वनस्पति जगत
पिछले अध्याय में हमने विटेकर (1969) द्वारा सुझाए सजीवों के प्रमुख वर्ग के विषय में पढ़ा था। इसमें उन्होंने पाँच किंगडम मोनेरा, प्रोटिस्टा, फंजाई, एनिमेलिया तथा प्लांटी सुझाए थे। इस अध्याय में हम प्लांटी जगत, जिसे वनस्पति जगत भी कहते हैं, के बारे में तथा वर्गीकरण के विषय में विस्तार से पढ़ेंगे।
हमें यहाँ पर इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि वनस्पति जगत के विषय में समयानुसार परिवर्तन आया है। फंजाई (कवक) तथा मोनेरा तथा प्रोटिस्टा वर्ग के सदस्य, जिनमें कोशिका भित्ति होती है, अब प्लांटी वर्ग से निकाल दिए गए हैं। यद्यपि वे पहले दिए गए वर्गीकरण के अनुसार एक ही जगत में होते थे। इसलिए सायनोबैक्टीरिया, जिन्हें नील हरित शैवाल कहते थे अब शैवाल नहीं है। इस अध्याय में हम प्लांटी के अंतर्गत शैवाल, ब्रायोफाइट, टैरिडोफाइट, जिम्नोस्पर्म तथा एंजियोस्पर्म के विषय में पढ़ेंगे।
आओ, इस तंत्र को प्रभावित करने वाले बिंदुओं को समझने के लिए एंजियोस्पर्म के वर्गीकरण को देखें। पहले दिए वर्गीकरण में हम आकारिकी के गुणों जैसे प्रकृति, रंग, पत्तियों की संख्या तथा आकृति के आधार आदि पर वर्गीकरण करते थे। वे मुख्यतः कायिक गुणों अथवा पुमंग की रचना के आधार पर हैं तथा (लीनियस के अनुसार) ऐसे वर्गीकरण कृत्रिम थे, क्योंकि उन्होंने बहुत ही समीप वाली संबंधित स्पीशीज को अलग कर दिया था। इसका कारण था कि वे बहुत ही कम गुणों पर आधारित थे। कृत्रिम वर्गीकरण में कायिक तथा लैंगिक गुणों को समान मान्यता दी गई थी। यह अब स्वीकार नहीं है, क्योंकि हम जानते हैं कि कायिक गुणों में प्राय: पर्यावरण के अनुसार परिवर्तन हो जाता है। इसके विपरीत, प्राकृतिक वर्गीकरण जीवों में प्राकृतिक संबंध तथा बाह्य गुणों के साथ-साथ भीतरी गुणों, जैसे-परा-रचना, शारीर, भ्रूण विज्ञान तथा पादप रसायन के आधार पर विकसित हुआ है। पुष्पी पादपों के इस वर्गीकरण को जॉर्ज बेंथम तथा जोसेफ़ डॉल्टन हूकर ने सुझाया था।
वर्तमान में हम जातिवृत्तीय वर्गीकरण तंत्र, जो विभिन्न जीवों में विकासीय संबंध पर आधारित है, को स्वीकार करते हैं। इससे यह पता लगता है कि समान टैक्सा के जीव के पूर्वज एक ही थे। अब, हम वर्गीकरण की कठिनाइयों को हल करने के लिए विभिन्न सूचनाओं तथा अन्य स्रोतों का उपयोग करते हैं। यह तब और भी कठिन हो जाता है, उसके पक्ष में कोई भी जीवाश्मी प्रमाण उपलब्ध न हो। संख्यात्मक वर्गिकी जिसे अब सरलता से कंयूटरीकृत किया जा सकता है, सभी अवलोकनीय गुणों पर आधारित है। सजीवों के सभी गुणों को एक नंबर तथा एक कोड दिया गया है और इसके बाद इसे प्रोसेस किया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक गुण को समान महत्व दिया गया है और उसी समय सैकड़ों गुणों को ध्यान में रख सकते हैं। आज कल वर्गिकीविद् भ्रांतियों को दूर करने के लिए कोशिका वर्गिकी के कोशिका विज्ञानीय सूचनाओं जैसे क्रोमोसोम की संख्या, रचना, व्यवहार तथा रसायन वर्गिकी जो पादपों के रसायनिक कारकों का उपयोग करते हैं।
3.1 शैवाल
शैवाल क्लोरोफिलयुक्त, सरल, थैलॉयड, स्वपोषी तथा मुख्यतः जलीय (अलवणीय जल तथा समुद्री दोनों का) जीव है। वे अन्य आवास जैसे नमयुक्त पत्थरों, मिट्टी तथा लकड़ी में भी पाए जाते हैं। उनमें से कुछ कवक (लाइकेन में) तथा प्राणियों के संगठन में भी पाए जाते हैं (जैसे स्लाथ रीछ)।
शैवाल के माप तथा आकार में बहुत विभिन्नता होती है। ये कॉलोनिय जैसे वॉल्वॉक्स तथा तंतुमयी जैसे यूलोथ्रिक्स, स्पाइरोगायरा (चित्र 3.1) तक हो सकते हैं। इनमें से कुछ, शैवाल जैसे केल्प, बहुत विशालकाय होते हैं।
शैवाल कायिक, अलैंगिक तथा लैंगिक जनन करते हैं। कायिक जनन विखंडन विधि द्वारा होता है। इसके प्रत्येक खंड से थैलस बन जाता है। अलैंगिक जनन विभिन्न प्रकार के बीजाणुओं द्वारा होता है। सामान्यतः ये बीजाणु जूस्पोर होते हैं। इनमें कशाभिक (फ्लैजिला) होता है और ये चलायमान होते हैं। अंकुरण के बाद इनसे पौधे बन जाते हैं। लैंगिक जनन में दो युग्मक संगलित होते हैं। यो युग्मक कशाभिक युक्त (फ्लैजिला युक्त) तथा माप में समान हो सकते हैं (जैसे यूलोथ्रिक्स) अथवा फ्लैजिला विहीन लेकिन समान माप वाले हो सकते हैं (जैसे स्पाइरोगायरा)। ऐसे जनन को समयुग्मकी कहते हैं। जब विभिन्न माप वाले दो युग्मक संगलित होते हैं तब उसे असमयुग्मकी कहते हैं (जैसे यूडोराइना) की कुछ स्पीशीज विषमयुग्मकी लैंगिक जनन में एक बड़े अचल (स्थैनिक) मादा युग्मक से एक छोटा चलायमान नरयुग्मक संमलित होता है। जैसे वॉलवॉक्स, फ्यूक्स।
शैवाल वर्ग तथा उनके महत्वपूर्ण गुणों का सारांश तालिका में दिया गया है।
मनुष्य के लिए शैवाल बहुत उपयोगी हैं। पृथ्वी पर प्रकाश-संश्लेषण के दौरान कुल स्थिरीकृत कार्बनडाइऑक्साइड का लगभग आधा भाग शैवाल स्थिर करते हैं। प्रकाश-संशलेषी
(अ- i)
(अ- ii)
(ब-i)
(ब-ii)
चित्र 3.1 शैवाल
(अ) हरित शैवाल
(ब) भूरे शैवाल
(स) लाल शैवाल (i) बॉलबाक्स
(i) लैमिनेरिया
(i) पौरफाइरा (ii) यूलोथ्रिक्स
(ii) फ्यकस
(ii) पॉलीसाइफोनिया
(iii) डिक्टाइओटा
तालिका 3.1 शैवाल के डिवीजन अनुभाग तथा उनके प्रमुख अभिलक्षण
डिविजन | सामान्य नाम | प्रमुख वर्णक | संचित भोजन | कोशिका भित्ति | फ्लेजिला की संख्या तथा उनकी निवेशन की स्थिति | आवास |
---|---|---|---|---|---|---|
क्लोरोफाइसी | हरे शैवाल | क्लोरोफ़िल $a, b$ | स्टार्च | सेल्यूलोज | $2-8$, समान, शीर्ष | अलवणजल, लवणीय जल, खारा जल |
फीयोफाइसी | भूरे शैवाल | क्लोरोफ़िल a, c, फ्यूकोजैंथिन | मैनीटोल लैमिनेरिन | सेल्यूलोज तथा एलजिन | 2, असमान, पार्श्वीय | अलवणजल, (बहुत कम) खारा जल, लवणीयजल |
रोडोफाइसी | लाल शैवाल | क्लोरोफ़िल a,d, फाइकोऐरीथ्रिन | फ्लोरिडिऑन स्टार्च | सेल्यूलोज | अनुपस्थित | अलवण जल, (कुछ) खारा जल, लवण जल (अधिकांश) |
जीव होने के कारण शैवाल अपने आस-पास के पर्यावरण में घुलित ऑक्सीजन का स्तर बढ़ा देते हैं। ये ऊर्जा के प्राथमिक उत्पादक होने के कारण बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ये जलीय प्राणियों के खाद्य चक्रों का आधार हैं। पोरफायरा, लैमिनेरिया तथा सरगासम की बहुत सी स्पीशीज (प्रजातियाँ), जो समुद्र की 70 स्पीशीज (प्रजातियाँ) में से है, भोजन के रूप में उपयोग की जाती है। कुछ समुद्री भूरे तथा लाल शैवाल बहुत ही अधिक कैरागीन (लाल शैवाल से) का उत्पादन करते हैं। जिनका व्यवसायिक उपयोग होता है। जिलेडियम तथा ग्रेसिलेरिआ से एगार प्राप्त होता है जिसका उपयोग सूक्ष्म जीवियों के संवर्धन में तथा आइसक्रीम और जैली बनाने में किया जाता है। क्लोरैला तथा स्प्रिलाइना एक कोशिक शैवाल हैं। इनमें प्रोटीन प्रचुर मात्रा में होता है। यहाँ तक कि इसका उपयोग अंतरिक्ष यात्री भी भोजन के रूप में करते हैं। शैवाल तीन प्रमुख भागों में विभक्त किया जाता है: क्लोरोफाइसी, फीयोफाइसी तथा रोडोफाइसी।
3.1.1 क्लोरोफाइसी
क्लोरोफाइसी के सदस्यों को प्राय: हरा शैवाल कहते हैं। ये एक कोशिक, कॉलोनीमय अथवा तंतुमयी हो सकते हैं। क्लोरोफिल $a$ तथा $b$ के प्रभावी होने के कारण इनका रंग हरी घास की तरह होता है। वर्णक सुस्पष्ट क्लोरोप्लास्ट में होते हैं। क्लोरोप्लास्ट डिस्क, प्लेट की तरह, जालिकाकार, कप के आकार, सर्पिल अथवा रिबन के आकार के हो सकते हैं। इसके अधिकांश सदस्यों के क्लोरोप्लास्ट में एक अथवा एक से अधिक पाइरीनॉइड होते हैं। पाइरीनॉइड स्टार्च होते हैं। कुछ शैवाल तेलबुदंक के रूप में भोजन संचित करते हैं। हरे शैवाल में प्राय: एक कठोर कोशिका भित्ति होती है। जिसकी भीतरी सतह सेल्यूलोज की तथा बाहरी सतह पेक्टोज की बनी होती है।
कायिक जनन प्रायः तंतु के टूटने से अथवा विभिन्न प्रकार के बीजाणु (स्पोर) के बनने से होता है। अलैंगिक जनन फ्लैजिलायुक्त जूस्पोर से होता है। जूस्पोर जूस्पोरेजिंया
(चल बीजाणुधानी) में बनते हैं। लैंगिक जनन में लैंगिक कोशिकाओं के बनने में बहुत विभिन्नता दिखाई पड़ती है। ये समयुगमकी, असमयुगमकी अथवा विषमयुमकी हो सकते हैं इसके सामान्य सदस्य क्लैमाइडोमोनास, वॉलवॉक्स, यूलोथ्रिक्सि, स्पाइरोगायरा तथा कारा (चित्र 3.1 अ) हैं।
3.1.2 फीयोफाइसी
फीयोफाइसी अथवा भूरे शैवाल मुख्यतः समुद्री आवास में पाए जाते हैं। उनके माप तथा आकार में बहुत विभिन्नताएं होती हैं। ये सरल शाखित, तंतुमयी (एक्टोकार्पस) से लेकर सघन शाखित जैसे केल्प तक हो सकते हैं। केल्प की ऊँचाई 100 मीटर तक हो सकती है। इनमें क्लोरोफ़िल $a, c$, कैरोटिनॉइड तथा जैंथोफिल होता है। इनका रंग जैतूनी हरे से लेकर भूरे के विभिन्न शेड तक हो सकता है। ये शेड जैंथोफिल वर्णक, फ्युकोजैंथिन की मात्रा पर निर्भर करते हैं। इनमें जटिल कार्बोहाइड्रेट के रूप में भोजन संचित होता है। यह भोजन लैमिनेरिन अथवा मैनीटोल के रूप में हो सकता है। कायिक कोशिका में सेल्यूलोज से बनी कोशिका भित्ति होती है जिसके बाहर की ओर एल्जिन का जिलैटिनी अस्तर होता है। प्रोटोप्लास्ट में लवक के अतिरिक्त केंद्र में रसधानी तथा केंद्रक होते हैं। पौधा प्राय: संलग्नक द्वारा अधःस्तर (स्बस्ट्रेटम) से जुड़ा रहता है और इसमें एक वृंत तथा पत्ती की तरह का प्रकाश-संश्लेषी अंग होता है। इसमें कायिक जनन विखंडन विधि द्वारा होता है। अलैंगिक जनन नाशपाती के आकार वाले दो फ्लैजिला युक्त जूस्पोर द्वारा होता है। इसके फ्लैजिला असमान होते हैं तथा वे पार्श्वीय रूप से जुड़े होते हैं।
इसमें लैंगिक जनन समयुग्मकी, असमयुग्मकी अथवा विषययुग्मकी हो सकता है। युग्मकों का संगम जल में अथवा अंडधानी (विषमयुग्मकी स्पीशीज) (प्रजाति) में हो सकता है। युग्मक पाइरीफोर्म (नाशपाती आकार) की होती हैं और इसके पार्श्व में दो फ्लेजिला होते हैं। इसके सामान्य सदस्य- एक्टोकार्पस, डिक्टयोटा, लैमिनेरिया, सरगासम तथा फ्यूकस हैं (चित्र 3.1 ब)।
3.1.3 रोडोफाइसी
रोडोफाइसी लाल शैवाल हैं। इनका लाल रंग लाल वर्णक, आर-फाइकोएरिथ्रिन के कारण है। अधिकांश लाल शैवाल समुद्र में पाए जाते हैं और इनकी बहुलता समुद्र के गरम क्षेत्र में अधिक होती है। ये पानी की सतह पर, जहाँ अधिक प्रकाश होता है, वहाँ भी पाए जाते हैं और समुद्र की गहराई में भी और जहाँ प्रकाश कम होता है, वहाँ भी पाए जाते हैं।
लाल शैवाल का लाल थैलस अधिकांशतः बहुकोशिक होता है और इनमें से कुछ की संरचना बड़ी जटिल होती है भोजन फ्लोरिडियन स्टार्च के रूप में संचित होता है। इस स्टार्च की रचना एमाइलो प्रोटीन तथा ग्लाइकोजन की तरह होती है।
इसमें कायिक जनन विखंडन, अलैंगिक जनन अचल स्पोर (बीजाणु) और लैंगिक जनन अचल युग्मकों द्वारा होता है। लैंगिक जनन विषमयुग्मकी होता है और इसके पश्चात
निषेचनोत्तर विकास होता है। इसके सामान्य सदस्य- पोलीसाइफोनिया, ग्रेसिलेरिया, पोरफायरा तथा जिलेडियम हैं (चित्र 3.1 स)।
3.2 ब्रायोफाइट
ब्रायोफाइट में मॉस तथा लिवरवर्ट आते हैं जो प्रायः पहाड़ियों में नम तथा छायादार क्षेत्रों में पाए जाते हैं (चित्र 3.2)। ब्रायोफाइट को पादप जगत के जलस्थलचर भी कहते हैं;
(स)
(ब)
(द)
चित्र 3.2 ब्रायोफाइट (अ) लिवरवर्ट-मारकैंशिया (अ) मादा थैलस (ब) नर थैलस मॉस - (स) फ्यूनेरिया, युग्मकोद्भिद् तथा बीजाणुद्गमिद् (द) स्फैगनम युग्मकोद्भिद्
क्योंकि ये भूमि पर भी जीवित रह सकते हैं, किंतु लैंगिक जनन के लिए जल पर निर्भर करते हैं। ये प्रायः नम, सीलन (आर्द्र), तथा छायादार स्थानों पर पाए जाते हैं। ये अनुक्रमण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इनकी पादपकाय शैवाल की अपेक्षा अधिक विभेदित होती है। यह थैलस की तरह होता है और शयान अथवा सीधा होता है और एक कोशिक तथा बहुकोशिक मूलाभ द्वारा स्बस्ट्रेटम से जुड़ा रहता है। इनमें वास्तविक मूल, तना अथवा पत्तियाँ नहीं होती। इनमें मूलसम, पत्तीसम अथवा तनासम संरचना होती है। ब्रायोफाइट की मुख्यकाय अगुणित होती है। ये युग्मक उत्पन्न करते हैं, इसलिए इन्हें युग्मकोभिद् कहते हैं। ब्रायोफाइट में लैंगिक अंग बहुकोशिक होते हैं। नर लैंगिक अंग को पुंधानी कहते हैं। ये द्विकशाभिक पुमंग उत्पन्न करते हैं। मादा जनन अंग को स्त्रीधानी कहते हैं। यह फ्लास्क के आकार का होता है जिसमें एक अंड होता है। पुमंग को पानी में छोड़ दिया जाता है। ये स्त्रीधानी के संपर्क में आते हैं और अंडे से संगलित हो जाते हैं, जिसके कारण युग्मनज बनता है। युग्मनज में तुरंत न्यूनीकरण विभाजन नहीं होता और इससे एक बहुकोशिक बीजाणु-उद्भिद् (स्पोरोफाइट) बन जाता है। स्पोरोफाइट मुक्तजीवी नहीं है, बल्कि यह प्रकाश संश्लेषी युग्मकोद्भिद् से जुड़ा रहता है और इससे अपना पोषण प्राप्त करता रहता है। स्पोरोफाइट की कुछ कोशिकाओं में न्यूनीकरण विभाजन होता है, जिससे अंगुणित बीजाणु अंकुरित हो कर युग्मकोद्भिद् में विकसित हो जाते हैं।
ब्रायोफाइट का बहुत कम आर्थिक महत्त्व है। लेकिन कुछ मॉस शाकाहारी स्तनधारियों, पक्षियों तथा अन्य प्राणियों को भोजन प्रदान करते हैं। स्फेगनम की कुछ स्पीशीज (जाति) पीट प्रदान करती हैं जिसका उपयोग ईंधन के रूप में करते हैं। इसका उपयोग पैकिंग में और सजीव पदार्थों को स्थानांतरित करने में भी करते हैं। इसका कारण यह है कि इनमें पानी को रोकने की क्षमता बहुत अधिक होती है। लाइकेन समेत मॉस सर्वप्रथम ऐसे सजीव हैं, जो चट्टानों पर उगते हैं। इनका परिस्थितिक दृष्टि से बहुत महत्व हैं। इन्होंने चट्टानों को अपघटित किया और अन्य उच्च कोटि के पौधों को उगने के अनुरूप बनाया। चूंकि मॉस मिट्टी पर एक सघन परत बना देते हैं, इसलिए वर्षा की बौछारें मृदा को अधिक हानि नहीं पहुँचा पाती और इस प्रकार ये मृदा अपक्षरण को रोकते हैं। ब्रायोफाइट को लिवरवर्ट तथा मॉस में विभक्त कर सकते हैं (चित्र 3.2)।
3.2.1 लिवरवर्ट
लिवरवर्ट प्रायः नमी छायादार स्थानों जैसे नदियों के किनारे, दल-दले स्थानों, गीली मिट्टी, पेड़ों की छालों आदि पर उगते हैं। लिवरवर्ट की पादपकाय थैलासाभ (मारकेंशिया) होती हैं। थैलस पृष्ठाधर होते हैं तथा अधःस्तर बिल्कुल चिपके रहते हैं। इसके पत्तीदार सदस्यों में पत्तियों की तरह की छोटी-छोटी संरचनाएँ होती हैं जो तने की तरह की रचना पर दो कतारों में होती हैं।
लिवरवर्ट में अलैंगिक जनन थैलस के विखंडन अथवा विशिष्ट संरचना जेमा द्वारा होता है। जेमा हरी बहुकोशिक अलैंगिक कलियाँ हैं। ये छोटे-छोटे पात्रों, जिन्हें जेमा कप कहते हैं, में स्थित होती हैं। ये अपने पैतक पादप से अलग हो जाती हैं और इससे एक नया पादप उग आता है। लैंगिक जनन के दौरान नर तथा मादा लैंगिक अंग या तो उसी
थैलस पर अथवा दूसरे थैलस पर बनते हैं। स्पोरोफाइट में एक पाद, सीटा तथा कैप्स्यूल (मारकेंशिया) होता है। मिऑसिस के बाद कैप्सूल में स्पोर बनते हैं। स्पोर से अंकुरण होने के कारण मुक्तजीवी युग्मकोद्भिद् बनते हैं।
3.2.2 मॉस
जीवन चक्र की प्रभावी अवस्था युग्मकोद्भिद् होती है, जिसकी दो अवस्थाएँ होती हैं। पहली अवस्था प्रथम तंतु है जो स्पोर से बनता है। यह विसर्पी, हरा, शाखित तथा प्राय: तंतुमयी होता है। इसकी दूसरी अवस्था पत्ती की तरह की होती है जो प्रथम तंतु से पार्श्वीय कली के रूप में उत्पन्न होती है। इसमें एक सीधा, पतला तना सा होता है। जिस पर सर्पिल रूप में पत्तियां लगी रहती हैं। ये बहुकोशिक तथा शाखित मूलाभ द्वारा मिट्टी से जुड़ी रहती हैं। इस अवस्था में लैंगिक अंग विकसित होते हैं।
मॉस में कायिक जनन द्वितीयक प्रथम तंतु के विखंडन तथा मुकुलन द्वारा होता है। लैंगिक जनन में लैंगिक अंग पुंधानी तथा स्त्रीधानी पत्तीदार प्ररोह की चोटी पर स्थित होते हैं। निषेचन के बाद, युग्मनज से स्पोरोफाइट विकसित होता है जो पाद, सीटा तथा कैप्स्यूल में विभेदित रहता है। मॉस में स्पोरोफाइट लिवरवर्ट की अपेक्षा अधिक विकसित होता है। कैप्स्यूल में स्पोर होते हैं। मिऑसिस के बाद स्पोर बनते हैं। मॉस में स्पोर विकिरण की बहुत विस्तृत प्रणाली होती हैं। इसके सामान्य सदस्य- फ्यूनेरिया, पोलिट्राइकम तथा स्फेगनम (चित्र 3.2) होते हैं।
3.3 टैरिडोफाइट
टैरिडोफाइट का सजावट में बहुत अधिक आर्थिक महत्व है। फूल वाले अधिकांश फर्न का उपयोग सजाने में करते हैं और सजावटी पौधे के रूप में उगाते हैं। विकास की दृष्टि से ये स्थल पर उगने वाले सर्वप्रथम पौधे हैं, जिनमें संवहन ऊतक-जाइलम तथा फ्लोएम होते हैं। आप इन ऊतकों के विषय में विस्तार से अध्याय 6 में पढ़ेंगे। जीवाश्मी रिकार्ड के अनुसार टैरिडोफाइट 350 मिलियन वर्ष पूर्व प्रभावी वनस्पति थे और वे तने रूपी थे। टैरिडोफाइट के अंत्रगत हॉर्सटेल तथा फर्न आते हैं। टैरिडोफाइट ठंडे, गीले, छायादार स्थानों पर पाए जाते हैं। यद्यपि कुछ रेतीली मिट्टी में भी अच्छी तरह उगते हैं।
आपको याद होगा कि ब्रायोफाइट के जीवन में युग्मकोद्भिद् प्रभावी अवस्था होती है (चित्र 3.3)। लेकिन टेरिडोफाइट में मुख्य पादपकाय स्पोरोफाइट है, जिसमें वास्तविक मूल, तना तथा पत्तियाँ होती हैं। इन अंगों में सुस्पष्ट संवहन ऊतक होते हैं। टैरिडोफाइट में पत्तियाँ छोटी, लघुपर्ण उदाहरणतः सिलैजिैैला अथवा बड़ी, बृहत्पर्ण हो सकती है; जैसे फर्न। स्पोरोफाइट में बीजाणुधानी होती हैं; जो पत्ती की तरह के बीजाणुपर्ण पर लगी रहती हैं। कुछ टैरिडोफाइट में बीजाणुपर्ण सघन होकर एक सुस्पष्ट रचना बनाते हैं जिन्हें शंकु कहते हैं। उदाहरणतः सिलैजिनेला, इक्वीसीटम। बीजाणुधानी के स्थित बीजाणुमातृ कोशिका में मिऑसिस के कारण बीजाणु बनते हैं। बीजाणु अंकुरित होने पर एक अस्पष्ट, छोटा बहुकोशिक, मुक्तजीवी, अधिकांशतः प्रकाशसंश्लेषी थैलाभ युग्मकोद्भिद् बनाते हैं; जिसे प्रोथैलस कहते हैं। इन युग्मकोद्भिदों को उगने के लिए ठंडा, गीला, छायादार स्थान
(अ)
संधि/गाँठ
चित्र 3.3 टैरिडोफाइट (अ) सेलैजिनैला (ब) इक्वीस्टिम (स) फर्न (द) सैलबीनिया
चाहिए। इसकी विशिष्ट, सीमित आवश्यकताएँ और निषेचन के लिए पानी की आवश्यकता कम होने के कारण जीवित टैरिडोफाइट का फैलाव भी सीमित है और कम भौगोलिक क्षेत्रों तक सीमित हैं। युग्मकोद्भिद् के नर तथा मादा अंग होते हैं; जिन्हें क्रमशः पुंधानी तथा स्त्रीधानी कहते हैं। पुंधानी से पुमणु के निकलने के बाद उसे स्त्रीधानी के मुँह तक पहुँचने के लिए पानी की आवश्यकता होती हैं। स्त्रीधानी में स्थित अंडे से नर युग्मक संगलन हो जाता है और युग्मनज बनता है। उसके बाद युग्मनज से बहुकोशिक, सुस्पष्ट स्पोरोफाइट बन जाता है जो टैरिडोफाइट की प्रभावी अवस्था है। यद्यपि अधिकांश टैरिडोफाइट में, जहाँ स्पोर एक ही प्रकार के होते हैं, उन पौधों को समबीजाणुक कहते हैं। सिलैजिनेला, साल्वीनिया में दो प्रकार के - बृहद् (बड़े) तथा लघु (छोटे) स्पोर बनते हैं; जिन्हें विषमबीजाणु कहते हैं। बड़े बृहद् बीजाणु (मादा) तथा छोटे लघु बीजाणु (नर) से क्रमशः मादा तथा नर युग्मकोद्भिद् बन जाते हैं ऐसे पौधों में मादा युग्मकोद्भिद् अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पैतृक स्पोरोफाइट से जुड़ा रहता है। मादा युग्मकोद्भिद् में युग्मनज का विकास होता है; जिससे एक नया शैशव भ्रूण बनता है। यह घटना बहुत महत्त्वपूर्ण समझी जाती है जो बीजी प्रकृति की ओर ले जाती है।
टैरिडोफाइट के चार वर्ग (क्लास) होते हैं: साइलोपसीडा (साइलोटम), लाइकोपसीडा (सिलैजिनेला तथा लाइकोपोडियम), स्फीनोपसीडा (इक्वीसीटम) तथा टीरोपसीडा (ड्रायोप्टैरीस, टैरिस तथा एडिएंटम)।
3.4 जिम्नोस्पर्म
जिम्नोस्पर्म (जिम्नोस - अनावृत, स्पर्म - बीज) ऐसे पौधे हैं; जिनमें बीजांड अंडाशय भित्ति से ढके हुए नहीं होते और ये निषेचन से पूर्व तथा बाद में भी अनावृत ही रहते हैं। जिम्नोस्पर्म में मध्यम अथवा लंबे वृक्ष तथा झाड़ियाँ होती हैं (चित्र 3.4)। जिम्नोस्पर्म का सिकुआ वृक्ष सबसे लंबा है। इनकी मूल प्राय: मूसला मूल होती हैं। इसके कुछ जीनस की मूल कवक से सहयोग कर लेती हैं, जिसे कवक मूल कहते हैं, उदाहरण-पाइनस । जबकि कुछ अन्यों की छोटी विशिष्ट मूल नाइट्रोजन स्थिर करने वाले सायनो बैक्टीरिया के साथ सहयोग कर लेती हैं जिसे प्रवाल मूल कहते हैं उदाहरणतः साइकैस । इसके तने अशाखीय (साइकैस) अथवा शाखित (पाइनस, सीड्रस) होते हैं। इनकी पत्तियां सरल तथा संयुक्त होती हैं। साइकैस में पिच्छाकार पत्तियाँ कुछ वर्षों तक रहती है। जिम्नोस्पर्म में पत्तियाँ अधिक ताप, नमी, तथा वायु को सहन कर सकती हैं। शंक्वाकार पौधों में पत्तियाँ सुई की तरह होती हैं। इनकी पत्तियों का सतही क्षेत्रफल कम, मोटी क्यूटिकल तथा गर्तिकरंध्र होते हैं। इन गुणों के कारण पानी की हानि कम होती है।
जिम्नोस्पर्म विषम बीजाणु होते हैं; वे अगुणित लघुबीजाणु तथा वृहद् बीजाणु बनाते हैं। बीजाणुधानी में दो प्रकार के बीजाणु उत्पन्न होते हैं। बीजाणुधानी बीजाणुपर्ण पर होते हैं। बीजाणुपर्ण सर्पिल की तरह तने पर लगे रहते हैं। ये शलथ अथवा सघन शंकु बनाते हैं। शंकु जिन पर लघुबीजाणुपर्ण तथा लघुबीजाणुधानी होती हैं; उन्हें लघुबीजाणुधानिक अथवा नरशंकु कहते हैं। प्रत्येक लघुबीजाणु से नर युग्मकोद्भिद् संतति उत्पन्न होती है, जो बहुत ही न्यूनीकृत होती है और यह कुछ ही कोशिकाओं में सीमित रहती हैं। इस न्यूनीकृत नर युग्मकोद्भिद् को परागकण कहते हैं। परागकणों का विकास लघुबीजाणुधानी में होता है। जिस शंकु पर गुरु बीजाणुपर्ण तथा गुरु बीजाणुधानी होती है; उन्हें गुरु बीजाणुधानिक अथवा मादा शंकु कहते हैं। दो प्रकार के नर अथवा मादा शंकु एक ही वृक्ष (पाइनस) अथवा विभिन्न वृक्षों पर (साइकैस) पर स्थित हो सकते हैं। गुरु बीजाणु मातृ कोशिका बीजांड काय की एक कोशिका से विभेदित हो जाता है। बीजांडकाय एक अस्तर द्वारा सुरक्षित रहता है और इस सघन रचना को बीजांड कहते हैं। बीजांड गुरु बीजाणुपर्ण पर होते हैं, जो एक गुच्छा बनाकर मादा शंकु बनाते हैं। गुरु बीजाणु मातृ कोशिका में मिऑसिस द्वारा चार गुरु बीजाणु बन जाते हैं। गुरु बीजाणुधानी (बीजांडकाय) स्थित अकेला गुरुबीजाणु मादा युग्मकोद्भिद् में विकसित होता है। इसमें दो अथवा दो से अधिक स्त्रीधानी अथवा मादा जनन अंग होते हैं। बहुकोशिक मादा युग्मकोद्भिद् भी गुरु बीजाणुधानी में ही रह जाता है।
जिम्नोस्पर्म में दोनों ही नर तथा मादा युग्मकोद्भिद् ब्रायोफाइट तथा टैरिडोफाइट की तरह स्वतंत्र नहीं होते। वे स्पोरोफाइट पर बीजाणुधानी में ही रहते हैं। बीजाणुधानी से परागकण बाहर निकलते हैं। ये गुरु बीजाणुपर्ण पर स्थित बीजांड के छिद्र तक हवा द्वारा ले जाए जाते हैं। परागकण से एक परागनली बनती है जिसमें नर युग्मक होता हैं। यह परागनली स्त्रीधानी की ओर जाती है और वहाँ पर शुक्राणु छोड़ देती है। निषेचन के बाद युग्मनज बनता है, जिससे भ्रूण विकसित होता है और बीजांड से बीज बनते हैं। ये बीज ढके हुए नहीं होते।
3.5 एंजियोस्पर्म
पुष्पी पादपों अथवा एंजियोस्पर्म में परागकण तथा बीजांड विशिष्ट रचना के रूप में विकसित होते हैं जिसे पुष्प कहते हैं। जबकि जिम्नोस्पर्म में बीजांड अनावृत होते हैं। एंजियोस्पर्म पुष्पी पादप हैं, जिसमें बीज फलों के भीतर होते हैं। यह पादपों में सबसे बड़ा वर्ग है। उनके वासस्थान भी बहुत व्यापक हैं। इनका माप सूक्ष्मदर्शी जीवों वुल्फिया से लेकर सबसे ऊंचे वृक्ष यूकेल्पिट्स
(अ)
(ब)
(स)
चित्र 3.4 जिम्नोस्पर्म (अ) साइकस (ब) पाइनस (द) गिंकगो
( 100 मीटर से अधिक ऊंचाई) तक होता है। इनसे हमें भोजन, चारा, ईंधन, औषधियाँ तथा अन्य दूसरे आर्थिक महत्त्व के उत्पाद प्राप्त होते हैं। ये दो वर्गों द्विबीजपत्री तथा एकबीजपत्री में विभक्त होते हैं (चित्र 3.5)।
(अ)
(ब)
चित्र 3.5 ऐंजिओस्पर्म (अ) द्विबीजपत्री (ब) एकबीजपत्री
सारांश
पादप जगत में शैवाल, ब्रायोफाइट, टैरिडोफाइट, जिम्नोस्पर्म तथा एंजियोस्पर्म आते हैं। शैवाल में क्लोरोफिल होता है। वे सरल, थैलासाभ, स्वपोषी तथा मुख्यतः जलीय जीव हैं। वर्णक के प्रकार तथा भोजन संग्रह के प्रकार के आधार पर शैवाल को तीन वर्गों (क्लास) में विभक्त किए गए हैं, ये हैं - क्लोरोफाइसी, फीयोफाइसी तथा रोडोफाइसी। शैवाल प्रायः विखंडन द्वारा कायिक प्रवर्धन करते हैं। अलैंगिक जनन में विभिन्न प्रकार के बीजाणु द्वारा तथा लैंगिक जनन लैंगिक कोशिकाओं द्वारा करते हैं। लैंगिक कोशिकाएँ समयुग्मकी, असमयुग्मकी तथा विषमयुग्मकी हो सकती हैं।
ब्रायोफाइट ऐसे पौधे हैं जो मिट्टी में उगते हैं लेकिन उनका लैंगिक जनन पानी पर निर्भर करता है। शैवाल की अपेक्षा उनकी पादपकाय अधिक विभेदित होती है। यह थैलस की तरह होता है। और शयान अथवा सीधा हो सकता है। ये मूलाभ द्वारा स्बस्ट्रेटम से जुड़े रहते हैं। इनमें मूल की तरह, तने की तरह तथा पत्तियों की तरह की रचनाएँ होती है। ब्रायोफाइट लिबरवर्ट तथा मॉस में विभक्त होते हैं। लिवरवर्ट थैलसाभ तथा पृष्ठाधर होते हैं। मॉस सीधे, पतले तने वाले होते हैं जिस पर पत्तियाँ सर्पिल ढंग से लगी रहती हैं। ब्रायोफाइट की मुख्यकाय युग्मकोद्भिद् होती है जो युग्मकों को उत्पन्न करते हैं। इसमें नर लैंगिक अंग होते है जिसे पुंधानी कहते हैं। मादा लैंगिक अंग को स्त्रीधानी कहते हैं। नर तथा मादा युग्मक इससे पैदा होते हैं जो संगलित हो
कर युग्मनज बनाते हैं। युग्मनज से बहुकोशिक रचना बनती है, जिसे बीजाणु-उद्भिद् कहते हैं। इससे अगुणित बीजाणु बनते हैं। बीजाणुओं से युग्मकोद्भिद् बनते हैं।
टैरिडोफाइट में मुख्य पौधा बीजाणु-उद्भिद् होता है। इसमें वास्तविक मूल, तना तथा पत्तियाँ होती हैं। इसमें सुविकसित संवहन ऊतक होते हैं। बीजाणु-उद्भिद् में बीजाणुधानी होती है। जिसमें मिऑसिस द्वारा बीजाणु बनते हैं। बीजाणु अंकुरित होकर युग्मकोद्भिद् बनाते हैं। इन्हें वृद्धि के लिए ठंडे, नम स्थानों की आवश्यकता होती है। युग्मकोद्भिद् में नर तथा मादा लैंगिक अंग होते हैं; जिन्हें क्रमशः पुंधानी तथा स्त्रीधानी कहते हैं। नरयुग्मक के मादा युग्मक तक जाने के लिए पानी की आवश्यकता होती है। निषेचन के बाद युम्मनज बनता है। युग्मनज से बीजाणु-उद्भिद् बनता है।
जिम्नोस्पर्म वे पौधे होते हैं, जिनमें बीजांड किसी अंडाशय भित्ति से ढका नहीं होता। निषेचन के बाद बीज अनावृत रहते हैं और इसीलिए इन्हें अनावृत बीजी पौधे कहते हैं। जिम्नोस्पर्म लघु बीजाणु तथा गुरु बीजाणु उत्पन्न करते हैं, जो लघु बीजाणुधानी तथा गुरु बीजाणुधानी ( बीजांड) में बनते हैं। ये धानियाँ बीजाणु पर्ण में होती हैं। बीजाणु पर्ण - लघु बीजाणुपर्ण तथा गुरु बीजाणुपर्ण अक्ष पर सर्पिल रूप में लगी रहती हैं। जिनसे क्रमशः नर शंकु तथा मादा शंकु बनते हैं। परागकण अंकुरित होते हैं और पराग नली बनती है; जिससे नर युग्मक अंडाशय में निकल जाता हैं। यहां पर यह स्त्रीधानी में स्थित अंडकोशिका से संगलन हो जाता है। निषेचन के बाद, युग्मनज भ्रूण में तथा बीजांड बीज में विकसित हो जाता हैं।