RMgX}+\mathrm{H} _{2} \mathrm{O} \longrightarrow \mathrm{RH}+\mathrm{Mg}(\mathrm{OH}) \mathrm{X} $$
अतः ग्रीन्यार अभिक्रियक के साथ अभिक्रिया के समय लेशमात्र नमी को भी निकालना आवश्यक है। इसलिए अभिक्रिया को शुष्क ईथर में किया जाता है। वहीं दूसरी ओर, ऐल्किल हैलाइड को हाइड्रोकार्बन में परिवर्तित करने के लिए इसे एक विधि माना जा सकता है।
वुर्ट्ज़ अभिक्रिया
ऐल्किल हैलाइड शुष्क ईथर में सोडियम के साथ अभिक्रिया करके हाइड्रोकार्बन बनाते हैं। जिसमें मूल हैलाइड में उपस्थित कार्बन परमाणुओं से दुगुने कार्बन परमाणु होते हैं। इस अभिक्रिया को वुर्ट्ज़ अभिक्रिया कहते हैं। (एकक-9, कक्षा-11)
$$ 2 \mathrm{RX}+2 \mathrm{Na} \xrightarrow{\text { शुष्क ईथर }} \mathrm{RR}+2 \mathrm{NaX} $$
6.7.2 हैलोएरीनों की अभिक्रियाएं
1. नाभिकरागी प्रतिस्थापन
ऐरिल हैलाइड नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाओं के प्रति निम्नलिखित कारणों से कम क्रियाशील होते हैं।
(i) अनुनाद प्रभाव-हैलोऐरीन में हैलोजन परमाणु पर उपस्थित एकाकी इलेक्ट्रॉन युगल वलय के $\pi$ इलेक्ट्रॉनों के साथ संयुग्मन में होते हैं तथा निम्नलिखित अनुनादी संरचनाएं संभव हैं।
अनुनाद के कारण $\mathrm{C}-\mathrm{Cl}$ आबंध में आंशिक द्विबंध के गुण आ जाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप हैलोऐल्केन की तुलना में हैलोऐरीन में आबंध विदलन अपेक्षाकृत कठिन होता है। अतः ये नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाओं के प्रति कम क्रियाशील होती हैं।
(ii) $\mathbf{C}$ - $\mathrm{X}$ आबंध में कार्बन परमाणु के संकरण में अंतर- हैलोऐल्केन में हैलोजन से जुड़ा कार्बन परमाणु $s p^{3}$ संकरित होता है जबकि हैलोऐरीन में हैलोजन परमाणु से जुड़ा कार्बन परमाणु $s p^{2}$ संकरित होता है।
अधिक $s$ गुणयुक्त $s p^{2}$ संकरित कार्बन अधिक विद्युतऋणात्मक होता है तथा हैलोऐल्केन में कम $\mathrm{s}$ गुण युक्त $s p^{3}$ संकरित कार्बन परमाणु की तुलना में $\mathrm{C}-\mathrm{X}$ आबंध के इलेक्ट्रॉन युगल को अपेक्षाकृत अधिक सुदृढ़ता से थाम सकता है। अतः हैलोऐल्केन में $\mathrm{C}-\mathrm{Cl}$ आबंध की लम्बाई $177 \mathrm{pm}$ है जबकि हैलोऐरीन में $169 \mathrm{pm}$ है। चूँकि लंबे बंध की तुलना में छोटे बंध को तोड़ना कठिन होता है, अतः नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रिया में हैलोऐल्केनों की तुलना में हैलोऐरीन कम क्रियाशील होते हैं।
(iii) फेनिल धनायन का अस्थायित्व- स्वआयनन के फलस्वरूप हैलोऐरीनों से बना फेनिल धनायन अनुनाद के द्वारा स्थायी नहीं हो पाएगा। अतः $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ क्रियाविधि की संभावना समाप्त हो जाती है।
(iv) संभावित प्रतिकर्षण के कारण इलेक्ट्रॉनधनी नाभिकरागी के इलेक्ट्रॉनधनी ऐरीन की ओर जाने की संभावना कम होती है।
हाइड्रॉक्सिल समूह के द्वारा प्रतिस्थापन
$623 \mathrm{~K}$ ताप तथा 300 वायुमंडलीय दाब पर जलीय सोडियम हाइड्रॉक्साइड के साथ गरम करने पर क्लोरोबेन्जीन को फीनॉल में परिवर्तित कर सकते हैं।
(i) $\mathrm{NaOH}, 623 \mathrm{~K}, 300 \mathrm{~atm}$
(ii) $\mathrm{H}^{\oplus}$
आर्थो-तथा पैरा-स्थिति पर इलेक्ट्रॉन-अपनयक समूह $\left(-\mathrm{NO} _{2}\right)$ उपस्थित होने पर हैलोऐरीन की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।
जब $-\mathrm{NO} _{2}$ समूह आर्थो- तथा पैरा-स्थितियों पर जुड़ा होता है, तब यह प्रभाव अधिक प्रबल होता है। तथापि, इलेक्ट्रॉन अपनयक समूह के मैटा-स्थिति पर जुड़े होने की स्थिति में हैलोएरीनों की अभिक्रियाशीलता पर कोई प्रभाव प्रेक्षित नहीं होता है। अभिक्रिया की क्रियाविधि को निम्न प्रकार से आरेखित किया जा सकता है।
पैरा आइसोमर
आर्थो आइसोमर
मैटा आइसोमर
क्या आप विचार कर सकते हैं कि $-\mathrm{NO} _{2}$ समूह ऑर्थो- तथा पैरा- स्थिति पर ही प्रभाव क्यों दर्शाता है, मेटा-स्थिति पर क्यों नहीं?
जैसा कि दर्शाया गया है, कि ऑर्थो- तथा पैरा-स्थिति पर नाइट्रो समूह की उपस्थिति से बेन्जीन वलय पर इलेक्ट्रॉन घनत्व कम हो जाता है। फलतः हैलोऐरीन पर नाभिकरागी का आक्रमण सरल हो जाता है। इस प्रकार बना कार्बऐनायन अनुनाद के द्वारा स्थायित्व प्राप्त कर लेता है। हैलोजन प्रतिस्थापी के स्थान से ऑर्थो- एवं पैरा-स्थितियों पर स्थित कार्बनों पर उत्पन्न ऋणावेश $-\mathrm{NO} _{2}$ के द्वारा स्थायित्व प्राप्त कर लेता है जबकि $m$-नाइट्रोक्लोरोबेन्जीन में एक भी संरचना इस प्रकार की नहीं होती जिसमें $-\mathrm{NO} _{2}$ समूह की उपस्थिति वाले कार्बन परमाणु पर ऋणावेश हो। अतः मेटा- स्थिति पर उपस्थित नाइट्रो समूह ऋणावेश को स्थायित्व प्रदान नहीं करता तथा मेटा- स्थिति पर उपस्थित $-\mathrm{NO} _{2}$ समूह का अभिक्रियाशीलता पर कोई प्रभाव प्रेक्षित नहीं होता।
2. इलेक्ट्रॉॅरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाएं
हैलोऐरीन, बेन्जीन की तरह सामान्य इलेक्ट्रॉनरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाएं जैसे- हैलोजनन, नाइट्रोकरण, सल्फोनेशन तथा फ्रीडेल-क्राफ्ट आदि अभिक्रियाएं देती हैं। हैलोजन परमाणु के आंशिक निष्क्रियक होते हुए भी इसका $o-$ तथा $p$ - निर्देशकारी प्रभाव होता है। अतः अगला प्रतिस्थापन हैलोजन के स्थान से ऑर्थो और पैरा स्थितियों पर होता है। हैलोजन के ऑर्थो एवं पैरा निर्देशक प्रभाव को अनुनाद संरचनाओं की ओर ध्यान देकर आसानी से समझ सकते हैं।
अनुनाद के कारण, मेटा- स्थिति की तुलना में आर्थो- तथा पैरा- स्थितियों पर इलेक्ट्रॉन घनत्व अधिक बढ़ जाता है। $-I$ प्रभाव के कारण हैलोजन परमाणु की प्रकृति बेन्जीन वलय के इलेक्ट्रॉन आकर्षित करने की होती है, इसलिए बेन्जीन की तुलना में वलय कुछ मात्रा में निष्क्रिय हो जाती है। अतः हैलोऐरीन में इलेक्ट्रॉनरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाएं मंद होती हैं तथा बेन्जीन की तुलना में अधिक उग्र परिस्थितियों की आवश्यकता होती है।
(i) हैलोजनन
1,4 -डाइक्लोरोबेन्जीन
(ii) नाइट्रोकरण
1 -क्लोरो-2-नाइट्रोबेन्जीन (अल्प)
( मुख्य)
1, 2-डाइक्लोरोबेन्जीन (अल्प)
1 -क्लोरो-4-नाइट्रोबेन्जीन
( मुख्य) (iii) सल्फोनेशन
(iv) फ्रीडेल क्राफ्ट अभिक्रिया
1-क्लोरो-2-मेथिलबेन्जीन
(अल्प)
1-क्लोरो-4-मेथिलबेन्जीन
( मुख्य)
2-क्लोरोऐसीटोफ़ीनोन
(अल्प) (2)
4-क्लोरोऐसीटोफ़ीनोन
( मुख्य)
3. धातुओं के साथ अभिक्रिया
वुर्ट्ज-फिटिग अभिक्रिया- ऐल्किल हैलाइड तथा ऐरिल हैलाइड का मिश्रण, सोडियम के साथ शुष्क ईथर की उपस्थिति में गरम करने पर ऐल्किलऐरीन देता है तथा इसे वुर्ट्ज-फिटिग अभिक्रिया कहते हैं।
फिटिग अभिक्रिया-ऐरिल हैलाइड भी शुष्क ईथर में सोडियम के साथ अभिक्रिया द्वारा सजातीय यौगिक देते हैं, जिसमें दो ऐरिल समूह परस्पर जुड़े रहते हैं। इसे फिटिग अभिक्रिया कहते हैं।
6.8 पॉलिहलोजन यौहिक
एक से अधिक हैलोजन परमाणुयुक्त यौगिक सामान्यतः पॉलिहैलोजन यौगिक कहलाते हैं। इनमें से अनेक यौगिक उद्योगों तथा कृषि में उपयोगी हैं। इस खंड में कुछ महत्वपूर्ण पॉलिहैलोजन यौगिकों का वर्णन किया गया है।
6.8.1 डाइक्लोरोमेथेन ( मेथिलीन क्लोराइड )
डाइक्लोरोमेथेन का अत्यधिक उपयोग विलायक के रूप में, पेंट अपयनक में, ऐरोसॉल में प्रणोदक के रूप में तथा औषध निर्माण की प्रक्रिया में विलायक के रूप में होता है। यह धातु की सफ़ाई एवं फिनिशिंग विलायक के रूप में प्रयुक्त होता है। मेथिलीन क्लोराइड मनुष्यों के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को हानि पहुँचाता है। वायु में मेथिलीन क्लोराइड की थोड़ी सी मात्रा के सम्पर्क में आने के प्रभाव से श्रवण एवं दृश्य क्षमता में आंशिक क्षीणता आती है। मेथिलीन क्लोराइड की वायु में अधिक मात्रा के प्रभाव से चक्कर आना, मितली, हाथ-पैरों की अंगुलियों में सनसनी एवं जड़ता आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। मनुष्यों में मेथिलीन क्लोराइड के त्वचा के सीधे संपर्क में आने पर तीव्र जलन तथा हल्का लालपन आ जाता है। आँखों से सीधा संपर्क कोर्निया जला सकता है।
6.8.2 ट्राइक्लोरोमेथेन ( क्लोरोफार्म )
रासायनिक रूप में क्लोरोफार्म का उपयोग वसा, ऐल्केलॉइड, आयोडीन तथा अन्य पदार्थों के लिए विलायक के रूप में होता है। वर्तमान में क्लोरोफार्म का प्रमुख उपयोग फ्रेऑन प्रशीतक R-22 बनाने में होता है। पहले इसका उपयोग शल्य चिकित्सा में निश्चेतक के रूप में होता था; परंतु अब इसका स्थान ईथर जैसे कम विषैले एवं अधिक सुरक्षित निश्चेतकों ने ले लिया है। निश्चेतक के रूप में इसके उपयोग को देखते हुए यह अपेक्षित है कि क्लोरोफॉर्म को सूँघने से केंद्रीय तंत्रिका तंत्र अवनमित हो जाता है। वायु के प्रति दस लाख भाग में 900 भाग क्लोरोफॉर्म ( 900 भाग प्रति दस लाख) में बहुत कम समय तक सांस लेने से चक्कर, थकान एवं सिरदर्द हो सकता है, क्लोरोफॉर्म के दीर्घकालिक संपर्क (exposure) से यकृत का (जहाँ क्लोरोफार्म फ़ॉस्जीन में उपापचयित होती है) एवं वृक्क का क्षय हो सकता है तथा कुछ व्यक्तियों की त्वचा क्लोरोफार्म में डूबी रहने पर उसमें घाव हो जाते हैं। क्लोरोफॉर्म प्रकाश की उपस्थिति में वायु द्वारा धीरे-धीरे ऑक्सीकृत होकर अत्यधिक विषैली गैस, कार्बोनिल क्लोराइड बनाती है जिसे फ़ॉस्जीन भी कहते हैं। इसलिए भंडारण के लिए इसे पूर्णतः भरी हुई इसे रंगीन बोतलों में रखा जाता है ताकि उनमें वायु न रहे।
$$ 2 \mathrm{CHCl} _{3}+\mathrm{O} _{2} \xrightarrow{\text { प्रकाश }} \underset{\substack{\text { फ़ॉस्जीन }}}{2 \mathrm{COCl} _{2}}+2 \mathrm{HCl} $$
6.8.3 ट्राइआयोडोमेथेन ( आयडोफार्म )
इसका उपयोग प्रारंभ में पूतिरोधी (ऐंटिसेप्टिक) के रूप में किया जाता था परंतु आयडोफॉर्म का यह पूतिरोधी गुण आयडोफार्म के कारण स्वयं नहीं, बल्कि मुक्त हुई आयोडीन के कारण होता है। इसकी अरुचिकर गंध के कारण अब इसके स्थान पर आयोडीन युक्त अन्य दवाओं का उपयोग किया जाता है।
6.8.4 टेट्राक्लोरोमेथेन ( कार्बन टेट्राक्लोराइड )
इसका अत्यधिक मात्रा में उत्पादन प्रशीतक बनाने तथा ऐरोसॉल कैन के लिए प्रणोदक के उत्पादन में उपयोग करने के लिए किया जाता है इसे क्लोरोफ्लुओरो कार्बन तथा अन्य रसायनों के उत्पादन में भी फ़ीडस्टॉक की तरह एवं औषध उत्पादन में तथा सामान्य विलायक की भाँति प्रयुक्त किया जाता है। 1960 के मध्य तक यह उद्योगों में ग्रीस को साफ़ करने वाले द्रव तथा घरों में दाग-धब्बे हटाने वाले द्रव एवं अग्नि शामक के रूप में बहुतायत से प्रयुक्त होता था। इस प्रकार के कुछ प्रमाण हैं कि कार्बन टेट्राक्लोराइड से उद्भासन (exposure) द्वारा मनुष्यों को यकृत का कैंसर हो जाता है। इसके कुछ प्रमुख प्रभाव हैं चक्कर आना, सिर का हल्कापन, मितली तथा उल्टी आना आदि, जिससे तंत्रिका कोशिकाओं में स्थायी क्षति हो सकती है। गंभीर स्थिति में यह प्रभाव शीघ्रता से मूच्च्छा, गहरी नींद, बेहोशी अथवा मृत्यु ला सकता है। $\mathrm{CCl} _{4}$ के उद्भासन से हृदयगति अनियमित हो सकती है अथवा रुक जाती है। आँखों के संपर्क में आने पर इस रसायन से जलन उत्पन्न होती है। कार्बनटेट्राक्लोराइड वायु में निर्मुक्त होने पर ऊपरी वायुमंडल में पहुँच जाती है और ओज़ोन परत को विरल बना देती है। ओज़ोन परत के विरलीकरण से मनुष्यों का पराबैंगनी किरणों से उद्भासन बढ़ जाता है। जिससे त्वचा का कैंसर, आँखों की बीमारियाँ तथा विकार एवं प्रतिरक्षा प्रणाली में विदारण होना संभव है।
6.8.5 फ्रेऑन
मेथेन व एथेन के क्लोरोफ्लुओरो व्युत्पन्न संयुक्त रूप से फ्रेऑन कहलाते हैं। यह अत्यधिक स्थायी, निष्क्रिय तथा निरावेषी (नॉन-टॉक्सिक) असंक्षारक (नॉन-कोरोसिव) तथा आसानी से द्रवित हो सकने वाली गैसें हैं। फ्रेऑन $12\left(\mathrm{CF} _{2} \mathrm{Cl} _{2}\right)$ उद्योगों मे सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाले सामान्य फ्रेऑनों में से एक है। इसका उत्पादन स्वार्ट्स अभिक्रिया द्वारा टेट्राक्लोरोमेथेन से किया जाता है। यह ऐरोसॉल प्रणोदक, प्रशीतक तथा वायु शीतलन में उपयोग करने के लिए उत्पादित किए जाते हैं। 1974 तक विश्व में फ्रेऑन का वार्षिक उत्पादन 20 करोड़ पाउंड तक था। अधिकांश फ्रेऑन यहाँ तक कि प्रशीतन में काम आने वाले भी, वायुमंडल से होते हुए क्षोभमंडल में विसरित हो जाते हैं। क्षोभमंडल में फ्रेऑन, मूलक शृंखला अभिक्रिया प्रारंभ कर देते हैं तथा प्राकृतिक ओज़ोन संतुलन को अनियंत्रित कर देते हैं।
6.8.6 $\boldsymbol{p}$ - $\boldsymbol{p}$ ‘-डाइक्लोरोडाइफेनिलट्राइक्लोरो एथेन ( DDT )
प्रथम क्लोरीनीकृत, कार्बनिक कीटनाशी DDT मूलतः 1873 में बनाया गया था, लेकिन इसके कीटनाशी प्रभाव की खोज 1939 में स्विट्ज़रलैंड के गिगी औषधालय के पॉल मूलर ने की। इस खोज के लिए पॉल मूलर को 1948 में चिकित्सा एवं शरीर क्रिया विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत इसका उपयोग विश्वस्तर पर तेजी के साथ बढ़ा, क्योंकि यह मुख्यतः मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों तथा टाइफस वाहक जुओं को समाप्त करने में प्रभावकारी होती है। 1940 के अंत में DDT के अत्यधिक उपयोग के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याएं उभरने लगीं। कीटों की अनेक प्रजातियों ने DDT के प्रति प्रतिरोधात्मकता विकसित कर ली तथा यह मछलियों के लिए अति विषैली सिद्ध हुई। DDT के अत्यधिक रासायनिक स्थायित्व तथा इसकी वसा में विलेयता ने समस्या को और जटिल बना दिया। DDT का शीघ्रता से उपापचयन नहीं होता अपितु यह वसीय ऊतकों में एकत्र तथा संग्रहित हो जाती है। यदि अंतर्र्रहण लगातार स्थायी गति से होता रहे तो जंतुओं में DDT की मात्रा समय के साथ बढ़ती जाती है। संयुक्त राज्य में 1973 में DDT पर प्रतिबंध लगा दिया था परंतु विश्व में अनेक स्थानों पर इसका उपयोग आज भी हो रहा है।
शारांश
ऐल्किल/ऐरिल हैलाइडों को उनकी संरचना में उपस्थित एक, दो अथवा अधिक हैलोजन परमाणुओं के आधार पर क्रमशः मोनो, डाइ अथवा पॉलिहैलोजन (ट्राइ-, टेट्रा- आदि) यौगिकों में वर्गीकृत किया जा सकता है चूँकि हैलोजन परमाणु कार्बन परमाणु से अधिक विद्युतऋणात्मक होता है, अतः कार्बन-हैलोजन आबंध ध्रुवित हो जाता है। कार्बन पर आंशिक धनावेश तथा हैलोजन परमाणु पर आंशिक ऋणावेश आ जाता है।
ऐल्किल हैलाइडों को ऐल्केन के मुक्त मूलक हैलोजनन द्वारा; ऐल्कीनों पर हैलोजन अम्लों के योगज द्वारा; ऐल्कोहॉल के $-\mathrm{OH}$ समूह को फ़ास्फ़ोरस हैलाइड या थायोनिल क्लोराइड अथवा हैलोजन अम्लों के उपयोग से हैलोजन द्वारा प्रतिस्थापित करके बनाया जाता है। एरिल हैलाइडों को ऐरीनो की इलेक्ट्रॉनरागी प्रतिस्थापन अभिक्रिया द्वारा बनाया जाता है। फ्लुओराइडों एवं आयोडाइडों को बनाने की श्रेष्ठ विधि हैलोजन विनिमय विधि है।
प्रबल, द्विध्रुव-द्विध्रुव तथा वान्डरवाल्स आकर्षण बलों के कारण कार्बनहैलोजन यौगिकों के क्वथनांक संगत होइड्रोकार्बनों की तुलना में अधिक होते हैं। ये जल में अल्प विलेय परंतु कार्बनिक विलायकों में पूर्ण विलेय होते हैं।
ऐल्किल हैलाइडों के कार्बन-हैलोजन आबंध की ध्रुवता इनके नाभिकरागी प्रतिस्थापन, विलोपन तथा धातुओं से अभिक्रिया द्वारा कार्बधात्विक यौगिकों के निर्माण के लिए उत्तरदायी है। रासायनिक बलगतिकी गुणों के आधार पर नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाओं को $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ व $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रियाओं में वर्गीकृत किया गया है। $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ व $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया की क्रियाविधि को समझने के लिए काइरलता की महत्वपूर्ण भूमिका है। काइरल ऐल्किल हैलाइड की $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 2$ अभिक्रिया को विन्यास में प्रतीपन के द्वारा तथा $\mathrm{S} _{\mathrm{N}} 1$ अभिक्रिया को रेसिमीकरण के द्वारा अभिलक्षणित किया जा सकता है। अधिकांश पॉलिहैलोजन यौगिक जैसे डाइक्लोरोमेथेन, क्लोराफार्म, आयडोफार्म, कार्बनटेट्राक्लोराइड, फ्रेऑन तथा DDT के अनेक औद्योगिक अनुप्रयोग हैं। तथापि इनमें से कई यौगिक शीघ्रता से अपघटित नहीं किए जा सकते यहाँ तक कि ये ओज़ोन परत का विरलीकरण करते हैं और वायुमंडलीय संकट सिद्ध हो रहे हैं।