पारितंत्र

पारितंत्र को प्रकृति की एक क्रियाशील ईकाई के रूप में देखा जाता है, जहाँ पर जीवधारी आपस में तथा आस पास के भौतिक पर्यावरण के साथ परस्पर क्रिया करते हैं। पारितंत्र का आकार एक छोटे से तालाब से लेकर एक विशाल जंगल या महासागर तक हो सकता है। कई पारिस्थितिकी वैज्ञानिक संपूर्ण जीवमंडल को विश्व (ग्लोबी) पारितंत्र के रूप में देखते हैं, जिसमें पृथ्वी के सभी स्थानीय पारितंत्र समाहित होते हैं। चूँकि यह तंत्र बहुत विशाल एवं जटिल है अतः अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इसे दो आधारभूत श्रेणियों- मुख्यतः स्थलीय एवं जलीय में बाँटा गया है। जंगल, घास के मैदान तथा मरूस्थल आदि कुछ स्थलीय पारितंत्र तथा झीलें, तालाब, दलदली क्षेत्र, नदियाँ एवं ज्वार नदमुख (एस्टुअरी) आदि कुछ जलीय पारितंत्र के उदाहरण हैं। मानव निर्मित पारितंत्र के रूप में शस्यभूमि एवं जलजीवशाला को माना जा सकता है।

हम सबसे पहले, पारितंत्र की संरचना को देखेंगे ताकि निवेश (उत्पादकता), ऊर्जा का स्थानांतरण (आहार श्रृंखला / जाल, पोषण चक्र) तथा निर्गम (निम्नीकरण एवं ऊर्जा क्षति) का अवगमन (अवबोध) कर सकें। इसके साथ ही हम चक्रों, शृंखलाओं, जाल तंत्रों के संबंधों को भी देखेंगे-जोकि तंत्र के अंतर्गत प्रवाहित इन ऊर्जाओं के परिणामस्वरूप पैदा हुए हैं।

12.1 पारितंत्र संरचना एवं क्रियाशीलता

अध्याय 13 में आपने पर्यावरण के विभिन्न घटकों के बारे में अध्ययन किया, जिसमें दोनों जैविक एवं अजैविक घटक शामिल हैं। आपने पढ़ा है कि किस प्रकार से जैविक एवं अजैविक घटक व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे को तथा अपने आस पास के वातावरण को प्रभावित करते हैं। आइए! अब इन घटकों को और अधिक समेकित (संयुक्त) रूप से देखें तथा यह जाने कि पारितंत्र के इन घटकों के अंतर्गत ऊर्जा प्रवाह कैसे संपन्न होता है।

जैविक एवं अजैविक घटकों की परस्पर क्रियाओं के फलस्वरूप एक भौतिक संरचना विकसित होती है, जो प्रत्येक प्रकार के पारितंत्र की विशिष्टता है। एक पारितंत्र की पादप एवं प्राणि प्रजातियों की पहचान एवं गणना इसकी प्रजातियों के संघटन (कंपोजीशन) को प्रकट करता है। विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रजातियों के ऊर्ध्वाधर वितरण को स्तरविन्यास कहते हैं। उदाहरणार्थ एक जंगल में वृक्ष सर्वोपरि ऊर्ध्वाधर स्तर, झाड़ियाँ द्वितीयक स्तर तथा जड़ी-बूटियाँ एवं घास निचले (धरातलीय) स्तर पर निवास करते हैं।

पारिस्थितिक तंत्र में सारे घटक एक इकाई के रूप में तब क्रियाशील दिखते हैं; जब आप निम्न पहलुओं पर दृष्टि डालते हैं-

(क) उत्पादकता

(ख) अपघटन

(ग) ऊर्जाप्रवाह और

(घ) पोषण चक्र।

एक जलीय पारितंत्र के गुण धर्म (प्रकृति) को समझने के लिए आइए एक छोटे तालाब को उदाहरण स्वरूप लेते हैं। यह एक औचित्यपूर्ण स्वपोषी और अपेक्षित रूप से सरल उदाहरण है जो हमें एक जलीय पारितंत्र में यहाँ तक की जटिल-पारस्परिकता (अन्योन्यक्रियाओं) को समझने में सहायक है। एक तालाब उथले पानी वाला एक जल-निकाय है जिसमें एक पारितंत्र के सभी मूलभूत घटक बेहतर ढंग से प्रदर्शित होते हैं। पानी एक अजैविक घटक है जिसमें कार्बनिक एवं अकार्बनिक तत्त्व तथा प्रचुर मृदा निक्षेप तालाब की तली में जमा होते हैं। सौर निवेश, ताप का चक्र, दिन की अवधि ( लंबाई) तथा अन्य जलवायुवीय परिस्थितियाँ समूचे तालाब की क्रियाशीलता की दर को नियमित करते हैं। स्वपोषी घटक जैसे पादप लवक, कुछ काई (शैवाल) तथा प्लवक एवं निमग्न तथा किनारों पर सीमांत पादप तालाब के किनारों पर पाए जाते हैं। उपभोक्ताओं का प्रतिनिधित्व प्राणिप्लवक तथा स्वतंत्र प्लवी एवं तलीय वासी जीव स्वरूपों द्वारा पारितंत्र किया जाता है। अपघटक के उदाहरण कवक एवं जीवाणु हैं जो विशेष रूप से तालाब की तली में प्रचुरता से पाए जाते हैं। यह तंत्र किसी भी पारितंत्र (और कुल मिलाकर जीवमंडल) की सभी प्रक्रियाओं को निष्पादित करते हैं अर्थात् स्वपोषियों द्वारा सूर्य की विकिरण ऊर्जा के उपभोग से अकार्बनिक तत्त्वों को कार्बनिक तत्त्वों में बदलना, विभिन्न स्तरों के परपोषितों द्वारा स्वपोषकों का भक्षण, मृत जीवों की सामग्रियों का अपघटन एवं खनिजीकरण कर स्वपोषकों के लिए मुक्त करना इस घटना की पुनरावृत्ति बारंबार होती रहती है। ऊर्जा की एकदिशीय गतिशीलता उच्च पोषी स्तरों की ओर तथा पर्यावरण में इसका अपव्यय और ऊष्मा के रूप में हानि होती है।

12.2 उत्पादकता

किसी भी पारितंत्र की क्रियाशीलता एवं उसके स्थायी रहने के लिए सौर ऊर्जा के निरंतर निवेश (इनपुट) की आधारभूत आवश्यकता है। प्राथमिक उत्पादन प्रकाश संश्लेषण के दौरान पादपों द्वारा एक निश्चित समयावधि में प्रति ईकाई क्षेत्र द्वारा उत्पन्न किए गए जैव मात्रा या कार्बनिक सामग्री की मात्रा है। इसे भार $\left(\mathrm{g}^{-2}\right)$ या ऊर्जा $\left(\mathrm{K} \mathrm{cal} \mathrm{m}^{-2}\right)$ के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। जैव मात्रा के उत्पादन की दर को उत्पादकता कहते हैं। इसे $\mathrm{g}^{-2} \mathrm{yr}^{1}$ या $\left(\mathrm{K} \mathrm{cal} \mathrm{m}^{-2}\right) \mathrm{yr}^{-1}$ (ऊर्जा) के रूप में व्यक्त किया जा सकता है, जिससे विभिन्न पारितंत्रों की उत्पादकता की तुलना की जा सकती है। इसे सकल या कुल प्राथमिक उत्पादकता तथा नेट प्राथमिक उत्पादकता में विभाजित किया जा सकता है। एक पारिस्थितिक तंत्र की सकल प्राथमिक उत्पादकता प्रकाश संश्लेषण के दौरान कार्बनिक तत्त्व की उत्पादन दर होती है। सकल प्राथमिक उत्पादकता की एक महत्त्वपूर्ण मात्रा पादपों में श्वसन द्वारा उपयोग की जाती है। यदि हम सकल प्राथमिक उत्पादकता से श्वसन के दौरान हुई क्षति को घटा देते हैं तो हमें नेट प्राथमिक उत्पादकता प्राप्त होती है।

$$ \text { जी.पी.पी }- \text { आर = एन.पी.पी. } $$

नेट प्राथमिक उत्पादकता परपोषितों की खपत (शाकभक्षी या अपघटक के रूप में) के लिए उपलब्ध जैव मात्रा होती है। द्वितीयक उत्पादकता को उपभोक्ताओं ने नए कार्बनिक तत्त्वों के निर्माण की दर के रूप में परिभाषित किया है।

प्राथमिक उत्पादकता एक सुनिश्चित क्षेत्र में पादप प्रजातियों के निवास पर निर्भर करती है। ये विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय कारकों, पोषकों की उपलब्धता तथा पादपों की प्रकाश संश्लेषण क्षमता पर भी निर्भर करती है। इसलिए ये विभिन्न प्रकार के पारितंत्रों में भिन्न-भिन्न होती है। संपूर्ण जीव मंडल की वार्षिक कुल प्राथमिक उत्पादकता का भार कार्बनिक तत्त्व (शुष्क भार) के रूप में लगभग 170 बिलियन टन आँका गया है। यद्यपि पृथ्वी के धरातल का लगभग 70 प्रतिशत भाग समुद्रों द्वारा ढका हुआ है, फिर भी बावजूद इनकी उत्पादकता केवल 55 बिलियन टन है। शेष मात्रा भूमि पर उत्पन्न होती है। अपने शिक्षक के साथ महासागरों की निम्न उत्पादकता के प्रमुख कारणों के बारे में चर्चा कीजिए।

12.3 अपघटन

आपने शायद सुना होगा कि केंचुओं को किसान के मित्र के रूप में संबोधित किया जाता है। ऐसा इसलिए है; क्योंकि ये जटिल कार्बनिक पदार्थों खंडन करने के साथ-साथ भूमि को भुरभुरा बनाने में मदद करते हैं। उसी प्रकार अपघटक जटिल कार्बनिक सामग्री को अकार्बनिक तत्त्वों जैसे- कार्बन डाईऑक्साइड, जल एवं पोषकों में खंडित करने में सहायता करते हैं और इस प्रक्रिया को अपघटन कहते हैं। पादपों के मृत अवशेष -जैसे पत्तियाँ, छाल, फूल तथा प्राणियों (पशुओं) के मृत अवशेष, मलादि सहित अपरद (डेट्राइटस) बनाते हैं, जोकि अपघटन के लिए कच्चे पदार्थों का काम करते हैं। अपघटन की प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण चरण खंडन, निक्षालन, अपचयन, ह्यूमस भवन (बनना), खनिजी भवन हैं।

चित्र 12.1 एक स्थलीय पारितंत्र में अपघटन चक्र का आरेखीय निरूपण

अपरदाहारी (जैसे कि केंचुए) अपरद को छोटे-छोटे कणों में खंडित कर देते हैं। इस प्रक्रिया को खंडन कहते हैं। निक्षालन प्रक्रिया के अंतर्गत जल-विलेय अकार्बनिक पोषक भूमि मृदासंस्तर में प्रविष्ट कर जाते हैं और अनुपलब्ध लवण के रूप में अवक्षेपित हो जाते हैं। बैक्टीरियल (जीवाणुवीय) एवं कवकीय एंजाइंस अपरदों को सरल अकार्बनिक तत्त्वों में तोड़ देते हैं। इस प्रक्रिया को अपचय कहते हैं।

यह समझना महत्त्वपूर्ण हैं कि उपर्युक्त अपघटन की समस्त प्रक्रियाएँ अपरद पर समानांतर रूप से लगातार चलती रहती हैं। (चित्र 12.1) ह्यूमीफिकेशन और मिनरेलाइजेशन की प्रक्रिया अपघटन के दौरान मृदा में संपन्न होती है। ह्यूमीफिकेशन के द्वारा एक गहरे रंग के क्रिसटल रहित तत्त्व का निर्माण होता है जिसे ह्यूमस कहते हैं जोकि सूक्ष्मजैविक क्रिया के लिए उच्च प्रतिरोधी होता है और इसका अपघटन बहुत ही धीमी गति से चलता है। स्वभाव (प्रकृति) में कोलाइडल होने के कारण यह पोषक के भंडार का काम करता है। ह्यूमस पुनः कुछ सूक्ष्मजीवों द्वारा खंडित होता है और जो खनिजीकरण नामक प्रक्रिया द्वारा अकार्बनिक पोषक उत्पन्न होते हैं उन्हें मुक्त करता है।

अपघटन एक प्रक्रिया है जिसमें ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। अपघटन की दर जलवायुवीय घटकों तथा अपरद के रासायनिक संघटनों द्वारा निर्धारित होती है। एक विशिष्ट जलवायुवीय परिस्थिति में; यदि अपरद काइटिन तथा लिग्निन से भरपूर होता है तब अपघटन दर धीमी होती हैं, यदि अपरद नाइट्रोजन तथा जलविलेय तत्त्वों जैसे चीनी आदि से भरपूर होता है तब यह तेज होती है। ताप एवं मृदा की नमी बहुत ही महत्त्वपूर्ण जलवायुवीय घटक है जो मृदा के सूक्ष्मजीवों की क्रियाओं द्वारा अपघटन की गति को नियमित करते हैं। गरम एवं आर्द्र पर्यावरण में अपघटन की गति तेज होती है जबकि निम्न ताप एवं अवायुजीवन अपघटन की गति को धीमा करती है जिसके परिणाम स्वरूप कार्बनिक पदार्थों का भंडार जमा हो जाता है।

12.4 ऊर्जा प्रवाह

गहरे समुद्र के जलतापीय पारितंत्र को छोड़कर पृथ्वी पर सभी पारिस्थितिक तंत्रों के लिए एक मात्र ऊर्जा स्रोत सूर्य है। आपतित सौर विकिरण का 50 प्रतिशत से कम भाग प्रकाश संश्लेषणात्मक सक्रिय विकिरण में प्रयुक्त होता है। हम जानते हैं कि पादप एवं प्रकाश संश्लेषण सक्षम जीवाणु (स्वपोषी) सूर्य की विकरित ऊर्जा को सरल अकार्बनिक पदार्थों से आहार तैयार करने में लगाते हैं। पादप केवल 2-10 प्रतिशत प्रकाश संश्लेषणात्मक सक्रिय विकिरण का प्रग्रहण करते हैं और यही आंशिक मात्रा की ऊर्जा संपूर्ण विश्व का संपोषण करती है। अतः यह जानना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि पादपों द्वारा संग्रहण की गई सौर ऊर्जा एक पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न जीवों के माध्यम से किस प्रकार प्रवाहित होती है। पृथ्वी के सभी जीव आहार के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उत्पादकों पर निर्भर रहते हैं। अतः आप पायेंगे कि सूर्य से उत्पादकों की ओर और फिर उपभोक्ता की ओर ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है। क्या इसमें ऊष्मा गतिक का प्रथम सिद्धांत निहित है?

पारिस्थितिक तंत्र ऊष्मा गतिक के दूसरे सिद्धांत से अवमुक्त नहीं हैं। उन्हें निरंतर ऊर्जा की आपूर्ति की आवश्यकता होती है ताकि वे अपेक्षित अणुओं को संश्लेषित कर बढ़ती हुई अव्यवस्थापन के प्रति सर्व-व्यापी प्रवृत्ति से संघर्ष कर सकें।

पारिस्थितिक तंत्र की शब्दावली में हरे पादप को उत्पादक कहा जाता है। स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र में शाकी एवं काष्ठीय पादप प्रमुख उत्पादक हैं। इसी प्रकार विभिन्न प्रजातियाँ जैसे-पादपप्लवक, काई और बड़े पादप जलीय पारिस्थित तंत्र के प्राथमिक उत्पादक हैं।

आपने खाद्य भृंखलाओं तथा जालों (बेब्स) के बारे में पढ़ा है जो कि प्रकृति में विद्यमान हैं। पादप (या उत्पादक) से प्रारंभ होकर खाद्य शृंखला या जाल इस प्रकार से बने होते हैं कि प्रत्येक प्राणी जो एक पादप से आहार ग्रहण करता है या अन्य प्राणी पर निर्भर करता है और बदले में वह किसी अन्य के लिए आहार बनाता है। इस परस्पर अंतर निर्भरता के कारण श्रृंखला जाल (वेब) की रचना होती है। किसी भी जीव द्वारा आबद्ध (ग्रहण) की गई ऊर्जा सदैव के लिए संचित नहीं रहती है। उत्पादक द्वारा आबद्ध

की गई ऊर्जा या तो उपभोक्ता को भंज दी जाती है या वह जीव मृत हो जाती है। एक जीव की मृत्यु अपरद खाद्य श्रृंखला / जाल की शरुआत होती है।

सभी जीव अपनी आहार आवश्यकता के लिए (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से) पादपों पर निर्भर करते हैं। अतः इन्हें उपभोक्ता तथा परपोषित भी कहा जाता है और यदि वे उत्पादक, पादपों से आहारपूर्ति करते हैं तब उन्हें प्राथमिक उपभोक्ता कहा जाता है और अगर एक पशु दूसरे पशु (वह पशु जो पेड़ों को या उसके उत्पाद को खाता है) को खाता है, उसे द्वितीयक उपभोक्ता कहा जाता है। ठीक उसी प्रकार से आप तृतीयक उपभोक्ता भी हो सकते हैं। निश्चित ही प्राथमिक उपभोक्ता शाकाहारी या शाकभक्षी होंगे। स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र में कुछ सामान्य शाकाहारी, कीट-पतंगे, पक्षी तथा स्तनधारी पशु तथा जलीय पारिस्थितिक तंत्र में मृदकवची (मोलस्क) होते हैं।

वे उपभोक्ता, जो शाकाहारी जीवों से आहारपूर्ति करते हैं, वे मांसाहारी या मांसभक्षी होते हैं या इन्हें प्राथमिक मांसभक्षी कहना अधिक उपयुक्त होगा (यद्यपि द्वितीयक उपभोक्ता)। वे पशु, जो आहार हेतु प्राथमिक मांसभक्षियों पर निर्भर करते हैं उन्हें द्वितीयक मांसभक्षी के रूप में नामित किया गया है।

एक साधारण खाद्य शृंखला यहाँ दिखाई गई है -

एक अन्य प्रकार की खाद्य शृंखला को अपरद खाद्य शृंखला के नाम से जाना जाता है जो मृत कार्बनिक सामग्री से प्रारंभ होती है। यह अपघटकों से बना होता है जोकि मुख्यतः कवक एवं बैक्टीरिया के रूप में परपोषित जीव होते हैं। ये मृत कार्बनिक सामग्री या अपरदों के खंडन द्वारा अपेक्षित ऊर्जा एवं पोषण प्राप्त करते हैं। इन्हें मृतपोषी या पूर्तिजीवी (मृतः अपघटन) के नाम से भी जाना जाता है। अपघटक पाचक एंजाइम्स स्रवित करते हैं, जो मृत जीवों तथा व्यर्थ सामग्री को साधारण, अकार्बनिक पदार्थों में तोड़ डालते हैं, जो बाद में उन्हीं के द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं।

जलीय पारितंत्र में चारण खाद्य शृंखला ऊर्जा प्रवाह का महत्त्वपूर्ण साधन है। इसके विरुद्ध, स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र में जी एफ सी की तुलना में अपरद खाद्य श्रृंखला द्वारा कहीं अधिक ऊर्जा प्रवाहित होती है। कुछ स्तरों पर अपरद खाद्य श्रृंखला को चारण ( चराई) खाद्य शृंखला से जोड़ा जा सकता है। अपरद खाद्य श्रृंखला के कुछ जीव, चारण खाद्य भृंखला-पशुओं के शिकार बन जाते हैं और एक प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में कुछ जीव-जंतु जैसे काकरोच (तिलचट्टे) एवं कौवे आदि सर्वभक्षी होते हैं। खाद्य शृंखलाओं का यह प्राकृतिक अंतरसंबंध एक आहार जाल ( फूडवेब) का निर्माण करता है।

आहारपूर्ति संबंधों के अनुसार सभी जीवों का प्राकृतिक वातावरण या एक समुदाय में अन्य जीवों के साथ एक स्थान होता है। सभी जीव अपने पोषण या आहार के स्रोत के आधार पर आहार शृंखला में एक विशेष स्थान ग्रहण करते हैं, जिसे (ट्राफिक लेवेल) पोषण स्तर के नाम से जाना जाता है। उत्पादक प्रथम पोषण स्तर में आते हैं, शाकाहारी

चित्र 12.2 एक पारिस्थितिक तंत्र में पोषण स्तर का आरेखीय निरूपण

( प्राथमिक उपभोक्ता) दूसरी एवं मांसाहारी (द्वितीयक उपभोक्ता) तीसरे पोषण स्तर से संबद्ध होते हैं (चित्र 12.2)।

यहाँ पर ध्यान देने योग्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उत्तरोत्तर पोषण स्तरों पर ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है। जब कोई जीव मरता है तो वह अपरद या मृत जैवमात्रा में बदल जाता है जो अपघटकों के लिए एक ऊर्जा स्रोत के रूप में काम करता है। प्रत्येक पोषण स्तर पर जीव अपनी ऊर्जा की आवश्यकता के लिए निम्न पोषण स्तर पर निर्भर रहता है।

एक विशिष्ट समय पर प्रत्येक पोषण स्तर का जीवित पदार्थ की कुछ खास मात्रा होती है, जिसे स्थित शस्य या खड़ी फसल कहा जाता है। स्थित शस्य को जीवित जैविकों की मात्रा ( जैवमात्रा) या इकाई क्षेत्र में संख्या से मापा जाता है। एक प्रजाति की जैवमात्रा को ताजे या शुष्क भार के रूप में व्यक्त किया जाता है। एक जैवमात्रा का मापन शुष्क भार के शब्दों में किया जाय तो वह अधिक विशुद्ध होगा। क्यों?

चारण खाद्य शृंखला में पोषण स्तरों की संख्या प्रतिबंधित होती है इस तरह से ऊर्जा प्रवाह का स्थानांतरण 10 प्रतिशत कम होता है और प्रत्येक निम्न पोषण स्तर से ऊपर का पोषण स्तर पर केवल 10 प्रतिशत ऊर्जा प्रवाहित होती है। प्रकृति में यह संभव है कि कई स्तर हों जैसे कि चरण खाद्य शृंखला में उत्पादक, शाकभक्षी, प्राथमिक मांसभक्षी, द्वितीयक मांसभक्षी आदि (चित्र 12.3)। क्या आप सोच सकते हैं कि इस प्रकार अपरद खाद्य शृंखला की कोई सीमा है?

चित्र 12.3 विभिन्न पोषण स्तरों में से होता हुआ ऊर्जा का प्रवाह

12.5 पारिस्थितिक पिरैमिड ( सूची स्तंभ )

आप पिरैमिड के आकार से निश्चित ही परिचित होंगे। पिरैमिड का आधार चौड़ा (विस्तृत) एवं शिखाग्र की ओर सँकरा होता जाता है। विभिन्न पोषण रीतियों पर जीवों के बीच चाहे आप एक खाद्य या ऊर्जा संबंध जोड़े तो आपको पिरैमिड के समान आकार मिलेगा। इस संबंध को संख्या, जैव मात्रा या ऊर्जा के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। प्रत्येक पिरैमिड के आधार का प्रतिनिधित्व उत्पादक या पहली पोषण स्तर करता है जबकि शिखर का प्रतिनिधित्व तृतीयक पोषण स्तर या सर्वोच्च उपभोक्ता करता है। तीन पारिस्थितिक पिरैमिड जिनका आमतौर पर अध्ययन किया जाता है, वे हैं (क) संख्या का पिरैमिड (ख) जैवमात्रा का पिरैमिड और (ग) ऊर्जा का पिरैमिड। विस्तृत जानकारी के लिए चित्र 12.4 अ, ब, स और द देखें।

ऊर्जा, मात्रा या अंश, जैवमात्रा या संख्याओं की किसी भी गणना में पोषण स्तर के सभी जीवों को शामिल किया जाना चाहिए। यदि हम किसी पोषण स्तर के कुछ व्यष्टियों को ही गणना में लेते हैं तो हमारे द्वारा किया गया कोई भी व्यापकीकरण सत्य नहीं होगा। इसके साथ ही एक प्रदत्त जीव एक ही समय एक से अधिक पोषणरीतियों में अधिष्ठित हो जाएगा। हमें यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि पोषण स्तर एक क्रियात्मक स्तर का प्रतिनिधित्व करता है न कि किसी प्रजाति का। एक प्रदत्त प्रजाति, एक ही समय पर एक ही पारिस्थितिक तंत्र में एक से अधिक पोषण रीतियों में अधिष्ठित हो सकती है; उदाहरण के लिए एक गौरेया जब बीज, फल व मटर खाती है तो वह प्राथमिक उपभोक्ता

है किंतु जब वह कीटों एवं केंचुओं को खाती है, तब वह द्वितीयक उपभोक्ता होती है। क्या आप यह विवरण दे सकते हैं कि एक खाद्यशंखला में मनुष्य कितनी पोषणरीतियों का प्रयोग करता है?

अधिकतर पारिस्थितिक तंत्रों में संख्याओं, ऊर्जा तथा जैव मात्रा के सभी पिरैमिड आधार से ऊपर की ओर होते हैं। अर्थात् शाकाहारियों की अपेक्षा उत्पादकों की संख्या एवं जैव मात्रा अधिक होती है और इसी तरह से शाकाहारियों की संख्या एवं जैव मात्रा

चित्र 12.4 (अ) एक घास के मैदान की पारिस्थितिक तंत्र का पिरैमिड लगभग 6 मिलियन पादपों के उत्पादन पर आधारित पारिस्थितिक तंत्र में समर्थित केवल 3 मांसाहारी जीव हैं।

पोषणरीति

चित्र 12.4 (ब) एक जैव मात्रा का पिरैमिड शीर्ष पोषण स्तर पर एक तीव्र गिरावट दर्शाता है। एक दलदली पारिस्थितिक तंत्र से आंकड़े

प्राथमिक उपभोक्ता (PC)

उत्पादक (P)

चित्र 12.4 ( स ) जैव मात्रा का उल्टा पिरैमिड प्राणीप्लवक की व्यापक खड़ी फसल को समर्थित करती पादप प्लवक की छोटी खड़ी फसल।

तृतीयक उपभोक्ता (TC)

द्वितीयक उपभोक्ता (SC)

प्राथमिक उपभोक्ता (PC)

उत्पादक (P)

$10 \mathrm{~J}$

$100 \mathrm{~J}$

$10,00 \mathrm{~J}$

$10,000 \mathrm{~J}$

चित्र 12.4 ( द ) ऊर्जा का एक आदर्श पिरैमिड चित्र 14.4-अ-ब पारिस्थितिक पिरैमिड (P) उत्पादक, (PC) प्राथमिक उपभोक्ता (SC) द्वितीयक उपभोक्ता, (TC) तृतीयक उपभोक्ता

मांसाहारियों की अपेक्षा अधिक होती है। इसी प्रकार से निम्न पोषण स्तर में ऊर्जा की मात्रा ऊपरी पोषण स्तर से अधिक होती है।

इस व्यापकीकरण में कुछ अपवाद हैं; यदि आप एक बड़े वृक्ष पर आहार प्राप्त करने वाले कीटों की संख्या की गणना करें तो आपको कैसा पिरैमिड प्राप्त हो सकता है। अब उसमें उन छोटे कीटों पर निर्भर छोटे पक्षियों की गणना करें, इसके साथ ही कीटभक्षी पक्षियों पर निर्भर बड़े पक्षियों की गणना करें। अब आप प्राप्त आंकड़ों पर चित्र बनाएँ।

समुद्र में जैव मात्रा (भार) के पिरैमिड भी प्रायः उल्टे होते हैं, क्योंकि मछलियों की जैवमात्रा पादपप्लवकों की जैव मात्रा से बहुत अधिक होती है। क्या यह एक विरोधाभास नहीं है? आप इसकी व्याख्या कैसे करेंगे?

ऊर्जा पिरैमिड सदैव खड़ी अवस्था में होता है, कभी उल्टा नहीं हो सकता, क्योंकि जब ऊर्जा किसी विशेष पोषण स्तर से अग्र पोषण स्तर में पहुँचती है, तो हर स्तर पर ऊष्मा के रूप में ऊर्जा का ह्रास होता है। ऊर्जा पिरैमिड का प्रत्येक स्तंभ उस पोषण स्तर में किसी विशेष समय पर अथवा प्रति इकाई क्षेत्र वार्षिक ऊर्जा का द्योतक है। यद्यपि, पारिस्थितिकी पिरैमिड की कुछ सीमाएँ हैं, जैसे कि पिरैमिड में ऐसी जातियों का समावेश भी होता है, जोकि दो या अधिक भोजन स्तरों से संबंधित हो सकता है। इससे एक साधारण आहार श्रृंखला बनती है, जो कि प्रकृति में विद्यमान नहीं होती है, इसमें आहार जाल का समावेश नहीं है। पारिस्थितिकी तंत्र में एक प्रमुख भूमिका निभाने के अतिरिक्त मृत जीवियों को पारिस्थितिकी पिरामिड में कोई स्थान प्राप्त नहीं है।

सारांश

पारितंत्र प्रकृति की एक क्रियाशील ईकाई है और उसमें निर्जीव एवं सजीव घटक समाहित हैं। अजीवीय घटकों के अंतर्गत अकार्बनिक सामग्री जैसे हवा, पानी, एवं मिट्टी जबकि सजीव घटकों के अंतर्गत उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटक आते हैं। प्रत्येक पारितंत्र की एक विशिष्ट भौतिक संरचना होती है जो निर्जीव एवं सजीवों के बीच परस्पर क्रिया का परिणाम है। एक पारितंत्र की दो महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ- प्रजाति संघटन एवं स्तर विन्यास होती हैं। सभी जीवों का पारितंत्र में अपने पोषण स्रोत के आधार पर एक स्थान निश्चित होता है।

उत्पादकता, अपघटन, ऊर्जा प्रवाह तथा पोषक चक्र एक पारितंत्र की चार महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ होती हैं। प्राथमिक उत्पादकता, उत्पादक की जैव मात्रा, उत्पादन या सौर ऊर्जा की ग्रहण की दर होती है। इसके दो प्रकार हैं- ग्रास प्राथमिक उत्पादकता तथा नेट प्राथमिक उत्पादकता। जैविक पदार्थ की कुल उत्पादकता या सौर ऊर्जा संग्रहण की दर को ग्रास प्राथमिक उत्पादकता कहते है। इसके साथ ही उत्पादकता के उपयोग के पश्चात् शेष बची जैव मात्रा या ऊर्जा को नेट प्राथमिक उत्पादकता (एन.पी.पी.) कहते हैं। द्वितीयक उत्पादकता उपभोक्ता द्वारा खाद्य ऊर्जा के सर्वांगीकरण की दर होती है। अपघटन में, अपरद के जटिल कार्बनिक घटकों को अपघटकों द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड, जल तथा अकार्बनिक पोषकों में द्वारा बदला जाता है। अपघटन में तीन प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं जोकि मुख्यतः अपरदों का खंडन, निक्षालन एवं अपचय हैं।

ऊर्जा प्रवाह एकदिशीय होता है। पहले, पादप सौर ऊर्जा को ग्रहण करते हैं इसके बाद आहार उत्पादक से अपघटक को स्थानांतरित किया जाता है। प्रकृति में भिन्न पोषण स्तर के जीव आहार या ऊर्जा संबंधों हेतु एक दूसरे से परस्पर जुड़कर खाद्य शृंखला का गठन करते हैं। पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न घटकों के माध्यम से पोषक तत्त्वों की गतिशीलता एवं भंडारण को पोषक चक्र कहते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा पोषकों का बार- बार उपयोग होता है। पोषक चक्र दो प्रकार के होते हैं: गैसीय एवं अवसादी। गैसीय प्रकार के चक्र (कार्बन) हेतु भंडार वायुमंडल या जलमंडल होता है, जबकि पृथ्वी की पटल (पपड़ी) अवसादी प्रकार के (फॉस्फोरस) पोषक का भंडार होती है। पारितंत्रीय प्रक्रिया के उत्पादों को पारितंत्र सेवा का नाम दिया गया है। जैसेकि जंगलों द्वारा वायु एवं जल का शुद्धीकरण।



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