उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन
प्राणी उपापचयी अथवा अत्यधिक अंतःग्रहण जैसी क्रियाओं द्वारा अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल, कार्बनडाइऑक्साइड, जल और अन्य आयन जैसे सोडियम, पोटैसियम, क्लोरीन, फॉस्फेट, सल्फेट आदि का संचय करते हैं। प्राणियों द्वारा इन पदार्थों का पूर्णतया या आंशिक रूप से निष्कासन आवश्यक है। इस अध्याय में आप इन पदार्थो, साथ ही विशेष रूप से साधारण नाइट्रोजनी अपशिष्टों के निष्कासन का अध्ययन करेंगे।
प्राणियों द्वारा उत्सर्जित होने वाले नाइट्रोजनी अपशिष्टों में मुख्य रूप से अमोनिया, यूरिया और यूरिक हैं। इनमें अमोनिया सर्वाधिक आविष (टॉक्सिक) है और इसके निष्कासन के लिए अत्यधिक जल की आवश्यकता होती है। यूरिक अम्ल कम आविष है और जल की कम मात्रा के साथ निष्कासित किया जा सकता है।
अमोनिया के उत्सर्जन की प्रक्रिया को अमोनियोत्सर्ग प्रक्रिया कहते हैं। अनेक अस्थिल मछलियाँ, उभयचर और जलीय कीट अमोनिया उत्सर्जी प्रकृति के हैं। अमोनिया सरलता से घुलनशील है, इसलिए आसानी से अमोनियम आयनों के रूप में शरीर की सतह या मछलियों के क्लोम (गिल) की सतह से विसरण द्वारा उत्सर्जित हो जाते हैं। इस उत्सर्जन में वृक्क की कोई अहम भूमिका नहीं होती है। इन प्राणियों को अमोनियाउत्सर्जी (अमोनोटैलिक) कहते हैं।
स्थलीय आवास में अनुकूलन हेतु, जल की हानि से बचने के लिए प्राणी कम आविष नाइट्रोजनी अपशिष्टों जैसे यूरिया और यूरिक अम्ल का उत्सर्जन करते हैं। स्तनधारी, कई स्थली उभयचर और समुद्री मछलियाँ मुख्यतः यूरिया का उत्सर्जन करते हैं और यूरियाउत्मर्जी (यूरियोटेलिक) कहलाते हैं। इन प्राणियों में उपापचयी क्रियाओं द्वारा निर्मित अमोनिया को यकृत द्वारा यूरिया में परिवर्तित कर रक्त में मुक्त कर दिया जाता है, जिसे वृक्कों द्वारा निस्यंदन के पश्चात उत्सर्जित कर दिया जाता है। कुछ प्राणियों
के वृक्कों की आधात्री (मैट्रिक्स) में अपेक्षित परासरणता को बनाए रखने के लिए यूरिया की कुछ मात्रा रह जाती है।
सरीसृपों, पक्षियों, स्थलीय घोंघों तथा कीटों में नाइट्रोजनी अपशिष्ट यूरिक अम्ल का उत्सर्जन, जल की कम मात्रा के साथ गोलिकाओं या पेस्ट के रूप में होता है और ये यूरिकअम्लउत्सर्जी (यूरिकोटेलिक) कहलाते हैं। प्राणी जगत में कई प्रकार के उत्सर्जी अंग पाए जाते हैं। अधिकांश अकशेरुकियों में यह संरचना सरल नलिकाकार रूप में होती है, जबकि कशेरुकियों में जटिल नलिकाकार अंग होते हैं, जिन्हें वृक्क कहते हैं। इन संरचनाओं के प्रमुख रूप नीचे दिए गए हैं-
आदिवृक्कक (प्रोटोनेफ्रिडिआ) या ज्वाला कोशिकाएं, प्लेटिहेल्मिंथ (चपटे कृमि जैसे प्लैनेरिया), रॉटीफर कुछ एनेलिड, सिफेलोकॉर्डेट (एम्फीऑक्सस) आदि में उत्सर्जी संरचना के रूप में पाए जाते हैं। आदिवृक्कक प्राथमिक रूप से आयनों व द्रव के आयतन-नियमन जैसे परासरणनियमन से संबंधित हैं।
केंचुए व अन्य एनेलिड में नलिकाकार उत्सर्जी अंग वृक्कक पाए जाते हैं। वृक्कक नाइट्रोजनी अपशिष्टों को उत्सर्जित करने तथा द्रव और आयनों का संतुलन बनाए रखने में सहायता करते हैं।
तिलचट्टों (कॉकरोच) सहित अधिकांश कीटों में उत्सर्जी अंग के रूप में मैलपीगी नलिकाएं पाई जाती हैं। मैलपीगी नलिकाएं नाइट्रोजनी अपशिष्टों के उत्सर्जन और परासरणनियमन में मदद करती हैं।
झींगा (प्रॉन) जैसे क्रस्टेशियाई प्राणियों में शृंगिक ग्रंथियाँ (एंटिनलग्लांड) या हरित ग्रंथियाँ उत्सर्जन का कार्य करती हैं।
चित्र 16.1 मानव का उत्सर्जन तंत्र
16.1 मानव उत्सर्जन तंत्र
मनुष्यों में उत्सर्जी तंत्र एक जोड़ी वृक्क, एक जोड़ी मूत्र नलिका, एक मूत्राशय और एक मूत्र मार्ग का बना होता है (चित्र 16.1)। वृक्क सेम के बीज की आकृति के गहरे भूरे लाल रंग के होते हैं तथा ये अंतिम वक्षीय और तीसरी कटि कशेरुका के समीप उदर गुहा में आंतरिक पृष्ठ सतह पर स्थित होते हैं। वयस्क मनुष्य के प्रत्येक वृक्क की लम्बाई 10-12 सेमी., चौड़ाई 5-7 सेमी., मोटाई $2-3$ सेमी. तथा भार लगभग 120-170 ग्राम होता है। वृक्क के केंद्रीय भाग की भीतरी अवतल (कॉन्केव) सतह के मध्य में एक खांच होती है, जिसे हाइलम कहते हैं। इसे होकर मूत्र-नलिका, रक्त वाहिनियाँ और तंत्रिकाएं प्रवेश करती हैं। हाइलम के भीतरी ओर कीप के आकार का रचना होती है जिसे वृक्कीय श्रोणि (पेल्विस) कहते हैं तथा इससे निकलने वाले प्रक्षेपों (प्रोजेक्शन) को चषक (कैलिक्स) कहते हैं।
वृक्क की बाहरी सतह पर दृढ़ संपुट होता है। वृक्क में दो भाग होते हैं - बाहरी वल्कुट (कॉर्टेक्स) और भीतरी मध्यांश (मेडुला)। मध्यांश कुछ शंक्वाकार पिरामिड (मध्यांश पिरामिड)में बँटा होता है जो कि चषकों में फैले रहते हैं। वल्कुट मध्यांश पिरामिड (पिंडों) के बीच फैलकर वृक्क स्तंभ बनाते हैं, जिन्हें बरतीनी-स्तंभ (Columns of Bertini) कहते हैं (चित्र 16.2)।
प्रत्येक वृक्क में लगभग 10 लाख जटिल नलिकाकार संरचना वृक्काणु ( नेफ्रोन ) पाई जाती हैं जो क्रियात्मक इकाइयाँ हैं (चित्र 16.3)। प्रत्येक वृक्काणु के दो भाग होते हैं। जिन्हें गुच्छ (ग्लोमेरूलस) और वृक्क नलिका कहते हैं। गुच्छा वृक्कीय धमनी की शाखा अभिवाही धमनिकाओं (afferent arteriole) से बनी केशिकाओं (कैपिलरी) का एक गुच्छ है। ग्लोमेरूलस से रक्त अपवाही धमनिका (efferent arteriole) द्वारा ले जाया जाता है।
चित्र 16.2 वृक्क का भाग
चित्र 16.3 रक्त वाहिनियाँ, वाहिनियाँ तथा नलिकाएं प्रदर्शित करता हुआ एक नेफ्रोन
चित्र 16.4 बोमेन सम्पुट/मैलपीगी काय/वृक्क कार्पसल वृक्क नलिका दोहरी झिल्ली युक्त प्यालेनुमा बोमेन संपुट से प्रारंभ होती है, जिसके भीतर गुच्छ होता है। गुच्छ और बोमेन संपुट मिलकर मेल्पीगीकाय अथवा वृक्क कणिका (कार्पसल) बनाते हैं (चित्र 16.4)। बोमेन संपुट से एक अति कुंडलित समीपस्थ संवलित नलिका (पीसीटी) प्रारंभ होती है, इसके बाद वृक्काणु में हेयर पिन के आकार का हेनले-लूप (Henle’s loop) पाया जाता है, जिसमें आरोही व अवरोही भुजा होती है। आरोही भुजा से एक ओर अति कुंडलित नलिका, दूरस्थ संवलित नलिका (डीसीटी) प्रारंभ होती है।
अनेक वृक्काणुओं की दूरस्थ संवलित नलिकाएं एक सीधी संग्रह नलिका में खुलती हैं। अनेक संग्रह नलिकाएं मिलकर चषकों के बीच स्थित मध्यांश पिरामिड से गुजरती हुई वृक्कीय श्रोणि में खुलती हैं।
वृक्काणु की वृक्क कणिका, समीपस्थ संवलित नलिका, दूरस्थ संवलित नलिका आदि वृक्क के वल्कुट भाग में, जबकि हेनले-लूप मध्यांश में, स्थित होते हैं।
अधिकांश वृक्काणु के हेनले-लूप बहुत छोटे होते हैं और मध्यांश में बहुत कम धँसे रहते हैं ऐसे वृक्काणुओं को वल्कुटीय वृक्कक कहते हैं। कुछ वृक्काणुओं के हेनले-लूप बहुत लंबे होते हैं तथा मध्यांश में काफी गहराई तक धंसे रहते हैं। इन्हें सान्निध्य मध्यांश वृक्काणु (जक्सटा मेडुलरी नेफ्रोन) कहते हैं (चित्र 16.5)।
गुच्छ से निकलने वाली अपवाही धमनिका, वृक्कीय नलिका के चारों ओर सूक्ष्म केशिकाओं का जाल बनाती हैं, जिसे परिनालिका केशिका जाल कहते हैं। इस जाल से निकलने वाली एक एक सूक्ष्म वाहिका हेनले-लूप के समानांतार चलते हुए ‘यू’ (‘U’) आकार की संरचना वासा रेक्टा बनाती है। वल्कुटीय वृक्काणु में वासा रेक्टा या तो अनुपस्थित या अत्यधिक ह्रासित होती है।
16.2 मूत्र निर्माण
मूत्र निर्माण में 3 मुख्य प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं - गुच्छीय निस्यंदन, पुनःअवशोषण, स्रवण जो वृक्काणु के विभिन्न भागों में होता है।
मूत्र निर्माण के प्रथम चरण में केशिकागुच्छ द्वारा रक्त का निस्यंदन होता है जिसे गुच्छ या गुच्छीय निस्यंदन कहते हैं। वृक्कों द्वारा प्रति मिनट औसतन 1100-1200 मिली. रक्त का निस्यंदन किया जाता है जो कि हृदय द्वारा एक मिनट में निकाले गए रक्त के $1 / 5$ वें भाग के बराबर होता है। गुच्छ की केशिकाओं का रक्त-दाब रुधिर का 3 परतों में से निस्यंदन करता है। ये तीन परते हैं गुच्छ की रक्त केशिका की आंतरिक उपकला, बोमेन संपुट की उपकला तथा इन दोनों पर्तों के बीच पाई जाने वाली आधार झिल्ली। बोमेन संपुट की उपकला कोशिकाएं पदाणु (पोडोसाइट्स) कहलाती हैं, जो विशेष प्रकार
से विन्यसित होती हैं, जिससे कुछ छोटे-छोटे अवकाश बीच में रह जाते हैं। इन्हें निस्यंदन खांच या खांच छिद्र (स्लिटपोर) कहते हैं। इन झिल्लियों से रुधिर इतनी अच्छी तरह छनता है कि जिससे रुधिर के प्लाज्मा की प्रोटीन को छोड़कर प्लाज्मा का शेषभाग छन कर संपुट की गुहा में इकट्ठा हो जाता है। इसलिए इसे परा-निस्यंदन (अल्ट्रा फिल्ट्रेशन) कहते हैं। वृक्कों द्वारा प्रति मिनट निस्यंदित की गई मात्रा गुच्छीय निस्यंदन दर (GFR) कहलाती है। एक स्वस्थ व्यक्ति में यह दर 125 मिली. प्रति मिनट अर्थात् 180 लीटर प्रति दिन है।
गुच्छ निस्यंदन की दर के नियमन के लिए वृक्कों द्वारा क्रिया विधि अपनाई जाती है। गुच्छीय आसन्न उपकरण द्वारा एक अति सूक्ष्म क्रियाविधि संपन्न की जाती है। यह विशेष संवेदी उपकरण अभिवाही तथा अपवाही धमनिकाओं के संपर्क स्थल पर दूरस्थ संवलित नलिका की केशिकाओं के रूपांतरण से बनता है। गुच्छ निस्यंदन दर में गिरावट इन आसन गुच्छ केशिकाओं को रेनिन के स्रवण के सक्रिय करती है जो वृक्कीय रुधिर का प्रवाह बढ़ाकर गुच्छ निस्यंदन दर को पुनः सामान्य कर देती है।
प्रतिदिन बनने वाले निस्यंद के आयतन (180 लीटर प्रति दिन) की उत्सर्जित मूत्र ( 1.5 लीटर) से तुलना की जाए तो यह समझा जा सकता है कि 99 प्रतिशत निस्यंद को वृक्क नलिकाओं द्वारा पुनः अवशोषित किया जाता है जिसे पुन:अवशोषण कहते हैं। यह कार्य वृक्क नलिका की उपकला कोशिकाएं अलग-अलग खंडों में सक्रिय अथवा निष्क्रिय क्रियाविधि द्वारा करती हैं। उदाहरणार्थ निस्यंद पदार्थ जैसे ग्लूकोज, एमीनो अम्ल, $\mathrm{Na}^{+}$इत्यादि सक्रिय रूप से परिवहन से पुनरावशोषित कर लिए जाते हैं; जबकि नाइट्रोजनी निष्क्रिय रूप से अवशोषित होते हैं। वृक्काणु के प्रारंभिक भाग में जल का पुनरावशोषण निष्क्रिय क्रिया द्वारा होता है (चित्र 16.5)। मूत्र निर्माण के दौरान नलिकाकार कोशिकाएं निस्यंद में $\mathrm{H}^{+}, \mathrm{K}^{+}$और अमोनिया जैसे पदार्थो को स्रवित करती हैं। नलिकाकार स्रवण भी मूत्र निर्माण का एक मुख्य चरण है; क्योंकि यह शारीरिक तरल आयनी व अम्ल-क्षार संतुलन को बनाए रखता है।
16.3 वृक्क नलिका के विभिन्न भागों के कार्य
समीपस्थ संवलित नलिका : यह नलिका सरल घनाकार ब्रुश बार्डर उपकला से बनी होती है जो पुनरावशोषण के लिए सतह क्षेत्र को बढ़ाती है। लगभग सभी आवश्यक पोषक तत्व, $70-80$ प्रतिशत वैद्युत-अपघट्य और जल का पुन: अवशोषण इसी भाग द्वारा होता है। समीपस्थ संवलित नलिका शारीरिक तरलों के पीएच तथा आयनी संतुलन को इससे बनाए रखने के लिए $\mathrm{H}^{+}$और अमोनिया आयनों का निस्यंद में स्रवण और $\mathrm{HCO} _{3}^{-}$का पुनरावशोषण करती हैं।
हेनले-लूप : आरोही भुजा में न्यूनतम पुनरावशोषण होता है। यह भाग मंध्यांश में उच्च अंतराकाशी तरल की परासणता के नियमन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हेनले-लूप की अवरोही भुजा जल के लिए अपारगम्य होती है, परंतु वैद्युत अपघट्य के लिए सक्रियता से या धीरे-धीरे पारगम्य होती है। यह नीचे की ओर जाते हुए निस्यंद को सांद्र करती है। आरोही भुजा जल के लिए अपारगम्य होती है; लेकिन वैद्युत अपघट्य का अवशोषण सक्रिय या निष्क्रिय रूप से करती है। जैसे-जैसे सांद्र निस्यंद ऊपर की ओर जाता है, वैसे-वैसे वैद्युत अपघट्य के मध्यांश तरल में जाने से निस्यंद तनु (dilute) होता जाता है।
समीपस्थ संवलित नलिका दूरस्थ संवलित नलिका पोषक
हेनले पाश की अवरोही भुजा
मध्यांश
चित्र 16.5 नेफ्रोन के विभिन्न भागों द्वारा प्रमुख पदार्थों का पुनरावशोषण एवं स्रवण ( 3 गमन की दिशा को प्रदर्शित करता है)
दूरस्थ संवलित नलिका ( DCT ) : विशिष्ट परिस्थितियों में $\mathrm{Na}^{+}$और जल का कुछ पुनरावशोषण इस भाग में होता है। दूरस्थ संवलित नलिका रक्त में सोडियम-पोटैसियम का संतुलन तथा $\mathrm{pH}$ बनाए रखने के लिए बाइकार्बोनेटस का पुनरावशोषण एवं $\mathrm{H}^{+}, \mathrm{K}^{+}$और अमोनिया का चयनात्मक स्रवण करती है।
संग्रह नलिका : यह लंबी नलिका वृक्क के वल्कुट से मध्यांश के आंतरिक भाग तक फैली रहती है। मूत्र को आवश्यकतानुसार सांद्र करने के लिए जल का बड़ा हिस्सा इस भाग में अवशोषित किया जाता है। यह भाग मध्यांश की अंतरकाशी की परासरणता को बनाए रखने के लिए यूरिया के कुछ भाग को वृक्क मध्यांश तक ले जाता है। यह $\mathrm{pH}$ के नियमन तथा $\mathrm{H}^{+}$और $\mathrm{K}^{+}$आयनों के चयनात्मक स्रवण द्वारा रक्त में आयनों का संतुलन बनाए रखने में भी भूमिका निभाता है (चित्र 16.5)।
16.4 निस्यंद ( छनित) को सांद्रण करने की क्रियाविधि
स्तनधारी सांद्रित मूत्र का उत्पादन करते हैं। इस कार्य में हेनले-लूप और वासा रेक्टा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हेनले-लूप की दोनों भुजाओं में निस्यंद का विपरीत दिशाओं में प्रवाह होता है, जिससे प्रतिधारा उत्पन्न होती है। वासा रेक्टा की दोनों भुजाओं में रक्त का बहाव भी प्रतिधारा प्रतिरूप (पैटर्न) में होता है। हेनले-लूप व वासा रेक्टा के बीच की नजदीकी तथा उनमें प्रतिधारा मध्यांशी अंतराकाश (मेडुलरी इंटरटिशियम) के परासरण दाब को विशेष प्रकार से नियमित करती है। परासरण दाब मध्यांश के बाहरी भाग से भीतरी भाग की ओर लगातार बढ़ता जाता है, जैसे कि वल्कुट की ओर 300 $\mathrm{mOsm}$ /लीटर से आंतरिक मध्यांश में लगभग $1200 \mathrm{mOsm} /$ लीटर। यह प्रवणता सोडियम क्लोराइड तथा यूरिया के कारण बनती है। $\mathrm{NaCl}$ का परिवहन हेनले-लूप की
चित्र 16.6 नेफ्रोन तथा वासा रेक्टा द्वारा निर्मित प्रतिधारा प्रवाह क्रियाविधि
आरोही भुजा द्वारा होता है। जिसे हेनले-लूप की अवरोही भुजा के साथ विनमित किया है। सोडियम क्लोराइड, अंतराकाश को वासा रेक्टा की आरोही भुजा द्वारा लौटा दिया जाता है। इसी प्रकार यूरिया की कुछ मात्रा हेनले-लूप के पतले आरोही भाग में विसरण द्वारा प्रविष्ट होती है जो संग्रह नलिका द्वारा अंतराकाशी को पुनः लौटा दी जाती है। ऊपर वर्णित पदार्थों का परिवहन, हेनले-लूप तथा वासा रेक्टा की विशेष व्यवस्था द्वारा सुगम बनाया जाता है जिसे प्रतिधारा क्रियाविधि कहते हैं। यह क्रियाविधि मध्यांश के अंतराकाशी की प्रवणता को बनाए रखती है। इस प्रकार की अंतराकाशीय प्रवणता संग्रह नलिका द्वारा जल के सहज अवशोषण में योगदान करती है और निस्यंद का सांद्रण करती है (चित्र 16.6)। हमारे वृक्क प्रारंभिक निस्यंद की अपेक्षा लगभग चार गुना अधिक सांद्र मूत्र उत्सर्जित करते हैं। यह निश्चित ही जल के ह्रास को रोकने की मुख्य क्रियाविधि है।
16.5 वृक्क क्रियाओं का नियमन
वृक्कों की क्रियाविधि का नियंत्रण और नियमन हाइपोथैलेमस के हार्मोन की पुनर्भरण क्रियाविधि, (सान्निध्य गुच्छ उपकरण), (जेजीए) और कुछ सीमा तक हद्य द्वारा होता है।
शरीर में उपस्थित परासरण ग्राहियाँ रक्त आयतन/शरीर तरल आयतन और आयनी सांद्रण में बदलाव द्वारा सक्रिय होती हैं। शरीर से मूत्र द्वारा जल का अत्यधिक ह्वास (मूत्रलता/डाइयूरेसिस) इन ग्राहियों को सक्रिय करता है, जिससे हाइपोथैलेमस प्रतिमूत्रल हार्मोन (एंटीडाइयूरेटि हार्मोन) (एडीएच) और न्यूरोहाइपोफाइसिस को वैसोप्रेसिन के स्राव हेतु प्रेरित करता है। एडीएच नलिका के अंतिम भाग में जल के पुनरावशोषण को सुगम बनाता है और मूत्रलता को रोकता है। शरीर तरल के आयतन में वृद्धि परासण ग्रहियों को निष्क्रिय कर देती है और पुनर्भरण को पूरा करने के लिए एडीएच के स्रवण का निरोध करती है। एडीएच वृक्क के कार्यों को रक्त वाहिनियों पर सकुचनी प्रभावों द्वारा भी प्रभावित करता है। इससे रक्त दाब बढ़ जाता है। रक्तदाब बढ़ जाने से गुच्छ प्रवाह बढ़ जाता है और इससे जीएफआर बढ़ जाता है।
जेजीए की जटिल नियमनकारी भूमिका है। गुच्छीय रक्त प्रवाह/गुच्छीय रक्त दाब/जीएफआर में गिरावट से जेजी कोशिकाएं सक्रिय होकर रेनिन को मुक्त करती है। रेनिन रक्त में उपस्थित ऐंजिओटेंसिनोजन को एंजियोटेंसिन-I और बाद में एंजियोटेंसिन-द्वितीय में बदल देती है। एंजियोटेंसिन द्वितीय एक प्रभावकारी वाहिका संकीर्णक (वेसोकेंसट्रिक्टर) है जो गुच्छीय रुधिर दाब तथा जीएफआर को बढ़ा देता है। एंजोयोटेंसिन द्वितीय अधिवृक्क वल्कुट को एल्डोस्टीरोन हार्मोन स्रवण के लिए प्रेरित करता है। एल्डोस्टीरोन के कारण नलिका के दूरस्थ भाग में $\mathrm{Na}^{+}$तथा जल का पुनरावशोषण होता है। इससे भी रक्त दाब तथा जीएफआर में वृद्वि होती है। यह जटिल क्रियाविधि रेनिन एंजियोटेंसिन क्रियाविधि कहलाती है।
हृदय के अलिंदों में अधिक रुधिर के बहाव से अलिंदीय नेट्रियेरेटिक कारक (एएनएफ) स्रवित होता है। एएनएफ से वाहिकाविस्फारण (रक्त वाहिकाओं का विस्फारण)
होता है जिससे रक्त दाब कम हो जाता है। इस प्रकार से एएनएफ क्रियाविधि रेनिन-एंजियोटेंसिन क्रियाविधि पर नियंत्रक का काम करता है।
16.6 मूत्रण
वृक्क द्वारा निर्मित मूत्र अंत में मूत्राशय में जाता है और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र द्वारा ऐच्छिक संकेत दिए जाने तक संग्रहित रहता है। मूत्राशय में मूत्र भर जाने पर उसके फैलने के फलस्वरूप यह संकेत उत्पन्न होता है। मूत्राशय भित्ति से इन आवेगों को केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में भेजा जाता है। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र से मूत्राशय की चिकनी पेशियों के संकुचन तथा मूत्राशयी-अवरोधिनी के शिथिलन हेतु एक प्रेरक संदेश जाता है, जिससे मूत्र का उत्सर्जन होता है। मूत्र उत्सर्जन की क्रिया मूत्रण कहलाती है और इसे संपन्न करने वाली तंत्रिका क्रियाविधि मूत्रण-प्रतिवर्त कहलाती है।
एक वयस्क मनुष्य प्रतिदिन औसतन 1-1.5 लीटर मूत्र उत्सर्जित करता है। मूत्र एक विशेष गंध युक्त जलीव तरल है, जो रंग में हल्का पीला तथा थोड़ा अम्लीय $(\mathrm{pH}-6)$ होता है ( $\mathrm{pH}-6)$ । औसतन प्रतिदिन $25-30$ ग्राम यूरिया का उत्सर्जन होता है। विभिन्न अवस्थाएं मूत्र की विशेषताओं को प्रभावित करती हैं। मूत्र का विश्लेषण वृक्कों के कई उपापचयी विकारों और उनके ठीक से कार्य न करने को कुसंक्रिया जैसे रोग निदान में मदद करता है। उदाहरण के लिए मूत्र में ग्लूकोस की उपस्थिति (ग्लाइकोसूरिया) तथा कीटोन काय की उपस्थिति (कीटोनयूरिया) मधुमेह (डाइबिटीज मेलीटस) के लक्षण है।
16.7 उत्मर्जन में अन्य अंगों की भूमिका
वृक्कों के अलावा फुप्फुस यकृत और त्वचा भी उत्सर्जी अपशिष्टों को बाहर निकालने में मदद करते हैं।
हमारे फेफड़े प्रतिदिन भारी मात्रा में $\mathrm{CO} _{2}$ (लगभग $200 \mathrm{ml} /$ मिनट) और जल की पर्याप्त मात्रा का निष्कासन करते हैं। हमारे शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि यकृत ‘पित्त’ का स्राव करती है जिसमें बिलिरूबिन, बिलीविरडिन, कॉलेस्ट्रॉल, निम्नीकृत स्टीरॉयड हार्मोन, विटामिन तथा औषध आदि होते हैं। इन अधिकांश पदार्थों को अंततः मल के साथ बाहर निकाल दिया जाता है।
त्वचा में उपस्थित स्वेद ग्रंथियाँ तथा तैल-ग्रंथियाँ भी स्राव द्वारा कुछ पदार्थों का निष्कासन करती हैं। स्वेद ग्रंथि द्वारा निकलने वाला पसीना एक जलीय द्रव है, जिसमें नमक, कुछ मात्रा में यूरिया, लैक्टिक अम्ल इत्यादि होते हैं। हालाकि पसीने का मुख्य कार्य वाष्पीकरण द्वारा शरीर सतह को ठंडा रखना है; लेकिन यह ऊपर बताए गए कुछ पदार्थों के उत्सर्जन में भी सहायता करता है।
तैल-ग्रंथियाँ सीबम द्वारा कुछ स्टेरोल, हाइड्रोकार्बन एवं मोम जैसे पदार्थों का निष्कासन करती हैं। ये स्राव त्वचा को सुरक्षात्मक तैलीय कवच प्रदान करते हैं। क्या आप जानते हैं कि कुछ नाइट्रोजनी अपशिष्टों का निष्कासन लार द्वारा भी होता है?
16.8 वृक्क-विकृतियाँ
वृक्कों की कुसंक्रिया के फलस्वरूप रक्त में यूरिया एकत्रित हो जाता है। जिसे यूरिमिया कहते हैं जो कि अत्यंत हानिकारक है। यह वृक्क-पात के लिए मुख्यरूप से उत्तरदायी है। इसके मरीजों में यूरिया का निष्कासन हीमोडायलिसिस (रक्त अपोहन) द्वारा होता है, रक्त अपोहन (हीमोडायलिसिस) के प्रक्रम में रोगी की धमनी से रक्त निकालकर उसमें हिपेरिन जैसा कोई थक्का रोधी मिलाकर अपोहनकारी इकाई में भेजा जाता है। जिसे कृत्रिम वृक्क कहते हैं। इस इकाई में कुंडलित सेलोफेन नली होती है और यह ऐस द्रव से घिरी रहती है, जिसका संगठन नाइट्रोजनी अपशिष्टों को छोड़कर प्लाज्मा के समान होता है। छिद्रयुक्त सेलोफेन झिल्ली से अपोहनी द्रव में अणुओं का आवागमन सांद्र प्रवणता के अनुसार होता है। अपोहनी द्रव में नाइट्रोजनी अपशिष्ट अनुपस्थित होते हैं, अतः ये पदार्थ बाहर की ओर गमन करते हैं और रक्त को शुद्ध करते हैं। शुद्ध रक्त में हीपेरिन विरोधी डालकर, उसे रोगी की शिराओं द्वारा पुनः शरीर में भेज दिया जाता है। यह विधि संसार में यूरेमिक व्याधि से हजारों पीड़ितों के लिए एक वरदान है।
वृक्क की क्रियाहीनता को दूर करने का अंतिम उपाय वृक्क प्रत्यारोपण है। प्रत्यारोपण में मुख्यतया निकट संबंधी दाता के क्रियाशील वृक्क का उपयोग किया जाता है, जिससे प्राप्तकर्ता का प्रतिरक्षा तंत्र उसे अस्वीकार नहीं करे। आधुनिक क्लीनिकल विधियाँ इस प्रकार की जटिल तकनीक सफलता की दर को बढ़ाती है।
रीनल केलकलाई: वृक्क में बनी पथरी या अघुलनशील क्रिस्टलित लवण के पिंड (जैसे ऑक्सलेट आदि)।
ग्लोमेलोनेफ्राइटिस ( गुच्छ शोथ ): वृक्क के गुच्छ-शोथ की प्रदाहकता।
सारांश
शरीर में विभिन्न क्रियाओं द्वारा कई नाइट्रोजनी पदार्थ, आयन, $\mathrm{CO} _{2}$ जल आदि इकट्ठे हो जाते हैं, जिसमें से अधिकांश शरीर को समस्थापन में रखने के लिए विभिन्न विधियों द्वारा निष्कासित किए जाते हैं।
भिन्न-भिन्न प्राणियों में नाइट्रोजनी अपशिष्टों की प्रकृति, उनका निर्माण और उत्सर्जन विभिन्न प्रकार से होता है जो मुख्यत जल की उपलब्धता पर निर्भर करता है। उत्सर्जित किए जाने वाले मुख्य नाइट्रोजनी अपशिष्ट अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल हैं।
आदिवृक्ककी (प्रोटोनेफ्रीडिया), वृक्कक, मैलपीगी नलिकाएं, हरित ग्रंथियाँ और वृक्क प्राणियों के मुख्य उत्सर्जी अंग हैं। ये न केवल नाइट्रोजनी अपशिष्टों को शरीर से बाहर निकालते हैं; बल्कि शरीर द्रवों में आयनी और अम्ल क्षार संतुलन भी बनाए रखते हैं।
मानव के उत्सर्जी तंत्र में एक जोड़ी वृक्क, एक जोड़ी मूत्रवाहिनी, एक मूत्राशय और मूत्र मार्ग सम्मिलित हैं। प्रत्येक वृक्क में एक मिलियन नलिकाकार संरचनाएं वृक्काणु होते हैं। वृक्काणु वृक्क की क्रियात्मक इकाई है और उसके दो भाग होते हैं - गुच्छ और वृक्क नलिका। गुच्छ अभिवाही धमनिकायों से बना केशिकाओं का गुच्छ है जो कि वृक्क धमनी की सूक्ष्म शाखाएं होती है। वृक्क नलिका का प्रारंभ दोहरी भित्ति युक्त बोमन संपुट से होता है जो आगे समीपस्थ संवलित नलिका (पीसीटी) हेनले-लूप और दूरस्थ संचलित (डीसीटी)
नलिका में विभेदित होती है। कई वृक्काणु की दूरस्थ संवलित नलिकाएं एकत्रित होकर संग्रह नलिका बनाती हैं जो अंत में मध्यांश पिरामिड में से होकर वृक्कीय श्रोणि में खुलती हैं। बोमन-संपुट एवं गुच्छ मिलकर मेलपीगी काय या वृक्क कणिका (कापर्सल) बनाते हैं।
मूत्र निर्माण में 3 मुख्य प्रक्रियाएं होती है - निस्यंदन, पुनरावशोषण और स्रवण।
निस्यंदन, गुच्छ द्वारा केशिकाओं के रक्त दाब का उपयोग कर संपादित की जाने वाली अचयनात्मक प्रक्रिया है। गुच्छ द्वारा बोमेन-संपुट में प्रति मिनट 125 मिली. निस्यंद बनाने के लिए प्रति मिनट 1200 मिली. रक्त का निस्यंदन होता है (जीएफआर)। वृक्काणु के विशेष भाग जेजीए की जीएफआर के नियमन में महत्वपूर्ण भूमिका है। निस्यंद के 99 प्रतिशत भाग का वृक्काणु के विभिन्न भागों द्वारा पुनरावशोषण किया जाता है। समीपस्थ संवलित नलिका पीसीटी पुनरावशोषण और चयनात्मक स्रवण का मुख्य स्थान है। वृक्क मध्यांश अंतराकाशी में हेनले-लूप परासरण प्रवणता ( $300 \mathrm{mOsm} / \mathrm{L}$ से $1200 \mathrm{mOsm} /$ लीटर) को नियमित करने में सहायता करता है। दूरस्थ संवलित नलिका (डीसीटी) और संग्रह नलिका जल और विद्युत अपघट्यों का पुनरावशोषण करती हैं, जो परासरण नियमन में सहायक है। शरीर-तरल के आयनी साम्य और उसके $\mathrm{pH}$ को बनाए रखने के लिए नलिकाओं द्वारा $\mathrm{H}^{+}, \mathrm{K}^{+}$और $\mathrm{NH} _{3}$ निस्यंद स्रवित होते हैं। अमोनिया का नलिकाओं द्वारा स्राव भी होता है।
प्रतिधारा क्रियाविधि हेनले-लूप की दो भुजाओं और वासा-रेक्टा के बीच कार्य करती है। निस्यंद जैसे-जैसे अवरोही भुजा में नीचे उतरता है, वैसे-वैसे सांद्र होता जाता है, लेकिन आरोही भुजा में यह पुनः तनु हो जाता है। इस व्यवस्था के द्वारा वैद्युत अपघट्य और कुछ यूरिया, अंतराकाशी स्थल में बचे रह जाते हैं। डी. सी.टी. और संग्रह नलिका निस्यंद को 4 गुना अधिक सांद्र कर देते हैं - अर्थात् $300 \mathrm{mOsm} /$ लीटर से 1200 $\mathrm{mOsm} /$ लीटर तक यह जल संरक्षण की उत्तम क्रियाविधि है। मूत्राशय में मूत्र का संग्रह केंद्रीय तंत्रिका तंत्र द्वारा ऐच्छिक संकेत प्राप्त होने तक किया जाता है। संकेत प्राप्त होने पर मूत्र मार्ग द्वारा इसका निष्कासन मूत्रण कहलाता है। त्वचा, फेफड़े और यकृत भी उत्सर्जन में सहयोग करते हैं।