जनन स्वास्थ्य
पिछले अध्याय में आपने जनन तंत्र (रिप्रोडक्टिव)और उसके प्रकार्यों के बारे में पढ़ा था। अब उससे जुड़े निकट शीर्षक अर्थात् जनन-स्वास्थ्य के बारे में चर्चा करेंगे। हम जनन स्वास्थ्य शब्द से क्या तात्पर्य समझते हैं? यह शब्द साधारणतः स्वस्थ जनन अंगों और उसके सामान्य प्रकार्यों से संबंधित है। वस्तुतः यह एक व्यापक परिप्रेक्ष्य को दर्शाता है, जिसके अंतर्गत जनन के भावनात्मक एवं सामाजिक पहलू जुड़े हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन-डब्ल्यू एच ओ) के अनुसार जनन स्वास्थ्य का अर्थ — जनन के सभी पहलुओं सहित एक संपूर्ण स्वास्थ्य अर्थात् शारीरिक, भावनात्मक, व्यवहारात्मक तथा सामाजिक स्वास्थ्य है। इसलिए, ऐसे समाज को जननात्मक रूप से स्वस्थ समाज कहा जा सकता है, जिसमें लोगों के जनन अंग शारीरिक रूप से और प्रकार्यात्मक रूप से सामान्य हों। यौन संबंधी सभी पहलुओं में जिनकी भावनात्मक और व्यावहारिक पारस्परिक क्रियाएँ सामान्य हों-जनन स्वास्थ्य को बेहतर बनाए रखने का क्या महत्त्व है और इसे पाने के लिए कौन सी विधियाँ अपनानी चाहिए? आइए, जाँच करें।
3.1 जनन स्वास्थ्य-समस्याएँ एवं कार्यनीतियाँ
विश्व में भारत ही पहला ऐसा देश था जिसने राष्ट्रीय स्तर पर संपूर्ण जनन-स्वास्थ्य को एक लक्ष्य के रूप में प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय
कार्ययोजना और कार्यक्रमों की शुरूआत की। इन कार्यक्रमों को ‘परिवार नियोजन’ (अब परिवार कल्याण) के नाम से जाना जाता है और इनकी शुरूआत 1951 में हुई थी। पिछले दशकों में समय-समय पर इनका आवधिक मूल्यांकन भी किया गया। जनन संबंधित और आवधिक क्षेत्रों को इसमें सम्मिलित करते हुए बहुत उन्नत व व्यापक कार्यक्रम फिलहाल ‘जनन एवं बाल स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम (आर सी एच)’ के नाम से प्रसिद्ध है। इन कार्यक्रमों के अंतर्गत जनन संबंधी विभिन्न पहलुओं के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करते हुए और जननात्मक रूप से स्वस्थ समाज तैयार करने के लिए अनेक सुविधाएँ एवं प्रोत्साहन दिए जा रहे हैं।
श्रव्य तथा दृश्य (ओडिओ-विजुअल) और मुद्रित सामग्री की सहायता से सरकारी एवं गैर सरकारी संगठन जनता के बीच जनन-संबंधी पहलुओं के प्रति जागरूकता पैदा करने कि लिए विभिन्न उपाय कर रहे हैं। उपर्युक्त सूचनाओं को प्रसारित करने में माता-पिता, अन्य निकट संबंधी, शिक्षक एवं मित्रों की भी प्रमुख भूमिका है। विद्यालयों में यौन शिक्षा की पढ़ाई को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, ताकि युवाओं को सही जानकारी मिल सके और बच्चे यौन संबंधी विभिन्न पहलुओं के बारे में फैली भ्रांतियों पर विश्वास न करें और उन्हें यौन संबंधी गलत धारणाओं से छुटकारा मिल सके। लोगों को जनन-अंगों, किशोरावस्था एवं उससे संबंधित परिवर्तनों, सुरक्षित और स्वच्छ यौन-क्रियाओं, यौन संचारित रोगों एवं एड्स के बारे में जानकारी, विशेषरूप से किशोर आयुवर्ग में जनन संबंधी स्वस्थ जीवन बिताने में सहायक होती है। लोगों को शिक्षित करना, विशेषरूप से जनन क्षम जोड़ी तथा वे लोग जिनकी आयु विवाह योग्य है, उन्हें उपलब्ध जन्म नियंत्रक (गर्भनिरोधक) विकल्पों तथा गर्भवती माताओं की देखभाल, माँ और बच्चे की प्रसवोत्तर (पोस्टनेटल) देखभाल आदि के बारे में तथा स्तनपान के महत्त्व, लड़का या लड़की को समान महत्त्व एवं समान अवसर देने की जानकारियों आदि से जागरूक स्वस्थ परिवारों का निर्माण होगा। अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि से होने वाली समस्याओं तथा सामाजिक उत्पीड़नों जैसे कि यौन दुरूपयोग एवं यौन संबंधी अपराधों आदि के बारे में जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है; ताकि लोग इन्हें रोकने एवं जननात्मक रूप से जिम्मेदार एवं सामाजिक रूप से स्वस्थ समाज तैयार करने के बारे में विचार करें और आवश्यक कदम उठाएँ।
जनन स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए विभिन्न कार्ययोजनाओं के सफलतापूर्वक क्रियान्वयन के लिए मजबूत संरचनात्मक सुविधाओं, व्यावसायिक विशेषज्ञता, तथा भरपूर भौतिक सहारों की आवश्यकता होती है। लोगों को जनन संबंधी समस्याओं जैसे कि सगर्भता, प्रसव, यौन संचारित रोगों, गर्भपात, गर्भनिरोधकों, ऋतुस्राव (माहवारी) संबंधी समस्याओं, बंध्यता (बाँझपन) आदि के बारे में चिकित्सा सहायता एवं देखभाल उपलब्ध कराना आवश्यक है। समय-समय पर बेहतर तकनीकों और नई कार्यनीतियों को क्रियान्वित करने की भी आवश्यकता है; ताकि लोगों की अधिक सुचारू रूप से देखभाल और सहायता की जा सके। बढ़ती मादा भ्रूण हत्या की कानूनी रोक के लिए उल्बवेधन (ऐमीनोसैंटैसिस) जाँच लिंग परीक्षण पर वैधानिक प्रतिबंध तथा व्यापक बाल प्रतिरक्षीकरण (टीका) आदि कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों को भी शामिल किया गया है। एमीनो सेंटैसिस में एमनीओटिक द्रव्य में घुले पदार्थों व विकासशील भ्रूण की कोशिकाओं का विश्लेषण किया जाता है।
इस विधि से भ्रूण में होने वाले विभिन्न आनुवांशिक विकार जैसे डाउन सिंड्रोम, हीमोफीलिया, सिकल सैन एनीमिया आदि की उपस्थिति का पता लगाया जाता है तथा जनन संबंधित विभिन्न क्षेत्रों पर अनुसंधान को बढ़ावा दिया जाता है। सरकारी तथा गैर सरकारी एजेंसियाँ नई विधियाँ तलाशने या विद्यमान को ही बेहतर बनाने का काम करती हैं। क्या आप जानते हैं कि ‘सहेली’ नामक गर्भ-निरोधक गोली की खोज भारत में लखनऊ के केंद्रीय औषध अनुसंधान संस्थान (सेंट्रल ड्रग रिसर्च इन्स्टीट्यूट- सी डी आर आई) ने की है।
यौन संबंधित मामलों के बारे में बेहतर जागरूकता, अधिकाधिक संख्या में चिकित्सा सहायता प्राप्त प्रसव तथा बेहतर प्रसवोत्तर देखभाल से मातृ एवं शिशु मृत्युदर में गिरावट आई है। लघु परिवार वाले जोड़ों की संख्या बढ़ी है। यौन संचारित रोगों की सही जाँच-पड़ताल तथा देखभाल और कुल मिलाकर सभी यौन समस्याओं हेतु बढ़ी हुई चिकित्सा सुविधाओं का होना आदि समाज के बेहतर जनन स्वास्थ्य की ओर संकेत देते हैं।
3.2 जनसंख्या स्थायीकरण और जन्म नियंत्रण
पिछली शताब्दी में, किए गए विभिन्न क्षेत्रों में चहुँमुखी विकास से लोगों के जीवन स्तर में महत्त्वपूर्ण रूप से सुधार हुआ है। हालाँकि, बेहतर जीवन दशाओं के साथ व्यापक स्वास्थ्य सुविधाएँ जनसंख्या वृद्धि में विस्फोटक प्रभाव डालती हैं। सन् 1900 ई. में पूरे विश्व की जनसंख्या लगभग 2 अरब ( 2000 मिलियन) थी जो सन् 2000 ई. तेजी से बढ़कर 6 अरब ( 6000 मिलियन) हो गई तथा 2011 में 7.2 अरब पाई गई। ठीक यही प्रवृत्ति भारत में भी देखी गई। हमारी जनसंख्या; जो देश की आजादी के समय लगभग 350 मिलियन अर्थात् 35 करोड़ थी; वह सन् 2000 ई. में तीव्र जनसंख्या दर से एक अरब अर्थात् 1000 बिलियन से ऊपर पहुँच गई तथा 2011 मे 1.2 बिलियन हो गई। इसका मतलब है कि आज दुनिया का हर छठा आदमी भारतीय है। इस सबका कारण संभवतः मृत्युदर में तीव्र गिरावट तथा मातृ मृत्युदर एवं शिशु मृत्युदर (इनफैंट मोर्टलिटी रेट) में कमी के साथ-साथ जनन आयु के लोगों की संख्या में वृद्धि हो रही है। हालाँकि हमने अपने जनन एवं बाल स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम के माध्यम से, इस जनसंख्या वृद्धि दर में कमी तो की; लेकिन यह कमी नाममात्र की हुई। 2001 ई. की जनगणना के अनुसार यह वृद्धि लगभग 2 प्रतिशत अर्थात् प्रति 1000 में 20 व्यक्ति प्रतिवर्ष थी। यद्यपि इस वृद्धि दर से हमारी जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। इस प्रकार की चेतावनीपूर्ण वृद्धि दर से मूलभूत आवश्यकताओं का नितांत अभाव हो सकता है; जैसे कि अन्न, आवास, कपड़े आदि। हमने भले ही इन मदों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति भी की है। इसलिए सरकार पर यह दबाव था कि इस प्रकार की जनसंख्या वृद्धि दर को काबू में रखने के लिए गंभीर उपाय अपनाए जाएँ।
इस प्रकार की समस्या से निपटने के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपाय यह था कि लघु परिवार को बढ़ावा देने हेतु गर्भनिरोधक उपाय अपनाने के लिए प्रेरित किया जाए। आपने शायद संचार माध्यमों में विज्ञापनों के साथ-साथ सुखी परिवार को प्रदर्शित करते हुए पोस्टर एवं पर्चे भी देखे होंगे; जहाँ एक खुशहाल जोड़े के साथ दो बच्चों का परिवार ‘हम दो हमारे दो’ नारे के साथ प्रदर्शित किया जाता है। बहुत सारे जोड़ों ने, विशेषरूप से शहरों
के काम-काजी युवा दंपतियों ने ‘हम दो हमारा एक’ का नारा अपनाया है। विवाह की वैधानिक आयु स्त्री के लिए 18 वर्ष तथा पुरुष के लिए 21 वर्ष सुनिश्चित है और इस समस्या से निपटने हेतु लघु परिवार के लिए जोड़ों को प्रोत्साहित किया जाता है। आइए! यहाँ पर कुछ सामान्य तौर पर इस्तेमाल होने वाले गर्भ निरोधकों के बारे में चर्चा करें।
एक आदर्श गर्भ निरोधक प्रयोगकर्ता के हितों की रक्षा करने वाला आसानी से उपलब्ध, प्रभावी तथा जिसका कोई अनुषंगी प्रभाव या दुष्प्रभाव नहीं हो या हो भी तो कम से कम। इसके साथ ही यह उपयोगकर्ता की कामेच्छा, प्रेरणा तथा मैथुन में बाधक न हो। आजकल व्यापक परिधि के गर्भ निरोधक साधन जैसे कि आसानी से उपलब्ध हैं; उन्हें मोटे तौर पर निम्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे प्राकृतिक/परंपरागत, रोध (बैरियर), आईयूडीज (कापर टी) मुँह से लेने योग्य गर्भ निरोधक, टीका रूप में, अंतर्रोप तथा शल्य क्रियात्मक विधियाँ।
प्राकृतिक विधियाँ — ये विधियाँ अंडाणु (ओवम) एवं शुक्राणु के संगम को रोकने के सिद्धांत पर कार्य करती हैं। इनमें से एक उपाय आवधिक संयम है जिसमें एक दंपति माहवारी चक्र के 10 वें से 17 वें दिन के बीच की अवधि, के दौरान मैथुन से बचते हैं जिसे अंडोत्सर्जन की अपेक्षित अवधि मानते हैं। इस अवधि के दौरान निषेचन एवं उर्वर (गर्भधारण) के अवसर बहुत अधिक होने के कारण इसे निषेच्य अवधि भी कहा जाता है। इस तरह से, इस दौरान मैथुन (सहवास) न करने पर गर्भाध न से बचा जा सकता है। बाह्य स्खलन या अंतरित मैथुन (कोइटस इन्ट्रप्सन) एक अन्य विधि है जिसमें पुरुष साथी संभोग के दौरान वीर्य स्खलन से ठीक पहले स्त्री की योनि से अपना लिंग बाहर निकाल कर
चित्र 3.1 ( अ ) पुरूष के लिए कंडोम वीर्यसेचन से बच सकता है। स्तनपान अनार्तव ( लैक्टेशनल एमेनोरिया ) विधि भी इस तथ्य पर निर्भर करती है कि प्रसव के बाद, स्त्री द्वारा शिशु को भरपूर स्तनपान कराने के दौरान अंडोत्सर्ग और आर्तव चक्र शुरू नहीं होता है। इसलिए जितने दिनों तक माता शिशु को पूर्णतः स्तनपान कराना जारी रखती है (इस दौरान शिशु को माँ के दूध के अलावा, ऊपर से पानी या अतिरिक्त दूध भी नहीं दिया जाना चाहिए। यह अवधि 4-6 माह की होती है), गर्भधारण के अवसर लगभग शून्य होते हैं। यह विधि प्रसव के बाद ज्यादा से ज्यादा 6 माह की अवधि तक ही कारगर मानी गई है।
चित्र 3.1 ( ब ) स्त्री के लिए कंडोम
चूँकि उपर्युक्त विधियों में किसी दवा या साधन का उपयोग नहीं होता, अतः इसके दुष्प्रभाव लगभग शून्य के बराबर हैं। हालाँकि, इसके असफल रहने की दर काफी अधिक है।
रोध (बैरियर) विधियों के अंतर्गत रोधक साधनों के माध्यम से अंडाणु और शुक्राणु को भौतिक रूप से मिलने से रोका जाता है। इस प्रकार के उपाय पुरुष एवं स्त्री, दोनों के लिए उपलब्ध हैं। कंडोम (निरोध) (चित्र 3.1 अ और ब) आदि रोधक उपाय हैं जिन्हें पतली रबर या लेटेक्स से बनाया जाता है ताकि इस के उपयोग से पुरुष के लिंग या स्त्री की योनि एवं गर्भाशय ग्रीवा को संभोग से ठीक पहले, ढक दिया जाए और स्खलित शुक्राणु स्त्री के जननमार्ग में नहीं घुस सके। यह गर्भाधान को बचा सकता है।
चित्र 3.2 कॉपर टी पुरुषों के लिए कंडोम का मशहूर ब्रांड नाम - ‘निरोध’ काफी लोकप्रिय है। हाल ही के वर्षों में कंडोम के उपयोग में तेजी से वृद्धि हुई है, क्योंकि इससे गर्भधारण के अलावा यौन संचारित रोगों तथा एड्स से बचाव जैसे अतिरिक्त लाभ हैं। स्त्री एवं पुरुष दोनों के ही कंडोम उपयोग के बाद फेंकने वाले होते हैं। इन्हें स्वयं ही लगाया जा सकता है और इस तरह उपयोगकर्ता की गोपनीयता बनी रहती है। डायाफ्रॉम, गर्भाशय ग्रीवा टोपी तथा वॉल्ट आदि भी रबर से बने रोधक उपाय हैं। जो स्त्री के जनन मार्ग में सहवास के पूर्व गर्भाशय ग्रीवा को ढकने के लिए लगाए जाते हैं। ये गर्भाशय ग्रीवा को ढक कर शुक्राणुओं के प्रवेश को रोककर गर्भाधान से छुटकारा दिलाते हैं। इन्हें पुनः इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके साथ ही इन रोधक साधनों के साथ-साथ शुक्राणुनाशक क्रीम, जेली एवं फोम (झाग) का प्रायः इस्तेमाल किया जाता है, जिससे इनकी गर्भनिरोध क क्षमता काफी बढ़ जाती है।
भारत में दूसरी प्रभावी और लोकप्रिय विधि अंतः गर्भाशयी युक्ति
(इन्ट्रा यूट्राइन डिवाइस-आई यू डी) का उपयोग है। ये युक्तियाँ डॉक्टरों या अनुभवी नर्सों द्वारा योनि मार्ग से गर्भाशय में लगाई जाती हैं। आजकल विभिन्न प्रकार की अंतः गर्भाशयी युक्तियाँ उपलब्ध हैं जैसे कि औषधिरहित आई यू डी (उदाहरण लिप्पेस लूप), ताँबा मोचक आई यू डी (कॉपर-टी, कॉपर-7 मल्टीलोड 375 कॉपर टी) तथा हॉर्मोन मोचक आई यू डी (प्रोजेस्टासर्ट, एल एन जी-20) आदि (चित्र 3.2)। आई यू डी गर्भाशय के अंदर कॉपर (सी यू) का आयन मोचित होने के कारण शुक्राणुओं की भक्षकाणुक्रिया (फैगोसाइटोसिस) बढ़ा देती हैं जिससे शुक्राणुओं की गतिशीलता तथा उनकी निषेचन क्षमता को कम करती हैं। इसके अतिरिक्त आइ यू डी हॉर्मोन को गर्भाशय में भ्रूण के रोपण के लिए अनुपयुक्त बनाते तथा गर्भाशय ग्रीवा को शुक्राणुओं का विरोधी बनाते हैं। जो औरतें गर्भावस्था में देरी या बच्चों के जन्म में अंतराल चाहती हैं, उनके लिए आई यू डी आदर्श गर्भनिरोधक हैं। भारत में गर्भनिरोध की यह विधियाँ व्यापक रूप से प्रचलित हैं।
महिलाओं के द्वारा खाया जाने वाला एक अन्य गर्भनिरोधक प्रोजेस्टोजन अथवा प्रोजेस्टोजन और एस्ट्रोजन का संयोजन है जिसे थोड़ी मात्रा में मुँह द्वारा लिया जाता है। यह मुँह से टिकिया के रूप में ली जाती हैं और ये ‘गोलियों’ (पिल्स) के नाम से लोकप्रिय हैं। ये गोलियाँ 21 दिन तक प्रतिदिन ली जाती हैं और इन्हें आर्तव चक्र (माहवारी) के प्रथम पाँच दिनों, मुख्यतः पहले दिन से ही शुरू करनी चाहिए। गोलियाँ समाप्त होने के सात दिनों के अंतर के बाद (जब पुनः ऋतुस्राव शुरू होता है), इसे फिर से वैसे ही लिया जाता है और यह क्रम तब तक जारी रहता है जब तक गर्भनिरोध की आवश्यकता होती है। ये अंडोत्सर्जन और रोपण को संदमित करने के साथ-साथ गर्भाशय ग्रीवा की श्लेष्मा की गुणता को भी बदल देती हैं जिससे शुक्राणुओं के प्रवेश पर रोक लग जाती है अथवा उनकी गति मंद हो जाती है। यह गोलियाँ बहुत ही प्रभावशाली तथा बहुत कम दुष्प्रभाव वाली होती हैं तथा औरतों द्वारा यह खूब स्वीकार्य हैं। सहेली नामक नयी
गर्भनिरोधक गोली, जिसके बारे में पहले भी चर्चा हुई है, एक गैर-स्टेरॉइडली सामग्री है। यह ‘हफ्ते में एक बार’ ली जाने वाली गोली है। इसके दुष्प्रभाव बहुत कम तथा यह उच्च निरोधक क्षमता वाली है।
स्त्रियों द्वारा प्रोजेस्टोजन अकेले या फिर एस्ट्रोजन के साथ इसका संयोजन भी टीके या त्वचा के नीचे अंतर्रोप (इंप्लांट) के रूप में किया जा सकता है (चित्र 3.3)। इसके कार्य की विधि ठीक गर्भनिरोधक गोलियों की भाँति होती है तथा काफी लंबी अवधि के लिए प्रभावशाली होते हैं। मैथुन के 72 घंटे के भीतर ही प्रोजेस्टोजन या प्रोजेस्टोजन-एस्ट्रोजन संयोजनों का प्रयोग या आई यू डी के उपयोग को आपातकालिक
चित्र 3.3 अंतर्रोप गर्भनिरोधक के रूप में बहुत ही प्रभावी पाया गया है और इन्हें बलात्कार या सामान्य (लापरवाहीपूर्ण) असुरक्षित यौन संबंधों के कारण होने वाली संभावित सगर्भता से बचने के लिए लिया जा सकता है।
शल्यक्रिया विधियाँ जिन्हें बंध्यकरण भी कहते हैं; प्रायः उन लोगों के लिए सुझाई जाती हैं, जिन्हें आगे गर्भावस्था नहीं चाहिए तथा वे इसे स्थाई माध्यम के रूप में (पुरुष/स्त्री में से एक) अपनाना चाहते हैं। शल्यक्रिया की दखलंदाजी से युग्मक परिवहन (संचार) रोक दिया जाता है; फलतः गर्भाधान नहीं होता है। बंध्यकरण प्रक्रिया को पुरुषों के लिए ‘शुक्रवाहक-उच्छेदन (वासैक्टोमी)’, तथा महिलाओं के लिए डिंबवाहिनी (फैलोपी) ‘नलिका उच्छेदन (टूबैक्टोमी)’ कहा जाता है। जनसाधारण इन क्रियाओं को ‘पुरुष या महिला नसबंदी’ के नाम से जानते हैं, शुक्रवाहक-उच्छेदन में अंडकोष (इस्क्रोटम) शुक्रवाहक में चीरा मारकर छोटा सा भाग काटकर निकाल अथवा बांध दिया जाता है ( 3.4 अ) जबकि स्त्री के उदर में छोटा सा चीरा मारकर अथवा योनि द्वारा डिंबवाहिनी नली का छोटा सा भाग निकाल या बाँध दिया जाता है। यह तकनीकें बहुत ही प्रभावशाली होती हैं पर इनमें पूर्वस्थित लाने की गुंजाइश बहुत ही कम होती है।
चित्र 3.4 ( अ ) शुक्रवाहिका-उच्छेदन
चित्र 3.4 ( ब ) डंब वाहिनी नली (फैलोपीनलिका)-उच्छेदन
भारत सरकार द्वारा अनैच्छिक गर्भपात की घटनाओं को कम करने और मातृ मृत्यु दर और विकृतियों की घटनाओं को कम करने के इरादे से सगर्भता
का चिकित्सकीय समापन अधिनियम (संशोधन) 2017 अधिनियमित किया गया था। इस अधिनियम के अनुसार एक पंजीकृत चिकित्सक की राय पर गर्भावस्था के पहले बारह हफ्तों के भीतर कुछ निश्चित आधार पर गर्भावस्था समाप्त की जा सकती है। अगर गर्भावस्था बारह हफ्तों से अधिक लेकिन 24 हफ्तों से कम हो तो इस अवस्था में सगर्भता की चिकित्सीय समापन के लिए निम्नलिखित आधार पर दो पंजीकृत चिकित्सकों की एकराय होना आवश्यक है।
1. गर्भावस्था की निरंतरता में गर्भवती महिलाओं के जीवन के लिये जोखिम अथवा गंभीर शारीरिक चोट और शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का खतरा हो।
2. शारीरिक व मानसिक असामान्यताओं से पीड़ित या गंभीरता से विकलांग बच्चे के जन्म होने की संभावना का खतरा हो।
यहाँ पर, इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि उपयुक्त गर्भनिरोधक उपायों का चुनाव एवं उपयोग किसी शिक्षित चिकित्सा कर्मी या विशेषज्ञ की परामर्श द्वारा ही किया जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि जनन स्वास्थ्य के रखरखाव हेतु गर्भनिरोधक नियमित रूप से अपेक्षित नहीं होते हैं। वास्तव में, इनका उपयोग प्राकृतिक प्रक्रिया जनन जैसे गर्भाधान/सगर्भता के विरुद्ध है। इन सबके बावजूद, व्यक्ति को इन विधियों को इस्तेमाल करने के लिए विवश होना पड़ता है फिर चाहे सगर्भता को रोकने या देरी करने या अंतराल रखने का कोई निजी कारण रहा हो। इसमें संदेह नहीं कि इन विधियों के व्यापक उपयोग ने जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फिर भी, इन उपायों के संभावित दुष्प्रभावों में मतली, उदरीय पीडा, बीच-बीच में रक्तस्राव, अनियमित आर्तव रक्तस्राव या यहाँ तक कि स्तन कैंसर जैसी बातें हो सकती हैं। यद्यपि यह बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हैं; फिर भी इनकी पूरी तरह से उपेक्षा नहीं की जा सकती।
3.3 सगर्भता का चिकित्सीय समापन
गर्भावस्था पूर्ण होने से पहले जानबूझ कर या स्वैच्छिक रूप से गर्भ के समापन को प्रेरित गर्भपात या चिकित्सीय सगर्भता समापन (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेन्सी, एम टी पी) कहते हैं। पूरी दुनिया में हर साल लगभग 45 से 50 मिलियन (4.5-5 करोड़) चिकित्सीय सगर्भता समापन कराए जाते हैं जो कि संसार भर की कुल सगर्भताओं का $1 / 5$ भाग है। तथापि एम टी पी में भावनात्मक, नैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक पहलुओं से जुड़े होने के कारण बहुत से देशों में यह बहस जारी है कि चिकित्सीय सगर्भता समापन को स्वीकृत/या कानूनी बनाया जाना चाहिए या नहीं। भारत सरकार ने इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए 1971 ई. में चिकित्सीय सगर्भता समापन को कानूनी स्वीकृत प्रदान कर दी थी। इस प्रकार के प्रतिबंध अंधाधुंध और गैरकानूनी मादा भ्रूण हत्या तथा भेदभाव को रोकने के लिए बनाए गए, जो अभी भी भारत देश में बहुत ज्यादा हो रहा है।
चिकित्सीय सगर्भता समापन क्यों? निश्चित तौर पर इसका उत्तर अनचाही सगर्भताओं से मुक्ति पाना है फिर चाहे वे लापरवाही से किए गए असुरक्षित यौन संबंधों का परिणाम हो या मैथुन के समय गर्भनिरोधक उपायों के असफल रहने या बलात्कार जैसी घटनाओं के कारण हों। इसके साथ ही चिकित्सीय सगर्भता समापन की अनिवार्यता कुछ विशेष मामलों में भी होती है जहाँ सगर्भता बने रहने की स्थिति में माँ अथवा भ्रूण अथवा दोनों के लिए हानिकारक अथवा घातक हो सकती है।
सगर्भता की पहली तिमाही में अर्थात् सगर्भता के 12 सप्ताह तक की अवधि में कराया जाने वाला चिकित्सीय सगर्भता समापन अपेक्षाकृत काफी सुरक्षित माना जाता है। इसके बाद द्वितीय तिमाही में गर्भपात बहुत ही संकटपूर्ण एवं घातक होता है। इस बारे में एक सबसे अधिक परेशान करने वाली यह बात देखने में आई है कि अधिकतर एम टी पी गैर कानूनी रूप से, अकुशल नीम-हकीमों से कराए जाते हैं जो कि न केवल
असुरक्षित होते हैं, बल्कि जानलेवा भी सिद्ध हो सकते हैं। दूसरी खतरनाक प्रवृत्ति शिशु के लिंग निर्धारण के लिए उल्बवेधन का दुरुपयोग (यह प्रवृत्ति शहरी क्षेत्रों में अधिक) होता है। बहुधा ऐसा देखा गया है कि यह पता चलने पर कि भ्रूण मादा है, एम टी पी कराया जाता है, जो पूरी तरह गैरकानूनी है। इस प्रकार के व्यवहार से बचना चाहिए, क्योंकि यह युवा माँ और भ्रूण दोनों के लिए खतरनाक है। असुरक्षित मैथुन से बचाव के लिए प्रभावशाली परामर्श सेवाओं को देने तथा गैरकानूनी रूप से कराए गए गर्भपातों में जान की जोखिम के बारे में बताए जाने के साथ-साथ अधिक से अधिक सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए; ताकि उपर्युक्त हानिकारक प्रवृत्तियों को रोका जा सके।
3.4 यौन संचारित संक्रमण
कोई भी रोग या संक्रमण जो मैथुन द्वारा संचारित होते हैं उन्हें सामूहिक तौर पर यौन संचारित संक्रमण (एस टी आई) या रतिजरोग (वी डी) अथवा जनन मार्ग (आर टी आई) संक्रमण कहा जाता है। सुजाक (गोनोरिया), सिफिलिस, हर्पीस, जननिक परिसर्प (जेनाइटिल हर्पीजा ), क्लेमिडियता, ट्राइकोमोनसता, लैंगिक मस्से, यकृतशोथ-बी और हाल ही में सर्वाधिक चर्चित एवं घातक एच आई वी/एड्स आदि सामान्य यौन संचारित रोग हैं। इन सबके साथ एच आई वी संक्रमण सर्वाधिक खतरनाक है, इसके बारे में पुस्तक के आठवें अध्याय में विस्तार से चर्चा की गई है।
इनमें से कुछ संक्रमण जैसे कि यकृतशोथ-बी तथा एच आई वी के संक्रमण, एक संक्रमित व्यक्ति के साझे प्रयोग वाली सुइयों (टीकों), शल्य क्रिया के औजारों तथा संदूषित रक्ताधान (ब्लड ट्रांसफ्यूजन) या फिर संक्रमित माता से उसके गर्भस्थ शिशु में भी संचारित हो सकते हैं। यकृतशोथ-बी, जननिक परिसर्प तथा एच आई वी संक्रमण को छोड़कर बाकी सभी यौन रोग पूरी तरह से उपचार योग्य हैं; बशर्ते कि इन्हें शुरूआती अवस्था में पहचाना एवं इनका उचित ढंग से पूरा इलाज कराया जाए। इन सभी रोगों के शुरूआती लक्षण बहुत हल्के-फुल्के होते हैं, जो कि जननिक क्षेत्र (गुप्तांग) में खुजली, तरल स्राव आना, हल्का दर्द तथा सूजन आदि हो सकते हैं। संक्रमित स्त्रियाँ अलक्षणी हो सकती हैं। कभी-कभी उनमें संक्रमण के लक्षण प्रकट नहीं होते और इसीलिए लंबे समय तक उनका पता नहीं चल पाता। संक्रमण की प्रारंभिक अवस्था में लक्षणों का प्रकट न होना या उनका कम महत्त्वपूर्ण होना तथा यौन संचारित संक्रमणों से जुड़े सामाजिक कलंक का डर संक्रमित व्यक्ति को समय पर जाँच तथा उचित उपचार से रोकता है। इसके कारण आगे चलकर जटिलताएँ पैदा हो सकती हैं। जोकि श्रोणि-शोथज रोग (पी आई डी), गर्भपात, मृतशिशु जन्म, अस्थानिक सगर्भता, बंध्यता अथवा जनन मार्ग का कैंसर हो सकता है। यौन संचारित संक्रमण स्वस्थ समाज के लिए खतरा है, इसलिए इनकी प्रारंभिक अवस्था में पहचान तथा रोग के उपचार को जनन स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम के अंतर्गत प्रमुखता दी गई है। यद्यपि सभी लोग इन संक्रमणों के प्रति अतिसंवेदनशील हैं, लेकिन 15 से 24 वर्ष आयु वर्ग के लोगों में इनकी घटनाएँ बहुत अधिक संख्या में दर्ज की गई हैं। वह आयु वर्ग जिसमें आप भी आते हैं। लेकिन घबराहए मत! इससे बचाव का उपाय
तो आपके ही हाथों में है। आप इन संक्रमणों से पूरी तरह से मुक्त रह सकते हैं, बशर्ते कि आप भविष्य में नीचे दिए गए साधारण नियमों का पालन करें-
(क) किसी अनजान व्यक्ति या बहुत से व्यक्तियों के साथ यौन संबंध न रखें।
(ख) मैथुन के समय सदैव कंडोम का इस्तेमाल करने की कोशिश करें।
(ग) यदि कोई आशंका है तो तुरंत ही प्रारंभिक जाँच के लिए किसी योग्य डॉक्टर से मिलें और रोग का पता चले तो पूरा इलाज कराएँ।
3.5 बंध्यता
बंध्यता के बारे में चर्चा किए बिना जनन स्वस्थ्य पर चर्चा अधूरी है। भारत सहित पूरी दुनिया में बहुत से दंपति बंध्य हैं अर्थात् उन्मुक्त या असुरक्षित सहवास के बावजूद; वे बच्चे पैदा कर पाने में असमर्थ होते हैं। इसके अनेक कारण हो सकते हैं, जोकि शारीरिक, जन्मजात, रोग जन्य, औषधिक, प्रतिरक्षात्मक और यहाँ तक कि वे मनोवैज्ञानिक भी हो सकते हैं। भारतवर्ष में प्रायः दंपतियों में बच्चा न होने का दोष स्त्रियों को ही दिया जाता है, जबकि प्रायः ऐसा नहीं होता है, यह समस्या पुरुष साथी में भी हो सकती है। विशिष्ट स्वास्थ्य सेवा इकाइयाँ (बंध्यता क्लीनिक आदि) नैदानिक जाँच में सहायक हो सकती हैं और इनमें से कुछ विकारों का उपचार करके दंपतियों को बच्चे पैदा करने में मदद दे सकती हैं। फिर भी, जहाँ ऐसे दोषों को ठीक करना संभव नहीं है वहाँ कुछ विशेष तकनीकों द्वारा उनको बच्चा पैदा करने में मदद की जा सकती है, ये तकनीकें सहायक जनन प्रौद्योगिकियाँ (ए आर टी) कहलाती हैं।
पात्रे निषेचन (आई वी एफ- इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन अर्थात् शरीर से बाहर लगभग शरीर के भीतर जैसी स्थितियों में निषेचन) के द्वारा भ्रूण स्थानांतरण (ई टी) ऐसा एक उपाय हो सकता है। इस विधि में, जिसे लोकप्रिय रूप से टेस्ट ट्यूब बेबी कार्यक्रम के नाम से जाना जाता है, इसमें प्रयोगशाला में पत्नी का या दाता स्त्री के अंडे से पति अथवा दाता पुरुष से प्राप्त किए गए शुक्राणुओं को एकत्रित करके प्रयोगशाला में अनुरूपी परिस्थितियों में युग्मनज बनने के लिए प्रेरित किया जाता है। इस युग्मनज या प्रारंभिक भ्रण ( 8 ब्लास्टेमियर तक) को फैलोपी नलिकाओं में स्थानांतरित किया जाता है जिसे युग्मनज अंतः डिंब वाहिनी (फैलोपी) स्थानांतरण अर्थात् जॉइगोट इंट्रा फैलोपियन ट्रांसफर (जेड आई एफ टी) कहते हैं। और जो भ्रूण 8 ब्लास्टोमियर से अधिक का होता है तो उसे परिवर्धन हेतु गर्भाशय में स्थानांतरित कर दिया जाता है। इसे इंट्रा यूटेराइन ट्रांसफर (आई यू टी) कहते हैं। जिन स्त्रियों में गर्भधारण की समस्या रहती है, उनकी सहायता के लिए जीवे निषेचन (इन-विवो फर्टीलाइजेशन-स्त्री के भीतर ही युग्मकों का संलयन) से बनने वाले भ्रूणों को भी स्थानांतरण के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है।
ऐसे मामले में जहाँ स्त्रियाँ अंडाणु उत्पन्न नहीं कर सकतीं; लेकिन जो निषेचन और भ्रूण के परिवर्धन के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान कर सकती हैं, उनके लिए एक अन्य तरीका अपनाया जा सकता है। इसमें दाता से अंडाणु लेकर उन स्त्रियों की फैलोपी नलिका में स्थानांतरित (जी आई एफ टी) कर दिया जाता है। प्रयोगशाला में भ्रूण बनाने
के लिए अंतः कोशिकीय शुक्राणु निक्षेपण (आई सी एस आई) दूसरी विशिष्ट प्रक्रिया है जिसमें शुक्राणु को सीधे ही अंडाणु में अंतःक्षेपित किया जाता है। बंध्यता के ऐसे मामलों में जिनमें पुरुष साथी स्त्री को वीर्यसेचित कर सकने के योग्य नहीं है अथवा जिसके स्खलित वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या बहुत ही कम है, ऐसे दोष का निवारण कृत्रिम वीर्यसेचन (ए आई) तकनीक से किया जा सकता है। इस तकनीक में पति या स्वस्थ दाता से शुक्र लेकर कृत्रिम रूप से या तो स्त्री की योनि में अथवा उसके गर्भाशय में प्रविष्ट किया जाता है। इसे अंतः गर्भाशय वीर्यसेचन (आई यू आई) कहते हैं।
यद्यपि बहुत सारे विकल्प उपलब्ध हैं, किन्तु इन सभी तकनीकों में विशेषीकृत व्यावसायिक विशेषज्ञों द्वारा एवं क्रियाओं हेतु अति उच्च परिशुद्धता पूर्ण संचालन (हैंडलिंग) की आवश्यकता होती है और ये बहुत मँहगी भी होती हैं। इसलिए, पूरे देश में फिलहाल ये सुविधाएँ केवल कुछ शहरों में ही उपलब्ध हैं। स्पष्ट है कि इनके लाभ केवल कुछ सीमित लोग ही वहन कर सकते हैं। इन उपायों को अपनाने में भावनात्मक, धार्मिक तथा सामाजिक घटक भी काफी निर्धारक होते हैं। इन सभी प्रक्रियाओं का अंतिम लक्ष्य संतान प्राप्ति है और भारतवर्ष में अनेक अनाथ और दीनहीन बच्चे हैं; जिनकी यदि देखभाल नहीं की जाए तो वे जीवित नहीं रहेंगे। हमारा देश का कानून शिशु को कानूनन गोद लेने की इजाजत देता है और जो दंपत्ति बच्चे के इच्छुक हैं उनके लिए संतान प्राप्ति का यह सर्वोत्तम उपाय है।
सारांश
जनन स्वास्थ्य का तात्पर्य जनन के सभी पहलुओं जैसे शारीरिक, भावनात्मक, व्यावहारिक तथा सामाजिक स्वास्थ्य से है। दुनिया में हमारा देश पहला ऐसा देश है जिसने राष्ट्रीय स्तर पर जननात्मक स्वस्थ समाज को प्राप्त करने की कार्ययोजनाएँ बनाई हैं।
ये सारी कार्ययोजनाएँ वर्तमान में जनन एवं बाल स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम के अंतर्गत आगे बढ़ाई जा रही हैं। जनन स्वास्थ्य हासिल करने की दिशा में, लोगों के बीच जनन अंगों, किशोरावस्था एवं उससे जुड़े बदलावों, सुरक्षित एवं स्वच्छता पूर्ण यौन-प्रक्रियाओं, एच आई वी/ एड्स सहित यौन संचारित संक्रमणों के बारे में परामर्श देना एवं जागरूकता पैदा करना इस दिशा में पहला कदम है। चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराना तथा आर्तव (ऋतुस्राव) में अनियमित्तताएँ, सगर्भता संबंधी पहलुओं, प्रसव, चिकित्सीय सगर्भता समापन आदि से जुड़ी समस्याओं की देखभाल इनके लिए चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराना, और जन्म नियंत्रण, प्रसवोत्तर शिशु एवं माता की देखभाल एवं प्रबंधन आदि आर सी एच कार्यक्रम से जुड़े अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
हमारे देश में कुल मिलाकर जनन स्वास्थ्य में सुधार दिख रहा है जैसा कि घटी हुई शिशु एवं मातृ मृत्युदर दर्शाती है। साथ ही यौन संचारित संक्रमणों की जल्दी ही पहचान एवं उनका उपचार, बंध्य दंपतियों की सहायता आदि भी बेहतर हुई है। बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं तथा जीवन के रहन-सहन की बेहतर परिस्थितियाँ होने के कारण जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि
को बढ़ावा मिला। इस प्रकार की वृद्धि ने गर्भनिरोधक उपायों के सघन प्रचार को अनिवार्य बना दिया। आज के दौर में विभिन्न प्रकार के गर्भनिरोधक उपलब्ध हैं जैसे कि प्राकृतिक/परंपरागत, रोधक, अंतः गर्भाशयी युक्तियाँ, गोलियाँ (पिल्स), (आई यू डी) टीके के रूप में, अंतर्रोप (इंप्लाट्स) तथा शल्यी विधियाँ। यद्यपि गर्भनिरोधक उपाय जनन स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए आवश्यक नहीं है तथापि व्यक्ति को इन्हें उपयोग में लाने के लिए बाध्य किया जाता है, ताकि व्यक्ति सगर्भता से बच सके या उसमें देरी करे अथवा सगर्भता के बीच अंतराल रखें।
हमारे देश में चिकित्सीय सगर्भता समापन को वैधानिक मान्यता प्राप्त है। सामान्य रूप से चिकित्सीय सगर्भता का उपयोग बलात्कार जैसे मामलों से हुई अनचाही, सगर्भता तथा सामान्य या कभी-कभार के यौनसंबंधों आदि से पैदा हुई, सगर्भता को समाप्त कराने हेतु किया जाता है। ऐसे मामलों में भी एम टी पी किया जाता है जहाँ बार-बार की सगर्भता माँ अथवा भूण अथवा दोनों के लिए हानिकारक या जानलेवा साबित हो रही हो।
यौन संबंधों द्वारा संचारित होने वाले संक्रमणों या रोगों को यौन संचारित रोग (एस टी डी) कहा जाता है। श्रोणि-शोथज रोग (पी आई डी) मृत शिशु जन्म तथा बंध्यता जैसी जटिलताएँ भी इनसे जुड़ी होती हैं। इन रोगों का जल्दी पता लगा लेने से इन्हें अच्छे इलाज द्वारा ठीक किया जा सकता है। अनजान व्यक्ति या बहुत सारे साथियों से मैथुन से बचा जाना चाहिए। इसके साथ ही मैथुन के दौरान अनिवार्य रूप से कुछ सावधानियों के साथ कंडोम का इस्तेमाल यौन संचारित रोगों से बचाव के कुछ सरल से उपाय हैं।
दो वर्ष तक मुक्त या असुरक्षित सहवास के बावजूद गर्भाधान न हो पाने की स्थिति को बंध्यता कहते हैं। ऐसे निःसंतान दंपतियों की मदद हेतु अब विभिन्न उपाय उपलब्ध हैं। पात्रे निषेचन के बाद भ्रूण स्थानांतरण के द्वारा स्त्री के जनन मार्ग में भूण को स्थापित करके संतान पाई जाती है। यह एक सामान्य विधि है जिसे टेस्ट ट्यूब बेबी कार्यक्रम कहा जाता है।