अध्याय 03 संविधान एवं सामाजिक परिवर्तन

आप देखेंगे कि संविधान में लोगों की सहायता करने की क्षमता निहित है क्योंकि यह सामाजिक न्याय के आधारभूत मानदंडों पर आधारित है। उदाहरण के लिए ग्राम पंचायतों से संबंधित निदेशक सिद्धांत एक संशोधन के रूप में के. संथानम द्वारा संविधान सभा में लाया गया था। 40 साल के बाद 1992 के 73 वें संशोधन में यह एक संवैधानिक विधेयक बन गया। अगले भाग में आप इसके विषय में पढ़ेंगे।

संविधान केवल इस बात का संदर्भ ग्रंथ नहीं है कि सामाजिक न्याय के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं बल्कि इसमें सामाजिक न्याय के अर्थ को प्रचारित-प्रसारित करने की संभावनाएँ भी निहित हैं। सामाजिक न्याय की समकालीन समझ को ध्यान में रखते हुए अधिकारों और कर्त्तव्यों की व्याख्या में सामाजिक आंदोलनों ने भी न्यायालयों और प्राधिकरणों की सहायता की है। कानून और न्यायालय ऐसी संस्थाएँ हैं जहाँ प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोणों पर बहस होती है। संविधान वह माध्यम है जो राजनीतिक शक्ति को सामाजिक हित की ओर प्रवाहित करता है और उसे सुसंगत बनाता है।

संवैधानिक मानदंड और सामाजिक न्याय : सामाजिक न्याय सशक्तता की व्याख्या

यह जान लेना आवश्यक है कि कानून और न्याय में अंतर है। कानून का सार इसकी शक्ति है। कानून इसलिए कानून है क्योंकि इससे बल प्रयोग अथवा अनुपालन के संचरण के माध्यमों का प्रयोग होता है। इसके पीछे राज्य की शक्ति निहित होती है। न्याय का सार निष्पक्षता है। कानून की कोई भी प्रणाली अधिकारियों के संस्तरण के माध्यम से ही कार्यरत होती है। ऐसे प्रमुख मानदंड जिनसे नियम और अधिकारी संचालित होते हैं, संविधान कहलाता है। यह एक ऐसा दस्तावेज़ है जिससे किसी राष्ट्र के सिद्धांतों का निर्माण होता है। भारतीय संविधान भारत का मूल मानदंड है। अन्य सभी कानून, संविधान द्वारा नियत कार्य प्रणाली के अंतर्गत बनते हैं। ये कानून संविधान द्वारा निश्चित अधिकारियों द्वारा बनाए व लागू किए जाते हैं। कोई विवाद होने पर संविधान द्वारा अधिकार प्राप्त न्यायालयों के संस्तरण द्वारा कानून की व्याख्या होती है। ‘उच्चतम न्यायालय’ सर्वोच्च है और वही संविधान का सबसे अंतिम व्याख्याकर्त्ता भी है।

उच्चतम न्यायालय ने कई महत्वपूर्ण रूपों में मौलिक अधिकारों को बढ़ाया है। नीचे दिया गया बॉक्स इनमें से कुछ उदाहरणों को दर्शाता है-

बॉक्स 3.1

मौलिक अधिकार वह सब अंतर्भूत करता है जो इसके लिए आकस्मिक है। अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का वर्णन करता है और जीवन के लिए अनिवार्य गुणवत्ता, जीवनयापन के साधन, स्वास्थ्य, आवास, शिक्षा और गरिमा की व्याख्या करता है। विभिन्न उद्घोषणाओं में जीवन की विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है और इसे एक पशुमात्र के अस्तित्व से बेहतर व महत्वपूर्ण रूप में व्याख्यायित किया गया है। ये व्याख्याएँ उन कैदियों को राहत पहुँचाने के लिए प्रयोग की जाती है जिन्हें प्रताड़ित करने और वंचित रखने का दंड मिला है। यह उन्हें मुक्त करने, बंधुआ म.जदूरों को पुनर्वासित करने और प्राथमिक स्वास्थ्य व शिक्षा उपलब्ध कराने की व्याख्या करता है।

1993 में उच्चतम न्यायालय ने सूचना के अधिकार को स्वीकार करते हुए कहा कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है और उसका आनुषांगिक अंग है जो अनुच्छेद 19(क) के अंतर्गत वर्णित है।

मौलिक अधिकारों के संदर्भ में नीति निर्देशक सिद्धांतों की प्रस्तुतिउच्चतम न्यायालय ने ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ निदेशक तत्व्व को अनुच्छेद 14 के समानता के मौलिक अधिकार ’ के अंतर्गत माना तथा बहुत से बागान एवं कृषि श्रमिकों तथा अन्य को राहत पहुँचाई।

3.1 पंचायती राज और ग्रामीण सामाजिक रूपांतरण की चुनौतियाँ

पंचायती राज के आदर्श

पंचायती राज का शाष्दिक अनुवाद होता है ‘पाँच व्यक्तियों द्वारा शासन’। इसका अर्थ गाँव एवं अन्य ज़मीनी स्तर पर लचीले लोकतंत्र की क्रियाशीलता से है। मूल स्तर से लोकतंत्र का विचार हमारे देश में विदेश से आयातित नहीं है, लेकिन ऐसा समाज जहाँ असमानताएँ अत्यंत तीव्र हैं, लोकतांत्रिक भागीदारी को लिंग, जाति और वर्ग के आधार पर बाधित किया जाता है। जैसाकि आप इस अध्याय में समाचारपत्रों की रिपोटों में आगे देखेंगे कि ऐसे गाँवों में पारंपरिक रूप से जातीय पंचायतें रही हैं लेकिन ये हमेशा प्रभुत्वशाली समूहों का ही प्रतिनिधित्व करती रही हैं। इनका दृष्टिकोण प्रायः रूढ़िवादी रहा है और ये लगातार लोकतांत्रिक मानदंडों और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विपरीत निर्णय लेते रहे हैं।

जब संविधान बनाया जा रहा था तो उसमें पंचायतों की कोई चर्चा नहीं की गई थी। उस समय कई सदस्यों ने इस मुद्दे पर अपने दुख, क्रोध और निराशा को प्रकट किया था। ठीक उसी समय अपने ग्रामीण अनुभव का उल्लेख करते हुए डा. अंबेडकर ने तर्क दिया कि स्थानीय कुलीन और उच्चजातीय लोग सुरक्षित परिधि से इस प्रकार घिरे हुए हैं कि स्थानीय स्वशासन का मतलब होगा भारतीय समाज के पददलित लोगों का निरंतर शोषण। नि:संदेह उच्च्च जातियाँ जनसंख्या के इस भाग को चुप करा देंगी। स्थानीय सरकार की अवधारणा गाँधीजी को भी प्रिय थी। वे प्रत्येक ग्राम को स्वयं में आत्मनिर्भर और पर्याप्त इकाई मानते थे जो स्वयं अपने को निर्देशित करे। ग्राम स्वराज्य को वे आदर्श मानते थे और चाहते थे कि स्वतंत्रता के बाद भी गाँवों में यही शासन चलता रहे।

पहली बार 1992 में 73 वें संविधान संशोधन के रूप में मौलिक व प्रारंभिक स्तर पर लोकतंत्र और विकेंद्रीकृत शासन का परिचय मिलता है। इस अधिनियम ने पंयाचती राज संस्थाओं को संवैधानिक प्रस्थिति प्रदान की। अब यह अनिवार्य हो गया है कि स्थानीय स्वशासन के सदस्य गाँवों तथा नगरों में हर पाँच साल में चुने जाएँ। इससे भी

पंचायती राज संस्था की त्रिस्तरीय व्यवस्था

बॉक्स 3.2

इसकी संरचना एक पिरामिड की भाँति है। संरचना के आधार पर लोकतंत्र की इकाई के रूप में ग्राम सभा स्थित होती है। इसमें पूरे गाँव के सभी नागरिक शामिल होते हैं। यही वह आम सभा है जो स्थानीय सरकार का चुनाव करती है और कुछ निश्चित उत्तरदायित्व उसे सौंपती है। ग्राम सभा परिचर्चा और ग्रामीण स्तर के विकासात्मक कार्यों के लिए एक मंच उपलब्ध कराती है और निर्णय लेने की प्रक्रिया में निर्बलों की भागीदारी के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है।

संविधान के 73 वें संशोधन ने बीस लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक राज्य में त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली लागू की।

यह अनिवार्य हो गया कि प्रत्येक पाँच वर्ष में इसके सदस्यों का चुनाव होगा।

इसने अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए निश्चित आरक्षित सीटें तथा महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षित सीटें उपलब्ध कराईं।

इसने पूरे जिले के विकास का प्रारूप निर्मित करने के लिए जिला योजना समिति गठित की।

महत्वपूर्ण यह है कि स्थानीय संसाधनों पर अब चुने हुए निकायों का नियंत्रण होता है।

73वें और 74 वें संविधान संशोधन ने ग्रामीण व नगरीय दोनों ही क्षेत्रों के स्थायी निकायों के सभी चयनित पदों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिया। इनमें से 17 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जाति

व अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। यह संशोधन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके अंतर्गत पहली बार निर्वांचित निकायों में महिलाओं को शामिल किया गया जिससे उन्हें निर्णय लेने की शक्ति मिली। स्थानीय निकायों, ग्राम पंचायतों, नगर निगमों, जिला परिषदों आदि में एक तिहाई पदों पर महिलाओं का आरक्षण है। 73 वें संशोधन के तुरंत बाद 1993-94 के चुनाव में $8,00,000$ महिलाएँ एक साथ राजनीतिक प्रक्रियाओं से जुड़ीं। वास्तव में महिलाओं को मताधिकार देने वाला यह एक बड़ा कदम था। स्थानीय स्वशासन के लिए त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली का प्रावधान करने वाला संवैधानिक संशोधन पूरे देश में 1992-93 से लागू है ( (ॉक्स 3.2 पढ़ें)।

पंचायतों की शक्तियाँ और उत्तरदायित्व

संविधान के अनुसार पंचायत को स्वशासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने हेतु शक्तियाँ व अधिकार दिए जाने चाहिए। आज सभी राज्य सरकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे स्थानीय प्रतिनिधिक संस्थाओं को पुनर्जीवित करें।

पंचायतों को निम्नलिखित शक्तियाँ व उत्तरदायित्व प्राप्त हैं-

आर्थिक विकास के लिए योजनाएँ एवं कार्यक्रम बनाना।

सामाजिक न्याय को प्रोत्साहित करने वाले कार्यक्रमों को बढ़ावा देना।

शुल्क, यात्री कर, जुर्माना, अन्य कर आदि लगाना व एकत्र करना।

सरकारी उत्तरदायित्वों के हस्तांतरण में सहयोग करना, विशेष रूप से वित्त को स्थानीय अधिकारियों तक पहुँचाना।

पंचायतों द्वारा किए जाने वाले सामाजिक कल्याण के कार्यों में शामिल है कि शमशानों एवं कब्रिस्तानों का रखखााव, जन्म और मृत्यु के आँकड़े रखना, मातृत्व केंद्रों और बाल कल्याण केंद्रों की स्थापना, पशुओं के तालाब पर नियंत्रण, परिवार-नियोजन का प्रचार और कृषि-कार्यों का विकास। इसके अलावा सड़कों के निर्माण, सार्वजनिक भवनों के निर्माण, तालाबों व स्कूलों के निर्माण जैसे विकासात्मक कार्य भी इसमें शामिल हैं। पंचायतें कुटीर उद्योगों के विकास में भी सहयोग करती हैं और छोटे सिंचाई कार्यों की भी देखभाल करती हैं। बहुत सी सरकारी योजनाएँ, जैसे कि एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम, एकीकृत बाल विकास योजना आदि पंचायत के सदस्यों द्वारा संचालित होती हैं।

संपप्ति, व्यवसाय, पशु, वाहन आदि पर लगाए गए कर, चुंगी, भू-राजस्व आदि पंचायतों की आय के मुख्य स्रोत हैं। ज़िला पंचायत द्वारा प्राप्त अनुदान पंचायत के संसाधनों में वृद्धि करते हैं। पंचायतों के लिए यह अनिवार्य है कि वे अपने कार्यालय के बाहर बोर्ड लगाएँ जिसमें प्राप्त वित्तीय सहायता के उपयोग से संबंधित आँकड़े लिखे हों। यह व्यवहार यह सुनिश्चित करने के

लिए अपनाया गया कि ज़मीनी स्तर के सामान्य जन के ‘सूचना के अधिकार’ को सुनिश्चित किया जा सके और पंचायतों के सारे कार्य जनता के समक्ष हों। लोगों के पास पैसों के आवंटन की छानबीन का अधिकार है। साथ ही वे यह भी पूछ सकते हैं कि गाँव के कल्याण और विकास के हेतु लिए गए निर्णयों के कारण क्या हैं।

कुछ राज्यों में न्याय पंचायतों की भी स्थापना की गई है। कुछ छोटे-मोटे दीवानी और आपराधिक मामलों की सुनवाई का अधिकार इनके पास होता है। ये जुर्माना लगा तो सकते हैं लेकिन कोई सजा नहीं दे सकते। ये ग्रामीण न्यायालय प्रायः कुछ पक्षों के आपसी विवादों में समझौता कराने में सफल होते हैं। विशेष रूप से ये तब प्रभावशाली होते हैं जब किसी पुरुष द्वारा दहेज के लिए स्त्री को प्रताड़ित किया जाए या उसके विरुद्ध हिंसात्मक कार्यवाही की जाए।

जनजाति क्षेत्रों में पंचायती राज

बहुत से आदिवासी क्षेत्रों की प्रारंभिक स्तर के लोकतांत्रिक कार्यों की अपनी समृद्ध परंपरा रही है। हम मेघालय से संबंधित एक उदाहरण दे रहे हैं। गारो, खासी और जयंतिया, तीनों ही आदिवासी जातियों की सैकड़ों साल पुरानी अपनी राजनीतिक संस्थाएँ रही हैं। ये राजनीतिक संस्थाएँ इतनी सुविकसित थीं कि ग्राम, वंश और राज्य के स्तर पर ये बड़ी कुशलता से कार्य करती थीं। उदाहरणार्थ, खासियों की पारंपरिक राजनीतिक प्रणाली में प्रत्येक वंश की अपनी परिषद् होती थी जिसे ‘दरबार कुर’ कहा जाता था और जो उस वंश के मुखिया के निर्देशन में कार्य करता था। यद्यपि मेघालय में ज़मीनी स्तर पर लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्थाओं की परंपरा रही है, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों का एक बड़ा खंड संविधान के 73 वें संशोधन के प्रावधान से बाहर है। शायद यह इसलिए क्योंकि उस समय की नीतियाँ बनाने वाले पारंपरिक राजनीतिक संस्थाओं में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे।

बॉक्स 3.3

दलित जाति की कलावती चुनाव लड़ने के संबंध में चिंतित थी। आज वह एक पंचायत सदस्य है और यह अनुभव कर रही है कि जब से वह पंचायत सदस्य बनी है तब से उसका विश्वास और आत्मसम्मान बढ़ गया है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि अब उसका अपना एक नाम है। पंचायत की सदस्य बनने से पहले वह रामू की माँ’ या ‘हीरालाल की पत्नी ’ के नाम से जानी जाती थी। यदि वह ग्राम-प्रधान पद का चुनाव हार गई तो उसे अनुभव होगा कि उसकी सखियों की नाक कट गई।

स्रोत - यह आलेख ‘मिला समाख्या ’ नामक गैर सरकारी संगठन द्वारा दर्ज किया गया है, जो कि ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए कार्य करता है।

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वन पंचायत

उत्तराखंड में अधिकांश कार्य महिलाएँ करती हैं, क्योंकि पुरुष प्रायः रक्षा सेवाओं के लिए बाहर नियुक्त होते हैं। खाना बनाने के लिए अधिकांश ग्रामीण लकड़ियों का प्रयोग करते हैं। जैसाकि आप जानते होंगे कि वनों का कटाव पर्वतीय क्षेत्रों की एक बड़ी समस्या है। कभी-कभी पशुओं का चारा और लकड़ी इकट्वा करने के लिए औरतों को मीलों पैदल चलना पड़ता है। इस समस्या के समाधान के लिए औरतों ने वन-पंचायतों की स्थापना की। वन पंचायत की औरतें पौधशालाएँ बनाकर छोटे पौधों का पालन-पोषण करती हैं, जिन्हें पहाड़ी ढालों पर रोपा जा सके। इसकी सदस्य आसपास के जंगलों की अवैध कटाई से सुरक्षा भी करती हैं। चिपको आंदोलन - जिसमें कि पेड़ों को कटने से बचाने के लिए औरतें उनसे चिपक जाती थीं, इस क्षेत्र में ही प्रारंभ किया गया था।

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निरक्षर महिलाओं के लिए पंचायती राज प्रशिक्षण

यह पंचायती राज प्रणाली की शक्तियों के प्रचार-प्रसार का एक नवाचारी उपाय है। सुखीपुर और दुखीपुर नामक दो गाँवों की कहानी कपड़े की फड़ (कहानी कहने का एक परंपरागत लोक माध्यम) के द्वारा प्रस्तुत की गई। दुखीपुर गाँव में एक भ्रष्ट प्रधान थी - विमला। उसने गाँव में स्कूल बनवाने के लिए पंचायत से धन लिया था, लेकिन उसका उपयोग उसने अपने परिवार का घर बनवाने के लिए किया। गाँव का बाकी हिस्सा दुखी और गरीब था। दूसरी तरफ, सुखीपुर गाँव में एक साधारण वर्ग की औरत (नजमा) प्रधान थी; उसने ग्रामीण विकास के पैसे को गाँव के भौतिक संसाधनों को बढ़ाने के लिए खर्च किया। इस गाँव में प्राथमिक चिकित्सालय, सड़कें व पक्के मकान थे। बसें यहाँ आराम से पहुँच सकती थीं। लोक संगीत और चित्रमय फड़ दोनों एक साथ समर्थ सरकार और उसमें भागीदारी प्रचारप्रसार के लिए उपयोगी हथियार थे। कहानी कहने का ये नया तरीका निरक्षर महिलाओं में जागरूकता फैलाने में बहुत प्रभावशाली था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस प्रचार ने यह संदेश दिया कि केवल मतदान करना, चुनाव में खड़े होना या जीतना ही पर्याप्त नहीं

है बल्कि यह जानना भी आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को क्यों मत दिया जाए, उसमें ऐसी क्या विशेषता होनी चाहिए और वह आगे क्या करना चाहता/चाहती है। गीत फड़ के माध्यम से कही गई कहानी सत्यनिष्ठा का पक्ष भी प्रबल करती है। यह प्रशिक्षण कार्यक्रम महिला समाख्या’ नामक गैर सरकारी संगठन द्रारा समायोजित किया गया था जो ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए कार्य करता है।

जैसाकि समाजशास्त्री टिपलुट नोंगबरी ने कहा है कि आदिवासी संस्थाएँ अपनी संरचना और क्रियाकलाप में लोकतांत्रिक ही हों, यह आवश्यक नहीं है। भूरिया समिति की रिपोर्ट (जिसने इस मुद्दे का अध्ययन किया है) पर टिप्पणी करते हुए नोंगबरी ने कहा कि हालाँकि पारंपरिक आदिवासी संस्थाओं पर समिति की चिंता प्रशंसनीय है, लेकिन यह स्थिति की जटिलता का आकलन कर पाने में असमर्थ रही। आदिवासी समाजों में प्रबल समतावादी लोकाचार पाया जाता है, इसके बावजूद उनमें स्तरीकरण के तत्त्व कहीं न कहीं उपस्थित हैं। आदिवासी राजनीतिक संस्थाएँ केवल महिलाओं के प्रति असहिष्णुता के लिए ही नहीं जानी जाती, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ने इस व्यवस्था में विकृतियाँ भी उत्पन्न कर दी हैं जिससे यह पहचानना मुश्किल है कि क्या पारंपरिक है और क्या अपारंपरिक (नोंगबरी, 2003:220)। यह आपको परंपरा की परिवर्तनशील प्रकृति की याद दिलाता है जिसकी चर्चा हम अध्याय 1 व 2 में कर चुके हैं।

लोकतंत्रीकरण और असमानता

अब आपके सामने स्पष्ट हो जाएगा कि जिस देश में जाति, समुदाय और लिंग आधारित असमानता का लंबा इतिहास हो, ऐसे समाज में लोकतंत्रीकरण आसान नहीं है। पिछली पुस्तक में आप विभिन्न प्रकार की असमानताओं से परिचित हो चुके हैं। अध्याय 4 में ग्रामीण भारतीय संरचना की और अच्छी जानकारी प्राप्त करेंगे। ऐसी असमान व अलोकतांत्रिक सामाजिक संरचना को देखने के बाद यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि बहुत से मामलों में गाँव के कुछ विशेष समूह, समुदाय, जाति से संबंधित लोग न तो गाँव की समितियों में शामिल किए जाते हैं और न ही उन्हें ऐसे क्रियाकलापों की सूचना दी जाती है। ग्राम सभा के सदस्य प्रायः एक ऐसे छोटे से गुट द्वारा नियंत्रित व संचालित किए जाते हैं जो अमीर किसानों या उच्च जाति के ज्ञमींदारों के होते हैं। बहुसंख्यक लोग देखते भर रह जाते हैं और ये लोग बहुमत को अनदेखा करके विकासात्मक कार्यों का और सहायता राशि बाँटने का फैसला कर लेते हैं।

3.2 लोकतांत्रिक राजनीति में राजनीतिक दल, दबाव एवं हित समूह

हर सुबह के अखबार पर एक दृष्टिमात्र से ही अनेक ऐसे उदाहरण दिखेंगे कि विभिन्न समूह कैसे अपनी आवाज़ सुनाना चाहते हैं और सरकार का ध्यान अपनी परेशानियों की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं।

उद्योगपति ‘फेडोेशन ऑफ़ इंडियन कॉमर्स एंड चैंबर्स’; ‘एसोसिएशन ऑफ़ चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स’ जैसे संगठन बनाते हैं। कर्मचारी ‘इंडियन ट्रेड यूनियन कांग्रेस’, या ‘द सेंटर फ़ॉर इंडियन ट्रेड यूनियंस’ बनाते हैं। किसान कृषि संगठन बनाते हैं, जैसा कि शेतकरी संगठन कृषि मज़दरों का अपना अलग संघ होता हैं। अंतिम पाठ में आप अन्य प्रकार के संगठनों और सामाजिक आंदोलनों जैसे आदिवासी एवं पर्यावरण आंदोलन के बारे में पढ़ेंगे।

सरकार के लोकतांत्रिक प्रारूप में राजनीतिक दल मुख्य भूमिका अदा करते हैं। एक राजनीतिक दल को निर्वाचन प्रक्रिया द्वारा सरकार पर न्यायपूर्ण नियंत्रण स्थापित करने की ओर उन्मुख संगठन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। राजनीतिक दल एक ऐसा संगठन होता है जो सत्ता हथियाने और सत्ता का उपयोग कुछ विशिष्ट कार्यों को संपन्न करने के उद्देश्य से स्थापित करता है। राजनीतिक दल समाज की कुछ विशेष समझ और यह कैसे होना चाहिए पर आधारित होते हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में विभिन्न समूहों के हित राजनीतिक दलों द्वारा ही प्रतिनिधित्व प्राप्त करते हैं जो उनके मुद्दों को उठाते हैं। विभिन्न हित समूह

क्रियाकलाप 3.1

एक सप्ताह के समाचारपत्र-पत्रिकाओं को देखें। उनमें ऐसे उदाहरणों को लिखें जहाँ हितों का संघर्ष हो।

विवादास्पद मुद्दों का पता लगाएँ।

उन तरीकों का पता लगाइए जिनसे संबंधित समूह अपने हितों का फ़ायदा उठाते हैं।

क्या यह किसी राजनीतिक दल का औपचारिक प्रतिनिधि मंडल है जो प्रधानमंत्री या किसी अन्य अधिकारी से मिलना चाहता है।

क्या यह विरोध सड़कों पर किया जा रहा है?

क्या यह विरोध लिखित रूप में अथवा समाचार पत्रों में सूचना के द्वारा किया जा रहा है?

क्या यह सार्वजनिक बैठकों के द्वारा किया जा रहा है? ऐसे उदाहरणों का पता लगाइए।

यह पता लगाइए कि क्या किसी राजनीतिक दल, व्यावसायिक संघ, गैर सरकारी संगठन अथवा किसी भी अन्य निकाय ने इस मुद्दे को उठाया है?

राजनीतिक दलों को प्रभावित करने के लिए कार्य करेंगे। जब किसी समूह को लगता है कि उसके हित की बात नहीं की जा रही है तो वह एक अलग दल बना लेता है। या फिर ये दबाव समूह बना लेते हैं जो सरकार से अपनी बात मनवाने की कोशिश करते हैं। हित समूह राजनीतिक क्षेत्र में कुछ निश्चित हितों को पूरा करने के लिए बनाए जाते हैं। ये प्राथमिक रूप से वैधानिक अंगों के सदस्यों का समर्थन प्राप्त करने के लिए बनाए जाते हैं। कुछ स्थितियों में राजनीतिक संगठन शासन सत्ता पाना तो चाहते हैं लेकिन वे इंकार कर देते हैं क्योंकि उन्हें कुछ मानक माध्यमों द्वारा ऐसा अवसर नहीं मिलता है। ऐसे संगठन तब तक आंदोलन में बने रहते हैं जब तक उन्हें मान्यता नहीं मिलती।

पहले व दूसरे, दोनों ही क्रियाकलापों में बताया गया है कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए सभी समूहों में समान क्षमता नहीं है। अतः कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि दबाव समूह की अवधारणा प्रबल सामाजिक समूहों जैसे वर्ग, जाति अथवा लैंगिक समूह आदि की शक्ति को हतोत्साहित करती है। वे यह अनुभव करते हैं कि यह कहना अधिक सही होगा कि प्रबल वर्ग ही राज्य को नियंत्रित करते हैं। यहाँ इस बात का यह अर्थ नहीं है कि सामाजिक आंदोलन और दबाव समूह लोकतंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाते। आठवाँ अध्याय यही दर्शाता है।

बॉक्स 3.6

हर साल फरवरी के अंत में भारत सरकार के वित्त मंत्री संसद के सामने बजट पेश करते हैं। इसके पहले हर रोज

अखबार में यह खबर छपती है कि भारतीय उद्यमियों के संगठन, श्रमिक संघों, किसानों और महिलाओं के संगठनों ने वित्त मंत्रालय के साथ बैठक की।

दल के संबंध में मैक्स वेबर के विचार

वर्गों की वास्तविक स्थिति अर्थ प्रणाली के क्रम में है, जबकि प्रस्थिति समूहों का स्थान सामाजिक क्रम (आर्डर) में है….. लेकिन दल शक्ति संरचना के अंतर्गत होते हैं…।

दलों की क्रियाएँ हमेशा एक ऐसे उद्देश्य के लिए होती हैं जिनकी प्राप्ति एक नियोजित दृष्टि के लिए की जाती है। उद्देश्य एक कारण हो सकता है (दल का उद्देश्य किसी आदर्श या भौतिक आवश्यकता के लिए कार्यक्रम की वास्तविकता को जानना भी हो सकता है), या उद्देश्य निजी भी हो सकता है (आराम, शक्ति और इनके माध्यम से नेता और दल के अनुयायियों का सम्मान)।

(वेबर 1948:194)

प्रश्‍नावली

  1. क्या आपने बाल मज़दूर और मज़दूर किसान संगठन के बारे में सुना है? यदि नहीं तो पता कीजिए और उनके बारे में 200 शब्दों में एक लेख लिखिए।

  2. ग्रामीणों की आवाज़ को सामने लाने में 73 वाँ संविधान-संशोधन अत्यंत महत्वपूर्ण है। चर्चा कीजिए।

  3. एक निबंध लिखकर उदाहरण देते हुए उन तरीकों को बताइए जिनसे भारतीय संविधान ने साधारण जनता के दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव लाए हैं और उनकी समस्याओं का अनुभव किया है।

  4. लोकतंत्र में राजनैतिक दलों की महत्ता पर प्रकाश डालिए।

  5. लोकतांत्रिक व्यवस्था में दबाव समूह की भूमिका का वर्णन करें।

  6. दबाव समूह का गठन किस प्रकार होता है?



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