अध्याय 05 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

बॉलीवुड, मुंबई, महाराष्ट्र आपके और मेरे लिए एक स्वप्न लोक की तरह हो सकता है, परंतु बहुत से लोगों के लिए यह उनके कार्य करने का स्थान है। किसी अन्य उद्योग की तरह, इसके कामगार भी संघ के सदस्य हैं। उदाहरण के लिए नर्तक, जोखिम के कार्य करने वाले कलाकार एवं अतिरिक्त कलाकार, कनिष्ठ कलाकार संघ (जूनियर आर्टिस्ट एसोसिएशन) के सदस्य होते हैं। उनकी माँग है कि आठ घंटे की शिफ्ट हो, मेहनताना वाजिब हो और कार्यावस्था सुरक्षित हो। इस उद्योग के उत्पादनों का विज्ञापन एवं बाज़ार में जाना फ़िल्म वितरक के द्वारा, एवं सिनेमा हॉल मालिकों अथवा संगीत के कैसेट्स एवं वीडियोज बेचने वाली दुकानों के द्वारा होता है। और इस उद्योग में कार्य करने वाले लोग, किसी अन्य उद्योग की तरह उसी शहर में रहते हैं, लेकिन शहर में उनके द्वारा किए गए विभिन्न कार्य, वे लोग कौन हैं और कितना कमाते हैं, पर निर्भर करता है। फ़िल्मी सितारे और कपड़ा मिलों के मालिक जुहू जैसे स्थानों पर रहते हैं, जबकि अतिरिक्त कलाकार और कपड़ा मिल के मज़दूर गोरेगाँव जैसी जगहों पर रहते हैं। कुछ पाँच सितारा होटलों में जाते हैं और जापान का सुशी (Sushi) जैसा खाना खाते हैं जबकि कुछ स्थानीय हाथगाड़ियों पर वड़ा पाव खाते हैं। मुंबई के लोगों को कहाँ वे रहते हैं, क्या वे खाते हैं और कितने कीमती कपड़े पहनते हैं, के आधार पर विभाजित किया जाता है। परंतु कुछ सामान्य बातें या वस्तुएँ जो शहर उन्हें देता है, के आधार पर वे समान (संगठित) भी हैं - वे एक जैसी फ़िल्में और क्रिकेट मैच देखते हैं, वे समान वायु प्रदूषित वातावरण में आवागमन करते हैं, और उन सबकी आकाँक्षा होती है कि उनके बच्चे अच्छा काम करें।

लोग कहाँ और कैसा कार्य करते हैं, वे किस तरह का व्यवसाय करते हैं, यह सब उनकी पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। इस अध्याय में हम देखेंगे कि प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तन और लोग किस प्रकार का कार्य करते हैं जिससे भारत में सामाजिक संबंधों में परिवर्तन आता है। दूसरी तरफ़, सामाजिक संस्थाएँ जैसे जाति, नातेदारी का संजाल, लिंग एवं क्षेत्र भी, कार्य को संगठित करने के तरीके अथवा उत्पाद को बाजार में भेजने के तरीके को प्रभावित करते हैं। यह समाजशास्त्रियों के लिए शोध का एक बड़ा क्षेत्र है।

उदाहरण के लिए हम महिलाओं को कुछ अन्य क्षेत्रों जैसे इंजीनियरिंग की बजाय नर्सिंग अथवा शिक्षण के कार्यों में अधिक क्यों पाते हैं? यह मात्र एक संयोग है अथवा इसके पीछे समाज की यह सोच है कि महिलाएँ देखभाल एवं पालन पोषण के क्षेत्र के लिए अधिक उपयुक्त हैं। बनिस्बत उन कार्यों के जो ‘सख्त’ और ‘पुरुषोचित’ नज़र आते हैं! जबकि नर्सिंग के कार्य में एक पुल को डिज़ाइन करने से अधिक बल की आवश्यकता होती है। अगर अधिक महिलाएँ इंजीनियरिंग के क्षेत्र में जाती हैं तो वे इस व्यवसाय को कैसे प्रभावित करती हैं? अपने आप से पूछिए कि क्यों भारत में कॉफी के विज्ञापन में पैकेट पर दो कप दिखाए जाते हैं जबकि अमेरिका में एक कप? इसका उत्तर यह है कि बहुत से भारतीय कॉफी पीने को सामाजिकता निभाने का एक अवसर मानते हैं जबकि अमेरिका में कॉफी पीना सवेर उठकर स्फूर्ति लाने वाले पेय को पीने जैसा है। समाजशास्त्री इन प्रश्नों में रुचि रखते हैं कि कौन क्या उत्पादित करता है, कौन कहाँ कार्य करता है, कौन, किसको और कैसे बेचता है? ये व्यक्तिगत रुचि नहीं है बल्कि सामाजिक प्रारूपों का नतीजा है। इसके विपरीत लोगों की रुचियाँ यह समझाने में कि सामाजिक कार्य कैसे होते हैं, से प्रभावित होती हैं।

5.1 औद्योगिक समाज की कल्पना

समाजशास्त्र के अनेकों महत्वपूर्ण कार्य तब किए गए थे जबकि औद्योगीकरण एक नयी अवधारणा था और मशीनों ने एक महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण किया हुआ था। कार्ल मार्क्स, वेबर और एमील दुर्खाइम जैसे विचारकों ने उद्योग की बहुत सी नयी संकल्पनाओं से स्वयं को जोड़ा। ये थी नगरीकरण जिसने आमने-सामने के संबंध

औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

को बदला जोकि ग्रामीण समाजों में पाए जाते थे। जहाँ कि लोग अपने या जान पहचान के भूस्वामियों के खेतों में काम करते थे, उन संबंधों का स्थान आधुनिक कारखानों एवं कार्यस्थलों के अज्ञात व्यावसायिक संबंधों ने ले लिया। औद्योगीकरण से एक विस्तृत श्रम विभाजन होता है। लोग अधिकतर अपने कार्यों का अंतिम रूप नहीं देख पाते क्योंकि उन्हें उत्पादन के एक छोटे से पुर्जे को बनाना होता है। अक्सर यह कार्य दोहराने और थकाने वाला होता है, लेकिन फिर भी बेरोजगार होने से यह स्थिति अच्छी है। मार्क्स ने इस स्थिति को ‘अलगाव’ कहा, जिसमें लोग अपने कार्य से प्रसन्न नहीं होते, उनकी उत्तरजीविता भी इस बात पर निर्भर करती है कि मशीनें मानवीय श्रम के लिए कितना स्थान छोड़ती हैं।

औद्योगीकरण कुछ एक स्थानों पर जबरदस्त समानता लाता है, उदाहरण के लिए रेलगाड़ियों, बसों और साइबर कैफे में

क्रियाकलाप 5.1

अभिसरण शोध जिसे कि आधुनिकीकरण के सिद्धांतकारों क्लार्क ने आगे बढ़ाया के अनुसार 2 । वों शताब्दी का आधुनिकीकृत भारत 19 वीं शताब्दी की विशेषताओं से साझा करने के बजाय उनकी अधिक विशेषताएँ 2 ।वीं शताब्दी के चीन या संयुक्त राज्यों जैसी होंगी। क्या आपको यह सच लगता है? क्या संस्कृति, भाषा एवं परंपराएँ नयी तकनीक के कारण विलुप्त हो जाती हैं, और क्या संस्कृति नए उत्पादों को अपनाने के तरीके को प्रभावित करती है? इन बिंदुओं पर अपने स्वयं के विचारों को उदाहरण देते हुए लिखिए।

जातीय भेदभाव के महत्त्व का ना होना। दूसरी तरफ़, भेदभाव के पुराने स्वरूपों को नए कारखानों और कार्यस्थलों में अभी भी देखा जा सकता है। हालाँकि, इस संसार में सामाजिक असमानताएँ कम हो रही हैं लेकिन आर्थिक या आय से संबंधित असमानताएँ उत्पन्न हो रही हैं। बहुधा-सामाजिक और आय संबंधी असमानता परस्पर एक-दूसरे पर छा जाती है। उदाहरण के लिए अच्छे वेतन वाले व्यवसायों जैसे मेडीसिन, कानून अथवा पत्रकारिता में उच्च जाति के लोगों का वर्चस्व आज भी बना हुआ है। महिलाएँ (अधिकांशतः) समान कार्य के लिए कम वेतन पाती हैं।

5.2 भारत में औद्योगीकरण

भारतीय औद्योगीकरण की विशिष्टताएँ

भारत में औद्योगीकरण से होने वाले अनुभव कई प्रकारों से पाश्चात्य प्रतिमान से समान और कई प्रकारों से भिन्न थे। विभिन्न देशों के बीच किए गए तुलनात्मक विश्लेषण यह सुझाते हैं कि औद्योगीकरण पूँजीवाद का कोई आदर्श प्रतिमान नहीं है। चलिए अब हम, इसे भिन्नताओं के बिंदु से प्रारंभ करते हैं, इसे लोगों के कार्य करने के तरीके से संबद्ध करते हैं। विकसित देशों में जनसंख्या का एक बड़ा भाग नौकरीपेशा लोगों का होता है, उसके बाद उद्योगों में और 10 प्रतिशत से कम कृषि कार्यों में लगे होते हैं (आई.एल.ओ के आँकड़े) 2018-19 में भारत में लगभग 43 प्रतिशत लोग प्राथमिक क्षेत्र (कृषि एवं खदान), 25 प्रतिशत लोग द्वितीयक क्षेत्र (उत्पादन, निर्माण और उपयोगिता) और 23 प्रतिशत लोग तृतीयक क्षेत्र (व्यापार, यातायात, वित्तीय सेवाएँ इत्यादि) में कार्यरत थे। फिर भी, अगर हम इन क्षेत्रों की आर्थिक वृद्धि को देखें तो कृषि कार्यों के हिस्से में तेज़ी से ह्रास हुआ और इस क्षेत्र में होने वाले कार्य लगभग आधे से अधिक हो गए। यह स्थिति बहुत ही गंभीर है क्योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि जिस क्षेत्र में लोग ज़्यादा कार्यरत हैं वह उन्हें अधिक आमदनी देने में सक्षम नहीं हैं। भारत में 2018-19 में रोज़गार के विभिन्न क्षेत्रों के हिस्से इस प्रकार थे— कृषि में 42.5 प्रतिशत, खदान एवं खनन में 0.4 प्रतिशत, निर्माण में 12.1 प्रतिशत, व्यापार, होटल एवं रेस्त्रां में 12.6 प्रतिशत, यातायात भंडारण एवं संचार में 5.9 प्रतिशत, सामुदायिक, सामाजिक एवं व्यक्तिगत सेवाओं में 13.8 प्रतिशत।

भार में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास

रोजगार के आधार पर कामगारों का वितरण, 1972-2019

III $1972-73$

विकसित और विकासशील देशों में एक और बड़ा अंतर नियमित वेतनभोगी कार्यरत लोगों की संख्या का होना है। विकसित देशों में औपचारिक रूप से कार्यरत लोग बहुसंख्यक हैं। भारत में 52 प्रतिशत से अधिक लोग स्व-रोज़गारी हैं, केवल 24 प्रतिशत लोग नियमित वेतनभोगी रोज़गार में हैं, जबकि लगभग 24 प्रतिशत लोग अनियमित मज़दूर हैं। यहाँ दी गई तालिका में 1972-73 से 2018-19 तक ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों को दर्शाया गया है।

अर्थशास्त्रियों एवं अन्यों ने अक्सर संगठित या औपचारिक और असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्रों के मध्य अंतर स्थापित किया है। इस बात पर मतभेद है कि इन क्षेत्रों को परिभाषित कैसे किया जाए। एक परिभाषा के अनुसार संगठित क्षेत्र की इकाई में 10 और अधिक लोगों के पूरे वर्ष रोज़गार में रहने से इन क्षेत्रों का गठन होता है। सरकारी तौर पर इनका पंजीकरण होना चाहिए ताकि कर्मचारियों को उपयुक्त वेतन या मज़दूरी, पेंशन और अन्य सुविधाएँ मिलना सुनिश्चित हो सकें। भारत में 90 प्रतिशत से अधिक कार्य चाहे वह कृषि, उद्योग अथवा नौकरी हो, असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में आते हैं। संगठित क्षेत्र के इतना छोटा होने का सामाजिक आशय क्या है?

इसका पहला अर्थ यह है कि बहुत कम लोग बड़ी फर्मों में रोज़गार करते हैं जहाँ कि वे दूसरे क्षेत्रों और पृष्ठभूमि वाले लोगों से मिल पाते हैं। नगरीय क्षेत्र इस प्रकार के कुछ मौके दे पाता है - नगरीय क्षेत्र में आपका पड़ोसी भिन्न क्षेत्र का हो सकता है - मोटे तौर पर, अधिकतर भारतीय लोग छोटे पैमाने पर कार्य कर रहे स्थानों पर ही काम करते हैं। यहाँ कार्य के कई पक्षों का निर्धारण वैयक्तिक संबंधों से होता है। अगर नियोजक आपको पसंद करता है, तो आपका वेतन बढ़ सकता है, अगर आप उसके साथ झगड़ा करते हैं तो आप अपना रोज़गार भी गँवा सकते हैं। बड़े संस्थानों में ऐसा नहीं होता। वहाँ कार्य के निश्चित नियम होते हैं, वहाँ नियुक्ति अधिक पारदर्शी होती है और अगर आपके अपने ऊँचे पदाधिकारी से कुछ मतभेद होते हैं तो उसकी शिकायत और क्षतिपूर्ति की निश्चित कार्यविधियाँ होती हैं। दूसरे, बहुत ही कम भारतीय सुरक्षित और लाभदायक नौकरियों में प्रवेश करते हैं। जो वहाँ हैं उनमें भी दो-तिहाई सरकारी नौकरी करते हैं। इसीलिए लोग सरकारी नौकरियाँ प्राप्त करने के लिए बहुत मेहनत करते हैं। बचे हुए लोग बुढ़ापे में अपने बच्चों पर आश्रित होने के लिए बाध्य हैं। जाति, धर्म तथा क्षेत्र की दीवारों को पार करने में सरकारी नौकरियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक समाजशास्त्री तर्क देते हुए उन कारणों की चर्चा करते हैं कि भिलाई स्टील प्लांट में सांप्रदायिक दंगे क्यों नहीं होते हैं? कारण यह है कि वहाँ भारत के सभी भागों के लोग एक साथ काम करते हैं। तीसरे, बहुत ही कम लोग संघ के सदस्य हैं, जो कि सुरक्षित क्षेत्र की विशेषता है, अनौपचारिक एवं असंगठित क्षेत्र के कर्मी एकत्रित होकर सामूहिक रूप से अपने उपयुक्त वेतन और सुरक्षित कार्यावस्था के लिए लड़ने

औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

का अनुभव नहीं रखते। सरकार ने अब असंगठित क्षेत्रों की अवस्था पर निगरानी रखने के लिए नियम बनाए हैं, लेकिन वहाँ भी कार्यान्विति में नियोजक अथवा ठेकेदार की मनमर्जी ही प्रभावी होती है।

भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं भारतीय उद्योगों में परिवर्तन

सन् 1990 के दशक से सरकार ने उदारीकरण की नीति को अपनाया है। निजी कंपनियाँ, विदेशी फर्मों को उन क्षेत्रों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है जिन्हें पहले ये सरकार के लिए, जैसे दूरसंचार, नागरिक उड्डयन एवं ऊर्जा आदि के लिए आरक्षित थे। उद्योगों को खोलने के लिए अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) वांछित नहीं है। अब भारतीय दुकानों पर विदेशी वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। उदारीकरण के परिणामस्वरूप बहुत सी भारतीय कंपनियों-छोटी एवं बड़ी को बहुदेशीय कंपनियों ने खरीद लिया है। साथ ही साथ कुछ भारतीय कंपनियाँ बहुदेशीय कंपनियाँ- छोटी एवं बड़ी बन गई हैं। इसका पहला उदाहरण है जब पारले पेय को कोका कोला ने खरीदा। पारले पेय की सालाना आमदनी 250 करोड़ रुपये थी, जबकि कोका कोला का विज्ञापन बजट 400 करोड़ रुपये है। विज्ञापन का यह स्तर स्वाभाविक रूप से उपभोग को बढ़ा देता है, परंपरागत कोका कोला ने आज कई भारतीय पेयों का स्थान ले लिया है। उदारीकरण का दूसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र खुदरा व्यापार हो सकता है। आपके विचार से क्या भारतीय, भारतीय डिपार्टमेंटल स्टोर (भारतीय बहुविभागीय भंडारों), किराने की दुकान, अपने पड़ोस में या छोटे शहरों की कपड़े की दुकान से खरीदारी करने को वरीयता देते हैं, अथवा वे व्यापार के लिए बाहर जाते हैं?

सरकार सार्वजनिक कंपनियों के अपने हिस्सों को निजी क्षेत्र की कंपनियों को बेचने का प्रयास कर रही है, जिसे विनिवेश कहा जाता है। कई सरकारी कर्मचारी इससे भयभीत हैं कि कहीं विनिवेश के कारण उनकी नौकरी न चली जाए। माडर्न फूड जिसे सरकार ने स्वास्थ्यवर्धक सस्ता खाना उपलब्ध कराने के लिए बनाया था, और वह निजीकरण की जाने वाली पहली कंपनी थी, ने 60 प्रतिशत कर्मचारियों को पहले पाँच वर्षों में जबरन सेवामुक्त कर दिया।

अधिकांश कंपनियों ने अपने स्थायी कर्मचारियों की संख्या में कटौती कर दी, वे अपने कार्य बाह्यस्रोतों जैसे छोटी कंपनी से यहाँ तक कि घरों से भी करवाने लगे। बहुदेशीय कंपनियाँ पूरे विश्व में बाह्य स्रोतों से काम करवाती हैं, विकासशील देशों जैसे भारत से उन्हें सस्ते मजजदूर उपलब्ध हो जाते हैं। क्योंकि छोटी कंपनियों को बड़ी कंपनियों से कार्य प्राप्त करने के लिए स्पर्धा करनी होती है अतः वे कामगारों को कम वेतन देते हैं और कार्यावस्था भी अधिकतर खराब होती है। छोटी फर्मों में मज़दूर संगठनों का गठन भी मुश्किल होता है। अधिकांश कंपनियाँ, यहाँ तक कि सरकार भी अब बाह्य स्रोतों और अनुबंध पर काम करवाने लगी है। लेकिन यह प्रवृत्ति निजी क्षेत्रों में विशेष रूप से दिखाई देती है।

सारांश में, भारत अभी भी एक कृषि प्रधान देश है। सेवा क्षेत्र— दुकानें, बैंक, आई.टी. उद्योग, होटल्स, और अन्य सेवाओं के क्षेत्र में, अधिक लोग आ रहे हैं और नगरीय मध्यवर्ग की संख्या भी बढ़ रही है, नगरीय मध्यवर्ग के साथ वे मूल्य जो टेलीविजन सीरियलों और फ़िल्मों में दिखाई देते हैं, भी बढ़ रहे हैं। परंतु हम यह भी देखते हैं कि भारत में बहुत कम लोगों के पास सुरक्षित रोज़गार हैं, यहाँ तक कि छोटी संख्या के स्थायी सुरक्षित रोज़गार भी अनुबंधित कामगारों के कारण असुरक्षित होते जा रहे हैं। अब तक सरकारी रोज़गार ही जनसंख्या के अधिकांश लोगों का कल्याण करने का एक बड़ा मार्ग था, लेकिन अब वह भी कम होता जा रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने इस पर विचार-विमर्श भी किया लेकिन विश्वव्यापी उदारीकरण एवं निजीकरण के साथ आमदनी की असमानताएँ भी बढ़ रही हैं। आपको इस विषय पर अधिक जानकारी भूमंडलीकरण के अगले अध्याय में पढ़ने को मिलेगी।

EMPLOYMENTIN ORGANISED SECTORS

साथ ही बड़े उद्योगों में भी सुरक्षित रोज़गार कम होता जा रहा है, सरकार ने भी उद्योग लगाने के लिए भूमि अधिग्रहण की नीति प्रारंभ की है। ये उद्योग आस-पास के क्षेत्र के लोगों को रोज़गार नहीं दिलवाते हैं बल्कि ये वहाँ जबरदस्त प्रदूषण फैलाते हैं। बहुत से किसानों जिनमें मुख्य रूप से आदिवासी शामिल हैं, कुल विस्थापितों में ये करीब 40 प्रतिशत हैं, ने क्षतिपूर्ति की कम दर के लिए विरोध किया और इन्हें जबरन दिहाड़ी मज़दूर बनना पड़ा और उन्हें बड़े शहरों के फुटपाथ पर काम करते देखा जा सकता है। आप अध्याय 3 में दी गई हितों की प्रतियोगिता की परिचर्चा को याद कीजिए।

अगले भाग में हम देखते हैं कि लोग किस तरह काम पाते हैं, वे वास्तव में अपने कार्यस्थल पर क्या करते हैं और किस तरह की कार्यावस्था से रू-ब-रू होते हैं?

5.3 लोग काम किस तरह पाते हैं

बहुत कम अनुपात में लोग विज्ञापन या रोजगार कार्यालय के द्वारा नौकरी प्राप्त कर पाते हैं। वे लोग जो स्वनियोजित हैं, जैसे— नलसाज, बिजली मिस्त्री और बढ़ई (खाती या तरखान) एक तरफ़ हैं और निजी ट्यूशन देने वाले अध्यापक, वास्तुकार और स्वतंत्र रूप से काम करने वाले छाया चित्रकार, दूसरी तरफ़ हैं। इन सभी की कार्य अवधि इनके निजी संपर्कों पर निर्भर रहती है। वे सोचते हैं कि उनका काम ही उनका विज्ञापन है। मोबाइल फ़ोन ने नलसाजों एवं अन्य ऐसे लोगों की जिंदगी को अधिक सरल बना दिया है, अब वे ज़्यादा लोगों के लिए कार्य कर सकते हैं।

एक फ़ैक्ट्री के कामगारों को रोज़गार देने का तरीका भिन्न होता है। पहले बहुत से कामगार ठेकेदार या काम देने वालों से रोजगार पाते थे। कानपुर कपड़ा मिल में रोजगार दिलाने वाले को मिस्त्री बोलते थे, और वे खुद भी वहाँ काम करते थे। वे समान क्षेत्रों या समुदायों से मज़दूर की तरह आते थे, परंतु मालिक उन पर

औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

कृपालु होते थे, अतः वे सब कामगारों के मुखिया बन जाते थे। दूसरी तरफ़ मिस्त्री निजी कामगारों पर समुदाय संबंधी दबाव डालता था। आजकल काम दिलाने वाले का महत्त्व कम हो गया है और कार्यकारिणी तथा यूनियन दोनों ही अपने लोगों को काम दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ कामगार यह भी चाहते हैं कि उनका काम उनके बच्चों को दे दिया जाए। बहुत सी फ़ैक्ट्रियों में बदली कामगार भी होते हैं, जो कि छुछ्टी पर गए हुए मजजदरों के स्थान पर काम करते हैं। बहुत से बदली कामगार एक ही कंपनी में बहुत लंबे समय से काम कर रहे होते हैं किंतु उन्हें सबके समान स्थायी पद और सुरक्षा नहीं दी जाती है। इसे संगठित क्षेत्र में अनुबंधित कार्य कहते हैं। रोज़गार के अवसरों में दो तत्व शामिल होते हैं-

(i) किसी संगठन में रोज़गार

(ii) स्व-रोज़ार

हाल ही में भारत सरकार ने “मुद्रा योजना", “आत्मनिर्भर भारत” या “मेक इन इंडिया” जैसे कार्यक्रमों को प्रारम्भ किया है जिससे रोजगार और स्व-रोजगार सम्भव हो सके। इन प्रयासों से हाशिए पर खड़े लोगों, जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिलाओं सहित सभी वर्गों का संवर्द्धन करने की उम्मीद है। इन सकारात्मक प्रयासों ने भारत के युवाओं जिन्हें जनांकिकीय डिविडैंट भी कहा जाता है, को विकास की प्रक्रिया से जोड़ दिया गया।

हालाँकि, दिहाड़ी मज़दरों के काम की ठेकेदारी व्यवस्था ज़्यादातर भवन-निर्माण कार्य के स्थान पर या ईटे बनाने के स्थान आदि पर दिखाई देती है। ठेकेदार गाँव जाता है और वहाँ काम चाहने वालों से इसके बारे में पूछता है। वह उन्हें कुछ पैसा उधार भी देता है, उधार दिए गए पैसे में काम के स्थान तक आने के यातायात का पैसा होता है। उधार पैसा अग्रिम दिहाड़ी माना जाता है, और जब तक उधार नहीं चुक जाता वह बिना पैसे के काम करता है। पहले कृषि मज़दूर अपने कर्जे के बदले ज़मींदार के पास बंधुआ मज़दूर की तरह रहते थे। अब उद्योगों में अनियत कामगार के रूप में जाते हैं, हालाँकि वे अभी भी कर्जदार हैं, परंतु वे अनुबंधक के अन्य सामाजिक दायित्वों से बँधे हुए नहीं होते हैं। इस अर्थ में, वे औद्योगिक समाज में अधिक मुक्त हैं। वे अनुबंध को तोड़कर किसी और के यहाँ काम ढूँढ़ सकते हैं। कभी-कभी पूरा परिवार प्रवसन कर जाता है और बच्चे काम में अपने माता-पिता की सहायता करते हैं।

5.4 काम को किस तरह किया जाता है?

इस भाग में हम यह जानकारी देंगे कि काम को वास्तव में किस तरह किया जाता है। हमारे आसपास हम जिन उत्पादों को देखते हैं उन्हें कैसे बनाया जाता है? एक ऑफ़िस या फैक्ट्री में मैनेजर और कामगारों के संबंध कैसे होते हैं? भारत में बड़े कार्यस्थलों में संपूर्ण कार्य को स्वतः घर में हो रहे उत्पादन की तरह किया जाता है।

मैनेजर का मुख्य कार्य होता है कामगारों को नियंत्रित रखना और उनसे अधिक काम करवाना। कामगारों से अधिक कार्य करवाने के दो तरीके होते हैं। पहला कार्य के घंटों में वृद्धि। दूसरा निर्धारित दिए गए समय में उत्पादित वस्तु की मात्रा को बढ़ा देना। मशीनें उत्पादन को बढ़ाने में सहायक होती हैं। परंतु ये खतरे भी पैदा करती हैं और अंततः मशीनें कामगारों का स्थान ले रही हैं। इसीलिए मार्क्स और महात्मा गाँधी दोनों ने मशीनीकरण को रोज़गार के लिए खतरा माना।

क्रियाकलाप 5.2

हिंद स्वराज्य में गाँधी जी और मशीन 1924 - मैं मशीनों के प्रति पागलपन का विरोधी हूँ, लेकिन मशीनों का विरोधी नहीं हूँ। मैं उस सनक का विरोधी हूँ जो मजजूरों को कम करती हैं। आदमी श्रम से बचने के लिए मजदूरों को कम करते जाएँगे जबकि हजारों मजजूरों को बिना काम के सड़कों पर भूख से मरने के लिए फेंक न दिया जाए। मैं समय और मजदर दोनों को बचाना चाहता हूँ। मानवजाति के विखंडन के लिए नहीं बल्कि सबके लिए। मैं संपत्ति को कुछ हाथों में एकत्रित नहीं होने देना चाहता, बल्कि उसे सबके हाथों में देखना चाहता हूँ।

1934-एक राष्ट्र के रूप में जब हम चर्खे को अपनाते हैं तो हम न केवल बेरोजजगारी की समस्या का समाधान करते हैं बल्कि यह भी घोषित करते हैं कि हमारी किसी भी राष्ट्र का शोषण करने की इच्छा नहीं है, और हम अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण को भी समाप्त करना चाहते हैं।

उदाहरण द्वारा बताइए कि मशीनें किस तरह कामगारों के लिए समस्या पैदा करती हैं? गाँधीजी के दिमाग में क्या विकल्प था? चर्खे को अपनाने से शोषण को कैसे रोका जा सकता है?

स्कूटर का कारखाना

भारत का एक सबसे पुराना उद्योग है - कपड़ा मिल। वहाँ के कामगार अपने आप को मशीन के विस्तार की तरह वर्णित करते हैं। एक पुराना बुनकर रामचंद्र जो कि 1940 में कानपुर कपड़ा मिल में काम करता था कहता है-

आपको ऊर्जा की आवश्यकता होती है, आँखे, गर्दन, टाँगे, हाथ और शरीर का प्रत्येक हिस्सा घूमता है। बुनाई के काम में लगातार टकटकी लगानी पड़ती है, आप कहीं नहीं जा सकते, आप का पूरा ध्यान मशीन पर केंद्रित होना चाहिए/ जब चार मशीनें चल रही हों तो चारों को चलना चाहिए, उन्हें रुकना नहीं चाहिए (जोशी 2003)

अधिक मशीनों वाले उद्योगों में, कम लोगों को काम दिया जाता है, लेकिन जो होते हैं उन्हें भी मशीनी गति से काम करना होता है। मारुति उद्योग लिमिटेड में प्रत्येक मिनट में दो कोरें तैयार होकर एकत्रित होने वाले स्थान पर आ जाती हैं। पूरे दिन में कामगारों को केवल 45 मिनट का विश्राम मिलता है- दो चाय की छुट्टियाँ साढ़े सात मिनट प्रत्येक और आधा घंटा खाने की छुट्टी। उनमें से प्रत्येक 40 वर्ष का होने तक पूरी तरह थक जाता है और स्वैच्छिक अवकाश ले लेता है। जबकि उत्पादन अधिक हो रहा है और कारखाने में स्थायी रूप से काम करने वालों की संख्या कम हो गई है। कारखाने में सभी कार्य जैसे सफ़ाई, सुरक्षा, यहाँ तक कि

औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

पुर्जों का उत्पादन भी बाह्य स्रोतों से होता है। पुर्जे देने वाले, कारखाने के आसपास ही रहते हैं और प्रत्येक पुर्जे को दो घंटे या नियत समय में भेज देते हैं। बाह्य स्रोतों से किया गया कार्य समय पर पूरा हो जाता है और कंपनी को सस्ता पड़ता है। लेकिन इससे कामगारों में तनाव आ जाता है, अगर उनकी सप्लाई नहीं आ पाती, तो उनके उत्पादन का लक्ष्य विलंब से पूरा हो पाता है, और जब वह आ जाता है तो उसे रखने के लिए उन्हें भागदौड़ करनी पड़ती है। कोई आश्चर्य नहीं अगर ऐसा करने में वे पूरी तरह

प्रिंटिंग प्रेस का एक दृश्य निढाल हो जाते हैं।

अब जरा सेवा के क्षेत्रों को देखा जाए। सॉफ़्टवेयर में काम करने वाले लोग मध्यम वर्गीय और पूर्णतः शिक्षित होते हैं। उनका कार्य स्वतःस्फूर्त एवं रचनात्मक होता है। पर जैसाकि बॉक्स में दर्शाया गया है कि उनका कार्य भी टायलरिज्म लेबर प्रक्रिया के अनुरूप ही होता है।

बॉक्स 5.1

आई.टी. क्षेत्र में ‘समय की चाकरी’

औसतन 10-12 घंटे का कार्यदिवस, और रातभर कार्य करने वाले कर्मचारी भी असामान्य बात नहीं हैं, (जिसे नाइट आउट’ कहते हैं) जब उनकी परियोजना की अंतिम सीमा आ जाती है। लंबे कार्य घंटों का होना एक उद्योग की केंद्रीय कार्य संस्कृति ’ होती है। कुछ हद तक इसका कारण भारत और ग्राहक के देश के बीच समय की भिन्नता भी है, जैसे कि सम्मेलन का समय शाम का होता है जबकि अमेरिका में उस समय कार्य दिवस का प्रारंभ होता है। दूसरा कारण बाह्य स्रोतों की कार्य संरचना में अधिक कार्य का होना है जो, परियोजना की लागत और समयसीमा के तालमेल से जुड़ी होती है। एक आठ घंटे काम करने वाले इंजीनियर के श्रम के आधार पर काम को अंतिम सीमा तक पहुँचाने के लिए उसे अतिरिक्त घंटों और दिनों तक काम करना पड़ता है। अतिरिक्त कार्य घंटों को सामान्य व्यवस्थापित फ्लैक्सी-टाइम’ सामान्य व्यवस्थापन के प्रयोग द्वारा तर्कसंगत (वैधता) बनाया जाता है, जो कि सैद्धांतिक रूप में कार्यकर्ता को अपने कार्य के घंटे नियत करने की छूट देती है (एक सीमा तक) लेकिन प्रायोगिक रूप में इसका अर्थ है कि वे तब तक कार्य करें जब तक कि वे हाथ में लिए हुए कार्य को समाप्त न कर दें। लेकिन इसके बावजूद भी जब उनके पास वास्तव में कार्य का दबाव नहीं होता, तब भी वे ऑफिस में देर तक रुक जाते हैं, जो कि या तो साथियों के दबाव के कारण होता है अथवा वे अपने अधिकारियों को दिखाना चाहते हैं कि वे कड़ी मेहनत कर रहे हैं।

(कैरोल उपाध्या फोर्थकमिंग)

इन कार्य घंटों के परिणामस्वरूप बंगलोर, हैदराबाद और गुड़गाँव जैसे स्थानों जहाँ बहुत-सी आई.टी. कंपनियाँ और कॉल सेंटर हैं, दुकानों और रेस्तराओं ने भी अपने खुलने का समय बदल दिया है, और देरी से खुलने लगे हैं। अगर पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं तो बच्चों को शिशुपालन गृह में छोड़ा जाता है।

संयुक्त परिवार जो कि लुप्तप्राय हो गए थे, भी औद्योगीकरण के कारण फिर से बनने लगे हैं। हम देखते हैं कि दादा-दादी बच्चों की मदद से परिवार में पुनः स्थापित हो गए हैं।

समाजशास्त्र में एक महत्वपूर्ण विवाद है कि क्या औद्योगीकरण और नौकरी में परिवर्तन से जिसमें कि ज्ञान पर आधारित कार्य जैसे सूचना तकनीक है, क्या इनसे समाज की कुशलता बढ़ रही है? भारत में सूचना तकनीक की वृद्धि को वर्णित करने के लिए प्रायः एक सूक्ति सुनने में आती है ‘नॉलेज इकॉनोमी’ (ज्ञान आर्थिकी)। लेकिन आप एक किसान की दक्षता की तुलना किससे करेंगे जो यह जानता है कि कई सौ फ़सलों को कैसे उगाया जाता है। क्या आप उसकी मौसम, मिट्टी और बीज की समझ पर विश्वास करेंगे या कि एक सॉफ़्टवेयर व्यवसायी पर? दोनों ही अपने कार्यों में दक्ष हैं लेकिन अलग तरह से। प्रसिद्ध समाजशास्त्री हैरी ब्रेवरमैन यह तर्क देते हैं कि वास्तव में मशीनों का प्रयोग कार्यकर्ताओं की दक्षता को कम करता है। उदारहण के लिए पहले वास्तुकार को नक्काशी में दक्षता भी हासिल थी परंतु अब कंप्यूटर उनके बहुत से काम कर देता है।

5.5 कार्यावस्थाएँ

हम सबको शक्ति, एक मज़बूत घर, कपड़े और अन्य सामानों की आवश्यकता होती है, लेकिन हमें याद रखना चाहिए ये किसी के (प्रायः बहुत खराब अवस्था में) काम करने की वजह से हमें प्राप्त होते हैं। सरकार ने कार्य की दशाओं को बेहतर करने के लिए बहुत से कानून बना दिए हैं। अब हम एक खदान की अवस्था को देखते हैं जहाँ बहुत से लोग काम करते हैं। केवल कोयले की खान में ही 5.5 लाख लोग काम करते हैं। खदान एक्ट 1952 जिसे अब व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति कोड, 2020 में शामिल किया गया है, ने स्पष्ट किया है कि एक व्यक्ति खान में सप्ताह में अधिक से अधिक कितने घंटे कार्य कर सकता है, अतिरिक्त घंटों तक काम करने पर उसे अलग से पैसा दिया जाना चाहिए और सुरक्षा के नियमों का पालन होना चाहिए। बड़ी कंपनियों में इन नियमों का पालन किया जाता है, लेकिन छोटी खानों और

खुली खदान

66 खुली खानों में नहीं। यहाँ तक कि उप-ठेका की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है। कई ठेकेदार मज़दरों का रजिस्टर भी ठीक से नहीं रखते हैं, अतः वे दुर्घटना की अवस्था में किसी भी लाभ को देने की ज़िम्मेदारी से मुकर सकते हैं। एक खान का कार्य समाप्त होने पर कंपनी को उस स्थान पर किए गए गड्ढे को भरकर उस जगह को पहले जैसी कर देनी चाहिए, पर वे ऐसा नहीं करते हैं।

भूमिगत खानों में कार्य करने वाले कामगार बाढ़, आग, ऊपरी या सतह के हिस्से के धँसने से बहुत खतरनाक स्थितियों का सामना करते हैं। गैसों के उत्सर्जन और ऑक्सीजन के बंद होने के कारण बहुत से कामगारों को साँस से संबंधित बीमारियाँ हो जाती हैं। जैसे क्षय रोग या सिलिकोसिस। जो खुली खानों में काम करते हैं, वे तेज़ धूप और वर्षा में काम करते हैं, खान के फटने से

औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

या किसी चीज़ के गिरने से आने वाली चोट का सामना भी करते हैं। इस तरह होने वाली दुर्घटनाओं की दर भारत में अन्य देशों की तुलना में काफ़ी ज़्यादा है।

कई उद्योगों में कामगार प्रवासी होते हैं। मछली संसाधन जो समुद्र के किनारे होते हैं, में अधिकांशतः तमिलनाडु, कर्नाटक एवं केरल की एकल युवा महिलाएँ कार्य करती हैं। ये दस-बारह की संख्या में एक छोटे से कमरे में रहती हैं, कभी-कभी तो वे वहाँ पारी में रहती हैं। युवा महिलाओं को आज्ञाकारी (विनम्र) और डटकर काम करने वाली माना जाता है। कई पुरुष भी अकेले प्रवास करते हैं, वे या तो अविवाहित होते हैं, या अपने परिवार को गाँव में छोड़कर आते हैं। सन् 1992 में उड़ीसा के 2 लाख प्रवासियों में से 85 प्रतिशत एकल युवा थे। इन प्रवासियों के पास सामाजिकता निभाने के लिए बहुत कम समय होता है और जो भी थोड़ा बहुत होता है उसे वे अन्य प्रवासी कामगारों के साथ व्यतीत करते हैं। ऐसे राष्ट्र में जहाँ संयुक्त परिवार का हस्तक्षेप होता है, लोगों का भूमंडलीकरण की अर्थ व्यवस्था में काम करना उन्हें अकेलेपन और असुरक्षा की तरफ़ ले जाता है। अभी भी बहुत सी युवा महिलाएँ कुछ स्वतंत्रता और आर्थिक स्वायतत्ता का प्रतिनिधित्व करती हैं।

5.6 घरों में होने वाला काम

घरों पर किया जाने वाला काम आर्थिकी का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसमें लेस बनाना, ज़री या ब्रोकेड का काम, गलीचों, बीड़ियों, अगरबत्तियों और ऐसे ही अन्य उत्पादों को बनाया जाता है। ये कार्य मुख्य रूप से महिलाओं या बच्चों द्वारा किए जाते हैं। एक एजेंट (प्रतिनिधि) इन्हें कच्चा माल दे जाता है और संपूर्ण कार्य को ले भी जाता है। घर पर कार्य करने वालों को चीज़ों के नग (पीस) के हिसाब से पैसे दिए जाते हैं, जो इस बात पर निर्भर करता है कि उन्होंने कितने नग (पीस) बनाए हैं।

अब हम बीड़ी उद्योग के बारे में जानकारी लेते हैं। बीड़ी बनाने की प्रक्रिया जंगल के पास वाले गाँवों से शुरू होती है। वहाँ गाँव वाले तेंदु पत्ते तोड़कर जंगलात विभाग या निजी ठेकेदार को बेच देते हैं जो कि इसे वापस जंगलात विभाग को बेच देता है। औसतन एक आदमी दिन भर में 100 बंडल (हरेक में 50 पत्ते होते हैं) इकरे कर सकता है। सरकार बीड़ी कारखानों के मालिकों को ये पत्ते नीलाम कर देती है, जो वे ठेकेदारों को दे देते हैं। ठेकेदार इनमें तंबाकू भरने के लिए वापस घर पर काम करने वालों को दे देता है। ये अधिकांशतः महिलाएँ होती हैं, ये पहले पत्तों को गीला करके गोलाकार कर देती हैं, फिर उसे काटती हैं, फिर तंबाकू भरकर उसे बाँध देती हैं। ठेकेदार बीड़ियों को वहाँ से लेकर उसे उत्पादक को बेच देता है, जो इन्हें पकाता या सेकता है और अपने ब्रांड का लेबल लगा देता है। उत्पादक इन्हें बीड़ियों के वितरक को बेच देता है, जो उन्हें थोक विक्रेताओं को देता है, और फिर यह आप के पड़ोस वाली पान की दुकान पर बेच दी जाती है।

2020-21 के दौरान, कोविड-19 महामारी के कारण सैकड़ों और हजारों आई.टी. सेक्टर कर्मचारियों ने घर से काम किया। घर आधारित काम तथा घर से काम करने वालों के बीच अंतर और समानताओं का पता लगाएँ।

5.7 हड़तालें एवं मज़दूर संघ

कभी-कभी काम की बुरी दशाओं के कारण कामगार हड़ताल कर देते हैं। वे काम पर नहीं जाते, तालाबंदी की दशा में व्यवस्थापक मिल का दरवाजा बंद कर देते हैं और मजदूरों को अंदर जाने से रोकते हैं। हड़ताल करना

मुश्किल फैसला होता है क्योंकि व्यवस्थापक अतिरिक्त मज़दूरों को बुलाने का प्रयास करते हैं। कामगारों के लिए भी बिना वेतन के रहना मुश्किल हो जाता है।

अब हम 1982 में बंबई टैक्सटाइल मिल की उस प्रसिद्ध हड़ताल के बारे में बात करते हैं, जो व्यापार संघ के नेता, डा. दत्ता सामंत की अगुवाई में हुई थी और जिसकी वजह से लगभग ढाई लाख कामगार और उनके परिवार के लोग प्रभावित हुए थे। कामगारों की माँग थी कि उन्हें बेहतर मज़दरी और अपने खुद के संघ बनाने की इजाजत दी जाए। धीरे-धीरे दो सालों के बाद, लोगों ने काम पर जाना शुरू कर दिया क्योंकि वे परेशान हो चुके थे। लगभग एक लाख कामगार बेरोज़गार हो गए, और वापस अपने गाँव लौट गए, या दिहाड़ी पर काम करने लगे, शेष आसपास के दूसरे छोटे कस्बों जैसे भिवंडी, मालेगाँव और इच्छालकारंजी के बिजली करघा क्षेत्रों में काम करने चले गए। मिल मालिक आधुनिकीकरण और मशीनों पर निवेश नहीं करते हैं। आजकल, वो अपनी मिलों को स्थावर संपदा व्यापारियों (रीयल स्टेट डीलर्स) को सुख-सुविधा संपन्न बहुमंजिली इमारतें बनाने के लिए बेचने का प्रयास कर रहे हैं। इस पर एक झगड़ा शुरू हो गया है कि बंबई के भविष्य को कौन परिभाषित करेगा? - कामगार जो इसे बनाते हैं? या मिल मालिक और स्थावर संपदा व्यापारी?

प्रश्‍नावली

1.अपने आस-पास वाले किसी भी व्यवसाय को चुनिए और इसका वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में कीजिए-

(क) कार्य शक्ति का सामाजिक संघटन- जाति, जेंडर, आयु, क्षेत्र;

(ख) मज़दूर प्रक्रियाकाम किस तरह किया जाता है;

(ग) वेतन एवं अन्य सुविधाएँ;

(घ) कार्यावस्था- सुरक्षा, आराम का समय, कार्य के घंटे इत्यादि|

  1. इंटे बनाने के, बीड़ी रोल करने के, सॉफ़्टवेयर इंजीनियर या खदान के काम जो बॉक्स में वर्णित किए गए हैं, के कामगारों के सामाजिक संघटन का वर्णन कीजिए। कार्यावस्थाएँ कैसी हैं और उपलब्ध सुविधाएँ कैसी हैं? मधु जैसी लड़कियाँ अपने काम के बारे में क्या सोचती हैं?

  2. उदारीकरण ने रोजगार के प्रतिमानों को किस प्रकार प्रभावित किया है?



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