अध्याय 11 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन सविनय अवज्ञा और उससे आगे
राष्ट्रवाद के इतिहास में प्राय: एक अकेले व्यक्ति को राष्ट्र-निर्माण के साथ जोड़कर देखा जाता है। उदाहरण के लिए, हम इटली के निर्माण के साथ गैरीबाल्डी को, अमेरिकी स्वतंत्रता युद्ध के साथ जॉर्ज वार्शिगटन को और वियतनाम को औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने के संघर्ष से हो ची मिन्ह को जोड़कर देखते हैं। इसी तरह महात्मा गाँधी को भारतीय राष्ट्र का ‘पिता’ माना गया है।
चूँकि गाँधी जी स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लेने वाले सभी नेताओं में सर्वाधिक प्रभावशाली और सम्मानित हैं अतः उन्हें दिया गया उपर्युक्त विशेषण गलत नहीं है। हालाँकि, वाशिंगटन अथवा हो ची मिन्ह की तरह महात्मा गाँधी का राजनीतिक जीवन-वृत्त उस समाज ने ही सँवारा और निर्यंत्रित किया, जिस समाज में वे रहते थे। कोई व्यक्ति चाहे कितना ही महान क्यों न हो वह न केवल इतिहास बनाता है बल्कि स्वयं भी इतिहास द्वारा बनाया जाता है।
इस अध्याय में 1915-1948 के महत्त्वपूर्ण काल के दौरान भारत में गाँधी जी की गतिविधियों का विश्लेषण किया गया है। यह भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों के साथ उनके संपर्कों और उनके द्वारा प्रेरित तथा नेतृत्व किए गए लोकप्रिय संघर्षों की छान-बीन करता है। यह अध्याय विद्यार्थी के समक्ष उन अलग-अलग प्रकार के स्रोतों को भी रखता है जिनका इस्तेमाल, इतिहासकार एक नेता के जीवन-वृत्त तथा वह जिन सामाजिक आंदोलनों से जुड़ा रहा है, के पुनर्निर्माण में करते हैं।
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मार्च 1930 में नमक यात्रा शुरू करने से पूर्व साबरमती नदी के किनारे अपने आश्रम के निकट समर्थकों से बात करते महात्मा गाँधी।
1. स्वयं की उद्घोषणा करता एक नेता
मोहनदास करमचंद गाँधी विदेश में दो दशक रहने के बाद जनवरी 1915 में अपनी गृहभूमि वापस आए। इन वर्षों का अधिकांश हिस्सा उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में बिताया। यहाँ वे एक वकील के रूप में गए थे और बाद में वे इस क्षेत्र के भारतीय समुदाय के नेता बन गए। जैसाकि इतिहासकार चंद्रन देवनेसन ने टिप्पणी की है कि दक्षिण अफ्रीका ने ही गाँधी जी को ‘महात्मा’ बनाया। दक्षिण अफ़ीका में ही महात्मा गाँधी ने पहली बार सत्याग्रह के रूप में जानी गई अहिंसात्मक विरोध की अपनी विशिष्ट तकनीक का इस्तेमाल किया, विभिन्न धर्मों के बीच सौहार्द बढ़ाने का प्रयास किया तथा उच्च जातीय भारतीयों को निम्न जातियों और महिलाओं के प्रति भेदभाव वाले व्यवहार के लिए चेतावनी दी।
1915 में जब महात्मा गाँधी भारत आए तो उस समय का भारत 1893 में जब वे यहाँ से गए थे तब के समय से अपेक्षाकृत भिन्न था। यद्यपि यह अभी भी एक ब्रिटिश उपनिवेश था लेकिन अब यह राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक सक्रिय हो गया था। अधिकांश प्रमुख शहरों और कस्बों में अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की शाखाएँ थीं। 1905-07 के स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से इसने व्यापक रूप से मध्य वर्गों के बीच अपनी अपील का विस्तार कर लिया था। इस आंदोलन ने कुछ प्रमुख नेताओं को जन्म दिया, जिनमें महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक, बंगाल के विपिन चंद्र पाल और पंजाब के लाला लाजपत राय हैं। ये तीनों ‘लाल, बाल और पाल’ के रूप में जाने जाते थे। इन तीनों का यह जोड़ उनके संघर्ष के अखिल भारतीय चरित्र की सूचना देता था क्योंकि तीनों के मूल निवास क्षेत्र एक दूसरे से बहुत दूर थे। इन नेताओं ने जहाँ औपनिवेशिक शासन के प्रति लड़ाकू विरोध का समर्थन किया वहीं ‘उदारवादियों’ का एक समूह था जो एक क्रमिक व लगातार प्रयास करते रहने के विचार का हिमायती था। इन उदारवादियों में गाँधी जी के मान्य राजनीतिक परामर्शदाता गोपाल कृष्ण गोखले के साथ ही मोहम्मद अली जिन्ना थे, जो गाँधी जी की ही तरह गुजराती मूल के लंदन में प्रशिक्षित वकील थे।
गोखले ने गाँधी जी को एक वर्ष तक ब्रिटिश भारत की यात्रा करने की सलाह दी जिससे कि वे इस भूमि और इसके लोगों को जान सकें। उनकी
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दक्षिण अफ्रीका के जोहेन्सबर्ग़ में महात्मा गाँधी, फरवरी 1908
पहली महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक उपस्थिति फरवरी 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में हुई। इस समारोह में आमंत्रित व्यक्तियों में वे राजा और मानवप्रेमी थे जिनके द्वारा दिए गए दान ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में योगदान दिया। समारोह में एनी बेसेंट जैसे कांग्रेस के कुछ महत्त्वपूर्ण नेता भी उपस्थित थे। इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों की तुलना में गाँधी जी अपेक्षाकृत अज्ञात थे। उन्हें यहाँ भारत के अंदर उनकी प्रतिष्ठा के कारण नहीं बल्कि दक्षिण अफ्रीका में उनके द्वारा किए गए कार्य के आधार पर आमंत्रित किया गया था।
जब गाँधी जी की बोलने की बारी आई तो उन्होंने मज़दूर गरीबों की ओर ध्यान न देने के कारण भारतीय विशिष्ट वर्ग को आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना ‘निश्चय ही अत्यंत शानदार’ है किंतु उन्होंने वहाँ धनी व सजे-सँवरे भद्रजनों की उपस्थिति और ‘लाखों गरीब’ भारतीयों की अनुपस्थिति के बीच की विषमता पर अपनी चिंता प्रकट की। गाँधी जी ने विशेष सुविधा प्राप्त आमंत्रितों से कहा कि ‘भारत के लिए मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक कि आप अपने को इन अलंकरणों से मुक्त न कर लें और इन्हें भारत के अपने हमवतनों की भलाई में न लगा दें’। वे कहते गए कि, ‘हमारे लिए स्वशासन का तब तक कोई अभिप्राय नहीं है जब तक हम किसानों से उनके श्रम का लगभग सम्पूर्ण लाभ स्वयं अथवा अन्य लोगों को ले लेने की अनुमति देते रहेंगे। हमारी मुक्ति केवल किसानों के माध्यम से ही हो सकती है। न तो वकील, न डॉक्टर, न ही ज़मींदार इसे सुरक्षित रख सकते हैं।’ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना एक उत्सव का अवसर था क्योंकि यह भारतीय धन और भारतीय प्रयासों से संभव एक राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय की स्थापना का द्योतक था। लेकिन गाँधी जी ने स्वयं को बधाई देने के सुर में सुर मिलाने की अपेक्षा लोगों को उन किसानों और कामगारों की याद दिलाना चुना जो भारतीय जनसंख्या के अधिसंख्य हिस्से का निर्माण करने के बावजूद वहाँ श्रोताओं में अनुपस्थित थे।
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करांची में महात्मा गाँधी, मार्च 1916
एक दृष्टि से फरवरी 1916 में बनारस में गाँधी जी का भाषण मात्र वास्तविक तथ्य का ही उद्घाटन था
अर्थात भारतीय राष्ट्रवाद वकीलों, डॉक्टरों और ज़मींदारों जैसे विशिष्ट वर्गों द्वारा निर्मित था। लेकिन दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो यह वक्तव्य उनकी मंशा भी जाहिर करता था। यह भारतीय राष्ट्रवाद को सम्पूर्ण भारतीय लोगों का और अधिक अच्छे ढंग से प्रतिनिधित्व करने में सक्षम बनाने की गाँधी जी की स्वयं की इच्छा की प्रथम सार्वजनिक उद्घोषणा थी।
उसी वर्ष के अंतिम माह में गाँधी जी को अपने नियमों को व्यवहार में लाने का अवसर मिला। दिसम्बर 1916 में लखनऊ में हुई वार्षिक कांग्रेस में बिहार में चंपारन से आए एक किसान ने उन्हें वहाँ अंग्रेज़ नील उत्पादकों द्वारा किसानों के प्रति किए जाने वाले कठोर व्यवहार के बारे में बताया।
$\Rightarrow$ चर्चा कीजिए…
1915 से पूर्व भारत में हुए राष्ट्रीय आंदोलनों के बारे में और जानकारी इकट्ठा कीजिए व पता लगाइए कि क्या महात्मा गाँधी की टिप्पणियाँ न्यायसंगत हैं।
2. असहयोग की शुरुआत और अंत
1917 का अधिकांश समय महात्मा गाँधी को किसानों के लिए काश्तकारी की सुरक्षा के साथ-साथ अपनी पसंद की फ़सल उपजाने की आज़ादी दिलाने में बीता। अगले वर्ष यानी 1918 में गाँधी जी गुजरात के अपने गृह राज्य में दो अभियानों में संलग्न रहे। सबसे पहले उन्होंने अहमदाबाद के एक श्रम विवाद में हस्तक्षेप कर कपड़े की मिलों में काम करने वालों के लिए काम करने की बेहतर स्थितियों की माँग की। इसके बाद उन्होंने खेड़ा में फ़सल चौपट होने पर राज्य से किसानों का लगान माफ़ करने की माँग की।
चंपारन, अहमदाबाद और खेड़ा में की गई पहल से गाँधी जी एक ऐसे राष्ट्रवादी के रूप में उभरे जिनमें गरीबों के लिए गहरी सहानुभूति थी। इसी तरह ये सभी स्थानिक संघर्ष थे। इसके बाद 1919 में औपनिवेशिक शासकों ने गाँधी जी की झोली में एक ऐसा मुद्या डाल दिया जिससे वे कहीं अधिक विस्तृत आंदोलन खड़ा कर सकते थे। 1914-18 के महान युद्ध के दौरान अंग्रेज़ों ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था और बिना जाँच के कारावास की अनुमति दे दी थी। अब सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली एक समिति की संस्तुतियों के आधार पर इन कठोर उपायों को जारी रखा गया। इसके जवाब में गाँधी जी ने देशभर में ‘रॉलेट एक्ट’ के खिलाफ एक अभियान चलाया। उत्तरी और पश्चिमी भारत के कस्बों में चारों तरफ बंद के समर्थन में दुकानों और स्कूलों के बंद होने के कारण जीवन लगभग ठहर सा गया था। पंजाब में, विशेष रूप से कड़ा विरोध हुआ, जहाँ के बहुत से लोगों ने युद्ध में अंग्रेज़ों के पक्ष में सेवा की थी और अब अपनी सेवा के बदले वे ईनाम की अपेक्षा कर रहे थे। लेकिन इसकी जगह उन्हें रॉलेट एक्ट दिया गया। पंजाब जाते समय गाँधी जी को क़ैद कर लिया गया। स्थानीय कांग्रेसजनों को गिरफ़्तार कर लिया गया था। प्रांत की यह स्थिति धीरे-धीरे और तनावपूर्ण हो गई तथा अप्रैल 1919 में अमृतसर में यह खूनखराबे के चरमोत्कर्ष पर ही पहुँच गई। जब एक अंग्रेज़ ब्रिगेडियर ने एक राष्ट्रवादी सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया तब जलियाँवाला बाग हत्याकांड के नाम से जाने गए इस हत्याकांड में चार सौ से अधिक लोग मारे गए।
रॉलेट सत्याग्रह से ही गाँधी जी एक सच्चे राष्ट्रीय नेता बन गए। इसकी सफलता से उत्साहित होकर गाँधी जी ने अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ ‘असहयोग’ अभियान की माँग कर दी। जो भारतीय उपनिवेशवाद का ख़ात्मा करना चाहते थे उनसे आग्रह किया गया कि वे स्कूलों, कॉलेज़ों और न्यायालय न जाएँ तथा कर न चुकाएँ। संक्षेप में सभी को अंग्रेज़ी सरकार के साथ (सभी) ऐच्छिक संबंधों के परित्याग का पालन करने को कहा गया। गाँधी जी ने कहा कि यदि असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा। अपने संघर्ष का और विस्तार करते हुए उन्होंने खिलाफ़त आंदोलन के साथ हाथ मिला लिए जो हाल ही में तुर्की शासक कमाल अतातुर्क द्वारा समाप्त किए गए सर्व-इस्लामवाद के प्रतीक खलीफा की पुनस्स्थापना की माँग कर रहा था।
2.1 एक लोकप्रिय आंदोलन की तैयारी
गाँधी जी ने यह आशा की थी कि असहयोग को खिलाफत के साथ विद्यार्थियों ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर दिया। कई कस्बों और नगरों में श्रमिक-वर्ग हड़ताल पर चला गया। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुई जिनमें 6 लाख श्रमिक शामिल थे और इससे 70 लाख कार्यदिवसों का नुकसान हुआ था। देहात भी असंतोष से आंदोलित हो रहा था। उत्तरी आंध्र की पहाड़ी जनजातियों ने वन्य कानूनों की अवहेलना कर दी। अवध के किसानों ने कर नहीं चुकाए। कुमाऊँ के किसानों ने औपनिवेशिक अधिकारियों का सामान ढोने से मना कर दिया। इन विरोध आंदोलनों को कभी-कभी स्थानीय राष्ट्रवादी नेतृत्व की अवज्ञा करते हुए कार्यान्वयित किया गया। किसानों, श्रमिकों और अन्य ने इसकी अपने ढंग से व्याख्या की तथा औपनिवेशिक शासन के साथ ‘असहयोग’ के लिए उन्होंने ऊपर से प्राप्त निर्देशों पर टिके रहने के बजाय अपने हितों से मेल खाते तरीकों का इस्तेमाल कर कार्रवाही की।
खिलाफ़त आंदोलन क्या था?
खिलाफ़त आंदोलन (1919-1920) मुहम्मद अली और शौकत अली के नेतृत्व में भारतीय मुसलमानों का एक आंदोलन था। इस आंदोलन की निम्नलिखित माँगें थीं- पहले के ऑटोमन साम्राज्य के सभी इस्लामी पवित्र स्थानों पर तुर्की सुल्तान अथवा खलीफ़ा का नियंत्रण बना रहे, जज़ीरात-उल-अरब (अरब, सीरिया, इराक, फिलिस्तीन) इस्लामी सम्प्रभुता के अधीन रहें तथा खलीफ़ा के पास इतने क्षेत्र हों कि वह इस्लामी विश्वास को सुरक्षित करने के योग्य बन सके। कांग्रेस ने इस आंदोलन का समर्थन किया और गाँधी जी ने इसे असहयोग आंदोलन के साथ मिलाने की कोशिश की। मिलाने से भारत के दो प्रमुख धार्मिक समुदाय- हिंदू और मुसलमान मिलकर औपनिवेशिक शासन का अंत कर देंगे। इन आंदोलनों ने निश्चय ही एक लोकप्रिय कार्रवाही के बहाव को उन्मुक्त कर दिया था और ये चीज़ें औपनिवेशिक भारत में बिलकुल ही अभूतपूर्व थीं।
महात्मा गाँधी के अमरीकी जीवनी-लेखक लुई फिशर ने लिखा है कि ‘असहयोग भारत और गाँधी जी के जीवन के एक युग का ही नाम हो गया। असहयोग शांति की दृष्टि से नकारात्मक किंतु प्रभाव की दृष्टि से बहुत सकारात्मक था। इसके लिए प्रतिवाद, परित्याग और स्व-अनुशासन आवश्यक थे। यह स्वशासन के लिए एक प्रशिक्षण था।’ 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ी राज की नींव हिल गई। फरवरी 1922 में किसानों के एक समूह ने संयुक्त प्रांत के चौरी-चौरा पुरवा में एक पुलिस स्टेशन पर आक्रमण कर उसमें आग लगा दी। इस अग्निकांड में कई पुलिस वालों की जान चली गई। हिंसा की इस कार्यवाही से गाँधी जी को यह आंदोलन तत्काल वापस लेना पड़ा। उन्होंने ज़ोर दिया कि, ‘किसी भी तरह की उत्तेजना को निहत्थे और एक तरह से भीड़ की दया पर निर्भर व्यक्तियों की घृणित हत्या के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है’।
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असहयोग आंदोलन, 1922
विदेशी वस्त्रों को इकट्ठा किया जा रहा है ताकि उन्हें आग में जलाया जा सके।
असहयोग आंदोलन के दौरान हज़ारों भारतीयों को जेल में डाल दिया गया। स्वयं गाँधी जी को मार्च 1922 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर जाँच की कार्रवाही की अध्यक्षता करने वाले जज जस्टिस सी. एन. ब्रूमफील्ड ने उन्हें सजा सुनाते समय एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया। जज ने टिप्पणी की कि, “इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि मैने आज तक जिनकी जाँच की है अथवा करूँगा आप उनसे भिन्न श्रेणी के हैं। इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि आपके लाखों देशवासियों की दृष्टि में आप एक महान देशभक्त और नेता हैं। यहाँ तक कि राजनीति में जो लोग आपसे भिन्न मत रखते हैं वे भी आपको उच्च आदर्शों और पवित्र जीवन वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं। चूँकि गाँधी जी ने कानून की अवहेलना की थी अतः उस न्याय पीठ के लिए गाँधी जी को 6 वर्षों की जेल की सजा सुनाया जाना आवश्यक था। लेकिन जज ब्रूमफील्ड ने कहा कि ‘यदि भारत में घट रही घटनाओं की वजह से सरकार के लिए सज़ा के इन वर्षों में कमी और आपको मुक्त करना संभव हुआ तो इससे मुझसे ज़्यादा कोई प्रसन्न नहीं होगा”।
2.2 जन नेता
1922 तक गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्रवाद को एकदम परिवर्तित कर दिया और इस प्रकार फरवरी 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अपने भाषण में किए गए वायदे को उन्होंने पूरा किया। अब यह व्यावसायिकों व बुद्धिजीवियों का ही आंदोलन नहीं रह गया था, अब हज़ारों की संख्या में किसानों, श्रमिकों और कारीगरों ने भी इसमें भाग लेना शुरू कर दिया। इनमें से कई गाँधी जी के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उन्हें अपना ‘महात्मा’ कहने लगे। उन्होंने इस बात की प्रशंसा की कि गाँधी जी उनकी ही तरह के वस्त्र पहनते थे, उनकी ही तरह रहते थे और उनकी ही भाषा में बोलते थे। अन्य नेताओं की तरह वे सामान्य जनसमूह से अलग नहीं खड़े होते थे बल्कि वे उनसे समानुभूति रखते तथा उनसे घनिष्ठ संबंध भी स्थापित कर लेते थे।
सामान्य जन के साथ इस तरह की पहचान उनके वस्त्रों में विशेष रूप से परिलक्षित होती थी। जहाँ अन्य राष्ट्रवादी नेता पश्चिमी शैली के सूट अथवा भारतीय बंदगला जैसे औपचारिक वस्त्र पहनते थे वहीं गाँधी जी लोगों के बीच एक साधारण धोती में जाते थे। इस बीच, प्रत्येक दिन का कुछ हिस्सा वे चरखा चलाने में बिताते थे। अन्य राष्ट्रवादियों को भी उन्होंने ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया। सूत कताई के कार्य ने गाँधी जी को पारंपरिक जाति व्यवस्था में प्रचलित मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम की दीवार को तोड़ने में मदद दी।
स्रोत 1
चरखा
महात्मा गाँधी आधुनिक युग, जिसमें मशीनों ने मानव को गुलाम बनाकर श्रम को हटा दिया था, के घोर आलोचक थे। उन्होंने चरखा को एक ऐसे, मानव समाज के प्रतीक रूप में देखा, जिसमें मशीनों और प्रौद्योगिकी को बहुत महिमामंडित नहीं किया जाएगा। इससे भी अधिक चरखा गरीबों को पूरक आमदनी प्रदान कर सकता था तथा उन्हें स्वावलम्बी बना सकता था।
मेरी आपत्ति मशीन के प्रति सनक से है। यह सनक श्रम बचाने वाली मशीनरी के लिए है। ये तब तक ‘श्रम बचाते’ रहेंगे जब तक कि हज़ारों लोग बिना काम के और भूख से मरने के लिए सड़कों पर न फेंक दिए जाएँ। मैं मानव समुदाय के किसी एक हिस्से के लिए नहीं बल्कि सभी के लिए समय और श्रम बचाना चाहता हूँ : मैं धन का केंद्रीकरण कुछ ही लोगों के हाथों में नहीं बल्कि सभी के हाथों में करना चाहता हूँ।
यंग इंडिया, 13 नवंबर 1924
खद्दर मशीनरी को नष्ट नहीं करना चाहता बल्कि यह इसके प्रयोग को नियमित करता है और इसके विकास को नियंत्रित करता है। यह मशीनरी का प्रयोग सर्वाधिक ग़रीब लोगों के लिए उनकी अपनी झोपड़ियों में करता है। पहिया अपने आप में ही मशीनरी का एक उत्कृष्ट नमूना है।
यंग इंडिया, 17 मार्च 1927
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चरखे के साथ महात्मा गाँधी भारतीय राष्ट्रवाद की सर्वाधिक स्थायी पहचान बन गए। 1921 में दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान गाँधी जी ने अपना सिर मुँडवा लिया और गरीबों के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करने के लिए उन्होंने सूती वस्त्र पहनना आरंभ कर दिया। उनका यह नया रूप तपस्या और संयम का प्रतीक भी बना और ये ऐसी विशेषताएँ थीं जिनका गाँधी जी, आधुनिक विश्व की उपभोक्तवादी संस्कृति के प्रतिउत्तर में, गुणगान करते थे।
इतिहासकार शाहिद अमीन ने एक मंत्रमुग्ध कर देने वाले अध्ययन में स्थानीय प्रेस द्वारा ज्ञात रिपोर्टों और अफवाहों के ज़ारिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों के मन में महात्मा गाँधी की जो कल्पना थी, उसे ढूँढ़ निकालने की कोशिश की है। फरवरी 1921 में जब वे इस क्षेत्र से गुजर रहे थे तो हर जगह भीड़ ने उनका बड़े प्यार से स्वागत किया।
उनके भाषणों के दौरान कैसा माहौल होता था इस पर गोरखपुर के एक हिंदी समाचारपत्र ने यह रिपोर्ट लिखी है:
भटनी में गाँधी जी ने स्थानीय जनता को संबोधित किया और इसके बाद ट्रेन गोरखपुर के लिए रवाना हो गई। नूनखार, देवरिया, गौरी बाज़ार, चौरी-चौरा और कुसुमही (स्टेशनों) पर 15 से 20 हज़ार से कम लोग नहीं थे… महात्मा जी कुसुमीही के दृश्य को देखकर बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि जंगल के बीच स्थित होने के बावजूद उस स्टेशन पर 10,000 से कम लोग नहीं थे। प्रेम में अभिभूत होकर कुछ लोग रोते हुए देखे गए। देवरिया में लोग गाँधी जी को भेनी (दान) देना चाहते थे किंतु इसे उन्होंने उनसे गोरखपुर में देने को कहा। लेकिन चौरी-चौरा में एक मारवाड़ी सज्जन ने किसी तरह उन्हें कुछ दे दिया। इसके बाद यह क्रम रुका ही नहीं। एक चादर फैला दी गई जिस पर रुपयों और सिक्कों की बारिश होने लगी। यह दृश्य था… गोरखपुर स्टेशन के बाहर महात्मा एक ऊँची गाड़ी पर खड़े हो गए और लोगों ने कुछ मिनटों के लिए उनके दर्शन कर लिए।
गाँधी जी जहाँ भी गए वहीं उनकी चामत्कारिक शक्तियों की अफवाहें फैल गईं। कुछ स्थानों पर यह कहा गया कि उन्हें राजा द्वारा किसानों के दुख तकलीफों में सुधार के लिए भेजा गया है तथा उनके पास सभी स्थानीय अधिकारियों के निर्देशों को अस्वीकृत करने की शक्ति है। कुछ अन्य स्थानों पर यह दावा किया गया कि गाँधी जी की शक्ति अंग्रेज़ बादशाह से उत्कृष्ट है और यह कि उनके आने से औपनिवेशिक शासक ज़िले से भाग जाएँगे। गाँधी जी का विरोध करने वालों के लिए भयंकर परिणाम की बात बताती कहानियाँ भी थीं। इस तरह की अफवाहें फैलीं कि गाँधी जी की आलोचना करने वाले गाँव के लोगों के घर रहस्यात्मक रूप से गिर गए अथवा उनकी फसल चौपट हो गई।
‘गाँधी बाबा’, ‘गाँधी महाराज’ अथवा सामान्य ‘महात्मा’ जैसे अलग-अलग नामों से ज्ञात गाँधी जी भारतीय किसान के लिए एक उद्वारक के समान थे जो उनकी ऊँची करों और दमनात्मक अधिकारियों से सुरक्षा करने वाले और उनके जीवन में मान-मर्यादा और स्वायत्तता वापस लाने वाले थे। ग़रीबों विशेषकर किसानों के बीच गाँधी जी की स्रोत 2
चामत्कारिक व अविशवसनीय
संयुक्त प्रांत के स्थानीय समाचार-पत्रों में उस समय फैली कई अफवाहें दर्ज हैं। ये अफवाहें थीं कि जिस किसी भी व्यक्ति ने महात्मा की शक्ति को परखना चाहा उसे अचंभा हुआ :
1. बस्ती गाँव के सिंकदर साहू ने 15 फरवरी को कहा कि वह महात्मा जी में तब विश्वास करेगा जब उसके कारखाने (जहाँ गुड़ का उत्पादन होता था) में गन्ने के रस से भरा कड़ाहा (उबलता हुआ) दो भाग में टूट जाएगा। तुरंत ही कड़ाहा वास्तव में बीच में से दो हिस्सों में टूट गया।
2. आजमगढ़ के एक किसान ने कहा कि वह महात्मा जी की प्रामाणिकता में तब विश्वास करेगा जब उसके खेत में लगाए गए गेहूँ तिल में बदल जाएँ। अगले दिन उस खेत का सारा गेहूँ तिल बन गया।ऐसी अफ़वाहें थीं कि महात्मा गाँधी का विरोध करने वाले लोग निरपवाद रूप से किसी न किसी त्रासदी का शिकार हुए थे।
1. गोरखपुर से एक सज्जन ने चरखा चलाए जाने की आवश्यकता पर प्रश्न उठाया। उनके घर में आग लग गई।
2. अप्रैल 1921 में उत्तर प्रदेश के एक गाँव में कुछ लोग जुआ खेल रहे थे। किसी ने उन्हें ऐसा करने से रोका। जुआ खेल रहे समूह में से एक ने रुकने से मना कर दिया और गाँधीजी को अपशब्द कहा। अगले दिन उसकी बकरी को उसके ही चार कुत्तों ने काट खाया।
3. गोरखपुर के एक गाँव में किसानों ने शराब पीना छोड़ने का निश्चय किया। एक व्यक्ति अपने निश्चय पर कायम नहीं रहा। जब वह शराब की दुकान की तलाश में जा रहा था तो उसके रास्ते में रोड़ों की बारिश होने लगी। ज्योंही उसने गाँधीजी का नाम लिया रोड़ों की बारिश बंद हो गई।
शाहिद अमीन, ‘गाँधी जी एज़ महात्मा’, सबाल्टर्न स्टड़ीज III, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।$\Rightarrow$ आ आपने अध्याय 10 में अफ़वाहों के बारे में पढ़ा और देखा कि अफ़वाहों का प्रसार एक समय के विश्वास के ढाँचों के बारे में बताता है, यह बताता है उन लोगों के मन-मस्तिष्क के बारे में जो इन अफ़वाहों में विश्वास करते हैं और उन परिस्थितियों के बारे में जो इन विश्वासों को संभव बनाती हैं। आपके अनुसार गाँधी जी के विषय में अफ़वाहों से क्या पता चलता है?
अपील को उनकी सात्विक जीवन शैली और उनके द्वारा धोती तथा चरखा जैसे प्रतीकों के विवेकपूर्ण प्रयोग से बहुत बल मिला। जाति से महात्मा गाँधी एक व्यापारी व पेशे से वकील थे, लेकिन उनकी सादी जीवन-शैली तथा हाथों से काम करने के प्रति उनके लगाव की वजह से वे ग़रीब श्रमिकों के प्रति बहुत अधिक समानुभूति रखते थे तथा बदले में वे लोग गाँधी जी से समानुभूति रखते थे। जहाँ अधिकांश अन्य राजनीतिक उन्हें कृपा की दृष्टि से देखते थे वहीं ये न केवल उनके जैसा दिखने बल्कि उन्हें अच्छी तरह समझने और उनके जीवन के साथ स्वयं को जोड़ने के लिए सामने आते थे।
महात्मा गाँधी का जन अनुरोध निस्संदेह कपट से मुक्त था और भारतीय राजनीति के संदर्भ में तो बिना किसी पूर्वोदाहरण के यह भी कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद के आधार को और व्यापक बनाने में उनकी सफलता का राज़ उनके द्वारा सावधानीपूर्वक किया गया संगठन था। भारत के विभिन्न भागों में कांग्रेस की नयी शाखाएँ खोली गयी। रजवाड़ों में राष्ट्रवादी सिद्धान्त को बढ़ावा देने के लिए ‘प्रजा मंडलों’ की एक शृंखला स्थापित की गई। गाँधी जी ने राष्ट्रवादी संदेश का संचार शासकों की अंग्रेज़ी भाषा की जगह मातृ भाषा में करने को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार कांग्रेस की प्रांतीय समितियाँ ब्रिटिश भारत की कृत्रिम सीमाओं की अपेक्षा भाषाई क्षेत्रों पर आधारित थीं। इन अलग-अलग तरीकों से राष्ट्रवाद देश के सुदूर हिस्सों तक फैल गया और अब इसमें वे सामाजिक वर्ग भी शामिल हो गए जो अभी तक इससे अछूत थे।
अब तक कांग्रेस के समर्थकों में कुछ बहुत ही समृद्ध व्यापारी और उद्योगपति शामिल हो गए थे। भारतीय उद्यमियों ने यह बात जल्दी ही समझ ली कि उनके अंग्रेज़ प्रतिद्वन्दी आज जो लाभ पा रहे हैं, स्वतंत्र भारत में ये चीज़ें समाप्त हो जाएँगी। जी. डी. बिड़ला जैसे कुछ उद्यमियों ने राष्ट्रीय आंदोलन का खुला समर्थन किया जबकि अन्य ने ऐसा मौन रूप से किया। इस प्रकार गाँधी जी के प्रशंसकों में गरीब किसान और धनी उद्योगपति दोनों ही थे हालांकि किसानों द्वारा गाँधी जी का अनुकरण करने के कारण उद्योगपतियों के कारणों से कुछ भिन्न और संभवतः परस्पर विरोधी थे।
हालाँकि महात्मा गाँधी की स्वयं बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका थी लेकिन ‘गाँधीवादी राष्ट्रवाद’ का विकास बहुत हद तक उनके अनुयायियों पर निर्भर करता था। 1917 और 1922 के बीच भारतीयों के एक बहुत ही प्रतिभाशाली वर्ग ने स्वयं को गाँधी जी से जोड़ लिया। इनमें महादेव देसाई, वल्लभ भाई पटेल, जे. बी. कृपलानी, सुभाष चंद्र बोस, अबुल कलाम आज़ाद, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, गोविंद वल्लभ पंत और सी. राजगोपालाचारी शामिल थे। गाँधी जी के ये घनिष्ठ सहयोगी
विशेषरूप से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के साथ ही भिन्न-भिन्न धार्मिक परंपराओं से आए थे। इसके बाद उन्होंने अनगिनत अन्य भारतीयों को कांग्रेस में शामिल होने और इसके लिए काम करने के लिए प्रेरित किया।
महात्मा गाँधी फरवरी 1924 में जेल से रिहा हो गए और अब उन्होंने अपना ध्यान घर में बुने कपड़े (खादी) को बढ़ावा देने तथा छूआ-छूत को समाप्त करने पर लगाया। गाँधी जी राजनीतिक जितने थे उतने ही वे समाज सुधारक थे। उनका विश्वास था कि स्वतंत्रता के योग्य बनने के लिए भारतीयों को बाल विवाह और छूआ-छूत जैसी सामाजिक बुराइयों से मुक्त होना पड़ेगा। एक मत के भारतीयों को दूसरे मत के भारतीयों के लिए सच्चा संयम लाना होगा और इस प्रकार उन्होंने हिंदू-मुसलमानों के बीच सौहार्द्र पर बल दिया। इसी तरह आर्थिक स्तर पर भारतीयों को स्वावलंबी बनना सीखना होगा- ऐसा करके उन्होंने समुद्रपार से आयतित मिल में बने वस्त्रों के स्थान पर खादी पहनने की महत्ता पर ज़ोर डाला।
$\Rightarrow$ चर्चा कीजिए…
असहयोग क्या था? विभिन्न सामाजिक वर्गों ने आन्दोलन में किन विभिन्न तरीकों से भाग लिया, इसके बारे में पता लगाइये।
3. नमक सत्याग्रह नज़दीक से एक नज़र
असहयोग आंदोलन समाप्त होने के कई वर्ष बाद तक महात्मा गाँधी ने अपने को समाज सुधार कार्यों पर केंद्रित रखा। 1928 में उन्होंने पुन: राजनीति में प्रवेश करने की सोची। उस वर्ष सभी श्वेत सदस्यों वाले साईमन कमीशन, जो कि उपनिवेश की स्थितियों की जाँच-पड़ताल के लिए इंग्लैंड से भेजा गया था, के विरुद्ध अखिल भारतीय अभियान चलाया जा रहा था। गाँधी जी ने स्वयं इस आंदोलन में भाग नहीं लिया था पर उन्होंने इस आंदोलन को अपना आशीर्वाद दिया था तथा इसी वर्ष बारदोली में होने वाले एक किसान सत्याग्रह के साथ भी उन्होंने ऐसा किया था।
1929 में दिसंबर के अंत में कांग्रेस ने अपना वार्षिक अधिवेशन लाहौर शहर में किया। यह अधिवेशन दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था : जवाहरलाल नेहरू का अध्यक्ष के रूप में चुनाव जो युवा पीढ़ी को नेतृत्व की छड़ी सौंपने का प्रतीक था; और ‘पूर्ण स्वराज’ अथवा पूर्ण स्वतंत्रता की उद्घोषणा। अब राजनीति की गति एक बार फिर बढ़ गई थी। 26 जनवरी 1930 को विभिन्न स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराकर और देशभक्ति के गीत गाकर ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाया गया। गाँधी जी ने स्वयं सुस्पष्ट निर्देश देकर बताया कि इस दिन को कैसे मनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि “यदि (स्वतंत्रता की) उद्घोषणा सभी गाँवों और सभी शहरों यहाँ तक कि… अच्छा होगा। अगर सभी जगहों पर एक ही समय में संगोष्ठियाँ हों तो अच्छा होगा।”
गाँधी जी ने सुझाव दिया कि नगाड़े पीटकर पारंपरिक तीरके से संगोष्ठी के समय की घोषणा की जाए। राष्ट्रीय ध्वज को फहराए जाने से समारोहों की शुरुआत होगी। दिन का बाकी हिस्सा किसी रचनात्मक कार्य में चाहे वह सूत कताई हो अथवा ‘अछूतों’ की सेवा अथवा हिंदुओं व मुसलमानों का पुनर्मिलन अथवा निषिद्ध कार्य अथवा ये सभी एक साथ करने में व्यतीत होगा और यह असंभव नहीं है। इसमें भाग लेने वाले लोग दृढ़तापूर्वक यह प्रतिज्ञा लेंगे कि “अन्य लोगों की तरह भारतीय लोगों को भी स्वतंत्रता और अपने कठिन परिश्रम के फल का आनंद लेने का अहरणीय अधिकार है और यह कि यदि कोई भी सरकार लोगों को इन अधिकारों से वंचित रखती है या उनका दमन करती है तो लोगों को इन्हें बदलने अथवा समाप्त करने का भी अधिकार है।”
3.1 दाण्डी
‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाए जाने के तुरंत बाद महात्मा गाँधी ने घोषणा की कि वे ब्रिटिश भारत के सर्वाधिक घृणित कानूनों में से एक, जिसने नमक के उत्पादन और विक्रय पर राज्य को एकाधिकार दे दिया है, को तोड़ने के लिए एक यात्रा का नेतृत्व करेंगे। नमक एकाधिकार के जिस मुद्दे का उन्होंने चयन किया था वह गाँधी जी की कुशल समझदारी का एक अन्य उदाहरण था। प्रत्येक भारतीय घर में नमक का प्रयोग अपरिहार्य था लेकिन इसके बावजूद उन्हें घरेलू प्रयोग के लिए भी नमक बनाने से रोका गया और इस तरह उन्हें दुकानों से ऊँचे दाम पर नमक खरीदने के लिए बाध्य किया गया। नमक पर राज्य का एकाधिपत्य बहुत अलोकप्रिय था। इसी को निशाना बनाते हुए गाँधी जी अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ व्यापक असंतोष को संघटित करने की सोच रहे थे।
चित्र 11.6
दाण्डी यात्रा, मार्च 1930 करने की सोच रहे थे।
अधिकांश भारतीयों को गाँधी जी की इस चुनौती का महत्व समझ में आ गया था किंतु अंग्रेज़ी राज को नहीं। हालाँकि गाँधी जी ने अपनी ‘नमक यात्रा’ की पूर्व सूचना वाइसराय लार्ड इर्विन को दे दी थी किंतु इर्विन उनकी इस कार्रवाही के महत्व को न समझ सके। 12 मार्च 1930 को गाँधी जी ने साबरमती में अपने आश्रम से समुद्र की ओर चलना शुरू किया। तीन हफ्तों बाद वे अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचे। वहाँ उन्होने मुट्ठी भर नमक बनाकर स्वयं को कानून की निगाह में अपराधी बना दिया। इसी बीच देश के अन्य भागों में समान्तर नमक यात्राएँ अयोजित की गईं।
चित्र 11.7
6 अप्रैल 1930 को दाण्डी यात्रा की समाप्ति पर सत्याग्रही प्राकृतिक नमक को उठाते हुए।
स्रोत 3
नमक सत्याग्रह क्यों?
नमक विरोध का प्रतीक क्यों था? इसके बारे में महात्मा गाँधी ने लिखा है :
प्रतिदिन प्राप्त होने वाली सूचनाओं से पता चलता है कि कैसे अन्यायपूर्ण तरीके से नमक कर को तैयार किया गया है। बिना कर (जो कभी-कभी नमक के मूल्य का चौदह गुना तक होता था) अदा किए गए नमक के प्रयोग को रोकने के लिए सरकार उस नमक को, जिससे वह लाभ पर नहीं बेच पाती थी, नष्ट कर देती थी। अतः यह राष्ट्र की अत्यधिक महत्वपूर्ण आवश्यकता पर कर लगाती है; यह जनता को इसके उत्पादन से रोकती है और प्रकृति ने जिसे बिना किसी श्रम के उत्पादित किया है उसे नष्ट कर देती है। अतः किसी भी वजह से किसी चीज़ को स्वयं प्रयोग न कर पाने तथा अन्य को भी उसका प्रयोग न करने देने तथा ऐसे में उस चीज़ को नष्ट कर देने की इस अन्यायपूर्ण नीति को किसी भी विशेषण द्वारा नहीं बताया जा सकता है। विभिन्न स्रोतों से मैं भारत के सभी भागों में इस राष्ट्र संपति को बेलगाम ढंग से नष्ट किए जाने की कहानियाँ सुन रहा हूँ। टनों न सही पर कई मन नमक कोंकण तट पर नष्ट कर दिया गया बताया गया है। दाण्डी से भी इस तरह की बातें पता चली हैं। जहाँ कहीं भी ऐसे क्षेत्रों के आस-पास रहने वाले लोगों द्वारा अपने व्यक्तिगत प्रयोग हेतु प्राकृतिक नमक उठा ले जाने की संभावना दिखती है वहाँ तुरंत अधिकारी नियुक्त कर दिए जाते हैं जिनका एकमात्र कार्य विनाश करना होता है। इस प्रकार बहुमूल्य राष्ट्रीय संपदा को राष्ट्रीय खर्चे से ही नष्ट किया जाता है और लोगों के मुँह से नमक छीन लिया जाता है।
नमक एकाधिकार एक तरह से चौतरफा अभिशाप है। यह लोगों को बहुमूल्य सुलभ ग्राम उद्योग से वंचित करता है, प्रकृति द्वारा बहुतायत में उत्पादित संपदा का यह अतिशय विनाश करता है। इस विनाश का मतलब ही है और अधिक राष्ट्रीय खर्च। चौथा और इस मूर्खता का चरमोत्कर्ष भूखे लोगों से हज़ार प्रतिशत से अधिक की उगाही है।
सामान्य जन की उदासीनता की वजह से ही लम्बे समय से यह कर अस्तित्व में बना रहा है। आज जनता पर्याप्त रूप से जग चुकी है अतः इस कर को समाप्त करना होगा। कितनी जल्दी इसे खत्म कर दिया जाएगा यह लोगों की क्षमता पर निर्भर करता है।
दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी (सी. डब्ल्यू. एम. जी.) खंड 49
$\Rightarrow$ औप औपिवेशिक सरकार द्वारा नमक को क्यों नष्ट किया जाता था?
महात्मा गाँधी नमक कर को अन्य करों की तुलना में अधिक दमनात्मक क्यों मानते थे?
स्रोत 4
‘कल हम नमक कर क़ानून तोड़ेंगे’
5 अप्रैल 1930 को महात्मा गाँधी ने दाण्डी में कहा था :
जब मैं अपने साथियों के साथ दाण्डी के इस समुद्रतटीय टोले की तरफ चला था तो मुझे यकीन नहीं था कि हमें यहाँ तक आने दिया जाएगा। जब मैं साबरमती में था तब भी यह अफ़वाह थी कि मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है। तब मैंने सोचा था कि सरकार मेरे साथियों को तो दाण्डी तक आने देगी लेकिन मुझे निश्चय ही यह छूट नहीं मिलेगी। यदि कोई यह कहता कि इससे मेरे हृदय में अपूर्ण आस्था का संकेत मिलता है तो मैं इस आरोप को नकारने वाला नहीं हूँ। मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ, इसमें शांति और अहिंसा का कम हाथ नहीं है; इस सत्ता को सब महसूस करते हैं। अगर सरकार चाहे तो वह अपने इस आचरण के लिए अपनी पीठ थपथपा सकती है क्योंकि सरकार चाहती तो हम में से हरेक को गिरफ़्तार कर सकती थी। जब सरकार यह कहती है कि उसके पास शांति की सेना को गिरफ़्तार करने का साहस नहीं था तो हम उसकी प्रशंसा करते हैं। सरकार को ऐसी सेना की गिरफ़्तारी में शर्म महसूस होती है। अगर कोई व्यक्ति ऐसा काम करने में शर्मिंदा महसूस करता है जो उसके पड़ोसियों को भी रास नहीं आ सकता, तो वह एक शिष्ट-सभ्य व्यक्ति है। सरकार को हमें गिररफ्तार न करने के लिए बधाई दी जानी चाहिए भले ही उसने विश्व जनमत का खयाल करके ही यह फैसला क्यों न लिया हो।
कल हम नमक कर कानून तोड़ेंगे। सरकार इसको बर्दाश्त करती है कि नहीं, यह सवाल अलग है। हो सकता है सरकार हमें ऐसा न करने दे लेकिन उसने हमारे जत्थे के बारे में जो धैर्य और सहिष्णुता दिखायी है उसके लिए वह अभिनंदन की पात्र है…।
यदि मुझे और गुजरात व देश भर के सारे मुख्य नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया जाता है तो क्या होगा? यह आंदोलन इस विश्वास पर आधारित है कि जब एक पूरा राष्ट्र उठ खड़ा होता है और आगे बढ़ने लगता है तो उसे नेता की जरूरत नहीं रह जाती।
कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, खंड 49
$\Rightarrow$ इस भाषण के आधार पर बताइए कि गाँधी जी औपनिवेशिक राज्य को कैसे देखते थे?
असहयोग आन्दोलन की तरह अधिकृत रूप से स्वीकृत राष्ट्रीय अभियान के अलावा भी विरोध की असंख्य धाराएँ थीं। देश के विशाल भाग में किसानों ने दमनकारी औपनिवेशिक वन कानूनों का उल्लंघन किया जिसके कारण वे और उनके मवेशी उन्हीं जंगलों में नहीं जा सकते थे जहाँ एक जमाने में वे बेरोकटोक घूमते थे। कुछ कस्बों में फैक्ट्री कामगार हड़ताल पर चले गए, वकीलों ने ब्रिटिश अदालतों का बहिष्कार कर दिया और विद्यार्थियों ने सरकारी शिक्षा संस्थानों में पढ़ने से इनकार कर दिया। 1920-22 की तरह इस बार भी गाँधी जी के आहवान ने तमाम भारतीय वर्गों को औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध अपना असंतोष व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया। जवाब में सरकार असंतुष्टों को हिरासत में लेने लगी। नमक सत्याग्रह के सिलसिले में लगभग 60,000 लोगों को गिरफ़्तार किया गया। गिरफ़्तार होने वालों में गाँधी जी भी थे।
समुद्र तट की ओर गाँधी जी की यात्रा की प्रगति का पता उनकी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए तैनात पुलिस अफसरों द्वारा भेजी गई गोपनीय रिपोरों से लगाया जा सकता है। इन रिपोरों में रास्ते के गाँवों में गाँधी जी द्वारा दिए गए भाषण भी मिलते हैं जिनमें उन्होंने स्थानीय अधिकारियों से आहवान किया था कि वे सरकारी नौकरियाँ छोड़कर स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल हो जाएँ। वसना
नामक गाँव में गाँधी जी ने ऊँची जाति वालों को संबोधित करते हुए कहा था कि “यदि आप स्वराज के हक में आवाज़ उठाते हैं तो आपको अछूतों की सेवा करनी पड़ेगी। सिर्फ नमक कर या अन्य करों के खत्म हो जाने से आपको स्वराज नहीं मिल जाएगा। स्वराज के लिए आपको अपनी उन गल्तियों का प्रायश्चित करना होगा जो आपने अछूतों के साथ की हैं। स्वराज के लिए हिंदू, मुसलमान, पारसी और सिख, सबको एकजुट होना पडेगा। ये स्वराज की सीढ़ियाँ हैं। “पुलिस के जासूसों ने अपनी रिपोर्टों में लिखा था कि गाँधी जी की सभाओं में तमाम जातियों के औरत-मर्द शामिल हो रहे हैं। उनका कहना था कि हज़ारों वॉलंटियर राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिए सामने आ रहे हैं। उनमें से बहुत सारे ऐसे सरकारी अफ़सर थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन में अपने पदों से इस्तीफ़े दे दिए थे। सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में जिला पुलिस सुपरिंटेंडेंट (पुलिस अधीक्षक) ने लिखा था कि “श्री गाँधी शांत और निश्चित दिखाई दिए। वे जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, उनकी ताकत बढ़ती जा रही है।”
नमक यात्रा की प्रगति को एक और स्रोत से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी समाचार पत्रिका टाइम को गाँधी जी की कदकाठी पर हँसी आती थी। पत्रिका ने उनके “तकुए जैसे शरीर” और “मकड़ी जैसे पेडू” का ख़ूब मज़ाक उड़ाया था। इस यात्रा के बारे में अपनी पहली रिपोर्ट में ही टाइम ने नमक यात्रा के मंजिल तक पहुँचने पर अपनी गहरी शंका व्यक्त कर दी थी। उसने दावा किया कि दूसरे दिन पैदल चलने के बाद गाँधी जी “ज़मीन पर पसर गए थे।” पत्रिका को इस बात पर विश्वास नहीं था कि इस “मरियल साधु के शरीर में और आगे जाने की ताकत बची है।” लेकिन एक हफ़्ते में ही पत्रिका की सोच बदल गई। टाइम ने लिखा कि इस यात्रा को जो भारी जनसमर्थन मिल रहा है उसने अंग्रेज़ शासकों को “ग़हरे तौर पर बेचैन” कर दिया है। अब वे भी गाँधी जी को ऐसा “साधु” और “राजनेता” कह कर सलामी देने लगे हैं जो “ईसाई धर्मावलंबियों के खिलाफ ईसाई तरीकों का ही हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है।”
चित्र 11.8
जनवरी 1931 में जेल से महात्मा गाँधी को रिहाई के बाद आंदोलन की भावी योजना के बारे में चर्चा करने के लिए इलाहाबाद में कांग्रेस के नेताओं की बैठक हुई थी।
इस चित्र में आप (दाएँ से बाएँ) जवाहरलाल नेहरू, जमनालाल बजाज, सुभाष चंद्र बोस, गाँधी जी, महादेव देसाई (अग्रभाग में), सरदार वल्लभ भाई पटेल को देख सकते हैं।
स्रोत 5
पृथक निर्वाचिका के बारे में समस्या
गोल मेज सम्मेलन के दौरान महात्मा गाँधी ने दमित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचिका प्रस्ताव के ख़लाफ़ अपनी दलील पेश करते हुए कहा था :
“अस्पृश्यों” के लिए पृथक निर्वाचिका का प्रावधान करने से उनकी दासता स्थायी रूप ले लेगी…। क्या आप चाहते हैं कि “अस्पृश्य” हमेशा “अस्पृश्य” ही बने रहें? पृथक निर्वाचिका से उनके प्रति कलंक का यह भाव और मजबूत हो जाएगा। जरूरत इस बात की है कि “अस्पृश्यता” का विनाश किया जाए और जब आप यह लक्ष्य प्राप्त कर लें तो एक अड़ियल “श्रेष्ठ” वर्ग द्वारा एक “कमतर” वर्ग पर थोप दी गई यह अवैध व्यवस्था भी समाप्त हो जाएगी। जब आप इस अवैध प्रथा को नष्ट कर देंगे तो किसी को पृथक निर्वाचिका की आवश्यकता ही कहाँ रह जाएगी?
3.2 संवाद
नमक यात्रा कम से कम तीन कारणों से उल्लेखनीय थी। पहला, यही वह घटना थी जिसके चलते महात्मा गाँधी दुनिया की नजर में आए। इस यात्रा को यूरोप और अमेरिकी प्रेस ने व्यापक कवरेज दी। दूसरे, यह पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसमें औरतों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। समाजवादी कार्यकर्ता कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने गाँधी जी को समझाया कि वे अपने आंदोलनों को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। कमलादेवी खुद उन असंख्य औरतों में से एक थीं जिन्होंने नमक या शराब कानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ्तारी दी थी। तीसरा और संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा।
इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में “गोल मेज सम्मेलनों” का आयोजन शुरू किया। पहला गोल मेज सम्मेलन नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए। इसी कारण अंततः यह बैठक निरर्थक साबित हुई। जनवरी 1931 में गाँधी जी को जेल से रिहा किया गया। अगले ही महीने वायसराय के साथ उनकी कई लंबी बैठकें हुई। इन्हीं बैठकों के बाद “गाँधी-इर्विन समझौते” पर सहमति बनी जिसकी शर्तों में सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना, सारे कैदियों की रिहाई और तटीय इलाकों में नमक उत्पादन की अनुमति देना शामिल था। रैडिकल राष्ट्रवादियों ने इस समझौते की आलोचना की क्योंकि गाँधी जी वायसराय से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हासिल नहों कर पाए थे। गाँधी जी को इस संभावित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए केवल वार्ताओं का आश्वासन मिला था।
दूसरा गोल मेज सम्मेलन 1931 के आखिर में लंदन में आयोजित हुआ। उसमें गाँधी जी कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे। गाँधी जी का कहना था कि उनकी पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है। इस दावे को तीन पार्टियों ने चुौौती दी। मुस्लिम लीग का कहना था कि वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है। राजे-रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके नियंत्रण वाले भूभाग पर कोई अधिकार नहीं है। तीसरी चुनौती तेज़-तर्रार वकील और विचारक बी. आर. अंबेडकर की तरफ़ से थी जिनका कहना था कि गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
लंदन में हुआ यह सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका इसलिए गाँधी जी को खाली हाथ लौटना पड़ा। भारत लौटने पर उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया। नए वायसराय लॉर्ड विलिंग्डन को गाँधी जी से बिलकुल हमदर्दी नहीं थी। अपनी बहन को लिखे एक निजी खत में
महात्मा गाँधी और राष्ट्रीय आंदोलन
चित्र 11.9
दूसरा गोल मेज सम्मेलन, लंदन, नवंबर 1931
महात्मा गाँधी ने “निम्न जातियों” के लिए पृथक निर्वाचिका की माँग का विरोध किया। उनका मानना था कि ऐसा करने पर समाज की मुख्यधारा में उनका एकीकरण नहीं हो पाएगा और वे सवर्ण हिंदुओं से हमेशा के लिए अलग रह जाएँगे।
विलिंग्डन ने लिखा था कि “अगर गाँधी न होता तो यह दुनिया वाकई बहुत खूबसूरत होती। वह जो भी कदम उठाता है उसे ईश्वर की प्रेरणा का परिणाम कहता है लेकिन असल में उसके पीछे एक गहरी राजनीतिक चाल होती है। देखता हूँ कि अमेरिकी प्रेस उसको गज़ब का आदमी बताती है…। लेकिन सच यह है कि हम निहायत अव्यावहारिक, रहस्यवादी और अंधविश्वासी जनता के बीच रह रहे हैं जो गाँधी को भगवान मान बैठी है,…”
बहरहाल, 1935 में नए गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट में सीमित प्रातिनिधिक शासन व्यवस्था का आश्वासन व्यक्त किया गया। दो साल बाद सीमित मताधिकार के आधार पर हुए चुनावों में कांग्रेस को जबर्दस्त सफलता मिली। 11 में से 8 प्रांतों में कांग्रेस के “प्रधानमंत्री” सत्ता में आए जो ब्रिटिश गवर्नर की देखरेख में काम करते थे।
कांग्रेस मंत्रिमंडलों के सत्ता में आने के दो साल बाद, सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू, दोनों ही हिटलर व नात्सियों के कट्टर आलोचक थे। तदनुरूप, उन्होंने फैसला लिया कि अगर अंग्रेज़ युद्ध समाप्त होने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने पर राजी हों तो कांग्रेस उनके युद्ध प्रयासों में सहायता दे सकती है। सरकार ने उनका प्रस्ताव ख़ारिज कर दिया। इसके विरोध में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने अक्टूबर 1939 में इस्तीफ़ा दे दिया। युद्ध समाप्त स्रोत 6
पृथक निर्वाचिका पर अम्बेडकर के विचार
दमित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचिका के प्रस्ताव पर महात्मा गाँधी की दलीलों के जवाब में अम्बेडकर ने लिखा था : ‘हमारे सामने एक ऐसा वर्ग है जो निश्चय ही अस्तित्व के संघर्ष में खुद को कायम नहीं रख सकता। जिस धर्म से ये लोग बँधे हुए हैं वह उन्हें सम्मानजनक स्थान प्रदान करने की बजाय कोढ़ियों की तरह देखता है जिनके साथ सामान्य संबंध नहीं रखे जा सकते। आर्थिक रूप से यह ऐसा वर्ग है जो दो वक्त की रोटी के लिए सवर्ण हिंदुओं पर पूरी तरह आश्रित है; जिसके पास आजीविका का कोई स्वतंत्र साधन नहीं है। न केवल हिंदुओं के सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण उनके सारे रास्ते बंद हैं बल्कि समग्र इतिहास में हिंदू समाज ने उनके सामने खुलने वाली हर संभावना को बंद कर दिया है जिससे दमित वर्गों को जीवन में ऊपर उठने का कोई अवसर न मिल सके।
इन परिस्थितियों में सभी निष्पक्ष सोच वाले व्यक्ति इस बात पर सहमत होंगे कि आज सबसे बड़ी आवश्यकता यही है कि ऐसे अपंग समुदाय के पास संगठित निरंकुशता के विरुद्ध जीवन के संघर्ष का एकमात्र रास्ता यही है कि उसे राजनीतिक सत्ता में हिस्सा मिले जिससे वह अपनी रक्षा कर सके…। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर, " न्हाट कांग्रेस एंड गाँधी हैव डन टू दि अनटचेबल्स”, राइटिंस्स एंड स्पीचेस, खंड 9 , पृ. 312 से।
चित्र 11.10
महात्मा गाँधी और राजेन्द्र प्रसाद वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो के साथ बैठक के लिए जाते हुए, 13 अक्टूबर 1939
इस बैठक में युद्ध में भारत की हिस्सेदारी के स्वरूप पर चर्चा की गई थी। जब वायसराय के साथ वार्ता टूट गई तो कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने इस्तीफ़ा दे दिया था।
होने के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए शासकों पर दबाव डालने के वास्ते 1940-1941 के दौरान कांग्रेस ने अलग-अलग सत्याग्रह कार्यक्रमों का आयोजन शुरू कर दिया।
मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बहुल इलाक़ों के लिए कुछ स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव पेश किया। अब राजनीतिक भूदृश्य काफ़ी जटिल हो गया था : अब यह संघर्ष भारतीय बनाम ब्रिटिश नहों रह गया था। अब यह कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ब्रिटिश शासन, तीन धुरियों के बीच का संघर्ष था। इसी समय ब्रिटेन में एक सर्वदलीय सरकार सत्ता में थी जिसमें शामिल लेबर पार्टी के सदस्य भारतीय आकांक्षाओं के प्रति हमदर्दी का रवैया रखते थे लेकिन सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल कट्टर साम्राज्यवादी थे। उनका कहना था कि उन्हें सम्राट का सर्वोच्च मंत्री इसलिए नहीं नियुक्त किया गया है कि वह ब्रिटिश साम्राज्य को टुकड़े-टुकड़े कर दें। 1942 के वसंत में चर्चिल ने गाँधी जी और कांग्रेस के साथ समझौते का रास्ता निकालने के लिए अपने एक मंत्री सर स्टेफ़र्ड क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स के साथ वार्ता में कांग्रेस ने इस बात पर जोर दिया कि अगर धुरी शक्तियों से भारत की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन कांग्रेस का समर्थन चाहता है तो वायसराय को सबसे पहले अपनी कार्यकारी परिषद् में किसी भारतीय को एक रक्षा सदस्य के रूप में नियुक्त करना चाहिए। इसी बात पर वार्ता टूट गई।
चित्र 11.11
स्टेफ़र्ड क्रिप्स के साथ महात्मा गाँधी, मार्च 1942
$\Rightarrow$ चर्चा कीजिए…
स्रोत 5 एवं 6 को पढ़िए। दमित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचिका के मुद्धे पर अम्बेडकर और महात्मा गाँधी के बीच काल्पनिक संवाद को लिखिए।
4. भारत छोड़ो
क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन छेड़ने का फैसला लिया। अगस्त 1942 में शुरू हुए इस आंदोलन को “अंग्रेज़ों भारत छोड़ो” का नाम दिया गया था। हालांकि गाँधी जी को फौरन गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फोड़ की कार्रवाइयों के जरिए आंदोलन चलाते रहे। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोध गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम में सतारा और पूर्व में मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में “स्वतंत्र” सरकार (प्रतिसरकार) की स्थापना कर दी गई थी। अंग्रेज़ों ने आंदोलन के प्रति काफी सख्त रवैया अपनाया फिर भी इस विद्रोह को दबाने में सरकार को साल भर से ज्यादा समय लग गया।
“भारत छोड़ो” (Guit India) आंदोलन सही मायने में एक जनांदोलन था जिसमें लाखों आम हिंदुस्तानी शामिल थे। इस आंदोलन ने युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपने कॉलेज छोड़कर जेल का रास्ता अपनाया। जिस दौरान कांग्रेस के नेता जेल में थे उसी समय जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फैलाने में लगे थे। इन्हीं सालों में लीग को पंजाब और सिंध में अपनी पहचान बनाने का मौका मिला जहाँ अभी तक उसका कोई खास वजूद नहीं था।
जून 1944 में जब विश्व युद्ध समाप्ति की ओर था तो गाँधी जी को रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और
सतारा, 1943
उन्नीसवीं सदी के आखिर से जाति व्यवस्था और जमींदारी के खिलाफ महाराष्ट्र में एक गैर-ब्राहमण आंदोलन विकसित हो चुका था। इस आंदोलन ने 1930 के दशक तक राष्ट्रवादी आंदोलन के साथ संबंध स्थापित कर दिया था।
1943 में महाराष्ट्र के सतारा जिले के कुछ युवा नेताओं ने सेवा दलों तथा तूफान दलों (ग्राम इकाई) के साथ मिलकर एक प्रतिसरकार (समानांतर सरकार) की स्थापना कर ली थी। उन्होंने जन-अदालतों का आयोजन किया तथा रचनात्मक कार्य किए। कुनबी किसानों के दबदबे और दलितों के सहयोग से चलने वाली सतारा प्रतिसरकार, सरकारी दमन तथा अंतिम दौर में कांग्रेस की असहमति के बावजूद 1946 के चुनावों तक चलती रही।
चित्र 11.12
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बम्बई में औरतों का एक जुलूस।
लीग के बीच फासले को पाटने के लिए जिन्ना के साथ कई बार बात की। 1945 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी। यह सरकार भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय लॉर्ड वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।
1946 की शुरुआत में प्रांतीय विधान मंडलों के लिए नए सिरे से चुनाव कराए गए। “सामान्य” श्रेणी में कांग्रेस को भारी सफलता मिली। मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर मुस्लिम लीग को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। राजनीतिक ध्रुवीकरण पूरा हो चुका था। 1946 की गर्मियों में कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को एक ऐसी संघीय व्यवस्था पर राज़ी करने का प्रयास किया जिसमें भारत के भीतर विभिन्न प्रांतों को सीमित स्वायत्तता दी जा सकती थी। कैबिनेट मिशन का यह प्रयास भी विफल रहा। वार्ता टूट जाने के बाद जिन्ना ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए लीग की माँग के समर्थन में एक “प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस” का आहवान किया। इसके लिए 16 अगस्त, 1946 का दिन तय किया गया था। उसी दिन कलकत्ता में खूनी संघर्ष शुरू हो गया। यह हिंसा कलकत्ता से शुरू होकर ग्रामीण बंगाल, बिहार और संयुक्त प्रांत व पंजाब तक फैल गई। कुछ स्थानों पर मुसलमानों को तो कुछ अन्य स्थानों पर हिंदुओं को निशाना बनाया गया।
चित्र 11.13
दायों ओर जवाहरलाल नेहरू तथा बायों ओर बैठे सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ विचार-विमर्श करते महात्मा गाँधी।
नेहरू और पटेल कांग्रेस के भीतर दो अलग राजनीतिक प्रवृत्तियों समाजवादी और रूढ़िवादी का प्रतिनिधित्व करते थे। महात्मा गाँधी को अकसर इन दोनों समूहों के बीच मध्यस्थता करनी पड़ती थी।
फरवरी 1947 में वावेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को वायसराय नियुक्त किया गया। उन्होंने वार्ताओं के एक अंतिम दौर का आहवान किया। जब सुलह के लिए उनका यह प्रयास भी विफल हो गया तो उन्होंने ऐलान कर दिया कि ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता दे दी जाएगी लेकिन उसका विभाजन भी होगा। औपचारिक सत्ता हस्तांतरण के लिए 15 अगस्त का दिन नियत किया गया। उस दिन भारत के विभिन्न भागों में लोगों ने जमकर खुशियाँ मनायीं। दिल्ली में जब संविधान सभा के अध्यक्ष ने मोहनदास करमचंद गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देते हुए संविधान सभा की बैठक शुरू की तो “बहुत देर तक करतल ध्वनि” होती रही। असेम्बली के बाहर भीड़ “महात्मा गाँधी की जय” के नारे लगा रही थी।
5. आखिरी, बहादुराना दिन
15 अगस्त 1947 को राजधानी में हो रहे उत्सवों में महात्मा गाँधी नहीं थे। उस समय वे कलकत्ता में थे लेकिन उन्होंने वहाँ भी न तो किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया, न ही कहीं झंडा फहराया। गाँधी जी उस दिन 24 घंटे के उपवास पर थे। उन्होंने इतने दिन तक जिस स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था वह एक अकल्पनीय कीमत पर उन्हें मिली थी। उनका राष्ट्र विभाजित था; हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन पर सवार थे।
उनके जीवनी लेखक डी.जी. तेंदुलकर ने लिखा है कि सितंबर और अक्तूबर के दौरान गाँधी जी “पीड़तों को सांत्वना देते हुए अस्पतालों और शरणार्थी शिविरों के चक्कर लगा रहे थे।” उन्होंने “सिखों, हिंदुओं और मुसलमानों से आहवान किया कि वे अतीत को भुला कर अपनी पीड़ा पर ध्यान देने की बजाय एक-दूसरे के प्रति भाईचारे का हाथ बढ़ाने तथा शांति से रहने का संकल्प लें…।”
गाँधी जी और नेहरू के आग्रह पर कांग्रेस ने “अल्पसंख्यकों के अधिकारों” पर एक प्रस्ताव पारित कर दिया। कांग्रेस ने “दो राष्ट्र सिद्धांत” को कभी स्वीकार नहीं किया था। जब उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध बँटवारे पर मंजूरी देनी पड़ी तो भी उसका दुढ़ विश्वास था कि “भारत बहुत सारे धर्मों और बहुत सारी नस्लों का देश है और उसे ऐसे ही बनाए रखा जाना चाहिए।” पाकिस्तान में हालात जो रहें, भारत “एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा जहाँ सभी नागरिकों को पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगे तथा धर्म के आधार पर भेदभाव के बिना सभी को राज्य की ओर से संरक्षण का अधिकार होगा।” कांग्रेस ने आश्वासन दिया कि “वह अल्पसंख्यकों के नागरिक अधिकारों के किसी भी अतिक्रमण के विरुद्ध हर मुमकिन रक्षा करेगी।”
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एक दंगाग्रस्त गाँव में जाते हुए महात्मा गाँधी, 1947
बहुत सारे विद्वानों ने स्वतंत्रता बाद के महीनों को गाँधी जी के जीवन का “श्रेष्ठतम क्षण” कहा है। बंगाल में शांति स्थापना के लिए अभियान चलाने के बाद गाँधी जी दिल्ली आ गए। यहाँ से वे दंगाग्रस्त पंजाब के जिलों में जाना चाहते थे। लेकिन राजधानी में ही शरणार्थियों की आपत्तियों के कारण उनकी सभाएँ अस्त-व्यस्त होने लगीं। बहुत सारे शरणार्थियों को उनकी सभाओं में कुरान की आयतों को पढ़ने की प्रथा पर आपत्ति थी। कई लोग इस बात पर नारे लगाने लगते थे कि गाँधी जी उन हिंदुओं और सिखों की पीड़ा के बारे में बात क्यों नहों करते जो अभी भी पाकिस्तान में फँसे हुए हैं। डी.जी. तेंदुलकर के शब्दों में, गाँधी जी “पाकिस्तान में भी अल्पसंख्यक समुदाय के कष्टों के बारे में समान रूप से चिंतित थे। उन्हें राहत प्रदान करने के लिए वे वहाँ भी जाना चाहते थे। लेकिन वहाँ वे किस
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महात्मा गाँधी की मृत्यु, एक प्रचलित चित्र लोक छवियों में महात्मा गाँधी को एक देवता का रूप दे दिया गया था और उन्हें राष्ट्रवादी आंदोलन में एकीकरण को समर्पित शक्ति के रूप में देखा जाता था। यहाँ आप जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल, यानी कांग्रेस के भीतर दो अलग-अलग धाराओं के प्रतिनिधियों को गाँधी जी की चिता के दोनों ओर खड़ा हुआ देख सकते हैं। मध्य में स्वर्ग से महात्मा गाँधी उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं।
मुँह से जा सकते थे जबकि दिल्ली में ही वे मुसलमानों को पूरी सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे पा रहे थे।”
20 जनवरी को गाँधी जी पर हमला हुआ लेकिन वे अविचलित अपना काम करते रहे। 26 तारीख को उन्होंने अपनी प्रार्थना सभा में इस बात का जिक्र किया कि बीते सालों में इस दिन (26 जनवरी) को किस तरह स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता था। अब स्वतंत्रता मिल चुकी थी, लेकिन उसके शुरुआती महीने गहरे तौर पर मोहभंग वाले साबित हुए। फिर भी उनको विश्वास था कि “बुरी घड़ी बीत चुकी है”, भारत के लोग अब “सभी वर्गों और धर्मों की समानता” के लिए काम करेंगे तथा “अल्पसंख्यक समुदाय पर बहुल समुदाय का वर्चस्व व श्रेष्ठता स्थापित नहीं होगी भले ही अल्पसंख्यक समुदाय संख्या या प्रभाव की दृष्टि से कितना भी छोटा क्यों न हो।” उन्होंने यह आशा भी जतायी कि “यद्यपि भौगोलिक और राजनीतिक रूप से भारत दो भागों में बँट चुका है लेकिन हृदय में हम सभी सदैव मित्र एवं भाई रहेंगे, एक-दूसरे को मदद व सम्मान देते रहेंगे और शेष विश्व के लिए हम एक ही होंगे।”
गाँधी जी ने स्वतंत्र और अखंड भारत के लिए जीवन भर युद्ध लड़ा। फिर भी, जब देश विभाजित हो गया तो उनकी यही इच्छा थी कि दोनों देश एक-दूसरे के साथ सम्मान और दोस्ती के संबंध बनाए रखें।
बहुत सारे भारतीयों को उनका यह सहृदय आचरण पसंद नहीं था। 30 जनवरी की शाम को गाँधी जी की दैनिक प्रार्थना सभा में एक युवक ने उनको गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया। उनके हत्यारे ने कुछ समय बाद आत्मसमर्पण कर दिया। उसका नाम नाथूराम गोडसे था।
गाँधी जी की मृत्यु से चारों ओर गहरे शोक की लहर दौड़ गई। भारत भर के राजनीतिक फलक पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई। जॉर्ज ऑरवेल तथा एलबर्ट आइंस्टीन जैसे विख्यात गैर-भारतीयों ने भी उनकी मृत्यु पर हृदयस्पर्शी शब्दों में शोक संदेश भेजे। एक ज़माने में उनकी कद-काठी और कथित रूप से बेतुके विचारों के लिए गाँधी जी का उपहास करने वाली टाइम पत्रिका ने उनके बलिदान की तुलना अब्राहम लिंकन के बलिदान से की। पत्रिका ने कहा कि एक धर्माधध अमेरिकी ने लिंकन को मार दिया था क्योंकि उन्हें नस्ल या रंग से परे मानवमात्र की समानता में विश्वास था और दूसरी तरफ एक धर्मांध हिंदू ने गाँधी जी की जीवन लीला समाप्त कर दी क्योंकि गाँधी जी ऐसे कठिन क्षणों में भी दोस्ती और भाईचारे में विश्वास रखते थे, विभिन्न धर्मों को मानने वालों के बीच दोस्ती की अनिवार्यता पर बल देते थे। टाइम ने लिखा, “दुनिया जानती थी कि उसने उनकी (गाँधी जी की) मृत्यु पर वैसे ही मौन धारण कर लिया है जिस प्रकार उसने लिंकन की मृत्यु पर किया था, और यह समझना एक मायने में बहुत गहरा और बहुत साधारण काम है।”
6. गाँधी को समझना
हमारे पास बहुत सारे स्रोत उपलब्ध हैं जिनके जरिए हम गाँधी जी के राजनीतिक सफर तथा राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास को सूत्रबद्ध कर सकते हैं।
6.1 सार्वजनिक स्वर और निजी लेखन
इस दिशा में महात्मा गाँधी और उनके सहयोगियों व प्रतिद्वंद्वियों, दोनों तरह के समकालीनों के लेखन और भाषण एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। इन लेखनों में हमें इस बात का खयाल रखना चाहिए कि किस चीज को जनता के लिए लिखा गया था और किस चीज को अन्य उद्देश्यों के लिए लिखा गया था। उदाहरण के लिए, भाषणों से हमें किसी व्यक्ति के सार्वजनिक विचारों को सुनने का मौका मिलता है जबकि उसके व्यक्तिगत पत्र हमें उसके निजी विचारों की झलक देते हैं। इन पत्रों में हम लिखने वाले को अपना गुस्सा और पीड़ा, असंतोष और बेचैनी, अपनी आशाएँ और हताशाएँ व्यक्त करते हुए देख सकते हैं। इनमें से बहुत सारी बातों को वह अपने सार्वजनिक वक्तव्यों में व्यक्त नहीं कर सकते। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि कई बार निजी-सार्वजनिक का यह फर्क टूट जाता है। बहुत सारे पत्र व्यक्तियों को लिखे जाते हैं इसलिए वे व्यक्तिगत पत्र होते हैं लेकिन कुछ हद तक वे जनता के लिए भी होते हैं। उन पत्रों की भाषा इस अहसास से भी तय होती है कि संभव है एक दिन उन्हें प्रकाशित कर दिया जाएगा। किसी पत्र के प्रकाशित हो जाने की आशंका के कारण बहुधा लोग निजी पत्रों में भी अपना मत स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त नहीं कर पाते। महात्मा गाँधी हरिजन नामक अपने अखबार में उन पत्रों को प्रकाशित करते थे जो उन्हें लोगों से मिलते थे। नेहरू ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान उन्हें लिखे गए पत्रों का एक संकलन तैयार किया और उसे ए बंच ऑफ ओल्ड लेटर्स (पुराने पत्रों का पुलिंदा) के नाम से प्रकाशित किया।
स्रोत 7
एक घटना पत्रों के आइने में
1920 के दशक में जवाहरलाल नेहरू समाजवाद से लगातार प्रभावित होते जा रहे थे और 1928 में जब वे यूरोप की यात्रा से लौटे तो सोवियत संघ के प्रयोगों से गहरे तौर से प्रभावित थे। जब उन्होंने समाजवादियों (जयप्रकाश नारायण, नरेन्द्र देव, एन.जी. रंगा एवं अन्य) के साथ घनिष्ठतापूर्वक काम करना शुरू किया तो कांग्रेस के भीतर समाजवादियों और रूढ़िवादियों के बीच एक खाई पैदा हो गई। 1936 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद नेहरू ने फ़ासीवाद के खिलाफ़ जमकर बयान दिए और मजदूरों व किसानों की माँगों का समर्थन किया।
नेहरू के समाजवादी वक्तव्यों से चिंतित रूढ़िवादियों ने राजेन्द्र प्रसाद और सरदार पटेल के नेतृत्व में कांग्रेस वर्किंग कमेटी से इस्तीफ़े की धमकी दे डाली। दूसरी ओर, बम्बई के कुछ प्रसिद्ध उद्योगपतियों ने नेहरू की आलोचना करते हुए बयान जारी कर दिया। इसके बाद प्रसाद और नेहरू, दोनों महात्मा गाँधी के पास गए और वर्धा स्थित उनके आश्रम में उनसे मिले। गाँधी जी ने एक बार फिर मध्यस्थ की भूमिका अदा करते हुए नेहरू के रेडिकल तेवरों पर अंकुश लगाने तथा प्रसाद एवं अन्य नेताओं को नेहरू के नेतृत्व की अहमियत पर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया।
ए बंच ऑफ ओल्ड लेटर्स में नेहरू ने उस समय के बहुत सारे पत्रों को प्रकाशित किया है। इन पत्रों के अंशों को आगे पढ़िए:
$\textbf{ए बंच ऑफ लेटर्स से}$
$\text{मेरे प्रिय जवाहरलाल जी}, \\ \text{वर्धा, 1 जुलाई 1936}$
कल आपसे विदा लेने के बाद हमने महात्मा जी के साथ लंबी बातचीत और आपस में देर तक चर्चा की। हम समझते हैं कि आपको हमारी ओर से अपनाए गए मार्ग पर काफी दुख है और हमारे पत्र के भावों से आप विशेषतः आहत हुए हैं। आपको शर्मिदा करना या आपको चोट पहुँचाना कभी भी हमारा इरादा नहीं था और अगर आपको ऐसा लगता है कि इससे आपको ठेस पहुँची है तो हम बिना किसी हिचक के अपना पत्र वापस ले लेते या उसमें संशोधन कर लेते। परंतु हमने समग्र स्थिति पर पुनर्विचार करने के बाद यह पत्र तथा अपने इस्तीफे वापस लेने का फैसला कर लिया है।
हमें लगता है कि प्रेस में छपे आपके सारे बयानों में आप कांग्रेस के सामान्य कार्यक्रम पर उतना नहीं बोल रहे हैं जितना कि एक ऐसे विषय पर बोल रहे हैं जिसे कांग्रेस ने स्वीकृति नहीं दी है और ऐसा करते हुए आप वर्किंग कमेटी में हमारे मुट्ठी भर सहयोगियों और कांग्रेस के अल्पसंख्यक वर्ग के प्रवक्ता की तरह बोल रहे हैं न कि बहुल वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में, जिसकी कांग्रेस अध्यक्ष के नाते हमें आपसे अपेक्षा थी।
हमारे विरुद्ध लगातार एक अभियान चलाया जा रहा है जिसमें हमें ऐसे व्यक्तियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिनका समय बीत चुका है, जो पुराने पड़ चुके और वर्तमान में अप्रासंगिक हो चुके विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमें ऐसे लोगों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जो देश की प्रगति में बाधक हैं और जिन्हें उन पदों से हटा दिया जाना चाहिए जो उन्होंने अनाधिकार प्राप्त कर लिए हैं… हमने महसूस किया है कि अन्य लोगों ने हमारे साथ भारी अन्याय किया है और कर रहे हैं, तथा हमें आपसे वह संरक्षण नहीं मिल रहा है जो एक सहकर्मी और हमारा अध्यक्ष होने के नाते हमें आपसे मिलना चाहिए…।
$\text{आपका } \\ \text{राजेन्द्र प्रसाद}$
मेरे प्रिय बापू,
इलाहाबाद, 5 जुलाई 1936
मैं कल रात ही यहाँ पहुँचा हूँ। जब से मैं वर्धा से आया हूँ, शारीरिक दुर्बलता और मानसिक अशांति से घिरा हुआ हूँ।
… यूरोप से लौटने के बाद से मैंने पाया है कि वर्किंग कमेटी की बैठकों में मैं बुरी तरह थक जाता हूँ। मेरी ऊर्जा क्षीण पड़ जाती है और हर नए अनुभव के बाद मैं और ज्यादा बूढ़ा महसूस करने लगता हूँ..।
चीजों को दुरुस्त करने और संकट को टालने में आपने जो कष्ट उठाया है उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ।
मैंने राजेन्द्र बाबू द्वारा भेजा गया (दूसरा) पत्र दोबारा पढ़ा है और उन्होंने जो गंभीर आरोप मुझ पर लगाए हैं उन्हें देखा है…।
तथ्य को चाहे कितनी भी विन्म्रता से प्रस्तुत् किया जाए, उनका आशय यह है कि मैं एक असहनीय मुसीबत बन चुका हूँ और मेरे जो भी गुण हैं थोड़ी-बहुत क्षमता, ऊर्जा, गंभीरता, कमोबेश प्रभावित करने वाला व्यक्तित्व सभी खतरनाक बन चुके हैं क्योंकि वे एक गलत रथ (समाजवाद) को आगे बढ़ा रहे हैं। इन बातों के निष्कर्ष स्पष्ट हैं।
मैंने अपनी पुस्तक में और उसके पश्चात भी अपने वर्तमान विचारों के बारे में विस्तार से लिखा है। मेंरे बारे में कोई फैसला लेने के लिए सामग्री को कमी नहीं है। मेरे वे विचार आकस्मिक भी नहीं हैं। वे मेरा हिस्सा हैं और यद्यपि मैं भविष्य में उन्हें बदल सकता हूँ लेकिन जब तक मैं उन्हें नहीं छोड़ता मुझे उनको अभिव्यक्त करना ही होगा। क्योंकि मैं व्यापक एकता को महत्वपूर्ण मानता हूँ इसलिए मैंने कोमलतम शब्दों में उन्हें व्यक्त किया है और निश्चित निष्कर्ष की बजाय विचार-विमर्श के लिए प्रस्ताव के रूप में ही ज्यादा प्रस्तुत किया है। मुझे इस पद्धति में और कांग्रेस जो कुछ भी कर रही है, उसके बीच कोई टकराव दिखाई नहीं देता। जहाँ तक चुनावों का संबंध है, मेरा मानना है कि मेरा रवैया इस दिशा में निश्चय ही एक लाभकारी साधन था क्योंकि उससे जनता में उत्साह का संचार हुआ है। परंतु मेरे कोमल और अस्पष्ट रैये को मेरे सहयोगी खतरनाक और क्षतिकारक मानते हैं। मुझे यहाँ तक कहा गया है कि भारत में गरीबी और बेरोजगारी पर इस तरह बार-बार जोर देना बेवकूफी थी, या कम से कम यह गलत तो था ही…।
आपने मुझे बताया था कि आप कोई वक्तव्य जारी करना चाहते हैं। मैं आपके वक्तव्य का स्वागत करूँगा क्योंकि मैं मानता हूँ कि हर दृष्टिकोण देश के सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
प्रेमपूर्वक आपका जवाहरलाल
प्रिय जवाहरलाल,
सेगाँव, 15 जुलाई 1936
तुम्हारा पत्र मेरा हृदय छू गया। तुम्हें सबसे ज्यादा ठेस महसूस हुई है। तथ्य यह है कि तुम्हारे साथियों के पास तुम्हारे जैसा साहस और बेबाकी नहीं है। इसके परिणाम विनाशकारी रहे हैं। मैंने उन्हें हमेशा समझाया है कि वे तुमसे उन्मुक्त और निर्भय होकर बात करें। परंतु क्योंकि उनके पास साहस नहीं है इसलिए वे जब भी बोलते हैं ऊटपटाँग ही बोलते हैं और उससे तुम चिढ़ जाते हो। मैं तुम्हें बताता हूँ, वे तुम्हें इसलिए डरा रहे हैं क्योंकि तुम उनसे चिढ़ जाते हो और उनके सामने धैर्य खो देते हो। वे तुम्हारी फटकार और साहबी अंदाज से आहत हैं और सबसे बढ़कर वे तुम्हारे भीतर जो अचूकता और श्रेष्ठतर ज्ञान का भाव दिखायी देता है उससे परेशान हैं। उन्हें लगता है कि तुमने उनके साथ न्यूनतम सौम्यता का व्यवहार भी नहीं किया है और कभी भी समाजवादियों के व्यंग्यबाणों या गलत निरूपण से उनका बचाव नहीं किया है।
मुझे यह पूरा प्रसंग एक त्रासद प्रहसन जैसा दिखाई दे रहा है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम भी इस पूरे मसले को हलका होकर देखो।
इस काँटों के ताज (कांग्रेस की अध्यक्षता) के लिए तुम्हारा नाम मैंने ही प्रस्तावित किया था। भले ही सिर छिल जाए इसे उतारना मत। कमेटी की बैठकों में अपना हास्य-विनोद दोबारा दिखाओ। यह तुम्हारे लिए सबसे सामान्य भूमिका है। चिंतित, चिड़ाचड़े व्यक्ति का स्वभाव तुम पर नहीं जँचता।
मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे तार के माध्यम से बताओ कि यह पत्र पढ़ते ही तुम्हें वैसी ही खुशी मिली है जैसे लाहौर में नए साल के मौके पर तुम खुश हुए थे जब, कहते हैं कि तुम तिरंगे के चारों ओर झूम-झूम कर नाचे थे। अपने कंठ को थोड़ा आराम दो।
मेरा प्यार बापू
$\Rightarrow$
(क) इन पत्रों से इस बारे में क्या पता चलता है कि समय के साथ कांग्रेस के आदर्श किस तरह विकसित हो रहे थे?
(ख) राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गाँधी की भूमिका के बारे में इन पत्रों से क्या पता चलता है?
(ग) क्या ऐसे पत्रों से कांग्रेस की आंतरिक कार्यप्रणाली तथा राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में कोई विशेष दृष्टि प्राप्त होती है?
6.2 छवि गढ़ना
आत्मकथाएँ भी हमें उस अतीत का ब्योरा देती हैं जो मानवीय विवरणों के हिसाब से काफ़ी समृद्ध होता है। परंतु यहाँ भी हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम आत्मकथाओं को किस तरह पढ़ते हैं और उनकी कैसे व्याख्या करते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि ये आत्मकथाएँ प्राय: स्मृति के आधार पर लिखी गई होती हैं। उनसे हमें पता चलता है कि लिखने वाले को क्या याद रहा, उसे कौन सी चीजें महत्त्वपूर्ण दिखाई दीं या वह क्या याद रखना चाहता था, या वह औरों की नज़र में अपनी ज़िंदगी को किस तरह दर्शाना चाहता है। आत्मकथा लिखना अपनी तस्वीर गढ़ने का एक तरीक़ा है। फलस्वरूप, इन विवरणों को पढ़ते हुए हमें वह देखने का प्रयास करना चाहिए जो लेखक हमें नहीं दिखाना चाहता : हमें उन चुप्पियों का कारण समझना चाहिए इच्छित या अनिच्छित विस्मृति के उन कृत्यों को समझना चाहिए।
6.3 पुलिस की नज़र से
औपनिवेशिक शासक ऐसे तत्वों पर हमेशा कड़ी नजर रखते थे जिन्हें वे अपने विरुद्ध मानते थे। इस लिहाज से सरकारी रिकॉड्ड्स भी हमारे अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। उस समय पुलिसकर्मियों तथा अन्य अधिकारियों द्वारा लिखे गए पत्र तथा रिपोर्टे गोपनीय होती थीं; लेकिन अब ये दस्तावेज़ अभिलेखागारों में उपलब्ध हैं जिन्हें कोई भी देख सकता है।
आइए एक ऐसे ही स्रोत को देखें। बीसवीं सदी के शुरुआती सालों से गृह विभाग द्वारा तैयार की जाने वाली पाक्षिक रिपोर्टें (हर पंद्रह दिन या हर पखवाडेे में तैयार होने वाली रिपोर्टें) इस दिशा में काफ़ी महत्त्वपूर्ण रही हैं। ये रिपोर्टें स्थानीय इलाक़ों से पुलिस की माऱ़्त मिलने वाली सूचनाओं पर आधारित होती थीं लेकिन उनमें यह भी दिख जाता था कि आला अधिकारी क्या देखते थे या क्या मानना चाहते थे। राजद्रोह और विद्रोह की संभावना मानते हुए भी वे ख़ुद को इस बात का आश्वासन देना चाहते थे कि इन आशंकाओं का कोई आधार नहीं है। यदि आप नमक सत्याग्रह के समय की पाक्षिक रिपोर्टों को देखें तो पाएँगे कि गृह विभाग यह मानने को तैयार नहीं था कि महात्मा गाँधी की कार्रवाइयों के प्रति कोई व्यापक जनसमर्थन पैदा हो रहा था। रिपोर्टों में इस यात्रा को एक नाटक, एक करतब, ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाने के प्रति अनिच्छुक तथा शासन के अंतर्गत सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे लोगों को गोलबंद करने की एक हताश कोशिश के रूप में प्रस्तुत किया जाता था।
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सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान बम्बई में कांग्रेस के वॉलंटियरों की पुलिस से भिड़ंत।
$\Rightarrow$ क्या आपको इस तसवीर और । पुलिस की पाक्षिक रिपोरों में दी | गई जानकारियों के बीच कोई अंतर्विरोध दिखायी देता है?
गृह विभाग की पाक्षिक रिपोर्टे
(गोपनीय)
मार्च 1930 का पहला पखवाड़ा
गुजरात में आ रहे तेज़ राजनीतिक बदलावों पर यहाँ गहरी नज़र रखी जा रही है। इनसे प्रांत की राजनीतिक परिस्थितियों पर किस हद तक और क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अभी अंदाजा लगाना मुश्किल है। रबी की फसल अच्छी हुई है इसलिए फिलहाल किसान फसलों की कटाई में व्यस्त हैं। विद्यार्थी आने वाली परीक्षाओं की तैयारी में जुटे हैं।
मध्य प्रांत और बेरार
श्री वल्लभ भाई पटेल की गिरफ्तारी पर कांग्रेसियों के अलावा और कहीं कोई खास उत्तेजना पैदा नहीं हुई। लेकिन नागपुर नगर कांग्रेस कमेटी द्वारा गाँधी की यात्रा शुरू होने पर उन्हें बधाई देने के लिए आयोजित सभा में 3,000 से ज्यादा लोग जुटे थे।
बंगाल
गाँधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत पिछले पखवाड़े की सबसे महत्वपूर्ण घटना रही। श्री जे.एम. सेनगुप्ता ने अखिल बंगाल सविनय अवज्ञा परिषद् का गठन किया है। बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने अखिल बंगाल अवज्ञा परिषद् बनाई है। इन परिषदों के गठन के अलावा बंगाल में सविनय अवज्ञा के प्रश्न पर और कोई सक्रिय कदम अभी नहीं उठाया गया है।
जिलों से मिली रिपोटों से पता चलता है कि जो बैठकें आयोजित की गई उनमें लोगों ने कोई विशेष उत्साह नहीं दिखाया और आम जनता पर कोई गहरा असर नहीं छोड़ा है। गौरतलब बात यह है कि इन बैठकों में महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है।
बिहार और उड़ीसा
कांग्रेस की गतिविधि के बारे में रिपोर्ट करने लायक कुछ खास नहीं है। चौकीदारी टैक्स का भुगतान न करने के बारे में एक अभियान की काफी चर्चा हो रही है लेकिन अभी इस प्रयोग के लिए किसी इलाके का चुनाव नहीं किया गया है। गाँधी की गिरफ़्तारी के बारे में खूब कयास लगाए जा रहे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि यह भविष्यवाणी सच साबित न हो पाने के कारण उनकी योजनाएँ धरी की धरी रह गई हैं।
मद्रास
गाँधी का सविनय अवज्ञा अभियान शुरू होने से बाकी मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं। आम जनता उनकी यात्रा को नाटकीय और उनके कार्यक्रम को अव्यावहारिक मानती है परंतु क्योंकि हिंदू जनता उन्हें अगाध श्रद्धा की दृष्टि से देखती है इसलिए गिरफ्तारी की संभावना, जिसके बारे में वे खुद बहुत उत्सुक हैं, और उसके राजनीतिक प्रभावों के बारे में काफी गलतफहमियाँ फैली हुई हैं।
12 मार्च को सविनय अवज्ञा अभियान के उद्घाटन दिवस के रूप में मनाया गया। बंबई में सुबह को राष्ट्रीय झंडे को सलामी दी गई।
बम्बई
केसरी प्रेस ने आक्रामक भाषा का प्रयोग किया है और हमेशा की तरह आग उगलने के अंदाज में लिखा है : “अगर सरकार सत्याग्रह की ताकत परखना चाहती है तो उसे पता होना चाहिए कि सत्याग्रह की सक्रियता और निष्क्रियता, दोनों से सरकार को ही नुकसान पहुँचेगा। यदि सरकार गाँधी जी को गिरफ़्तार करती है तो उसे राष्ट्र के कोप का भाजन बनना पड़ेगा और यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो सविनय अवज्ञा आंदोलन फैलता जाएगा। इसलिए हमारा मानना है कि अगर सरकार श्री गाँधी को दंडित करती है तो भी राष्ट्र की विजय होगी और अगर सरकार उन्हें अपने रास्ते पर चलने देती है तो राष्ट्र की और भी बड़ी विजय होगी।”
दूसरी ओर विविध वृत्त नामक मध्यमार्गी अखबार ने इस आंदोलन की व्यर्थता की ओर संकेत किया है और कहा है कि यह आंदोलन अपना घोषित उद्देश्य प्राप्त नहीं कर पाया है लेकिन उसने सरकार को भी चेतावनी दी है कि दमन का रास्ता उसके उद्देश्य को कमजोर कर देगा।
स्रोत 8 जारी…
मार्च 1930 का दूसरा पखवाड़ा
बंगाल
सबका ध्यान समुद्र तट तक गाँधी की यात्रा और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने के लिए उनकी तैयारी पर केंद्रित है। चरमपपंधी अखबार उनकी गतिविधियों और भाषणों के बारे में विस्तार से लिख रहे हैं और पूरे बंगाल में हो रही बैठकों तथा उनमें पारित होने वाले प्रस्तावों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा रही है। परंतु गाँधी जिस सविनय अवज्ञा की वकालत कर रहे हैं उसके प्रति विशेष उत्साह नहीं दिखाई देता…।
सामान्य रूप से लोग इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि गाँधी के साथ क्या किया जाता है और संभावना यही है कि अगर उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई की गई तो बंगाल के ज्वलनशील हालात में चिंगारी भड़क उठेगी। लेकिन फिलहाल ऐसी आग भड़कने के कोई गंभीर आसार दिखाई नहीं देते।
मध्य प्रांत और बेरार
12 मार्च को गाँधी की यात्रा शुरू होने के अवसर पर नागपुर में इन बैठकों में काफी लोग शामिल हुए और ज्यादातर स्कूल-कॉलेज सूने दिखाई दिए।
शराब की दुकानों का बहिष्कार तथा वन क़ानूनों का उल्लंघन हमले की सबसे संभावित कार्यदिशा दिखाई पड़ती है।
पंजाब
ऐसा लगता है कि झेलम जिले में नमक क़ानून तोड़ने के लिए संगठित प्रयास किए जाएँगे; मुल्तान में जल कर न चुकाने के आंदोलन को पुनर्जीवित किया जाएगा; संभवत: गुजराँवाला में राष्ट्रीय झंडे के संबंध में कोई आंदोलन शुरू हो सकता है।
संयुक्त प्रांत
पिछले पखवाड़े के दौरान राजनीतिक गतिविधियों में निश्चित रूप से तेज़ी आई है। कांग्रेस पार्टी का मानना है कि जनता की रुचि बनाए रखने के लिए उसे कुछ अनोखा काम करना चाहिए। श्री गाँधी के आदेश पर वॉलंटियरों की भर्ती, गाँवों में प्रचार और नमक क्रानून के उल्लंघन की तैयारी जैसी गतिविधियाँ कई जिलों से आ रही हैं।
अप्रैल 1930 का पहला पखवाड़ा
संयुक्त प्रांत
इस पखवाड़े में चीजें बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी हैं। राजनीतिक सभाओं, जुलूसों और वॉलंटियरों की भर्ती के अलावा आगरा, कानपुर, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ, रायबरेली, फर्रुखाबाद, इटावा, बलिया और मैनपुरी में नमक कानून की खुलेआम अवहेलना की जा रही है।
चेवकी रेलवे स्टेशन पर पंडित जवाहरलाल नेहरू को 14 अप्रैल की सुबह गिरफ़्तार कर लिया गया था। उस समय वह यूथ लीग की बैठक में शामिल होने मध्य प्रांतों की ओर जा रहे थे। उन्हें रेलवे स्टेशन से फौरन नैनी सेंट्रल जेल ले जाया गया। वहाँ उन पर मुकदमा चला और उन्हें 6 माह के साधारण कारावास की सजा दी गई।
बिहार और उड़ीसा
कुछ स्थानों पर गैरक़ानूनी नमक उत्पादन के अनोखे, मगर छोटे प्रयास हो रहे हैं…।
मध्य प्रांत
जबलपुर में सेठ गोविंद दास ने रासायनिक नमक बनाने का प्रयास किया है जिसकी लागत सामान्य नमक के बाजार भाव से कई गुना ज्यादा रही।
मद्रास
जब पुलिस ने समुद्र के पानी को उबालकर बनाए गए नमक को जब्त करने का प्रयास किया तो विशाखापटनम में पुलिस को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। अन्य स्थानों पर अवैध नमक को जब्त करने का कोई खास विरोध नहीं किया गया है।
बंगाल
मुफ़स्सिल इलाकों में अवैध नमक निर्माण की कोशिशें की गई हैं। 24 परगना और मिदनापुर जिले इन गतिविधियों का मुख्य केंद्र रहे हैं।
वास्तव में बहुत कम नमक बनाया गया है और उसमें से भी ज्यादातर जब्त कर लिया गया है। उसको बनाने के लिए प्रयोग किए गए बर्तनों को नष्ट कर दिया गया।
$\Rightarrow$ पाक्षिक रिपोरों को ध्यान से पढ़िए। याद रखिए कि ये औपनिवेशिक गृह विभाग की गोपनीय रिपोटों के अंश हैं। इन रिपोरोटो में हमेशा केवल पुलिस की ओर से भेजी गई जानकारियों को ही नहों लिखा जाता था।
(1) स्रोत की पृष्ठभूमि से यह बात किस हद तक प्रभावित होती है कि इन रिपोटों में क्या कहा जा रहा है? उपरोक्त अंशों से उद्धरण लेते हुए अपने तर्क को स्पष्ट कीजिए।
(2) क्या आपको लगता है कि गृह विभाग महात्मा गाँधी की संभावित गिरफफ्तारी के बारे में लोगों की सोच को अपनी रिपोटों में सही ढंग से दर्ज नहीं कर रहा था? यदि आपका उत्तर हाँ है, तो उसके समर्थन में कारण बताइए। 5 अप्रैल 1930 को दांडी में अपने भाषण में गाँधी जी ने गिरफ़्तारियों के सवाल पर जो कहा था, उसे दोबारा पढ़िए।
(3) महात्मा गाँधी को क्यों गिर.फ्तार नहों किया गया?
(4) गृह विभाग लगातार यह क्यों कहता रहा कि दांडी यात्रा के प्रति लोगों में कोई उत्साह नहीं है।
6.4 अखबारों से
अंग्रेज़ी तथा विभिन्न भारतीय भाषाओं में छपने वाले समकालीन अख़बार भी एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं जो महात्मा गाँधी की गतिविधियों पर नजर रखते थे और उनके बारे में ख़बरें छापते थे। ये अख़बार इस बात का भी संकेत देते हैं कि आम भारतीय उनके बारे में क्या सोचते थे। लेकिन अख़बारी ब्योरों को पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं माना जाना चाहिए। ये अख़बार प्रकाशित करने वाले ऐसे लोग थे जिनकी अपनी राजनीतिक सोच और विश्व दृष्टिकोण था। उनके विचारों से ही यह तय होता था कि क्या प्रकाशित किया जाएगा और घटनाओं की रिपोर्टिंग किस तरह की जाएगी। इसलिए लंदन से निकलने वाले अख़बार के विवरण भारतीय राष्ट्रवादी अख़बार में छपने वाली रिपोर्टों जैसे नहीं हो सकते थे।
हमें इन रिपोरों को देखना तो चाहिए लेकिन उनके आधार पर नतीजे निकालते हुए खास अहतियात भी बरतनी चाहिए। इन अखबारों के हर वक्तव्य को यथार्थ घटनाक्रम का शब्दशः सच ब्योरा नहीं माना जा सकता। अकसर उनमें ऐसे अफसरों की आशंकाओं और बेचैनियों की झलक भी मिलती है जो किसी आंदोलन को नियंत्रित नहीं कर पा रहे थे और उसके प्रसार के बारे में बेचैन थे। उन्हें समझ में नहीं आता था कि महात्मा गाँधी को गिरफ़्तार करना चाहिए या नहीं, अथवा गिरफप्तारी का क्या परिणाम होगा। औपनिवेशिक सरकार, जनता और उसकी गतिविधियों पर जितनी नजर रखती थी, अपने शासन के आधार के बारे में उसकी चिंता उतनी ही बढ़ती जाती थी।
चित्र 11.17
इस तरह के चित्रों से यह प्रदर्शित होता है कि महात्मा गाँधी के बारे में लोगों की समझ क्या थी और लोकप्रिय छापों में उन्हें कैसे व्यक्त किया जाता था। राष्ट्रवाद के वृक्ष में महात्मा गाँधी केंद्र में छाया के रूप में दिख रहे हैं तथा उनमें चारों ओर अन्य नेताओं और मनीषियों के चित्र हैं।
काल-रेखा
1915 | महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से लौटते हैं |
1917 | चंपारन आंदोलन |
1918 | खेड़ा (गुजरात) में किसान आंदोलन तथा अहमदाबाद में मजदूर आंदोलन |
1919 | रॉलट सत्याग्रह (मार्च-अप्रैल) |
1919 | जलियांवाला बाग हत्याकांड (अप्रैल) |
1921 | असहयोग आंदोलन और खिलाफ़त आंदोलन |
1928 | बारदोली में किसान आंदोलन |
1929 | लाहौर अधिवेशन (दिसंबर) में “पूर्ण स्वराज” को कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया जाता है |
1930 | सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू; दांडी यात्रा (मार्च-अप्रैल) |
1931 | गाँधी-इर्विन समझौता (मार्च); दूसरा गोल मेज सम्मेलन (दिसंबर) |
1935 | गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट में सीमित प्रातिनिधिक सरकार के गठन का आश्वासन |
1939 | कांग्रेस मंत्रिमंडलों का त्यागपत्र |
1942 | भारत छोड़ो आंदोलन शुरू (अगस्त) |
1946 | महात्मा गाँधी साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए नोआखली तथा अन्य हिंसाग्रस्त इलाक़ों का दौरा करते हैं |
उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)
1. महात्मा गाँधी ने खुद को आम लोगों जैसा दिखाने के लिए क्या किया?
2. किसान महात्मा गाँधी को किस तरह देखते थे?
3. नमक कानून स्वतंत्रता संघर्ष का महत्त्वपूर्ण मुद्दा क्यों बन गया था?
4. राष्ट्रीय आंदोलन के अध्ययन के लिए अख़बार महत्त्वपूर्ण स्रोत क्यों हैं?
5. चरखे को राष्ट्रवाद का प्रतीक क्यों चुना गया?
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)
6. असहयोग आंदोलन एक तरह का प्रतिरोध कैसे था?
7. गोल मेज सम्मेलन में हुई वार्ता से कोई नतीजा क्यों नहीं निकल पाया?
8. महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप को किस तरह बदल डाला
9. निजी पत्रों और आत्मकथाओं से किसी व्यक्ति के बारे में क्या पता चलता है? ये स्रोत सरकारी ब्योरों से किस तरह भिन्न होते हैं?
मानचित्र कार्य
10. दाण्डी मार्च के मार्ग का पता लगाइए। गुजरात के नक्शे पर इस यात्रा के मार्ग को चिह्नित कीजिए और उस पर पड़ने वाले मुख्य शहरों व गाँवों को चिद्नित कीजिए।
परियोजना कार्य (कोई एक)
11. दो राष्ट्रवादी नेताओं की आत्मकथाएँ पढ़िए। देखिए कि उन दोनों में लेखकों ने अपने जीवन और समय को किस तरह अलग-अलग प्रस्तुत किया है और राष्ट्रीय आंदोलन की किस प्रकार व्याख्या की है। देखिए कि उनके विचारों में क्या भिन्नता है। अपने अध्ययन के आधार पर एक रिपोर्ट लिखिए।
12. राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान घटी कोई एक घटना चुनिए। उसके विषय में तत्कालीन नेताओं द्वारा लिखे गए पत्रों और भाषणों को खोज कर पढ़िए। उनमें से कुछ अब प्रकाशित हो चुके हैं। आप जिन नेताओं को चुनते हैं उनमें से कुछ आपके इलाके के भी हो सकते हैं। उच्च स्तर पर राष्ट्रीय नेतृत्व की गतिविधियों को स्थानीय नेता किस तरह देखते थे इसके बारे में जानने की कोशिश कीजिए। अपने अध्ययन के आधार पर आंदोलन के बारे में लिखिए।