जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग

तुम पिछले अध्याय में जैव प्रौद्योगिकी जिसके बारे में पढ़ चुके हो, उसमें मुख्यतया आनुवंशिक रूप से रूपांतरित सूक्ष्मजीवों, कवक, पौधों व जंतुओं का उपयोग करते हुए जैव भैषजिक व जैविक पदार्थों का औद्योगिक स्तर पर उत्पादन किया जाता है। जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग चिकित्सा शास्त्र, निदानसूचक, कृषि में आनुवंशिकतः रूपांतरित फसलें, संसाधित खाद्य, जैव सुधार, अपशिष्ट प्रतिपादन व ऊर्जा उत्पादन में हो रहा है। जैव प्रौद्योगिकी के तीन विवेचनात्मक अनुसंधान क्षेत्र हैं -

(क) उन्नत जीवों जैसे-सूक्ष्मजीवों या शुद्ध एंजाइम के रूप में सर्वोत्तम उत्प्रेरक का निर्माण करना।

(ख) उत्त्रेरक के कार्य हेतु अभियांत्रिकी द्वारा सर्वोत्तम परिस्थितियों का निर्माण करना, तथा

(ग) अनुप्रवाह प्रक्रमण तकनीक का प्रोटीन/कार्बनिक यौगिक के शुद्धीकरण में उपयोग करना।

अब हम पता लगाएँगे कि मनुष्य जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग विशेषरूप से स्वास्थ्य व खाद्य उत्पादन के क्षेत्र में जीवनस्तर के सुधार में किस प्रकार से लगा हुआ है।

10.1 कृषि में जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग

खाद्य उत्पादन में वृद्धि हेतु हम तीन संभावनाओं के बारे में सोच सकते हैं– (क) कृषि रसायन आधारित कृषि (ख) कार्बनिक कृषि और

(ग) आनुवंशिकतः निर्मित फसल आधारित कृषि। हरित क्रांति द्वारा खाद्य आपूर्ति में तिगुनी वृद्धि में सफलता मिलने के बावजूद मनुष्य की बढ़ती जनसंख्या का पेट भर पाना संभव नहीं है। उत्पादन में वृद्धि आंशिक रूप से उन्नत किस्मों की फसलों के उपयोग के कारण हैं जबकि इस वृद्धि में मुख्यतया उत्तम प्रबंधकीय व्यवस्था और कृषि रसायनों (खादों तथा पीडकनाशिकों) का प्रयोग एक कारण है। हालाँकि विकासशील देशों के किसानों के लिए कृषि रसायन काफी महंगे पड़ते हैं व परंपरागत प्रजनन के द्वारा निर्मित किस्मों से उत्पादन में वृद्धि संभव नहीं है। पर्याप्त एवं उन्नत किस्म की फसलें प्रदान करने वाले दक्ष तंत्र द्वारा भोजन की बढ़ती हुई माँग को पूरा करने के लिए हमारी पारंपरिक प्रजनन तकनीकें जब असफल हुई तब एक अन्य प्रौद्योगिकी का जन्म हुआ जिसे ऊतक संवर्धन कहते हैं। ऊतक संवर्धन का क्या अर्थ है? 1950 के दौरान वैज्ञानिकों ने जान लिया कि एक पूर्ण पादप कर्त्तोतकी से पुनर्जनित किया जा सकता है; जैसे पादप का कोई भाग ले लीजिए; उसे विशिष्ट पोषक मीडिया तथा रोगाणुरहित स्थिति में एक टेस्ट्ट्यूब में उगने दिया। किसी कोशिका कर्त्तोतकी से पूर्ण पादप में जनित्र होने की यह क्षमता पूर्णशक्तता कहलाती है। उच्च वर्ग के प्राणियों में आप इसे किस प्रकार निष्पादित करेंगे? इसके बारे में जब आप बड़ी कक्षा में जाएँगे तो ज्ञान प्राप्त होगा। इस बात पर यहाँ बल देने की आवश्यकता है कि पोषक माध्यम कार्बन स्रोत जैसे स्युक्रोज तथा अकार्बनिक लवण, विटामिन, अमीनो अम्ल तथा वृद्धि नियंत्रक जैसे ऑक्सिन, सायटोकाइनिन आदि प्रदान करें! इन विधियों के प्रयोग द्वारा अत्यंत ही अल्प अवधि में हजारों पादपों का प्रवर्धन संभव हो सका। ऊतक संवर्धन द्वारा हजारों की संख्या में पादपों को उत्पन्न करने की विधि सूक्ष्मप्रवर्धन कहलाती है। इनमें प्रत्येक पादप आनुवंशिक रूप से मूलपादप के समान होते हैं, जहाँ से वह पैदा हुए हैं, यह सोमाक्लोन कहलाते हैं। अधिकांश महत्त्वपूर्ण खाद्य पादपों जैसे-टमाटर, केला, सेब आदि का बड़े पैमाने पर उत्पादन इस विधि द्वारा किया गया है। किसी ऊतक संवर्धन प्रयोगशाला में आप अपने अध्यापक के साथ जाएँ, ताकि आप इस क्रिया का अवलोकन कर सकें तथा समझ सकें।

इस विधि का अन्य महत्त्वपूर्ण उपयोग रोग ग्रसित पादपों से स्वस्थ पादपों में पुनर्लाभ है, यदि पादप विषाणु से संक्रमित है, तब भी विभज्योतक (शीर्ष तथा कक्षीय) विषाणु से अप्रभावित रहता है। अतः विभज्योतक (मेरेस्टेम) को अलग कर उसे विट्रो में उगाया जाता है ताकि विषाणु मुक्त पादप तैयार हो सकें। वैज्ञानिकों को केला, गन्ना, आलू आदि संवर्धित विभज्योतक तैयार करने में काफी सफलता मिली है।

यहाँ तक कि वैज्ञानिकों ने पादपों से एकल कोशिकाएँ अलग की हैं तथा उनकी कोशिका भित्ति का पाचन हो जाने से प्लाज्मा झिल्ली द्वारा घिरा नग्न प्रोटोप्लास्ट पृथक किया जा सका है। प्रत्येक किस्म में वांछनीय लक्षण विद्यमान होते हैं। पादपों की दो विभिन्न किस्मों से अलग किया गया प्रोटोप्लास्ट युग्मित होकर संकर प्रोटोप्लास्ट उत्पन्न करता है जो आगे चलकर नए पादप को जन्म देता है। यह संकर कायिक संकर; जबकि यह प्रक्रम कायिक संकरण कहलाता है। ऐसी स्थिति की कल्पना करो जब टमाटर का प्रोटोप्लास्ट आलू के प्रोटोप्लास्ट से युग्मित होता है तथा वृद्धि करने के बाद इससे नए संकर पादप का जन्म होता है। इसमें टमाटर तथा आलू के अभिलक्षण संयुक्त रूप से होते हैं। इस प्रक्रम के परिणामस्वरूप ‘पोमेटो’ का निर्माण होता है; परंतु दुर्भाग्यवश इस

पादप में व्यावसायिक उपयोग के लिए वांच्छित समुच्चित अभिलक्षणों का अभाव था। क्या ऐसा कोई वैकल्पिक रास्ता है जिसमें आनुवंशिक जानकारी का उपयोग करते हुए किसान अपने खेतों से सर्वाधिक उत्पादन ले सकेंगे? क्या ऐसा कोई तरीका है जिसके द्वारा खादों एवं रसायनों का न्यूनतम उपयोग कर उसके द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों को घटा सकते हैं? आनुवंशिकतः रूपांतरित फसलों का उपयोग ही इस समस्या का हल है।

ऐसे पौधे, जीवाणु, कवक व जंतु जिनके जींस हस्तकौशल द्वारा परिवर्तित किए जा चुके हैं। आनुवंशिकतः रूपांतरित जीव (जेनेटिकली मोडीफाइड आर्गेनाइजेशन) कहलाते हैं। जीएमओ का व्यवहार स्थानांतरित जीन की प्रकृति, परपोषी पौधों, जंतुओं या जीवाणुओं की प्रकृति व खाद्य जाल पर निर्भर करता है। जीएम पौधों का उपयोग कई प्रकार से लाभदायक है। आनुवंशिक रूपांतरण द्वारा—

(क) अजैव प्रतिबलों (ठंडा, सूखा, लवण, ताप) के प्रति अधिक सहिष्णु फसलों का निर्माण

(ख) रासायनिक पीड़कनाशकों पर कम निर्भरता करना (पीड़कनाशी-प्रतिरोधी फसल)

(ग) कटाई पश्चात् होने वाले (अन्नादि) नुकसानों को कम करने में सहायक

(घ) पौधों द्वारा खनिज उपयोग क्षमता में वृद्धि (यह शीघ्र मृदा उर्वरता समापन को रोकता है)

(ङ) खाद्य पदार्थों के पोषणिक स्तर में वृद्धि; उदाहरणार्थ—विटामिन ए समृद्ध धान (गोल्डन राइस)

उपरोक्त उपयोगों के साथ - साथ जी एम का उपयोग तदनुकुल पौधों के निर्माण में सहायक है, जिनसे वैकल्पिक संसाधनों के रूप में उद्योगों में वसा, ईंधन व भेषजीय पदार्थों की आपूर्ति की जाती है।

कृषि में जैव प्रौद्योगिकी के उपयोगों में जिनके बारे में तुम विस्तृत रूप से अध्ययन करोगे; वह पीड़क प्रतिरोधी फसलों का निर्माण है जो पीड़कनाशकों की मात्रा को कम प्रयोग में लाती है। बीटी $(\mathbf{B t})$ एक प्रकार का जीवविष है जो एक जीवाणु जिसे बैसीलस थुरीनजिएंसीस (संक्षेप में बीटी) कहते हैं, से निर्मित होता है। बीटी जीवविष जीन जीवाणु से क्लोनिकृत होकर पौधों में अभिव्यक्त होकर कीटों (पीड़कों) के प्रति प्रतिरोधकता पैदा करता है जिससे कीटनाशकों के उपयोग की आवश्यकता नहीं रह गई है। इस तरह से जैव-पीड़कनाशकों का निर्माण होता है। उदाहरणार्थ— बीटी कपास, बीटी मक्का, धान, टमाटर, आलू व सोयाबीन आदि।

बीटी कपास- बैसीलस थूरीनजिएंसीस की कुछ नस्लें ऐसी प्रोटीन का निर्माण करती हैं जो विशिष्ट कीटों जैसे— लीथीडोप्टेशन (तंबाकू की कलिका कीड़ा, सैनिक कीड़ा), कोलियोप्टेरान (भृंग) व डीप्टेरान (मक्खी, मच्छर) को मारने में सहायक है। बी. थूरीनजिएंसीस अपनी वृद्धि के विशेष अवस्था में कुछ प्रोटीन रवा का निर्माण करती है। इन रों में विषाक्त कीटनाशक प्रोटीन होता है। यह जीवविष बैसीलस को क्यों नहीं मारता है? वास्तव में बीटी जीव-विष प्रोटीन, प्राक्जीव विष निष्क्रिय रूप में होता है, ज्योंहि कीट इस निष्क्रिय जीव विष को खाता है, इसके रवे आँत में क्षारीय पी एच के कारण

घुलनशील होकर सक्रिय रूप में परिवर्तन हो जाते हैं। सक्रिय जीव विष मध्य आँत के उपकलीय कोशिकाओं की सतह से बँधकर उसमें छिद्रों का निर्माण करते हैं, जिस कारण से कोशिकाएँ फूलकर फट जाती हैं और परिणामस्वरूप कीट की मृत्यु हो जाती है।

विशिष्ट बीटी जीव विष जींस बैसीलस थुरीनजिएंसिस से पृथक कर कई फसलों जैसे कपास में समाविष्ट किया जा चुका है। जींस का चुनाव फसल व निर्धारित कीट पर निर्भर करता है, जबकि सर्वाधिक बीटी जीव विष कीट-समूह विशिष्टता पर निर्भर करते हैं। जीव विष जिस जीन द्वारा कूटबद्ध होते हैं उसे क्राई कहते हैं। ये कई प्रकार के होते हैं। उदाहरणस्वरूप - जो प्रोटींस जीन क्राई 1 एसी व क्राई 2 एबी द्वारा कूटबद्ध होते हैं वे कपास के मुकुल कृमि को नियंत्रित करते हैं (चित्र 10.1) जबकि क्राई 1 एबी मक्का छेदक को नियंत्रित करता है।

चित्र 10.1 कपास (अ) गोलक शलभ कृमि द्वारा नष्ट व (ब) पूर्णतया परिपक्व कपास गोलक

पीड़क प्रतिरोधी पौधा— विभिन्न सूत्रकृमि, मानव सहित जंतुओं व कई किस्म के पौधों पर परजीवी होते हैं। सूत्रकृमि मिल्वाडेगाइन इनकोगनीशिया तंबाकू के पौधों की जड़ों को संक्रमित कर उसकी पैदावार को काफी कम कर देता है। उपरोक्त संक्रमण को रोकने हेतु एक नवीन योजना को स्वीकार किया गया है जो आरएनए अंतरक्षेप की प्रक्रिया पर आधारित है। आरएनए अंतरक्षेप सभी ससीमकेंद्रकी जीनों में कोशकीय सुरक्षा की एक विधि है। इस विधि में विशिष्ट दूत आरएनए, पूरक द्विसूत्री आरएनए से वर्धित होने के पश्चात् निष्क्रिय हो जाता है जिसके फलस्वरूप दूत आरएनए के स्थानांतरण (ट्रांसलेशन) को रोकता है। इस द्विसूत्रीय आरएनए का स्रोत, संक्रमण करने वाले विषाणु में पाए जाने वाले पूरक आरएनए जीनोम / पारांतरेक (ट्रांसपॉजान) के प्रतिकृत के उपरांत बनने वाले मध्यवर्ती आरएनए हैं।

एग्रोबैक्टिरियम संवाहकों का उपयोग कर सूत्रकृमि विशिष्ट जीनों को परपोषी पौधों में प्रवेश कराया जा चुका है (चित्र 10.2)। डीएनए का प्रवेश इस प्रकार कराया जाता है कि

परपोषी कोशिकाओं में अर्थ (सैंस) व प्रति-अर्थ (ऐंटीसैंस) आरएनए का निर्माण करता है। ये दोनों आरएनए एक दूसरे के पूरक होते हैं जो द्विसूत्रीय आरएनए का निर्माण करते हैं; जिससे आरएनए अंतरक्षेप प्रारंभ होता है और इसी कारण से सूत्रकृमि के विशिष्ट दूत आरएनए निष्क्रिय हो जाते हैं। इसके फलस्वरूप पारजीवी परपोषी में विशिष्ट अंतरक्षेपी आरएनए की उपस्थिति से परजीवी जीवित नहीं रह पाता है। इस प्रकार पारजीवी पौधे अपनी सुरक्षा परजीवी से करते हैं (चित्र 10.2)।

चित्र 10.2 पोषी पादप जनित ds आरएनए द्वारा सूत्रकृमि ग्रसन के विरूद्ध सुरक्षा में वृद्धि (अ) प्रारूपी नियंत्रित पादप मूलें (ब) पाँच दिनों तक जानबूझकर सूत्रकृमि द्वारा पारजीवी पादप की जड़ों का संक्रमण तथा साथ ही नवीन विधि द्वारा सुरक्षा

10.2 चिकित्सा में जैव प्रोद्यौगिकी का उपयोग

पुनर्योगज डीएनए प्रोद्यौगिकी विधियों का स्वास्थ्य सुरक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक प्रभाव डाला है; क्योंकि इसके द्वारा उत्पन्न सुरक्षित व अत्यधिक प्रभावी चिकित्सीय औषधियों का उत्पादन अधिक मात्रा में संभव है। पुनर्योगज चिकित्सीय औषधियों का अवांछित प्रतिरक्षात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है जबकि ऐसा देखा गया है कि उपरोक्त उत्पाद जो अमानवीय स्रोतों से विलगित किए गए हैं, वे अवाँछित प्रतिरक्षात्मक प्रभाव डालते हैं। वर्तमान समय में लगभग 30 पुनर्योगज चिकित्सीय औषधियाँ विश्व में मनुष्य के प्रयोग हेतु स्वीकृत हो चुकी हैं। वर्तमान में; इनमें से 12 भारत में विपणित हो रही हैं।

10.2.1 आनुवंशिकतः निर्मित इंसुलीन

वयस्कों में होने वाले मधुमेह का नियंत्रण निश्चित समय अंतराल पर इंसुलीन लेने से ही संभव है। मानव इंसुलीन पर्याप्त उपलब्ध न होने पर मधुमेह रोगी क्या करेंगे? उस पर विचार करने पर हम इस बात को स्वीकार करेंगे कि हमें अन्य जानवरों से इंसुलीन वियुक्त कर उपयोग में लाना होगा। क्या अन्य जंतुओं से वियुक्त इंसुलीन मानव शरीर में भी प्रभावी है और उसका मानव शरीर के प्रतिरक्षा अनुक्रिया पर कोई हानिकारक प्रभावतो नहीं पड़ता है? तुम कल्पना करो कि यदि कोई जीवाणु मानव इंसुलीन बना सकता है तो निश्चय ही पूरी प्रक्रिया सरल हो जाएगी। तुम आसानी से ऐसे जीवाणु को अधिक मात्रा में विकसित कर जितना चाहे अपनी आवश्यकता के अनुसार इंसुलीन बना सकते हो। सोचो क्या इंसुलीन मधुमेही लोगों को मुख से दिया जा सकता है कि नहीं। क्यों?

मधुमेह रोगियों द्वारा उपयोग में लाए जाने वाला इंसुलीन जानवरों व सुअरों को मारकर उनके अग्नाश्य से निकाला जाता था। जानवरों द्वारा प्राप्त इंसुलीन से कुछ रोगियों में प्रत्यूर्जा (एलर्जी) या बाह्य प्रोटीन के प्रति दूसरे तरह की प्रतिक्रिया होने लगती थी। इंसुलीन दो छोटी पालीपेप्टाइड शृंखलाओं का बना होता है, श्रृंखला ‘ए’ व श्रृंखला ‘बी’ जो आपस में डाईसल्फाइड बंधों द्वारा जुड़ी

चित्र 10.3 प्राक-इंसुलिन का सी-पेप्टाइड के अलग होने के बाद इंसुलिन में परिपक्वता होती हैं (चित्र 10.3)। मानव सहित स्तनधारियों में इंसुलिन प्राक्-हार्मोन (प्राक् -एंजाइम की तरह प्राक् -हार्मोन को पूर्ण परिपक्व व क्रियाशील हार्मोन बनने के पहले संसाधित होने की आवश्यकता होती है) संश्लेषित होता है; जिसमें एक अतिरिक्त फैलाव होता है जिसे पेप्टाइड ‘सी’ कहते हैं। यह ‘सी’ पेप्टाइड परिपक्व इंसुलिन में नहीं होता, जो परिपक्वता के दौरान इंसुलिन से अलग हो जाता है। आर डीएनए तकनीकियों का प्रयोग करते हुए इंसुलिन के उत्पादन में मुख्य चुनौती यह है कि इंसुलिन को एकत्रित कर परिपक्व रूप में तैयार किया जाए। 1983 में एली लिली नामक एक अमेरिकी कंपनी ने दो डीएनए अनुक्रमों को तैयार किया जो मानव इंसुलिन की श्रृंखला ए और बी के अनुरूप होती हैं जिसे इ. कोलाई के प्लाज्मिड में प्रवेश कराकर इंसुलिन शृंखलाओं का उत्पादन किया। इन अलग-अलग निर्मित शृंखलाओं ए और बी को निकालकर डाईसल्फाइड बंध बनाकर आपस में संयोजित कर मानव इंसुलिन का निर्माण किया गया।

10.2.2 जीन चिकित्सा

यदि एक व्यक्ति आनुवंशिक रोग के साथ पैदा हुआ है, तो क्या इस रोग के उपचार हेतु कोई चिकित्सा व्यवस्था है? जीन चिकित्सा ऐसा ही एक प्रयास है। जीन चिकित्सा में उन विधियों का सहयोग लेते हैं जिनके द्वारा किसी बच्चे या भूरण में चिह्नित किए गए जीन दोषों का सुधार किया जाता है। उसमें रोग के उपचार हेतु जीनों को व्यक्ति की कोशिकाओं या ऊतकों में प्रवेश कराया जाता है। आनुवंशिक दोष वाली कोशिकाओं के उपचार हेतु सामान्य जीन को व्यक्ति या भ्रूण में स्थानांतरित करते हैं जो निष्क्रिय जीन की क्षतिपूर्ति कर उसके कार्यों को संपन्न करते हैं।

जीन चिकित्सा का पहले पहल प्रयोग वर्ष 1990 में एक चार वर्षीय लड़की में एडीनोसीन डिएमीनेज (एडीए) की कमी को दूर करने के लिए किया गया था। यह एंजाइम प्रतिरक्षातंत्र के कार्य के लिए अति आवश्यक होता है। उपरोक्त समस्या जो एंजाइम एडीनोसीन डिएमीनेज के लिए जिम्मेदार है जो इसके लोप होने के कारण होता

है। कुछ बच्चों में एडीए की कमी का उपचार अस्थिमज्जा के प्रत्यारोपण से होता है। जबकि दूसरों में एंजाइम प्रतिस्थापन चिकित्सा द्वारा उपचार किया जाता है; जिसमें सुई द्वारा रोगी को सक्रिय एडीए दिया जाता है। उपरोक्त दोनों विधियों में यह कमी है कि ये पूर्णतया रोगनाशक नहीं है। जीन चिकित्सा में सर्वप्रथम रोगी के रक्त से लसीकाणु को निकालकर शरीर से बाहर संवर्धन किया जाता है। सक्रिय एडीए का सी डीएनए (पश्च विषाणु संवाहक का प्रयोगकर) लसीकाणु में प्रवेश कराकर अंत में रोगी के शरीर में वापस कर दिया जाता है। ये कोशिकाएँ मृतप्राय होती हैं; इसलिए आनुवंशिक निर्मित लसीकाणुओं को समय-समय पर रोगी के शरीर से अलग करने की आवश्यकता होती है। यदि मज्जा कोशिकाओं से विलगित अच्छे जीनों को प्रारंभिक भ्रूणीय अवस्था की कोशिकाओं से उत्पादित एडीए में प्रवेश करा दिए जाएँ तो यह एक स्थायी उपचार हो सकता है।

10.2.3 आणविक निदान

आप जानते हैं कि रोग के प्रभावी उपचार के लिए उसकी प्रारंभिक पहचान व उसके रोग क्रिया विज्ञान को समझना अति आवश्यक है। उपचार की परंपरागत विधियों (सीरम व मूत्र विश्लेषण आदि) का प्रयोग करते हुए रोग का प्रारंभ में पता लगाना संभव नहीं है। पुनर्योगज डीएनए प्रौद्योगिकी, पॉलीमरेज शृंखला अभिक्रिया व एंजाइम सहलग्न प्रतिरक्षा शोषक आमापन (एलाइजा) कुछ ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा रोग की प्रारंभिक पहचान की जा सकती है।

रोग जनक (जीवाणु, विषाणु आदि) की उपस्थिति का सामान्यतया तब पता चलता है जब उसके द्वारा उत्पन्न रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। उस समय तक रोगजनक की संख्या शरीर में पहले से काफी अधिक हो चुकी होती है। जब बहुत कम संख्या में जीवाणु या विषाणु (उस समय जब रोग के लक्षण स्पष्ट दिखाई नहीं देते) हो तब उनकी पहचान पीसीआर द्वारा उनके न्यूक्लिक अम्ल के प्रवर्धन (एंप्लीफिकेशन) द्वारा कर सकते हैं। क्या तुम बता सकते हो कि पीसीआर द्वारा डीएनए की बहुत कम मात्रा की पहचान कैसे की जाती है? संदेहात्मक एड्स रोगियों में एच आइ वी की पहचान हेतु पीसीआर आजकल सामान्यतया उपयोग में लाया जा रहा है। उसका उपयोग संदेहात्मक कैंसर रोगियों के जीन में होने वाले उत्परिवर्तनों को पता लगाने में भी किया जा रहा है। यह एक उपयोगी तकनीकी है जिसके द्वारा बहुत सारी दूसरे आनुवंशिक दोषों की पहचान की जा सकती है।

डीएनए या आरएनए की एकल शृंखला से एक विकिरण सक्रिय अणु (संपरीक्षित्र) जुड़कर कोशिकाओं के क्लोन में अपने पूरक डीएनए से संकरित होते हैं, जिसे बाद में स्वविकिरणी चित्रण (आटोरेडियोग्राफी) द्वारा पहचानते हैं। क्लोन जिसमें उत्परिवर्तित जीन मिलते हैं। छायाचित्र पटल (फोटोग्रैफिक फिल्म) पर दिखाई नहीं देते हैं; क्योंकि संपरीक्षित्र (प्रोब) व उत्परिवर्तित जीन आपस में एक दूसरे के पूरक नहीं होते हैं।

एंजाइम सहलग्न प्रतिरक्षा शोषक आमापन (एलाइजा) प्रतिजन- प्रतिरक्षी पारस्परिक क्रिया के सिद्धांत पर कार्य करता है। रोग जनकों के द्वारा उत्पन्न संक्रमण की पहचान

प्रतिजनों (प्रोटीनजन, ग्लाइकोप्रोटींस आदि) की उपस्थिति या रोग जनकों के विरूद्ध संश्लेषित प्रतिरक्षी की पहचान के आधार पर की जाती है।

10.3 पारजीवी जंतु ( ट्रांसजेनिक एनिमल्स )

ऐसे जंतुओं जिनके डीएनए में परिचालन द्वारा एक अतिरिक्त (बाहरी) जीन व्यवस्थित होता है जो अपना लक्षण व्यक्त करता है उसे पारजीवी जंतु कहते हैं। पारजीवी चूहे, खरगोश, सूअर, भेड़, गाय व मछलियाँ आदि पैदा हो चुके हैं उसके बावजूद उपस्थित पारजीवी जंतुओं में 95 प्रतिशत से अधिक चूहे हैं। उस तरह के जंतुओं का उत्पादन क्यों किया जाता है? इस तरह के परिवर्तन से मानव को क्या लाभ है? अब हम कुछ सामान्य कारणों का पता करेंगे—

(क) सामान्य शरीर क्रिया व विकास — पारजीवी जंतुओं का निर्माण विशेषरूप से इस प्रकार किया जाता है जिनमें जीनों के नियंत्रण व इनका शरीर के विकास व सामान्य कार्यों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है; उदाहरणार्थ- विकास में भागीदार जटिल कारकों जैसे-इंसुलिन की तरह विकास कारक का अध्ययन। दूसरी जाति (स्पीशीज़) के जींस को प्रवेश कराने के उपरांत उपरोक्त कारकों के निर्माण में होने वाले परिवर्तनों से होने वाले जैविक प्रभाव का अध्ययन तथा कारकों की शरीर में जैविक भूमिका के बारे में सूचना मिलती है।

(ख) रोगों का अध्ययन - अनेकों पारजीवी जंतु इस प्रकार निर्मित किए जाते हैं जिनसे रोग के विकास में जीन की भूमिका क्या होती है? यह विशिष्ट रूप से निर्मित है जो मानव रोगों के लिए नमूने के रूप में प्रयोग किए जाते हैं ताकि रोगों के नए उपचारों का अध्ययन हो सके। वर्तमान समय में मानव रोगों जैसे-कैंसर, पुटीय रेशामयता (सिस्टीक फाइब्रोसिस), रूमेटवाएड संधिशोथ व एल्जिमर हेतु पारजीवी नमूने उपलब्ध हैं।

(ग) जैविक उत्पाद - कुछ मानव रोगों के उपचार के लिए औषधि की आवश्यकता होती है जो जैविक उत्पाद से बनी होती है। ऐसे उत्पादों को बनाना अक्सर बहुत महँगा होता है। पारजीवी जंतु जो उपयोगी जैविक उत्पाद का निर्माण करते हैं उनमें डीएनए के भाग (जीनों) को प्रवेश कराते हैं जो विशेष उत्पाद के निर्माण में भाग लेते हैं। उदाहरण-मानव प्रोटीन (अल्फा- 1 एंटीट्रिप्सीन ) का उपयोग इंफासीमा के निदान में होता है। ठीक उसी तरह का प्रयास फिनाइल कीटोनूरिया (पीकेयू) व पुटीय रेशामयता के निदान हेतु किया गया है। वर्ष 1977 में सर्वप्रथम पारजीवी गाय ‘रोजी’ मानव प्रोटीन संपन्न दुगध ( 2.4 ग्राम प्रति लीटर) प्राप्त किया गया। इस दूध में मानव अल्फा-लेक्टएल्बुमिन मिलता है जो मानव शिशु हेतु अत्यधिक संतुलित पोषक तत्त्व है जो साधारण गाय के दूध में नहीं मिलता है।

(घ) टीका सुरक्षा - टीकों का मानव पर प्रयोग करने से पहले टीके की सुरक्षा जाँच के लिए पारजीवी चूहों को विकसित किया गया है। पोलियो टीका की

सुरक्षा जाँच के लिए पारजीवी चूहों का उपयोग किया जा चुका है। यदि उपरोक्त प्रयोग सफल व विश्वसनीय पाए गए तो टीका सुरक्षा जाँच के लिए बंदर के स्थान पर पारजीवी चूहों का प्रयोग किया जा सकेगा।

(ङ) रासायनिक सुरक्षा परीक्षण - यह आविषालुता सुरक्षा परीक्षण कहलाता है। यह वही विधि है जो औषधि आविषालुता परीक्षण हेतु प्रयोग में लाई जाती है। पारजीवी जंतुओं में मिलने वाले कुछ जीन इसे आविषालु पदार्थों के प्रति अतिसंवेदनशील बनाते हैं जबकि अपारजीवी जंतुओं में ऐसा नहीं है। पारजीवी जंतुओं को आविषालु पदार्थों के संपर्क में लाने के बाद पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। उपरोक्त जंतुओं में आविषालुता परीक्षण करने से कम समय में परिणाम प्राप्त हो जाता है।

10.4 नैतिक मुद्दे

माजव जाति द्वारा अन्य जीवधारियों से हितसाधन बिना विनियमों के और अधिक नहीं किया जा सकता है। सभी मानवीय क्रियाकलापों के लिए जो जीवधारियों के लिए असुरक्षात्मक या सहायक हो उनमें आचरण की परख के लिए कुछ नैतिक मानदंडों की आवश्यकता है।

ऐसे मुद्दों में नैतिकता से इनमें जैववैज्ञानिक महत्त्व भी है। जीवों के आनुवंशिक रूपांतरण के तब अप्रत्याशित परिणाम निकल सकते हैं जब ऐसे जीवों का पारिस्थितिक तंत्र में सन्निविष्ट कराया जाए।

इसीलिए, भारत सरकार ने ऐसे संगठनों को स्थापित किया है जैसे कि जी ई ए सी (जेनेटिक इंजीनयरिंग एप्रवल कमेटी अर्थात् आनुवंशिक अभियांत्रिकी संस्तुति समिति); जो कि जी एम अनुसंधान संबंधी कार्यों की वैधानिकता तथा जन सेवाओं के लिए जी एम जीवों के सन्निवेश की सुरक्षा आदि के बारे में निर्णय लेगी।

जन सेवा (जैसे कि आहार एवं चिकित्सा स्रोतों हेतु) में जीवों के रूपांतरण/उपयोगिता जो इनके जीवों के लिए अनुमत एकस्व की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।

जनमानस में इस बात को लेकर आक्रोश है कि कुछ कंपनियाँ आनुवंशिक पदार्थों, पौधों व अन्य जैविक संसाधनों का उपयोग कर, बनने वाले उत्पाद व तकनीकी के लिए एकस्व (पेटेंट) प्राप्त कर रहे हैं जबकि यह बहुत समय पहले से विकसित व पहचानी जा चुकी है और किसान तथा विशेष क्षेत्र या देश के लोगों द्वारा इनका उपयोग किया जा रहा है।

धान एक महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न है जिसके बारे में हजारों वर्ष पूर्व एशिया के कृषि के इतिहास में वर्णन मिलता है। एक अनुमान के अनुसार केवल भारत में धान की लगभग 2 लाख किस्में मिलती हैं। भारत में धान की जो विविधता है, वह विश्व की सर्वाधिक विविधताओं में एक है। बासमती धान अपनी सुगंध व स्वाद के लिए मशहूर है और इसकी 27 पहचानी गयी किस्में भारत में उगायी जाती हैं। पुराने ग्रंथों, लोकसाहित्य व कविताओं में बासमती का वर्णन मिलता है, जिससे यह पता चलता है कि यह कई सौ वर्ष पहले से उगाया जाता रहा है। वर्ष 1977 में एक अमरीकी कंपनी ने बासमती धान पर अमेरिकन एकस्व व ट्रेडमार्क कार्यालय द्वारा एकस्व अधिकार प्राप्त कर लिया था।

इससे कंपनी बासमती की नई किस्मों को अमेरिका व विदेशों में बेच सकती है। बासमती की यह नयी किस्म वास्तव में भारतीय किसानों की किस्मों से विकसित की गयी थी। भारतीय बासमती को अर्द्ध बौनी किस्मों से संकरण कराकर नयी खोज या एक नयी उपलब्धि का दावा किया था। एकाधिकार के लागू होने के बाद इस एकाधिकार के तहत अन्य लोगों द्वारा बासमती का विक्रय प्रतिबंधित हो सकता था।

मल्टीनेशनल कंपनियों व दूसरे संगठनों द्वारा किसी राष्ट्र या उससे संबंधित लोगों से बिना व्यवस्थित अनुमोदन व क्षतिपूरक भुगतान के जैव संसाधनों का उपयोग करना बायोपाइरेसी कहलाता है।

बहुत सारे औद्योगिक राष्ट्र आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न हैं लेकिन उनके पास जैव विविधता एवं परंपरागत ज्ञान की कमी है। इसके विपरीत विकसित व अविकसित विश्व जैव विविधता व जैव संसाधनों से संबंधित परंपरागत ज्ञान से संपन्न है। जैव-संसाधनों से संबंधित परंपरागत ज्ञान का उपयोग आधुनिक उपयोगों में किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप इनके व्यापारीकरण के दौरान, समय, शक्ति व खर्च को बचाया जा सकता है।

विकसित व विकासशील राष्ट्रों के बीच अन्याय, अपर्याप्त क्षतिपूर्ति व लाभों की भागीदारी के प्रति भावना विकसित हो रही है। इसके कारण कुछ राष्ट्रों ने अपने जैव संसाधनों व परंपरागत ज्ञान का बिना पूर्व अनुमति के उपयोग पर प्रतिबंध के लिए नियमों को बना रहे हैं।

भारतीय संसद ने हाल ही में भारतीय एकस्व बिल (इंडियन पेटेंट बिल) में दूसरा संशोधन पारित किया है जो ऐसे मुद्दों को ध्यानार्थ लेगा, जिसके अंतर्गत एकस्व नियम संबंधी आपात्कालिक प्रावधान तथा अनुसंधान एवं विकासीय प्रयास शामिल हैं।

सारांश

सूक्ष्मजीवों, पौधों, जंतुओं व अनेक उपापचयी कार्यप्रणाली का उपयोग करते हुए जैव प्रौद्योगिकी द्वारा मनुष्य के लिए कई उपयोगी पदार्थों का निर्माण हो चुका है। ऊतक संवर्धन तथा कायिक संकरण की तकनीकों एवं पादपों के पत्ति संवर्धन से नई किस्में प्राप्त करने की विपुल संभावना है। पुनर्योगज डीएनए प्रौद्योगिकी ने ऐसे सूक्ष्मजीवों, पौधों व जंतुओं का निर्माण संभव कर दिया है जिनमें अभूतपूर्व क्षमता निहित है। आनुवंशिकतः रूपांतरित जीवों का निर्माण एक या एक से अधिक जीन का, एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरण की प्राकृतिक विधि के अतिरिक्त पुनर्योगज डी एन ए प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए किया गया है।

जीएम पौधों का उपयोग फसल उत्पादन बढ़ाने, पश्च फसल उत्पाद नुकसान में कमी व फसलों का प्रतिबंधों के प्रति अधिक सहनशील बनाने में अत्यन्त उपयोगी है। ऐसे बहुत जीएम फसल पौधे हैं जिनका खाद्य पौष्टिक स्तर काफी उन्नत है व उन (पीड़क-प्रतिरोधी फसलों) की रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता काफी कम है।

पुनर्योगज डीएनए प्रौद्योगिकी प्रक्रियाओं का स्वास्थ्य सुरक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक महत्व है; क्योंकि इनके द्वारा सुरक्षित व अत्यधिक प्रभावशाली औषधियों का निर्माण संभव

है। पुनर्योगज चिकित्सीय औषधियाँ मनुष्य के प्रोटीन के समतुल्य हैं। इस कारण से इनका प्रतिरक्षात्मक अवांछित प्रभाव नहीं पड़ता है व इनसे संक्रमण के खतरे भी नहीं होते हैं जैसा कि अमानवीय स्रोतों से विलगित इस प्रकार के पदार्थों से होता है। जीवाणु में रचित मानव इंसुलिन जो संरचनात्मक प्राकृतिक अणु से पूर्णतया समान होता है।

पारजीवी जंतु मानव रोगों जैसे- कैंसर, पुटीय रेशामयता, रूमेट्वाएड संधिशोथ व एल्जीमर के लिए नमूने के रूप में उपयोग किए जाते हैं, जिससे हमें रोग के विकास में जीन की भूमिका को पता लगाने में सुविधा होती है।

जीन चिकित्सा द्वारा खासतौर से आनुवंशिक रोगों को दूर करने के लिए व्यक्ति विशेष की कोशिकाओं व ऊतकों में जीन को प्रवेश कराते हैं। इसके कारण खराब उत्परिवर्तित विकल्पी के स्थान पर सक्रिय विकल्पी या जीन टारगेटिंग के द्वारा उपचार होता है, जिनमें जीन प्रवर्धन शामिल हैं। विषाणु जो अपने परपोषी पर आक्रमण कर अपने विभाजन चक्र के लिए अपना आनुवंशिक पदार्थ परपोषी की कोशिकाओं में प्रवेश करता है। इसे संवाहक के रूप में प्रयोग कर स्वस्थ जीन या नए जीन के भाग को स्थानांतरित किया जा सकता है।

सूक्ष्मजीवों, पौधों व जंतुओं के व्यवहार के प्रति वर्तमान दिलचस्पी ने गंभीर नैतिक प्रश्न खड़े कर दिए हैं। भारत सरकार ने इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए हैं।



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