पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन

क्या हम भाग्यशाली नहीं है कि पादप लैंगिक प्रजनक हैं? असंख्य प्रकार के पुष्प, जिन्हें हम आनंद से टक-टकी लगाकर देखते, सूँघते हैं तथा जिनकी महक से हम मदहोश हो जाते हैं और उनके भरपूर रंग आदि यह सभी बातें उसके लैंगिक प्रजनन में सहायक होती हैं। पुष्प का अस्तित्व मात्र हमारे उपयोग के लिए नहीं है। सभी पुष्पीपादप लैंगिक प्रजनन प्रदर्शित करते हैं। पुष्पक्रमों, पुष्पों तथा पुष्पी अंगों की संरचना की विविधता पर एक दृष्टि डालें तो वे अनुकूलन की एक व्यापक परिधि को दर्शाते हैं ताकि लैंगिक जनन का अंतिम उत्पाद, फल और बीज की रचना सुनिश्चित हो सके। आइए इस अध्याय में आकारिकी, संरचना तथा पुष्पी पादपों (आवृतबीजियों) में लैंगिक जनन के प्रक्रम को समझें।

1.1 पुष्प-आवृतबीजियों का एक आकर्षक अंग

प्राचीन काल से ही पुष्पों के साथ मानव का एक निकटस्थ संबंध रहा है। मानव के लिए पुष्प सौंदर्य विषयक, आभूषणात्मक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक महत्त्व की वस्तु रहा है। ये मानव द्वारा प्रेम, अनुराग, प्रसन्नता, विषाद एवं शोक आदि की अभिव्यक्ति को प्रदर्शित करने के प्रतीक रहे हैं। कम से कम ऐसे पाँच पुष्पों की सूची बनाएँ जिनका आभूषणात्मक (शृांगारिक) महत्त्व हो तथा जिन्हें घर एवं

चित्र 1.1 पुष्प के एल.एस. का आरेखीय निरूपण

बगीचों में उगाया जाता हो। आप पाँच उन पुष्पों का भी पता करें, जिन्हें आपके परिवार द्वारा सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्सवों के दौरान उपयोग किया जाता हो। क्या आपने कभी पुष्पों की खेती (फ्लोरीकल्चर) या पुष्पकृषि के बारे में सुना है — इसका क्या तात्पर्य है?

एक जीव वैज्ञानिक के लिए पुष्प, आकारिकीय एवं भ्रैणिकीय ( भ्रूणीय) आश्चर्य तथा लैंगिक जनन स्थल है। आपने कक्षा 11 में एक पुष्प के विभिन्न अंगों के बारे में अध्ययन किया है। चित्र 1.1 आपको एक प्ररूपी पुष्प के विशिष्ट अंगों को पुनः स्मरण करने में सहायक होगा। क्या आप एक पुष्प के दो अंगों के नाम बता सकते हो जिनमें लैंगिक जनन विकास के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वाली दो इकाईयाँ होती हैं?

1.2 निषेचन-पूर्व-संरचनाएँ एवं घटनाएँ

पादप में वास्तविक रूप से पुष्प विकसित होने से पूर्व यह तय हो जाता है कि पादप में पुष्प आने वाले हैं। अनेकों हार्मोनल तथा संरचनात्मक परिवर्तनों की शुरुआत होने लगती है, जिसके फलस्वरूप पुष्पीय आद्यक (फ्लोरल प्राइर्मोडियम) के मध्य विभेदन एवं अग्रिम विकास प्रारम्भ होते हैं। पुष्पक्रम की रचना होती है, जो पुष्पी कलिकाएँ और बाद में पुष्प को धारण करती हैं। पुष्प में नर एवं मादा जनन संरचनाएँ-पुमंग तथा जायांग

विभेदित एवं विकसित रहती हैं। आप याद करें कि पुमंगों से भरपूर पुंकेसरों का गोला (एक चक्कर) नर जनन अंग का तथा जायांग स्त्री (मादा) जनन अंग का प्रतिनिधित्व करता है।

1.2.1 पुंकेसर, लघुबीजाणुधानी तथा परागकण

चित्र 1.2 (अ) एक विशिष्ट (प्रारूपी) पुंकेसर दो भागों में विभक्त रहता है-इसमें लंबा एवं पतला डंठल तंतु ( फिलामेंट) कहलाता है तथा अंतिम सिरा सामान्यतः द्विपालिक संरचना परागकोश कहलाता है। तंतु का समीपस्थ छोर पुष्प के पुष्पासन या पुष्पदल से जुड़ा होता है। पुंकेसरों की संख्या एवं लंबाई विभिन्न प्रजाति के पुष्पों में भिन्न होती है। अगर आप दस पुष्पों (प्रत्येक भिन्न प्रजाति) से एक-एक पुंकेसर एकत्र करें और उन्हें एक स्लाइड पर रखें तो आप देखेंगे कि इनके आकार में बहुत भिन्नता है, जो प्रकृति में विद्यमान है। एक विच्छेदन सूक्ष्मदर्शी से प्रत्येक पुंकेसर का सावधानीपूर्वक अवलोकन तथा स्पष्ट चित्र के माध्यम से विभिन्न पुष्पों में परागकोशों के जुड़ाव एवं आकार की व्यापकता को समझा जा सकता है।

एक प्रारूपिक आवृतबीजी परागकोश द्विपालित होते हैं। तथा प्रत्येक पाली में दो कोष्ठ होते हैं, अर्थात् ये द्विकोष्ठी होते हैं (चित्र 1.2 ब)। प्रायः एक अनुलंब खांच प्रवारक

(ब)

( अ) (कोष्ठ) को अलग करते हुए लंबवत् गुजरता है। आइए परागकोश (चित्र 1.3 ब) के एक अनुप्रस्थ काट में विभिन्न प्रकार के ऊत्तकों तथा अनेक संयोजन को समझें। एक परागकोश की द्विपालित प्रकृति, परागकोश के अनुप्रस्थ काट में बहुत ही पृथक या सुव्यक्त होती है। परागकोश एक चार दिशीय (चतुष्कोणीय) संरचना होती है जिसमें चार कोनों पर लघुबीजाणुधानी समाहित होती है, जो प्रत्येक पालि में दो होती हैं। यह लघुबीजाणुधानी आगे विकसित होकर परागपुटी (पोलेन सैक्स) बन जाती है। यह अनुलंबवत् एक परागकोश की लंबाई तक विस्तारित होते हैं और परागकणों से ठसाठस भरे होते हैं।

लघुबीजाणुधानी की संरचना — एक अनुप्रस्थ काट में, एक प्ररूपी लघुबीजाणुधानी बाह्य रूपरेखा में लगभग गोलाई में प्रकट होती है। यह सामान्यतः चार भित्तिपर्तों से आवृत होती है (चित्र 1.3 अ) (एपीडर्मीस) बाह्यत्वचा, एंडोथेसियम (अंतस्थीसियम), मध्यपर्त तथा टेपीटम बाहर की ओर की तीन पर्तें संरक्षण प्रक्रिया का कार्य करती हैं तथा परागकोश के स्फुटन में मदद कर परागकण अवमुक्त करती हैं। इसकी सबसे आंतरिक पर्त टेपीटम होती है। यह विकासशील परागकणों को पोषण देती है। टेपीटम की कोशिकाएँ सघन जीवद्रव्य (साइटोप्लाज्म) से भरी होती हैं और सामान्यतः एक से अधिक

( अ)

चित्र 1.3 (अ) एक आवश्यक परागकोश का अनुप्रस्थकाट; (ब) भित्तिपर्तों को प्रदर्शित करते हुए एक लघुबीजाणुधानी का विस्तरित परिदृश्य (स) एक स्फुटित परागकोश

केंद्रकों से युक्त होती है। क्या आप यह सोच सकते हैं कि किस प्रकार से एक टेपीटल कोशिका द्विकेंद्रकीय बन सकती है?

जब एक परागकोश अपरिपक्व होता है तब घने सुसंबद्ध सजातीय कोशिकाओं का समूह जिसे बीजाणुजन ऊत्तक कहते हैं, लघुबीजाणुधानी के केंद्र में स्थित होता है।

लघुबीजाणुजनन — जैसे-जैसे परागकोश विकसित होता है, बीजाणुजन ऊत्तकों की कोशिकाएँ अर्धसूत्री विभाजन द्वारा सूक्ष्म बीजाणु चतुष्टय बनाती हैं। चतुष्टय की कोशिकाओं की सूत्रगुणता क्या होगी?

जैसाकि बीजाणुजन ऊत्तक की प्रत्येक कोशिका एक लघुबीजाणु चतुष्टय की वृद्धि करने में सक्षम होती है। प्रत्येक कोशिका एक सक्षम पराग मातृकोशिका होती है। एक पराग मातृकोशिका से अर्धसूत्री विभाजन द्वारा लघुबीजाणु के निर्माण की प्रक्रिया को लघुबीजाणुधानी कहते हैं। जैसा कि लघुबीजाणु रचना के समय चार कोशिकाओं के समूह में व्यवस्थित होते हैं उन्हें लघुबीजाणु चतुष्टय/चतुष्क कहते हैं (चित्र 1.3 अ)। जैसे ही परागकोश परिपक्व एवं स्फुरित होता है तब लघुबीजाणु

( अ)

चित्र 1.4 कुछ परागकणों का इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शीय परदृश्य परागकण

एक-दूसरे से विलग हो जाते हैं और परागकणों (चित्र 1.3 ब) के रूप में विकसित हो जाते हैं। प्रत्येक लघुबीजाणुधानी के अंदर कई हजार लघुबीजाणु और परागकण निर्मित होते हैं, परागकण जो परागकोश के स्फुटन के साथ मुक्त होते हैं। ( 1.3 स)

परागकण - नर युग्मकोद्भव का प्रतिनिधित्व करता है। यदि आप हिबिसकस (गुड़हल) या किसी अन्य पुष्प के खुले परागकोश को छूते हैं तो आप अपनी अंगुलियों में पीले रंग के पाउडर जैसे परागकणों को पाते हैं। एक काँच की स्लाइड पर एक बूँद पानी डालकर उस पर यह परागकण छिड़कें और एक सूक्ष्मदर्शी में देखें। आप निश्चित रूप से

आश्चर्य चकित हो जाएँगे कि विभिन्न प्रकार की प्रजातियों के परागकण विन्यास—आकार, रूप, रंग, एवं बनावट में भिन्न दिखते हैं

परागकण सामान्यतः गोलाकार (गोलीय) होते हैं, जिनका व्यास लगभग 25-50 माइक्रोमीटर होता है इनमें सुस्पष्ट रूप से दो पर्तों वाली भित्ति होती है। कठोर बाहरी भित्ति को बाह्यचोल कहते हैं जो कि स्पोरोपोलेनिन से बनी होती है, जो सर्वाधिक ज्ञात प्रतिरोधक कार्बनिक सामग्री है। यह

उच्चताप तथा सुदृढ़ अम्लों एवं क्षारों के सम्मुख टिक सकती है। अभी तक ऐसा कोई एंजाइम पता नहीं चला है जो स्पोरोपोलेनिन को निम्नीकृत कर सकें। परागकण के बाह्यचोल में सुस्पष्ट द्वारक या रंध्र होते हैं जिन्हें जननछिद्र कहते हैं। जहाँ पर स्पोरोपोलेनिन अनुपस्थित होते हैं। परागकण जीवाश्मों की भाँति बहुत अच्छे से संरक्षित होते हैं; क्योंकि उनमें स्पोरोपोलेनिन की उपस्थिति होती है। बाह्यचोल में प्रतिमानों एवं डिजाइनों की एक आकर्षक सारणी (स्तंभों की पक्तियाँ) प्रदर्शित की गई हैं (चित्र 1.4)। आप का क्या विचार है? बाह्यचोल सख्त (कठोर) होना चाहिए? जनन छिद्र के क्या कार्य हैं?

परागकण की आंतरिक भित्ति को अंतःचोल कहा जाता है। यह एक

(ब)

चित्र 1.5 (अ) एक परागकण चुतुष्क का परिर्वाधित दृश्य (ब) एक लघुबीजाणु का एक परागकण के रूप में परिपक्व होने के विभिन्न चरण

पतली तथा सतत् पर्त होती है जो सेलूलोज एवं पेक्टिन की बनी होती है। परागकण का जीवद्रव्य (साइटोप्लाज्म) एक प्लाज्मा भित्ति से आवृत होता है। जब परागकण परिपक्व होता है तब उसमें दो कोशिकाएँ — कायिक कोशिका तथा जनन कोशिका समाहित होती है (चित्र 1.5 ब)। कायिक कोशिका बड़ी होती है जिसमें प्रचुर खाद्य भंडार तथा एक विशाल अनियमित आकृति का केंद्रक होता है। जनन कोशिका छोटी होती है तथा कायिक कोशिका के जीव

द्रव्य में तैरती रहती है। यह तुर्कु आकृति, घने जीवद्रव्य और एक केंद्रक वाला है। 60 प्रतिशत से अधिक आवृतबीजी पादपों के परागकण इस दो कोशीय चरण में झड़ते या संगलित होते हैं। शेष प्रजातियों में जनन कोशिका सम-सूत्री विभाजन द्वारा विभक्त होकर परागकण के झड़ने से पहले (तीन-चरणीय) दो नर युग्मकों को बनाते हैं।

अनेक प्रजातियों के परागकण कुछ लोगों में गंभीर एलर्जी एवं श्वसनी वेदना पैदा करते हैं जो कभी-कभी चिरकालिक श्वसन विकार — दमा, श्वसनी शोथ आदि के रूप में विकसित हो जाती है। यह बताया जा सकता है कि भारत में आयातित गेहूँ के साथ आने वाली गाजर-घास या पार्थेनियम की उपस्थिति सर्वव्यापक हो गई हैं, जो परागकण एलर्जी कारक है।

परागकण पोषणों से भरपूर होते हैं। हाल के वर्षों में आहार संपूरकों के रूप में पराग गोलियों (टैबलेट्स) के लेने का प्रचलन बढ़ा है। पश्चिमी देशों में; भारी मात्रा में पराग उत्पाद गोलियों एवं सीरप के रूप में बाजारों में उपलब्ध हैं। पराग खपत का यह दावा है कि यह खिलाड़ियों एवं धावक अश्वों (घोड़ों) की कार्यदक्षता में वृद्धि करता है (चित्र 1.6)।

चित्र 1.6 पोलन उत्पाद

परागकण जब एक बार झड़ते हैं तो ये अपनी जीवनक्षमता (अंकुर क्षमता) खोने से पहले वर्तिकाग्र पर गिरते हैं जहाँ यदि आवश्यकता हुई तो निषेचन करते हैं। आपके विचार से परागकण में जीवन क्षमता कितने समय तक रहती है? कौन सा परागकण कितने समय तक जीवनक्षम रहता है, बहुत विविधताएँ पाई जाती हैं, बहुत हद तक यह विद्यमान तापमान एवं आर्द्रता पर निर्भर करता है। कुछ अनाजों जैसे धान एवं गेहूँ में; परागकण अपनी जीवन क्षमता बहुत जल्दी लगभग 30 मिनट में ही खो देते हैं जबकि गुलाबवत् (रोजेसी) लेग्यूमिनोसी तथा सोलैनेसी आदि कुछ सदस्यों में परागकणों की जीवन क्षमता महीनों तक बनी रहती है। आपने शायद सुना हो कि कृत्रिम गर्भाधान के लिए मानव सहित बहुत से जानवरों के वीर्य / शुक्राणुओं का भंडारण किया जाता है। बहुत से प्रजाति के परागकणों को द्रव नाइट्रोजन $\left(-196^{\circ} \mathrm{C}\right)$ में कई वर्षों तक भंडारित करना सम्भव है। इस प्रकार से भंडारित पराग का प्रयोग बीज भंडार ( बैंक) की भाँति पराग भंडारों (बैंकों) के रूप में फसल प्रजनन कार्यक्रम में किया जा सकता है।

(अ)

(ब)

( स )

(द)

चित्र 1.7 (अ) गुड़हल के एक विच्छेदित पुष्प में स्त्रीकेसर का प्रदर्शन (अन्यपुष्पीय अंग निकाले गए) दर्शाया गया है (ब) पैपावर के बहुअंडपी, युक्तांडपी स्त्रीकेसर, (स) माइचेलिया के बहुअंडपी, वियुक्तांडपी स्त्रीकेसर (द) एक प्ररूपी प्रतीय बीजांड का चित्रात्मक दृश्य

1.2.2 स्त्रीकेसर, गुरूबीजाणुधानी ( बीजांड ) तथा भ्रूणकोष

जायांग पुष्प के स्त्री जनन अंग का प्रतिनिधित्व करता है। जायांग एक स्त्रीकेसर ( एकांडपी) या बहु स्त्रीकेसर ( बहुअंडपी) हो सकते हैं। जहाँ पर ये एक से अधिक होते हैं; वहाँ स्त्रीकेसर आपस में संगलित (युक्तांडपी) हो सकते हैं (चित्र 1.7 ब) या फिर वे आपस में स्वतंत्र ( वियुक्तांडपी ) (चित्र 1.7 स)। प्रत्येक स्त्रीकेसर में तीन भाग होते हैं (चित्र 1.7 अ), वर्तिकाग्र, वर्तिका, तथा अंडाशय। वर्तिकाग्र, परागकणों के अवतरण मंच का काम करता है। वर्तिका एक दीर्घीकृत पतला (इकहरा) भाग है जो वर्तिका के नीचे होता है। स्त्रीकेसर के आधार पर उभरा (फूला) हुआ भाग अंडाशय होता है। अंडाशय के अंदर एक गर्भाशयी गुहा (कोष्ठक) होती है। गर्भाशयी गुहा के अंदर की ओर अपरा (नाड़) स्थित होती है। आप कक्षा 11 में पढ़ी हुई अपरा की परिभाषा एवं प्रकारों का स्मरण करें। अपरा से उत्पन्न होने वाली दीर्घ बीजाणुधानी सामान्यतः बीजांड कहलाती है। एक अंडाशय में बीजांडों की संख्या एक (गेहूँ, धान, आम) से लेकर अनेक (पपीता, तरबूज तथा आर्किड) तक हो सकती है। गुरूबीजाणुधानी ( बीजांड ) - आइए एक प्ररूपी आवृत्तबीजी बीजांड की (चित्र 1.7 द) संरचना से परिचित होवें। बीजांड एक छोटी सी संरचना है जो एक वृंत या डंठल, जिसे बीजांडवृंत कहते हैं, द्वारा अपरा से जुड़ी होती है। बीजांड की काया

बीजांडवृंत्त के साथ नाभिका नामक क्षेत्र में संगलित होती है। अतः यह नाभिका बीजांड एवं बीजांडवृंत्त के संधि बिंदु का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्येक बीजांड में एक या दो अध्यावरण नामक संरक्षक आवरण होते हैं। यह अध्यावरण बीजांड को चारों ओर से घेरे होता है, केवल बीजांडद्वार नामक आयोजित छोटे से रंध्र को छोड़कर अध्यावरण बीजांड को चारों तरफ से घेरे रहता है। बीजांडद्वारी सिरे के ठीक विपरीत निभाग (कैलाजा) होता है जो बीजांड के आधारी भाग का प्रतिनिधित्व करता है।

अध्यावरणी से घिरा हुआ कोशिकाओं का एक पुंज होता है, जिसे बीजांडकाय कहते हैं। बीजांडकाय केंद्रक की कोशिकाओं में प्रचुरता से आरक्षित आहार सामग्री होती है। बीजांडकाय भ्रूणकोष या मादा युग्मकोद्भिद् बीजांडकाय में स्थित होता है। एक बीजांड में, सामान्यतः एक अकेला भ्रूणकोष होता है जो एक गुरूबीजाणु से निर्मित होता है।

गुरूबीजाणु जनन — गुरूबीजाणुमातृकोशिकाओं से गुरूबीजाणुओं की रचना के प्रक्रम को गुरूबीजाणुजनन कहते हैं। बीजांड प्रायः एक अकेले गुरूबीजाणु मातृ कोशिका से बीजांडकाय के बीजांडद्वारी क्षेत्र में विलग होते हैं। यह एक बड़ी कोशिका है जो सघन जीवद्रव्य से समाहित एवं एक सुस्पष्ट केंद्रक युक्त होती है। गुरूबीजाणुमातृकोशिका अर्धसूत्री विभाजन से गुजरती है। गुरूबीजाणु मातृकोशिका का अर्धसूत्रीविभाजन से गुजरने का क्या महत्त्व है? अर्धसूत्रीविभाजन के परिणाम स्वरूप चार गुरूबीजाणुओं का उत्पादन होता है (चित्र 1.8 अ)

स्त्री (मादा ) युग्मकोद्भिद् - अधिकांश पुष्पी पादपों में गुरूबीजाणुओं में से एक कार्यशील होता है जबकि अन्य तीन अपविकसित (अपभ्रष्ट) हो जाते हैं। (चित्र 1.8 ब) केवल कार्यशील गुरूबीजाणु स्त्री (मादा ) युग्मकोद्भिद् ( भ्रूणकोष) के रूप में विकसित होता है। एक अकेले गुरूबीजाणु से भ्रूणकोष के बनने की विधि को एक-बीजाणुज विकास कहा जाता है। बीजांडकाय की कोशिकाओं, गुरूबीजाणु मातृ कोशिका क्रियाशील गुरूबीजाणु तथा मादा युग्मकोद्भिद् की सूत्रगुणता क्या होगी?

आइए! भूणकोष के निर्माण का थोड़ा और विस्तार से अध्ययन करें (चित्र 1.8 ब) क्रियाशील गुरूबीजाणु के केंद्रक समसूत्री विभाजन के द्वारा दो केंद्रकी (न्युक्लीआई) बनाते हैं, जो विपरीत ध्रुवों को चले जाते हैं और 2 -न्युकिल्येट ( केंद्रीय) भ्रूणकोष की रचना करते हैं। दो अन्य क्रमिक समसूत्री केंद्रकीय विभाजन के परिणामस्वरूप 4 -केंद्रीय (न्युकिल्येट) और तत्पश्चात् 8-केंद्रीय ( न्युकिल्येट) भ्रूणकोष की संरचना करते हैं। यहाँ पर यह ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है कि ये सूत्री विभाजन सही अर्थों में मुक्त केंद्रक (न्युकिलयर) है, जो केंद्रकीय विभाजन से तुरंत ही कोशिका भित्ति रचना द्वारा नहीं अनुपालित किया जाता है। 8-न्युकिल्येट चरण के पश्चात् कोशिका भित्ति की नींव पड़ती है, जो विशिष्ट (प्ररूपी) मादा युग्मकोद्भिद् या भ्रूणकोष के संगठन का रूप लेती है। भ्रूणकोष के भीतर कोशिकाओं के वितरण का अवलोकन कीजिए (चित्र 1.8 ब, स) आठ में से 6-न्युक्लीआई भित्ति कोशिकाओं से घिरी होती हैं और कोशिकाओं में संयोजित रहते हैं। शेष बचे दो न्युक्लीआई ध्रुवीय न्यूक्लीआई कहलाते हैं, जो अंडउपकरण के नीचे बड़े केंद्रीय कोशिका में स्थित होते हैं।

पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन

( अ)

(ब)

( स )

चित्र 1.8 (अ) बीजांड के अंग — एक व्यापक गुरूबीजाणु मातृ कोशिका, एक डीयाड तथा एक गुरूबीजाणु का ट्रेटाड (चतुष्टक) प्रदर्शित है; (ब) भ्रूणकोष के $1,2,4$ तथा 8 न्युक्लियेट चरण तथा एक परिपक्व भ्रूणकोष; (स) परिपक्व भ्रूणकोष का एक आरेखीय प्रस्तुतीकरण ( $\uparrow$ बीजांड का बीजांडद्वार शीर्ष दिखाता है)।

भ्रूणकोष के अन्दर कोशिकाओं का वितरण विशिष्टता पूर्ण होता है। बीजांडद्वारी सिरे पर तीन कोशिकाएँ एक साथ समूहीकृत होकर अंडउपकरण या समुच्चय का निर्माण करती हैं। इस अंड (समुच्चय) उपकरण के अंतर्गत दो सहाय कोशिकाएँ तथा एक अंडकोशिका निहित होती है। बीजांडद्वारी छोर, जिसे तंतुरूप समुच्चय कहते हैं, पर एक विशेष सहाय कोशिकीय स्थूलन होने लगता है जो सहाय कोशिकाओं में पराग नलिकाओं को दिशा निर्देश प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तीन अन्य कोशिकाएँ निभागीय (कैलाजल) छोर पर होती हैं, प्रतिव्यासांत (एँटीपोडाल) कहलाती है। वृहद केंद्रीय कोशिका, जैसा कि पहले बताया गया है, में दो ध्रुवीय न्युकलीआई होती हैं।

इस प्रकार से, एक प्ररूपी आवृतबीजी भ्रूणकोष परिपक्व होने पर यद्यपि 8 -न्युकिलीकृत वस्तुतः 7 कोशिकीय होता है।

(अ)

(ब)

12

( स)

चित्र 1.9 (अ) स्वपरागित पुष्प (ब) परपरागित पुष्प (स) अनुन्मील्य परागणी पुष्प

1.2.3 परागण

पूर्ववर्ती भाग में आप पढ़ चुके हैं कि पुष्पीय पादपों में नर एवं मादा युग्मक क्रमशः परागकण एवं भ्रूणकोश में पैदा होते हैं। चूँकि दोनों ही प्रकार के युग्मक अचल हैं अतः निषेचन संपन्न होने के लिए दोनों को ही एक साथ लाना होता है। यह कैसे सम्पन्न हो?

इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए परागण एक प्रक्रम है। परागकणों (परागकोश से झड़ने के पश्चात्) का स्त्रीकेसर के वर्तिकाग्र तक स्थानांतरण या संचारण को परागण कहा जाता है। परागण की प्राप्ति के लिए पुष्पी पादपों ने एक आश्चर्य जनक अनुकूलन व्यूह विकसित किया है। ये परागण को प्राप्त करने के लिए बाह्य कारकों का उपयोग करते हैं। क्या आप इस समय अधिक से अधिक बाहरी कारकों की सूची बना सकते हैं?

परागण के प्रकार — पराग के स्रोत को ध्यान में रखते हुए, परागण को तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है।

(क) स्वयुग्मन (ओटोगैमी) - एक ही (उसी) पुष्प में परागकोश से वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानांतर है (चित्र 1.9 अ)। इस प्रकार का परागण उसी पुष्प के अन्दर होता है। एक सामान्य पुष्प में, जहाँ परागकोश एवं वर्तिकाग्र खुलता एवं अनावृत होता है; वहाँ पूर्ण स्वयुग्मन अपेक्षाकृत दुर्लभ होता है। इस प्रकार के पुष्पों में स्वयुग्मन के लिए पराग एवं वर्तिकाग्र की विमुक्ति के लिए क्रमशः समकालिकता की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही परागकोश एवं वर्तिकाग्र को एक-दूसरे के पास अवस्थित होना चाहिए, ताकि स्व-परागण संपन्न हो सके। कुछ पादप जैसे कि वायोला (सामान्य पानसी), ओक्जेलीस तथा कोमेलीना (कनकौआ) दो प्रकार के पुष्प पैदा करते हैं- उन्मीलपरागणी पुष्प; अन्य प्रजाति के पुष्पों के समान ही होते हैं, जिसके परागकोश एवं वर्तिकाग्र अनावृत होते हैं तथा अनुन्मील्य परागणी पुष्प कभी भी अनावृत नहीं होते हैं (चित्र 1.9 स) इस प्रकार के पुष्पों में, परागकोश एवं वर्तिकाग्र एक-दूसरे के बिल्कुल नजदीक स्थित होते हैं। जब पुष्प कलिका में परागकोश स्फुटित होते हैं तब परागकण वर्तिकाग्र के सम्पर्क में आकर परागण को प्रभावित करते हैं। अतः अनुन्मील्य परागणी पुष्प सदैव स्वयुग्मक होते हैं क्योंकि यहाँ पर वर्तिकाग्र पट क्रास या पर-परागण अवतरण के अवसर नहीं होते हैं।

उन्मील परागणी पुष्प सुनिश्चित रूप से (यहाँ तक कि परागण की अनुपस्थित में) बीज पैदा करते हैं। क्या आप सोचते हैं कि अनुन्मील्य पौधों को इससे फायदे हैं या हानि? क्यों?

(ख) सजातपुष्पी परागण - एक ही पादप के एक पुष्प के परागकणों का दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्रों तक का स्थानांतरण है। यद्यपि सजातपुष्पी परागण क्रियात्मक रूप से पर परागण है जिसमें एक कारक (एजेंट) सम्मिलित होता है। सजातपुष्पी परागण लगभग स्वयुग्मन जैसा ही है; क्योंकि इसमें परागकण उसी पादप से आते हैं।

(ग) परनिषेचन — इसमें भिन्न पादपों के पराग कोश से भिन्न पादपों के वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानांतरण होता है (चित्र 1.9 ब)। मात्र यह ही केवल एक प्रकार का परागण है, जिसमें परागण के समय आनुवंशिकतः भिन्न प्रकार के परागकणों का आगमन होता है। परागण के अभिकर्मक या कारक — पौधे परागण के कारक या अभिकर्मक के रूप में दो अजीवीय (वायु एवं जल) तथा एक जीवीय (प्राणि) कारक (एजेंट) का उपयोग कर लक्ष्य प्राप्त करते हैं। अधि कतर पौधे परागण के लिए जीवीय कारकों का उपयोग करते हैं। बहुत कम पौधे अजीवीय कारकों का उपयोग करते हैं। वायु तथा जल दोनों ही कारकों में परागकण का वर्तिकाग्र के संपर्क में आना महज संयोगात्मक

चित्र 1.10 वायु परागित पादप संघनित पुष्पक्रम तथा स्पष्ट अनावृत पुंकेसर को दर्शाते हुए। घटना है। इस प्रकार की अनिश्चितता तथा परागकणों के ह्रास से जुड़े ‘तथ्यों’ की क्षतिपूर्ति हेतु पौधे, बीजांडों की तुलना में, असंख्य मात्रा में परागकण उत्पन्न करते हैं।

अजीवीय परागण में वायु द्वारा परागण सर्वाधिक सामान्य परागण है। इसके साथ ही वायु परागण हेतु हल्के तथा चिपचिपाहट रहित परागकणों की जरूरत होती है ताकि वे हवा के झोकों के साथ संचारित हो सकें। वे अक्सर बेहतर अनावृत पुंकेसर से युक्त होते हैं (ताकि वे आसानी से हवा के बहाव में प्रसारित हो सकें) तथा वृहद एवं प्रायः पिच्छ वर्तिकाग्र युक्त होते हैं ताकि आसानी से वायु के उड़ते परागणों को आबद्ध किया जा सके (चित्र 1.10) वायु परागित पुष्पों में प्रायः प्रत्येक अंडाशय में एक अकेला बीजांड तथा एक पुष्प क्रम में असंख्य पुष्प गुच्छ होते हैं। इसका एक जाना-पहचाना उदाहरण भुट्टा (कोर्नकैव) हैं - आप जो फुंदने (टैसेल) देखते हैं वे कुछ और नहीं, बल्कि वर्तिकाग्र और वर्तिका है जो हवा में झूमते हैं ताकि परागकणों को आसानी से पकड़ सकें। घासों में वायु परागण सर्वथा सामान्य है।

पुष्पीपादपों में पानी द्वारा परागण काफी दुर्लभ है। यह लगभग 30 वंशों तक सीमित है, वह भी अधिकतर एकबीजपत्री पौधों में। इसके विपरीत, आप स्मरण करें कि निम्नपादप समूह जैसे — एलगी, ब्रायोफ़ाइट्स तथा टेरिडोफ़ाइट्स आदि के नर युग्मकों के

( अ)

(ब)

चित्र 1.11 (अ) वैलिसनेरिया में जल द्वारा परागण

(ब) कीट परागण परिवहन (संचार) का नियमित साधन जल ही है। यह विश्वास किया जाता है कि कुछ ब्रायोफ़ाइट एवं टैरिडोफ़ाइट्स का विस्तार केवल इसलिए सीमित है, क्योंकि नर युग्मकों के परिवहन एवं निषेचन हेतु जल की आवश्यकता होती है। जल परागित पादपों के कुछ उदाहरण वैलिसनैरिया तथा हाइड्रिला जो कि ताजे पानी में उगते हैं और अनेकों समुद्र जलीय घासें जैसे जोस्टेरा आदि हैं। सभी जलीय पौधे जल को परागण के लिए उपयोग में नहीं लाते हैं। अधिकांश जलीय पौधे जैसे कि वाटर हायसिंथ एवं वाटरलिली (मुकुदनी) पानी के सतह पर पैदा होते हैं; और इनका परागण कीटों एवं वायु से होता है, जैसा कि अधिकतर थलीय पादपों में होता है। एक प्रकार के जलीय परागण में मादा पुष्प एक लंबे डंठल (वृंत) द्वारा जल की सतह पर आ जाते हैं और नर पुष्प या परागकण पानी की सतह पर अवमुक्त होकर आ जाते हैं उदाहरणार्थ — बैलीसनेरिया लंबे डंठल के साथ जल धाराओं में निष्क्रिय रूप से बहते रहते हैं (चित्र 1.11 अ)। इनमें से कुछेक संयोगात्मक रूप से मादा पुष्प एवं वर्तिकाग्र तक पहुँच जाते हैं। एक अन्य समूह के जलीय परागण वाले पादपों; जैसे कि समुद्री घासों (सीग्रासेस) में मादा पुष्प जल के सतह के नीचे ही पानी में डूबा रहता है और परागकणों को जल के अंदर ही अवमुक्त किया जाता है। इस प्रकार की बहुत सारी प्रजातियों के परागकण लंबे, फीते जैसे होते हैं तथा जल के भीतर निष्क्रिय रूप से बहते रहते हैं, इनमें से कुछेक वर्तिकाग्र तक पहुँच जाते हैं और परागण पूरा होता है। जल परागित अधिकतर प्रजातियों में परागकणों को पानी के भीतर गीले श्लेष्पक आवरण द्वारा संरक्षित रखा जाता है।

वायु एवं जल परागित पुष्प न तो बहुत रंग युक्त होते हैं और न ही मकरंद पैदा करते हैं। इसका क्या कारण हो सकता है?

अधिकतर पुष्पीय पादप परागण के लिए प्राणियों को परागण कर्मक/कारक के रूप में उपयोग करते हैं। मधुमक्खियाँ, भौरे, तितलियाँ, बर्र, चीटियाँ, शलभ या कीट, पक्षी

(शकखोरा तथा गुंजनपक्षी) तथा चमगादड़ आदि सामान्य परागणीय अभिकर्मक हैं। प्राणियों में कीट-पतंग विशेष रूप से मधुमक्खी (चित्र 1.11), प्रधान जीवीय परागण कर्मक हैं। यहाँ तक कि बड़े नर — वानरगण के प्राणी (लीमर या लेम्यूर) वृक्षवासी (शाखा चारी) कृंतक और यहाँ तक कि सरीसृपवर्ग (गीको छिपकली तथा उपवन छिपकली) भी कुछ प्रजाति के पादपों के परागण के लिए सक्रिय पाए गए हैं। प्रायः प्राणि परागित पादपों के पुष्प एक विशिष्ट प्रजाति के प्राणि के लिए विशेष रूप से अनुकूलित होते हैं।

अधिकतर कीट परागित पुष्प बड़े, रंगीन पूर्ण सुगंध युक्त तथा मकरंद से भरपूर होते हैं। जब पुष्प छोटे होते हैं तब अनेक पुष्प एक पुष्पवृंत में समूह बद्ध होकर अधिक उभर आते हैं। प्राणि रंगों एवंअथवा सुगंध (महक) के कारण पुष्पों की ओर आकर्षित होते हैं। मक्खियों एवं बीटलों से परागणित होने वाले पुष्प मलिन गंध स्रावित करते हैं, जिससे ये प्राणी आकर्षित होते हैं। प्राणियों से भेंट जारी रखने के लिए पुष्पों को कुछ लाभ या पारितोषिक उपलब्ध कराना होता है। मकरंद और परागकण फूलों द्वारा प्रदत्त आम पारितोषिक हैं। इस पारितोषिकों को पाने के लिए प्राणि आगंतुकों को परागकोश तथा वर्तिकाग्र के संपर्क में आना पड़ता है। प्राणि के शरीर पर परागकणों का एक आवरण सा चढ़ जाता है, जो प्राणि परागित फूलों में प्रायः चिपचिपा होता है। जब परागकणों से लिप्त प्राणि वर्तिकाग्र के संपर्क में आता है तो यह परागण पूरा करता है।

कुछ पुष्प प्रजातियों में यह पुरस्कार अंडा देने की सुरक्षित जगह के रूप में होता है। एक उदाहरण एमोरफोफेलस का लंबोतर पुष्प (पुष्प स्वतः लगभग 6 फुट ऊँचा होता है)। ठीक ऐसा ही एक सह-संबंध शलभ की एक प्रजाति और युका पादप के बीच होता है जहाँ दोनों ही प्रजाति-शलभ एवं पादप बिना एक दूसरे के बिना अपना जीवन चक्र नहीं पूरा कर सकते हैं। इसमें शलभ अपने अंडे पुष्प के अंडाशय के कोष्ठक में देती है। जबकि इसके बदले में वह शलभ द्वारा परागित होता है। शलभ का लारवा अंडे से बाहर तब आता है जब बीज विकसित होना प्रारंभ होता है।

क्यों न आप निम्नलिखित पादपों (या कोई भी जो उपलब्ध हो) के पुष्पों का अवलोकन करें जैसे खीरा, आम, पीपल, धनिया, पपीता, प्याज, लोबिया, कपास, तंबाकू, गुलाब, नींबू, यूकेलिप्टस, केला आदि। यह पता करने की कोशिश करें कि इन पुष्पों के पास कौन से प्राणि आते हैं और क्या वे परागण कर सकते हैं? आप को धैर्य के साथ कुछ दिनों तक, भिन्न-भिन्न समयों पर उन्हें देखना होगा। आप यह देखने की भी कोशिश करें कि क्या उस पुष्प तक आने वाले (भ्रमणकारी) प्राणि तथा एक पुष्प की विशिष्टता के बीच कोई सह सम्बद्धता है या नहीं। परागकोश एवं वर्तिकाग्र के संपर्क में आने वाले भ्रमणकर्ता प्राणि का ध्यानपूर्वक अवलोकन करें जो परागण को पूरा करता हो। बहुत सारे कीट या भ्रमणकर्ता बिना परागण किए पराग या मकरंद का भक्षण कर लेते हैं। अतः ऐसे आगंतुकों या भ्रमणकारियों को पराग/मकरंद दस्यु के रूप में संदर्भित किया जाता है। आप शायद परागणकारियों को पहचान सके या न पहचान सकें, पर आप निश्चित रूप से अपने प्रयास में आनंद प्राप्त करेंगे।

बहिःप्रजनन युक्तियाँ — अधिकतर पुष्पीय पादप उभयलिंगी पुष्पों एवं परागकणों को उत्पन्न करते हैं जो बहुत हद तक उसी पुष्प के वर्तिकाग्र के संपर्क में आते हैं। निरंतर

स्व परागण के फलस्वरूप प्रजनन में अन्तः प्रजनन अवनमन होता है। पुष्पीय पादपों ने बहुत सारे ऐसे साधन या उपाय विकसित कर लिए हैं जो स्वपरागण को हतोत्साहित एवं परपरागण को प्रोत्साहित करते हैं। कुछ प्रजातियों में पराग अवमुक्ति एवं वर्तिकाग्र ग्राह्यता समकालिक नहीं होती है या तो वर्तिकाग्र के तैयार होने से पहले ही पराग अवमुक्त कर दिए जाते हैं या फिर परागों के झड़ने से काफी पहले ही वर्तिकाग्र ग्राह्य बन जाता है। कुछ प्रजातियों में परागकोश एवं वर्तिकाग्र भिन्न स्थानों पर अवस्थित होते हैं। जिससे उसी पादप में पराग वर्तिकाग्र के संपर्क में नहीं आ पाते हैं। दोनों ही युक्तियाँ स्वयुग्मन रोकती हैं। अन्तः प्रजनन रोकने का तीसरा साधन स्व-असामंजस्य है। यह एक वंशानुगत प्रक्रम तथा स्वपरागण रोकने का उपाय है। उसी पुष्प या उसी पादप के अन्य पुष्प से जहाँ बीजांड के निषेचन को पराग अंकुरण या स्त्रीकेसर में परागनलिका वृद्धि को रोका जाता है। स्वपरागण को रोकने के लिए एक अन्य साधन है, एकलिंगीय पुष्पों का उत्पादन। अगर एक ही पौधे पर नर एवं मादा दोनों ही पुष्प उपलब्ध हो जैसे - एरंड, मक्का (उभयलिंगाश्रयी), यह स्वपरागण को रोकता है न कि सजातपुष्पी परागण को।

अन्य बहुत सारी प्रजातियों जैसे पपीता में नर एवं मादा पुष्प भिन्न पादपों पर होते हैं अर्थात् प्रत्येक पादप या तो मादा या नर है (एकलिंगाश्रयी)। यह परिस्थिति स्वपरागण तथा सजातपुष्पी परागण दोनों को अवरोधित करती हैं।

पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण (पारस्परिकक्रिया) - परागण बिल्कुल सही प्रकार के परागकणों का स्थानांतरण सुनिश्चित नहीं कराता है (ठीक उसी प्रजाति का सुयोग्य पराग वर्तिकाग्र तक पहुँचे)। प्रायः गलत प्रकार के पराग भी उसी वर्तिकाग्र पर आ पड़ते हैं (जिसमें ये, या तो उसी पादप से होते हैं या फिर अन्य पादप से; (यदि वह स्व परागण के अयोग्य है)। स्त्रीकेसर में यह सक्षमता होती है कि वह पराग को पहचान सके कि वह उसी वर्ग के सही प्रकार का पराग (सुयोग्य) है या फिर गलत प्रकार का (अयोग्य) है। यदि पराग सही प्रकार का होता है तो स्त्रीकेसर उसे स्वीकार कर लेता है तथा परागण-पश्च घटना के लिए प्रोत्साहित करता है जो कि निषेचन की ओर बढ़ता है। यदि पराग गलत प्रकार का होता है तो स्त्रीकेसर वर्तिकाग्र पर पराग अंकुरण या वर्तिका में पराग नलिका वृद्धि रोककर पराग को अस्वीकार कर देता है। एक स्त्रीकेसर द्वारा पराग के पहचानने की सक्षमता उसकी स्वीकृति या अस्वीकृति द्वारा अनुपालित होती है, जो परागकणों एवं स्त्रीकेसर के बीच निरंतर संवाद का परिणाम है। इस संवाद की मध्यस्थता स्त्रीकेसर तथा पराग के रासायनिक घटकों के संकर्षण द्वारा होता है। अभी हाल ही में कुछ वनस्पति विज्ञानियों ने स्त्रीकेसर एवं पराग के घटकों को पहचाना है तथा उनके बीच संकर्षण (परस्परक्रिया) को स्वीकृति या अस्वीकृति के अनुपालन से जाना है।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है; सुयोग्य परागण के अनुपालन में; परागकण वर्तिकाग्र पर जनित होते हैं ताकि एक जनन छिद्र के माध्यम से एक परागनलिका उत्पन्न हो (चित्र 1.12 अ)। पराग नलिका वर्तिकाग्र तथा वर्तिका के ऊतकों के माध्यम से वृद्धि करती है और अंडाशय तक पहुँचती है (चित्र 1.12 ब, स)। आप याद करें कि कुछ पादपों में परागकण दो कोशीय स्थिति में (एक कायिक कोशिका तथा दूसरी जनन कोशिका) झड़ते हैं।

( अ)

(ब)

( स)

(द) ध्रुवी केंद्रकी

( इ)

चित्र 1.12 (अ) परागकणों का वर्तिकाग्र पर अंकुरण (ब) वर्तिका में पराग नलिकाओं की वृद्धि (स) स्त्रीकेसर के अनुप्रस्थ (लंब) काट में पराग नलिका की वृद्धि दिख रही है, (द) एक अंड सम्मुचय के वृहद् दृश्य पटल पर एक सहाय कोशिका के तंतुमय सम्मुचय में पराग नलिका का प्रवेश दिखता है। (इ) एक सहाय कोशिका में नर युग्मक का स्खलन एवं शुक्राणु की गतिशीलता — जो एक अंडे में तथा दूसरी केंद्रीय कोशिका में हैं।

इस प्रकार के पादपों में जनन कोशिका विभाजित होती है और वर्तिकाग्र में परागनलिका की वृद्धि के दौरान दो नर युग्मकों की रचना करती है। जिन पादपों में पराग तीन कोशीय स्थिति में होते हैं, वहाँ परागनलिका शुरूआत से ही दो नर युग्मकों को ले जाती है।

परागनलिका अंडाशय में पहुँचने के पश्चात्, बीजांड द्वार के माध्यम से बीजांड में प्रविष्ट करती है और तत्पश्चात् तंतुमय समुच्चय के माध्यम से एक सहाय कोशिका में प्रविष्ट करती है (चित्र 1.12 द, इ)। हाल ही के बहुत सारे अध्ययन यह दर्शाते हैं कि सहाय कोशिका के बीजांडद्वारी हिस्से पर उपस्थित तंतुरूपसमुच्चय पराग नलिका के प्रवेश को दिशा निर्देशित करती है। वर्तिकाग्र पर पराग अवस्थित होने से लेकर बीजांड में पराग नलिका के प्रविष्ट होने तक की सभी घटनाओं को परागस्त्रीकेसर संकर्षण के नाम से

संबोधित किया जाता है। जैसा कि पहले भी बताया गया है पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण एक गतिक प्रक्रम है जिसमें पराग पहचान के साथ पराग को प्रोन्नति या अवनति द्वारा अनुपालन सम्मिलित है। इस क्षेत्र के बारे में ज्ञान प्राप्त करने से पादप प्रजनकों को पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण के हेर-फेर में, यहाँ तक कि अयोग्य परागण से अपेक्षित संकर (जाति) प्राप्त करने में मदद प्राप्त होगी।

आप एक काँच की पट्टी (स्लाइड) पर जल शर्करा घोल ( 10 प्रतिशत घोल) की एक बूँद पर मटर, चना (चिकपी), क्रोटालेरिया, बालसम (गुलमेंहदी) तथा विनका (सदाबहार) के पुष्पों से कुछ पराग झाड़ कर गिराने के पश्चात् पराग जनन का अध्ययन आसानी के साथ कर सकते हैं। स्लाइड पर इन्हें रखने के 15 से 30 मिनट के बाद स्लाइड को कम शक्ति (लो पावर) के लेंस वाले सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर रखकर अवलोकित करें। बहुत संभव है कि आप परागकणों से निकलती हुई पराग नलिकाओं को देख पाएँ।

एक प्रजनक भिन्न प्रजातियों के संकरण (क्रासिंग) में तथा वाणिज्यिक रूप से सर्वोत्तम श्रेणी के अपेक्षित विशिष्टता वाले जनन सम्पाक् में रूचि रखते हैं। कृत्रिम संकरीकरण फसल की उन्नति या प्रगतिशीलता कार्यक्रम के लिए एक प्रमुख उपागम है। इस प्रकार के संकरण प्रयोगों हेतु, यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि केवल अपेक्षित परागों का उपयोग परागण के लिए किया जाए तथा वर्तिकाग्र को संदूषण (अनापेक्षित परागों) से बचाया जाए। यह उपलब्धि केवल बोरावस्त्र तकनीक (बैगिंग टेकनीक) तथा विपुंसन तकनीक द्वारा पाई जा सकती है।

यदि कोई मादा जनक द्विलिंगी पुष्पधारण करता है तो पराग के प्रस्फुटन से पहले पुष्प कलिका से पराग कोश के निष्कासन हेतु एक जोड़ा चिमटी का इस्तेमाल आवश्यक होता है। इस चरण को विपुंसन के रूप में संदर्भित किया जाता है। विपुंसित पुष्पों को उपयुक्त आकार की थैली से आवृत किया जाना चाहिए जो सामान्यतः बटर पेपर (पतले कागज़) की बनी होती है। ताकि इसके वर्तिकाग्र को अवांछित परागों से बचाया जा सके। इस प्रक्रम को बैगिंग (या बोरा-वस्त्रावरण) कहते हैं। जब बैगिंग (वस्त्रावृत) पुष्प का वर्तिकाग्र सुग्राह्यता को प्राप्त करता है तब नर अभिभावक से संग्रहीत पराग कोश के पराग को उस पर छिटका जाता है और उस पुष्प को पुनः आवरित करके, उसमें फल विकसित होने के लिए छोड़ दिया जाता है।

यदि मादा जनक एकलिंगीय पुष्प को पैदा करता है तो विपुंसन की आवश्यकता नहीं होती है। पुष्पों के खिलने से पूर्व ही उन्हें आवृत कर दिया जाता है। जब वर्तिकाग्र सुग्राह्य बन जाता है तब अपेक्षित पराग के उपयोग द्वारा परागण करके पुष्प को पुनः आवृत (रिबैगाड) कर दिया जाता है।

1.3 दोहरा निषेचन ( द्वि-निषेचन )

एक सहायकोशिका में प्रवेश करने के पश्चात् पराग नलिका द्वारा सहायकोशिका के जीव द्रव्य में दो नर युग्मक अवमुक्त किए जाते हैं। इनमें से एक नर युग्मक अंड कोशिका की ओर गति करता है और केंद्रक के साथ संगलित होता है, जिससे युग्मक संलयन पूर्ण होता है। जिसके परिणाम में एक द्विगुणित कोशिका युग्मनज (जाइगोट) की रचना

होती है। दूसरा नर युग्मक केंद्रीय कोशिका में स्थित दो ध्रुवीय न्युक्ली (केंद्रिकी) की ओर गति करता है और उनसे संगलित होकर त्रिगुणित ( प्राइमरी इंडोस्पर्म न्युकिलयस ( प्राथमिक भ्रूणपोष केंद्रक) बनाता है। जैसा कि इसके अन्तर्गत तीन अगुणितक न्युक्ली (केंद्रिकी) सम्मिलित होते हैं। अतः इसे त्रिसंलयन कहते हैं (चित्र 1.13 अ)। चूँकि एक भ्रूण पुटी (भ्रूणकोश) में दो प्रकार के संलयन (संगलन), युग्मकसंलयन तथा त्रिसंलयन स्थान लेते हैं अतः इस परिघटना को दोहरा निषेचन कहा जाता है। जो कि पुष्पी पादपों के लिए एक अनूठी घटना है। त्रिसंलयन के पश्चात् केंद्रीय कोशिका प्राथमिक भ्रूणपोष कोशिका बन जाती है तथा भ्रूणपोष के रूप में विकसित होने लगती है जबकि युग्मनज एक भूण के रूप में विकसित होता है।

(अ)

(ब)

चित्र 1.13 (अ) एक निषेचित भ्रूण कोश (पुटी) युग्मनज तथा प्राथमिक भ्रूणपोष केंद्रिकी को दर्शाता है। (ब) एक द्विबीज पत्री में भ्रूण विकास के चरण

1.4 निषेचन — पश्च-संरचनाएँ एवं घटनाएँ

ऊपर वर्णित किए गए दोहरे निषेचन के अनुपालन या अनुहरण में भ्रूण पोष एवं भ्रूण के विकास की अगली घटनाक्रम में; बीजांड के परिपक्व होकर बीज में बदलने तथा अंडाशय को फल के रूप में विकसित होने की सभी घटनाओं को सामूहिक रूप में निषेचन-पश्च घटना के नाम से जाना जाता है।

( अ)

(ब)

चित्र 1.14 (अ) एक प्ररूपी द्विबीजपत्री भ्रूण (ब) एक घास के भ्रूण का अनुप्रस्थ काट

1.4.1 भ्रूणपोष

भ्रूणपोष का विकास भ्रूण विकास के रूप में बढ़ता है। क्यों? प्राथमिक भ्रूणपोष कोशिका बार-बार विभाजित होती है तथा एक त्रिगुणित भ्रूणपोष ऊतक की रचना करते हैं। इन ऊतकों की कोशिकाएँ संरक्षित खाद्य सामग्री से पूरित होती हैं और विकासशील भ्रूण की पोषकता के लिए उपयोग किए जाते हैं। सर्वाधिक सामान्य प्रकार के प्राथमिक भ्रूणपोष केंद्रक नामक भ्रूणपोष विकास उत्तरोत्तर केंद्रकी (न्युकिलयर) विभाजन से गुजर कर मुक्त न्युक्ली (केंद्रकी) के रूप में पैदा होता है। भ्रूणपोष के विकास की इस अवस्था को फ्रीन्युकिलयर इंडोस्पर्म अर्थात् मुक्त केंद्रकी भ्रूणपोष कहते हैं। इसके सापेक्ष ही कोशिका भित्ति रचना स्थान लेती है और भ्रूणपोष कोशकीय बन जाता है। कोशिकीकरण से पहले मुक्त न्युक्लीआइयों की संख्याओं में व्यापक भिन्नता होती है। एक कच्चे नारियल का पानी, जिससे आप परिचित हैं, और कुछ नहीं भी, बल्कि यह मुक्त केंद्रकी भूरपोष (जो हजारों न्युक्ली से बना) है और इसके आस-पास का सफेद गूदा (गिरी) कोशकीय भ्रूणपोष होता है।

बीज के परिपक्व होने से पहले भ्रूणपोष पूरी तरह से विकासशील भ्रूण (जैसे - मटर, मूँगफली, सेम आदि) द्वारा उपभोग कर लिया जाता है या फिर परिपक्व बीज में विद्यमान रहता है (जैसे — अरंडी और नारियल) और इसे बीज अंकुरण के समय इस्तेमाल किया जाता है। यदि अरंडी, मटर, सेम, मूँगफली आदि के बीज या नारियल के फल को खोले और प्रत्येक में भूणपोष को देखें और पता करें, क्या भूर पोष अनाजों — गेहूँ, चावल तथा मक्का में विद्यमान है?

1.4.2 भ्रूण

भ्रूण भ्रूणकोश या पुटी के बीजांडद्वारी सिरे पर विकसित होता है; जहाँ पर युग्मनज स्थित होता है। अधिकतर युग्मनज तब विभाजित होते हैं जब कुछ निश्चित सीमा तक भ्रूणपोष विकसित हो जाता है। यह एक प्रकार का अनुकूलन है ताकि विकासशील भ्रूण को सुनिश्चित पोषण प्राप्त हो सके। यद्यपि बीज में व्यापक भिन्नता होती है। भ्रूण विकास ( भ्रूणोद्भव) की प्रारंभिक अवस्था (चरण) एक बीजपत्री तथा द्विबीजपत्री दोनों ही में समान होती है (चित्र 1.13)। युग्मनज प्राक्भ्रूण के रूप में वृद्धि करता है और इसके सापेक्ष ही गोलाकार, हृदयाकार तथा परिपक्व भ्रूण में वृद्धि करता है।

एक प्ररूपी द्विबीजपत्री भ्रूण (चित्र 1.14 अ) में एक भ्रूणीय अक्ष (धुरी) तथा दो बीजपत्र समाहित होते हैं। बीजपत्र के स्तर से ऊपर भ्रूणीय अक्ष की प्रोटीन (एपीकाटील) बीजपत्रोपरिक होती है जो प्रांकुर या स्तंभ सिरे पर प्रायः समाप्त होती है। बीजपत्राधार में बीजपत्रों के स्तर से नीचे

बेलनाकार प्रोटीन, जो कि मूलांत सिरा या मूलज के शीर्षांत पर समाप्त होती है। यह मूलशीर्ष एक ढक्कन द्वारा आवृत होती है, जिसे मूल गोप कहते हैं।

एकबीजपत्रीय-भ्रूण (चित्र 1.14 ब) केवल एक बीजपत्र होता है। घास परिवार में बीजपत्र को स्कुटेलम ( प्रशल्क) कहते हैं। जो भ्रूणीय अक्ष के एक तरफ (पार्श्व की ओर) स्थित होता है। इसके निचले सिरे पर भ्रूणीय अक्ष में एक गोलाकार और मूल आवरण एक बिना विभेदित पर्त से आवृत्त होता है। जिसे (कोलियोराइजा) मूलाकुंर चोल कहते हैं। स्कुटेलम के जुड़ाव के स्तर से ऊपर, भ्रूणीय अक्ष के भाग को बीजपत्रोपरिक कहते हैं। बीजपत्रोपरिक में प्ररोह शीर्ष तथा कुछ आदि कालिक (आद्य) पर्ण होते हैं, जो एक खोखला-पणीर्य संरचना को घेरते हैं, जिसे प्रांकुरचोल कहते हैं।

जल में कुछ बीजों (जैसे कि गेहूँ, मक्का, मटर, चना, मूंगफली को रात भर पानी में भिगोएँ। इसके बाद बीजों को छीलें और खोलें तथा भूण एवं बीज के विभिन्न भागों का अवलोकन करें।

1.4.3 बीज

आवृतबीजियों में, लैंगिक जनन का अंतिम परिणाम बीज होता है। इसको प्रायः एक निषेचित बीजांड के रूप में वर्णित किया जाता है। बीज फलों के अंदर पैदा होते हैं। एक बीज में विशिष्ट रूप से बीज आवरण, बीजपत्र तथा एक भ्रूण अक्ष (अँखुआ) समाहित होता है। भ्रूण का बीजपत्र (चित्र 1.15 अ) एक सरल संरचना होती है। प्रायः आरक्षित आहार भंडारण के कारण फूली हुई एवं स्थूल होती है (जैसा कि लेग्युमस में)। परिपक्व बीज गैर-एल्बुमिनस अथवा एल्बुमिनस रहित हो सकता है। गैर-एल्बुमिनस बीज में अवशिष्ट भ्रूणपोष नहीं होता है; क्योंकि भ्रूण विकास के दौरान यह पूर्णतः उपभुक्त कर लिया जाता है (जैसे - मटर, मूँगफली)। एल्बुमिनस बीजों में भ्रूणपोष का कुछ भाग शेष रह जाता है क्योंकि भ्रूण विकास के दौरान इसका पूर्णतः उपभोग नहीं हो पाता है (जैसे कि गेहूँ, मक्का, बाजरा, अरंड आदि)। कभी-कभार कुछ बीजों में जैसे कि काली मिर्च तथा चुकंदर में बीजांडकाय (न्यूसैलस) भी शेष रह जाता है। अवशिष्ट उपस्थित बीजांडकाय परिभ्रूणपोष होता है।

बीजांड (अंडाशय) का अध्यावरण बीज के ऊपर सख्त संरक्षात्मक आवरण बन जाता है (चित्र 1.15 अ)। बीज के आवरण में बीजांडद्वार एक छोटे छिद्र के रूप में रह जाता है। बीज अंकुरण के समय यह ऑक्सीजन एवं जल के प्रवेश को सुगम बनाता है। जैसे-जैसे बीज परिपक्व होता है, उसके अंदर जल की मात्रा घटने लगती है तथा बीज अपेक्षाकृत शुष्क होता जाता है। फलस्वरूप सामान्य चयापचयी क्रिया धीमी पड़ने लगती है। भ्रूण निष्क्रियता की दशा में प्रवेश कर जाता है, जिसे प्रसुप्ति कहते हैं या यदि अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध (पर्याप्त नमी, आर्द्रता, ऑक्सीजन तथा उपयुक्त तापमान) होती है तो वे अंकुरित हो जाते हैं।

जैसे-जैसे बीजांड परिपक्व होकर बीज बनते हैं अंडाशय एक फल के रूप में विकसित हो जाता है अर्थात् बीजांड का बीज के रूप में तथा अंडाशय का फल के रूप में रूपांतरण साथ-साथ चलता है। अंडाशय की दीवार, फल की दीवार (छिलके) के रूप

(ब) ( अ)

चित्र 1.15 (अ) कुछ बीजों की संरचना (ब) सेब एवं स्ट्राबेरी के आभासी फल

में विकसित होती है जिसे फलभित्ति कहते हैं। फल अमरूद, आम, संतरे आदि की भाँति गूदेदार हो सकते हैं अथवा मूँगफली, सरसों आदि की भाँति शुष्क भी हो सकते हैं। बहुत सारे फलों ने अपने बीजों के परिक्षेपण हेतु विविध क्रिया विधियाँ विकसित की हैं। आप फलों के वर्गीकरण एवं उनके परिक्षेपण क्रियाओं को याद करें जिसे आपने पहले की कक्षाओं में पढ़ा है। क्या एक अंडाशय के अन्दर बीजांड की संख्या तथा फलों के अन्दर बीजों की संख्या के बीच कोई संबंध है?

अधिकतर पादपों में, जब तक अंडाशय से फल विकसित होता है, उसके अन्य पुष्पीय अंश अपहासित एवं झड़ जाते हैं। हालाँकि, कुछेक प्रजातियों में; जैसे कि सेब, स्ट्राबेरी (रसभरी), अखरोट आदि में फल की रचना में पुष्पासन भी महत्त्वपूर्ण भागीदारी निभाता है। इस प्रकार के फलों को (मिथ्या) आभासी फल कहते हैं (चित्र 1.15 ब)। अधिकतर फल केवल अंडाशय से विकसित होते हैं और उन्हें यथार्थ या वास्तविक फल कहते हैं। यद्यपि अधिकतर प्रजातियों में फल निषेचन का परिणाम होते हैं; परंतु कुछ ऐसी प्रजातियाँ भी हैं जिनमें बिना निषेचन के फल विकसित होते हैं। ऐसे फलों को अनिषेकजनितफल कहते हैं। इसका एक उदाहरण केला है। अनिषेक फलन को वृद्धि हार्मोन्स के प्रयोग से प्रेरित किया जा सकता है और इस प्रकार के फल बीज रहित होते हैं।

बीज आवृतबीजियों को अनेक लाभ प्रस्तावित करते हैं। पहला, जबकि प्रजनन प्रक्रिया जैसे कि परागण एवं निषेचन जल आदि से स्वतंत्र हैं, बीज की रचना काफी निर्भरता पूर्ण है। इसके साथ ही बीज नए पर्यावासों में प्रसारण हेतु बेहतर अनुकूलित रणनीतियों से युक्त होते हैं तथा प्रजाति को अन्य क्षेत्रों में बसने में मदद करते हैं। जैसा कि इनमें पर्याप्त आरक्षित आहार भंडार होता है, अल्पवयस्क नवोद्भिद तब तक पोषण देते हैं, जब तक कि वह स्वयं ही प्रकाश संश्लेषण न करने लगे। युवा भ्रूण को कठोर बीज-आवरण संरक्षण प्रदान करता है। लैंगिक प्रजनन का उत्पाद होने की वजह से, ये नवीन जेनेटिक (वंशीय) सम्पाक् को पैदा करते हैं जो विविधता का रूप लेते हैं।

बीज हमारी कृषि का आधार है। बीज के भंडारण हेतु परिपक्व बीज का निर्जलीकरण एवं प्रसुप्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है; जिसे पूरे वर्ष भर खाद्यान्न के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है तथा अगले मौसम के लिए फसल के रूप में उगाया भी जा सकता है। क्या आप बीज के बिना या उस बीज के बिना — जो तुरंत ही अंकुरित हो जाता है और भंडारित न किया जा सकता हो - खेती की कल्पना कर सकते हैं?

बीज के परिक्षेपण (छितराने) के बाद, वह कितने समय तक जीवित रह सकता है? यह अवधि पुन: व्यापक रूप से भिन्न होती है। कुछ प्रजातियों में बीज अपनी जीवन क्षमता कुछ महीनों में ही खो देते हैं। बहुसंख्य प्रजातियों के बीज कई वर्षों तक जीवनक्षम रहते हैं। कुछ बीज तो सैकड़ों वर्षों तक जीवित रह सकते हैं। यहाँ पर विश्व के प्राचीन जीवन सक्षम बीजों के अनेक रिकार्ड उपलब्ध हैं। एक प्राचीन बीज ल्यूपाइन ल्युपिनस आर्कटीकस है, जिसे आर्कटिक टुंड्रा से खनित किया गया था। एक अनुमानित रिकार्ड 10,000 वर्ष की प्रसुप्ति के बाद बीज अंकुरित एवं पुष्पित हुआ था। हाल ही का एक रिकार्ड 2000 वर्ष पुराने खजूर के जीवन क्षम बीज-फोयेनिक्स डैक्टीलीफेरा का है जिसे मृत सागर के पास किंग हैराल्ड के महल की पुरातात्विक खुदाई के दौरान खोज पाया गया था।

पुष्पी पादपों के लैंगिक प्रजनन के बारे में एक संक्षिप्त अध्ययन पूरा करने के बाद, यह अधिक सार्थक प्रयास होगा कि कुछ पुष्पी पादपों की विशाल उत्पादकीय क्षमता का परिजान निम्नलिखित प्रश्नों को पूछकर प्राप्त किया जाए - एक भूण पुटी (कोश) में कितने अंडे मौजूद होते हैं? एक बीजांड में कितने भूण कोश (पुटी) मौजूद होते हैं? एक

अंडाशय में कितने बीजांड मौजूद होते हैं? एक प्ररूपी (विशिष्ट) पुष्प में कितने अंडाशय होते हैं? एक पादप पर कितने पुष्प मौजूद होते हैं? और ऐसे ही प्रश्न…। क्या आप कुछ ऐसे पादपों के बारे में सोच सकते हैं जिनके फलों में बहुत भारी संख्या में बीज मौजूद होते हैं? इस प्रकार की श्रेणी में आर्किड फल आते हैं और प्रत्येक फल में 1000 लघु बीज समाहित होते हैं। इसी प्रकार के मामले कुछ परजीवी प्रजाति के फल जैसे कि ओरोबैंकी तथा स्ट्राइगा हैं। क्या आपने फाइकस (अंजीर) का लघु या सूक्ष्म बीज देखा है? एक छोटे से अंजीर (फाइकस) के बीज से कितना विशाल पादप तैयार होता है। प्रत्येक अंजीर का पौधा कितने लाख बीज पैदा करता है? क्या किसी अन्य उदाहरण की कल्पना कर सकते हैं जहाँ इस प्रकार के एक लघु बीज ने वर्षों तक इस तरह का विशाल जैव समूह पैदा किया हो?

1.5 असंगजनन एवं बहुभ्रूणता

यद्यपि, सामान्य तौर पर बीज निषेचन के परिणाम हैं; कुछेक पुष्पी पादपों जैसे कि एस्ट्रेर्सिया तथा घासों ने बिना निषेचन के ही बीज पैदा करने की प्रक्रिया विकसित कर ली है; जिसे असंगजनन कहते हैं। बिना निषेचन के पैदा हुए फल को क्या कहते हैं? इस प्रकार से, असंगजनन अलिंगीय प्रजनन है जो लैंगिक प्रजनन का अनुहारक है। असंगजननीय बीजों के विकास के सैकड़ों तरीके हैं। कुछ प्रजातियों में द्विगुणित अंडकोशिका का निर्माण बिना अर्धसूत्री विभाजन के होता है, जो बिना निषेचन के ही भ्रूण में विकसित हो जाता है। प्राय: कई अवसरों पर, जैसा कि बहुत सारे नींबू वंश (सिट्रस) तथा आम की किस्मों में भ्रूणकोश (पुटी) के आस पास की कुछ बीजांड कायिक कोशिकाएँ विभाजित होने लगती हैं और भ्रूणकोश में प्रोद्बधी (प्रोट्रूड) होती हैं तथा भ्रूण के रूप में विकसित हो जाती हैं। इस प्रकार की प्रजातियों में प्रत्येक बीजांड में अनेक भ्रूण होते हैं। एक बीज में एक से अधिक भ्रूण की उपस्थिति को बहुभ्रूणता कहते हैं। संतरे के कुछ बीजों को लें और उन्हें मरोड़ें तथा प्रत्येक बीज के भिन्न-भिन्न आकार एवं आकृति के तमाम भूरों का अवलोकन करें। प्रत्येक बीज के भूणों की गणना करें। असंगजनन भूणों की आनुवंशिक प्रकृति क्या होगी? क्या उन्हें क्लोन (एकपूर्वजक) कहा जा सकता है?

बहुत से हमारे खाद्य एवं शाक फसलों की संकर किस्मों को उगाया गया है। संकर किस्मों की खेती ने उत्पादकता को विस्मयकारी ढंग से बढ़ा दिया है। संकर बीजों की एक समस्या यह है कि उन्हें हर साल उगाया (पैदा किया) जाना चाहिए। यदि संकर किस्म का संगृहीत बीज को बुआई करके प्राप्त किया गया है तो उसकी पादप संतति पृथक्कृत होगी और वह संकर बीज की विशिष्टता को यथावत नहीं रख पाएगा। यदि यह संकर (बीज) असंगजनन से तैयार की जाती है तो संकर संतति में कोई पृथक्करण की विशिष्टताएँ नहीं होंगी। इसके बाद किसान प्रतिवर्ष फसल-दर-फसल संकर बीजों का उपयोग जारी रख सकते हैं और उसे प्रतिवर्ष संकर बीजों को खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी। संकर बीज उद्योग में असंगजन की महत्ता के कारण दुनिया भर में, विभिन्न प्रयोगशालाओं में असंगजनन की आनुंवशिकता को समझने के लिए शोध और संकर किस्मों में असंगजनित जीन्स को स्थानांतरित करने पर अध्ययन चल रहे हैं।

सारांश

पुष्प आवृत बीजियों में लैंगिक जनन के आधार हैं। पुष्पों में, पुंकेसरों के पुमंग-संगति नर जनन अंग का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि स्त्रीकेसर के जायांग-संगति मादा जनन अंगों का प्रतिनधित्व करते हैं।

एक प्ररूपी परागकोश द्विपालिक, द्विकोष्ठी तथा चतुष्क बीजाणुधानी होता है। परागकण लघुबीजाणुधानी के अंदर विकसित होते हैं। चार भित्ति पर्ते-अंतस्त्वचा, अंतस्थीसियम, मध्य पर्त (सतह) और टेपीटम लघुबीजाणुधानी को आवृत किए होती हैं। बीजाणुजनऊतक की कोशिकाएँ लघुबीजाणुधानी के केन्द्र में अवस्थित अर्धसूत्री विभाजन से गुजरते हुए लघुबीजाणुओं की रचना करती हैं। प्रत्येक लघुबीजाणु व्यष्टि रूप में परागकण के रूप में विकसित होता है।

परागकण नर युग्मकजनन पीढ़ी (जनन) का प्रतिनिधित्व करते हैं। परागकणों में दो सतही भित्ति होती है जो बाहर बाह्यचोल तथा अंदर की ओर अंतश्चोल कहलाती है। बाह्यचोल स्पोरोलेनिन का बना होता है और जनन छिद्र युक्त होता है। परागकण में अवनमन के समय दो कोशिकाएँ (कायिककोशिका तथा जननकोशिका) या तीन कोशिकाएँ (एक कायिककोशिका तथा दो नर युग्मक) हो सकती हैं।

स्त्रीकेसर में तीन अंग होते हैं — वर्तिकाग्र, वर्तिका तथा अंडाशय। अंडाशय में बीजांड उपस्थित होते हैं। बीजांड में एक डंठल होता है, जिसे कीपिका (फंकल) कहते हैं तथा दो संरक्षात्मक अध्यावरण तथा एक द्वार जिसे बीजांडद्वार कहते हैं, होता है। बीजांडकाय में स्थित केंद्रीय ऊतक है; जहाँ प्रप्रसूतक विभाजित होता है। प्रप्रसूतक कोशिका; गुरूबीजाणु मातृ कोशिका अर्धसूत्री विभाजन से विभाजित होते हुए एक गुरूबीजाणु भ्रूण कोश (पुटी) (एक स्त्री युग्मकोद्भिद) की रचना करते हैं। एक परिपक्व भ्रूणकोश 7 -कोशकीय एवं 8-न्युकिलिए होते हैं। बीजांड द्वारी शीर्ष पर अंड उपकरण (एप्रेटस) में दो सहायकोशिकाएँ तथा एक अंड कोशिका समाहित होती है। निभाग छोर पर तीन प्रतिव्यासांत होते हैं। केंद्र में दो ध्रुवीय न्युकली (केंद्रिकी) के साथ एक वृहद् केंद्रीय कोशिका होती है।

परागण एक प्रक्रम है, जिसमें परागकण परागकोश से वर्तिकाग्र तक स्थानांतरित होते हैं। परागण एजेंट (कारक) या तो आजीवीय (हवा एवं पानी) होते हैं या फिर जीवीय (प्राणि वर्ग) होते हैं।

पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण के अंतर्गत वे सभी घटनाएँ शामिल होती है जो वर्तिकाग्र पर परागकण के अवनमन (झड़ने) से शुरु होकर भ्रूणकोश की परागनली में (जब पराग सुयोग्य होते हैं) प्रवेश या पराग के संदमन (जब पराग अयोग्य होता है) तक की क्रिया होती है। इसके आगे सुयोग्य परागण, वर्तिकाग्र पर परागकण का अंकुरित होना, और परिणाम स्वरूप पराग नलिका का वर्तिका के माध्यम से वृद्धि करना, बीजांड में प्रवेश और अंत में एक सहाय कोशिका में दो नर युग्मकों का विसर्जन होता है। आवृतबीजी दोहरा निषेचन प्रदर्शित करते हैं क्योंकि प्रत्येक भ्रूणकोश में दो संगलन या संलयन (फ्युजन) मुख्यतः युग्मकसंलयन तथा त्रिसंलयन होते हैं।

इन संलयनों (संगलनों) का परिणाम द्विगुणित युग्मनज तथा त्रिगुणित प्राथमिक भ्रूणपोष केंद्रक (प्राथमिक भ्रूणपोष कोशिका) का परिणाम होता है। यह युग्मनज, भ्रूण तथा प्राथमिक भ्रूणपोष कोशिका, भ्रूणपोष ऊतक गठित करते हैं। भ्रूणपोष का निर्माण सदैव भ्रूण के विकास को आगे बढ़ाता है।

विकासशील भ्रूण कई विभिन्न चरणों से गुजरता है, जैसे कि प्राक्भ्रूण, गोलाकार तथा हद्याकार आकृति चरण और इसके बाद परिपक्वता। परिपक्व द्विबीजपत्री भ्रूण के अंदर दो बीजपत्र तथा प्रांकुरचोल सहित एक भ्रूणीय अक्ष तथा एक बीजपत्राधार होता है। एक बीजपत्री के भ्रूण में एक अकेला बीजपत्र होता है। निषेचन के बाद, अंडाशय फल के रूप में तथा बीजांड बीज के रूप में विकसित होता है।

असंगजनन नामक एक परिघटना कुछ आवृतबीजियों में, विशेष रूप से घास कुल में पाई गई है। यह बिना निषेचन के बीज रचना का परिणाम है। बागवानी एवं कृषि विज्ञान में असंगजनन के बहुत सारे लाभ हैं।

कुछ आवृतबीजी अपने बीज में एक से अधिक भ्रूण उत्पन्न करते हैं। इस परिघटना या दृश्य प्रवंच को बहुभ्रूणता कहा जाता है।



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