जीव जगत का वर्गीकरण
सभ्यता के प्रारंभ से ही मानव ने सजीव प्राणियों के वर्गीकरण के अनेक प्रयास किए हैं। वर्गीकरण के ये प्रयास वैज्ञानिक मानदंडों की जगह सहज बुद्धि पर आधारित हमारे भोजन, वस्त्र एवं आवास जैसी सामान्य उपयोगिता के वस्तुओं के उपयोग की आवश्यकताओं पर आधारित थे। इन प्रयासों में जीवों के वर्गीकरण के वैज्ञानिक मानदंडों का उपयोग सर्वप्रथम अरस्तू ने किया था। उन्होंने पादपों को सरल आकारिक लक्षणों के आधार पर वृक्ष, झाड़ी एवं शाक में वर्गीकृत किया था। जबकि उन्होंने प्राणियों का वर्गीकरण लाल रक्त की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति के आधार पर किया था।
लीनियस के काल में सभी पादपों और प्राणियों के वर्गीकरण के लिए एक द्विजगत पद्धति विकसित की गई थी, जिसमें उन्हें क्रमशः प्लांटी (पादप) एवं एनिमैलिया (प्राणि) जगत में वर्गीकृत किया गया था। इस पद्धति के अनुसार यूकैरियोटी (ससीमकेंद्रकी) एवं प्रोकैरियोटी (असीमकेंद्रकी), एक कोशिक एवं बहुकोशिक तथा प्रकाश संश्लेषी (हरित शैवाल) एवं अप्रकाश संश्लेषी (कवक) के बीच विभेद स्थापित करना संभव नहीं था। पादपों एवं प्राणियों पर आधारित यह वर्गीकरण आसान एवं सरलता से समझे जाने के बावजूद बहुत से जीवधारियों को इनमें से किसी भी वर्ग में रखना संभव नहीं था। इसी कारण अत्यंत लंबे समय से चली आ रही वर्गीकरण की द्विजगत पद्धति अपर्याप्त सिद्ध हो रही थी। इसके अतिरिक्त, वर्गीकरण के लिए आकारिकी के साथ-साथ कोशिका संरचना, कोशिका भित्ति के लक्षण, पोषण की विधि, आवास, प्रजनन की विधि याँ एवं विकासीय संबंधों को भी समाहित करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। अतः समय के साथ-साथ सजीवों के वर्गीकरण की पद्धति में अनेक परिवर्तन आए हैं। पादप एवं प्राणी जगत के वर्गीकरण की इन कठिन पद्धतियों, जिनमें सम्मिलित समूहों/जीवधारियों में होने वाले परिवर्तन शामिल हैं, सदा ही समाविष्ट रहे हैं। इसके अतिरिक्त जीवधारियों के विभिन्न जगत की संख्या एवं उनके लक्षणों की विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा अलग-अलग व्याख्या की गई है।
तालिका - 2.1 पाँच जीव-जगत के लक्षण
लक्षण | पाँच जगत | ||||
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मॉनेरा | प्रोटिस्टा | फंजाई | प्लांटी | ऐनिमेलिया | |
कोशिका प्रकार | प्रोकैरियोटिक | यूकैरियोटिक | यूकैरियोटिक | यूकैरियोटिक | यूकैरियोटिक |
कोशिका भित्ति | सेलूलोज रहित (बहुशर्कराइड) + एमीनो अम्ल | कुछ में उपस्थित | उपस्थित (सेल्युलोस रहित)काइटिन युक्त | उपस्थित (सेल्युलोस सहित) | अनुपस्थित |
केंद्रक झिल्ली ) | अनुपस्थित | उपस्थित | उपस्थित | उपस्थित | उपस्थित |
काय संरचना | कोशिकीय | कोशिकीय | बहुकोशिक/ अदृढ़ ऊतक | ऊतक/अंग ऊतकतंत्र | ऊतक/अंग/ अंग तंत्र |
पोषण की विधि | स्वपोषी ( रसायन संश्लेषी एवं प्रकाशसंश्लेषी) तथा परपोषी ( मृतपोषी एवं परजीवी) | स्वपोषी ( प्रकाशसंश्लेषी) तथा परपोषी | परपोषी (मृतपोषी एवं परजीवी | स्वपोषी ( प्रकाशसंश्लेषी) | परपोषी ( प्राणि समभोजी, मृतपोषी इत्यादि) |
प्रजनन की विधि | संयुग्मन | युग्मक संलयन एवं संयुग्मन | निषेचन | निषेचन | निषेचन |
सन् 1969 में आर.एच. न्हिटेकर द्वारा एक पाँच जगत वर्गीकरण की पद्धति प्रस्तावित की गई थी। इस पद्धति के अंतर्गत सम्मिलित किए जाने वाले जगतों के नाम मॉनेरा, प्रोटिस्टा, फंजाई, प्लांटी एवं एनिमैलिया हैं। कोशिका संरचना, शारीरिक संरचना, पोषण की प्रक्रिया, प्रजनन एवं जातिवृत्तीय संबंध उनके वर्गीकरण की पद्धति के प्रमुख मानदंड थे। तालिका 2.1 में इन सभी जगतों के विभिन्न लक्षणों का एक तुलनात्मक विवरण दिया गया है।
अब हम पाँच जगत वर्गीकरण से जुड़े मुद्दों एवं धारणाओं पर विचार करेंगे, जिससे वर्गीकरण की यह पद्धति प्रभावित है। इससे पहले की वर्गीकरण पद्धति के अंतर्गत बैक्टीरिया, नील-हरित शैवाल, (फंजाई) मॉस, फर्न, जिम्नोस्पर्म एवं एन्जिओस्पर्म को ‘पादपों’ के साथ रखा गया था। इस जगत के समस्त जीवों की कोशिकाओं में कोशिका भित्ति का उपस्थित रहना एक समानता थी, जबकि उनके अन्य लक्षण एक दूसरे से एक दम अलग थे। जीवन की तीन अनुक्षेत्र पद्धतियाँ भी प्रस्तावित की गई थीं, जिसमें मॉनेरा जगत् को दो अनुक्षेत्रों में वर्गीकत किया गया तथा सारे यकैैरियोटिक जगत् को तीसरे अनुक्षेत्र में रखा गया। अतः एक षट्जगत् वर्गीकरण पद्धति भी प्रस्तावित की गई। आप इस पद्धति के विषय में विस्तार से उच्च कक्षाओं में पढ़ेंगे। प्रोकैरियोटिक बैक्टीरिया तथा नील-हरित शैवाल या साइनोबैक्टीरिया को अन्य यकैरियोटिक जीवों के साथ वर्गीकृत कर दिया गया। इस पद्धति के अनुसार एक कोशिक जीवों को बहुकोशिक जीवों के साथ वर्गीकृत किया गया, जैसेक्लेमाइडोमोनास एवं स्पाइरोगायरा शैवाल। इस वर्गीकरण में कवकों जैसे परपोषी का, हरित
पादपों जैसे स्वपोषी, के बीच भी विभेद नहीं किया गया, जबकि कवकों की कोशिका भित्ति काइटिन की एवं हरित पादपों की सेलुलोस की बनी होती है। इन्हीं लक्षणों को ध्यान में रखते हुए कवकों को एक अलग जगत ‘फंजाई’ के अंतर्गत रखा गया है। सभी प्रोकैरियोटिक जीवधारियों के साथ ‘मॉनेरा’ तथा एककोशिक जीवधारियों को प्रोटिस्टा जगत के अंतर्गत रखा गया है। प्रोटिस्टा जगत के अंतर्गत कोशिका भित्तियुक्त क्लैमाइडोमोनास एवं क्लोरेला (जिन्हें पहले पादपों के अंतर्गत शैवाल में रखा गया था) पैरामीशियम एवं अमीबा (जिन्हें पहले प्राणि जगत में रखा गया था) के साथ रखा गया है, जिनमें कोशिका भित्ति नहीं पाई जाती है। इस प्रकार इस पद्धति में अनेक जीवधारियों को एक साथ रखा गया है, जिन्हें पहले की पद्धतियों में अलग-अलग रखा गया था। ऐसा वर्गीकरण के मानदंडों में परिवर्तन के कारण हुआ है। इस प्रकार के परिवर्तन भविष्य में भी हो सकते हैं, जो लक्षणों तथा विकासीय संबंधों के प्रति हमारी समझ में सुधार पर निर्भर होगी। समय के साथ-साथ वर्गीकरण की एक ऐसी पद्धति विकसित करने का प्रयास किया गया है जो न सिर्फ आकारिक, कायिक एवं प्रजनन संबंधी समानताओं पर आधारित हों, बल्कि जातिवृत्तीय हो और विकासीय संबंधों पर भी आधारित हो।
इस अध्याय में हम न्हिटेकर पद्धति के अंतर्गत मॉनेरा, प्रोटिस्टा एवं फंजाई के लक्षणों का अध्ययन करेंगे। प्लांटी एवं एनिमेलिया जगत, जिन्हें सामान्य भाषा में क्रमशः पादप एवं प्राणि जगत कहते हैं, की चर्चा आगे के दो अध्यायों में अलग-अलग करेंगे।
2.1 मॉनेरा जगत
सभी बैक्टीरिया मॉनेरा जगत के अंतर्गत आते हैं। ये सूक्ष्मजीवियों में सर्वाधिक संख्या में होते हैं और लगभग सभी स्थानों पर पाए जाते हैं। मुट्ठी भर मिट्टी में सैकड़ों प्रकार के बैक्टीरिया देखे गए हैं। ये गर्म जल के झरनों, मरूस्थल, बर्फ एवं गहरे समुद्र जैसे विषम एवं प्रतिकूल वास स्थानों, जहाँ दूसरे जीव मुश्किल से ही जीवित रह पाते हैं, में भी पाए जाते हैं। कई बैक्टीरिया तो अन्य जीवों पर या उनके भीतर परजीवी के रूप में रहते हैं।
बैक्टीरिया को उनके आकार के आधार पर चार समूहों गोलाकार कोकस (बहुवचन कोकाई), छड़ाकार बैसिलस (बहुवचन बैसिलाई) कॉमा-आकार के, विब्रियम (बहुवचन-विब्रियाँ) तथा सर्पिलाकार स्पाइरिलम (बहुवचन स्पाइरिला) में बाँटा गया है (चित्र 2.1)।
कोकाई
चित्र 2.1 विभिन्न आकार के बैक्टीरिया
यद्यपि संरचना में बैक्टीरिया अत्यंत सरल प्रतीत होते हैं; परंतु इनका व्यवहार अत्यंत जटिल होता है। चयपचाय (उपापचय) की दृष्टि से अन्य जीवधारियों की तुलना में बैक्टीरिया में बहुत अधिक विविधता पाई जाती है। उदाहरण स्वरूप वे अपना भोजन अकार्बनिक पदार्थों से संश्लेषित कर सकते हैं। ये प्रकाश संश्लेषी स्वपोषी अथवा रसायन संश्लेषी स्वपोषी होते हैं, अर्थात् वे अपना भोजन स्वयं संश्लेषित नहीं करते हैं; अपितु भोजन के लिए अन्य जीवधारियों अथवा मृत कार्बनिक पदार्थो पर निर्भर रहते हैं।
2.1.1 आद्य बैक्टीरिया
ये विशिष्ट प्रकार के बैक्टीरिया होते हैं, ये बैक्टीरिया अत्यंत कठिन वास स्थानों, जैसे-अत्यंत लवणीय क्षेत्र (हैलोफी), गर्म झरने (थर्मोएसिडोफिलस) एवं कच्छ क्षेत्र (मैथेनोजेन) में पाए जाते हैं। आद्य बैक्टीरिया तथा अन्य बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति की संरचना एक दूसरे से भिन्न होती है। यही लक्षण उन्हें प्रतिकूल अवस्थाओं में जीवित रखने के लिए उत्तरदायी हैं। मैथेनोजेन अनेक रूमिनेंट पशुओं (जैसे गाय एवं भैंस) के आंत्र में पाए जाते हैं तथा इनके गोबर से मिथेन (जैव गैस) का उत्पादन करते हैं।
2.1.2 यूबैक्टीरिया
हजारों यूबैक्टीरिया अथवा वास्तविक बैक्टीरिया की पहचान एक कठोर कोशिका भित्ति एवं एक कशाभ (चल बैक्टीरिया) द्वारा की जाती है। सायनो बैक्टीरिया (जिन्हें नील-हरित शैवाल भी कहते हैं) में हरित पादपों की तरह क्लोरोफिल-ए पाया जाता है तथा ये प्रकाश संश्लेषी स्वपोषी होते हैं (चित्र 2.2)। सायनो बैक्टीरिया एककोशिक, क्लोनीय अथवा तंतुमय अलवण जलीय समुद्री अथवा स्थलीय शैवाल हैं। इनकी क्लोनी प्राय: जेलीनुमा आवरण से ढकी रहती हैं जो प्रदूषित जल में बहुत फलते-फूलते हैं। बैक्टीरिया जैसे नॉस्टॉक एवं एनाबिना पर्यावरण के नाइट्रोजन को टेटरोसिस्ट नामक विशिष्ट कोशिकाओं द्वारा स्थिर कर सकते हैं। रसायन संश्लेषी बैक्टीरिया नाइट्रेट, नाइट्राइट एवं अमोनिया जैसे विभिन्न अकार्बनिक पदार्थो को ऑक्सीकृत कर उनसे मुक्त ऊर्जा का उपयोग एटीपी उत्पादन के लिए करते हैं। ये नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, आयरन एवं सल्फर जैसे पोषकों के पुनर्चक्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
परपोषी बैक्टीरिया प्रकृति में बहुलता से पाए जाते हैं और इनमें अधिकतर महत्वपूर्ण अपघटक होते हैं। इन परपोषी बैक्टीरिया में से अनेक का मनुष्य के जीवन संबधी गतिविधियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। ये दूध से दही बनाने में, प्रतिजैविकों के उत्पादन में, लेग्युम पादप की जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरिकरण में सहायता करते हैं। कुछ बैक्टीरिया रोगजनक होते हैं जो मनुष्यों, फसलों, फार्म एवं पालतू पशुओं को हानि पहुँचाते हैं। विभिन्न बैक्टीरिया के कारण हैजा, टायफॉयड, टिटनेस, साइट्रस, कैंकर जैसी बीमारियां होती हैं।
चित्र 2.2 एक तंतुमयी शैवाल-नॉस्टॉक
चित्र 2.3 एक विभक्त होता हुआ बैक्टीरिया बैक्टीरिया प्रमुख रूप से कोशिका विभाजन द्वारा प्रजनन करते हैं। कभी-कभी, विपरीत परिस्थितियों में ये बीजाणु बनाते हैं। ये लैंगिक प्रजनन भी करते हैं, जिनमें एक बैक्टीरिया से दूसरे बैक्टीरिया में डीएनए का पुरातन स्थानांतरण होता है।
माइकोप्लाज्मा ऐसे जीवधारी हैं, जिनमें कोशिका भित्ति बिल्कुल नहीं पाई जाती है। ये सबसे छोटी जीवित कोशिकाएं हैं, जो ऑक्सीजन के बिना भी जीवित रह सकती हैं। अनेक माइकोप्लाज्मा प्राणियों और पादपों के लिए रोगजनक होती हैं।
2.2 प्रोटिस्टा जगत
सभी एककोशिक यूकैरियोटिक को प्रोटिस्टा के अंतर्गत रखा गया है, परंतु इस जगत की सीमाएं ठीक तरह से निर्धारित नहीं हो पाई हैं। एक जीव वैज्ञानिक के लिए जो ‘प्रकाशसंश्लेषी प्रोटिस्टा’ है, वही दूसरे के लिए ‘एक पादप’ हो सकता है। क्राइसोफाइट, डायनोफ्लैजिलेट, युग्लीनॉइड, अवपंक कवक एवं प्रोटोजोआ सभी को इस पुस्तक में प्रोटिस्टा के अंतर्गत रखा गया है। प्राथमिक रूप से प्रोटिस्टा के सदस्य जलीय होते हैं। यूकैरियोटिक होने के कारण इनकी कोशिका में एक सुसंगठित केंद्रक एवं अन्य झिल्लीबद्ध कोशिकांग पाए जाते हैं। कुछ प्रोटिस्टा में कशाभ एवं पक्ष्माभ भी पाए जाते हैं। ये अलैंगिक, तथा कोशिका संलयन एवं युग्मनज (जाइगोट) बनने की विधि द्वारा लैंगिक प्रजनन करते हैं।
2.2.1 क्राइसोफाइट
इस समूह के अंतर्गत डाइएटम तथा सुनहरे शैवाल (डेस्मिड) आते हैं। ये स्वच्छ जल एवं लवणीय (समुद्री) पर्यावरण दोनों में पाए जाते हैं। ये अत्यंत सूक्ष्म होते हैं तथा जलधारा के साथ निश्चेष्ट रूप से बहते हैं। डाइएटम में कोशिका भित्ति साबुनदानी की तरह इसी के अनुरूप दो अतिछादित कवच बनाती है। इन भित्तियों में सिलिका होती है, जिस कारण ये नष्ट नहीं होते हैं। इस प्रकार मृत डाइएटम अपने परिवेश (वास स्थान) में कोशिका भित्ति के अवशेष बहुत बड़ी संख्या में छोड़ जाते हैं। करोड़ों वर्षो में जमा हुए इस अवशेष को ‘डाइएटमी मृदा’ कहते हैं। कणमय होने के कारण इस मृदा का उपयोग पॉलिश करने, तेलों तथा सिरप के निस्यंदन में होता है। ये समुद्र के मुख्य उत्पादक हैं।
2.2.2 डायनोफ्लैजिलेट
ये जीवधारी मुख्यतः समुद्री एवं प्रकाशसंश्लेषी होते हैं। इनमें उपस्थित प्रमुख वर्णकों के आधार पीले, हरे, भूरे, नीले अथवा लाल दिखते हैं। इनकी कोशिका भित्ति के बाह्य सतह
पर सेल्युलोस की कड़ी पट्टिकाएं होती हैं। अधिकतर डायनोफ्लैजिलेट में दो कशाभ होते हैं, जिसमें एक लंबवत् तथा दूसरा अनुप्रस्थ रूप से भित्ति पट्टिकाओं के बीच की खांच में उपस्थित होता है। प्राय: लाल डायनोफ्लैसिलेट की संख्या में विस्फोट होता है, जिससे समुद्र का जल लाल (लाल तरंगें) दिखने लगता है। इतनी बड़ी संख्या के जीव से निकले जीव-विष के कारण मछली एवं अन्य समुद्री जीव मर जाते हैं। उदाहरणः गोनियालैक्स ।
2.2.3 यूग्लीनॉइड
इनमें से अधिकांशतः स्वच्छ जल में पाए जाने वाले जीवधारी हैं, जो स्थिर जल में पाए जाते हैं। इनमें कोशिका भित्ति की जगह एक प्रोटीनयुक्त पदार्थ की पर्त पेलिकिल होती है, जो इनकी संरचना को लचीला बनाती है। इनमें दो कशाभ होते हैं जिसमें एक छोटा तथा दूसरा लंबा होता है। यद्यपि सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में ये प्रकाशसंश्लेषी होते हैं, लेकिन सूर्य के प्रकाश के नहीं होने पर अन्य सूक्ष्म जीवधारियों का शिकार कर परपोषी की तरह व्यवहार करते हैं। आश्चर्यजनक रूप से युग्लीनॉइड में पाए जाने वाले वर्णक उच्च पादपों में उपस्थित वर्णकों के समान होते हैं। उदाहरणः युग्लीना (चित्र 2.4 ब)।
2.2.4 अवपंक कवक
अवपंक कवक मृतपोषी प्रोटिस्टा हैं। ये सड़ती हुई टहनियों तथा पत्तों के साथ गति करते हुए जैविक पदार्थों का भक्षण करते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में ये समूह (प्लाज्मोडियम) बनाते हैं, जो कई फीट तक की लंबाई का हो सकता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में ये बिखरकर सिरों पर बीजाणुयुक्त फलनकाय बनाते हैं। इन बीजाणुओं का परिक्षेपण वायु के साथ होता है।
2.2.5 प्रोटोजोआ
सभी प्रोटोजोआ परपोषी होते हैं, जो परभक्षी अथवा परजीवी के रूप में रहते हैं। ये प्राणियों के पुरातन संबंधी हैं। प्रोटोजोआ को चार प्रमुख समूहों में बाँटा जा सकता है।
अमीबीय प्रोटोजोआः ये जीवधारी स्वच्छ जल, समुद्री जल तथा नम मृदा में पाए जाते हैं। ये अपने कूटपादों की सहायता से अपने शिकार को पकड़ते हैं। इनके समुद्री प्रकारों की सतह पर सिलिका के कवच होते हैं। इनमें से कुछ जैसे एंटअमीबी परजीवी होते हैं।
(अ)
(ब)
(स)
(द)
चित्र 2.4 प्रोटोजोऑन -
(अ) डायनोफ्लैजिलेट
(ब) यूग्लीना
(स) अवपंक कवक
(द) पैरामीशियम
कशाभी प्रोटोजोआः इस समूह के सदस्य स्वच्छंद अथवा परजीवी होते हैं, इनके शरीर पर कशाभ पाया जाता है। परजीवी कशाभी प्रोटोजोआ बीमारी के कारण हैं, जिनसे निद्रालु व्याधि नामक बीमारी होती है। उदाहरणः ट्रिपैनोसोमा ।
पक्ष्माभी प्रोटोजोआः ये जलीय तथा अत्यंत सक्रिय गति करने वाले जीवधारी हैं, क्योंकि इनके शरीर पर हजारों की संख्या में पक्ष्माभ पाए जाते हैं। इनमें एक गुहा (ग्रसिका) होती है जो कोशिका की सतह के बाहर की तरफ खुलती है। पक्ष्माभों की लयबद्ध गति के कारण जल से पूरित भोजन गलेट की तरफ भेज दिया जाता है। उदाहरण-पैरामीशियम। (चित्र 2.4 द)
स्पोरोजोआः इस समूह में वे विविध जीवधारी आते हैं जिनके जीवन चक्र में संक्रमण करने योग्य बीजाणु जैसी अवस्था पाई जाती है। इसमें सबसे कुख्यात प्लाज्मोडियम (मलेरिया परजीवी) प्रजाति है, जिसके कारण मानव की जनसंख्या पर आघात पहुँचाने वाला प्रभाव पड़ा है।
2.3 कवक ( फंजाई ) जगत
परपोषी जीवों में फंजाई (कवक) का जीव जगत में विशेष अद्भुत स्थान है। इनकी आकारिकी तथा वास स्थानों में बहुत भिन्नता होती है। आपने नम रोटी व सड़े हुए फलों में कवक को देखा होगा। सामान्य छत्रक (मशरूम) तथा कुकुरमुत्ता (टोडस्टूल) भी फंजाई हैं। सरसों की पत्तियों पर स्थित सफेद धब्बे परजीवी फंजाई के कारण होते हैं। कुछ एककोशिक फंजाई जैसे यीस्ट का उपयोग रोटी तथा बीयर बनाने के लिए किया जाता है। अन्य फंजाई पौधों तथा जंतुओं के रोग के कारण होते हैं। उदाहरण के लिए गेहूँ में किट्ट रोग पक्सिनिया के कारण होता है। कुछ फंगल जैसे पेनिसिलियम से प्रतिजैविक (एंटिबायोटिक) का निर्माण होता है। फंजाई विश्वव्यापी हैं और ये हवा, जल, मिट्टी में तथा जंतु एवं पौधों पर पाए जाते हैं। ये गरम तथा नम स्थानों पर सरलता से उग जाते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि हम अपने भोजन को रेफ्रिजरेटर में क्यों रखते हैं? हाँ, इससे हम अपने भोजन को बैक्टीरिया अथवा फंजाई के कारण खराब होने से बचाते हैं।
फंजाई तंतुमयी है, लेकिन यीस्ट जो एककोशिक है इसका अपवाद है। ये लंबी, पतली धागे की तरह की संरचनाएं होती हैं, जिन्हें कवक तंतु कहते हैं। कवक तंतु के जाल को कवक जाल (माइसीलियम) कहते हैं। कुछ कवक तंतु सतत नलिकाकार होते हैं, जिनमें बहुकेंद्रकित कोशिका द्रव्य (साइटोप्लाज्म) भरा होता है, जिन्हें संकोशिकी कवक तंतु कहते हैं। अन्य कवक तंतुओं में पटीय होते हैं। फंजाई की कोशिका भित्ति काइटिन तथा पॉलिसैकेराइड की बनी होती हैं।
अधिकांश फंजाई परपोषित होती हैं। वे मृत बस्ट्रेट्स से घुलनशील कार्बनिक पदार्थों को अवशोषित कर लेती हैं, अतः इन्हें मृतजीवी कहते हैं। जो फंजाई सजीव पौधों तथा जंतुओं पर निर्भर करती हैं, उन्हें परजीवी कहते हैं। ये शैवाल तथा लाइकेन के साथ तथा उच्चवर्गीय पौधों के साथ कवक मूल बना कर भी रह सकते हैं, ऐसी फंजाई सहजीवी कहलाती है।
फंजाई में जनन कायिक-खंडन, विखंडन, तथा मुकुलन विधि द्वारा होता है। अलैंगिक जनन बीजाणु, जिसे कोनिडिया कहते है अथवा धानी-बीजाणु अथवा चलबीजाणु, द्वारा
होता है। लैंगिक जनन निषिक्तांड (ऊस्पोरा), ऐंस्कस बीजाणु तथा बेसिडियम बीजाणु द्वारा होता है। विभिन्न बीजाणु सुस्पष्ट संरचनाओं में उत्पन्न होते हैं जिन्हें फलनकाय कहते हैं। लैंगिक चक्र में निम्नलिखित तीन सोपान होते हैं:
(i) दो चल अथवा अचल युग्मकों के प्रोटोप्लाज्म का संलयन होना। इस क्रिया को प्लैज्मोगैमी कहते हैं।
(ii) दो केंद्रकों का संलयन होना जिसे केंद्र संलयन कहते हैं।
(iii) युग्मनज में मिऑसिस के कारण अगुणित बीजाणु बनना लैंगिक जनन में संयोज्य संगम के दौरान दो अगुणित कवक तंतु पास-पास आते हैं और संलयित हो जाते हैं। कुछ फंजाई में दो गुणित कोशिकाओं में संलयन के तुरंत बाद एक द्विगुणित $(2 n)$ कोशिका बन जाती है, यद्यपि अन्य फंजाई (ऐस्कोमाइसिटीज) में एक मध्यवर्ती द्विकेंद्रकी अवस्था $(n+n)$ अर्थात् एक कोशिका में दो केंद्रक बनते हैं; ऐसी परिस्थिति को केंद्रक युग्म कहते हैं तथा इस अवस्था को फंगस की द्विकेंद्रक प्रावस्था कहते हैं। बाद में पैतृक केंद्रक संलयन हो जाते हैं और कोशिका द्विगुणित बन जाती है। फंजाई फलनकाय बनाती है, जिसमें न्यूनीकरण विभाजन होता है जिसके कारण अगुणित बीजाणु बनते हैं।
कवक जाल की आकारिकी, बीजाणु बनने तथा फलन काय बनने की विधि जगत को विभिन्न वर्गो में विभक्त करने का आधार बनते हैं।
2.3.1 फाइकोमाइसिटीज
फाइकोमाइसिटीज जलीय आवासों, गली-सड़ी लकड़ी, नम तथा सीलन भरे स्थानों अथवा पौधों पर अविकल्पी परजीवी के रूप में पाए जाते हैं। कवक जाल अपटीय तथा बहुकेंद्रकित होता है। अलैंगिक जनन चल बीजाणु अथवा अचल बीजाणु द्वारा होता है। ये बीजाणु धानी में अंतर्जातीय उत्पन्न होते हैं। दो युग्मकों के संलयन से युग्माणु बनते हैं। इन युग्मकों की आकारिकी एक जैसी (समयुग्मकता) अथवा भिन्न (असमयुग्मकी अथवा विषमयुग्मकी) हो सकती है। इसके सामान्य उदाहरण हैं म्यूकर, राइजोपस (रोटी के कवक पहले ही बता चुके हैं) तथा ऐलबूगो (सरसों पर परजीवी फंजाई) हैं।
2.3.2 ऐस्कोमाइसिटीज
इसे सामान्यतः थैली फंजाई भी कहते हैं। विरले पाए जाने वाले ऐस्कोमाइसिटीज एककोशिक जैसे यीस्ट (सकैरोमाइसीज) वे अलावा ये बहुकोशिक जैसे पेनिसिलियम, होती है। ये मृतजीवी, अपघटक, परजीवी अथवा शमलरागी (पशुविष्टा
(अ)
(ब)
(स)
चित्र 2.5 फंजाईः (अ) म्यूकर
(ब) ऐश्पर्जिलस (स) एगेरिकस
पर उगनेवाली) होते हैं। कवक जालशाखित तथा पटीय होता है। अलैंगिक बीजाणु कोनिडिया होते हैं जो विशिष्ट कवकजाल जिसे कोनिडिमधर कहते हैं, पर बहिर्जात रूप से उत्पन्न होते हैं। कोनिडिया अंकुरित होकर कवक जाल बनाते हैं। लैंगिक बीजाणु को ऐस्कस बीजाणु कहते हैं। ये बीजाणु थैलीसम ऐस्कस में अंतर्जातीय रूप से उत्पन्न होते हैं। ये ऐसाई (एक वचन ऐस्कस) विभिन्न प्रकार की फलनकाय में लगी रहती हैं, जिन्हें ऐस्कोकार्प कहते हैं। इसके कुछ उदाहरण हैं ऐस्पर्जिलस, (चित्र 2.5 ब) क्लेवीसेप तथा न्यूरोस्पोरा हैं। न्यूरोस्पोरा का उपयोग जैवरासायनिक तथा आनुवंशिक प्रयोगों में बहुत किया जाता है। इसी कारण यह पादप जगत के ड्रोसोफिला के समान प्रसिद्ध है। इस वर्ग में आने वाले मॉरिल तथा ट्रफल खाने योग्य होते हैं और इन्हें सुस्वादु भोजन समझा जाता है।
2.3.3 बेसिडियोमाइसिटीज
बेसिडियोमाइसिटीज के ज्ञात सामान्य प्रकार - मशरूम, ब्रेक्टफंजाई अथवा पफबॉल हैं। ये मिट्टी में, लट्ठे तथा वृक्ष के ठूँठों पर तथा सजीव पादपों के अंदर परजीवी के रूप में उगते हैं जैसे किट्ट तथा कंड (स्मट)। कवकजाल शाखित तथा पटीय होता है। इसमें अलैंगिक बीजाणु प्राय: नहीं होते हैं, लेकिन कायिक जनन खंडन विधि द्वारा बहुत सामान्य है। इसमें लैंगिक अंग नहीं होते, लेकिन इसमें प्लाज्मोगैमी विभिन्न स्ट्रेनो वाली दो कायिक कोशिकाओं अथवा जीन प्रारुप के संलयन से होती हैं। इसमें बनने वाली संरचना द्विकेंद्रकी होती है, जिससे अंततः बेसिडियम बनते हैं। बेसिडियम में केंद्रक संलयन (कैरियोगैमी) तथा मिऑसिस होता है जिसके कारण चार बेसिडियम बीजाणु बनते हैं। बेसिडियमबीजाणु बेसिडियम पर बहिर्जातीय उत्पन्न होते हैं। बेसिडियम फलनकाय में लगे रहते हैं जिसे बेसिडियो कार्प कहते हैं, इसके कुछ सामान्य उदाहरण ऐंगैरिकस (मशरूम) (चित्र 2.5 स), आस्टीलैगो (कंड) तथा पक्सिनिया (किट्ट फंगस) हैं।
2.3.4 डयूटिरोमाइसिटीज
इसे प्रायः अपूर्ण कवक भी कहते हैं; क्योंकि इसकी केवल अलैंगिक अथवा कायिक प्रवस्था ही ज्ञात हो पाई है। जब इस फंजाई की लैंगिक प्रवस्था की खोज हो जाती है, तब उसे उसके उचित वर्ग में रख दिया जाता है। यह भी संभव है कि अलैंगिक तथा कायिक प्रवस्थाओं को एक नाम दे दिया गया हो (और उन्हें डयूटिरोमासिटीज में रख दिया गया हो) और लैंगिक प्रवस्था को दूसरे वर्ग में। बाद में जब उनके अनुबंधों (कड़ी) का पता लगा और फंजाई की उचित पहचान हो गई। तब उन्हें डयूटिरोमासिटीज से निकाल लिया गया। एक बार जब डयूटिरोमासिटीज के सदस्यों की उचित (लैंगिक) प्रवस्था का पता लग जाए तब उन्हें एस्कोमाइसिटीज और बेसिडियोमाइसिटीज में सम्मिलित कर लेते हैं। डयूटिरोमाइसिटीज केवल अलैंगिक बीजाणुओं, जिन्हें कोनिडिया कहते हैं, से जनन करते हैं। इसके कवक जाल पटीय तथा शाखित होते हैं। इसके कुछ सदस्य मृतजीवी अथवा परजीवी होते हैं। लेकिन उनके अधिकांश सदस्य अपशिष्ट के अपघटक होते हैं और खनिज के चक्रण में सहायता करते हैं। इसके कुछ उदाहरण आल्टरनेरिया, कोलीटोट्राइकम तथा ट्राईकोडर्मा हैं।
2.4 पादप जगत (प्लांटी किंगडम )
पादप जगत में वे सभी जीव आते हैं जो यूकैरिऑटिक हैं और जिनमें क्लोरोफिल होते हैं। ऐसे जीवों को पादप कहते हैं। इनमें से कुछ पादप जैसे कीटभक्षी पौधे तथा परजीवी आंशिक रूप से विषमपोषी होते हैं। ब्लेडरवर्ट तथा वीनस फ्लाईट्रेप कीटभक्षी पौधों के और अमरबेल (क्सकूटा) परजीवी का उदाहरण हैं। पादप कोशिका में कोशिका भित्ति होती है जो सेल्यूलोज की बनी होती है और इसकी संरचना के बारे में विस्तृत विवरण अध्याय 3 में पढ़ेंगे। प्लांटी जगत में शैवाल, ब्रायोफाइट, टैरिडोफाइट, जिम्नोस्पर्म तथा एंजियोस्पर्म आते हैं।
पादप के जीवन चक्र में दो सुस्पष्ट अवस्थाएँ द्विगुणित बीजाणु-उद्भिद् तथा अगुणित युग्मकोद्भिद् होती हैं। इन दोनों में पीढ़ी एकांतरण होता है। विभिन्न प्रकार के पादप वर्गो में अगुणित तथा द्विगुणित प्रवस्थाओं की लंबाई, (और ये प्रवस्थाएँ मुक्तजीवी हैं अथवा दूसरों पर निर्भर करती हैं) के अनुसार विभिन्न होती हैं। युग्मनज $(2 \mathrm{n})$ में मिऑसिस विभाजन के द्वारा अगुणित $(\mathrm{n})$ बीजाणु बनते हैं। ये बीजाणु अंकुरित होकर युग्मकोद्भिद् बनाते हैं। युग्मक (नर तथा मादा) युग्मकोद्भिद् पर बनते हैं जो संलयन होकर पुन: द्विगुणित युग्मनज बनाते हैं। युग्मनज से बीजाणु-उद्भिद् विकसित होता है। इस प्रक्रम को संतति एकांतरण कहते हैं। आप इस जगत का विस्तृत विवरण अध्याय 3 में पढ़ंगे।
2.5 जंतु जगत ( एनिमेलिया किंगडम )
इस जगत के जीव विषमपोषी यूकैरिऑटिक हैं जो बहुकोशिक हैं और उनकी कोशिका में कोशिका भित्ति नहीं होती। ये भोजन के लिए परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप से पौधों पर निर्भर रहते हैं। ये अपने भोजन को एक आंतरिक गुहिका में पचाते हैं और भोजन को ग्लाइकोजन अथवा वसा के रूप में संग्रहण करते हैं। इनमें प्राणि समपोषण, अर्थात् भोजन, का अंतर्गर्रण करना होता हैं। उनमें वृद्धि का एक निर्दिष्ट पैटर्न होता है और वे एक पूर्ण वयस्क जीव बन जाते हैं; जिसकी सुस्पष्ट आकृति तथा माप होती है। उच्चकोटि के जीवों में विस्तृत संवेदी तथा तंत्रिका प्रेरक क्रियाविधि विकसित होती है। इनमें से अधिकांश चलन करने में सक्षम होते हैं।
लैंगिक जनन नर तथा मादा के संगम से होता है और बाद में उसमें भ्रूण का विकास होता है। संघ के विभिन्न मुख्य अभिलक्षणों का विस्तृत वर्णन अध्याय 4 में किया गया है।
2.6 विषाणु ( वाइरस ), वाइराइड, प्रोसंक ( प्रिओन ) तथा लाइकेन
विटेकर द्वारा सुझाए पाँच जगत वर्गीकरण में लाइकेन व अकोशिक जीवों जैसे वाइरस, वाइराइड, तथा प्रोसंक ( प्रिओन) का उल्लेख नहीं किया गया है। इनका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया गया है।हम सभी कभी न कभी जुकाम अथवा फ्लु से ग्रस्त होते हैं। क्या आप जानते हैं कि इसका वाइरस कैसे प्रभावित करता हैं? वाइरस का नाम वर्गीकरण में नहीं है, क्योंकि ये
(अ)
चित्र 2.6 (अ) टोबैको मोजैक वाइरस (टीएमबी) (ब) जीवाणु भोजी
वास्तविक ‘जीवन’ नहीं है- यदि हम यह मानते हैं कि सजीवों की कोशिका संरचना होती है। वाइरस अकोशिक जीव हैं जिनकी संरचना सजीव कोशिका के बाहर रवेदार होती है। एक बार जब ये कोशिका को संक्रमित कर देते हैं, तब ये मेजबान कोशिका की मशीनरी का उपयोग अपनी प्रतिकृति बनाने में करते हैं और मेजबान को मार देते हैं। क्या आप वाइरस को सजीव अथवा निर्जीव कहेंगे?
वाइरस का अर्थ है विष अथवा विषैला तरल। डिमित्री इबानोवस्की (1892) ने तंबाकू के मोजैक रोग के रोगाणुओं को पहचाना था, जिन्हें वाइरस नाम दिया गया। इनका माप बैक्टीरिया से भी छोटा था, क्योंकि ये बैक्टीरिया प्रूफ फिल्टर से भी निकल गए थे। एम. डब्ल्यु बेजेरिनेक (1898) ने पाया कि संक्रमित तंबाकू के पौधों का रस स्वस्थ तंबाकू के पौधे को भी संक्रमित करने में सक्षम है। उन्होंने इस रस (तरल) को ‘कंटेजियम वाइनम फ्लुयइडम’ (संक्रामक जीवित तरल) कहा। डब्ल्यु. एम. स्टानले (1935) ने बताया कि वाइरस को रवेदार बनाया जा सकता है और इस रवे में मुख्यतः प्रोटीन होता है। वे अपनी विशिष्ट मेजबान कोशिका के बाहर निष्क्रिय होते हैं। वाइरस अविकल्पी परजीवी हैं।
वाइरस में प्रोटीन के अतिरिक्त आनुवंशिक पदार्थ भी होता है, जो आरएनए (RNA) अथवा डीएनए (DNA) हो सकता है। किसी भी वाइरस में आरएनए तथा डीएनए दोनों नहीं होते। वाइरस केंद्रक प्रोटीन (न्यूक्लियो प्रोटीन) और इसका आनुवंशिक पदार्थ संक्रामक होता है। प्रायः सभी पादप वाइरस में एक लड़ी वाला आरएनए होता है, और सभी जंतु वाइरस में एक अथवा दोहरी लड़ी वाला आरएनए अथवा डीएनए होता है। बैक्टीरियल वाइरस अथवा जीवाणुभोजी ( बैक्टीरियोफेज-आवरण वाइरस जो बैक्टीरिया पर संक्रमण करता है) प्रायः दोहरी लड़ी
वाले डीएनए वाइरस होते हैं। प्रोटीन के आवरण (अस्तर) को कैप्सिड कहते हैं और यह छोटी-छोटी उप-इकाइयों जिन्हें पेटिकोशक (कैप्सोमीयर) कहते हैं, से मिलकर बनता है। कैप्सिड न्यूक्लिक एसिड को संरक्षित करता है ये पेटिकांशक कुंडलिनी अथवा बहुफलक ज्यामिती रूप में लगे रहते हैं। वाइरस से मम्पस, चेचक, हर्पीज तथा इंफ्लूएंजा नामक रोग हो जाते हैं। मनुष्यों में एड्स (AIDS) भी वाइरस के कारण होता है। पौधों में मोजैक बनना, पत्तियों का मुड़ना तथा कुंचन, पीला होना तथा शिरा स्पष्टता, बौना तथा अवरुद्ध वृद्धि होना इसके लक्षण हैं।
वाइराइड
सन 1971 में टी.ओ. डाइनर ने एक नया संक्रामक कारक खोजा जो वाइरस से भी छोटा तथा जिसके कारण ‘पोटेटो स्पिंडल ट्यूबर’ नामक रोग होता था। वाइराइडों में आरएनए तथा प्रोटीन आवरण (अस्तर), जो वाइरस में पाए जाते हैं उनका अभाव होता है। इसलिए यह वाइराइड के नाम से जाने जाते हैं। वाइराइड के आरएनए का आण्विक भार कम था।
प्रोसंक ( प्रिओन )
आधुनिक चिकित्सा में कुछ संक्रामक न्यूरोलॉजिकल बीमारियाँ असामान्य रूप से फोल्ड प्रोटीन वाले कारकों द्वारा प्रेषित पाई गयीं। इन कारकों का आकार वाइरस के आकार के समान था। इन कारकों को प्रोसंग कहा गया। प्रोसंग द्वारा प्राणियों में होने वाली सबसे उल्लेखनीय बीमारियाँ बोवाइन स्पंजिफोर्म एन्सेफैलोपैथी है, जिन्हें आमतौर पर मवेशियों में मेडकाऊ रोग कहा जाता है और मनुष्यों में इसका समान प्रकार सी आर जैकब रोग (Creutzfeldt-Jakob Disease) होता है।
लाइकेन
लाइकेन शैवाल तथा कवक के सहजीवी सहवास अर्थात् पारस्परिक उपयोगी सहवास हैं। शैवाल घटक को शैवालांश तथा कवक के घटक को माइकोवायंट (कवकांश) कहते हैं, जो क्रमशः स्वपोषी तथा परपोषित होते हैं। शैवाल कवक (फंजाई) के लिए भोजन संश्लेषित करता है और कवक शैवाल के लिए आश्रय देता है तथा खनिज एवं जल का अवशोषण करता है। इनका सहवास इतना घनिष्ठ होता है कि यदि प्रकृति में लाइकेन को देख ले तो यह अनुमान लगाना असंभव है कि इसमें दो विभिन्न जीव हैं। लाइकेन प्रदूषण के बहुत अच्छे संकेतक हैं - वे प्रदूषित क्षेत्रों में नहीं उगते।
सारांश
सरल आकारिक लक्षणों पर आधारित पादपों और प्राणियों के वर्गीकरण को सर्वप्रथम अरस्तू ने प्रस्तावित किया था। बाद में लीनियस द्वारा सभी जीवधारियों को ‘प्लांटी’ तथा ‘ऐनिमेलिया’ जगत में वर्गीकृत किया गया। न्हिटैकर ने इसके बाद एक वृहत् पाँच जगत वर्गीकरण की पद्धति का प्रस्ताव किया। ये पाँच जगत मॉनेरा, प्रोटिस्टा, फंजाई, प्लांटी और ऐनिमेलिया हैं। पाँच जगत वर्गीकरण के प्रमुख मानदंड, कोशिका संरचना, दैहिक संगठन, पोषण एवं प्रजनन की विधि तथा जातिवृत्तीय संबंध हैं।
पाँच जगत वर्गीकरण के अंतर्गत बैक्टीरिया को मॉनेरा जगत में रखा गया है जो विश्वव्यापी है। इनमें उपापचय संबंधी विविधता अत्यंत वृहत् है। बैक्टीरिया में पोषण की विधि स्वपोषी अथवा परपोषी होती है।
प्रोटिस्टा जगत में क्राइसोफाइट, डायनोफ्लैजिलेट, युग्लीनॉइड, अवपंक कवक एवं प्रोटोजोआ जैसे एक कोशिक युकैरियोटिक जीवधारी सम्मिलित किए गए हैं। प्रोटिस्टा जीवधारियों की कोशिका में संगठित केंद्रक तथा झिल्लीबद्ध कोशिकांग पाए जाते हैं। इनमें प्रजनन अलैंगिक तथा लैंगिक दोनों प्रकार का होता है।
फंजाई (कवक) जगत की संरचना तथा आवास में बहुत विभिन्नता होती है। अधिकांश कवक में मृतजीवी प्रकार का पोषण होता है। उनमें लैंगिक तथा अलैंगिक जनन होता है। इस जगत के अंतर्गत चार वर्ग फाइकोमाइसिटीज, एस्कोमाइसिटीज, बेसिडिओमाइसिटीज तथा डयूटिरोमाइसिटीज आते हैं। प्लांटी (पादप-जगत) में सभी यूकैरियोटिक, क्लोरोफिलयुक्त जीव आते हैं। शैवाल, ब्रायोफाइट, टैरिजोफाइट, जिम्नोस्पर्म तथा एंजियोस्पर्म इस वर्ग में आते हैं। पौधों के जीवन चक्र में पीढ़ी युग्मकोद्भिद् और बीजाणु-उद्भिद् में एकांतरण होता है। परपोषित यूकैरिऑटिक बहुकोशिक जीवों, जिनकी कोशिका में कोशिका भित्ति नहीं होती, उन्हें एनिमेलिया किंगडम में शामिल किया गया है। इन जीवों में पोषण प्राणिसम होता है। इनमें प्रायः लैंगिक जनन होता है। कुछ अकोशिक जीव जैसे वाइरस तथा विरोइड एवं लाइकेन को वर्गीकरण के पाँच जगत प्रणाली में नहीं रखा गया है।