मानव कल्याण में सूक्ष्मजीव
असूक्ष्म पादपों तथा प्राणियों के अतिरिक्त इस पृथ्वी पर जीव विज्ञानी तंत्र के प्रमुख घटक सूक्ष्मजीव हैं। कक्षा 11 में आपने जीवित जीवों में पाई जाने वाली विविधता के बारे में अध्ययन किया होगा। क्या आपको याद है; जीवित जीवों में कौन से जगत के अंतर्गत सूक्ष्मजीवी जीव आते हैं? वे कौन से जीव हैं, जिन्हें केवल सूक्ष्मदर्शीय माना जाए? सूक्ष्मजीव सर्वव्यापी होते हैं। यह मृदा, जल, वायु, हमारे शरीर के अंदर तथा अन्य प्रकार के प्राणियों तथा पादपों में पाए जाते हैं। जहाँ किसी प्रकार जीवन संभव नहीं है जैसे — गीज़र के भीतर गहराई तक (तापीय चिमनी) जहाँ ताप $100^{\circ} \mathrm{C}$ तक बढ़ा हुआ रहता है, मृदा में गहराई तक, बर्फ की पर्तों के कई मीटर नीचे तथा उच्च अम्लीय पर्यावरण जैसे स्थानों पर भी पाए जाते हैं। सूक्ष्मजीव विविध रूपायितप्रोटोजोआ, जीवाणु, कवक तथा सूक्ष्मदर्शीय पादपों एवं प्राणियों से होते हैं। विषाणु, विरायड तथा प्रायोन भी प्रोटीनीय संक्रमित कारक हैं। कुछ सूक्ष्मजीवियों को चित्र 8.1 तथा 8.2 में दिखाया गया है।
जीवाणु तथा अधिकांश कवकों के समान सूक्ष्मजीवियों को पोषक मीडिया (माध्यमों) पर उगाया जा सकता है, ताकि वृद्धि कर यह कालोनी का रूप ले लें और इन्हें नग्न नेत्र से देखा जा सके (चित्र 8.3)। ऐसे संवर्धनजन सूक्ष्मजीवियों पर अध्ययन के दौरान काफी लाभदायक होते हैं।
(अ)
(ब)
(स)
चित्र 8.1 जीवाणु (बैक्टीरिया) (अ) दंडाकार (आवर्धित रूप $1500 \mathrm{x}$ ) (ब) गोलाकार आवर्धित $1500 \mathrm{x}$ (स) कशाभिका प्रदर्शित करते हुए $50,000 \mathrm{x}$ आवर्धित दंडाकार बैक्टीरियम
(अ)
(अ)
(ब)
(स)
चित्र 8.2 विषाणु (अ) जीवाणुभोजी (ब) ऐडीनोवायरस जो श्वसनीय संक्रमण उत्पन्न करता है (स) दंडाकार टोबैको मोजेक वायरस (टीएमवी) 100,000-15,00,000 तक आवर्धित
(ब)
चित्र 8.3 (अ) पैट्री प्लेटों में वृद्धि कर रही जीवाणुओं की कालोनियाँ (ब) पैट्री प्लेटों में वृद्धि कर रही कवकीय कालोनियाँ
इस पुस्तक के 8 वें अध्याय में, आपने पढ़ा होगा कि सूक्ष्मजीवी मनुष्यों में बहुत से रोग उत्पन्न करते हैं। ये पशुओं तथा पादपों में भी रोग उत्पन्न करते हैं; परंतु इससे आपको यह नहीं समझ लेना चाहिए कि सभी सूक्ष्मजीव हानिप्रद हैं। अधिकांशतः सूक्ष्मजीव मनुष्यों के लिए कई प्रकार से लाभप्रद हैं। मानव कल्याण के प्रति सूक्ष्मजीवों के कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदानों पर निम्नलिखित पृष्ठों में परिचर्चा की गई है।
8.1 घरेलू उत्पादों में सूक्ष्मजीव
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हम प्रतिदिन सूक्ष्मजीवियों अथवा उनसे व्युत्पन्न उत्पादों का प्रयोग करते हैं। इसका सामान्य उदाहरण दूध से दही का उत्पादन है। सूक्ष्मजीव जैसे लैक्टोबैसिलस तथा अन्य जिन्हें सामान्यतः लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (एल ए बी) कहते हैं; दूध में वृद्धि करते हैं और उसे दही में परिवर्तित कर देते हैं। वृद्धि के दौरान लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया अम्ल उत्पन्न करता है जो दुग्ध प्रोटीन को स्कंदित तथा आंशिक रूप में पचा देता है। दही की थोड़ी सी मात्रा निवेश द्रव्य अथवा आरंभक के रूप में ताजे दूध में मिलाया जाता है। इस निवेशद्रव्य में लाखों-करोड़ों की संख्या में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया होते हैं जो उपयुक्त ताप पर कई गुना वृद्धि करते हैं और परिणामस्वरूप दूध को दही में बदल देते हैं। इतना ही नहीं; विटामिन बी 12 की मात्रा बढ़ने से पोषण संबंधी गुणवत्ता में भी सुधार हो जाता है। हमारे पेट में भी, सूक्ष्मजीवियों द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों को रोकने में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया एक लाभदायक भूमिका का निर्वाह करते हैं।
दाल-चावल का बना ढीला-ढाला आटा जिसका प्रयोग ‘डोसा’ तथा ‘इडली’ जैसे आहार को बनाने में किया जाता है। वह भी बैक्टीरिया द्वारा किण्वित होता है? इस आटे की फूली उभरी शक्ल $\mathrm{CO} _{2}$ गैस के उत्पादन के कारण होती है। क्या आप बता सकते हैं कि कौन सा उपापचयी पथ $\mathrm{CO} _{2}$ के निर्माण में कार्य कर रहा है? क्या आप जानते हैं कि किण्वन की क्रिया के लिए यह बैक्टीरिया कहाँ से आ रहे हैं। ठीक इसी प्रकार ढीला-ढाला आटा जिसका प्रयोग ब्रैड बनाने में किया जाता है उसमें बैकर यीस्ट (सैकरोमाइसीज़ सैरीवीसी) का प्रयोग किया जाता है। पारंपरिक पेय तथा आहारों की एक बड़ी संख्या सूक्ष्मजीवियों द्वारा किण्वित कराकर तैयार की जाती हैं। दक्षिण भारत के कुछ भागों में एक पारंपरिक पेय ‘टोडी’ है। इसे ताड़वृक्ष के तने के स्राव को किण्वित कराकर तैयार किया जाता है। सूक्ष्मजीवियों का प्रयोग किण्वित मत्स्य (मछली), सोयाबीन तथा बाँस प्ररोह आदि के भोजन तैयार करने में किया जाता है। ‘पनीर’ या ‘चीज’ एक प्राचीन भोज्य पदार्थ है। इसे तैयार करने में सूक्ष्मजीवियों का प्रयोग किया जाता है। विभिन्न किस्मों के पनीर अपनी गठनसंरचना, सुगंध तथा स्वाद जैसे अभिलक्षणों से पहचाने जाते हैं; विशेष सूक्ष्मजीवों के प्रयोग से आते हैं। उदाहरण के लिए ‘स्विस चीज’ में पाए जाने वाले बड़े-बड़े छिद्र प्रोपिओनिबैक्टीरियम शारमैनाई नामक बैक्टीरियम द्वारा बड़ी मात्रा में उत्पन्न $\mathrm{CO} _{2}$ के कारण होते हैं। ‘रॉक्यूफोर्ट चीज’ एक विशेष प्रकार के कवक की वृद्धि से परिपक्व होते हैं जिससे विशेष सुगंध आने लगती है।
8.2 औद्योगिक उत्पादों में सूक्ष्मजीव
यहाँ तक कि उद्योगों में भी सूक्ष्मजीवियों का प्रयोग बहुत से उत्पादों के संश्लेषण में किया जाता है जो कि मनुष्य के लिए काफी मूल्यवान होते हैं। मादक पेय तथा प्रतिजैविक (ऐंटीबॉयटिक) इसके कुछ उदाहरण हैं। व्यावसायिक पैमाने पर सूक्ष्मजीवियों को पैदा करने के लिए बड़े बर्तन की आवश्यकता होती है जिसे फरमैंटर या किण्वक कहते हैं (चित्र 8.4)।
8.2.1 किण्वित पेय
सूक्ष्मजीव विशेषकर यीस्ट का प्रयोग प्राचीन काल से वाइन, बियर, ह्विस्की, ब्रांडी या रम जैसे पेयों के उत्पादन में किया जाता आ रहा है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वही यीस्ट सैकेरोमाइसीज़ सैरीबिसी(जो सामान्यतः ब्रीवर्स यीस्ट के नाम से भी प्रसिद्ध है;) ब्रैड बनाने तथा माल्टीकृत धान्यों तथा फलों के रसों में ऐथानॉल उत्पन्न करने में प्रयोग किया जाता है। क्या आपको वे उपापचयी अभिक्रियाएँ याद हैं जिसके परिणामस्वरूप यीस्ट द्वारा ऐथानॉल उत्पादित होता है। विभिन्न प्रकार के एल्कोहलीय पेय की प्राप्ति। किण्वन तथा विभिन्न प्रकार के संसाधन (आसवन अथवा उसके बिना) कच्चे पदार्थों पर निर्भर करती है; वाइन तथा बियर का उत्पादन बिना आसवन के; जबकि ह्विस्की, ब्रांडी तथा रम किण्वित रस के आसवन द्वारा तैयार किए जाते हैं। किण्वन संयंत्र
चित्र 8.4 किण्वक (फरमैंटर)
चित्र 8.5 किण्वन संयंत्र (प्लांट) का फोटोग्राफ चित्र 8.5 में दिखाया गया है।
8.2.2 प्रतिजैविक ( ऐंटीबॉयोटिक )
सूक्ष्मजीवों द्वारा प्रतिजैविकों (ऐंटीबॉयोटिकों) का उत्पादन 20 वीं शताब्दी की अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण खोज और मानव समाज के कल्याण के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। ऐंटी एक ग्रीक भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ खिलाफ तथा बॉयो का अर्थ जीवन है। दोनों को मिला देने से इसका अर्थ ‘जीवन के खिलाफ’ हुआ (रोग जो जीवों से उत्पन्न होते हैं उनके संदर्भ में) जबकि मनुष्यों के संदर्भ में यह जीवन के खिलाफ न होकर जीवन के प्रति माने जाते हैं। प्रतिजैविक (ऐंटीबॉयोटिक) एक प्रकार के रसायनिक पदार्थ हैं, जिनका निर्माण कुछ सूक्ष्मजीवियों द्वारा होता है। यह अन्य (रोग उत्पन्न करने वाले) सूक्ष्मजीवियों की वृद्धि को मंद अथवा उन्हें मार सकते हैं।
आप सामान्य रूप से प्रयोग में लाए जाने वाले ऐंटीबॉयोटिक पैनीसीलिन से तो परिचित ही हैं। क्या आप जानते हैं कि पैनीसीलिन सबसे पहला ऐंटीबॉयोटिक था, जिसकी
खोज एक प्रकार का हादसा (घटना) थी? एलैग्जैंडर फ्लैमिंग जब स्टैफिलोकोकस बैक्टीरिया पर कार्य कर रहे थे; तब उन्हें एक बार दिखाई दिया कि जिन प्लेटों पर वह कार्य कर रहे थे, उनमें एक बिना धुली प्लेट पर मोल्ड उत्पन्न हो गए हैं जिस कारण स्टैफिलोकोकस वृद्धि न कर सका। उन्होंने पाया कि यह प्रभाव मोल्ड द्वारा उत्पन्न एक रसायन ‘पैनीसिलीन’ द्वारा होता है। चूँकि पैनीसिलीन, पैनीसीलियम नोटेटम नामक मोल्ड से उत्पन्न होता है। इस कारण इसका नाम उन्होंने ‘पैनीसिलीन’ रखा। यद्यपि बाद में अरनैस्ट चैन तथा हावर्ड फ्लौरे ने इसकी एक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली ऐंटीबॉयोटिक के रूप में पुष्टि की। इस ऐंटीबॉयोटिक का प्रयोग दूसरे विश्व युद्ध में घायल अमरीकन सिपाहियों के उपचार में व्यापक रूप से किया गया। फ्लैमिंग, चैन तथा फ्लौरे को इस खोज के लिए 1945 में नोबल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया।
पैनीसिलिन के बाद अन्य सूक्ष्मजीवियों से अन्य ऐंटीबॉयोटिकों को भी परिशुद्ध किया गया। क्या आप कुछ अन्य प्रतिजैविकी (ऐंटीबॉयोटिकों) के नाम तथा उनके स्रोतों के बारे में बता सकते हैं। प्लेग, काली खाँसी, डिप्थीरिया (गलघोंटू), लैप्रोसी (कुष्ठरोग) जैसे भयानक रोग, जिनसे संसार में लाखों लोग मरे हैं, के उपचार के लिए ऐंटीबॉयोटिकों ने हमारी क्षमता में वृद्धि की एक शक्ति के रूप में आये हैं। आज हम ऐंटीबॉयोटिकों से रहित संसार की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं।
8.2.3 रसायन, एंजाइम तथा अन्य जैवसक्रिय अणु
कुछ विशेष प्रकार के रसायनों; जैसे कार्बानिक अम्ल, ऐल्कोहल तथा एंजाइम आदि के व्यावसायिक तथा औद्योगिक उत्पादन में सूक्ष्मजीवों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। अम्लीय उत्पादकों के उदाहरण सिट्रिक अम्ल का ऐस्परजिलस नाइगर (एक कवक), एसीटिक अम्ल का एसीटोबैक्टर एसिटाई (जीवाणु) ब्युट्रिक अम्ल का क्लोस्ट्रीडियम ब्यूटायलिकम (एक जीवाणु) तथा लेक्टिक अम्ल का लैक्टोबैसिलस आदि हैं।
ऐथानॉल के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए यीस्ट (सैकेरोमाइसीज़ सैरीविसेएई) का प्रयोग किया जाता है। लाइपेज का प्रयोग अपमार्जक संरूपण तथा धुलाई में कपड़ों से तेल के धब्बे हटाने में किया जाता है। आपने अवश्य देखा होगा कि आप बाजार से खरीद कर फल-रस की जो बोतल लाते हैं उसका रस घर में बने रस की तुलना में अधिक साफ दिखाई पड़ता है। पैक्टीनेजिज तथा प्रोटीऐजिज के प्रयोग के कारण बोतल वाला रस अधिक स्वच्छ एवं साफ होता है। स्ट्रैप्टोकाइनेज स्ट्रैप्टोकोकस जीवाणु (बैक्टीरियम) द्वारा उत्पन्न होता है जो आनुवंशिक इंजीनियरिंग द्वारा रूपांतरित किया जाता है। इसका प्रयोग उन रोगियों में रक्त वाहिकाओं से थक्का (क्लॉट) हटाने में यानि ‘थक्का स्फोटन’ के रूप में प्रयोग किया जाता है। हृदयाघात के अग्रग मायोकार्डियल इंफैक्शन से गुजरते हैं।
अन्य जैव सक्रिय अणु ‘साइक्लोस्पोरिन-ए’ है। जिसका प्रयोग अंग प्रतिरोपण में प्रतिरक्षा निरोधक (इम्युनोसप्रेसिव) कारक के रूप में रोगियों में किया जाता है। इसका उत्पादन ट्राइकोडर्मा पॉलोस्पोरम नामक कवक से किया जाता है। मोनॉस्कस परप्यूरीअस यीस्ट से उत्पन्न इस स्टैटिन का व्यापारिक स्तर पर प्रयोग रक्त-कॉलिस्ट्रॉल को कम करने
वाले कारक के रूप में किया जाता है। कॉलिस्ट्रॉल के संश्लेषण के लिए उत्तरदायी एंजाइम स्पर्धा संदमन (निरोधण) की तरह क्रिया करते हैं।
8.3 वाहितमल उपचार में सूक्ष्मजीव
हम जानते हैं कि प्रतिदिन नगर एवं शहरों से व्यर्थ-जल की एक बहुत बड़ी मात्रा जनित होती है। इस व्यर्थ जल का प्रमुख घटक मनुष्य का मलमूत्र है। नगर के इस व्यर्थ जल को वाहित मल (सीवेज) भी कहते हैं। इसमें कार्बनिक पदार्थों की बड़ी मात्रा तथा सूक्ष्मजीव पाये जाते हैं जो अधिकांशतः रोगजनकीय होते हैं। आपको आश्चर्य होता होगा कि वाहितमल की बड़ी मात्रा
चित्र 8.6 वाहित मल उपचार संयंत्र का वायुवीय टैंक अथवा शहरी व्यर्थजल का रोजाना निपटान कैसे होता होगा? इसे प्राकृतिक जल स्रोतों जैसे नदी, झरने में सीधे विसर्जित नहीं किया जा सकता है। आप समझ सकते हैं क्यों? अतः विसर्जन से पूर्व वाहित मल का उपचार वाहितमल संयंत्र में किया जाता है ताकि वह प्रदूषण मुक्त हो जाय। व्यर्थ जल का उपचार परपोषित सूक्ष्मजीव से किया जाता है जो वाहित मल में प्राकृतिक रूप से वास करते हैं। यह उपचार निम्नलिखित दो चरणों में संपन्न किया जाता है-
प्राथमिक उपचार - मूलभूत रूप से उपचार के इस पद में वाहित मल से बड़े छोटे कणों का निस्यंदन (फिल्ट्रेशन) तथा अवसादन (सेडीमिंटेशन) द्वारा भौतिक रूप से अलग कर दिये जाते हैं। इन्हें भिन्न-भिन्न चरणों में अलग किया जाता है। आरंभ में तैरते हुए कूड़े-करकट को अनुक्रमिक निस्यंदन द्वारा हटा दिया जाता है। इसके बाद शितबालुकाश्म (ग्रिट) (मृदा तथा छोटे गुटिकाओं पेवल) को अवसादन द्वारा निष्कासित किया जाता है। सभी ठोस जो प्राथमिक आंपक (स्लज) के नीचे बैठे कण हैं, वह और प्लावी (सुपरनैटेंट) बहिः स्राव (इफ्लुएंट) का निर्माण करता है। बहिःस्राव को प्राथमिक निःसादन (सेटलिंग) टैंक से द्वितीयक उपचार के लिए ले जाया जाता है।
द्वितीयक उपचार अथवा जीव विज्ञानीय उपचार — प्राथमिक बहि:स्राव को बड़े वायुवीय टैंकों में से गुजारा जाता है (चित्र 8.6)। जहाँ यह लगातार यांत्रिक रूप से हिलाया जाता है और वायु को इसमें पंप किया जाता है। इससे लाभदायक वायुवीय सूक्ष्मजीवियों की प्रबल सशक्त वृद्धि ऊर्णक (कवकीय तंतुओं से जुड़े जीवाणुओं के जाली जैसी संरचना का झुंड) के रूप में होने लगती है। वृद्धि के दौरान यह सूक्ष्मजीव बहिःस्राव में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों के प्रमुख भागों की खपत करता है। यह बहिःस्राव के बी ओ डी ( बॉयोकेमीकल ऑक्सीजन डिमांड) को महत्त्वपूर्ण रूप से घटाने लगता है। बी ओ डी ऑक्सीजन की उस मात्रा को संदर्भित करता है जो जीवाणु द्वारा एक लीटर पानी में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों की खपत कर उन्हें ऑक्सीकृत कर दें। वाहित मल का तब तक उपचार किया जाता है जब तक बी ओ डी घट न जाय। जल के एक नमूने में सूक्ष्मजीवियों द्वारा ऑक्सीजन के उद्रग्रण की दर का मापन बी ओ डी परीक्षण से किया
चित्र 8.7 वाहित मल उपचार संयंत्र का आकाशी चित्र जाता है; अतः अप्रत्यक्ष रूप से जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों का मापन ही बी ओ डी है। जब व्यर्थ-जल का बी ओ डी अधिक होगा, तब इसकी प्रदूषण क्षमता भी अधिक होगी। एक बार वाहित मल अथवा व्यर्थ जल का बी ओ डी पर्याप्त मात्रा में घट जाय, तब बहिःस्राव को निःसादन (सैटलिंग) टैंक में भेजते हैं; जहाँ जीवाणु झुंड (फ्लॉक्स) उसे अवसाद में परिवर्तित करते हैं। यह अवसाद सक्रियीत आपंक कहलाता है। सक्रियीत आपंक के छोटे से भाग को फिर से पीछे वायुवीय टैंक में पंप करते हैं। यह आपंक निवेशद्रव्य की तरह से कार्य करता है। आपंक का बचा-खुचा मुख्य भाग बड़े टैंक में पंप किया जाता है। जिसे अवायवीय आपंक संपाचित्र (ऐनारोबिक स्लज डाइजैस्टर) कहते हैं। यहाँ जीवाणुओं की अन्य किस्में जो अवायुवीय रूप से वृद्धि करती हैं। वे आपंक में उपस्थित जीवाणुओं तथा कवकों का पाचन कर लेती हैं। पाचन के दौरान जीवाणु गैसों का मिश्रण जैसे मीथेन, हाइड्रोजन सल्फाइड तथा कार्बन डायक्साइड उत्पन्न करते हैं। ये गैसें बॉयोगैस का निर्माण करती हैं। चूँकि यह ज्वलनशील होती हैं; इस कारण इनका प्रयोग ऊर्जा के स्रोत के रूप में किया जा सकता है।
द्वितीयक उपचार प्लांट से बहिःस्राव सामान्यतः जल के प्राकृतिक स्रोतों जैसे नदियों, झरनों में छोड़ दिया जाता है। वाहित मल उपचार संयंत्र का आकाशी चित्र 8.7 में दिखाया गया है।
आप समझ सकते हैं कि किस प्रकार सूक्ष्मजीवी प्रतिदिन विश्वभर में व्यर्थ जल के लाखों-करोड़ों गैलन पानी के उपचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका-निभाते हैं। संसार के लगभग-समस्त भागों में लगभग सदियों से इसी कार्य प्रणाली का प्रयोग किया जाता आ रहा है। आज के दिन तक कोई भी मनुष्य द्वारा तैयार की गई प्रौद्योगिकी वाहित मल के सूक्ष्मजीवी उपचार के सामने नहीं टिक पाई।
आप जानते ही हैं कि बढ़ते हुए शहरीकरण के कारण पहले की तुलना में वाहित मल की एक बहुत बड़ी मात्रा उत्पन्न हो जाती है, अतः वाहितमल की इतनी बड़ी मात्रा को उपचारित करने में इन उपचार संयंत्रों की संख्या पर्याप्त नहीं बढ़ाई गई है। इसलिए अपचारित वाहितमल को सीधे ही नदियों में छोड़ दिया जाता है। परिणामस्वरूप प्रदूषण और जल जनित रोगों की संख्या बढ़ रही है।
पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने हमारे देश की प्रमुख नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए गंगा ऐक्शन प्लान तथा यमुना ऐक्शन प्लान जैसी योजनाओं का सूत्रपात किया है। इन योजनाओं के तहत एक बड़ी संख्या में नए वाहित मल उपचार संयंत्रों को बनाने का प्रस्ताव है; ताकि केवल उपचारित वाहित मल को ही नदियों में छोड़ा जा सके। आप अपने आस-पास स्थित ऐसे किसी भी वाहित मल उपचार संयंत्र में जाएँ। जो अत्यंत ही रोचक तथा शिक्षाप्रद अनुभव होगा।
8.4 बॉयोगैस के उत्पादन में सूक्ष्मजीव
बॉयोगैस एक प्रकार से गैसों (जिसमें मुख्यतः मीथेन शामिल है) का मिश्रण है जो सूक्ष्मजीवी सक्रियता द्वारा उत्पन्न होती हैं। आप पढ़ चुके हैं कि वृद्धि तथा उपापचयन के दौरान सूक्ष्मजीव विभिन्न किस्मों के गैसीय अंतिम उत्पाद उत्पन्न करते हैं; जो गैस उत्पन्न होती है, वह इन सूक्ष्मजीवियों द्वारा खपत किए गए कार्बनिक पदार्थों पर निर्भर करती है। उपर्युक्त उदाहरण जैसे गीले आटे का किण्वन, पनीर (चीज) निर्माण तथा पेयों का उत्पादन में $\mathrm{CO} _{2}$ गैस ही मुख्य रूप से उत्पन्न होती है। यद्यपि कुछ बैक्टीरिया जो सैल्यूलोजीय पदार्थों पर अवायुवीय रूप से उगते हैं; वह $\mathrm{CO} _{2}$ तथा $\mathrm{H} _{2}$ के साथ-साथ बड़ी मात्रा में मीथेन भी उत्पन्न करते हैं। सामूहिक रूप से इन जीवाणुओं को मीथैनोजेन कहते हैं। इनमें सामान्य जीवाणु मीथैनोबैक्टीरियम है। ये बैक्टीरिया (जीवाणु) सामान्यतः अवायुवीय गाढ़े कीचड़ में पाया जाता है जिसका वर्णन वाहित मल उपचार में पहले किया गया है। यह जीवाणु पशुओं के रूमेन (प्रथम आमाशय) में भी पाए जाते हैं। रूमेन में सैल्यूलोजीय पदार्थों की एक बड़ी मात्रा उपलब्ध रहती है। रूमेन में यह जीवाणु सैल्यूलोज को तोड़ने में सहायक होते हैं; और पशुओं के पोषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्या आप समझते हैं कि अपने आहार में उपस्थित सैल्यूलोज को हम मानव भी पचाने के योग्य हैं? इस प्रकार पशुओं के मल (डंग) उनमें, जिसे सामान्यतः गोबर कहते हैं, यह जीवाणु प्रचुर संख्या में पाए जाते हैं। गोबर में पादपों के सैल्यूलोजीय व्युत्पन्न प्रचुर मात्रा में होते हैं; अतः इनका प्रयोग बॉयोगैस को पैदा करने में किया जाता है जिसे सामान्यतः ‘गोबर गैस’ भी कहते हैं। बॉयोगैस संयंत्र एक टैंक ( 10-15 फीट गहरा) होता है; जिसमें अपशिष्ट संग्रहीत एवं गोबर की कर्दम (स्तरी) भरी जाती है। कर्दम के ऊपर एक
चित्र 8.8 संयंत्र का एक प्रारूप बायोगैस सचल ढक्कन रखा जाता है सूक्ष्मजीवी सक्रियता के कारण टैंक में गैस बनती है। जिससे ढक्कन ऊपर को उठता है। बॉयोगैस संयंत्र में एक निकास होता है जो एक पाइप से जुड़ा रहता है। इसी पाइप की सहायता से आस-पास के घरों में बॉयोगैस की आपूर्ति की जाती है। उपयोग की गई कर्दम दूसरे निकास द्वार से बाहर निकाल दी जाती है। इसका प्रयोग उर्वरक के रूप में किया जाता है। गोबर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में मिलता है, जहाँ
पशुओं को पाला जाता है। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में इन बॉयोगैस संयंत्रों (प्लांटों) को अधिक बनाया जाता है। उत्पन्न बॉयोगैस का प्रयोग खाना बनाने तथा प्रकाश पैदा करने में किया जाता है। बॉयोगैस संयंत्र चित्र 8.8 में दिखाया गया है। भारत में बॉयोगैस उत्पादन की प्रौद्योगिकी का विकास मुख्यतः भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान तथा खादी एवं ग्रामीण उद्योग आयोग के प्रयासों के परिणामस्वरूप हुआ। यदि आपका विद्यालय किसी गाँव अथवा गाँव के आस-पास स्थित है तो इसका पता लगाकर बॉयोगैस संयंत्र (प्लांट) को देखने जाएँ और जो लोग इसके प्रबंधन में जुड़े हैं; उन लोगों से मिलें आपको बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
8.5 जैव नियंत्रण कारक के रूप में सूक्ष्मजीव
पादप रोगों तथा पीड़कों के नियंत्रण के लिए जैव वैज्ञानिक विधि का प्रयोग ही जैव नियंत्रण है। आधुनिक समाज में यह समस्याएँ रसायनों, कीटनाशियों तथा पीड़कनाशियों के बढ़ते हुए प्रयोगों की सहायता से नियंत्रित की जाती हैं। ये रसायन मनुष्यों तथा जीव जंतुओं के लिए अत्यंत ही विषैले तथा हानिकारक हैं। ये पर्यावरण (मृदा, भूमिगत जल) को प्रदूषित करते तथा फलों, साग-सब्जियों और फसलों पर भी हानिकारक प्रभाव डालते हैं। खरपतवार नाशियों का प्रयोग खरपतवार को हटाने में किया जाता है। यह भी हमारी मृदा को प्रदूषित करते हैं।
पीड़क तथा रोगों का जैव नियंत्रण- कृषि में, पीड़कों के नियंत्रण की यह विधि रसायनों के प्रयोग की तुलना में प्राकृतिक परभक्षण पर अधिक निर्भर करती है। आर्गेनिक फॉर्मर (कृषक) के अनुसार जैव विविधता ही स्वास्थ्य की कुंजी है। भूदृश्य पर जितनी अधिक किस्में होंगी, वह उतनी ही अधिक स्थायित्व प्रदान करती हैं अतः आर्गेनिक फॉर्मर (कृषक) एक तंत्र को विकसित करने के लिए कार्य करते हैं, जिसमें कीट, इन्हें पीड़क भी कहते हैं, उन्मीलित न हो, वे इसके बजाय उन्हें नियंत्रणीय स्तर पर एक जीवित तथा कंपायमान पारिस्थितिक तंत्र के भीतर संतुलन तथा जाँच के जटिल तंत्र का निर्माण करते हैं। अधिक परंपरागत ‘फार्मिंग प्रैक्टिस’ के विपरीत बहुधा लाभप्रद तथा हानिप्रद बागवानी जीवों को रसायन प्रयोग द्वारा मार दिया जाता है। जैव नियंत्रण एक प्रकार का समग्रतात्मक दृष्टिकोण है, जिससे करोड़ों जीवों के मध्य पारस्परिक क्रियाओं के जाल की व्याख्या का विकास होता है। खेत प्राणिजात (फौना) तथा पेड़-पौधों (फ्लोरा) का निर्माण करते हैं। आर्गेनिक फॉर्मर (कृषक)में बहुधा एक दृष्टिकोण विकसित हो जाता है; उदाहरणार्थ जीवों का उन्मूलन, जिन्हें बहुधा पीड़क कहा गया है, उनका उन्मूलन केवल असंभव ही नहीं; बल्कि अवांछनीय भी है। इनके बिना लाभप्रद परभक्षी तथा परजीवी कीट जीवित नहीं रह पायेंगे जो पीड़कों पर अपने पोषण अथवा भोजन के लिए आश्रित है। इस प्रकार जैवनियंत्रण विधि से विषाक्त रसायन तथा पीड़कनाशियों पर हमारी जो आश्रिता है, वह काफी हद तक घट जायेगी। जीवविज्ञानी फॉर्मिंग के उपगमन (प्रस्ताव) का महत्त्वपूर्ण भाग विभिन्न जीवन के रूपों से परिचित होता है। उदाहरणार्थ खेतों को परभक्षी तथा पीड़कों द्वारा उनके जीवन चक्र, आहार ग्रहण करने की विधि तथा वास
स्थल के रूप में पसंद किया है। यह सब मिलकर जैव नियंत्रण के उचित साधनों को विकसित करने में सहायक होते हैं।
जाना पहचाना भृंग (बीटल) जिन पर लाल तथा काली धारियाँ पाई जाती हैं तथा व्याध पतंग (ड्रैगनफ्लाई) क्रमशः ऐफिडों तथा मच्छरों से छुटकारा दिलवाने में अत्यंत ही लाभप्रद हैं। परंतु जहाँ तक सूक्ष्मजीवी जैव नियंत्रण कारकों का प्रश्न है, वहाँ बैक्टीरिया वैसीलस थूरिजिऐंसिस (बहुधा $\mathrm{Bt}$ लिखा जाता है) का प्रयोग बटरफ्लाई केटरपिलर नियंत्रण में किया जाता है। शुष्क बीजाणु (स्पोर्स) सुगंधीय थैली के रूप में उपलब्ध रहते हैं, जिन्हें पानी में मिला दिया जाता है और इस मिश्रण को दोषपूर्ण पादपों जैसे सरसों समूह (ब्रैसिका) तथा फल वृक्षों जिनकी पत्तियाँ, कीट लार्वा द्वारा खा ली गई है, पर छिड़काव किया जाता है। लार्वा की पाचननली में टॉक्सिन निकलता है और लार्वा की मृत्यु हो जाती है। जीवाणुवीय रोग केटरपिलर को मार देता है, परंतु अन्य कीटों को हानि नहीं पहुँचाता। लगभग पिछले दशक में आनुवंशिक अभियांत्रिकी की विधियों के विकास से वैज्ञानिक वैसीलस थूरिनजिऐंसिस टॉक्सिन जीन को पादपों में पहुँचा सके हैं। ऐसे पादप पीड़क द्वारा किए गए आक्रमण के प्रति प्रतिरोधी हैं। $\mathbf{B t}$-कॉटन इसका एक उदाहरण है, जिसे हमारे देश के कुछ राज्यों में उत्पन्न किया जाता है। इसके बारे में आपको अधिक जानकारी अध्याय 10 में मिलेगी।
जैव वैज्ञानिक नियंत्रण के तहत कवक ट्राइकोडर्मा का उपयोग पादप रोगों के उपचार में किया जाता है। ट्राइकोडर्मा प्रजाति एक मुक्त जीवित कवक है, जो मूल-पारिस्थितिक तंत्र में सामान्य रूप से पाया जाता है। यह बहुत से पादप रोगजनकों के प्रभावशील जैव नियंत्रण कारक हैं।
बैक्यूलोवायरेसिस ऐसे रोगजनक हैं जो कीटों तथा संधिपादों (ऑर्थोपोडों) पर हमला करते हैं। अधिकांश बैक्यूलोवायरेसिस जो जैव वैज्ञानिक नियंत्रण कारकों की तरह से किए जाते हैं। वे न्यूक्लिओपॉलीहीड्रोसिसवायरस जींस के अंतर्गत आते हैं। यह विषाणु प्रजाति-विशेष, संकरे स्पैक्ट्रम कीटनाशीय उपचारों के लिए अति उत्तम माने गए हैं। ऐसा प्रदर्शित किया जा चुका है कि इनका पादपों, स्तनधारियों, पक्षियों, मछलियों अथवा यहाँ तक कि लक्ष्यविहीन कीट पर किसी भी प्रकार का हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता। यह विशेषकर तभी वांछनीय है, जब लाभप्रद कीटों का संरक्षण किया जाए। ताकि समाकलित पीड़क प्रबंधन कार्यक्रम की सहायता हो सके अथवा जब संपूर्ण पारिस्थितिक सुग्राही क्षेत्र का उपचार हो।
8.6 जैव उर्वरक के रूप में सूक्ष्मजीव
आज के तौर तरीकों के साथ यदि जीवन को देखें तो पता चलता है कि पर्यावरण प्रदूषण चिंता का एक मुख्य कारण है। कृषि उत्पादों की बढ़ती माँगों को पूरा करने के लिए रसायन उर्वरकों का प्रयोग इस प्रदूषण के लिए महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि, हम समझने लगे हैं कि रसायन उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग से कई समस्याएँ जुड़ी हुई हैं? इसके परिणामस्वरूप कार्बनिक-खेती करने पर तथा जैव उर्ररकों के प्रयोग पर दबाव बढ़ता जा रहा है। जैव उर्वरक एक प्रकार के जीव हैं; जो मृदा की पोषक गुणवत्ता को बढ़ाते हैं।
जैव उर्वरकों का मुख्य स्रोत जीवाणु, कवक तथा सायनोबैक्टीरिया होते हैं। लैग्यूमिनस पादपों की जड़ों पर स्थित ग्रंथियों के बारे में आपने अध्ययन किया होगा। इन ग्रंथियों का निर्माण राइजोबियम के सहजीवी संबंध द्वारा होता है। यह जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर कार्बनिक रूप में परिवर्तित कर देते हैं। पादप इसका प्रयोग पोषकों के रूप में करते हैं। अन्य जीवाणु (उदाहरण ऐज़ोस्पाइरिलम तथा ऐजोबैक्टर) मृदा में मुक्तावस्था में रहते हैं। यह भी वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर कर सकते हैं। इस प्रकार मृदा में नाइट्रोजन अवयव बढ़ जाते हैं।
कवक पादपों के साथ सहजीवी संबंध (माइकोराइजा) स्थापित करते हैं। ग्लोमस जीनस के बहुत से सदस्य माइकोराइजा बनाते हैं। इस संयोजन में कवकीय सहजीवी मृदा से फास्फोरस का अवशोषण कर उसे पादपों में भेज देते हैं। ऐसे संबंधों से युक्त पादप कई अन्य लाभ जैसे मूलवातोढ़ रोगजनक के प्रति प्रतिरोधकता, लवणता तथा सूखे के प्रति सहनशीलता तथा कुलवृद्धि तथा विकास प्रदर्शित करते हैं। क्या आप बता सकते हैं कि इस संयोजन से कवक क्या लाभ प्राप्त करते हैं?
सायनोबैक्टीरिया स्वपोषित सूक्ष्मजीव हैं जो जलीय तथा स्थलीय वायुमंडल में विस्तृत रूप से पाए जाते हैं। इनमें बहुत से वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर सकते हैंजैसे- ऐनाबीना, नॉसटॉक, ऑसिलेटोरिया आदि। धान के खेत में सायनोबैक्टीरिया महत्त्वपूर्ण जैव उर्वरक की भूमिका निभाते हैं। नील हरित शैवाल भी मृदा में कार्बनिक पदार्थ बढ़ा देते हैं; जिससे उसकी उर्वरता बढ़ जाती है। हाल ही में, हमारे देश में जैव उर्वरकों की एक बड़ी संख्या बड़े पैमाने पर बाजार में उपलब्ध है। किसान अपने खेतों में लगातार इनका प्रयोग कर रहे हैं। इससे मृदा पोषक की भरपाई तथा रसायन उर्वरकों पर आश्रिता भी कम हो रही है।
सारांश
सूक्ष्मजीव पृथ्वी पर उपस्थित जीवन के बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटक हैं। सभी सूक्ष्मजीव रोगजनकीय नहीं होते हैं। बहुत से सूक्ष्मजीव मनुष्यों के लिए अत्यंत ही लाभप्रद होते हैं। हम प्रतिदिन सूक्ष्मजीवों तथा सूक्ष्मजीवीय व्युत्पन्न उत्पादों का प्रयोग करते हैं। जीवाणु (बैक्टीरिया) जो लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (एलएबी) दूध में वृद्धि करते हैं जिससे वह दही में बदल जाता है। गीला गुँथा आटा, जिसका प्रयोग ब्रैड बनाने में किया जाता है, का किण्वन सेकेरोमाइसीज सेरीविसी नामक यीस्ट से किया जाता है। कुछ पकवान जैसे इडली तथा डोसा ऐसे गीले आटे से बनाए जाते हैं; जिन्हें सूक्ष्मजीवियों द्वारा किण्वित किया गया होता है। जीवाणु तथा कवकों का प्रयोग ‘चीज’ (पनीर) को एक विशेष बनावट, स्वाद तथा सुंगध देने के लिए किया जाता है। सूक्ष्मजीवों का प्रयोग औद्योगिक उत्पाद जैसे लैक्टिक एसिड, एसिटिक एसिड तथा ऐल्कोहल उत्पन्न करने में किया जाता है, जिनका प्रयोग उद्योग में अलग-अलग संसाधनों में किया जाता
है। प्रतिजैविक (ऐंटीबायटिक) जैसे पैनीसिलिन का उत्पादन लाभप्रद सूक्ष्मजीवों द्वारा किया जाता है। यह प्रतिजैविक हानिकारक रोगों को उत्पन्न करके सूक्ष्मजीवों को मारने के काम आते हैं। प्रतिजैविक संक्रमित रोग जैसे डिप्थीरिया, काली खाँसी, तथा निमोनिया की रोकथाम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सौ वर्षों से अधिक के समय से सूक्ष्मजीवों का प्रयोग वाहितमल (व्यर्थ जल) का उपचार सक्रियीत आपंक (अवमल) निर्माण की प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। इससे प्रकृति में जल के पुनःचक्रण में भी सहायता मिलती है। मीथैनोजेन संयंत्र अपशिष्ट के अवकर्षण के दौरान मीथेन (बायोगैस) उत्पन्न करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सूक्ष्मजीव द्वारा उत्पन्न बायोगैस का उपयोग ऊर्जा के रूप में किया जाता है। सूक्ष्मजीवों का प्रयोग जैवनियंत्रण विधि द्वारा हानिप्रद पीड़कों को मारने के लिए भी किया जाता है। जैवनियंत्रण मापन से विषैले पीड़कनाशियों के प्रयोग में भारी कमी आई है। जिनका उपयोग पीड़क नियंत्रण में किया जाता है। आज समय की माँग है कि रासायनिक उवर्रकों के स्थान पर जैव उर्रककों का प्रयोग किया जाय। इनके विविध उपयोगों से स्पष्ट हो चुका है कि जिनका प्रयोग मनुष्य कर रहा है, मानव समाज के कल्याण में इन सूक्ष्मजीवियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हैं।