पुष्पी पादपों की आकारिकी

यद्यपि एंजियोस्पर्म की आकारिकी अथवा बाह्य संरचना में बहुत विविधता पाई जाती है फिर भी इन उच्च पादपों का विशाल समूह हमें अपनी ओर आकर्षित करता है। इन उच्च पादपों में मूल, स्तंभ, पत्तियाँ, पुष्प तथा फलों की उपस्थिति इसका मुख्य अभिलक्षण है। अध्याय 2 तथा 3 में हमने पौधों के वर्गीकरण के विषय में अध्ययन किया है जो आकारिकी तथा अन्य अभिलक्षणों पर आधारित थे। वर्गीकरण तथा उच्च पादपों को भली-भांति समझने के लिए (अथवा सभी जीवों के लिए) हमें संबंधित मानक वैज्ञानिक शब्दावली तथा मानक परिभाषाओं के ज्ञान की आवश्यकता होती है। हमें विभिन्न पादपों की विविधता, जो पौधों में पर्यावरण के अनुकूलन का परिणाम है जैसे विभिन्न आवासों के प्रति अनुकूलन, संरक्षण, चढ़ना तथा संचयन, आदि के विषय में भी ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।

यदि आप किसी खरपतवार को उखाड़ें तो आप देखेंगे कि उन सभी में मूल, तना तथा पत्तियाँ होती हैं। उनमें फूल तथा फल भी लगे हो सकते हैं। पुष्पी पादप का भूमिगत भाग मूल तंत्र जबकि ऊपरी भाग प्ररोह तंत्र होता है (चित्र 5.1)।

5.1 मूल

अधिकांश द्विबीजपत्री पादपों में मूलांकुर के लंबे होने से प्राथमिक मूल बनती है जो मिट्टी में उगती है। इसमें पार्श्वयी मूल होती हैं जिन्हें द्वितीयक तथा तृतीयक मूल कहते हैं। प्राथमिक मूल तथा इसकी शाखाएँ मिलकर मूसला मूलतंत्र बनाती हैं। इसका उदाहरण सरसों का पौधा है (चित्र 5.2 अ)। एकबीजपत्री पौधों में प्राथमिक मूल अल्पायु होती है और इसके स्थान पर अनेक मूल निकल जाती हैं। ये मूल तने के आधार से निकलती

हैं। इन्हें झकड़ा मूलतंत्र कहते हैं। इसका उदाहरण गेहूँ का पौधा है (चित्र 5.2 ब)। कुछ पौधों जैसे घास तथा बरगद में मूल मूलांकुर की बजाय पौधे के अन्य भाग से निकलती हैं। इन्हें अपस्थानिक मूल कहते हैं (चित्र 5.2 स)। मूल तंत्र का प्रमुख कार्य मिट्टी से पानी तथा खनिज लवण का अवशोषण, पौधे को मिट्टी में जकड़ कर रखना, खाद्य पदार्थों का संचय करना तथा पादप नियमकों का संश्लेषण करना है।

5.1.1 मूल के क्षेत्र

मूल का शीर्ष अंगुलित्त जैसे मूल गोप से ढका रहता है (चित्र 5.3)। यह कोमल शीर्ष की तब रक्षा करता है जब मूल मिट्टी में अपना रास्ता बना रही होती है। मूल गोप से कुछ मिलीमीटर ऊपर मेरिस्टेमी क्रियाओं का क्षेत्र होता है। इस क्षेत्र की कोशिकाएँ बहुत छोटी, पतली भित्ति वाली होती हैं तथा उनमें सघन प्रोटोप्लाज्म होता है। उनमें बार-बार विभाजन होता है। इस क्षेत्र में समीपस्थ स्थित कोशिकाएं शीघ्रता से लंबाई में बढ़ती हैं और मूल

चित्र 5.1 पुष्पी पादप के भाग

मूसला मूल

तंतुक मूल

(ब)

अपस्थानिक मूल

(स)

चित्र 5.2 विभिन्न प्रकार की जड़ें (अ) मूसला मूल (ब) तंतुक मूल (स) अपस्थानिक मूल

चित्र 5.3 मूल शीर्ष के क्षेत्र

(अ)

(ब)

(स) चित्र 5.4 पत्ती की संरचना (अ) पत्ती के भाग (ब) जालिका शिराविन्यास (स) समानांतर शिराविन्यास को लंबाई में बढ़ाती हैं। इस क्षेत्र को दीर्घीकरण क्षेत्र कहते हैं। दीर्घीकरण क्षेत्र की कोशिकाओं में विविधता तथा परिपक्वता आती है। इसलिए दीर्घीकरण के समीप स्थित क्षेत्र को परिपक्व क्षेत्र कहते हैं। इस क्षेत्र से बहुत पतली तथा कोमल धागे की तरह की संरचनाएँ निकलती हैं जिन्हें मूलरोम कहते हैं। ये मूल रोम मिट्टी से पानी तथा खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं।

5.2 तना

ऐसे कौन से अभिलक्षण हैं जो तने तथा मूल में विभेद स्थापित करते हैं? तना अक्ष का ऊपरी भाग है जिस पर शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल तथा फल होते हैं। यह अंकुरित बीज के भ्रूण के प्रांकुर से विकसित होता है। तने पर गाँठ तथा पोरियाँ होती हैं। तने के उस क्षेत्र को जहां पर पत्तियाँ निकलती है गांठ कहते हैं। ये गांठें अंतस्थ अथवा कक्षीय हो सकती हैं। जब तना शैशव अवस्था में होता है, तब वह प्राय: हरा होता है और बाद में वह काष्ठीय तथा गहरा भूरा हो जाता है।

तने का प्रमुख कार्य शाखाओं को फैलाना, पत्ती, फूल तथा फल को संभाले रखना है। यह पानी, खनिज लवण तथा प्रकाश संश्लेषी पदार्थों का संवहन करता है। कुछ तने भोजन संग्रह करने, सहारा तथा सुरक्षा देने और कायिक प्रवर्धन करने के भी कार्य संपन्न करते हैं।

5.3 पत्ती

पत्ती पार्श्वीय, चपटी संरचना होती है जो तने पर लगी रहती है। यह गाँठ पर होती है और इसके कक्ष में कली होती है। कक्षीय कली बाद में शाखा में विकसित हो जाती हैं। पत्तियाँ प्ररोह के शीर्षस्थ मेरिस्टेम से निकलती हैं। ये पत्तियाँ अग्राभिसारी रूप में लगी रहती हैं। ये पौधों के बहुत ही महत्त्वपूर्ण कायिक अंग हैं, क्योंकि ये भोजन का निर्माण करती हैं।

एक प्ररूपी पत्ती के तीन भाग होते हैं- पर्णधार, पर्णवृंत तथा स्तरिका (चित्र 5.4 अ)। पत्ती पर्णाधार की सहायता से तने से जुड़ी रहती है और इसके आधार पर दो

पार्श्व छोटी पत्तियाँ निकल सकती हैं जिन्हें अनुपर्ण कहते हैं। एकबीजपत्री में पर्णधार चादर की तरह फैलकर तने को पूरा अथवा आंशिक रूप से ढक लेता है। कुछ लेग्यूमी तथा कुछ अन्य पौधों में पर्णाधार फूल जाता है। ऐसे पर्णाधार को पर्णवृंततल्प (पल्वाइनस) कहते हैं। पर्णवृंत पत्ती को इस तरह सजाता है जिससे कि इसे अधिकतम सूर्य का प्रकाश मिल सके। लंबा पतला, लचीला पर्णवृंत स्तरिका को हवा में हिलाता रहता है ताकि ताजी हवा पत्ती को मिलती रहे। स्तरिका पत्ती का हरा तथा फैला हुआ भाग है जिसमें शिराएं तथा शिरिकाएँ होती हैं। इसके बीच में एक सुस्पष्ट शिरा होती है जिसे मध्यशिरा कहते हैं। शिराएँ पत्ती को दृढ़ता प्रदान करती है और पानी, खनिज तथा भोजन के स्थानांतरण के लिए नलिकाओं की तरह कार्य करती हैं। विभिन्न पौधों में स्तरिका की आकृति उसके सिरे, चोटी, सतह तथा कटाव में विभिन्नता होती है।

5.3.1 शिराविन्यास

पत्ती पर शिरा तथा शिरिकाओं के विन्यास को शिराविन्यास कहते हैं। जब शिरिकाएँ स्तरिका पर एक जाल-सा बनाती हैं तब उसे जालिका शिराविन्यास कहते हैं (चित्र 5.4 ब)। यह प्राय: द्विबीजपत्री पौधों में मिलता है। जब शिरिकाएँ समानांतर होती हैं उसे समानांतर शिराविन्यास कहते हैं (चित्र 5.4 स)। यह प्रायः एक बीजपत्री पौधों में मिलता है।

5.3.2 पत्ती के प्रकार

जब पत्ती की स्तरिका अछिन्न होती है अथवा कटी हुई लेकिन कटाव मध्यशिरा तक नहीं पहुँच पाता, तब वह सरल पत्ती कहलाती है। जब स्तरिका का कटाव मध्य शिरा तक पहुँचे और बहुत पत्रकों में टूट जाए तो ऐसी पत्ती को संयुक्त पत्ती कहते हैं। सरल तथा संयुक्त पत्तियों, दोनों में पर्णवृत के कक्ष में कली होती है। लेकिन संयुक्त पत्ती के पत्रकों के कक्ष में कली नहीं होती।

संयुक्त पत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं। (चित्र 5.5) पिच्छाकार संयुक्त पत्तियों में बहुत से पत्रक एक ही अक्ष (एक्सिस) जो मध्यशिरा के रूप में होती है, पर स्थित होते हैं। इसका उदाहरण नीम है।

(अ) नीम

चित्र 5.5 संयुक्त पत्तियां (अ) पिच्छाकारी संयुक्त पत्ती

(ब) हस्ताकार संयुक्त पत्ती

हस्ताकार संयुक्त पत्तियों में पत्रक एक ही बिंदु अर्थात् पर्णवृंत की चोटी से जुड़े रहते हैं। उदाहरणतः सिल्क कॉटन वृक्ष।

5.3.3 पर्णविन्यास

तने अथवा शाखा पर पत्तियों के विन्यस्त रहने के क्रम को पर्णविन्यास कहते हैं। यह प्राय: तीन प्रकार का होता है- एकांतर, सम्मुख तथा चक्करदार। (चित्र 5.6) एकांतर प्रकार के पर्णविन्यास में एक अकेली पत्ती प्रत्येक गांठ पर एकांतर रूप में लगी रहती है।

(अ) गुड़हल

(ब) अमरूद)

(स) चंपा

चित्र 5.6: विभिन्न प्रकार का पर्णविन्यास (अ) एकांतरण (ब) सम्मुख (स) चक्करदार

उदाहरणतः गुड़हल, सरसों, सूर्यमुखी। सम्मुख प्रकार के पर्णविन्यास में प्रत्येक गांठ पर एक जोड़ी पत्ती निकलती है और एक दूसरे के सम्मुख होती है। इसका उदाहरण है केलोट्रोपिस (आक), और अमरूद। यदि एक ही गांठ पर दो से अधिक पत्तियाँ निकलती हैं और वे उसके चारों ओर एक चक्कर सा बनाती हैं तो उसे चक्करदार पर्णविन्यास कहते हैं जैसे एल्सटोनिआ (डेविल ट्री)।

चित्र 5.7 असीमाक्षी पुष्पक्रम

5.4 पुष्पक्रम

फूल एक रुपांतरित प्ररोह है जहां पर प्ररोह का शीर्ष मेरिस्टेम पुष्पी मेरिस्टेम में परिवर्तित हो जाता है। पोरियाँ लंबाई में नहीं बढ़ती और अक्ष दबकर रह जाती है। गांठों पर क्रमानुसार पत्तियों की बजाय पुष्पी उपांग निकलते हैं। जब प्ररोह शीर्ष फूल में परिवर्तित होता है, तब वह सदैव अकेला होता है। पुष्पी अक्ष पर फूलों के लगने के क्रम को पुष्पक्रम कहते हैं। शीर्ष का फूल में परिवर्तित होना है अथवा सतत रूप से वृद्धि करने के आधार पर पुष्पक्रम को दो प्रकार असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी में बांटा गया है। असीमाक्षी प्रकार के पुष्पक्रम के प्रमुख अक्ष में सतह वृद्धि होती रहती है और फूल पार्श्व में अग्राभिसारी क्रम में लगे रहते हैं (चित्र 5.7)।

ससीमाक्षी पुष्पक्रम में प्रमुख अक्ष के शीर्ष पर फूल लगता है, इसलिए इसमें सीमित वृद्धि होती है। फूल तलाभिसारी क्रम में लगे रहते हैं जैसा कि चित्र 5.8 में दिखाया गया है।

5.5 पुष्प

एंजियोस्पर्म में पुष्प (फूल) एक बहुत महत्वपूर्ण ध्यानकर्षी रचना है। यह एक रूपांतरित प्ररोह है जो लैंगिक जनन के लिए होता है। एक प्ररूपी फूल में विभिन्न प्रकार के विन्यास होते हैं जो क्रमानुसार फूले हुए पुष्पावृंत जिसे पुष्पासन कहते हैं, पर लगे रहते हैं। ये हैं-केलिक्स, कोरोला, पुमंग तथा जायांग।

केलिक्स तथा कोरोला सहायक अंग है जबकि पुमंग तथा जायांग लैंगिक अंग हैं। कुछ फूलों जैसे प्याज में

चित्र 5.8 ससीमाक्षी पुष्पक्रम केल्किस तथा कोरोला में कोई अंतर नहीं होता। इन्हें परिदलपुंज (पेरिऐंथ) कहते हैं। जब फूल में पुंकेसर तथा पुमंग दोनों ही होते हैं तब उसे द्विलिंगी अथवा उभयलिंगी कहते हैं। यदि किसी फूल में केवल एक पुंकेसर अथवा अंडप हो तो उसे एकलिंगी कहते हैं।

सममिति में फूल त्रिज्यसममिति (नियमित) अथवा एकव्याससममित (द्विपाश्श्विक) हो सकते हैं। जब किसी फूल को दो बराबर भागों में विभक्त किया जा सके तब उसे त्रिज्यसममिति कहते हैं। इसके उदाहरण हैं सरसों, धतूरा, मिर्च। लेकिन जब फूल को केवल एक विशेष ऊर्ध्वाधर समतल से दो समान भागों में विभक्त किया जाए तो उसे एकव्याससममित कहते हैं। इसके उदाहरण हैं- मटर, गुलमोहर, सेम, केसिया आदि। जब कोई फूल बीच से किसी भी ऊर्ध्वाधर समतल से दो समान भागों में विभक्त न हो सके तो उसे असममिति अथवा अनियमित कहते हैं। जैसे कि केना।

एक पुष्प त्रितयी, चतुष्टयी, पंचतयी हो सकता है यदि उसमें उनके उपांगों की संख्या 3,4 अथवा 5 के गुणक में हो सकती है। जिस पुष्प में सहपत्र होते हैं (पुष्पवृत के आधार पर छोटी-छोटी पत्तियाँ होती हैं) उन्हें सहपत्री कहते हैं और जिसमें सहपत्र नहीं होते, उन्हें सहपत्रहीन कहते हैं।

पुष्पवृंत पर केल्किस, केरोला, पुमंग तथा अंडाशय की सापेक्ष स्थिति के आधार पर पुष्प को अधोजायांगता (हाइपोगाइनस), परिजायांगता (पेरीगाइनस), तथा अधिजायांता (ऐपीगाइनस) (चित्र 5.9)। अधोजायांगता में जायांग सर्वोच्च स्थान पर स्थित होता है और अन्य अंग नीचे होते हैं। ऐसे फूलों में अंडाशय ऊर्ध्ववर्ती होते हैं। इसके सामान्य उदाहरण सरसों, गुड़हल तथा बैंगन हैं। परिजायांगता में अंडाशय मध्य में होता है और अन्य भाग पुष्पासन के किनारे पर स्थित होते हैं तथा ये लगभग समान ऊँचाई तक होते हैं। इसमें अंडाशय आधा अधोवर्ती होता है। इसके सामान्य उदाहरण हैं- पल्म, गुलाब, आडू हैं। अधिजायांगता में पुष्पासन के किनारे ऊपर की ओर वृद्धि करते हैं तथा वे अंडाशय को पूरी तरह घेर लेते हैं और इससे संलग्न हो जाते हैं। फूल के अन्य भाग अंडाशय के ऊपर उगते हैं। इसलिए अंडाशय अधोवर्ती होता है। इसके उदाहरण हैं सूरजमुखी के अरपुष्पक, अमरूद तथा घीया।

(अ)

(ब)

(स)

(द)

चित्र 5.9 पुष्पासन पर पुष्पीय भागों की स्थिति (अ) अधोजायांगता (ब तथा स) परिजायंगता (द) अधिजायंगता

5.5.1 पुष्प के भाग

प्रत्येक पुष्प में चार चक्र होते हैं जैसे केल्किस, कोरोला, पुमंग तथा जायांग (चित्र 5.10)।

5.5.1.1 केल्किस

केल्किस पुष्प का सबसे बाहरी चक्र है और इसकी इकाई को बाह्य दल कहते हैं। प्रायः बाह्य दल हरी पत्तियों की तरह होते हैं और कली की अवस्था में फूल की रक्षा करते हैं। केल्किस संयुक्त बाह्य दली (जुड़े हुए बाह्य दल) अथवा पृथक बाह्य दली (मुक्त बाह्य दल) होते हैं।

5.5.1.2 कोरोला

कोरोला, दल (पंखुड़ी) का बना होता है। दल प्राय: चमकीले रंगदार होते हैं। ये परागण के लिए कीटों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। केल्किस की तरह कोरोला भी संयुक्त दली अथवा पृथकूदलीय हो सकता है। पौधों में कोरोला की आकृति तथा रंग भिन्न-भिन्न होता हैं। जहाँ तक आकृति का संबंध है, वह नलिकाकार, घंटाकार, कीप के आकार का तथा चक्राकार हो सकती है।

चित्र 5.10 पुष्प के भाग

पुष्पदल विन्यास पुष्पकली में उसी चक्र की अन्य इकाइयों के सापेक्ष बाह्य दल अथवा दल के लगे रहने के क्रम को पुष्प दल विन्यास कहते हैं। पुष्प दल विन्यास के प्रमुख प्रकार कोर स्पर्शी, व्यावर्तित, कोरछादी, वैकजीलेरी होते हैं (चित्र 5.11)। जब चक्र के बाह्यदल अथवा दल एक दूसरे के किनारों को केवल स्पर्श करते हों उसे कोरस्पर्शी कहते हैं; जैसे केलोट्रॉपिस । यदि किसी दल अथवा बाह्य दल का किनारा अगले दल पर तथा दूसरे तीसरे आदि पर अतिव्याप्त हो तो उसे व्यावर्तित कहते हैं। इसके उदाहरणः गुडहल, भिंडी तथा कपास हैं। यदि बाह्य दल अथवा दल दूसरे पर अतिव्याप्त हो तो उसकी कोई विशेष दिशा नहीं होती। इस प्रकार की स्थिति को कोरछादी कहते हैं। इसके उदाहरण - केसिया, गुलमोहर हैं। मटर, सेम में पाँच दल होते हैं। इनमें से सबसे बड़ा (मानक) दो पार्श्वी को (पंख) और ये दो सबसे छोटे अग्र दलों (कूटक) को अतिव्यापित करते हैं। इस प्रकार के पुष्पदल विन्यास को वैक्जीलरी अथवा पैपिलिओनेसियस कहते हैं।

(अ)

(ब)

(स)

(द)

चित्र 5.11 पुष्पदल विन्यास के विभिन्न प्रकार (अ) कोरस्पर्शी (ब) व्यावर्तित (स) कोरछादी (द) वैक्जीलेरी

5.5.1.3 पुमंग

पुमंग पुंकेसरों से मिलकर बनता है। प्रत्येक पुंकेसर जो फूल के नर जनन अंग हैं, में एक तंतु तथा एक परागकोश होता है। प्रत्येक परागकोश प्रायः द्विपालक होता है और प्रत्येक पालि में दो कोष्ठक, परागकोष होते हैं। पराग कोष में परागकण होते हैं। बंध्य पुंकेसर जनन करने में असमर्थ होते हैं और वह स्टेमिनाएड कहलाते हैं।

पुंकेसर फूल के अन्य भागों जैसे दल अथवा आपस में ही जुड़े हो सकते हैं। जब पुंकेसर दल से जुड़े होते हैं, तो उसे दललग्न (ऐपीपेटलस ) कहते हैं जैसे बैंगन में। यदि ये परिदल पुंज से जुड़े हों तो उसे परिदल लग्न (ऐपीफिलस) कहते हैं जैसे लिली में। फूल में पुंकेसर मुक्त (बहु पुंकेसरी) अथवा जुड़े हो सकते हैं। पुंकेसर एक गुच्छे अथवा बंडल (एकसंघी) जैसे गुड़हल में है; अथवा दो बंडल ( द्विसंघी) जैसे

(ब)

(स)

(द)

(य)

चित्र 5.12 बीजांडन्यास के प्रकार

(अ) सीमांत

(ब) स्तंभीय (स) भित्तीय

(द) मुक्तस्तंभीय

(य) आधारी मटर में अथवा दो से अधिक बंडल ( बहुसंघी) जैसे सिट्रस में हो सकते हैं। उसी फूल के तंतु की लंबाई में भिन्नता हो सकती है जैसे सेल्विया तथा सरसों में।

5.5.1.4 जायांग

जायांग फूल के मादा जनन अंग होते हैं। ये एक अथवा अधिक अंडप से मिलकर बनते हैं। अंडप के तीन भाग होते हैं- वर्त्तिका, वर्तिकाग्र तथा अंडाशय। अंडाशय का आधारी भाग फूला हुआ होता है जिस पर एक लम्बी नली होती है जिसे वर्तिका कहते हैं। वर्त्तिका अंडाशय को वर्त्तिकाग्र से जोड़ती है। वर्त्तिकाग्र प्रायः वर्त्तिका की चोटी पर होती है और परागकण को ग्रहण करती है। प्रत्येक अंडाशय में एक अथवा अधिक बीजांड होते हैं जो चपटे, गद्देदार बीजांडासन से जुड़े रहते हैं। जब एक से अधिक अंडप होते हैं तब वे पृथक (मुक्त) हो सकते हैं, (जैसे कि गुलाब और कमल में) इन्हें वियुक्तांडपी (एपोकार्पस) कहते हैं। जब अंडप जुड़े होते हैं, जैसे मटर तथा टमाटर, तब उन्हें युक्तांडपी (सिनकार्पस) कहते हैं। निषेचन के बाद बीजांड से बीज तथा अंडाशय से फल बन जाते हैं।

बीजांडन्यास : अंडाशय में बीजांड के लगे रहने का क्रम को बीजांडन्यास (प्लैसेनटेशन) कहते हैं। बीजांडन्यास सीमांत, स्तंभीय, भित्तीय, आधारी, केंद्रीय तथा मुक्त स्तंभीय प्रकार का होता है (चित्र 5.12)। सीमांत में बीजांडासन अंडाशय के अधर सीवन के साथ-साथ कटक बनाता है और बीजांड कटक पर स्थित रहते हैं जो दो कतारें बनाती हैं जैसे कि मटर में। जब बीजांडासन अक्षीय होता है और बीजांड बहुकोष्ठकी अंडाशय पर लगे होते हैं तब ऐसे बीजांडन्यास को स्तंभीय कहते हैं। इसका उदाहरण हैं गुड़हल, टमाटर तथा नींबू। भित्तीय बीजांडन्यास में बीजांड अंडाशय की भीतरी भित्ति पर अथवा परिधीय भाग में लगे रहते हैं। अंडाशय एक कोष्ठक होता है लेकिन आभासी पट बनने के कारण दो कोष्ठक में विभक्त हो जाता है। इसके उदाहरण हैं क्रुसीफर (सरसों) तथा आर्जेमोन हैं। जब बीजांड केंद्रीय कक्ष में होते हैं और यह पुटीय नहीं होते जैसे कि डायऐंथस तथा प्रिमरोज, तब इस प्रकार के बीजांडन्यास को मुक्तस्तंभीय कहते हैं। आधारी बीजांडन्यास में बीजांडासन अंडाशय के आधार पर होता है और इसमें केवल एक बीजांड होता है। इसके उदाहरण सूरजमुखी, गेंदा है।

5.6 फल

फल पुष्पी पादपों का एक प्रमुख अभिलक्षण है। यह एक परिपक्व अंडाशय होता है जो निषेचन के बाद विकसित होता है। यदि फल बिना निषेचन के विकसित हो तो उसे अनिषेकी (पारर्थेनोकर्णिक ) फल कहते हैं।

प्रायः फल में एक भित्ति अथवा फल भित्ति तथा बीज होते हैं। फल भित्ति शुष्क अथवा गूदेदार हो सकती है। जब फल भित्ति मोटी तथा गूदेदार होती है तब

उसमें एक बाहरी भित्ति होती जिसे बाह्यफल भित्ति कहते हैं। इसके मध्य में मध्यफल भित्ति तथा भीतरी ओर अंतःफल भित्ति होती है।

आम तथा नारियल में फल के प्रकार को अष्ठिल (ड्रप) कहते हैं (चित्र 5.13)। ये फल एकांडपी ऊर्ध्वर्ती अंडाशय से विकसित होते हैं और इनमें एक बीज होता है। आम में फल भित्ति बाह्यफल भित्ति, गूदेदार एवं खाने योग्य मध्यफल भित्ति तथा भीतरी कठोर पथरीली अंतःफल भित्ति के सुस्पष्ट रूप से विभेदित होती है। नारियल में मध्यफल भित्ति तंतुमयी होती है।

(अ)

(ब)

चित्र 5.13 फल के भाग (अ) आम (ब) नारियल

5.7 बीज

निषेचन के बाद बीजांड से बीज बन जाते हैं। बीज में प्रायः एक बीजावरण तथा भ्रूण होता है। भ्रूण में एक मूलांकुर, एक भ्रूणीय अक्ष तथा एक (गेहूं, मक्का) अथवा दो (चना, मटर) बीजपत्र होते हैं।

5.7.1 द्विबीजपत्री बीज की संरचना

बीज की बाहरी परत को बीजावरण कहते हैं। बीजावरण की दो सतहें होती हैं- बाहरी को बीजचोल और भीतरी स्तह को टेगमेन कहते हैं। बीज पर एक क्षत चिह्न की तरह का ऊर्ध्व होता है जिसके द्वारा बीज फल से जुड़ा रहता है। इसे नाभिका कहते हैं। प्रत्येक बीज में नाभिका के ऊपर छिद्र होता है जिसे बीजांडद्वार कहते हैं। बीजावरण हटाने के बाद आप बीज पत्रों के बीच भ्रूण को देख सकते हैं। भ्रूण में एक भ्रूणीय अक्ष और दो गूदेदार बीज पत्र होते हैं। बीज पत्रों में भोज्य पदार्थ संचित रहता है। अक्ष के निचले नुकीले भाग को मूलांकुर तथा ऊपरी पत्तीदार भाग को प्रांकुर कहते है (चित्र 5.14)। भ्रूणपोष भोजन संग्रह करने वाला ऊतक है जो द्विनिषेचन के परिणामस्वरूप

चित्र 5.14 द्विबीजपत्री बीज की संरचना

बनते हैं। चना, सेम तथा मटर में भ्रूणपोष पतला होता है। इसलिए ये अभ्रूणपोषी हैं जबकि अरंड में यह गूदेदार होता है ( भ्रूण पोषी है)।

5.7.2 एकबीजपत्री बीज की संरचना

प्रायः एकबीजपत्री बीज भ्रूणपोषी होते हैं लेकिन उनमें से कुछ अभ्रूणपोषी होते हैं। उदाहरणतः आर्किड। अनाज के बीजों जैसे मक्का में बीजावरण झिल्लीदार, तथा फल भित्ति से संग्लित होता है। भ्रूणपोष स्थूलीय होता है और भोजन का संग्रहण करता है। भ्रूणपोष की बाहरी भित्ति भ्रूण से एक प्रोटीनी सतह द्वारा अलग होती है जिसे एल्यूरोन सतह कहते हैं। भ्रूण आकार में छोटा होता है और यह भ्रूण पोष के एक सिरे पर खाँचे में स्थित होता है। इसमें एक बड़ा तथा ढालाकार बीजपत्र होता है जिसे स्कुटेलम कहते हैं। इसमें एक छोटा अक्ष होता है जिसमें प्रांकुर तथा मूलांकुर होते हैं। प्रांकुर तथा मूलांकुर एक चादर से ढके होते हैं, जिसे क्रमशः प्रांकुरचोल तथा मूलांकुरचोल कहते हैं। (चित्र 5.15)

चित्र 5.15 एकबीजपत्री बीज की संरचना

5.8 एक प्ररूपी पुष्पीपादप (एंजियोस्पर्म) का अर्द्धतकनीकी विवरण

पुष्पीपादप को वर्णित करने के लिए बहुत से आकारिकी अभिलक्षणों का उपयोग किया जाता है। पुष्पीपादपों का वर्णन संक्षिप्त, सरल तथा वैज्ञानिक भाषा में क्रमवार होना चाहिए। पौधे के वर्णन में उसकी प्रकृति, कायिक अभिलक्षण मूल, तना तथा पत्तियाँ और उसके बाद पुष्पी अभिलक्षण, पुष्प विन्यास, फूल के भाग का वर्णन आता है। पौधे के विभिन्न भागों के वर्णन के बाद पुष्पी भाग के पुष्पी चित्र तथा पुष्पी सूत्र बताने पड़ते हैं। पुष्पी

सूत्र को कुछ संकेतों द्वारा इंगित किया जाता है। पुष्पी सूत्र में सहपत्र को $\mathbf{B r}$ से, केल्किस को $\underline{K}$ से, कोरोला को $\underline{C}$ से, परिदल पुंज को $\mathbf{P}$ से, पुमंग को $\mathbf{A}$ से तथा जायांग को $\mathbf{G}$ से लिखते हैं। ऊर्ध्ववर्ती अंडाशय को $\mathbf{G}$ और अधोवर्ती अंडाशय को $\mathbf{G}$ से लिखते हैं। नर फूल के लिए $O^{7}$ मादा के लिए $Q$ तथा द्विलिंगी के लिए $O^{7}$ चिहनों से इंगित करते हैं। त्रिज्य सममिति को ’ $\oplus$ ’ तथा एक व्यास सममित को ‘%’ इंगित करते हैं। युक्त दलों की संख्या को ब्रेकेट से बंद करते हैं और आसंजन को पुष्पी चिह्नों के ऊपर रेखा खींचते हैं। पुष्पीचित्र से फूल के भागों की संख्या, उनके विन्यस्त क्रम और उनके संबंध (चित्र 5.16) के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। मातृ अक्ष की स्थिति फूल के सापेक्ष होती है जिसे डॉट द्वारा पुष्पी चित्र के ऊपर इंगित करते हैं। केल्किस, कोरोला, पुमंग तथा जायांग क्रमवार चक्कर में दिखाए जाते हैं। कैल्किस सबसे बाहर की ओर तथा जायांग सबसे भीतर होता है। यह सासंजन तथा आसंजन को चक्कर के भागों तथा चक्कर के बीचों को इंगित करता है। सरसों के पौधे (कुटुंब: ब्रेसिकेसी) के पुष्पी चित्र तथा पुष्पी सूत्र दिखाए गए हैं (चित्र 5.16)।

चित्र 5.16

(अ) पुष्पीसूत्र

(ब) पुष्पी चित्र

5.9 सोलैनेसी

यह एक बड़ा कुल है। प्राय: इसे आलू कुल भी कहते हैं। ये उष्णकटिबंधीय, उपोष्ण तथा शीतोष्ण में फैले रहते हैं। (चित्र 5.17)

(अ)

(ब)

(य)

(स)

(र)

चित्र 5.17 सोलैनम नाइग्रम मकोय कोई को पौधा (अ) पुष्पीशाखा (ब) पुष्प (स) पुष्प की अनुदैर्घ्यकाट (द) पुंकेसर (य) अंडप (र) पुष्पी चित्र

कायिक अभिलक्षण

इसके पौधे प्रायः शाकीय, झाड़ियाँ तथा छोटे वृक्ष वाले होते हैं

तनाः शाकीय, कभी-कभी काष्ठीय; वायवीय, सीधा, सिलिंडिराकर, शाखित, ठोस अथवा खोखला, रोमयुक्त अथवा अरोमिल, भूमिगत जैसे आलू (सोलैनम टयूबीरोसम),

पत्तियाँ: एकांतर, सरल, कर्मी संयुक्त पिच्छाकार अनुपर्णी, जालिका विन्यास

पुष्पी अभिलक्षण:

पुष्पक्रम: एकल, कक्षीय, ससीमाक्षी जैसे सोलैनम में;

फूल: उभयलिंगी, त्रिज्यसममिति

केल्किस: पाँच बाह्य दल, संयुक्त, दीर्घस्थायी, कोरस्पर्शी पुष्प दल विन्यास

कोरोला: पाँच दल, संयुक्त, कोरस्पर्शी पुष्पदल विन्यास

पुमंग: पाँच पुंकेसर, दललग्न

जायांगः द्विअंडपी, युक्तांडपी, तिरछी अंडाशय ऊर्ध्वावर्ती, द्विकोष्ठी, बीजांडासन फूला हुआ जिसमें बहुत से बीजांड

फल: संपुट अथवा सरस

बीज: भ्रूणपोषी, अनेक

पुष्पी सूत्र : $\oplus \overbrace{}^{\top} \mathrm{K} _{(5)} \widetilde{\mathrm{C} _{(5)}} \mathrm{A} _{(5)} \underline{G} _{(2)}$

आर्थिक महत्व

इस कुल के अधिकांश सदस्य भोजन (टमाटर, बैंगन, आलू), मसाले (मिर्च), औषधि

( बेलाडोना, अश्वगंधा); धूमक (तंबाकू), सजावटी पौधे (पिटुनिआ) के स्रोत हैं।

सारांश

यदि हम समस्त पादप जगत पर दृष्टि डालें तो पुष्पीय पादप सर्वाधिक विकसित होते हैं। ये आकार, माप, संरचना, पोषण की विधि, जीवन काल, प्रकृति तथा आवास में अत्यधिक विविधता प्रदर्शित करते हैं। इनमें मूल तथा प्ररोह तंत्र भली भाँति विकसित होते हैं। इनमें मूल तंत्र मूसला अथवा झकड़ा मूल पाई जाती हैं। समान्यता द्विबीजपत्री पादपों में मूसला जबकि एक बीजपत्री पादपों में झकड़ा मूल होती हैं। कुछ पादपों में मूल भोजन के संग्रहण तथा यांत्रिक सहारे तथा श्वसन के लिए रूपांतरित हो जाती हैं। प्ररोह तंत्र तना, पत्ती, पुष्प तथा फलों में बँटा रहता है। तने के आकारिकीय अभिलक्षण जैसे गाँठों तथा पोरियों की उपस्थिति, बहुकोशिक रोम, तथा घनात्मक प्रकाशानुवर्ती प्रकृति आदि की उपस्थिति से तने तथा मूल में अंतर को आसानी से समझा जा सकता है। पत्ती तने की पाश्श्वीय उर्द्धव पर गांठ से बर्हिजाति रूप में विकसित होती है। यह रंग में हरी होती है ताकि प्रकाश संश्लेषण को क्रिया संपन्न हो सके। पत्तियां आकार, माप, किनारे, शीर्ष, तथा पत्ती की स्तरिका के कटाव में सुस्पष्ट विविधताएं प्रदर्शित करती हैं।

पुष्प एक प्रकार के प्ररोह का रूपांतरित रूप है जो लैंगिक जनन संपन्न करता है। पुष्प विभिन्न प्रकार के पुष्पक्रम में विन्यस्त रहते हैं। यह संरचना, ज्यामिति, अन्य भागों के सापेक्ष अंडाशय की स्थिति, दलों बाह्य दलों, अंडाशय आदि का क्रमबद्ध विन्यास में भी विविधता प्रदर्शित करता है। निषेचन के पश्चात अंडाशय से फल तथा बीजांड से बीजों का निर्माण होता है। बीज एकबीजपत्री अथवा द्विबीजपत्रीय हो सकते हैं वे आकार, माप तथा जीवन क्षमता काल में विविध रूप के होते हैं। पुष्पीय अभिलक्षण पुष्पीय पादपों के वर्गीकरण तथा पहचान के आधार माने जाते हैं। इसका वर्णन कुलों के अर्द्ध तकनीकी विवरण से चित्रों सहित किया जा सकता है। अतः एक पुष्पी पादप का वर्णन वैज्ञानिक शब्दावली का उपयोग करते हुए निर्दिष्ट क्रम में कर सकते हैं। पुष्पीय अभिलक्षण संक्षिप्त रूप पुष्पीय चित्रों, पुष्पीय अंगों द्वारा निरूपित कर सकते हैं।



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