परमाणु की संरचना STRUCTURE OF ATOM
भारतीय एवं यूनानी दार्शनिकों द्वारा बहुत पहले से ही ( 400 ई.पू.) परमाणुओं के अस्तित्व को प्रस्तावित किया गया था। उनका विचार था कि परमाणु द्रव्य के मूल संरचनात्मक भाग होते हैं। उनके अनुसार पदार्थ के लगातार विभाजन से अंततः परमाणु प्राप्त होते हैं, जिसे और विभाजित नहीं किया जा सकता। ‘परमाणु’ (atom) शब्द ग्रीक भाषा से उत्पन्न हुआ है, जिसमें atomio का अर्थ ‘न काटे जाने वाला (uncutable) या ‘अविभाज्य’ (non-divisible) होता है। पहले ये विचार केवल कल्पना पर आधारित थे और इनका प्रायोगिक परीक्षण कर पाना संभव नहीं था। बहुत समय तक ये विचार किसी प्रमाण के बिना ऐसे ही चलते रहे, परंतु 18 वीं शताब्दी में वैज्ञानिकों ने इन पर फिर से बल देना शुरू कर दिया।
सन् 1808 में जॉन डाल्टन नामक एक ब्रिटिश स्कूल अध्यापक ने पहली बार वैज्ञानिक आधार पर द्रव्य का परमाणु सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनका सिद्धांत, जिसे ‘डाल्टन का परमाणु सिद्धांत’ कहा जाता है, परमाणु को पदार्थ का मूल कण (एकक-1) माना।
डाल्टन के परमाणु सिद्धांत से द्रव्यमान के संरक्षण के नियम, स्थिर संघटन के नियम तथा गुणित-अनुपात के नियम की सफलतापूर्वक व्याख्या की जा सकी। लेकिन यह कई प्रयोगों के परिणामों को वर्णित करने में विफल रहा। उदाहरण के लिए- काँच अथवा एबोनाइट (ebonite) को रेशम अथवा फर (fur) के साथ घिसने पर विद्युत् आवेश की उत्पत्ति होती है।
इस एकक को हमने उन प्रायोगिक प्रेक्षणों से आरंभ किया है, जो 19 वीं शताब्दी के अंत तथा 20 वीं शताब्दी के आरंभ में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए थे। इससे यह स्थापित हुआ कि परमाणु छोटे कणों (अवपरमाण्विक कणों) से यानी इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन से बने होते हैं। यह धारणा डाल्टन की धारणा से बिल्कुल अलग थी।
2.1 अवपरमाण्विक कणों की खोज
गैसों में विद्युत्-विसर्जन आदि प्रयोगों के परिणामों से परमाणु की संरचना के बारे में और जानकारी प्राप्त हुई। इन परिणामों की चर्चा करने से पहले आवेशित कणों के व्यवहार के बारे में हमें यह मूल नियम ध्यान में रखना होगा कि समान आवेश एक-दूसरे को प्रतिकर्षित तथा विपरीत आवेश एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं।
2.1.1 इलेक्ट्रॉन की खोज
सन् 1830 में माइकेल फैराडे ने दर्शाया कि यदि किसी विलयन में विद्युत् प्रवाहित की जाती है, तो इलेक्ट्रोडों पर रासायनिक अभिक्रियाएँ होती हैं, जिनके परिणामस्वरूप इलेक्ट्रोडों पर पदार्थ का विसर्जन और निक्षेपण (deposition) होता है। उसने कुछ नियम बताए, जिनके विषय में आप 12 वीं कक्षा में पढ़ेंगे। इन परिणामों से विद्युत् की कणीय प्रकृति के बारे में पता चलता है।
1850 के मध्य में अनेक वैज्ञानिक, विशेषकर फैराडे ने आंशिक रूप से निर्वातित नलिकाओं, जिन्हें कैथोड किरण नलिकाएँ कहा जाता है, में विद्युत्-विसर्जन का अध्ययन आरंभ किया। इसे चित्र 2.1 (क) में दर्शाया गया है। कैथोड किरण नलिका काँच की बनी होती है, जिसमें धातु के दो पतले टुकड़े, जिन्हें इलेक्ट्रोड कहते हैं, सील किए हुए होते हैं। गैसों में विद्युत्-विसर्जन को सिर्फ निम्न दाब एवं उच्च विभव पर प्रेक्षित किया जा सकता है। काँच की नलिकाओं में विभिन्न गैसों के दाब को निर्वातन द्वारा नियंत्रित किया गया। इस प्रकार जब इलेक्ट्रोडों पर उच्च वोल्टता लागू की गई, तो नलिका में कणों की धारा के द्वारा ऋणात्मक इलेक्ट्रोड (कैथोड) से धनात्मक इलेक्ट्रोड (ऐनोड) की तरफ विद्युत् का प्रवाह आरंभ हो गया। इनको कैथोड किरणें अथवा कैथोड किरण कण कहते हैं।
चित्र 2.1 (क) एक कैथोड किरण विसर्जन नलिका कैथोड से ऐनोड तक विद्युत्धारा के प्रवाह की अतिरिक्त जाँच के लिए ऐनोड में छिद्र तथा ऐनोड के पीछे नली पर स्फुरदीप्त पदार्थ (जिंक सल्फाइड) का लेप किया जाता है। जब ये किरणें ऐनोड के छिद्र में से गुजरकर जिंक सल्फाइड की परत पर टकराती हैं तथा वहाँ एक चमकीला चिह्न बन जाता है [चित्र 2.1 (ख)]। इस प्रयोग के परिणाम का सारांश निम्नलिखित हैं-
चित्र 2.1 ( ख) सछिद्र एनोडयुक्त एक कैथोड-किरण विसर्जन नलिका
(i) कैथोड किरणें (cathode rays) कैथोड से आरंभ होकर ऐनोड की ओर गमन करती हैं।
(ii) ये किरणें स्वयं दिखाई नहीं देतीं, परंतु इनके व्यवहार को गैसों तथा कुछ निश्चित प्रकार के पदार्थों (स्फुरदीप्त तथा प्रतिदीप्त) की उपस्थिति में देखा जा सकता है। ये पदार्थ इन किरणों के टकराने से चमकते हैं। टेलीवीजन चित्र नलिका कैथोड किरण नलिका होती है। टी.वी. पर्दा स्फुरदीप्त एवं प्रतिदीप्त पदार्थों से लेपित होता है जिस पर चित्र प्रतिदीप्त होते हैं।
(iii) विद्युत् और चुंबकीय क्षेत्रों की अनुपस्थिति में ये किरणें सीधी दिशा में गमन करती हैं।
(iv) विद्युत् और चुंबकीय क्षेत्रों की उपस्थिति में कैथोड किरणों का व्यवहार ॠणावेशित कणों के अपेक्षित व्यवहार के समान होता है, जो यह सिद्ध करता है कि कैथोड किरणों में ऋणावेषित कण होते हैं, जिन्हें इलेक्ट्रॉन कहते हैं।
(v) कैथोड-किरणों (इलेक्ट्रॉन) के लक्षण कैथोड किरण नलिका के इलेक्ट्रोडों के पदार्थ एवं उसमें उपस्थित गैस की प्रकृति पर निर्भर नहीं करते। उपरोक्त परिणामों से यह निष्कर्ष निकलता है कि इलेक्ट्रॉन सभी परमाणुओं के मूल घटक होते हैं।
2.1.2 इलेक्ट्रॉन का आवेश द्रव्यमान अनुपात
ब्रिटिश भौतिक विज्ञानी जे.जे. थॉमसन ने सन् 1897 में कैथोड किरण नलिका का उपयोग करके और इलेक्ट्रॉनों के पथ पर विद्युत् और चुंबकीय क्षेत्र, जो एक दूसरे के लंबवत थे, लागू करके इलेक्ट्रॉन के विद्युत् आवेश (e) और द्रव्यमान
(ii) कण का द्रव्यमान-कण के हल्का होने से विचलन अधिक होता है।
(iii) विद्युत् अथवा चुंबकीय क्षेत्र की प्रबलता इलेक्ट्रोडों पर वोल्टता अथवा चुम्बकीय क्षेत्र की प्रबलता बढ़ाने से इलेक्ट्रॉनों का मूल पथ से विचलन बढ़ जाता है।
विद्युत् क्षेत्र की प्रबलता या चुंबकीय क्षेत्र की प्रबलता में से किसी एक की उपस्थिति में इलेक्ट्रॉनों के विचलन की मात्रा का सही-सही माप करके और उसके प्रेक्षण से थॉमसन,
जहाँ
2.1.3 इलेक्ट्रॉनों पर आवेश
आर.ए. मिलिकन (1868-1953) ने इलेक्ट्रॉन पर आवेश के निर्धारण के लिए एक विधि तैयार की, जो तेल बूँद प्रयोग (1906-14) कहलाता है।
उन्होंने पाया कि इलेक्ट्रॉन पर आवेश
चित्र 2.2 इलेक्ट्रॉन के आवेश और द्रव्यमान के बीच अनुपात का निर्धरण करने का उपकरण
मिलिकन की तेल की बूँद विधि
इस विधि में कणित्र (atomizer) द्वारा उत्पन्न कुहासे के रूप में तेल की बूँदों को विद्युत् संघनित्र (condenser) के ऊपर की प्लेट में उपस्थित छोटे से छिद्र से गुजारा जाता है। इन बूँदों के नीचे की ओर गति को माइक्रोमीटरयुक्त दूरबीन के द्वारा देखा गया। इन बूँदों के गिरने की दर को मापकर मिलिकन तेल की बूँदों के द्रव्यमान को मापा सके। कक्षक के अंदर की वायु को
चित्र 2.3 आवेश ’
2.1.4 प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन की खोज
परिवर्तित कैथोड किरण नलिका में किए गए विद्युत् विसर्जन से धनावेशित कणों की खोज हुई, जिन्हें कैनाल किरणें भी कहा जाता है। इन धनावेशित कणों के अभिलक्षण अग्रलिखित हैं- (i) कैथोड किरणों के विपरीत, धनावेशित कण का द्रव्यमान कैथोड किरण नलिका में उपस्थित गैस की प्रकृति पर निर्भर करता है। ये साधारण धनावेशित गैसीय आयन होते हैं।
(ii) कणों के आवेश और द्रव्यमान का अनुपात उस गैस पर निर्भर करता है, जिससे ये उत्पन्न होते हैं।
(iii) कुछ धनावेशित कण विद्युत् आवेश की मूल इकाई के गुणक होते हैं।
(iv) चुंबकीय तथा विद्युत् क्षेत्रों में इन कणों का व्यवहार इलेक्ट्रॉन अथवा कैथोड किरण द्वारा प्रेक्षित व्यवहार के विपरीत है।
सबसे छोटा और हल्का धन आयन हाइड्रोजन से प्राप्त हुआ था इसे प्रोटॉन कहते हैं। इस धनावेशित कण का पृथक्करण और इसके लक्षण की पुष्टि सन् 1919 में हुई थी। बाद में परमाणु में एक वैद्युत उदासीन कण की आवश्यक्ता महसूस की गई। इस कण की खोज सन् 1932 में चैडविक ने बेरीलियम पर
2.2 परमाणु मॉडल
पूर्व भागों में बताए गए प्रयोगों से प्राप्त प्रेक्षणों से यह ज्ञात हुआ कि डाल्टन के अविभाज्य परमाणु में धनात्मक तथा ऋणात्मक आवेशों वाले अव-परमाणु (sub-atomic) कण होते हैं।
अवपरमाण्विक कणों की खोज के बाद वैज्ञानिकों के सामने निम्नलिखित मुख्य समस्याएँ थीं-
(i) परमाणु के स्थायित्व का स्पष्टीकरण;
(ii) तत्वों के गुणों यानी भौतिक व रसायनिक व्यवहार की तुलना;
(iii) विभिन्न परमाणुओं के संयोजन से विभिन्न प्रकार के अणुओं के बनने की व्याख्या तथा,
(iv) परमाणुओं द्वारा अवशोषित अथवा उत्सर्जित विशिष्ट विद्युत् चुंबकीय विकिरण की उत्पत्ति तथा प्रकृति को समझना।
इन आवेशित कणों के परमाणुओं में वितरण की व्याख्या करने के लिए विभिन्न परमाणु मॉडल प्रस्तावित किए गए। यद्यपि इनमें से हर मॉडल द्वारा कणों के स्थायित्व की व्याख्या नहीं की जा सकी। इनमें से एक मॉडल जे.जे. थॉमसन द्वारा और दूसरा अर्नेस्ट रदरफोर्ड द्वारा प्रस्तावित किया गया इनका विवरण आगे दिया गया है-
सारणी 2.1 मूल कणों के गुण
नाम | चिह्न | परम आवेश/C | सापेक्ष आवेश | द्रव्यमान |
द्रव्यमान |
लगभग द्रव्यमान |
---|---|---|---|---|---|---|
इलेक्ट्रॉन | -1 | 0.00054 | 0 | |||
प्रोटॉन | +1 | 1.00727 | 1 | |||
न्यूट्रॉन | 0 | 0 | 1.00867 | 1 |
2.2.1 परमाणु का थॉमसन मॉडल
सन् 1898 में जे.जे. थॉमसन ने प्रस्तावित किया कि परमाणु एक समान आवेशित गोला (त्रिज्या लगभग
चित्र 2.4 परमाणु का थॉमसन मॉडल
19 वीं सदी के दूसरे अर्धांश में विभिन्न प्रकार की किरणों की खोज हुई। विल्हेम रॉन्टजेन (Wilhem Roentgen, 1845-1923) ने सन् 1895 में दर्शाया कि कैथोड किरण नली में उपस्थित पदार्थ से टकराने पर इलेक्ट्रॉन ऐसी किरणें उत्पन्न करते हैं, जो कैथोड किरण नली के बाहर रखे प्रतिदीप्त (fluorescent) पदार्थ में प्रतिदीप्ति उत्पन्न कर सकते हैं। चूँकि रॉन्टजेन को इन किरणों की प्रकृति का पता नहीं था, अतः उन्होंने इन्हें
हेनरी बैकुरल (Henri Becqueral 1852 -1908) ने देखा कि कुछ तत्त्व विकिरण का उत्सर्जन स्वयं करते हैं। उन्होंने इस परिघटना को रेडियोऐक्टिवता (radioactivity) कहा तथा बताया कि ऐसे तत्त्व रेडियोऐक्टिव तत्त्व कहलाते हैं। इस क्षेत्र को मेरी क्यूरी, पियरे क्यूरी रदरफोर्ड तथा फ्रेडरिक सोडी ने विकसित किया। इसमें तीन प्रकार की किरणों,
मिलकर
2.2.2 रदरफोर्ड का नाभिकीय परमाणु मॉडल
रदरफोर्ड और उसके विद्यार्थियों ने (हेंस गीगर और अर्नेस्ट मार्सडेन) ने बहुत पतली सोने की पन्नी (gold foil) पर
सोने की पतली पन्नी (
प्रकीर्णन अनुप्रयोग के परिणाम काफी अनपेक्षित थे। थॉमसन के परमाणु मॉडल के अनुसार पत्ती में उपस्थित सोने के प्रत्येक परमाणु का द्रव्यमान पूरे परमाणु पर एक समान रूप से बँटा हुआ होना चाहिए। अल्फा कणों में ऊर्जा इतनी अधिक होती है कि वे द्रव्यमान के ऐसे समान वितरण को भी सीधे पार कर जाएँगे। उन्हें अपेक्षा थी कि पत्ती से टकराने के बाद कणों की गति धीमी हो जाएगी और उनकी दिशा बहुत कम कोण से बदल जाएगी। उन्होंने देखा कि-
(i) अधिकांश अल्फा कण सोने की पत्ती से विक्षेपित हुए बिना निकल गए।
(क) रदरफोर्ड का प्रकीर्णन प्रयोग (ii) बहुत कम अल्फा कण छोटे कोण से विक्षेपित हुए।
(iii) बहुत ही थोड़े कण (20000 में से 1) पीछे की ओर लौटे अर्थात् लगभग
(i) परमाणु के अंदर अधिकांश स्थान रिक्त होता है, क्योंकि अधिकांश अल्फा कण सोने की पत्री को पार कर जाते हैं।
(ii) कुछ ही धनावेशित
(iii) रदरफोर्ड ने गणना करके दिखाया कि नाभिक का आयतन, परमाणु के कुल आयतन की तुलना में अत्यंत कम (नगण्य) होता है। परमाणु की त्रिज्या लगभग
( ख) सोने की पत्री का व्यवस्थात्मक चित्र
चित्र 2.5 रदरफोर्ड के प्रकीर्णन प्रयोग का रेखांकित चित्र। जब सोने की एक पतली पत्नी पर अल्फा
उपरोक्त प्रेक्षणों और परिणामों के आधार पर रदरफोर्ड ने परमाणु का नाभिकीय मॉडल प्रस्तुत किया। इस मॉडल के अनुसार-
(i) परमाणु का धनावेश तथा अधिकांश द्रव्यमान एक अति अल्प क्षेत्र में केंद्रित होता है। परमाणु के इस अति अल्प भाग को रदरफोर्ड ने ‘नाभिक’ कहा।
(ii) नाभिक के चारों ओर इलेक्ट्रॉन वृत्ताकार पथों, जिन्हें कक्षा (orbit) कहा जाता है, में बहुत तेजी से घूमते हैं। अतः रदरफोर्ड का परमाणु मॉडल सौरमंडल से मिलता-जुलता है, जिसमें सूर्य नाभिक के समान होता है और ग्रह गतिमान इलेक्ट्रॉन के समान होते हैं।
(iii) इलेक्ट्रॉन और नाभिक आपस में आकर्षण के स्थिर वैद्युत् बलों के द्वारा बँधे रहते हैं।
2.2.3 परमाणु संख्या तथा द्रव्यमान संख्या
नाभिक का धनावेश उसके प्रोटॉनों के कारण होता है। जैसा पहले स्थापित हो चुका है, प्रोटॉन पर आवेश इलेक्ट्रॉन के आवेश के बराबर, लेकिन विपरीत चिह्न का होता है। इसका अर्थ यह है कि नाभिक में उपस्थित प्रोटॉनों की संख्या परमाणु संख्या
नाभिक का धनावेश उसके प्रोटॉनों के कारण होता है, परंतु नाभिक का द्रव्यमान प्रोटॉनों तथा कुछ अन्य उदासीन कणों (जिसमें प्रत्येक का द्रव्यमान प्रोटॉन के द्रव्यमान के लगभग बराबर होता है) के कारण होता है। इस उदासीन कण को न्यूट्रॉन (n) कहते हैं। नाभिक में उपस्थित प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों को न्यूक्लिऑन्स (nucleons) कहते हैं। न्यूक्लिऑनों की कुल संख्या को परमाणु की द्रव्यमान संख्या (A) कहते हैं।
द्रव्यमान संख्या
2.2.4 समस्थानिक एवं समभारिक
किसी भी परमाणु के संघटन को तत्त्व के प्रतीक
समस्थानिकों के विषय में अंतिम महत्त्वपूर्ण बात यह है कि परमाणुओं के रासायनिक गुण इलेक्ट्रॉनों की संख्या द्वारा नियंत्रित होते हैं, जो नाभिक में प्रोटॉनों की संख्या द्वारा निर्धारित होती है। नाभिक में रासायनिक गुणों पर न्यूट्रॉनों की संख्या का प्रभाव बहुत कम होता है। अतः रासायनिक अभिक्रियाओं में सभी समस्थानिक एक सा व्यवहार दर्शाते हैं।
2.2.5 रदरफोर्ड मॉडल के दोष
जैसा कि आप जान चुके हैं रदरफोर्ड का नाभिकीय मॉडल सौरमंडल का एक छोटा रूप था, जिसमें नाभिक को भारी सूर्य की तरह और इलेक्ट्रॉनों को हल्के ग्रहों की तरह सोचा गया था। जब सौरमंडल पर चिरसम्मत यांत्रिकी* को लागू किया जाता है तो पता चलता है कि ग्रह सूर्य के चारों ओर निश्चित कक्षाओं में घूमते हैं। ग्रहों के बीच गुरुत्वाकर्षण बल को (G.
सौरमंडल और नाभिकीय मॉडल में समानता से यह सुझाव मिलता है कि इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर निश्चित कक्षाओं में गति करते हैं, इसके अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन और नाभिक के बीच कूलॉम बल
रदरफोर्ड के परमाणु मॉडल का एक दूसरा गंभीर दोष यह है कि यह परमाणुओं की इलेक्ट्रॉनिक संरचना के बारे में कुछ भी वर्णन नहीं करता, अर्थात् इससे यह पता नहीं चलता कि इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर किस प्रकार विद्यमान हैं और इनकी ऊर्जा क्या है?
*चिरसम्मत यांत्रिकी सैद्धांतिक विज्ञान है, जो न्यूटन के ‘गति के नियमों पर आधारित है। यह स्थूल वस्तुओं के ‘गति के नियमों को समझाती है।
2.3 बोर के परमाणु मॉडल के विकास की पृष्ठभूमि
ऐतिहासिक रूप में द्रव्य के साथ विकिरण की अन्योन्य क्रियाओं के अध्ययन से प्राप्त परिणामों से परमाणुओं एवं अणुओं की संरचना के संबंध में अत्यधिक सूचना प्राप्त हुई। नील बोर ने इन परिणामों का उपयोग करके रदरफोर्ड द्वारा प्रतिपादित मॉडल में सुधार किया। बोर के परमाणु मॉडल के विकास में दो बिंदुओं की अहम भूमिका रही है।
(i) विद्युत्-चुंबकीय विकिरण का द्वैत व्यवहार होना, जिसका अर्थ यह है कि विकिरण तरंग तथा कण दोनों के गुण प्रदर्शित करते हैं।
(ii) परमाणु स्पेक्ट्रम से संबंधित प्रायोगिक परिणाम।
पहले हम विद्युत चुंबकीय विकिरण के द्वैत व्यवहार की चर्चा करेंगे। परमाणु स्पेक्ट्रम के प्रायोगिक परिणामों की चर्चा खण्ड 2.4 में की जाएगी।
2.3.1 विद्युत्-चुंबकीय विकिरण की तरंग प्रकृति
उन्नीसवीं सदी के मध्य में भौतिकीविदों ने गरम वस्तुओं से अवशोषित एवं उत्सर्जित होने वाले विकिरणों का सक्रियता से अध्ययन किया। इन विकिरणों को ऊष्मीय विकिरण कहा जाता है। उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि ऊष्मीय विकिरण किससे बने होते हैं। अब यह भली- भाँति ज्ञात है कि ऊष्मीय विकिरण विभिन्न आवृतियों अथवा तरंगदैर्घ्यों वाली विद्युत चुंबकीय तरगों से बने होते हैं यह अनेकों आधुनिक अवधारणाओं पर आधारित है जो कि उन्नीसवीं सदी के मध्य तक ज्ञात नहीं थीं। ऊष्मीय विकिरण के नियमों का सर्वप्रथम सक्रियता से अध्ययन 1850 में हुआ। 1870 के आरंभ में जेम्स क्लार्क मैक्सवेल ने यह सिद्धांत विकसित किया कि विद्युत् चुंबकीय तरंगें आवेशित कणों द्वारा उत्पन्न होती हैं। इस सिद्धांत का प्रायोगिक सत्यापन बाद में हेनरी हर्टस् ने किया। यहाँ हम विद्युत् चुंबकीय विकिरणों के विषय में कुछ तथ्यों को जानेंगे। जेम्स मैक्सवेल (सन् 1870) ने सबसे पहले आवेशित पिंडों के बीच अन्योन्य क्रियाओं और स्थूल स्तर पर विद्युत् तथा चुंबकीय क्षेत्रों के व्यवहार की व्याख्या की। उसने यह सुझाव दिया कि विद्युत् आवेशित कणों को जब त्वरित किया जाता है, तो एकांतर विद्युत् एवं चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न होते हैं, यह क्षेत्र विद्युत् एवं चुंबकीय तरंगों (waves) के रूप में संचरित होते हैं, जिन्हें विद्युत्-चुंबकीय तरंग अथवा विद्युत्-चुंबकीय विकिरण कहते हैं। प्रकाश भी विकिरण का एक रूप है, जिसकी जानकारी वर्षों पूर्व से है और पुरातन काल से इसकी प्रकृति के बारे में समझने की कोशिश की गई। पूर्व में (न्यूटन) प्रकाश को कणों (कणिकाएँ, corpuscles) का बना हुआ माना जाता था। 19 वीं शताब्दी में प्रकाश की तरंग-प्रकृति प्रतिपादित हुई।
पहली बार मैक्सवेल ने बताया कि प्रकाश तरंगें दोलायमान विद्युत् तथा चुंबकीय व्यवहार से संबंधित होती हैं (चित्र 2.6), यद्यपि वैद्युत्-चुंबकीय तरंग की गति की प्रकृति जटिल होती है, लेकिन हम यहाँ कुछ सामान्य गुणों पर विचार करेंगे।
चित्र 2.6 विद्युत्-चुंबकीय तरंग के विद्युत् तथा चुंबकीय क्षेत्र घटक। ये घटक समान तरंग-दैर्घ्य, आवृत्ति, गति तथा आयाम वाले होते हैं, किंतु वे एक दूसरे के लंबवत तलों में कंपन करते हैं।
(i) दोलायमान आवेशित कणों द्वारा उत्पन्न विद्युत् तथा चुंबकीय क्षेत्र एक दूसरे के लंबवत होते हैं। ये दोनों तरंग के संचरण की दिशा के भी लंबवत् होते हैं। विद्युत्-चुंबकीय तरंग का एक सरल रूप चित्र 2.6 में दिखाया गया।
(ii) ध्वनि अथवा जल-तरंगों के विपरीत विद्युत्-चुंबकीय तरंगों को किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती और ये निर्वात में गति कर सकती हैं।
(iii) अब यह तथ्य अच्छी तरह स्थापित हो चुका है कि विद्युत्चुंबकीय विकिरण कई प्रकार के होते हैं, जिनकी तरंग-दैर्घ्य या आवृत्ति एक दूसरे से भिन्न होती है। ये एक साथ मिलकर विद्युत्-चुंबकीय स्पेक्ट्रम बनाते हैं (चित्र 2.7)। स्पेक्ट्रम के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के भिन्न-भिन्न नाम हैं। कुछ उदाहरण हैं: रेडियो-आवृत्ति (radiofrequency) क्षेत्र,
अवरक्त (infrared) क्षेत्र,
(iv) विद्युत्-चुंबकीय विकिरण को दर्शाने के लिए विभिन्न प्रकार के मात्रकों का उपयोग किया जाता है। इन विकिरणों को आवृत्ति
निर्वात में सभी प्रकार के विद्युत्-चुंबकीय विकिरण, चाहे उनकी तरंग-दैर्घ्य कुछ भी हो, एक समान गति, अर्थात्
तरंगों को बताने के लिए एक दूसरी राशि, तरंग-संख्या
2.3.2 विद्युत्-चुंबकीय विकिरण की कणीय प्रकृति : प्लांक का क्वांटम सिद्धांत
विवर्तन* (diffraction) तथा व्यतिकरण ** (interference) जैसी कुछ प्रायोगिक परिघटनाओं को विद्युत्-चुंबकीय विकिरण की तरंग प्रकृति द्वारा समझाया जा सकता है, लेकिन कुछ प्रेक्षणों को 19 वीं शताब्दी के भौतिक विज्ञान (जो ‘पारंपरिक भौतिकी’ कहलाती है) के विद्युत्-चुंबकीय सिद्धांत की सहायता से भी वर्णित नहीं किया जा सकता। ये प्रेक्षण निम्नलिखित हैं-
(i) गरम पिंड से विकिरण का उत्सर्जन (कृष्णिका विकिरण black body radiation);
चित्र 2.7 (क) विद्युत्-चुंबकीय विकिरण का स्पेक्ट्रम (ख) दृश्य स्पेक्ट्रम। पूरे स्पेक्ट्रम का एक छोटा सा भाग दृश्यक्षेत्र होता है
- किसी बाधा के आसपास तरंग के मुड़ने को विवर्तन कहते हैं।
** एक समान आवृत्ति वाली दो तरंगें मिलकर एक ऐसी तरंग देती हैं, जिसका त्रिविम में प्रत्येक बिंदु पर विक्षोभ, प्रत्येक तरंग के उस बिंदु पर विक्षोभ का बीजगणितीय या सदिश योग होता है। तरंगों का इस प्रकार का संयोजन व्यतिकरण कहलाता है।
(ii) धातु की सतह से विकिरण के टकराने पर इलेक्ट्रॉनों का निष्कासन ( प्रकाश-विद्युत् प्रभाव);
(iii) ठोसों में तापमान के फलन के रूप में ऊष्माधारिता का परिवर्तन;
(iv) विशेषकर हाइड्रोजन के संदर्भ में परमाणुओं में देखे गए रेखा स्पेक्ट्रम।
ये परिघटनाएँ इंगित करती हैं कि निकाय केवल किसी विशेष मात्रा में ही ऊर्जा ले सकता है। सभी संभावित ऊर्जाएँ ग्रहण अथवा उत्सर्जित नहीं की जा सकतीं।
यह ध्यान देने वाली बात है कि सन् 1900 में मैक्स प्लांक द्वारा सबसे पहले उपरोक्त उल्लेखित कृष्णिका विकरण की कोई ठोस व्याख्या की गई। आइए हम पहले इस परिघटना को समझने का प्रयत्न करें जिसे आगे दिया गया है।
गरम वस्तुएँ विस्तृत परास में विद्युत् चुंबकीय तरंग-दैर्घ्यों के विकिरण उत्सर्जित करती हैं। उच्च ताप पर विकिरण का बड़ा भाग स्पेक्ट्रम के दृश्य भाग में होता है जब ताप बढ़ाया जाता है तो लघु तरंग दैर्घ्य (नीला प्रकाश) अधिक मात्रा में उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए जब किसी लोहे की छड़ को भट्ठी में गरम करते हैं, तब इसका रंग पहले हल्का लाल होता है। जैसे-जैसे ताप बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे वह अधिक लाल होता जाता है। जब इसे और गरम किया जाता है, तब इससे निकलने वाली विकिरण का रंग सफेद हो जाता है और जब ताप बहुत अधिक होता है, तब यह नीला हो जाता है। इसका
अर्थ यह है कि लाल विकिरण किसी विशेष ताप पर अधिक तीव्र होते हैं तथा दूसरे किसी ताप पर नीले विकिरण अधिक तीव्र होते हैं। अर्थात् गर्म वस्तुओं द्वारा उत्सर्जित विभिन्न तरंग दैर्घ्यों के विकिरणों की तीव्रता वस्तुओं के ताप पर निर्भर करती है। 1850 के अंत तक यह ज्ञात हो चुका था कि विभिन्न द्रव्यों से निर्मित वस्तुएँ यदि विभिन्न तापों पर रखी हों तो वो विभिन्न मात्रा में विकिरण उत्सर्जित करती हैं। इसके अतिरिक्त यह भी कि जब किसी वस्तु की सतह पर प्रकाश (विद्युत् चुंबकीय विकिरण) विकिरित किया जाता है तो विकिरित ऊर्जा का कुछ भाग ऐसे ही परावर्तित होता है, कुछ भाग अवशोषित होता है तथा कुछ भाग प्रेषित हो जाता है। अपूर्ण अवशोषण का कारण यह है कि नियमानुसार साधारण वस्तुएँ विकिरण की अपूर्ण अवशोषक होती हैं।
एक ऐसा आदर्श पिंड जो हर प्रकार की आवृत्ति के विकिरणों को एक समान उत्सर्जित तथा अवशोषित करता है, कृष्णिका (black body) कहलाता है तथा इस पिंड से उत्सर्जित विकिरण को कृष्णिका विकिरण कहते हैं। वास्तव में ऐसा कोई पिंड नहीं होता। कार्बन ब्लैक लगभग कृष्णिका के बहुत समान होता है। कृष्णिका का एक अच्छा भौतिक सन्निकटन सूक्ष्म छिद्र युक्त एक गुहा होती है [चित्र 2.8 (क)] जिसमें एक छिद्र के अलावा अन्य कोई द्वार नहीं होता। गुहा में छिद्र से प्रवेश करने वाली कोई भी किरण गुहा की भीतरी दीवारों से परावर्तित होती रहती है और अन्त में गुहा की दीवार द्वारा अवशोषित हो जाती
चित्र 2.8 (क) कृष्णिका है। कृष्णिका, विकिरणी ऊर्जा की आदर्श रेडिएटर भी होती है। इसके अतिरिक्त कृष्णिका अपने परिवेश के साथ तापीय साम्य में होती है। यह दिए गए समय में प्रति इकाई क्षेत्रफल में उतनी ऊर्जा विसरित करती है जितनी उसने परिवेश से अवशोषित की थी। कृष्णिका से उत्सर्जित प्रकाश की मात्रा ( विकिरण की तीव्रता) तथा उसका स्पेक्ट्रम में वितरण केवल उसके ताप पर निर्भर करता है। दिए गए तापमान पर, उत्सर्जित विकिरण की तीव्रता तरंग-दैर्घ्य के बढ़ने के साथ बढ़ती है। किसी एक तरंग-दैर्घ्य पर यह अधिकतम होती है, उसके बाद तरंग-दैर्घ्य के और बढ़ाने पर वह घटनी शुरू होती है, जैसा चित्र 2.8 (ख) में दिखाया गया है। इसके अतिरिक्त जैसे-जैसे ताप बढ़ता है वक्र का उच्चिष्ठ (maxima) लघु तरंग-दैर्घ्य की ओर स्थानांतरित हो जाता है। विकिरण की तीव्रता का पूर्वानुमान लगाने के लिए विकिरण की तीव्रता को तरंग-दैर्घ्य के फलन के रूप में प्रस्तुत करने के अनेक प्रयास हुए।
प्रकाश के तरंग सिद्धांत के आधार पर उपरोक्त परिणामों की संतोषजनक व्याख्या नहीं की जा सकी। मैक्स प्लांक ने इस मान्यता के आधार पर संतोषजनक परिणाम प्राप्त किया कि विकिरण का अवशोषण और उत्सर्जन दोलित्रों (कृष्णिका की दीवारों के परमाणु) से उत्पन्न होता है। यह लगातार विद्युत् चुंबकीय विकिरणों के दोलित्रों के साथ ऊर्जा का आदान-प्रदान करते रहते हैं। प्लांक ने यह माना कि विकिरण को ऊर्जा के विविक्त (discrete) भागों में बाँटा जा सकता है। मैक्स प्लांक ने मान्यता दी कि परमाणु और अणु केवल विविक्त (discrete) मात्राओं में ऊर्जा उत्सर्जित (या अवशोषित) करते हैं, न कि अनवरत रूप में। विद्युत्-चुंबकीय विकिण के रूप में ऊर्जा की जिस न्यूनतम मात्रा का उत्सर्जन (या अवशोषण) होता है, उसे प्लांक द्वारा क्वांटम (quantum) नाम दिया गया। विकिरण के एक क्वांटम की ऊर्जा
चित्र 2.8 (ख) तरंग-दैर्घ्य तीव्रता संबंध
आनुपातिकता स्थिरांक,
क्वान्टीकरण की तुलना सीढ़ियों पर खड़े होने से की गई है। कोई भी व्यक्ति सीढ़ियों के किसी भी पायदान पर खड़ा हो सकता है परन्तु उसके लिए सीढ़ी के दो पायदानों के बीच में खड़ा होना संभव नहीं है। ऊर्जा का मान निम्नलिखित समुच्चय में से कोई भी हो सकता है परन्तु इन मानों के बीच में कोई मान नहीं हो सकता।
इस सिद्धांत के अनुसार, प्लांक कृष्णिका से विभिन्न तापों पर उत्सर्जित विकिरण के तीव्रता-वितरण की आवृत्ति अथवा तरंग-दैर्घ्य के फलन के रूप में व्याख्या कर सके।
मैक्स प्लांक (1858-1947)
मैक्स प्लांक एक जर्मन भौतिकी वैज्ञानिक थे। उन्होंने सन् 1879 में म्युनिख विश्वविद्यालय से सैद्धांतिक भौतिकी में पी.एच.डी. की उपाधि ग्रहण की। वे सन् 1888 में बर्लिन विश्वविद्यालय के इंस्टिच्यूट ऑफ थियोरेटिकल फिजिक्स (Institute of theoretical Physics) में निदेशक नियुक्त किए गए। उनके द्वारा दिए गए क्वांटम सिद्धांत के लिए उन्हें सन् 1918 में भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने ऊष्मा-गतिकी और भौतिकी के अन्य क्षेत्रों में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
प्रकाश-विद्युत् प्रभाव
सन् 1887 में एच. हर्ट्स ने एक बहुत ही दिलचस्प प्रयोग किया, जिसमें कुछ धातुओं (जैसे- पोटैशियम, रूबीडियम, सीजियम, इत्यादि) की सतह पर उपयुक्त आवृत्ति वाला प्रकाश डालने पर जैसा चित्र 2.9 में दिखाया गया है, इलेक्ट्रॉन निकलते हैं। इस परिघटना को प्रकाश विद्युत् प्रभाव कहते हैं। इस प्रयोग से प्राप्त परिणाम इस प्रकार हैं-
(i) धातु की सतह से प्रकाशपुंज के टकराते ही उस सतह से इलेक्ट्रॉन निकलते हैं, अर्थात् धातु की सतह से इलेक्ट्रॉन निष्कासन तथा सतह पर प्रकाशपुंज के टकराने के बीच कोई समय-अंतराल (time lag) नहीं होता।
(ii) निष्कासित इलेक्ट्रॉनों की संख्या प्रकाश की तीव्रता के समानुपाती होती है।
(iii) प्रत्येक धातु के लिए एक अभिलाक्षणिक न्यूनतम आवृत्ति होती है, जिसे देहली आवृत्ति (threshold frequency) कहते हैं और जिससे कम आवृत्ति पर प्रकाश-विद्युत् प्रभाव प्रदर्शित नहीं होता है।
उपरोक्त सारे परिणामों की व्याख्या पारंपरिक भौतिकी के नियमों के आधार पर नहीं की जा सकी। उन नियमों के अनुसार, प्रकाश की किरण की ऊर्जा की मात्रा प्रकाश की तीव्रता पर
चित्र 2.9 प्रकाश विद्युत्-प्रभाव के अध्ययन के लिए उपकरण। एक निर्वात् कक्ष में एक धातु की साफ सतह पर एक निश्चित आवृत्ति वाली प्रकाश की किरण टकराती है। धातु से इलेक्ट्रॉन निष्कासित होते हैं। ये एक संसूचक द्वारा गिने जाते हैं, जो उनकी गतिज ऊर्जा का मापन करता है
निर्भर करती है। दूसरे शब्दों में, निष्कासित इलेक्ट्रॉनों की संख्या और उनसे संबंधित गतिज ऊर्जा की व्याख्या प्रकाश की तीव्रता से की जा सकती है। यद्यपि ऐसा देखा गया है कि निष्कासित इलेक्ट्रॉनों की संख्या प्रकाश की तीव्रता पर निर्भर करती है, लेकिन इन इलेक्ट्रॉनों की गतिज ऊर्जा तीव्रता पर निर्भर नहीं करती है। उदाहरण के लिए, पोटैशियम के टुकड़े पर यदि किसी भी तीव्रता का लाल रंग का प्रकाश
विद्युत्-चुंबकीय विकिरण के प्लांक के क्वांटम सिद्धांत का उपयोग करते हुए आइंस्टीन (1905) प्रकाश-विद्युत् प्रभाव को समझने में सफल हुए।
धातु की सतह पर प्रकाश पुंज के टकराने को कणों ( फोटॉनों) के पुंज का टकराना समझा जा सकता है। जब कोई पर्याप्त ऊर्जा वाला फोटॉन धातु के परमाणु के इलेक्ट्रॉन से टकराता है, तो वह इलेक्ट्रॉन को परमाणु से तुरंत बाहर निकाल देता है। फोटॉन की ऊर्जा जितनी अधिक होगी, उतनी ही ऊर्जा वह इलेक्ट्रॉन को देगा और निष्कासित इलेक्ट्रॉन की गतिज ऊर्जा उतनी ही अधिक होगी। दूसरे शब्दों में, निष्कासित इलेक्ट्रॉन की गतिज ऊर्जा विद्युत्-चुंबकीय विकिरण की आवृत्ति के समानुपाती होगी। चूँकि टकराने वाले फोटॉन की ऊर्जा
अल्बर्ट आइंस्टीन (1879-1955)
जर्मनी में पैदा हुए अमेरिकी भौतिकी वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन विश्व के दो महान भौतिकी वैज्ञानिकों में से एक माने जाते हैं। (दूसरे वैज्ञानिक ईज़ाक न्यूटन थे)। सन् 1905 में, जब वे बर्ने में एक स्विस पेटेंट आफिस में तकनीकी सहायक थे, तब विशेष आपेक्षकीयता, ब्राउनी गति और प्रकाश-विद्युत् प्रभाव पर छपे उनके तीन शोध-पत्रों ने भौतिकी के विकास को बहुत प्रभावित किया। उन्हें सन् 1921 में प्रकाश-विद्युत् प्रभाव की व्याख्या के लिए भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
फोटोइलेक्ट्रॉन की गतिज ऊर्जा में स्थानांतरित हो जाती है। ऊर्जा के संरक्षण (conservation of energy) के नियम का अनुसरण करते हुए निष्कासित इलेक्ट्रॉन की गतिज ऊर्जा समीकरण 2.7 द्वारा दी जाती है।
जहाँ
विद्युत्-चुंबकीय विकिरण का द्वैत व्यवहार
प्रकाश की कण समान प्रकृति ने वैज्ञानिकों के सामने असमंजस की स्थिति पैदा कर दी। एक तरफ तो इसने कृष्णिका विकिरण और प्रकाश-विद्युत् प्रभाव की संतोषजनक व्याख्या की, परंतु दूसरी तरफ यह प्रकाश की तरंग जैसे व्यवहार, जिससे विवर्तन, व्यतिकरण आदि परिघटनाओं की व्याख्या की जा सकती थी, के साथ युक्तिसंगत नहीं था। इस दुविधा को हल करने का एक ही उपाय था कि यह मान लिया जाए कि प्रकाश के कण और तरंग दोनों जैसे गुण होते हैं- अर्थात् प्रकाश का द्वैत व्यवहार होता है। प्रयोगों के आधार पर हम पाते हैं कि प्रकाश तरंग या कण के समान व्यवहार करता है। जब द्रव्य के साथ विकिरणकी अन्योन्य क्रिया होती है, तब यह कण जैसे गुण प्रदर्शित करता है। जब विकिरण का संचरण होता है, तब यह तरंग जैसे गुण (व्यतिकरण और विवर्तन) दर्शाता है। द्रव्य और विकिरण की प्रचलित धाराओं को देखते हुए यह संकल्पना एकदम नई थी। लोगों को इसे स्वीकार करने में काफी समय लगा। जैसा आप आगे देखेंगे, कुछ सूक्ष्म कण (जैसे-इलेक्ट्रॉन) भी तरंगकण वाला द्वैत व्यवहार प्रदर्शित करते हैं
सारणी 2.2 कुछ धातुओं के लिए कार्यफलन के मान
धातु | ||||||
---|---|---|---|---|---|---|
2.42 | 2.3 | 2.25 | 3.7 | 4.8 | 4.3 |
2.3.3 क्वांटित* इलेक्ट्रॉनिक ऊर्जा स्तरों के
लिए प्रमाण : परमाणिक स्पेक्ट्रा
प्रकाश की गति उस माध्यम की प्रकृति पर निर्भर करती है जिससे यह गुजरती है। एक माध्यम से दूसरे तक जाने पर प्रकाश की किरण अपने मूल पथ से मुड़ जाती है अथवा अपवर्तित (refract) हो जाती है।
प्रिज्म में से सफेद प्रकाश की किरण को गुजारने से यह देखा गया कि कम तरंग-दैर्घ्य की तरंग लंबी तरंग-दैर्घ्य की तरंग की तुलना में अधिक झुक जाती है, क्योंकि साधारण सफेद प्रकाश में दृश्य परास में सभी तरंग-दैर्घ्यों वाली तरंगें होती हैं। सफेद प्रकाश की किरण रंगीन पट्टियों की एक श्रृंखला में फैल जाती है, जिसे स्पेक्ट्रम (spectrum) कहते हैं। लाल रंग, जिसकी तरंग-दैर्घ्य सबसे अधिक होती है, का विचलन सबसे कम और सबसे कम तरंग-दैर्घ्य वाले बैगनी रंग का विचलन सबसे अधिक होता है। सफेद रंग का प्रकाश, जो हमें दिखाई देता है, के स्पेक्ट्रम का परास
छोटा भाग होता है (चित्र 2.7)। जब विद्युत्-चुंबकीय विकिरण द्रव्य के साथ अन्योन्य क्रिया करता है, तो परमाणु और अणु इस ऊर्जा का अवशोषण कर सकते हैं एवं उच्च ऊर्जा स्तर पर पहुँच जाते हैं। उच्च ऊर्जा स्तर पर ये अस्थायी अवस्था में होते हैं। ये जब कम ऊर्जा वाली अधिक स्थायी तलस्थ अवस्था में लौटते हैं, तो वे विद्युत्-चुंबकीय स्पेक्ट्रम के विभिन्न क्षेत्रों में विकिरण उत्सर्जित करते हैं।
उत्सर्जन तथा अवशोषण स्पेक्ट्रा
किसी पदार्थ से ऊर्जा अवशोषण के बाद उत्सर्जित विकिरण का स्पेक्ट्रम ‘उत्सर्जन स्पेक्ट्रा’ कहलाता है। परमाणु अणु या आयन विकिरण के अवशोषण पर उत्तेजित हो जाते हैं। उत्सर्जन स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिए किसी प्रतिदर्श को गरम करके अथवा विकिरणित करके ऊर्जा दी जाती है और जब प्रतिदर्श अवशोषित ऊर्जा को निष्कासित करता है, तो उत्सर्जित विकिरण की तरंग-दैर्घ्य (या आवृत्ति) को रिकॉर्ड कर लिया जाता है। अवशोषण स्पेक्ट्रम उत्सर्जन स्पेक्ट्रम के फोटोग्राफीय निगेटिव की तरह होता है। जब एक सतत विकिरण को प्रतिदर्श पर डाला जाता है, तो वह विकिरण की कुछ तरंग-दैर्घ्य का अवशोषण कर लेता है। द्रव्य द्वारा अवशोषित विकिरण की संगत लुप्त तरंग-दैर्घ्य चमकीले सतत स्पेक्ट्रम में गहरे रंग की रेखाओं के रूप में प्रदर्शित होती है।
उत्सर्जन या अवशोषण स्पेक्ट्रम के अध्ययन को स्पेक्ट्रोमिती (spectroscopy) कहते हैं। जैसा ऊपर बताया गया है, दृश्य प्रकाश का स्पेक्ट्रम सतत होता है, क्योंकि उसमें दृश्य प्रकाश की लाल से बैगनी तक सभी तरंग-दैर्घ्य उपस्थित होती हैं। इसके विपरीत गैस अवस्था में परमाणुओं का उत्सर्जन स्पेक्ट्रम लाल से बैगनी तरंग-दैर्घ्यों में सतत् रूप से प्रदर्शित नहीं करता है, परंतु उनसे केवल विशेष तरंग-दैर्घ्यों वाला प्रकाश उत्सर्जित होता है, जिनके बीच में काले स्थान रहते हैं। ऐसे स्पेक्ट्रम को रेखा स्पेक्ट्रम अथवा परमाण्वीय स्पेक्ट्रम कहते हैं, क्योंकि उत्सर्जित विकिरण स्पेक्ट्रम में चमकीली रेखाओं के रूप में प्रदर्शित होता है (चित्र 2.10)।
इलेक्ट्रॉनिक संरचना के अध्ययन में रेखा-उत्सर्जन स्पेक्ट्रम का विशेष महत्त्व होता है। प्रत्येक तत्त्व का अपना एक विशेष (क)
(ख)
सफेद प्रकाश स्रोत प्रतिदर्श द्वारा अवशोषण
उत्सर्जन स्पेक्ट्रम
अवशोषण स्पेक्ट्रम
चित्र 2.10 (क) परमाण्वीय उत्सर्जन : हाइड्रोजन परमाणुओं (या किसी और तत्त्व) के उत्तेजित प्रतिदर्श द्वारा उत्सर्जित प्रकाश को एक प्रिज्म से गुज़ारकर विविक्त तरंग-दैर्घ्यों की रेखाओं में पृथक किया जाता है। अतः उत्सर्जन स्पेक्ट्रम, जो पृथक तरंग-दैर्घ्यों का फोटोग्राफीय संसूचन होता है, को ‘रेखा स्पेक्ट्रम’ कहा जाता है। किसी निश्चित आकार के प्रतिदर्श में बहुत अधिक संख्या में परमाणु होते हैं। हालाँकि कोई एक परमाणु किसी एक समय पर एक ही उत्तेजित अवस्था में हो सकता है, किंतु परमाणुओं के समूह में सभी संभव उत्तेजित अवस्थाएं होती हैं, जब ये परमाणु निम्न ऊर्जा-स्तर पर जाते हैं, तो उत्सर्जित प्रकाश से स्पेक्ट्रम प्राप्त होता है। (ख) परमाण्वीय अवशोषण: जब सफेद प्रकाश को अनुत्तेजित हाइड्रोजन परमाणु से किसी रेखाछिद्र (slit) और फिर प्रिज्म से गुजारा जाता है, तो प्राप्त प्रकाश में कुछ तरंग-दैर्घ्यों (जो चित्र 2.10 क में उत्सर्जित हुई थीं) की तीव्रता का अभाव हो जाता है। यह संसूचित स्पेक्ट्रम भी एक रेखा स्पेक्ट्रम होता है और उत्सर्जन स्पेक्ट्रम का फोटोग्राफीय निगेटिव होता है
रेखा-उत्सर्जन स्पेक्ट्रम होता है। रासायनिक विश्लेषणों में परमाणु स्पेक्ट्रम की अभिलाक्षणिक रेखाएँ अज्ञात परमाणुओं को पहचानने के लिए उसी प्रकार उपयोग में लाई जाती हैं, जिस प्रकार अंगुलियों के निशान मनुष्यों को पहचानने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। ज्ञात तत्त्व के परमाणुओं के उत्सर्जन स्पेक्ट्रम की रेखाओं का यथार्थ मिलान अज्ञात प्रतिदर्श की रेखाओं से तत्त्वों को पहचानने के लिए रॉबर्ट बुन्सेन (1811-1899) ने सर्वप्रथम किया।
रूबीडियम
हाइड्रोजन का रेखीय स्पेक्ट्रम
जब हाइड्रोजन गैस में विद्युत् विसर्जन प्रवाहित किया जाता है, तब
जहाँ
इस सूत्र द्वारा वर्णित रेखाओं को ‘बामर श्रेणी’ (Balmer series) कहा जाता है। हाइड्रोजन स्पेक्ट्रम में केवल इसी श्रेणी की रेखाएँ विद्युत्-चुंबकीय स्पेक्ट्रम के दृश्य क्षेत्र में प्राप्त होती है। स्वीडन के एक स्पेक्ट्रमी वैज्ञानिक जोहान्स रिड्बर्ग ने बताया कि हाइड्रोजन स्पेक्ट्रम की सभी श्रेणियों की रेखाए निम्नलिखित सूत्र द्वारा दर्शाई जा सकती है-
जहाँ
स्थिरांक (Rydberg constant) कहते हैं
सारणी 2.3 में हाइड्रोजन स्पेक्ट्रम की ये श्रेणियाँ दिखाई गईं हैं। चित्र 2.11 में हाइड्रोजन परमाणु की लाइमैन, बामर और पाशन श्रेणियों के संक्रमणों को दिखाया गया है।
सारणी 2.3 परमाणु हाइड्रोजन की स्पेक्ट्रमी रेखाएँ
श्रेणी | स्पेक्ट्रमी क्षेत्र | ||
---|---|---|---|
लाइमैन | 1 | पराबैगनी | |
बामर | 2 | दृश्य | |
पाशन | 3 | अवरक्त | |
ब्रेकेट | 4 | अवरक्त | |
फंड | 5 | अवरक्त |
चित्र 2.11 हाइड्रोजन परमाणु में इलेक्ट्रॉन के संक्रमण। (यहाँ संक्रमण की लाइमैन, बामर और पाशन श्रेणियाँ दिखाई गई हैं।
हाइड्रोजन का रेखा स्पेक्ट्रम सभी तत्त्वों के रेखा स्पेक्ट्रम की तुलना में सबसे सरल होता है। भारी परमाणुओं का रेखा स्पेक्ट्रम अधिक जटिल होता है, परंतु सभी रेखा स्पेक्ट्रमों के कुछ लक्षण समान होते हैं। जैसे- (i) प्रत्येक तत्त्व का रेखा स्पेक्ट्रम विशेष प्रकार का होता है। (ii) प्रत्येक तत्त्व के रेखा स्पेक्ट्रम में नियमितता होती है।
अब यह प्रश्न उठता है कि एक जैसे इन लक्षणों का क्या कारण हो सकता है? क्या इनका संबंध इन तत्त्वों के परमाणुओं की इलेक्ट्रॉनिक संरचना से होता है? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर जानना ज़रूरी है। हम आगे देखेंगे कि इन प्रश्नों के उत्तरों से हमें इन तत्त्वों के परमाणुओं की इलेक्ट्रॉनिक संरचना को समझने में सुविधा हुई।
2.4 हाइड्रोजन परमाणु के लिए बोर मॉडल
हाइड्रोजन परमाणु की संरचना तथा इसके स्पेक्ट्रम के सामान्य लक्षणों की पहली मात्रात्मक व्याख्या नील्स बोर ने सन् 1913 में की। उन्होंने प्लांक के ऊर्जा के क्वांटीकरण की अवधारणा का उपयोग किया। यद्यपि बोर सिद्धांत आधुनिक क्वांटम यांत्रिकी नहीं था, तथापि परमाणु संरचना तथा स्पेक्ट्रा में कई बातों को तर्कसंगत रूप से समझाने में इसका उपयोग किया जा सकता है। बोर का मॉडल निम्नलिखित अभिगृहीतों पर आधारित है-
(i) हाइड्रोजन परमाणु में इलेक्ट्रॉन, नाभिक के चारों तरफ निश्चित त्रिज्या और ऊर्जा वाले वृत्ताकार पथों में घूम सकता है। इन वृत्ताकार पथों को हम कक्षा या स्थायी अवस्था या अनुमत ऊर्जा स्तर कहते हैं। ये कक्षाएँ नाभिक के चारों ओर संकेंद्रीय रूप में व्यवस्थित होती हैं।
(ii) कक्षा में इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा समय के साथ नहीं परिवर्तित होती है, तथापि कोई इलेक्ट्रॉन निम्न स्थायी स्तर से उच्च स्थायी स्तर पर तब जाएगा, जब वह आवश्यक ऊर्जा का अवशोषण करेगा अथवा इलेक्ट्रॉन के उच्च स्थायी स्तर से निम्न स्तर पर आने के बाद ऊर्जा का उत्सर्जन होगा (समीकरण 2.16)। ऊर्जा-परिवर्तन सतत् तरीके से नहीं होता है।
(iii)
नील बोर ( 1885-1962)
डेनिश भौतिकी वैज्ञानिक नील बोर ने सन् 1911 में कोपेनहेगेन विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि ग्रहण की। उसके बाद उन्होंने जे.जे टॉमसन और अर्नेस्ट रदरफोर्ड के साथ एक वर्ष बिताया। सन् 1913 में वे कोपेनहेगेन लौटे, जहाँ वे जीवनपर्यंतं रहे। यहाँ 1920 में इंस्टिच्यूट ऑफ थियोरेटिकल फिज़िक्स के निदेशक बने। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बोर ने परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोगों के लिए उत्साहपूर्वक कार्य किया। उन्हें सन् 1957 में ‘Atoms for Peace’ सम्मान प्राप्त हुआ। सन् 1922 में बोर को भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जहाँ
(iv) इलेक्ट्रॉन का कोणीय संवेग क्वांटित होता है, दी हुई स्थायी अवस्था में इसे निम्नलिखित समीकरण के द्वारा दर्शाया जा सकता है-
जहाँ ’
उस कक्षा की त्रिज्या है जिसमें इलेक्ट्रॉन घूमता है।
अतः एक इलेक्ट्रॉन केवल उन्हीं कक्षों में घूम सकता है, जिनमें कोणीय संवेग का मान
कोणीय संवेग
जिस प्रकार द्रव्यमान
क्योंकि
होता है। अत: मैक्सवेल का विद्युत चुंम्बकीय सिद्धांत यहां लागू नहीं होता। यही कारण है कि कुछ निश्चित कक्ष ही अनुमत होते हैं। बोर की स्थायी अवस्थाओं की ऊर्जाओं के विचलन के विषय में दी गई विस्तृत जानकारी काफी जटिल है। अतः उसे आगे की कक्षाओं में समझाया जाएगा। बोर सिद्धांत के अनुसार हाइड्रोजन परमाणु के लिए-
(क) इलेक्ट्रॉन के लिए स्थायी अवस्थाओं को
(ख) स्थायी अवस्थाओं की त्रिज्याओं को निम्नलिखित रूप में प्रदर्शित किया जाता है-
जहाँ
(ग) इलेक्ट्रॉन से संबंधित सबसे महत्त्वपूर्ण गुण स्थायी अवस्था की ऊर्जा है। इसे निम्नलिखित सूत्र द्वारा दिया जाता है-
जहाँ
हैं, की ऊर्जा
जब इलेक्ट्रॉन नाभिक के प्रभाव से मुक्त होता है, तब ऊर्जा का मान शून्य लिया जाता है। ऐसी स्थिति में इलेक्ट्रॉन मुख्य संख्या
हाइड्रोजन परमाणु के लिए ऋणात्मक इलेक्ट्रॉनिक
ऊर्जा
हाइड्रोजन परमाणु में हर संभव कक्षा में इलेक्ट्रॉन के मान में ऋण चिह्न होता है (समीकरण 2.13)। यह ऋण चिह्न क्या दर्शाता है? इस ऋण चिह्न का अर्थ यह है कि परमाणु में इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा स्थिर अवस्था में स्वतंत्र इलेक्ट्रॉन से कम है। स्थिर (rest) अवस्था में स्वतंत्र इलेक्ट्रॉन वह इलेक्ट्रॉन होता है, जो नाभिक से अनंत दूरी पर हो। इसकी ऊर्जा को शून्य मान लिया जाता है। गणित में इसका अर्थ यह है कि समीकरण (2.13) में
(घ) हाइड्रोजन परमाणु में उपस्थित एक इलेक्ट्रॉन के समान, उन आयनों, जिनमें केवल एक इलेक्ट्रॉन होता है, पर भी बोर के सिद्धांत को लागू किया जा सकता है। उदाहरणार्थ
त्रिज्या को निम्नलिखित समीकरण द्वारा दिया जाता है-
जहाँ
(ङ) इन कक्षाओं में गति करते हुए इलेक्ट्रॉनों के वेगों की गणना करना भी संभव है, यद्यपि इसके लिए एक सटीक समीकरण यहाँ नहीं दिया गया है। गुणात्मक रूप से नाभिक पर धनावेश के बढ़ने के साथ इलेक्ट्रॉन का वेग बढ़ता है तथा मुख्य क्वांटम संख्या के बढ़ने के साथ यह घटता है।
2.4.1 हाइड्रोजन के रेखा स्पेक्ट्रम की व्याख्या
बोर के मॉडल का उपयोग करके खंड 2.3.3 में बताए गए हाइड्रोजन परमाणु के रेखा स्पेक्ट्रम की व्याख्या मात्रात्मक रूप में की जा सकती है। बोर के अभीगृहीत (ii) के अनुसार, निम्न से उच्च मुख्य क्वांटम संख्या की कक्षा में गमन करने पर विकिरण (ऊर्जा) का अवशोषण होता है, जबकि विकिरण (ऊर्जा) का उत्सर्जन इलेक्ट्रॉन के उच्च से निम्न कक्षा की ओर इलेक्ट्रॉन का गमन करने पर होता है। दो कक्षाओं के बीच के ऊर्जा के अंतर को इस समीकरण द्वारा दिया जा सकता है।
समीकरण 2.13 और 2.16 को जोड़े पर
समीकरण (2.18) का उपयोग करके फोटॉन के अवशोषण तथा उत्सर्जन से संबंधित आवृत्ति
संगत तरंग-संख्या
अवशोषण स्पेक्ट्रम में
समीकरण 2.17 रिड़बर्ग समीकरण 2.9 के जैसा है, जिसे उस समय पर उपलब्ध प्रायोगिक आँकड़ों द्वारा प्राप्त किया गया था। इसके अलावा हाइड्रोजन परमाणु के अवशोषण तथा उत्सर्जन स्पेक्ट्रम में प्रत्येक स्पेक्ट्रमी रेखा एक विशेष संक्रमण के संगत होती है। कई हाइड्रोजन परमाणुओं के स्पेक्ट्रमी अध्ययन में कई संभव संक्रमण देखे जा सकते हैं और उनसे कई स्पेक्ट्रमी रेखाएँ प्राप्त होती हैं। किसी स्पेक्ट्रमी रेखा की तीव्रता इस बात पर निर्भर करती है कि एक समान तरंग-दैर्घ्य या आवृत्ति वाले कितने फोटॉन अवशोषित या उत्सर्जित होते हैं।
2.4.2 बोर मॉडल की सीमाएँ
इसमें कोई संदेह नहीं कि हाइड्रोजन परमाणु का बोर मॉडल रदरफोर्ड के नाभिकीय मॉडल से बेहतर था। हाइड्रोजन परमाणु तथा इसके जैसे अन्य आयनों (जैसे-
(i) परिष्कृत स्पेक्ट्रमी तकनीकों द्वारा प्राप्त हाइड्रोजन स्पेक्ट्रम में सूक्ष्म संरचना [द्विक (doublet), अर्थात् पास-पास स्थित दो रेखाएँ] की व्याख्या करने में विफल रहा। यह मॉडल हाइड्रोजन के अलावा अन्य परमाणुओं के स्पेक्ट्रम की व्याख्या करने में असमर्थ रहा। उदाहरण के लिए, हीलियम परमाणु, जिसमें केवल दो इलेक्ट्रॉन होते हैं, बोर का सिद्धांत चुंबकीय क्षेत्र में स्पेक्ट्रमी रेखाओं के विपाटन (जीमन प्रभाव) या विद्युत् क्षेत्र की उपस्थिति में स्पेक्ट्रमी रेखाओं के विपाटन (स्टार्क-प्रभाव) को स्पष्ट करने में भी विफल रहा।
(ii) अंत में, यह परमाणुओं के रासायनिक आबंधों द्वारा अणु बनाने की योग्यता की व्याख्या नहीं कर सका।
दूसरे शब्दों में, उपरोक्त सारी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए एक ऐसे सिद्धांत की आवश्यकता है, जो जटिल परमाणुओं की संरचना के मुख्य लक्षणों की व्याख्या कर सके।
2.5 परमाणु के क्वांटम यांत्रिकीय मॉडल की ओर
बोर मॉडल की कमियों को ध्यान में रखते हुए परमाणुओं के लिए अधिक उपयुक्त और साधारण मॉडल के विकास के प्रयास किए गए। इस प्रकार के मॉडल के निर्माण में जिन दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों का अधिक योगदान रहा, वे निम्नलिखित हैं(क) द्रव्य का द्वैत व्यवहार
(ख) हाइजैनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत
2.5.1 द्रव्य का द्वैत व्यवहार
फ्रांसीसी भौतिक वैज्ञानिक दे ब्रॉग्ली ने सन् 1924 में प्रतिपादित किया कि विकिण की तरह द्रव्य को भी द्वैत व्यवहार प्रदर्शित करना चाहिए, अर्थात् द्रव्य में कण तथा तरंग- दोनों तरह के गुण होने चाहिए। इसका अर्थ यह है कि जिस तरह फोटॉन का
लुई दे ब्रॉग्ली
( 1892-1987)
फ्रांसीसी भौतिक वैज्ञानिक लुई दे ब्रॉग्ली ने सन् 1910 के शुरू में स्नातक स्तर पर इतिहास पढ़ा। प्रथम विश्वयद्ध के दौरान रेडियो-प्रसारण के लिए उनकी नियुक्ति हुई। उसके बाद विज्ञान के प्रति उनकी रुचि जागृत हो गई। सन् 1924 में उन्होंने पेरिस विश्वविद्यालय
से डी.एस-सी. की उपाधि प्राप्त की। सन् 1932 से अपनी अवकाश प्राप्ति से सन् 1962 तक वे पेरिस विश्वविद्यालय में आचार्य रहे। सन् 1929 में उन्हें भौतिकी में नोबेल पुरस्कार प्रदान कर के सम्मानित किया गया।
संवेग एवं तरंग-दैर्ध्य होते हैं, उसी तरह इलेक्ट्रॉन का भी संवेग और तरंग-दैर्ध्य होना चाहिए। ब्रॉग्ली ने इस तर्क के आधार पर किसी पदार्थ के कण के लिए तरंग-दैर्ध्य (
जहाँ
यह ध्यान देने योग्य बात है कि दे ब्रॉग्ली के अनुसार प्रत्येक गतिशील वस्तु में तरंग के लक्षण होते हैं। साधारण वस्तुओं का अधिक द्रव्यमान होने के कारण उनसे संबंधित तरंग-दैर्ध्य इतनी कम होती है कि उनके तरंग जैसे गुणों का पता नहीं चल पाता, परंतु इलेक्ट्रॉनों और अन्य अवपरमाणुक कणों, जिनका द्रव्यमान बहुत कम होता है, से संबंधित तरंग-दैर्ध्यों को प्रयोगों द्वारा पहचाना जाता है। प्रश्नों में दिए गए परिणाम इसे गुणात्मक रूप से सिद्ध करते हैं।
2.5.2 हाइज़ेनबर्ग का अनिश्चितता सिद्धांत
द्रव्य और विकिरण के दोहरे व्यवहार के फलस्वरूप एक जर्मन भौतिक वैज्ञानिक वर्नर हाइज़ेनबर्ग ने सन् 1927 में अनिश्चितता का सिद्धांत दिया। इसके अनुसार, किसी इलेक्ट्रॉन की सही स्थिति और सही वेग का निर्धारण एक साथ करना असंभव है।
अथवा
जहाँ
अनिश्चितता सिद्धांत का महत्त्व
हाइज़ेनबर्ग के अनिश्चितता नियम का एक महत्त्वपूर्ण निहितार्थ यह है कि यह नियम निश्चित मार्ग या प्रक्षेप पथ (trajectories) के अस्तितव का खंडन करता है। किसी पिंड का प्रक्षेप पथ भिन्न-भिन्न कोणों पर उसकी स्थिति एवं वेग से निर्धारित किया जाता है। यदि हमें किसी विशेष क्षण पर एक पिंड की स्थिति एवं वेग तथा उस पर उस क्षण कार्य कर रहे बलों की जानकारी हो, तो यह बता सकते हैं कि बाद के किसी समय में पिंड कहाँ पर होगा। अतः हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि किसी पिंड की स्थिति एवं वेग से उसका प्रक्षेप-पथ निश्चित हो जाता है। चूँकि इलेक्ट्रॉन जैसे किसी अव-परमाणवीय पिंड के लिए एक साथ उसकी स्थिति एवं वेग का निर्धारण किसी क्षण यथार्थता के किसी वांछित हद तक संभव नहीं है। इसलिए इलेक्ट्रॉन के प्रक्षेप-पथ के बारे में बात करना संभव नहीं है।
हाइज़ेनबर्ग अनिश्चितता सिद्धांत का प्रभाव केवल सूक्ष्म पिंडों की गति के लिए है; स्थूल पिंडों के लिए यह प्रभाव अतिन्यून होता है। इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है-
यदि एक मिलीग्राम
प्राप्त
दूसरी तरफ इलेक्ट्रॉन के समान सूक्ष्म पिंड के लिए प्राप्त मान काफी अधिक होता है। ऐसी अनिश्चितताएँ वास्तविक परिणाम की होती हैं। उदाहरणार्थ- एक
इसका अभिप्राय यह है कि यदि इलेक्ट्रॉन की सही स्थिति
यह अनिश्चितता इतनी अधिक है कि इलेक्ट्रॉन को बोर कक्षाओं में गति करता हुआ मानने की चिरसम्मत अवधारणा को अप्रामाणिक साबित कर सके। अतः इसका अर्थ यह है कि इलेक्ट्रॉन की स्थिति एवं संवेग के परिशुद्ध कथन को प्रायिकता कथन से प्रतिस्थापित करना होगा, जो एक इलेक्ट्रॉन दिए गए स्थान एवं संवेग पर रखता है। ऐसा ही परमाणु के क्वांटम यांत्रिकी मॉडल में होता है।
वर्नर हाइज़ेनबर्ग ( 1901-1976) वर्नर हाइज़ेनबर्ग ने म्यूनिख विश्वविद्यालय से सन् 1923 में भौतिकी में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने तब एक वर्ष मैक्स बार्न के साथ म्यूनिख में तथा तीन वर्ष को पेन हेगन में नील बोर के साथ कार्य किया। वे सन् 1927 से 1941 तक लीप सिफ में भौतिकी के प्रोफेसर रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वे परमाणु बम पर जर्मन अनुसंधान के प्रभारी थे। युद्ध के बाद उन्हें ग्वेटिंगजन में भौतिकी के मैक्स प्लांक संस्थान का निदेशक नामित किया गया। वे एक जाने-माने पर्वतारोही थे। सन् 1932 में उन्हें भौतिकी में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
बोर मॉडल की विफलता के कारण
अब बोर मॉडल की विफलता के कारण को आप समझ सकते हैं। बोर मॉडल में एक इलेक्ट्रॉन को एक आवेशित कण के रूप में नाभिक के चारों ओर निश्चित वृत्ताकार कक्षाओं में घूमता हुआ माना जाता है। इस मॉडल में इलेक्ट्रॉन के तरंग-लक्षण पर कोई विचार नहीं किया गया है। इस पथ को पूरी तरह तभी परिभाषित किया जा सकता है, जब इलेक्ट्रॉन की सही स्थिति और सही वेग- दोनों एक साथ ज्ञात हों। हाइज़ेनबर्ग के सिद्धांत के अनुसार, ऐसा संभव नहीं है। इस प्रकार हाइड्रोजन परमाणु का बोर मॉडल न केवल द्रव्य के दोहरे व्यवहार की अनदेखी करता है, बल्कि ‘हाइज़ेनबर्ग’ अनिश्चितता सिद्धांत के विपरीत भी है।
इस प्रकार की सहज कमजोरियों के कारण बोर मॉडल को अन्य परमाणुओं पर लागू नहीं किया जा सका। अतः परमाणु संरचना के बारे में ऐसे विचारों की आवश्यकता थी, जिनसे प्राप्त परमाणु मॉडल द्रव्य के तरंग-कण वाले दोहरे व्यवहार और ‘हाइज़ेनबर्ग अनिश्चितता सिद्धांत’ के अनुरूप हों। ऐसा क्वांटम यांत्रिकी के उद्गम द्वारा संभव हुआ।
2.6 परमाणु का क्वांटम यांत्रिकीय मॉडल
जैसा पूर्व खंड में बतलाया गया है, न्यूटन के ‘गति के नियमों’ के आधार पर विकसित चिरसम्मत यांत्रिकी द्वारा स्थूल पदार्थों (जैसे- गिरते हुए पत्थर, चक्कर लगाते हुए ग्रहों आदि), जिनका व्यवहार कण जैसा होता है, की गति का सफलतापूर्वक वर्णन किया जा सकता है, किंतु जब इसे अति सूक्ष्म कणों (जैसे- इलेक्ट्रॉनों, अणुओं और परमाणुओं) पर लागू किया जाता है, तो यह विफल हो जाता है। ऐसा होने का कारण यह है कि चिरसम्मत यांत्रिकी द्रव्य रूप से अवपरमाणुक कणों के दोहरे व्यवहार की संकल्पना तथा अनिश्चितता नियम की उपेक्षा करती है। द्रव्य के दोहरे व्यवहार को ध्यान में रखकर विकसित विज्ञान को क्वांटम यांत्रिकी (quantum machanics) कहते हैं।
क्वांटम यांत्रिकी एक सैद्धांतिक विज्ञान है, जिसमें उन अति सूक्ष्म वस्तुओं की गतियों का अध्ययन किया जाता है, जो तरंग और कण दोनों के गुण दर्शाती हैं। यह ऐसी वस्तुओं की गति के नियमों को निश्चित करती है। जब क्वांटम यांत्रिकी को स्थूल वस्तुओं (जिनके लिए तरंगीय गुण अतिन्यून होते हैं) पर लागू किया जाता हैं, तब चिरसम्मत यांत्रिकी के परिणामों जैसे ही परिणाम प्राप्त होते हैं।
सन् 1926 में वर्नर हाइज़ेनबर्ग और इर्विन श्रोडिंजर द्वारा अलग-अलग क्वांटम यांत्रिकी का विकास किया गया। यहाँ पर हम श्रोडिंजर द्वारा विकसित ‘क्वांटम यांत्रिकी’ पर ही चर्चा करेंगे, जो तरंगों की गति के विचारों पर आधारित है।
क्वांटम यांत्रिकी का मूल समीकरण श्रोडिंजर द्वारा प्रतिपादित किया गया। इसके लिए उन्हें सन् 1933 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। यह समीकरण, जो दे ब्राग्ली द्वारा बताए गए पदार्थ के कण और तरंग वाले दोहरे व्यवहार को ध्यान में रखता है, काफी जटिल है। इसका हल करने के लिए उच्च गणित का परिपक्व ज्ञान होना आवश्यक है। इस समीकरण को विभिन्न निकायों पर लागू करने के बाद प्राप्त हलों के बारे में आप आगे की कक्षाओं में पढ़ेंगे।
ऐसे निकाय (जैसे- एक परमाणु या अणु, जिसकी ऊर्जा समय के साथ परिवर्तित नहीं होती है) के लिए श्रोडिंजर समीकरण को इस प्रकार लिखा जाता है-
जहाँ
जब श्रोडिंजर समीकरण को हाइड्रोजन परमाणु के लिए हल किया जाता है, तब उससे इलेक्ट्रॉन के संभव ऊर्जा-स्तर और उनके संगत तरंग-फलन
इर्विन श्रोडिंजर ऑस्ट्रिया के भौतिकी के वैज्ञानिक थे। उन्होंने सन् 1910 में सैद्धांतिक भौतिकी में वियना विश्वविद्यालय से पी एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। प्लांक के कहने पर सन् 1927 में उन्होंने बर्लिन विश्वविद्यालय में प्लांक के बाद कार्यभार सँभाला। सन् 1933 में
हिटलर और नाजी की नीतियों के विरोध करने के कारण बर्लिन छोड़कर सन् 1936 में वापस ऑस्ट्रिया लौट गए। ऑस्ट्रिया पर जर्मनी के आक्रमण के बाद जब उन्हें आचार्य के पद से हटा दिया गया तब, वे आयरलैंड (डबलिन) चले गए, जहाँ वे सत्रह साल तक रहे। सन् 1933 में उन्हें पी.ए.एम. डिराक के साथ संयुक्त रूप से भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
कहलाते हैं। एक परमाणु में किसी बिंदु पर इलेक्ट्रॉन पाए जाने की प्रायिकता उस बिंदु पर
श्रोडिंजर समीकरण को बहु-इलेक्ट्रॉन परमाणुओं पर लागू करने पर प्रायः कुछ कठिनाइयाँ सामने आती हैं। बहु-इलेक्ट्रॉन परमाणुओं के लिए श्रोडिंजर समीकरण का यथार्थ (exact) हल नहीं दिया जा सकता था। इस कठिनाई को सन्निकटन विधि के उपयोग द्वारा दूर किया गया। कंप्यूटर से गणना करने पर पता चलता है कि हाइड्रोजन के अतिरिक्त अन्य परमाणुओं के कक्षक हाइड्रोजन परमाणु के कक्षकों से बहुत अधिक भिन्न नहीं हैं। इनमें मुख्य भिन्नता नाभिक में आवेश बढ़ने के कारण होती है। फलतः कक्षक कुछ छोटे हो जाते हैं। आप आगे के उपखंडों 2.6 .4 तथा 2.6 .5 में पढ़ेंगे कि बहु-इलेक्ट्रॉन परमाणुओं के कक्षकों की ऊर्जाएँ
परमाणु के क्वांटम यांत्रिकीय मॉडल के प्रमुख लक्षण
परमाणु का क्वांटम यांत्रिकीय मॉडल परमाणु-संरचना का वह चित्र है जो परमाणुओं पर श्रोडिंजर समीकरण लागू करने से प्राप्त होता है, परमाणु के क्वांटम यांत्रिकीय मॉडल के महत्त्वपूर्ण लक्षण निम्नलिखित हैं-1. परमाणुओं में इलेक्ट्रॉनों की ऊर्जा क्वांटित होती है (अर्थात् इसके केवल कुछ विशेष मान ही हो सकते हैं)। उदाहरण के लिए-जब परमाणुओं में इलेक्ट्रॉन नाभिक से बंधे होते हैं।
2. इलेक्ट्रॉनों के तरंग जैसे गुणों के कारण क्वांटित इलेक्ट्रॉनिक ऊर्जा-स्तरों का अस्तित्व होता है और श्रोडिंजर तरंग समीकरण के अनुमत हल होते हैं।
3. किसी परमाणु में इलेक्ट्रॉन की सही स्थिति तथा सही वेग को एक साथ ज्ञात नहीं किया जा सकता है (हाइज़ेनबर्ग अनिश्चितता सिद्धांत) अतः किसी परमाणु में इलेक्ट्रॉन के पथ को सुनिश्चित ज्ञात नहीं किया जा सकता है। इसीलिए हम परमाणु के विभिन्न बिंदुओं पर इलेक्ट्रॉन के होने की प्रायिकता (probability) की संकल्पना के बारे में बात करते हैं। इसके बारे में आप आगे पढ़ेंगे।
4. किसी परमाणु में इलेक्ट्रॉन के तरंग-फलन
2.6.1 कक्षक और क्वांटम संख्या
किसी परमाणु में कई कक्षक संभव होते हैं। गुणात्मक रूप में इन कक्षकों में उनके आकार, आकृति और अभिविन्यास के आधार पर अंतर किया जा सकता है। छोटे आकार के कक्षक का अर्थ यह है कि नाभिक के पास इलेक्ट्रॉन के पाए जाने की प्रायिकता अधिक है। इसी प्रकार, आकृति और अभिविन्यास यह बताते हैं कि इलेक्ट्रॉन पाए जाने की प्रायिकता किसी दूसरी दिशा की अपेक्षा एक दिशा में अधिक है। क्वांटम संख्याओं द्वारा परमाणु कक्षकों में अंतर किया जा सकता है। प्रत्येक कक्षक को तीन क्वांटम संख्याओं
मुख्य क्वांटम संख्या ’
आदि ) के लिए यह अकेले ही कक्षक के आकार तथा ऊर्जा को निर्धारित करता है। मुख्य क्वांटम संख्या से कोश (shell) का भी पता चलता है।
मुख्य क्वांटम संख्या भी बढ़ने के साथ कक्षा का आकार बढ़ता है। दूसरे शब्दों में, इलेक्ट्रॉन नाभिक से दूर स्थित होते हैं। चूँकि एक ॠणावेशित इलेक्ट्रॉन को धनावेशित नाभिक से दूर होने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, अतः
दिगंशीय क्वांटम संख्या ’
उदाहरणार्थ- जब
प्रत्येक कोश में एक या अधिक उपकोश (subshells) या उप-स्तर (sub-levels) होते हैं। किसी मुख्य कोश में उपकोशों की संख्या
उप-कोश के लिए
संकेतन (notation)
सारणी 2.4 में दी गई मुख्य क्वांटम संख्या के लिए
‘कक्षा’ तथा ‘कक्षक’ का अर्थ समान नहीं है। कक्षा (जिसे बोर ने प्रतिपादित किया) नाभिक के चारों ओर एक वृत्ताकार पथ होता है, जिसमें इलेक्ट्रॉन गति करता है। ‘हाइज़ेनबर्ग के अनिश्चितता सिद्धांत’ के अनुसार, इलेक्ट्रॉन के इस पथ का सही निर्धारण करना असंभव है। अतः बोर की कक्षाओं का कोई वास्तविक अर्थ नहीं है। इनके अस्तित्व को कभी भी प्रयोगों द्वारा दर्शाया नहीं जा सकता। इसके विपरीत कक्षक एक क्वांटम यांत्रिकीय धारणा है। यह परमाणु में किसी एक इलेक्ट्रॉन के तरंग-फलन
चुंबकीय कक्षक क्वांटम संख्या (magnetic orbital quantum number) ’
अतः
सारणी 2.4 उप-कोश संकेतन
उपकोश संकेतन | ||
---|---|---|
1 | 0 | |
2 | 0 | |
2 | 1 | |
3 | 0 | |
3 | 1 | |
3 | 2 | |
4 | 0 | |
4 | 1 | |
4 | 2 | |
4 | 3 |
किसी परमाणु में प्रत्येक कक्षक
0 | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | |
---|---|---|---|---|---|---|
उप-कोश संकेतन | ||||||
कक्षकों की संख्या | 1 | 3 | 5 | 7 | 9 | 11 |
इलेक्ट्रॉन प्रचक्रण ’
सन् 1925 में जॉर्ज उहलेनबैक (George Uhlenback) और सैमुअल गाउटस्मिट (Samuel Goudsmit) ने एक चौथी क्वांटम संख्या की उपस्थिति प्रतिपादित की, जो
‘इलेक्ट्रॉन-प्रचक्रण क्वांटम संख्या’
संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि चारों क्वांटम संख्याए निम्नलिखित जानकारियाँ देती हैं-
(i)
(ii)
(iii)
(iv) इलेक्ट्रॉन के प्रचक्रण के अभिविन्यास को
2.6.2 परमाणु कक्षकों की आकृतियाँ
किसी परमाणु में इलेक्ट्रॉन के कक्षक तरंग-फलन अथवा
[चित्र 2.12 (क)
जर्मन भौतिक विज्ञानी मेक्स बोर्न ने बताया कि किसी बिंदु पर तरंग-फलन का वर्ग (अर्थात्
चित्र 2.12 (क) कक्षकीय तरंग-फलन
कि
कक्षकों की आकृति को विभिन्न कक्षकों के लिए स्थिर प्रायिकता घनत्व वाले सीमा-सतह आरेखों (boundary surface diagrams) द्वारा काफी सही ढंग से प्रदर्शित किया जा सकता है। इस निरूपण में किसी कक्षक के लिए एक ऐसी परिसीमा-सतह या परिपृष्ठ (contour surface)
(क)
(ख)
को आरेखित किया जाता है, जिसपर प्रयिकता घनत्व
दो विमाओं में यह गोला एक वृत्त की तरह दिखाई देता है। इस गोले की परिसीमा के अंदर इलेक्ट्रॉन के पाए जाने की प्रायिकता
इस प्रकार
चित्र 2.14 में तीन
*यदि प्रायिकता घनत्व
चित्र 2.14 तीन
पाँच
त्रिज्य नोडों (अर्थात् जब प्रायिकता-घनत्व फलन शून्य हो) के अलावा
(क)
(ख)
(घ)
(ङ)
चित्र 2.15 पाँच
2.6.3 कक्षकों की ऊर्जाएँ
हाइड्रोजन परमाणु में इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा केवल मुख्य क्वांटम संख्या द्वारा निर्धारित होती है। अतः हाइड्रोजन परमाणु में कक्षकों की ऊर्जा निम्नलिखित क्रम में बढ़ती है:-
और इन्हें चित्र 2.16 में दर्शाया गया है। हालाँकि
(क) (ख)
चित्र 2.16 (क) हाइड्रोजन परमाणु और (ख) बहु-इलेक्ट्रॉनी परमाणुओं के कुछ इलेक्ट्रॉन कोशों के ऊर्जा-स्तर आरेख। ध्यान दीजिए कि हाइड्रोजन परमाणु के लिए समान मुख्य क्वांटम-संख्या हेतु भिन्न-भिन्न द्विगंशी क्वांटम संख्या होने पर भी उनकी ऊर्जा समान होती है। बहु-इलेक्ट्रॉन परमाणुओं में समान मुख्य क्वांटम संख्या वाले कक्षकों की ऊर्जा भिन्न द्विगंशी क्वांटम संख्या वाले कक्षकों के लिए भिन्न होती है।
समान ऊर्जा वाले कक्षकों को समभ्रंश (degenerate) कहा जाता है। जैसा पहले बताया गया है, हाइड्रोजन परमाणु में
हाइड्रोजन परमाणु के विपरीत एक बहु इलेक्ट्रॉन परमाणु के इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा केवल अपनी मुख्य क्वांटम संख्या (कोश) पर ही नहीं, बल्कि कक्षक क्वांटम संख्या (उप-कोश) पर भी निर्भर करती है। अर्थात् दी गई मुख्य क्वांटम संख्या के लिए
की ऊर्जा का यह क्रम लड़खड़ा सकता है उदाहरण हैं
आकर्षण एवं प्रतिकर्षण, दोनों अन्योन्य क्रियाएं कोश के आकार तथा उसमें उपस्थित कक्षक की आकृति (जिसमें इलेक्ट्रॉन उपस्थित है) पर निर्भर करती हैं। उदाहरण के लिए- गोलाकार आकृति के कारण,
किया
2.6.4 परमाणु में कक्षकों का भरा जाना
विभिन्न परमाणुओं के कक्षकों में इलेक्ट्रॉन ऑफबाऊ नियम के अनुसार भरे जाते हैं। ‘ऑफबाऊ नियम’, पाउली अपवर्जन सिद्धांत (Pauli’s exclusion principle), हुंड के अधिकतम बहुकता नियम (Hund’s maximum multiplicity rule) और कक्षकों की आपेक्षिक ऊर्जाओं पर आधारित है।
ऑफबाऊ नियम
ज़र्मन भाषा में ‘ऑफबाऊ’ शब्द का अर्थ है- ‘निर्माण होना’ ‘कक्षकों का निर्माण’ होने का अर्थ है- कक्षकों का इलेक्ट्रॉनों द्वारा भरा जाना। इस नियम के अनुसार- ‘परमाणुओं की तलस्थ अवस्था में, कक्षकों को उनकी ऊर्जा के बढ़ते क्रम में भरा जाता है।
सारणी
दूसरे शब्दों में- इलेक्ट्रॉन पहले सबसे कम ऊर्जा वाले उपलब्ध कक्षक में जाते हैं और उनको भरने के बाद उच्च ऊर्जा वाले कक्षकों को भरते हैं। आप यह जान चुके हैं कि किसी कक्षक की ऊर्जा प्रभावी नाभिक आवेश पर निर्भर करती है और विभिन्न प्रकार के कक्षकों पर इसका परिमाण भिन्न होता है। इसलिए ऐसा कोई भी एक क्रम नहीं है जो सभी परमाणुओं के लिए सही हो। तथापि कक्षकों की ऊर्जा का निम्नलिखित बढ़ता क्रम, अर्थात् उनको भरे जाने का क्रम अत्यंत उपयोगी है-
इस क्रम को चित्र 2.17 में दिखाई गई विधि द्वारा याद किया जा सकता है। सबसे ऊपर से शुरू करते हुए तीर की दिशा कक्षकों के भरने का क्रम दर्शाती है। बाहय संयोजकता इलेक्ट्रॉनों के लिए यह क्रम सभी परमाणुओं के लिए असाधारण रूप से सही है। उदाहरण के लिए पोटेशियम में संयोजकता इलेक्ट्रॉन के लिए
चित्र 2.17 कक्षकों को भरने का क्रम
है और परमाणु की संरचना में हल्का-सा परिवर्तन कक्षकों के भरने के क्रम में परिवर्तन ला सकता है। यह होते हुए भी उपरोक्त क्रम परमाणु की इलेक्ट्रॉनी संरचना लिखने के लिए एक उपयोगी मार्गदर्शक है यदि यह याद रखा जाए कि इसमें अपवाद हो सकते हैं।
पाउली अपवर्जन सिद्धांत
विभिन्न कक्षकों में भरे जाने वाले इलेक्ट्रॉनों की संख्या अपवर्जन सिद्धांत द्वारा नियंत्रित होती है, जिसे ऑस्ट्रिया के वॉल्फगंग पाउली नामक एक वैज्ञानिक ने दिया था। इस सिद्धांत के अनुसार-
किसी परमाणु में उपस्थित दो इलेक्ट्रॉनों की चारों क्वांटम संख्याएँ एक समान नहीं हो सकतीं। पाउली अपवर्जन सिद्धांत को इस प्रकार भी कहा जा सकता है-
“केवल दो इलेक्ट्रॉन एक कक्षक में रह सकते हैं। इन इलेक्ट्रॉनों के प्रचक्रण विपरीत होने चाहिए।” इसका अर्थ है कि दो इलेक्ट्रॉनों की तीन क्वांटम संख्याएँ,
मुख्य क्वांटम संख्या
हुंड का अधिकतम बहुकता का नियम
यह नियम एक ही उप-कोश से संबंधित कक्षकों को भरने के लिए लागू किया जाता है। इन कक्षकों की ऊर्जा बराबर होती है। उन्हें ‘समभ्रंश कक्षक’ (degenerate orbitals) कहते हैं। यह नियम इस प्रकार है: एक ही उप-कोश के कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों का युग्मन तब तक नहीं होता है, जब तक उस उप-कोश के सभी कक्षकों में एक-एक इलेक्ट्रॉन न आ जाए।
क्योंकि तीन
2.6.5 परमाणुओं का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास
परमाणुओं के कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों के वितरण को उनका इलेक्ट्रॉनिक विन्यास (electronic configuration) कहा जाता है। यदि विभिन्न परमाणु कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों के भरे जाने से संबंधित मूल नियमों को ध्यान में रखा जाए, तो विभिन्न परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनिक विन्यासों को आसानी से लिखा जा सकता है।परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास को दो तरीके से निरूपित किया जा सकता है। वे हैं-
(i)
पहले संकेतन में उप-कोश को संगत अक्षर चिह्न से निरूपित किया जाता है और उप-कोश में उपस्थित इलेक्ट्रॉनों की संख्या को मूर्धांक
विभेदन उसके संगत उप-कोश के सामने मुख्य क्वांटम संख्या को लिखकर किया जाता है। दूसरे संकेतन में उप-कोश के प्रत्येक कक्षक को एक बॉक्स द्वारा दर्शाया जाता है और इलेक्ट्रॉन के धन-प्रचक्रण को
हाइड्रोजन परमाणु में केवल एक ही इलेक्ट्रॉन होता है, जो सबसे कम ऊर्जा वाले कक्षक में जाता है, जिसे
लीथियम (Li) का तीसरा इलेक्ट्रॉन पाउली अपवर्जन सिद्धांत के कारण
अगले छः तत्त्वों में
बोरॉन (B,
कार्बन (C,
नाइट्रोजन (
ऑक्सीजन (
फ्लुओरीन (
निऑन
सोडियम
तत्त्व के नाम से निरूपित किया जाए। सोडियम से ऑर्गन तक के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास को ऐसे लिखा जा सकता है
स्केंडियम से प्रारंभ करने पर एक नया लक्षण दिखाई देता है।
आप यह पूछ सकते हैं कि आखिर इन विन्यासों को जानने से क्या लाभ होगा? आधुनिक रसायन विज्ञान के अध्ययन में रासायनिक व्यवहार को समझने और उसकी व्याख्या करने में इलेक्ट्रॉनिक विन्यास को ही आधार माना जाता है। उदाहरण के लिए कुछ प्रश्नों, जैसे- दो या दो से अधिक परमाणु मिलकर अणु क्यों बनाते हैं,? कोई तत्त्व धातु अथवा अधातु क्यों होता है?
2.6.6 पूर्णरूपेण पूरित एवं अर्धपूरित उप-कोशों का स्थायित्व
किसी तत्त्व का तलस्थ अवस्था इलेक्ट्रॉनिक विन्यास उसकी न्यूनतम ऊर्जा से संबंधित अवस्था होती है। अधिकांश परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास भाग 2.6 .5 में दिए मूलभूत नियमों का अनुसरण करते हैं। परंतु कुछ तत्त्वों (जैसे-
अर्धपूरित तथा पूर्णपूरित उप-कोशों के स्थायित्व के कारण
पूर्णपूरित तथा अर्धपूरित उपकोशों के स्थायित्व के कारण निम्नलिखित हैं-
- इलेक्ट्रॉनों का सममित वितरण : यह भली-भाँति विदित है कि सममिति स्थायित्व प्रदान करती है। पूर्णतः भरे हुए या अर्धपूरित उपकोशों में इलेक्ट्रॉनों का वितरण सममित होता है। अतः ये अधिक स्थायी होते हैं। एक ही उपकोश में (यहाँ
इलेक्ट्रॉन 1 द्वारा 4 विनिमय
इलेक्ट्रॉन 2 द्वारा 3 विनिमय
इलेक्ट्रॉन 3 द्वारा 2 विनिमय
चित्र
सारणी 2.6 तत्वों के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास
*असामान्य इलेक्ट्रॉनिक विन्यास वाले तत्व
तत्त्व | |||||||||||||||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
55 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 1 | |||||||
56 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 2 | |||||||
57 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 1 | 2 | ||||||
Ce* | 58 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 2 | 2 | 6 | 2 | |||||
Pr | 59 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 3 | 2 | 6 | 2 | |||||
60 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 4 | 2 | 6 | 2 | ||||||
61 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 5 | 2 | 6 | 2 | ||||||
62 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 6 | 2 | 6 | 2 | ||||||
63 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 7 | 2 | 6 | 2 | ||||||
64 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 7 | 2 | 6 | 1 | 2 | |||||
65 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 9 | 2 | 6 | 2 | ||||||
Dy | 66 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 10 | 2 | 6 | 2 | |||||
Но | 67 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 11 | 2 | 6 | 2 | |||||
68 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 12 | 2 | 6 | 2 | ||||||
69 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 13 | 2 | 6 | 2 | ||||||
70 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 2 | ||||||
Lu | 71 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 1 | 2 | ||||
Hf | 72 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 2 | 2 | ||||
73 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 3 | 2 | |||||
W | 74 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 4 | 2 | ||||
75 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 5 | 2 | |||||
Os | 76 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 6 | 2 | ||||
77 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 7 | 2 | |||||
78 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 9 | 1 | |||||
79 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 1 | |||||
80 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | |||||
81 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 1 | ||||
82 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 2 | ||||
83 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 3 | ||||
Po | 84 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 4 | |||
At | 85 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 5 | |||
86 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | ||||
Fr | 87 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 1 | ||
88 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 2 | |||
Ac | 89 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 1 | 2 | |
Th | 90 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 2 | 2 | |
91 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 2 | 2 | 6 | 1 | 2 | |
92 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 3 | 2 | 6 | 1 | 2 | |
93 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 4 | 2 | 6 | 1 | 2 | |
94 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 6 | 2 | 6 | 2 | ||
Am | 95 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 7 | 2 | 6 | 2 | |
96 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 7 | 2 | 6 | 1 | 2 | |
Bk | 97 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 8 | 2 | 6 | 1 | 2 |
98 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 10 | 2 | 6 | 2 | ||
Es | 99 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 11 | 2 | 6 | 2 | |
100 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 12 | 2 | 6 | 2 | ||
101 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 13 | 2 | 6 | 2 | ||
No | 102 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 2 | |
Lr | 103 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 1 | 2 |
104 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 10 | 2 | 6 | 2 | 2 | |
105 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 11 | 2 | 6 | 3 | 2 | |
106 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 12 | 2 | 6 | 4 | 2 | |
107 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 13 | 2 | 6 | 5 | 2 | |
108 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 6 | 2 | |
Mt | 109 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 7 | 2 |
Ds | 110 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 8 | 2 |
111 | 2 | 2 | 6 | 2 | 6 | 10 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 14 | 2 | 6 | 10 | 1 |
** 112 तथा उससे अधिक परमाणु-संख्या वाले तत्त्व ज्ञात हैं, परंतु इनका इलेक्ट्रॉनिक विन्यास यहां नहीं दिया गया है।
सारांश
परमाणु तत्त्वों के रचनात्मक भाग होते हैं। ये तत्त्व के ऐसे छोटे भाग हैं, जो रासायनिक क्रिया में भाग लेते हैं। प्रथम परमाणु सिद्धांत, जिसे जॉन डॉल्टन ने सन् 1808 में प्रतिपादित किया, के अनुसार परमाणु पदार्थ के ऐसे सबसे छोटे कण होते हैं, जिन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित हो गया कि परमाणु विभाज्य है तथा वह तीन मूल कणों (इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन) द्वारा बना होता है। इन अव-परमाणविक कणों की खोज के बाद परमाणु की संरचना को स्पष्ट करने के लिए बहुत से परमाणु मॉडल प्रस्तुत किए गए।
सन् 1898 में थॉमसन ने कहा कि परमाणु एक समान धनात्मक विद्युत् आवेश वाला एक गोला होता है, जिस पर इलेक्ट्रॉन उपस्थित होते हैं। वह मॉडल, जिसमें परमाणु का द्रव्यमान पूरे परमाणु पर एक समान वितरित माना गया था, सन् 1909 में रदरफोर्ड के महत्त्वपूर्ण
सन् 1926 में इरविन श्रोडिंजर ने एक समीकरण दिया, जिसे ‘श्रोडिंजर समीकरण’ कहा जाता है। इसके द्वारा त्रिविम में इलेक्ट्रॉन के वितरण और परमाणुओं में अनुमत ऊर्जा स्तरों का वर्णन किया जा सकता है। यह समीकरण न केवल दे ब्रॉग्ली के तरंग-कण वाले दोहरे लक्षण की संकल्पना को ध्यान में रखता है, बल्कि हाइज़ेनबर्ग के ‘अनिश्चितता सिद्धांत’ के भी संगत है। जब इस समीकरण को हाइड्रोजन परमाणु में इलेक्ट्रॉन के लिए हल किया गया, तो इलेक्ट्रॉन के संभव ऊर्जा-स्तरों और संगत तरंग फलनों (जो गणितीय फलन होते हैं) के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। ये क्वांटित ऊर्जा-स्तर और उनके संगत तरंग-फलन जो तीन क्वांटम संख्याओं- मुख्य क्वांटम संख्या
परमाणु के क्वांटम यांत्रिकीय मॉडल के अनुसार बहु-इलेक्ट्रॉन परमाणुओं के इलेक्ट्रॉन-वितरण को कई कोशों में बाँटा गया है। ये कोश एक या अधिक उप-कोशों के बने हुए हो सकते हैं तथा इन उप-कोशों में एक या अधिक कक्षक हो सकते हैं, जिनमें इलेक्ट्रॉन उपस्थित होता है। हाइड्रोजन और हाइड्रोजन जैसे निकायों (उदाहरणार्थ-
परमाणु में ऐसे कई कक्षक संभव होते हैं, तथा उनमें ऊर्जा के बढ़ते क्रम में इलेक्ट्रॉन पाउली के अपवर्जन सिद्धांत (किसी परमाणु में किन्हीं दो इलेक्ट्रॉनों की चारों क्वांटम-संख्या का मान समान नहीं हो सकता है) और हुंड के अधिकतम बहुकता नियम (एक उपकोश के कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों का युग्मन तब तक प्रारंभ नहीं होता, जब तक प्रत्येक कक्षक में एक-एक इलेक्ट्रॉन न आ आए) के आधार पर भरे जाते हैं। परमाणुओं की इलेक्ट्रॉनिक संरचना इन्हीं विचारों पर आधारित है।