अपचयोपचय अभिक्रियाएँ REDOX REACTIONS

एकक 7

जहाँ आक्स्तीकरण है, वहाँ सदैव अपचयन होता है। रसायन विज्ञान अपचयोपचन प्रक्रमों के अध्ययन का विज्ञान है।

विभिन्न पदार्थी का तथा दूसरे पदार्थो में उनके परिवर्तन का अध्ययन रसायन शास्व कहलाता है। ये परिवर्तन विभिन्न अभिक्रियाओं द्वारा होते हैं। अपचयोपचय अभिक्रियाएँ इनका एक महत्त्वपूर्ण समूह है। अनेक भौतिक तथा जैविक परिघटनाएँ अपचयोपचय अभिक्रियायों से संबंधित हैं। इनका उपयोग औषधि विज्ञान, जीव विज्ञान, औद्योगिक क्षेत्र, धातुनिर्माण क्षेत्र तथा कृषि विज्ञान क्षेत्र में होता है। इनका महत्त्व इस बात से स्पष्ट है कि इनका प्रयोग निम्नलिखित क्षेत्रों में अपचयोपचय अभिक्रियाओं में, जैसे-घरेलू, यातायात तथा ब्यावसायिक क्षेत्रों में अनेक प्रकार के ईंन के ज्वलन से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए; विद्युत् रासायनिक प्रक्रमों आदि में; अति क्रियाशील धातुओं तथा अधातुओं के निष्कर्षण, धातु-संक्षारण, रासायनिक यौगिकों (जैसे-क्लोरीन तथा कास्टिक सोडा) के निर्माण में तथा शुष्क एवं गीली बैटरियों के चालन में होता है। आजकल हाइड्रोजन मितव्ययिता (द्रव हाइड्रोजन का उपयोग ईंधन के रूप में) तथा ओज्ञोन छिद्र जैसे वातावरणी विषयों में भी अपचयोपचय अभिक्रियाएँ दिखती हैं।

7.1 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ

मूल रूप से ऑक्सीकरण शब्द का प्रयोग तत्वों तथा यौगिकों के ऑक्सीजन से संयोग के लिए होता था। वायुमंडल में लगभग 20 प्रतिशत डाइऑक्सीजन की उपस्थिति के कारण बहुत से तत्व इससे संयोग कर लेते हैं। यही कारण है कि पृथ्वी पर तत्व सामान्य रूप से ऑक्साइड रूप में ही पाए जाते हैं। आंक्सीकरण की इस सीमित परिभाषा के अंतर्गत निम्नलिखित अभिक्रियाओं को दर्शाया जा सकता है- $$ \begin{aligned} & 2 \mathrm{Mg}(\mathrm{s})+\mathrm{O}_2(\mathrm{~g}) \rightarrow 2 \mathrm{MgO} \text { (s) } (7.1) \\ & \mathrm{S}(\mathrm{s})+\mathrm{O}_2(\mathrm{~g}) \rightarrow \mathrm{SO}_2(\mathrm{~g}) (7.2) \end{aligned} $$

अभिक्रिया 7.1 तथा 7.2 में मैग्नीशियम और सल्फर तत्त्वों का ऑक्सीजन से मिलकर ऑक्सीकरण हो जाता है। समान रूप से ऑक्सीजन से संयोग के कारण मेथैन का ऑक्सीकरण हो जाता है।

$\mathrm{CH} _{4}(\mathrm{~g})+2 \mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow \mathrm{CO} _{2}(\mathrm{~g})+2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l}) \quad \quad $ (7.3)

यदि ध्यान से देखें, तो अभिक्रिया 7.3 में मेथैन में हाइड्रोजन के स्थान पर ऑक्सीजन आ गया है। इससे रसायनशास्त्रियों को प्रेरणा मिली कि हाइड्रोजन के निष्कासन को ‘ऑक्सीकरण’ कहा जाए। इस प्रकार ऑक्सीकरण पद को विस्तृत करके पदार्थ से हाइड्रोजन के निष्कासन को भी ‘ऑक्सीकरण’ कहते हैं। निम्नलिखित अभिक्रिया में भी हाइड्रोजन का निष्कासन ऑक्सीकरण का उदाहरण है-

$$ \begin{equation*} 2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{~S}(\mathrm{~g})+\mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow 2 \mathrm{~S}(\mathrm{~s})+2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l}) \tag{7.4} \end{equation*} $$

रसायनशास्त्रियों के ज्ञान में जैसे-जैसे वृद्धि हुई, वैसे-वैसे उन अभिक्रियाओं, जिनमें 7.1 से 7.4 की भाँति ऑक्सीजन के अलावा अन्य ऋणविद्युती तत्त्वों का समावेश होता है, को वे ‘ऑक्सीकरण’ कहने लगे। मैग्नीशियम का ऑक्सीकरण फ्लुओरीन, क्लोरीन तथा सल्फर द्वारा निम्नलिखित अभिक्रियाओं में दर्शाया गया है-

$$ \begin{align*} & \operatorname{Mg}(\mathrm{s})+\mathrm{F} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow \mathrm{MgF} _{2}(\mathrm{~s}) \tag{7.5}\\ & \operatorname{Mg}(\mathrm{s})+\mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow \mathrm{MgCl} _{2}(\mathrm{~s}) \tag{7.6}\\ & \operatorname{Mg}(\mathrm{s})+\mathrm{S}(\mathrm{s}) \rightarrow \operatorname{MgS}(\mathrm{s}) \tag{7.7} \end{align*} $$

7.5 से 7.7 तक की अभिक्रियाएँ ऑक्सीकरण अभिक्रिया समूह में शामिल करने पर रसायनशास्त्रियों को प्रेरित किया कि वे हाइड्रोजन जैसे अन्य धनविद्युती तत्त्वों के निष्कासन को भी ‘ऑक्सीकरण’ कहने लगे। इस प्रकार अभिक्रिया-

$$ 2 \mathrm{~K} _{4}\left[\mathrm{Fe}(\mathrm{CN}) _{6}\right] (aq) +\mathrm{H} _{2} \mathrm{O} _{2}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{~K} _{3}\left[\mathrm{Fe}(\mathrm{CN}) _{6}\right] (aq) +2 \mathrm{KOH}(\mathrm{aq}) $$

को धनविद्युती तत्त्व $\mathrm{K}$ के निष्कासन के कारण ‘पोटैशियम फैरोसाइनाइड का ऑक्सीकरण’ कह सकते हैं। सारांश में ऑक्सीकरण पद की परिभाषा इस प्रकार है- किसी पदार्थ में ऑक्सीजन / ऋणविद्युती तत्त्व का समावेश या हाइड्रोजन / धनविद्युती तत्त्व का निष्कासन ऑक्सीकरण कहलाता है।

पहले किसी यौगिक से ऑक्सीजन का निष्कासन अपचयन माना जाता था, लेकिन आजकल अपचयन पद को विस्तृत करके पदार्थ से ऑक्सीजन / ऋणविद्युती तत्त्व के निष्कासन को या हाइड्रोजन / धनविद्युती तत्त्व के समावेश को अपचयन कहते हैं।

उपरोक्त परिभाषा के अनुसार निम्नलिखित अभिक्रिया अपचयन प्रक्रम का उदाहरण है-

$2 \mathrm{HgO}(\mathrm{s}) \xrightarrow{\Delta} 2 \mathrm{Hg}(\mathrm{l})+\mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g})$

(मरक्यूरिक ऑक्साइड से ऑक्सीजन का निष्कासन)

$2 \mathrm{FeCl} _{3}(\mathrm{aq})+\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow 2 \mathrm{FeCl} _{2}(\mathrm{aq})+2 \mathrm{HCl}(\mathrm{aq})$

(विद्युत्ऋणी तत्त्व क्लोरीन का फेरिक क्लोराइड से निष्काषन)

$\mathrm{CH} _{2}=\mathrm{CH} _{2}(\mathrm{~g})+\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow \mathrm{H} _{3} \mathrm{C}-\mathrm{CH} _{3}(\mathrm{~g})$

(हाइड्रोजन का योग)

$2 \mathrm{HgCl} _{2}(\mathrm{aq})+\mathrm{SnCl} _{2}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{Hg} _{2} \mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~s})+\mathrm{SnCl} _{4}(\mathrm{aq})$

(मरक्युरिक क्लोराइड से योग)

क्योंकि अभिक्रिया 7.11 में स्टैनसक्लोराइड में वैद्युत ॠणी तत्त्व क्लोरीन का योग हो रहा है, इसलिए साथ-साथ स्टैनिक क्लोराइड के रूप में इसका ऑक्सीकरण भी हो रहा है। उपरोक्त सभी अभिक्रियाओं को ध्यान से देखने पर शीघ्र ही इस बात का आभास हो जाता है कि ऑक्सीकरण तथा अपचयन हमेशा साथ-साथ घटित होते हैं। इसीलिए इनके लिए अपचयोपचय शब्द दिया गया।

7.2 इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण अभिक्रियाओं के रूप में अपचयोपचय अभिक्रियाएँ

हम यह जान चुके हैं कि निम्नलिखित सभी अभिक्रियाओं में या तो ऑक्सीजन या अधिक ऋणविद्युती तत्त्व के संयोग के कारण सोडियम का ऑक्सीकरण हो रहा है; साथ-साथ क्लोरीन, ऑक्सीजन तथा सल्फर का अपचयन भी हो रहा है, क्योंकि इन तत्त्वों से धनविद्युती तत्त्व सोडियम का संयोग हो रहा है-

$$ \begin{array}{ll} 2 \mathrm{Na}(\mathrm{s})+\mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g}) & \rightarrow 2 \mathrm{NaCl}(\mathrm{s}) \\ 4 \mathrm{Na}(\mathrm{s})+\mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g}) & \rightarrow 2 \mathrm{Na} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{s}) \\ 2 \mathrm{Na}(\mathrm{s})+\mathrm{S}(\mathrm{s}) & \rightarrow \mathrm{Na} _{2} \mathrm{~S}(\mathrm{~s}) \tag{7.12, 7.13, 7.14} \end{array} $$

रासायनिक आबंध के नियमों के आधार पर सोडियम क्लोराइड, सोडियम ऑक्साइड तथा सोडियम सल्फाइड हमें आयनिक यौगिकों के रूप में विदित हैं। इन्हें $\mathrm{Na}^{+} \mathrm{Cl}^{-}(\mathrm{s})$, $\left(\mathrm{Na}^{+}\right) _{2} \mathrm{O}^{2-}(\mathrm{s})$ तथा $\left(\mathrm{Na}^{+}\right) _{2} \mathrm{~S}^{2-}(\mathrm{s})$ के रूप में लिखना ज्यादा उचित होगा। विद्युत् आवेश उत्पन्न होने के कारण 7.12 से 7.14 तक की अभिक्रियाओं को हम यों लिख सकते हैं-

सुविधा के लिए उपरोक्त अभिक्रियाओं को दो चरणों में लिखा जा सकता है। एक में इलेक्ट्रॉनों का निष्कासन तथा दूसरे में इलेक्ट्रॉनों की प्राप्ति होती है। दृष्टांत रूप में सोडियम क्लोराइड के संभवन को अधिक परिष्कृत रूप में इस प्रकार भी लिख सकते हैं-

$$ \begin{aligned} & 2 \mathrm{Na}(\mathrm{s}) \rightarrow 2 \mathrm{Na}^{+}(\mathrm{g})+2 \mathrm{e}^{-} \\ & \mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g})+2 \mathrm{e}^{-} \rightarrow 2 \mathrm{Cl}^{-}(\mathrm{g}) \end{aligned} $$

उपरोक्त दोनों चरणों को ‘अर्द्ध अभिक्रिया’ कहते हैं, जिनमें इलेक्ट्रॉनों की अभिलिप्तता साफ-साफ दिखाई देती है। दो अर्द्धक्रियाओं को जोड़ने से एक पूर्ण अभिक्रिया प्राप्त होती है-

$2 \mathrm{Na}(\mathrm{s})+\mathrm{Cl} _{2}$ (g) $\rightarrow 2 \mathrm{Na}^{+} \mathrm{Cl}^{-}$ (s) या $2 \mathrm{NaCl}$

7.12 से 7.14 तक की अभिक्रियाओं में इलेक्ट्रॉन निष्कासन वाली अर्द्धअभिक्रियाओं को ‘ऑक्सीकरण अभिक्रिया’ तथा इलेक्ट्रॉन ग्रहण करनेवाली अर्द्धअभिक्रिया को ‘अपचयन अभिक्रिया’ कहते हैं। यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि स्पीशीज़ के आपसी व्यवहार की पारंपरिक अवधारणा तथा इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण के परस्पर मिलाने से ही ऑक्सीकरण और अपचयन की नई परिभाषा प्राप्त हुई है। 7.12 से 7.14 तक की अभिक्रियाओं में सोडियम, जिसका ऑक्सीकरण होता है, अपचायक के रूप में कार्य करता है, क्योंकि यह क्रिया करनेवाले प्रत्येक तत्त्व को इलेक्ट्रॉन देकर अपचयन में सहायता देता है। क्लोरीन, ऑक्सीजन तथा सल्फर अपचयित हो रहे हैं और ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं, क्योंकि ये सोडियम द्वारा दिए गए इलेक्ट्रॉन स्वीकार करते हैं। सारांश रूप में हम यह कह सकते हैं-

ऑक्सीकरण : किसी स्पीशीज़ द्वारा इलेक्ट्रॉन का निष्कासन

अपचयन : किसी स्पीशीज़ द्वारा इलेक्ट्रॉन की प्राप्ति

ऑक्सीकारक: इलेक्ट्रॉनग्राही अभिकारक

अपचायक : इलेक्ट्रॉनदाता अभिकारक

चित्र 7.1 बीकर में रखे कॉपर नाइट्रेट तथा ज़िंक के बीच होनेवाली अपचयोपचय अभिक्रिया

7.2.1 प्रतियोगी इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण अभिक्रियाएँ

जैसा चित्र 7.1 में दर्शाया गया है, ज़िक धातु की एक पट्टी को एक घंटे के लिए कॉपर नाइट्रेट के जलीय विलयन में रखा गया है। आप देखेंगे कि धातु की पट्टी पर कॉपर धातु की लाल रंग की परत जम जाती है तथा विलयन का नीला रंग गायब हो जाता है। ज़िक आयन $\mathrm{Zn}^{2+}$ का उत्पाद के रूप में बनना $\mathrm{Cu}^{2+}$ के रंग के विलुप्त होने से लिया जा सकता है। यदि $\mathrm{Zn}^{2+}$ वाले रंगहीन घोल में हाइड्रोजन सल्फाइड गैस गुजारें, तो ज़िंक सल्फाइड $\mathrm{ZnS}$ अवक्षेप का सफेद रंग अमोनिया द्वारा विलयन को क्षारीय करके देखा जा सकता है।

ज़िंक धातु तथा कॉपर नाइट्रेट के जलीय घोल के बीच होनेवाली अभिक्रिया निम्नलिखित है-

$\mathrm{Zn}(\mathrm{s})+\mathrm{Cu}^{2+}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{Zn}^{2+}(\mathrm{aq})+\mathrm{Cu}(\mathrm{s})$

अभिक्रिया 7.15 में ज़िंक से इलेक्ट्रॉनों के निष्कासन से $\mathrm{Zn}^{2+}$ बनता है। इसलिए ज़िक का ऑक्सीकरण होता है। स्पष्ट है कि इलेक्ट्रॉनों के निष्कासन से ज़िंक का ऑक्सीकरण हो रहा है, तो किसी वस्तु का इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करने से अपचयन भी हो रहा है। ज़िंक द्वारा दिए गए इलेक्ट्रॉनों की प्राप्ति से कॉपर आयन अपचयित हो रहा है। अभिक्रिया 7.15 को हम इस प्रकार दुबारा लिख सकते हैं-

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अब हम समीकरण 7.15 द्वारा दर्शाई गई अभिक्रिया की साम्यावस्था का अध्ययन करेंगे। इसके लिए हम कॉपर धातु की पट्टी को ज़िक सल्फेट के घोल में डुबोकर रखते हैं। कोई भी प्रतिक्रिया दिखलाई नहीं देती और न ही $\mathrm{Cu}^{2+}$ का वह परीक्षण सफल होता है, जिसमें विलयन में $\mathrm{H} _{2} \mathrm{~S}$ गैस प्रवाहित करने पर क्युपरिक सल्फाइड $\mathrm{CuS}$ अवक्षेप का काला रंग मिलता है। यह परीक्षण बहुत संवेदनशील है, परंतु फिर भी $\mathrm{Cu}^{2+}$ आयन का बनना नहीं देखा जा सकता है। इससे हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अभिक्रिया 7.15 की साम्यावस्था की अनुकूलता उत्पादों की ओर है। आइए, अब हम कॉपर धातु तथा सिल्वर नाइट्रेट के जलीय विलयन के बीच होनेवाली अभिक्रिया को चित्र 7.2 में दर्शाई गई व्यवस्था के अनुसार घटित करें।

आयन बनने के कारण घोल का रंग नीला हो जाता है, जो निम्नलिखित अभिक्रिया के कारण है-

चित्र 7.2 एक बीकर में कॉपर धातु व सिल्वर नाइट्रेट के जलीय विलयन के बीच होने वाली अपचयोपचय अभिक्रिया

(7.16)

यहाँ $\mathrm{Cu}(\mathrm{s})$ का $\mathrm{Cu}^{2+}$ में ऑक्सीकरण होता है तथा $\mathrm{Ag}^{+}$ का $\mathrm{Ag}(\mathrm{s})$ में अपचयन हो रहा है। साम्यावस्था $\mathrm{Cu}^{2+}(\mathrm{aq})$ तथा $\mathrm{Ag}(\mathrm{s})$ उत्पादों की दिशा में बहुत अनुकूल है। विषमता के तौर पर निकैल सल्फेट के घोल में रखी गई कोबाल्ट धातु के बीच अभिक्रिया का तुलनात्मक अध्ययन करें। यहाँ निम्नलिखित अभिक्रिया घटित हो रही है-

(7.17)

रासायनिक परीक्षणों से यह विदित होता है कि साम्यावस्था की स्थिति में $\mathrm{Ni}^{2+}(\mathrm{aq})$ व $\mathrm{Co}^{2+}(\mathrm{aq})$ दोनों की सांद्रता मध्यम होती है। यह परिस्थिति न तो अभिकारकों ( $\mathrm{Co}(\mathrm{s})$, न $\mathrm{Ni}^{2+}$ $(\mathrm{aq}))$, न ही उत्पादों $\left(\mathrm{Co}^{2+}(\mathrm{aq})\right.$ और न $\left.\mathrm{Ni}(\mathrm{s})\right)$ के पक्ष में है।

इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने के लिए यह प्रतियोगिता प्रसंगवश हमें अम्लों के बीच होनेवाली प्रोटॉन निष्कासन की प्रतियोगिता की याद दिलाती है। इस समरूपता के अनुसार इलेक्ट्रॉन निष्कासन की प्रवृत्ति पर आधारित धातुओं तथा उनके आयनों की एक सूची उसी प्रकार तैयार कर सकते हैं, जिस प्रकार अम्लों की प्रबलता की सूची तैयार की जाती है। वास्तव में हमने कुछ तुलनाएँ भी की हैं। हम यह जान गए हैं कि ज़िक कॉपर को तथा कॉपर सिल्वर को इलेक्ट्रॉन देता है। इसलिए इलेक्ट्रॉन निष्कासन-क्षमता का क्रम $\mathrm{Zn}>\mathrm{Cu}>\mathrm{Ag}$ हुआ। हम इस क्रम को विस्तृत करना चाहेंगे, ताकि धातु सक्रियता सीरीज़ अथवा विद्युत् रासायनिक सीरीज़ बना सकें। विभिन्न धातुओं के बीच इलेक्ट्रॉनों की प्रतियोगिता की सहायता से हम ऐसे सेल बना सकते हैं, जो विद्युत् ऊर्जा का स्रोत हों। इन सेलों को ‘गैलवेनिक सेल’ कहते हैं। इनके बारे में हम अगली कक्षा में विस्तार से पढ़ेंगे।

7.3 ऑक्सीकरण-संख्या

निम्नलिखित अभिक्रिया, जिसमें हाइड्रोजन ऑक्सीजन से संयोजन करके जल बनाता है, इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण का एक अल्पविदित उदाहरण है-

$2 \mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g})+\mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow 2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l})$

यद्यपि यह एक सरल तरीका तो नहीं है, फिर भी हम यह सोच सकते हैं कि $\mathrm{H} _{2}$ अणु में $\mathrm{H}$ परमाणु उदासीन (शून्य) स्थिति से $\mathrm{H} _{2} \mathrm{O}$ में धन् स्थिति प्राप्त करता है। ऑक्सीजन परमाणु $\mathrm{O} _{2}$ में शून्य स्थिति से द्विऋणी स्थिति प्राप्त करते हैं। यह माना गया है कि $\mathrm{H}$ से $\mathrm{O}$ की ओर इलेक्ट्रॉन स्थानांतरित हो गया है। परिणामस्वरूप $\mathrm{H} _{2}$ का ऑक्सीकरण तथा $\mathrm{O} _{2}$ का अपचयन हो गया है। बाद में हम यह पाएँगे कि यह आवेश स्थानांतरण आंशिक रूप से ही होता है। यह बेहतर होगा कि इसे इलेक्ट्रॉन विस्थापन (शिफ्ट) से दर्शाया जाए, न कि $\mathrm{H}$ द्वारा इलेक्ट्रॉन निष्कासन तथा $O$ द्वारा इलेक्ट्रॉन की प्राप्ति। यहाँ समीकरण 7.18 के बारे में जो कुछ कहा गया है, वही अन्य सहसंयोजक यौगिकों वाली अन्य अभिक्रियाओं के बारे में कहा जा सकता है। इनके दो उदाहरण हैं-

$\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~s})+\mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow 2 \mathrm{HCl}(\mathrm{g})$

और

$\mathrm{CH} _{4}(\mathrm{~g})+4 \mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow \mathrm{CCl} _{4}(\mathrm{l})+4 \mathrm{HCl}(\mathrm{g})$

सहसंयोजक यौगिकों के उत्पाद की अभिक्रियाओं में इलेक्ट्रॉन विस्थापन को ध्यान में रखकर ऑक्सीकरण-संख्या विधि का विकास किया गया है, ताकि अपचयोपचय अभिक्रियाओं का रिकॉर्ड रखा जा सके। इस विधि में यह माना गया है कि कम ऋणविद्युत् परमाणु से अधिक ऋणविद्युत् तथा इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण पूरी तरह से हो जाता है। उदाहरणार्थ-7.18 से 7.20 तक के समीकरणों को हम दोबारा इस प्रकार लिखते हैं। यहाँ के सभी परमाणुओं पर आवेश भी दर्शाया गया है-

0 $\quad$ $\quad$ $\quad$ $\quad$ 0 $\quad$ $\quad$ $\quad$ +1 -2

2 $\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g})+\mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow 2H _2 O (1) $

0 $\quad$ $\quad$ $\quad$ 0 $\quad$ $\quad$ $\quad$ $+1 -1$

$\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~s})+\mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow 2 \mathrm{HCl}(\mathrm{g})$

$-4+1$ $\quad$ $\quad$ 0 $\quad$ $\quad$ $\quad$ $+4-1$ $\quad$ $+1-1$

$\mathrm{CH} _{4}(\mathrm{~g})$ $+$ $4 Cl _2$ $(\mathrm{~g}) \rightarrow 4 \mathrm{CCl} _{4}(\mathrm{l})$ $+4 \mathrm{HCl} (g)$

इसपर बल दिया जाए कि इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण की कल्पना केवल लेखा-जोखा रखने के लिए की गई है। इस एकक में आगे चलने पर स्पष्ट हो जाएगा कि यह अपचयोपचय अभिक्रियाओं को सरलता से दर्शाती है।

किसी यौगिक में तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या उसकी ऑक्सीकरण स्थिति को दर्शाती है, जिसे इस नियम के आधार पर किया जाता है कि सहसंयोजक आबंधन में इलेक्ट्रॉन युगल केवल अधिक वैद्युत-ऋणी तत्त्व से संबद्ध होता है।

इसे हमेशा याद रखना या जान लेना संभव नहीं है कि यौगिक में कौन सा तत्त्व अधिक वैद्युत-ऋणी है। इसलिए यौगिक/आयन के किसी तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या का मान जानने के लिए कुछ नियम बनाए गए हैं। यदि किसी अणु/ आयन में किसी तत्त्व के दो अथवा दो से अधिक परमाणु उपस्थित हों, (जैसे $\mathrm{Na} _{2} \mathrm{~S} _{2} \mathrm{O} _{3} / \mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{7}^{2-}$ ) तो उस तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या उसके सभी परमाणुओं की ऑक्सीकरणसंख्या की औसत होगी। अब हम ऑक्सीकरण-संख्या की गणना के निम्नलिखित नियमों को बताएँगे-

  1. तत्त्वों में स्वतंत्र या असंयुक्त दशा में प्रत्येक परमाणु की ऑक्सीकरण-संख्या शून्य होती है। प्रत्यक्षतः $\mathrm{H} _{2}, \mathrm{O} _{2}, \mathrm{Cl} _{2}$, $\mathrm{O} _{3}, \mathrm{P} _{4}, \mathrm{~S} _{8}, \mathrm{Na}, \mathrm{Mg}$ तथा $\mathrm{Al}$ में सभी परमाणुओं की ऑक्सीकरण-संख्या समान रूप से शून्य है।

  2. केवल एक परमाणु वाले आयनों में परमाणु की ऑक्सीकरणसंख्या उस आयन में स्थित आवेश का मान है। इस प्रकार $\mathrm{Na}^{+}$आयन की ऑक्सीकरण-संख्या $+1, \mathrm{Mg}^{2+}$ आयन की $+2, \mathrm{Fe}^{3+}$ आयन की $+3, \mathrm{Cl}^{-}$आयन की -1 तथा $\mathrm{O}^{2-}$ आयन की -2 है। सभी क्षार धातुओं की उनके यौगिकों में ऑक्सीकरण-संख्या +1 होती है तथा सभी क्षारीय मृदा धातुओं की ऑक्सीकरण-संख्या +2 होती है। ऐलुमीनियम की उसके यौगिकों में ऑक्सीकरण-संख्या सामान्यतः +3 मानी जाती है।

  3. अधिकांश यौगिकों में ऑक्सीजन की ऑक्सीकरणसंख्या -2 होती है। हमें दो प्रकार के अपवाद मिलते हैं। पहला-परॉक्साइडों तथा सुपर ऑक्साइडों में और उन यौगिकों में, जहाँ ऑक्सीजन के परमाणु एक-दूसरे से सीधे-सीधे जुड़े रहते हैं। परॉक्साइडों ( $ै$ से $-\mathrm{H} _{2} \mathrm{O} _{2}$, $\mathrm{NO} _{2} \mathrm{O} _{2}$ ) में प्रत्येक ऑक्सीजन परमाणु ऑक्सीकरणसंख्या -1 है। सुपर ऑक्साइड (जैसे $-\mathrm{KO} _{2} \mathrm{RbO} _{2}$ में प्रत्येक ऑक्सीजन परमाणु के लिए ऑक्सीकरण-संख्या $-1 / 2$ निर्धारित की गई है। दूसरा अपवाद बहुत दुर्लभ है, जिसमें ऑक्सीजन डाइफ्लुओराइड $\left(\mathrm{OF} _{2}\right)$ तथा डाइऑक्सीजन डाइफ्लुओराइड $\left(\mathrm{O} _{2} \mathrm{~F} _{2}\right)$ जैसे यौगिकों में ऑक्सीजन की ऑक्सीकरण-संख्या क्रमशः +2 तथा +1 है। यह संख्या ऑक्सीजन की आबंधन स्थिति पर निर्भर है, लेकिन यह सदैव धनात्मक ही होगी।

  4. हाइड्रोजन की ऑक्सीकरण-संख्या +1 होती है। केवल उस दशा को छोड़कर, जहाँ धातुएँ इससे द्विअंगी यौगिक बनाती हैं (केवल दो तत्त्वों वाले यौगिक)। उदाहरण के लिए $\mathrm{LiH}$, $\mathrm{NaH}$ तथा $\mathrm{CaH} _{2}$ में हाइड्रोजन की ऑक्सीकरणसंख्या 1 है।

  5. सभी यौगिकों में फ्लुओरीन की ऑक्सीकरण-संख्या 1 होती है। यौगिकों में हैलाइड आयनों के अन्य हैलोजनों $(\mathrm{Cl}, \mathrm{Br}$, तथा $\mathrm{I})$ की ऑक्सीकरण-संख्या भी -1 है। क्लोरीन, ब्रोमीन तथा आयोडीन जब ऑक्सीजन से संयोजित होते हैं, तो इनकी ऑक्सीकरण-संख्या धनात्मक होती है। उदाहरणार्थ-ऑक्सीअम्लों तथा ऑक्सीएनायनों में।

  6. यौगिक में सभी परमाणुओं की ऑक्सीकारक-संख्याओं का बीजीय योग शून्य ही होता है। बहुपरमाणुक आयनों में इसके सभी परमाणुओं की ऑक्सीकरण-संख्या का बीजीय योग उस आयन के आवेश के बराबर होता है। इस तरह $\left(\mathrm{CO} _{3}\right)^{2-}$ में तीनों ऑक्सीजन तथा एक कार्बन परमाणु की ऑक्सीकरण-संख्याओं का योग -2 ही होगा।

इन नियमों के अनुपालन से अणु या आयन में उपस्थित अपेक्षित इच्छित तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या हम ज्ञात कर सकते हैं। यह स्पष्ट है कि धात्विक तत्त्वों की ऑक्सीकरण-संख्या धनात्मक होती है तथा अधात्विक तत्त्वों की ऑक्सीकरण-संख्या धनात्मक या ऋणात्मक होती है। संक्रमण धातु तत्त्व अनेक धनात्मक ऑक्सीकरण-संख्या दर्शाते हैं। पहले दो वर्गों के परमाणुओं के लिए उनकी वर्ग-संख्या ही उनकी उच्चतम ऑक्सीकरण-संख्या होगी तथा अन्य वर्गो में यह वर्ग-संख्या में से 10 घटाकर होगी। इसका अर्थ यह है कि किसी तत्त्व के परमाणु की उच्चतम ऑक्सीकरण-संख्या आवर्तसारणी में आवर्त में सामान्यतः बढ़ती जाती है। तीसरे आवर्त में ऑक्सीकरण-संख्या 1 से 7 तक बढ़ती है, जैसा निम्नलिखित यौगिकों के तत्त्वों द्वारा इंगित किया गया है।

ऑक्सीकरण-संख्या के स्थान पर ऑक्सीकरण-अवस्था पद का प्रयोग भी कई बार किया जाता है। अतः $\mathrm{CO} _{2}$ में कार्बन की ऑक्सीकरण-अवस्था +4 है, जो इसकी ऑक्सीकरणसंख्या भी है। इसी प्रकार ऑक्सीजन की ऑक्सीकरण अवस्था -2 है। इसका तात्पर्य यह है कि तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या

वर्ग $\mathbf{1}$ $\mathbf{2}$ $\mathbf{1 3}$ $\mathbf{1 4}$ $\mathbf{1 5}$ $\mathbf{1 6}$ $\mathbf{1 7}$
तत्त्व $\mathrm{Na}$ $\mathrm{Mg}$ $\mathrm{Al}$ $\mathrm{Si}$ $\mathrm{P}$ $\mathrm{S}$ $\mathrm{Cl}$
यौगिक $\mathrm{NaCl}$ $\mathrm{MgSO} _{4}$ $\mathrm{AlF} _{3}$ $\mathrm{SiCl} _{4}$ $\mathrm{P} _{4} \mathrm{O} _{10}$ $\mathrm{SF} _{6}$ $\mathrm{HClO} _{4}$
तत्त्व की अधिकतम समूह
ऑक्सीकरण-संख्या/अवस्था
+1 +2 +3 +4 +5 +6 +7

उसकी ऑक्सीकरण-अवस्था को दर्शाती है। जर्मन रसायनज्ञ अल्फ्रेड स्टॉक के अनुसार यौगिकों में धातु की ऑक्सीकरणअवस्था को रोमन संख्यांक में कोष्ठक में लिखा जाता है। इसे स्टॉक संकेतन कहा जाता है। इस प्रकार ऑरस क्लोराइड तथा ऑरिक क्लोराइड को $\mathrm{Au}(\mathrm{I}) \mathrm{Cl}$ और $\mathrm{Au}(\mathrm{III}) \mathrm{Cl} _{3}$ लिखा जाता है। इसी प्रकार स्टेनस क्लोराइड तथा स्टेनिक क्लोराइड को $\mathrm{Sn}(\mathrm{II}) \mathrm{Cl} _{2}$ और $\mathrm{Sn}(\mathrm{IV}) \mathrm{Cl} _{4}$ लिखा जाता है। ऑक्सीकरण-संख्या में परिवर्तन को ऑक्सीकरण अवस्था में परिवर्तन के रूप में माना जाता है, जो यह पहचानने में भी सहायता देता है कि स्पीशीज़ ऑक्सीकृत अवस्था में है या अपचित अवस्था में इस प्रकार $\mathrm{Hg}(\mathrm{II}) \mathrm{Cl} _{2}$ की अपचित अवस्था $\mathrm{Hg} _{2}(\mathrm{I}) \mathrm{Cl} _{2}$ है।

ऑक्सीकरण-संख्या के विचार का प्रयोग ऑक्सीकरण, अपचयन, ऑक्सीकारक, अपचायक तथा अपचयोपचय अभिक्रिया को परिभाषित करने के लिए होता है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं-

ऑक्सीकरण : दिए गए पदार्थ में तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या में वृद्धि।

अपचयन : दिए गए पदार्थ में तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या में ह्रास।

ऑक्सीकारक : वह अभिकारक, जो दिए गए पदार्थ में तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या में वृद्धि करे। ऑक्सीकारकों को ‘ऑक्सीडेंट’ भी कहते हैं।

अपचायक : वह अभिकारक, जो दिए गए पदार्थ में तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या में कमी करे। इन्हें रिडक्टेंट भी कहते हैं।

7.3.1 अपचयोपचय अभिक्रियाओं के प्रारूप

1. योग अभिक्रियाएँ

योग अभिक्रिया को इस प्रकार लिखा जाता है- $\mathrm{A}+\mathrm{B} \rightarrow \mathrm{C}$ । ऐसी अभिक्रियाओं की अपचयोपचय अभिक्रिया होने के लिए $A$ या $B$ में से एक को या दोनों को तत्त्व रूप में ही होना चाहिए। ऐसी सभी दहन अभिक्रियाएँ, जिनमें तत्त्व रूप में ऑक्सीजन या अन्य अभिक्रियाएँ संपन्न होती है तथा ऐसी अभिक्रियाएँ, जिनमें डाइऑक्सीजन से अतिरिक्त दूसरे तत्त्वों का उपयोग हो रहा है, ‘अपचयोपचय अभिक्रियाएँ’ कहलाती हैं। इस श्रेणी के कुछ महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं-

$$ \begin{aligned} & \begin{array}{llll} 0 \quad \quad 0 \quad \quad \quad +4-2 \end{array} \\ & \mathrm{C}(\mathrm{s})+\mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow \mathrm{CO} _{2}(\mathrm{~g}) \\ & \begin{array}{lllll} 0 \hspace{10 mm} 0 \hspace{12 mm} +2 -3 \end{array} \\ & 3 \mathrm{Mg}(\mathrm{s})+\mathrm{N} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow \mathrm{Mg} _{3} \mathrm{~N} _{2}(\mathrm{~s}) \\ & \begin{array}{llll} -4+1 \hspace{10 mm} 0 \hspace{10 mm} +4-2 \hspace{5 mm} +1-2 \end{array} \\ & \mathrm{CH} _{4}(\mathrm{~g})+2 \mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow \mathrm{CO} _{2}(\mathrm{~g})+2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l}) \end{aligned} $$

2. अपघटन अभिक्रियाएँ

अपघटन अभिक्रियाएँ संयोजन अभिक्रियाओं के विपरीत होती हैं। विशुद्ध रूप से अपघटन अभिक्रियाओं के अंतर्गत यौगिक दो या अधिक भागों में विखंडित होता है, जिसमें कम से कम एक तत्त्व रूप में होता है। इस श्रेणी की अभिक्रियाओं के उदाहरण हैं-

$ \begin{array}{lll} +1-2 \hspace{10 mm} 0 \hspace{10 mm} 0 \end{array} $

$2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l}) \xrightarrow{\Delta} 2 \mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g})+\mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g})$

$+1-1 \hspace{10 mm} 0 \hspace{10 mm} 0$

$2 \mathrm{NaH}(\mathrm{s}) \xrightarrow{\Delta} 2 \mathrm{Na}(\mathrm{s})+\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g})$

$+1+5-2 \hspace{10 mm} +1-1 \hspace{10 mm} 0$

$2 \mathrm{KClO} _{3}(\mathrm{~s}) \xrightarrow{\Delta} 2 \mathrm{KCl}(\mathrm{s})+3 \mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g})$

ध्यान से देखने पर हम पाते हैं कि योग अभिक्रियाओं में मेथैन के हाइड्रोजन की तथा अभिक्रिया (7.28) में पोटैशियम क्लोरेट के पोटैशियम की ऑक्सीकरण-संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि सभी अपघटन अभिक्रियाएँ अपचयोपचय नहीं होती हैं, जैसे-

$+2+4-2 \hspace{8 mm} + 2-2 \hspace{4 mm} +4-2$

$\mathrm{CaCO} _{3}(\mathrm{~s}) \xrightarrow{\Delta} \mathrm{CaO}(\mathrm{s})+\mathrm{CO} _{2}(\mathrm{~g})$

3. विस्थापन अभिक्रियाएँ

विस्थापन अभिक्रियाओं में यौगिक के आयन (या परमाणु) दूसरे तत्त्व के आयन (या परमाणु) द्वारा विस्थापित हो जाते हैं। इसे इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है-

$$ \mathrm{X}+\mathrm{YZ} \rightarrow \mathrm{XZ}+\mathrm{Y} $$

विस्थापन अभिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं- धातु विस्थापन तथा अधातु विस्थापन।

(अ) धातु विस्थापन : यौगिक में एक धातु दूसरी धातु को मुक्त अवस्था में विस्थापित कर सकती है। खंड 7.2.1 के अंत्तगत हम इस प्रकार की अभिक्रियाओं का अध्ययन कर चुके हैं। धातु विस्थापन अभिक्रियाओं का उपयोग धातुकर्मीय प्रक्रमों में, अयस्कों में यौगिकों से शुद्ध धातु प्राप्त करने के लिए होता है। इनके कुछ उदाहरण हैं-

$$ +2+6-2 \hspace{10 mm} 0 \hspace{10 mm} 0 \hspace{6 mm} +2+6-2 $$

$$ \mathrm{CuSO} _4(\mathrm{aq})+\mathrm{Zn}(\mathrm{s}) \rightarrow \mathrm{Cu}(\mathrm{s})+\mathrm{ZnSO} _4(\mathrm{aq}) $$

$$ \begin{array}{llll} +4-1 \hspace{10 mm} 0 \hspace{10 mm} 0 \hspace{10 mm} +2-1 \tag{7.30} \end{array} $$

$$ \begin{equation*} \mathrm{TiCl} _{4}(\mathrm{l})+2 \mathrm{Mg}(\mathrm{s}) \xrightarrow{\Delta} \mathrm{Ti}(\mathrm{s})+2 \mathrm{MgCl} _{2}(\mathrm{~s}) \tag{7.31} \end{equation*} $$

$$ \begin{aligned} & +3-2 \hspace{10 mm} 0 \hspace{10 mm}+3-2 \hspace{10 mm} 0 \\ & \mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{3}(\mathrm{~s})+2 \mathrm{Al}(\mathrm{s}) \xrightarrow{\Delta} \mathrm{Al} _{2} \mathrm{O} _{3}(\mathrm{~s})+2 \mathrm{Cr}(\mathrm{s}) \end{aligned} $$

इन सभी में अपचायक धातु अपचित धातु की अपेक्षा श्रेष्ठ अपचायक है, जिनकी इलेक्ट्रॉन निष्कासन-क्षमता अपचित धातु की तुलना में अधिक है।

(ब) अधातु विस्थापन : अधातु विस्थापन अपचयोपचय अभिक्रियाओं में हाइड्रोजन विस्थापन, ऑक्सीजन विस्थापन आदि दुर्लभ अभिक्रियाएँ शामिल हैं।

सभी क्षार धातुएँ तथा कुछ क्षार मृदा धातुएँ ( $\mathrm{Ca}, \mathrm{Sr}$ या $\mathrm{Ba})$ श्रेष्ठ रिडक्टेंट हैं, जो शीतल जल से हाइड्रोजन का विस्थापन कर देती हैं।

$$ \begin{aligned} & \begin{array}{llll} 0 \hspace{10 mm} +1-2 \hspace{7 mm} +1-2+1 \hspace{5 mm} 0 \tag{7.33} \end{array} \\ & 2 \mathrm{Na}(\mathrm{s})+2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l}) \rightarrow 2 \mathrm{NaOH}(\mathrm{aq})+\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g}) \end{aligned} $$

$$ \begin{array}{llll} 0 \hspace{10 mm} +1 -2 \hspace{8 mm} +2-2+1 \hspace{5 mm} 0 \tag{7.34} \end{array} $$

$$ Ca(s) + 2H _2 O(1) \rightarrow Ca(OH) _2 (aq) + H _2 (g) $$

मैग्नीशियम, आयरन आदि कम सक्रिय धातुएँ भाप से डाइहाइड्रोजन गैस का उत्पादन करती हैं।

$$ \begin{array}{cccc} 0 \hspace{8 mm} +1-2 \hspace{8 mm} +2-2+1 \hspace{8 mm} 0 \\ \operatorname{Mg}(\mathrm{s}) +2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l}) \xrightarrow{\Delta} \mathrm{Mg}(\mathrm{OH}) _{2}(\mathrm{~s})+\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g}) \end{array} $$

$$ \begin{array}{cc} 0 \hspace{8 mm} +1-2 \hspace{8 mm} +3-2 \hspace{8 mm} 0 \\ 2 \mathrm{Fe}(\mathrm{s})+3 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l}) \xrightarrow{\Delta} \mathrm{Fe} _{2} \mathrm{O} _{3}(\mathrm{~s})+3 \mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g}) \tag{7.36} \end{array} $$

बहुत सी धातुएँ, जो शीतल जल से क्रिया नहीं करतीं, अम्लों से हाइड्रोजन को विस्थापित कर सकती हैं। अम्लों से डाइहाइड्रोजन उन धातुओं द्वारा भी उत्पादित होती हैं, जो भाप से क्रिया नहीं करती। केडमियम तथा टिन इसी प्रकार की धातुओं के उदाहरण हैं। अम्लों से हाइड्रोजन के विस्थापन के कुछ उदाहरण हैं-

$$ \begin{array}{llll} 0 \hspace{8 mm} +1-1 \hspace{8 mm} +2-1 \hspace{8 mm} 0 \tag{7.37} \end{array} $$

$$ Zn(s) + 2HCl (aq) \rightarrow ZnCl _2 (aq) + H _2 (g) $$

$$ \begin{array}{llll} 0 & +1-1 & +2-1 & 0 \end{array} $$

$$ \begin{aligned} & \mathrm{Mg}(\mathrm{s})+2 \mathrm{HCl}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{MgCl} _{2}(\mathrm{aq})+\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g}) \tag{7.38} \\ & \begin{array}{llll} 0 \hspace{8 mm} +1-1 \hspace{8 mm} +2-1 \hspace{8 mm} 0 \end{array} \\ & \mathrm{Fe}(\mathrm{s})+2 \mathrm{HCl}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{FeCl} _{2}(\mathrm{aq})+\mathrm{H} _{2}(\mathrm{~g}) \end{aligned} $$

7.37 से 7.39 तक की अभिक्रियाएँ प्रयोगशाला में डाइहाइड्रोजन गैस तैयार करने में उपयोगी हैं। हाइड्रोजन गैस की निकास की गति धातुओं की सक्रियता की परिचायक है, जो $\mathrm{Fe}$ जैसी कम सक्रिय धातुओं में न्यूनतम तथा $\mathrm{Mg}$ जैसी अत्यंत सक्रिय धातुओं के लिए उच्चतम होती है। सिल्वर (Ag), गोल्ड $(\mathrm{Au})$ आदि धातुएँ, जो प्रकृति में प्राकृत अवस्था में पाई जाती हैं, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से भी क्रिया नहीं करती हैं।

खंड 7.2.1 में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि ज़िक $(\mathrm{Zn})$, कॉपर $(\mathrm{Cu})$ तथा सिल्वर $(\mathrm{Ag})$ धातुओं की इलेक्ट्रॉन त्यागने की प्रवृत्ति उनका अपचायक क्रियाशीलता-क्रम $\mathrm{Zn}>\mathrm{Cu}>\mathrm{Ag}$ दर्शाती है। धातुओं के समान हैलोजनों की सक्रियता श्रेणी का अस्तित्त्व है। आवर्त सारणी के 17 वें वर्ग में फ्लुओरीन से आयोडीन तक नीचे जाने पर इन तत्त्वों की ऑक्सीकारक क्रियाशीलता शिथिल होती जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि फ्लुओरीन इतनी सक्रिय है कि यह विलयन से क्लोराइड, ब्रोमाइड या आयोडाइड आयन विस्थापित कर सकती है। वास्तव में फ्लुओरीन की सक्रियता इतनी अधिक है कि यह जल से क्रिया करके उससे ऑक्सीजन विस्थापित कर देती है।

$$ \begin{array}{cc} +1-2 \hspace{8 mm} 0 \hspace{8 mm} +1-1 \hspace{8 mm} 0 \\ 2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l})+2 \mathrm{~F} _{2}(\mathrm{~g}) \rightarrow 4 \mathrm{HF}(\mathrm{aq}) +\mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g}) \end{array} $$

यही कारण है कि क्लोरीन, ब्रोमीन तथा आयोडीन की फ्लुओरीन द्वारा विस्थापन अभिक्रियाएँ सामान्यतः जलीय विलयन में घटित नहीं करते हैं। दूसरी ओर ब्रोमाइड तथा आयोडाइड आयनों को उनके जलीय विलयनों से क्लोरीन इस प्रकार विस्थापित कर सकती है-

$$ \begin{array}{cccc} 0 \hspace{8 mm} +1-1 \hspace{8 mm} +1-1 \quad 0 \\ \mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g})+ 2 \mathrm{KBr}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{KCl}(\mathrm{aq})+\mathrm{Br} _{2}(\mathrm{l}) \\ 0 \hspace{8 mm} +1-1 \hspace{8 mm} +1-1 \hspace{8 mm} 0 \\ \mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g})+ 2 \mathrm{KI}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{KCl}(\mathrm{aq})+ \mathrm{I} _{2}(\mathrm{~s}) \tag{7.42} \end{array} $$

$\mathrm{Br} _{2}$ तथा $\mathrm{I} _{2}$ के रंगीन तथा $\mathrm{CCl} _{4}$ में विलेय होने के कारण इनको विलयन के रंग द्वारा आसानी से पहचाना जा सकता है। उपरोक्त अभिक्रियाओं को आयनिक रूप में इस प्रकार लिख सकते हैं-

$$ \begin{aligned} & \begin{array}{llll} 0 \hspace{10 mm} -1 \hspace{12 mm} -1 \hspace{15 mm} 0 \end{array} \\ & \mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g})+2 \mathrm{Br}^{-}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{Cl}^{-}(\mathrm{aq})+\mathrm{Br} _{2}(\mathrm{l}) \end{aligned} $$

$$ \begin{array}{cccc} 0 \hspace{10 mm} -1 \hspace{10 mm} -1 \hspace{10 mm} 0 \\ \mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g})+2 \mathrm{I}^{-}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{Cl}^{-}(\mathrm{aq})+\mathrm{I} _{2}(\mathrm{~s}) \tag{7.42b} \end{array} $$

प्रयोगशाला में $\mathrm{Br}^{-}$तथा $\mathrm{I}^{-}$की परीक्षण-विधि, जिसका प्रचलित नाम ‘परत परीक्षण’ (Layer test) है, का आधार अभिक्रियाएँ 7.41 तथा 7.42 हैं। यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि इसी प्रकार विलयन में ब्रोमीन आयोडाइड आयन का विस्थापन कर सकती है।

$$ \begin{array}{cccc} 0 \hspace{10 mm} -1 \hspace{10 mm} -1 \hspace{10 mm} 0 \\ \mathrm{Br} _{2}(\mathrm{l})+2 \mathrm{I}^{-}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{Br}^{-}(\mathrm{aq})+\mathrm{I} _{2}(\mathrm{~s}) \tag{7.43} \end{array} $$

हैलोजेन विस्थापन की अभिक्रियाओं का औद्योगिक अनुप्रयोग होता है। हैलाइडों से हैलोजेन की प्राप्ति के लिए ऑक्सीकरण विधि की आवश्यकता होती है, जिसे निम्नलिखित अभिक्रिया से दर्शाते हैं-

$2 \mathrm{X}^{-} \rightarrow \mathrm{X} _{2}+2 \mathrm{e}^{-}$

यहाँ $\mathrm{X}$ हैलोजेन तत्त्व को प्रदर्शित करता है। यद्यपि रासायनिक साधनों द्वारा $\mathrm{Cl}^{-}, \mathrm{Br}^{-}$तथा $\mathrm{I}^{-}$को ऑक्सीकृत करने के लिए शक्तिशाली अभिकारक फ्लुओरीन उपलब्ध है, परंतु $\mathrm{F}$ को $\mathrm{F} _{2}$ में बदलने के लिए कोई भी रासायनिक साधन संभव नहीं है। $\mathrm{F}^{-}$से $\mathrm{F} _{2}$ प्राप्त करने के लिए केवल विद्युत्-अपघटन द्वारा ऑक्सीकरण ही एक साधन है, जिसका अध्ययन आप आगे चलकर करेंगे।

4. असमानुपातन अभिक्रियाएँ

असमानुपातन अभिक्रियाएँ विशेष प्रकार की अपचयोपचय अभिक्रियाएँ हैं। असमानुपातन अभिक्रिया में तत्त्व की एक ऑक्सीकरण अवस्था एक साथ ऑक्सीकृत तथा अपचयित होती है। असमानुपातन अभिक्रिया में सक्रिय पदार्थ का एक तत्त्व कम से कम तीन ऑक्सीकरण अवस्थाएँ प्राप्त कर सकता है। क्रियाशील पदार्थ में यह तत्त्व माध्यमिक ऑक्सीकरण अवस्था में होता है तथा रासायनिक परिवर्तन में उस तत्त्व की उच्चतर तथा निम्नतर ऑक्सीकरण अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं। हाइड्रोजन परॉक्साइड का अपघटन एक परिचित उदाहरण है, जहाँ ऑक्सीजन तत्त्व का असमानुपातन होता है।

$$ \begin{array}{ll} +1-1 \hspace{10 mm} +1-2 \hspace{10 mm} 0 \tag{7.45} \\ 2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O} _{2}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l})+\mathrm{O} _{2}(\mathrm{~g}) \end{array} $$

यहाँ परॉक्साइड की ऑक्सीजन, जो -1 अवस्था में है, $\mathrm{O} _{2}$ में शून्य अवस्था में तथा $\mathrm{H} _{2} \mathrm{O}$ में -2 अवस्था में परिवर्तित हो जाती है ।

फॉस्फोरस, सल्फर तथा क्लोरीन का क्षारीय माध्यम में असमानुपातन निम्नलिखित ढंग से होता है -

$$ \begin{aligned} & \begin{array}{llll} 0 \hspace{10 mm} +1 \hspace{10 mm} \hspace{10 mm} \hspace{10 mm} -3 \hspace{10 mm} +1 \end{array} \\ & \mathrm{P} _{4}(\mathrm{~s})+3 \mathrm{OH}^{-}(\mathrm{aq})+3 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l}) \rightarrow \mathrm{PH} _{3}(\mathrm{~g})+3 \mathrm{H} _{2} \mathrm{PO} _{2}^{-}(\mathrm{aq}) \end{aligned} $$

$$ \begin{aligned} \begin{array}{lcc} \hspace{5 mm} 0 \hspace{10 mm} \hspace{10 mm} 2 \hspace{10 mm} +2 \\ \mathrm{~S} _{8}(\mathrm{~s})+12 \mathrm{OH}^{-}(\mathrm{aq}) \rightarrow 4 \mathrm{~S}^{2-}(\mathrm{aq})+2 \mathrm{~S} _{2} \mathrm{O} _{3}^{2-}(\mathrm{aq}) +6 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l})(7.47) \end{array} \end{aligned} $$

$$ \begin{array}{l} \hspace{5 mm} 0 \hspace{30 mm} +1 \hspace{10 mm} -1 \\ \mathrm{Cl} _{2}(\mathrm{~g})+2 \mathrm{OH}^{-}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{ClO}^{-}(\mathrm{aq})+\mathrm{Cl}^{-}(\mathrm{aq})+ \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(1)(7.48) \end{array} $$

अभिक्रिया 7.48 घरेलू विरंजक के उत्पाद को दर्शाती है। अभिक्रिया में बननेवाला हाइपोक्लोराइट आयन $\left(\mathrm{ClO}^{-}\right)$रंगीन धब्बों को ऑक्सीकृत करके रंगहीन यौगिक बनाता है। यह बताना रुचिकर होगा कि ब्रोमीन तथा आयोडीन द्वारा वही प्रकृति प्रदर्शित होती है, जो क्लोरीन द्वारा अभिक्रिया 7.48 में प्रदर्शित होती है, लेकिन क्षार से फ्लुओरीन की अभिक्रिया भिन्न ढंग से, अर्थात् इस प्रकार होती है-

$2 \mathrm{~F} _{2}(\mathrm{~g})+2 \mathrm{OH}^{-}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{~F}^{-}(\mathrm{aq})+\mathrm{OF} _{2}(\mathrm{~g})+\mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l})$

यह ध्यान देने की बात है कि अभिक्रिया 7.49 में निस्संदेह फ्लुओरीन जल से क्रिया करके कुछ ऑक्सीजन भी देती है। फ्लुओरीन द्वारा दिखाया गया भिन्न व्यवहार आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि हमें ज्ञात है कि फ्लुओरीन सर्वाधिक विद्युत् ऋणी तत्त्व होने के कारण धनात्मक ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित नहीं कर सकती।

इसका तात्पर्य यह हुआ कि हैलोजनों में फ्लुओरीन असमानुपातन प्रवृत्ति नहीं दर्शा सकती।

भिन्नात्मक ऑक्सीकरण-संख्या विरोधाभास

कभी-कभी हमें कुछ ऐसे यौगिक भी मिलते हैं, जिनमें किसी एक तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्या भिन्नात्मक होती है। उदाहरणार्थ $\mathrm{C} _{3} \mathrm{O} _{2}$ (जहाँ कार्बन की ऑक्सीकरण-संख्या $4 / 3$ है) $\mathrm{Br} _{3} \mathrm{O} _{8}$ (जहाँ ब्रोमीन की ऑक्सीकरण-संख्या $16 / 3$ है) तथा $\mathrm{Na} _{2} \mathrm{~S} _{4} \mathrm{O} _{6}$ (जहाँ सल्फर की ऑक्सीकरण-संख्या $5 / 2$ है)।

हमें यह ज्ञात है कि भिन्नात्मक ऑक्सीकरण-संख्या स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि इलेक्ट्रॉनों का सहभाजन/स्थानांतरण आंशिक नहीं हो सकता। वास्तव में भिन्नात्मक ऑक्सीकरण अवस्था प्रेक्षित किए जा रहे तत्त्व की ऑक्सीकरण-संख्याओं का औसत है तथा संरचना प्राचलों से ज्ञात होता है कि वह तत्त्व, जिसकी भिन्नात्मक ऑक्सीकरण अवस्था होती है, अलग-अलग ऑक्सीकरण अवस्था में उपस्थित है। $\mathrm{C} _{3} \mathrm{O} _{2}, \mathrm{Br} _{3} \mathrm{O} _{8}$ तथा $\mathrm{S} _{4} \mathrm{O} _{6}^{2-}$ स्पीशीज़ की संरचनाओं में निम्नलिखित परिस्थितियाँ दिखती हैं(कार्बन सबॉक्साइड) $\mathrm{C} _{3} \mathrm{O} _{2}$ की संरचना है-

$$ \begin{gathered} +2 \quad 0 \quad +2 \\ \mathrm{O}=\mathrm{C}=\mathrm{C}^{*}=\mathrm{C}=\mathrm{O} \end{gathered} $$

$\mathrm{Br} _{3} \mathrm{O} _{8}$ (ट्राइब्रोमोऑक्टोसाइड) की संरचना है-

$\mathrm{S} _{4} \mathrm{O} _{6}^{2-}$ (टेट्रा थायोनेट) की संरचना है-

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प्रत्येक स्पीशीज़ के तारांकित परमाणु उसी तत्त्व के अन्य परमाणुओं से अलग ऑक्सीकरण अवस्था दर्शाता है। इससे यह प्रतीत होता है कि $\mathrm{C} _{3} \mathrm{O} _{2}$ में दो कार्बन परमाणु +2 ऑक्सीकरण अवस्था में तथा तीसरा शून्य ऑक्सीकरण अवस्था में है और इनकी औसत संख्या $4 / 3$ है। वास्तव में किनारे वाले दोनों कार्बनों की ऑक्सीकरण-संख्या +2 तथा बीच वाले कार्बन की शून्य है। इसी प्रकार $\mathrm{Br} _{3} \mathrm{O} _{8}$ में किनारे वाले दोनों प्रत्येक ब्रोमीन की ऑक्सीकरण अवस्था +6 है तथा बीच वाले ब्रोमीन परमाणु की ऑक्सीकरण अवस्था +4 है। एक बार फिर औसत संख्या $16 / 3$ वास्तविकता से दूर है। इसी प्रकार से स्पीशीज़ $\mathrm{S} _{4} \mathrm{O} _{6}^{2-}$ में किनारे वाले दोनों सल्फर +5 ऑक्सीकरण अवस्था तथा बीच वाले दोनों सल्फर परमाणु शून्य दर्शाते हैं। चारों सल्फर परमाणु की ऑक्सीकरण-संख्या का औसत $5 / 2$ होगा, जबकि वास्तव में प्रत्येक सल्फर परमाणु की ऑक्सीकरण-संख्या क्रमशः $+5,0,0$ तथा +5 है।

इस प्रकार हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भिन्नात्मक ऑक्सीकरण अवस्था को हमें सावधानी से लेना चाहिए तथा वास्तविकता ऑक्सीकरण-संख्या उसकी संरचना से ही प्रदर्शित होती है। इसके अतिरिक्त जब भी हमें किसी विशेष तत्त्व की भिन्नात्मक ऑक्सीकरण अवस्था दिखे, तो हमें समझ लेना चाहिए कि यह केवल औसत ऑक्सीकरण अवस्था है। वास्तव में इस स्पीशीज़ विशेष में एक से अधिक पूर्णाक ऑक्सीकरण अवस्थाएँ हैं (जो केवल संरचना द्वारा दर्शाई जा सकती है)। $\mathrm{Fe} _{3} \mathrm{O} _{4}, \mathrm{Mn} _{3} \mathrm{O} _{4}, \mathrm{~Pb} _{3} \mathrm{O} _{4}$ कुछ अन्य ऐसे यौगिक हैं, जो मिश्र ऑक्साइड हैं, जिनमें प्रत्येक धातु की भिन्नात्मक ऑक्सीकरण होती हैं। $\mathrm{O} _{2}^{+}$एवं $\mathrm{O} _{2}^{-}$में भी भिन्नात्मक ऑक्सीकरण अवस्था पाई जाती है। यह क्रमशः $+1 / 2$ तथा $-1 / 2$ है।

7.3.2 अपचयोपचय अभिक्रियाओं का संतुलन

अपचयोपचय अभिक्रियाओं के संतुलन के लिए दो विधिओं का प्रयोग होता है। इनमें से एक विधि अपचायक की ऑक्सीकरण-संख्या में परिवर्तन पर आधारित है तथा दूसरी विधि में अपचयोपचय अभिक्रिया को दो भागों में विभक्त किया जाता है-एक में ऑक्सीकरण तथा दूसरे में अपचयन। दोनों ही विधिओं का प्रचलन है तथा व्यक्ति-विशेष अपनी इच्छानुसार इनका प्रयोग करता है।

(क) ऑक्सीकरण-संख्या विधि

अन्य अभिक्रियाओं की भाँति ऑक्सीकरण-अपचयन अभिक्रियाओं के लिए भी क्रिया में भाग लेने वाले पदार्थों तथा बनने वाले उत्पादों के सूत्र ज्ञात होने चाहिए। इन पदों द्वारा ऑक्सीकरण-संख्या विधि को हम प्रदर्शित करते हैं-

पद 1 : सभी अभिकारकों तथा उत्पादों के सही सूत्र लिखिए।

पद 2 : अभिक्रिया के सभी तत्त्वों के परमाणुओं को लिखकर उन परमाणुओं को पहचानिए, जिनकी ऑक्सीकरण-संख्या में परिवर्तन हो रहा है।

पद 3 : प्रत्येक परमाणु तथा पूरे अणु/आयन की ऑक्सीकरणसंख्या में वृद्धि या ह्रास की गणना कीजिए। यदि इनमें समानता न हो, तो उपयुक्त संख्या से गुणा कीजिए, ताकि ये समान हो जाएँ (यदि आपको लगे कि दो पदार्थ अपचयित हो रहे हैं तथा दूसरा कोई ऑक्सीकृत नहीं हो रहा है या विलोमतः हो रहा है, तो समझिए कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। या तो अभिकारकों तथा उत्पादों के सूत्र में त्रुटि है या ऑक्सीकरण-संख्याएँ ठीक प्रकार से निर्धारित नहीं की गई हैं।

पद 4 : यह भी निश्चित कर लें कि यदि अभिक्रिया जलीय माध्यम में हो रही है, तो $\mathrm{H}^{+}$या $\mathrm{OH}^{-}$आयन उपयुक्त स्थान पर जोड़िए, ताकि अभिकारकों तथा उत्पादों का कुल आवेश बराबर हो। यदि अभिक्रिया अम्लीय माध्यम में संपन्न होती है, तो $\mathrm{H}^{+}$ आयन का उपयोग कीजिए। यदि क्षारीय माध्यम हो, तो $\mathrm{OH}^{-}$ आयन का उपयोग कीजिए।

पद 5 : अभिकारकों या उत्पादों में जल-अणु जोड़कर, व्यंजक से दोनों ओर हाड्रोजन परमाणुओं की संख्या एक समान बनाइए। अब ऑक्सीजन के परमाणुओं की संख्या की भी जाँच कीजिए। यदि अभिकारकों तथा उत्पादों में (दोनों ओर) ऑक्सीजन परमाणुओं की संख्या एक समान है, तो समीकरण संतुलित अपचयोपचय अभिक्रिया दर्शाता है।

आइए, हम कुछ उदाहरणों की सहायता से इन पदों को समझाएँ-

( ख) अर्द्ध-अभिक्रिया विधि

इस विधि द्वारा दोनों अर्द्ध-अभिक्रियाओं को अलग-अलग संतुलित करते हैं तथा बाद में दोनों को जोड़कर संतुलित अभिक्रिया प्राप्त करते हैं।

मान लीजिए कि हमें $\mathrm{Fe}^{2+}$ आयन से $\mathrm{Fe}^{3+}$ आयन में डाइक्रोमेट आयन $\left(\mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{7}\right)^{2-}$ द्वारा अम्लीय माध्यम में ऑक्सीकरण अभिक्रिया संपन्न करनी है, जिसमें $\mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{7}^{2-}$ आयनों का $\mathrm{Cr}^{3+}$ आयन में अपचयन होता है। इसके लिए हम निम्नलिखित कदम उठाते हैं-

पद 1 : असंतुलित समीकरण को आयनिक रूप में लिखिए-

$\mathrm{Fe}^{2+}(\mathrm{aq})+\mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{7}^{2-}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{Fe}^{3+}(\mathrm{aq})+\mathrm{Cr}^{3+}(\mathrm{aq})$

पद 2 : इस समीकरण को दो अर्द्ध-अभिक्रियाओं में विभक्त कीजिए-

ऑक्सीकरण अर्द्ध : $\mathrm{Fe}^{2+}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{Fe}^{3+}(\mathrm{aq})$

अपचयन अर्द्ध : $\mathrm{Cr}^{+6}{ } _{2} \mathrm{O} _{7}^{2-}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{Cr}^{+3}(\mathrm{aq})$ (7.52)

पद 3 : प्रत्येक अर्द्ध-अभिक्रिया के $O$ तथा $H$ में अतिरिक्त सभी परमाणुओं को संतुलित कीजिए। अर्द्ध-अभिक्रिया में अतिरिक्त परमाणुओं को संतुलित करने के लिए $\mathrm{Cr}^{3+}$ को 2 से गुणा करते हैं। ऑक्सीकरण अर्द्ध-अभिक्रिया $\mathrm{Fe}$ परमाणु के लिए पहले ही संतुलित है-

$\mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{7}^{2-}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{Cr}^{3+}(\mathrm{aq})$

पद 4 : अम्लीय माध्यम में संपन्न होनेवाली अर्द्ध-अभिक्रिया में $\mathrm{O}$ परमाणु के संतुलन के लिए $\mathrm{H} _{2} \mathrm{O}$ तथा $\mathrm{H}$ परमाणु के संतुलन के लिए $\mathrm{H}^{+}$जोड़िए। इस प्रकार हमें निम्नलिखित अभिक्रिया मिलती है-

$\mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{7}^{2-}(\mathrm{aq})+14 \mathrm{H}^{+}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{Cr}^{3+}(\mathrm{aq})+7 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l})$

पद 5 : अर्द्ध-अभिक्रियाओं में आवेशों के संतुलन के लिए इलेक्ट्रॉन जोड़िए। दोनों अर्द्ध-अभिक्रियाओं में इलेक्ट्रॉनों की संख्या एक जैसी रखने के लिए आवश्कतानुसार किसी एक को या दोनों को उपयुक्त संख्या से गुणा कीजिए। आवेश को संतुलित करते हुए ऑक्सीकरण को दोबारा इस प्रकार लिखते हैं-

$\mathrm{Fe}^{2+}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{Fe}^{3+}(\mathrm{aq})+\mathrm{e}^{-}$

अब अपचयन अर्द्ध-अभिक्रिया की बाईं ओर 12 धन आवेश हैं, 6 इलेक्ट्रॉन जोड़ देते हैं-

$\mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{7}^{2-}(\mathrm{aq})+14 \mathrm{H}^{+}(\mathrm{aq})+6 \mathrm{e}^{-} \rightarrow 2 \mathrm{Cr}^{3+}(\mathrm{aq})+$ $7 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}$ (1) (7.56)

दोनों अर्द्ध-अभिक्रियाओं में इलेक्ट्रॉनों की संख्या समान बनाने के लिए ऑक्सीकरण अर्द्ध-अभिक्रिया को 6 से गुणा करके इस प्रकार लिखते हैं-

$$ \begin{equation*} 6 \mathrm{Fe}^{2+}(\mathrm{aq}) \rightarrow 6 \mathrm{Fe}^{3+}(\mathrm{aq})+6 \mathrm{e}^{-} \tag{7.57} \end{equation*} $$

पद 6 : दोनों अर्द्ध-अभिक्रियाओं को जोड़ने पर हम पूर्ण अभिक्रिया प्राप्त करते हैं तथा दोनों ओर के इलेक्ट्रॉन निरस्त कर देते हैं।

$6 \mathrm{Fe}^{2+}(\mathrm{aq})+\mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{7}^{2-}(\mathrm{aq})+14 \mathrm{H}^{+}(\mathrm{aq}) \rightarrow 6 \mathrm{Fe}^{3+}(\mathrm{aq})+$ $2 \mathrm{Cr}^{3+}(\mathrm{aq})+7 \mathrm{H} _{2} \mathrm{O}(\mathrm{l}) $

पद 7 : सत्यापित कीजिए कि समीकरण के दोनों ओर परमाणुओं की संख्या तथा आवेश समान हैं। यह अंतिम परीक्षण दर्शाता है कि समीकरण में परमाणुओं की संख्या तथा आवेश का पूरी तरह संतुलन है।

क्षारीय माध्यम में अभिक्रिया को पहले तो उसी प्रकार संतुलित कीजिए, जैसे अम्लीय माध्यम में करते हैं। बाद में समीकरण के दोनों ओर $\mathrm{H}^{+}$आयन की संख्या के बराबर $\mathrm{OH}^{-}$ जोड़ दीजिए। जहाँ $\mathrm{H}^{+}$तथा $\mathrm{OH}^{-}$समीकरण एक ओर साथ हों, वहाँ दोनों को जोड़कर $\mathrm{H} _{2} \mathrm{O}$ लिख दीजिए।

7.3.3 अपचयोपचय अभिक्रियाओं पर आधारित अनुमापन

अम्लक्षार निकाय में हम ऐसी अनुमापन विधि के संपर्क में आते हैं, जिससे एक विलयन की प्रबलता $\mathrm{pH}$ संवेदनशील संसूचक का प्रयोग कर दूसरे विलयन से ज्ञात करते हैं। समान रूप से अपचयोपचयन निकाय में अनुमापन विधि अपनाई जा सकती है, जिसमें अपचयोपचय संवेदनशील संसूचक का प्रयोग कर रिडक्टेंट/ऑक्सीडेंट की प्रबलता ज्ञात की जा सकती है। अपचयोपचय अनुमापन में संसूचक का प्रयोग निम्नलिखित उदाहरण द्वारा निरूपित किया गया है-

(i) यदि कोई अभिकारक (जो स्वयं किसी गहरे रंग का हो, जैसे-परमैंगनेट आयन $\mathrm{MnO} _{4}^{-}$) स्वयंसूचक (Self indicator) की भाँति कार्य करता है। जब अपचायक $\left(\mathrm{Fe}^{2+}\right.$ या $\mathrm{C} _{2} \mathrm{O} _{4}^{2-}$ ) का अंतिम भाग ऑक्सीकृत हो चुका हो, तो दृश्य अंत्यबिंदु प्राप्त होता है। $\mathrm{MnO} _{4}^{-}$आयन की सांद्रता $10^{-6} \mathrm{~mol} \mathrm{dm}^{-3}\left(10^{-6} \mathrm{~mol} \mathrm{~L}^{-1}\right)$ से कम होने पर भी गुलाबी रंग की प्रथम स्थायी झलक दिखती है। इससे तुल्यबिंदु पर रंग न्यूनता से अतिलंघित हो जाता है, जहाँ अपचायक तथा ऑक्सीकारक अपनी मोल रससमीकरणमिति के अनुसार समान मात्रा में होते हैं।

(ii) जैसा $\mathrm{MnO} _{4}^{-}$के अनुमापन में होता है, यदि वैसा कोई रंगपरिवर्तन स्वतः नहीं होता है, तो ऐसे भी सूचक हैं, जो अपचायक के अंतिम भाग के उपभोगित हो जाने पर स्वयं ऑक्सीकृत होकर नाटकीय ढंग से रंग-परिवर्तन करते हैं। इसका सर्वोत्तम उदाहरण $\mathrm{Cr} _{2} \mathrm{O} _{7}^{2-}$ द्वारा दिया जाता है, जो स्वयं सूचक नहीं है, लेकिन तुल्यबिंदु के बाद यह डाइफेनिल एमीन सूचक को ऑक्सीकृत करके गहरा नीला रंग प्रदान करता है। इस प्रकार यह अंत्यबिंदु का सूचक होता है।

(iii) एक अन्य विधि भी उपलब्ध है, जो रोचक और सामान्य भी है। इसका प्रयोग केवल उन अभिकारकों तक सीमित है, जो $\mathrm{I}^{-}$आयनों को ऑक्सीकृत कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर-

$2 \mathrm{Cu}^{2+}(\mathrm{aq})+4 \mathrm{I}^{-}(\mathrm{aq}) \rightarrow \mathrm{Cu} _{2} \mathrm{I} _{2}(\mathrm{~s})+\mathrm{I} _{2}(\mathrm{aq})$

इस विधि का आधार आयोडीन का स्टार्च के साथ गहरा नीला रंग देना तथा आयोडीन की थायोसल्फेट आयन से विशेष अभिक्रिया है, जो अपचयोपचय अभिक्रिया भी है।

$\mathrm{I} _{2}(\mathrm{aq})+2 \mathrm{~S} _{2} \mathrm{O} _{3}^{2-}(\mathrm{aq}) \rightarrow 2 \mathrm{I}^{-}(\mathrm{aq})+\mathrm{S} _{4} \mathrm{O} _{6}{ }^{2-}(\mathrm{aq})$

यद्यपि $\mathrm{I} _{2}$ जल में अविलेय है, $\mathrm{KI}$ के विलयन में $\mathrm{KI} _{3}$ के रूप में विलेय है।

अंत्यबिंदु को स्टार्च डालकर पहचाना जाता हैं। शेष स्टाइकियोमिती गणनाएँ ही हैं।

7.3.4 ऑक्सीकरण अंकधारणा की सीमाएँ

उपरोक्त विवेचना से आप यह जान गए हैं कि उपचयोपचय विधियों का विकास समयानुसार होता गया है। विकास का यह क्रम अभी जारी है। वास्तव में कुछ समय पहले तक ऑक्सीकरण पद्धति को अभिक्रिया में संलग्न परमाणु (एक या अधिक) के चारों ओर इलेक्ट्रॉन घनत्व में ह्रास के रूप में तथा अपचयन पद्धति को इलेक्ट्रॉन घनत्व-वृद्धि के रूप में देखा जाता था।

7.4 अपचयोपचन अभिक्रियाएँ तथा इलेक्ट्रोड प्रक्रम

यदि ज़िक की छड़ को कॉपर सल्फेट के विलयन में डुबोएँ, तो अभिक्रिया (7.15) के अनुसार संगत प्रयोग दिखाई देता है। इस अपचयोपचय अभिक्रिया के दौरान ज़िंक से कॉपर पर इलेक्ट्रॉन के प्रत्यक्ष स्थानांतरण द्वारा ज़िक का ऑक्सीकरण ज़िंक आयन के रूप में होता है तथा कॉपर आयनों का अपचयन कॉपर धातु के रूप में होता है। इस अभिक्रिया में ऊष्मा का उत्सर्जन होता है। अभिक्रिया की ऊष्मा विद्युत् ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। इसके लिए कॉपर सल्फेट विलयन से ज़िक धातु का पृथक्करण करना आवश्यक हो जाता है। हम कॉपर सल्फेट घोल को एक बीकर में रखते हैं, कॉपर की छड़ या पत्ती को इसमें डाल देते हैं। एक दूसरे बीकर में ज़िक सल्फेट घोल डालते हैं तथा ज़िक की छड़ या पत्ती इसमें डालते हैं। किसी भी बीकर में कोई भी अभिक्रिया नहीं होती तथा दोनों बीकरों में धातु और उसके लवण के घोल के अंतरापृष्ठ पर एक ही रसायन के अपचयित और ऑक्सीकृत रूप एक साथ उपस्थित होते हैं। ये अपचयन तथा ऑक्सीकरण अर्द्ध-अभिक्रियाओं में उपस्थित स्पीशीज़ को दर्शाते हैं। ऑक्सीकरण तथा अपचयन अभिक्रियाओं में भाग ले रहे पदार्थों के ऑक्सीकृत तथा अपचयित स्वरूपों की एक साथ उपस्थिति से रेडॉक्स युग्म को परिभाषित करते हैं।

इस ऑक्सीकृत स्वरूप को अपचयित स्वरूप से एक सीधी रेखा या तिरछी रेखा द्वारा पृथक् करना दर्शाया गया है, जो अंतरापृष्ठ (जैसे-ठोस/घोल) को दर्शाती है। उदाहरण के लिए, इस प्रयोग में दो रेडॉक्स युग्मों को $\mathrm{Zn}^{2+} / \mathrm{Zn}$ तथा $\mathrm{Cu}^{2+} / \mathrm{Cu}$ द्वारा दर्शाया गया है। दोनों में ऑक्सीकृत स्वरूप को अपचयित स्वरूप से पहले लिखा जाता है। अब हम कॉपर सल्फेट घोल वाले बीकर को ज़िंक सल्फेट घोल वाले बीकर के पास रखते हैं (चित्र 7.3)। दोनों बीकरों के घोलों को लवण-सेतु द्वारा जोड़ते हैं (लवण-सेतु $U$ आकृति की एक नली है, जिसमें पोटैशियम क्लोराइड या अमोनियम नाइट्रेट के घोल को सामान्यतया ‘ऐगर-ऐगर’ के साथ उबालकर $U$ नली में भरकर तथा ठंडा करके जेली बना देते हैं)। इन दोनों विलयनों को बिना एक-दूसरे से मिलाए हुए वैद्युत् संपर्क प्रदान किया जाता है। ज़िक तथा कॉपर की छड़ों को ऐमीटर तथा स्विच के प्रावधान द्वारा धातु के तार से जोड़ा जाता है। चित्र 7.3, पृष्ठ 252 में दर्शाई गई व्यवस्था को ‘डेनियल सेल’ कहते हैं। जब स्विच ‘ऑफ’ (बंद) स्थिति में होता है, तो किसी बीकर में कोई भी अभिक्रिया नहीं होती और धातु के तार से विद्युत्-धारा प्रवाहित नहीं होती है। स्विच को ऑन करते ही हम पाते हैं कि-

  1. $\mathrm{Zn}$ से $\mathrm{Cu}^{2+}$ तक इलेक्ट्रॉनों का स्थानांतरण प्रत्यक्ष रूप से न होकर दोनों छड़ों को जोड़ने वाले धात्विक तार के द्वारा होता है, जो तीर द्वारा विद्युत्-धारा में प्रवाह के रूप में दर्शाया गया है।

चित्र 7.3 डेनियल सेल की आयोजना। ऐनोड पर $\mathrm{Zn}$ के ऑक्सीकरण द्वारा उत्पन्न इलेक्ट्रॉन बाहरी परिपथ से कैथोड तक पहुँचते हैं। सेल के अंदर का परिपथ लवण-सेतु के माध्यम से आयनों के विस्थापन द्वारा पूरा होता है। ध्यान दीजिए कि विद्युत्-प्रवाह की दिशा इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह की दिशा के विपरीत है।

  1. एक बीकर में रखे घोल से दूसरे बीकर के घोल की ओर लवण-सेतु के माध्यम से आयनों के अभिगमन द्वारा विद्युत् प्रवाहित होती है। हम जानते हैं कि कॉपर और ज़िक की छड़ों, जिन्हें ‘इलेक्ट्रोड’ कहते हैं, में विभव का अंतर होने पर ही विद्युत्-धारा का प्रवाह संभव है।

तालिका $7.1298 \mathrm{~K}$ पर मानक इलेक्ट्रोड विभव-आयन

आयन जलीय स्पीशीज़ के रूप में तथा जल द्रव के रूप में उपस्थित हैं: गैस तथा ठोस को $\mathrm{g}$ तथा $\mathrm{s}$ द्वारा दर्शाया गया है।

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  1. ॠणात्मक $\mathrm{E}^{\ominus}$ का अर्थ यह है कि रेडॉक्स युग्म $\mathrm{H}^{+} / \mathrm{H} _{2}$ की तुलना में प्रबल अपचायक है।
  2. धनात्मक $\mathrm{E}^{\ominus}$ का अर्थ यह है कि रेडॉक्स युग्म $\mathrm{H}^{+} / \mathrm{H} _{2}$ की तुलना में दुर्बल अपचायक है।

प्रत्येक इलेक्ट्रोड के विभव को ‘इलेक्ट्रोड विभव’ कहते हैं। यदि इलेक्ट्रोड अभिक्रिया में भाग लेने वाले सभी स्पीशीज़ की इकाई सांद्रता हो (यदि इलेक्ट्रोड अभिक्रिया में कोई गैस निकलती है, तो उसे एक वायुमंडलीय दाब पर होना चाहिए) तथा अभिक्रिया $298 \mathrm{~K}$ पर होती हो, तो प्रत्येक इलेक्ट्रोड पर विभव को मानक इलेक्ट्रोड विभव कहते हैं। मान्यता के अनुसार, हाइड्रोजन का मानक इलेक्ट्रोड विभव 0.00 वोल्ट होता है। प्रत्येक इलेक्ट्रोड अभिक्रिया के लिए इलेक्ट्रोड विभव का मान सक्रिय स्पीशीज़ की ऑक्सीकृत/अपचयित अवस्था की आपेक्षिक प्रवृत्ति का माप है। $E^{\circ}$ के ॠणात्मक होने का अर्थ है कि रेडॉक्स युग्म $\mathrm{H}^{+} / \mathrm{H} _{2}$ की तुलना में अधिक शक्तिशाली अपचायक है। धनात्मक $E^{\circ}$ का अर्थ यह है कि $\mathrm{H}^{+} / \mathrm{H} _{2}$ की तुलना में एक दुर्बल अपचायक है। मानक इलेक्ट्रोड विभव बहुत महत्त्वपूर्ण है। इनसे हमें बहुत सी दूसरी उपयोगी जानकारियाँ भी मिलती हैं। कुछ चुनी हुई इलेक्ट्रोड अभिक्रियाओं (अपचयन अभिक्रिया) के मानक इलेक्ट्रोड विभव के मान तालिका 7.1 में दिए गए हैं। इलेक्ट्रोड अभिक्रियाओं तथा सेलों के बारे में और अधिक विस्तार से आप अगली कक्षा में पढ़ेंगे।

सारांश

अभिक्रियाओं का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग अपचयोपचय अभिक्रिया है, जिसमें ऑक्सीकरण तथा अपचयन साथ-साथ होते हैं। इस पाठ में तीन प्रकार की संकल्पनाएँ विस्तार से दी गई हैं-चिर्रतिष्ठित (Classical), इलेक्ट्रॉनिक तथा ऑक्सीकरण-संख्या। इन संकल्पनाओं के आधार पर ऑक्सीकरण, अपचयन, ऑक्सीकारक (ऑक्सीडेंट) तथा अपचायक (रिडक्टेंट) को समझाया गया है। संगत नियमों के अंतर्गत ऑक्सीकरण-संख्या का निर्धारण किया गया है। ये दोनों ऑक्सीकरण-संख्या तथा आयन इलेक्ट्रॉन विधियाँ अपचयोपचय अभिक्रियाओं के समीकरण लिखने में उपयोगी हैं। अपचयोपचय अभिक्रियाओं को चार वर्गों में विभाजित किया गया है-योग, अपघटन, विस्थापन तथा असमानुपातन। रिडॉक्स युग्म तथा इलेक्ट्रॉड प्रक्रम की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है। रेडॉक्स अभिक्रियाओं का इलेक्ट्रोड अभिक्रियाओं तथा सेलों के अध्ययन में व्यापक अनुप्रयोग होता है।



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