अध्याय 01 संरचनात्मक परिवर्तन

वर्तमान को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि उसके अतीत के कुछ पक्षों की भी जानकारी हो। अतीत का यह ज्ञान किसी भी व्यक्ति या समूह या फिर भारत जैसे पूरे देश को जानने हेतु आवश्यक है। भारत का इतिहास काफ़ी समृद्ध एवं विस्तृत है। भारत के अतीत की जानकारी प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत को जानने से मिलती है। जबकि आधुनिक भारत को समझने के लिए ज़रूरी है कि भारत के औपनिवेशिक अनुभवों को जानें। भारत में आधुनिक विचार एवं संस्थाओं की शुरुआत औपनिवेशिकता की देन है। उपनिवेशवाद के प्रभाव के कारण भारत ने आधुनिक विचारों को जाना। यह एक विरोधाभासी स्थिति भी थी। इस दौर में भारत ने पाश्चात्य उदारवाद एवं स्वतंत्रता को आधुनिकता के रूप में जाना वहीं दूसरी ओर इन पश्चिमी विचारों के विपरीत भारत में ब्रितानी उपनिवेशवादी शासन के अंतर्गत स्वतंत्रता एवं उदारता का अभाव था। इस तरह के अंतः विरोधी तथ्यों ने भारतीय सामाजिक संरचना एवं संस्कृति में परिवर्तनों को दिशा दी एवं उन पर प्रभाव डाला। ऐसे अनेक संरचनात्मक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के बारे में अध्याय 1 और 2 में चर्चा की गई है।

अगले कुछ पाठों में यह बात साफ़ उभर कर आएगी कि किस प्रकार भारत में सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय आंदोलन, हमारी विधि व्यवस्था, हमारा राजनीतिक जीवन और संविधान, हमारे उद्योग एवं कृषि, हमारे नगर और हमारे गाँव-इन सब पर उपनिवेशवाद के विरोधाभासी अनुभवों का गहरा प्रभाव पड़ा। उपनिवेशवाद के साथ हमारे इन विरोधाभासी संबंधों का प्रभाव आधुनिकता पर भी पड़ा। इसके कुछ उदाहरण, जो हम अपने आम जीवन में पाते हैं, वे इस प्रकार हैं-

हमारे देश में स्थापित संसदीय, विधि एवं शिक्षा व्यवस्था ब्रिटिश प्रारूप व प्रतिमानों पर आधारित है। यहाँ तक कि हमारा सड़कों पर बाएँ चलना भी ब्रिटिश अनुकरण है। सड़क के किनारे रेहड़ी व गाड़ियों पर हमें ‘ब्रेड-ऑमलेट’ और ‘कटलेट’ जैसी खाने की चीजें आमतौर पर मिलती हैं। और तो और, एक प्रसिद्ध बिस्कुट निर्माता कंपनी का नाम भी ‘ब्रिटेन’ से संबद्ध है। अनेक स्कूलों में ‘नेक-टाई’ पोशाक का एक अनिवार्य हिस्सा

होता है। कितनी पाश्चात्यता है हमारे दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली इन चीजों में। हम प्रायः पश्चिम की प्रशंसा करते हैं, लेकिन अक्सर विरोध भी करते हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण हमें अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में देखने को मिलते हैं। इन उदाहरणों से पता चलता है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद अब भी हमारे जीवन का एक जटिल हिस्सा है।

हम अंग्रेज़ी भाषा का उदाहरण ले सकते हैं, जिसके बहुआयामी और विरोधात्मक प्रभाव से हम सब परिचित हैं। उपयोग में आने वाली अंग्रेज़ी मात्र भाषा नहीं है बल्कि हम पाते हैं कि बहुत से भारतीयों ने अंग्रेज़ी भाषा में उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएँ भी की हैं। अंग्रेजी के ज्ञान के कारण भारत को भूमंडलीकृत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक विशेष स्थान प्राप्त है। लेकिन यह भी नहीं भूला जा सकता है कि अंग्रेज़ी आज भी विशेषाधिकारों की द्योतक है। जिसे अंग्रेज़ी का ज्ञान नहीं होता है उसे रोज़गार के क्षेत्र में परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन दूसरी ओर अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान अनेक वंचित समूहों के लिए लाभकारी सिद्ध

हुआ है। दलितों के संदर्भ में ये बातें उपयुक्त हैं। परंपरागत व्यवस्था में दलितों को औपचारिक शिक्षा से वंचित रहना पड़ा था। अंग्रेज़ी के ज्ञान से अब दलितों के लिए भी अवसरों के द्वार खुल गए हैं।

इस अध्याय में हमने उन अनेक संरचनात्मक परिवर्तनों का उल्लेख किया है जो उपनिवेशवाद के कारण आए। अब हम इस जानकारी के बाद उपनिवेशवाद को एक संरचना एवं व्यवस्था के रूप में समझेंगे। उपनिवेशवाद ने राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक संरचना में नवीन परिवर्तन उत्पन्न किए। इस अध्याय में हम दो संरचनात्मक परिवर्तनों “औद्योगीकरण एवं नगरीकरण" की चर्चा करेंगे। हमारे विवेचन का मुख्य केंद्र तो विशिष्ट औपनिवेशिकतावाद होगा, पर साथ ही हम स्वतंत्र भारत में हुए विकास का भी उल्लेख करेंगे।

इन सभी संरचनात्मक परिवर्तनों के साथ सांस्कृतिक परिवर्तन भी हुए जिनकी चर्चा हम अगले अध्याय में करेंगे। हालाँकि इन दोनों परिवर्तनों को अलग करना बहुत कठिन है। फिर भी आप देखेंगे कि संरचनात्मक परिवर्तनों की चर्चा कैसे सांस्कृतिक परिवर्तनों को सम्मिलित किए बिना कठिन है?

1.1 उपनिवेशवाद की समझ

एक स्तर पर, एक देश के द्वारा दूसरे देश पर शासन को उपनिवेशवाद माना जाता है। आधुनिक काल में पश्चिमी उपनिवेशवाद का सबसे ज़्यादा प्रभाव रहा है। भारत के इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ काल और स्थान के अनुसार विभिन्न प्रकार के समूहों का उन विभिन्न क्षेत्रों पर शासन रहा जो आज के आधुनिक भारत को निर्मित करते हैं, लेकिन औपनिवेशिक शासन किसी अन्य शासन से अलग और अधिक प्रभावशाली रहा। इसके कारण जो परिवर्तन आए वह अत्यधिक गहरे और भेदभावपूर्ण रहे हैं। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिसमें दूसरे देश के क्षेत्रों पर कब्जा करके राजनीतिक क्षेत्र का विस्तार किया गया। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जिसमें कमजोर लोगों पर शक्तिशाली लोगों ने शासन किया। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि पूँजीवाद के आने से पहले के साम्राज्य और पूँजीवादी दौर के शासन में गुणात्मक अंतर है। पूर्व-पूँजीवादी शासक अपने प्रभुत्व से लाभ प्राप्त कर सके जो उनके निरंतर शासन अथवा विरासत से व्यक्त होता है। कुल मिलाकर पूर्व-पूँजीवादी शासक समाज के आर्थिक आधार में हस्तक्षेप नहीं कर सके। उन्होंने परंपरागत आर्थिक व्यवस्थाओं पर कब्जा करके अपनी सत्ता को बनाए रखा। (अल्वी एवं शानिन)

इसके विपरीत ब्रितानी उपनिवेशवाद पूँजीवादी व्यवस्था पर आधारित था। इसने प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक व्यवसाय में बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप किए जिनसे ब्रितानी पूँजीवाद का विस्तार हुआ और उसे मज़ूती मिली। उदाहरण के लिए भूमि संबंधी नियमों को लें। ब्रितानी उपनिवेशवाद ने केवल भूमि स्वामित्व के नियमों को ही नहीं बदला अपितु यह भी निर्धारित किया कि कौन सी फसल उगाई जाए और कौन सी नहीं। इसने उत्पादन क्षेत्र को भी नहीं छोड़ा। वस्तुओं के उत्पादन की प्रणाली और उनके वितरण के तरीकों को भी बदल दिया। यहाँ तक कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने क्रिटिश पूँजीवाद के प्रसार के लिए जंगलों को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने

संरचनात्मक परिवर्तन

पेड़ों की कटाई और बागानों में चाय की खेती की शुरुआत कराई। जंगल को नियंत्रित एवं प्रशासित करने के लिए अनेक कानून भी बनाए। इससे जंगल पर आश्रित गड़रिये व ग्रामीण लोगों के जीवन में परिवर्तन आए। नए औपनिवेशिक कानूनों के अंतर्गत ग्रामीणों, चरवाहों व गड़रियों का जंगलों में आना-जाना प्रतिबंधित कर दिया गया। अब जंगल से भेड़-बकरियों, गाय-भैंसों आदि पशुओं के लिए चारा इकट्ठा करना दुर्लभ हो गया।

सन् 1834 से लेकर 1920 तक, भारत के अनेक बंदरगाहों से नियमित रूप से जहाज जाते

बॉक्स 1.1

थे। उन जहाजों में विभिन्न धर्मों, लिंग, वर्गों व जातियों के भारतीय लोग होते थे जिन्हें कम से कम पाँच साल के लिए मॉरीशस के बागानों में मजजूरी करने के लिए पहुँचाया जाता था। इसके लिए कई दशकों तक लोगों का चयन मुख्यतः बिहार प्रांत के विशेषकर पटना, गया, आरा, सारण, तिरहुत, चंपारण, मुंगरे, भागलपुर और पूर्णिया जिलों में से होता था।(पाइनीओ 1984)

उपनिवेशवाद ने लोगों की आवाजाही को भी बढ़ाया। भारत के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आना जाना चलता रहा। जैसे आज के झारखंड प्रदेश से, उन दिनों, बहुत से लोग चाय बागानों में मज़दूरी करने के उद्देश्य से असम आए। उन्हीं दिनों एक नए मध्य वर्ग का भी उद्भव हुआ जो मुख्यतः बंगाल और मद्रास क्षेत्र से था। उसमें वे लोग थे जिनको उपनिवेशवादी शासन ने देश के विभिन्न भागों से सेवा के लिए चुना था इसके अलावा विभिन्न पेशेवर लोग जैसे- डॉक्टर एवं वकील। इन सरकारी सेवाकर्मियों और व्यवसायियों का भी बहुत आवागमन होता रहा। यह आवागमन भारत तक ही सीमित नहीं रहा। उपनिवेशवादी शासन ने भारतीय मज़दरों एवं दक्ष सेवाकर्मियों को जहाजों के माध्यम से सुदूर एशिया, अफ्रीका और अमरीका में स्थित अन्य उपनिवेशों में भी भेजा। कितने लोग तो जहाज़ पर रास्ते में ही मर जाते थे। जाने वाले अधिकांश लोगों में से कुछ तो कभी लौट कर ही नहीं आए। आज उन भारतीयों के वंशजों को “भारतीय मूल” का माना जाता है। दुनिया के अनेक देशों में भारतीय मूल के लोग पाए जाते हैं जो वस्तुतः भारत के उपनिवेशवादी शासन के दौरान उन देशों में पहुँचे।

व्यवस्थित शासन के लिए उपनिवेशवाद ने विभिन्न क्षेत्रों में भारी परिवर्तन की शुरुआत की। ये परिवर्तन वैधानिक, सांस्कृतिक अथवा वास्तुकला आदि क्षेत्रों में लाए गए। वस्तुतः उपनिवेशवाद वृहद एवं तीव्र रूप से लाए गए परिवर्तनों की कहानी थी। इनमें से कुछ परिवर्तन तो अप्रकट रूप में थे जबकि अनेक सुनियोजित तरीके से लाए गए थे। जैसे कि हम पाते हैं कि पश्चिमी शिक्षा पद्धति को भारत में इस उद्देश्य से लाया गया कि उससे भारतीयों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद को बनाए रखने में सहयोगी हो। लेकिन हम यह भी पाते हैं कि यही पश्चिमी शिक्षा पद्धति राष्ट्रवादी चेतना एवं उपनिवेश विरोधी चेतना का माध्यम बनी।

उपनिवेशवाद के आयामों व तीव्रता को समझने के लिए यह आवश्यक है कि पूँजीवाद की संरचना को समझा जाए। पूँजीवाद ऐसी आर्थिक व्यवस्था है जिसमें उत्पादन के साधन का स्वामित्व कुछ विशेष लोगों के हाथों में होता है। और इसमें ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने पर ज़ोर दिया जाता है। (कक्षा 12 की पहली पाठ्यपुस्तक भारतीय समाज में पूँजीवादी बाजजार के बारे में विस्तार से चर्चा की जा चुकी है)। पश्चिम में पूँजीवाद का प्रारंभ एक जटिल प्रक्रिया के फलस्वरूप हुआ। इस प्रक्रिया में मुख्य रूप से यूरोप द्वारा शेष दुनिया की खोज, गैर यूरोपीय देशों की संपत्ति और संसाधनों का दोहन, विज्ञान और तकनीक का अद्वितीय विकास और इसके उपयोग से उद्योग एवं कृषि में रूपांतरण आदि सम्मिलित हैं। पूँजीवाद को प्रारंभ से ही इसकी गतिशीलता, वृद्धि की संभावनाएँ, प्रसार, नवीनीकरण, तकनीक और श्रम के बेहतर उपयोग के लिए

जाना गया। इन्हीं गुणों के कारण पूँजीवाद ज़्यादा से ज़्यादा लाभ सुनिश्चित करता है। पूँजीवादी दृष्टिकोण से बाजार को एक वृहद-भूमंडलीकृत रूप में देखा गया। पश्चिमी उपनिवेशवाद का पश्चिमी पूँजीवाद के विकास से अन्योन्याश्रित संबंध है। यही बात औपनिवेशिक भारत के संदर्भ में भी कही जा सकती है। भारत में भी पूँजीवाद के विकास के कारण उपनिवेशवाद प्रबल हुआ और इस प्रक्रिया के दूरगामी प्रभाव भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना पर पड़े। अगले भाग में हम औद्योगीकरण और नगरीकरण के बारे में जानेंगे और समझेंगे कि कैसे उपनिवेशवाद के प्रभाव से कुछ विशिष्ट प्रारूपों का उद्भव हुआ।

अगर पूँजीवादी व्यवस्था सशक्त आर्थिक व्यवस्था बन सकती है तो ‘राष्ट्र राज्य’ भी सशक्त एवं प्रबल राजनीतिक रूप ले सकता है। आज यह बड़ा स्वाभाविक लगता है कि हम सब राष्ट्र राज्य में रहते हैं और हमें राष्ट्रीयता यानी कि राष्ट्र की नागरिकता स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। क्या आपको पता है कि पहले विश्वयुद्ध के पूर्व अंतर्राष्ट्रीय आवागमन के लिए पासपोर्ट का अधिक चलन नहीं था, कुछ ही क्षेत्रों के लोगों के पास यह उपलब्ध था। समाजों का संगठन सामान्यतः इन आधारों पर नहीं होता था। राष्ट्र राज्य एक विशिष्ट प्रकार के राज्य के लिए उपयोगी है, जो कि आधुनिक समाज का लक्षण है। सरकार को एक विशेष क्षेत्र (टेरीटरी) में संप्रभुता प्राप्त होती है और इसमें रहने वाले लोग एक राष्ट्र के नागरिक होते हैं। ‘नेशन स्टेट’ या राष्ट्र-राज्य राष्ट्रवाद के उदय से घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। राष्ट्रवादी सिद्धांत के अनुसार किसी क्षेत्र विशेष में लोगों के समूह को स्वतंत्रता एवं संप्रभुता प्राप्त होती है। उन्हें अधिकार प्राप्त होता है कि वे अपनी स्वतंत्रता एवं संप्रभुता का इस्तेमाल कर सकें। ये प्रजातांत्रिक विचारों के उद्भव का महत्वपूर्ण हिस्सा है। अध्याय-3 में आप इसके बारे में विस्तार से जान पाएँगे। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद के सिद्धांत तथा प्रजातांत्रिक अधिकार के बीच विपरीतार्थक संबंध है। हमने जाना है कि उपनिवेशवाद का मतलब, साधारणतः विदेशी शासन जैसे भारत में ब्रिटिश शासन से है जबकि इसके विपरीत राष्ट्रवाद का निर्देश था कि भारत के लोग या किसी भी उपनिवेशीय समाज के लोगों को संप्रभु होने का समान अधिकार है। भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं ने इस विरोधाभास को सही समय पर समझा। उन लोगों ने घोषणा कर दी कि स्वाधीनता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है और वे राजनीतिक एवं आर्थिक स्वाधीनता के लिए लड़ें।

1.2 नगरीकरण और औद्योगीकरण

औपनिवेशिक अनुभव

औद्योगीकरण का संबंध यांत्रिक उत्पादन के उदय से है जो शक्ति के गैरमानवीय संसाधन जैसे वाष्प या विद्युत पर निर्भर होता है। बहुत सारी पश्चिमी समाजशास्त्रीय पुस्तकों में यह बताया गया है कि अति विकसित परंपरात्मक सभ्यताओं में भी खेत या ज़मीन पर उत्पादन से संबंधित कार्य करने के लिए अधिकाधिक मानवों की आवश्यकता होती थी। अपेक्षाकृत निम्न तकनीकी विकास की वजह से बहुत ही कम लोग कृषि के कार्य से अतिरिक्त कुछ अन्य आसान व्यवसाय कर सकते थे। इसके विपरीत, औद्योगिक समाजों में ज़्यादा से ज़्यादा रोज़गारवृत्ति में लगे लोग कारखानों, ऑफिसों और दुकानों में कार्य करते हैं। औद्योगिक परिवेश में कृषि संबंधी व्यवसाय में लोगों की संख्या कम होती जाती है। यह देखने में आया है कि पश्चिम में 90 प्रतिशत से ज़्यादा लोग कस्बों और शहरों में रहते हैं क्योंकि वहीं पर रोज़गार व व्यवसाय के अवसर अधिक

होते हैं। अतः हम नगरीकरण को औद्योगीकरण से जोड़कर देखते हैं। ये दोनों प्रायः एक साथ होने वाली प्रक्रियाएँ हैं, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता।

उदाहरण के लिए ब्रिटेन औद्योगीकरण से गुज़रने वाला पहला समाज था जो सबसे पहले ग्रामीण से रूपांतरित होकर नगरीय देश बना।

सन् 1800 में 10,000 निवासियों वाले कस्बों और शहरों में पूरी जनसंख्या के 20 प्रतिशत लोग रहते थे। सन् 1900 तक यह अनुपात 74 प्रतिशत का हो गया। राजधानी लंदन में, सन् 1800 में, लगभग 1.1 करोड़ लोग रहा करते थे। बीसवीं सदी के प्रारंभ तक यह आकार बढ़कर इतना हो गया कि इसकी जनसंख्या तकरीबन 7 करोड़ हो गई थी। लंदन, उस वक्त तक दुनिया का सबसे बड़ा नगर था। वह उत्पादन, वाणिज्य और आर्थिकी का सबसे बड़ा केंद्र था। यह केंद्र निरंतर फैलते हुए ब्रिटिश साम्राज्य का हृदय क्षेत्र हो गया था। (गिडिन्स, 2001: 572)

यह कौतूहल की बात है कि ठीक इसी ब्रिटिश औद्योगीकरण का एक उल्टा असर यानी कि भारत के कुछ क्षेत्रों में औद्योगिक क्षरण (डीइंडस्ट्रियलाइजेशन) हुआ। भारत में कुछ पुराने, परंपरात्मक नगरीय केंद्रों का भी पतन हो गया। जिस तरह ब्रिटेन में उत्पादन व निर्माण में चढ़ाव आया, उसके विपरीत भारत में गिरावट आई। परंपरागत ढंग से होने वाले रेशम और कपास का उत्पादन और निर्यात “मेनचेस्टर प्रतियोगिता" में गिरता चला गया। भारत के प्राचीन नगर, जैसे सूरत और मसुलीपट्नम जहाँ से व्यापार हुआ करता था, का अस्तित्व कमजोर होने लगा जबकि आधुनिक नगर जैसे बंबई और

जयपुर

मद्रास जो उपनिवेशवादी शासन में प्रचलित हुए, मजबबूत होते गए। भारतीय राज्यों पर ब्रिटिश अधिकार के बाद तंजौर, ढाका, और मुर्शीदाबाद की राजसभाओं का विघटन हो गया फलतः इन राजसभाओं के संरक्षण में कार्यरत कारीगर, कलाकार और कुलीन लोगों का भी पतन हुआ। 19 वीं सदी के अंत से भारत के कुछ आधुनिक नए शहरों में जहाँ यांत्रिक उद्योग लगाए गए थे, लोगों की जनसंख्या बढ़ने लगी।

नगरों में स्थित उत्पादकों के द्वारा बनाए गए विलासिता के सामानों, ढाका या मुर्शीदाबाद की उच्चकोटि की रेशम की माँग में दरबारों के विघटन के बाद भारी कमी हो गई। ये उत्पाद जिन बाह्य बाजारों पर निर्भर थे उनका भी कमोबेश सफ़ाया हो गया था। दूर-दराज के क्षेत्रों के ग्राम, शिल्प विशेषतः पूर्वी भारत के उन क्षेत्रों के अतिरिक्त जहाँ अंग्रेजों का प्रवेश जल्दी और सघन था अधिक समय तक स्थिर रहे, जब तक कि रेलवे के विस्तार ने उन्हें गंभीर रूप से प्रभावित नहीं किया। (सरकार 1983: 29)

भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास

भारत की जनगणना रिपोर्ट 1911,

अंक-1, पृष्ठ संख्या- 408भारत में सस्ते यूरोपीय कपड़ों के थान और बर्तनों का अबाध और तीव्र गति से आयात और पश्चिमी रूपरेखा वाले उद्योगों के भारत में ही लग जाने के बाद भारत के ग्रामीण उद्योगों का लगभग सफ़ाया ही हो गया। खेती से हुई उपज की ऊँची कीमत को देखते हुए ग्रामीण कारीगरों ने अपने वंशानुगत व्यवसाय को छोड़कर खेती करना शुरू कर दिया। ग्रामीण संगठनों और कारोबारों का विघटन प्रत्येक क्षेत्र में अलग-अलग गति से हुआ। विकसित प्रांतों में यह परिवर्तन ज़्यादा स्पष्ट रूप से दिखा।

और नए सामाजिक संबंधों के उद्भव और विकास की कहानी है। दूसरे शब्दों में यह भारतीय सामाजिक संरचना में हुए परिवर्तनों के बारे में है।

ब्रिटिश साम्राज्य की अर्थव्यवस्था में नगरों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। समुद्र तटीय नगर जैसे बंबई, कलकत्ता और मद्रास उपयुक्त माने गए थे। क्योंकि इन जगहों से उपभोग की आवश्यक वस्तुओं का निर्यात आसानी से किया जा सकता था। साथ ही, यहीं से उत्पादित वस्तुओं का सस्ती लागत से आयात किया जा सकता था। औपनिवेशिक नगर ब्रिटेन में स्थित आर्थिक केंद्र और औपनिवेशिक भारत में स्थित हाशिये के बीच महत्वपूर्ण संपर्क सूत्र थे। इस प्रकार ये नगर भूमंडलीय पूँजीवाद के ठोस उदाहरण थे। उदाहरण के रूप में औपनिवेशिक भारत में, बंबई को इस प्रकार सुनियोजित ढंग से विकसित किया गया था कि सन् 1900 तक भारत की एक तिहाई कच्ची कपास को जहाज़ से भेजा जा चुका था। कोलकाता से जूट (पटसन) का निर्यात ब्रिटेन में औद्योगीकरण के प्रभाव से ज़्यादातर लोग नगरों में आए लेकिन इसके विपरीत भारत में ब्रिटिश औद्योगीकरण के प्रारंभिक समय में ज़्यादातर लोगों को कृषि की ओर जाना पड़ा। भारतीय जनगणना रिपोर्ट इसे स्पष्ट रूप से दर्शाती है।

भारत में समाजशास्त्रीय लेखन में उपनिवेशवाद के विरोधाभासी और अनिच्छित परिणामों के बारे में अक्सर चर्चा की गई है। पश्चिमी औद्योगीकरण और उसके परिणामस्वरूप उभरे मध्यवर्ग की तुलना भारत में हुए औद्योगीकरण के अनुभवों के साथ की जाती रही है। ऐसी ही एक झलक बॉक्स में दिए गए विवरण से मिलती है। निम्नलिखित तर्क से यह भी पता चलता है कि औद्योगीकरण का मतलब केवल मशीनों पर आधारित उत्पाद ही नहीं बल्कि यह नए सामाजिक समूहों

ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में त्रिटिश

बॉक्स 1.3

शासन ने (भारत को) बदले में जो दिया वह था- भूमि-स्वामित्व और अंग्रेज़ी में शिक्षा की सुविधा। कुछ तथ्य यह साबित करते हैं कि जो विकल्प दिए गए थे वे मध्य वर्ग का गठन करने के लिए समुचित नहीं थे। यह पहला तथ्य है कि प्रारंभ में इसका कृषि से हुई उपज से कोई लेना-देना नहीं था और दूसरा, भारत की सांस्कृतिक परंपरा से कोई संबंध नहीं था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि ज्ञमींदार जमीन के परजीवी हो गए और शिक्षित स्नातक बस नौकरी ढूँढ़ने वाले। (मुखर्जी 1979: 114)

क्रियाकलाप 1.1

तीनों नगरों की शुरुआत (उद्भव और विकास) के बारे में और जानकारी इकट्ठा करें।

इनके पुराने नामों के बारे में भी पता करें जिन्हें बदलकर अब बंबई से मुंबई, मद्रास से चेन्नई, कलकत्ता से कोलकाता, बंगलोर से बंगलूरु किया गया है।

अन्य शहरी उपनिवेशी नगरों के विकास के बारे में पता लगाइए?

दक्षिण एशिया के औपनिवेशिक

बॉक्स 1.4

नगर का प्रारूप

यूरोपीय शहर में… विशाल बंगले, सुसज्जित मकान, सुनियोजित सड़क, सड़कों के दोनों किनारों पर पेड़…दोपहर और शाम को मिलने-जुलने के लिए क्लब…खुली जगहों को पश्चिमी रूपरेखा के मनोरंजन की सुविधाओं, जैसे घुड़दौड़, गोल्फ, फुटबॉल और क्रिकेट के लिए सुरक्षित रखा गया था। जब घरेलू जलापूर्ति, विद्युत संपर्क और दूषित पानी के निष्कासन की सुविधाएँ मौजूद थी और तकनीकी स्तर पर संभव थीं तब यूरोपीय नगरों में रहने वाले लोगों ने उसका भरपूर इस्तेमाल किया। इन सुविधाओं का उपयोग केवल यूरोपीय मूल के नागरिकों के लिए ही सुलभ था। (दत्त $1993: 361$ )

होता था जबकि चेन्नई से कहवा, चीनी, नील और कपास ब्रिटेन को निर्यात किया जाता था।

औपनिवेशिक काल के नगरीकरण में पुराने शहरों का अस्तित्व कमज़ोर होता गया और उनकी जगह पर नए औपनिवेशिक शहरों का उद्भव और विकास हुआ। कोलकाता (उन दिनों का कलकत्ता) ऐसा पहला नगर था। सन् 1690 में एक अंग्रेज़ व्यापारी, जिसका नाम जॉब चारनॉक था, ने हुगली नदी के तट से लगे तीन गाँवों- कोलीकाता, गोविंदपुर, और सुतानुती को पट्टे पर लिया। उसका उद्देश्य उन तीनों गाँवों में व्यापार के अड्डे बनाना था। हुगली नदी के किनारे ही सन् 1698 में फोर्ट विलियम की स्थापना रक्षा और सैन्य बल को गठित करने के उद्देश्य से हुई। फोर्ट और उसके आसपास का खुला क्षेत्र जिसे मैदान कहते थे जहाँ सैन्य बलों के डेरे थे, कलकत्ता नगर का केंद्र बना। इसी केंद्र से नगर का प्रसार हुआ।

चाय की बागवानी

हम अब तक जान चुके हैं कि भारत में औद्योगीकरण और नगरीकरण उस प्रकार नहीं हुआ जैसे ब्रिटेन में हुआ। इसकी वजह औद्योगीकरण की देर से हुई शुरुआत नहीं थी बल्कि यहाँ के प्रारंभिक औद्योगीकरण और नगरीकरण पर औपनिवेशिक शासन चलता था जो अपने ही हितों को देखता था।

हम विभिन्न उद्योगों के बारे में यहाँ विस्तार से चर्चानहीं करेंगे। हम केवल चाय की बागवानी को उदाहरण के रूप में ले लेंगे। अधिकारिक रिपोर्ट से पता चलता है कि औपनिवेशिक सरकार गलत तरीकों से मज़दरों की भर्ती करती थी और उनसे बलपूर्वक काम लिया जाता था। ब्रिटिश व्यवसायियों

के लिए सरकारी

बल का प्रयोग कर बागानों में मज़ूरों से सस्ते में काम कराया जाता था। कथा साहित्य एवं अन्य स्रोतों से बागान में काम करने वालों के जीवन से संबंधित जानकारी प्राप्त होती है।

वास्तव में औपनिवेशिक प्रशासक यह मानकर चलते थे कि बागान वालों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए मज़दरों पर कड़े से कड़ा बल प्रयोग किया जाए। वे इस तथ्य से पूर्णतः अवगत थे कि औपनिवेशिक देश में चलाए गए नियम कानून अलग हो सकते हैं और यह ज़रूरी नहीं है कि ब्रिटिश उन प्रजातांत्रिक नियमों का निर्वाह औपनिवेशिक देश में भी करें जो ब्रिटेन में लागू होते थे।

भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास

बॉक्स 1.5

श्रमिकों का चयन और नियुक्ति किस प्रकार होती थी

सन् 1851 में चाय उद्योगों की भारत में शुरुआत हुई। ज़्यादातर चाय के बागान असम में थे। सन् 1903 तक 4,79,000 स्थायी और 93,000 अस्थायी लोगों को यहाँ काम पर रखा गया था। चूँकि असम की जनसंख्या सघन नहीं थी और चाय के बागान निर्जन पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित थे इसलिए बड़ी संख्या में श्रमिकों को दूसरे प्रांतों से लाया गया था। लेकिन दूरदराज से हजारों मजदूरों को लाकर ऐसी जगह पर रखने में जहाँ की आबोहवा स्वास्थ्य के प्रतिकूल थी, यहाँ तक कि विचित्र प्रकार के बुखारों का प्रकोप था, इलाज में अत्यधिक खर्चा होता था और इस खर्चे के लिए बागानों के मालिक और ठेकेदार सहमत नहीं थे। सही तरीके से मजदूरों को लाना खर्चीला होता इसलिए ब्रिटिश व्यावसायिकों ने सरकारी ताकत का सहारा लिया। ऐसे कानून बनाए गए कि गरीब मजदूरों के पास कोई विकल्प नहीं बचा। असम के चाय के बागानों के लिए मजदूरों की नियुक्ति बरसों तक होती रही। यह काम ठेकेदारों को दिया गया था जो बंगाल के ट्रांसपोर्ट ऑफ़ नेटिव लेबरर्स एक्ट (न. 111)-1863, जिसका 1865,1870 और 1873 में संशोधन किया गया, का इस्तेमाल करके मजजदरों को प्रलोभन, बल, भय के द्वारा असम भेजते थे।

मज़दूरों के बारे में जानने के बाद यह आवश्यक है कि मालिकों/बागान वालों के बारे में जानें।

बॉक्स 1.6

बागानों के मालिक कैसे रहते थे?

सामान की लदाई और उतारने के लिए परबतपुरी एक अहम जगह थी। जब भी भाप छोड़ते पानी के स्टीमर किनारे से लगते, आसपास के बागानों के मालिक अंग्रेज और उनकी मेम जहाज से उतरते। वैसे तो उनके बगीचे दूरदराज थे और उन्हें एकांत में ही रहना पड़ता था लेकिन उनकी जीवन शैली में भोग विलास की चमक भरपूर थी। उनके विशाल बँगले मजबूत लकड़ी के पट्टों पर स्थित और घिरे हुए थे ताकि जंगली जानवर वहाँन आ पाएँ। राजसी बँगले के चारों ओर मखमली बाग थे जिनकी रौनक में रंग-बिंगे फूलों की कतार थी… उन गोरे साहबों ने कितने ही स्थानीय लोगों को विशेष ट्रेनिंग देकर बेहतर सेवा देने लायक बना दिया था। माली, बावर्ची और घरेलू कामकाज करने वाले नौकरों की कैफ़ियत देखते बनती थी। नौकरों की सेवा की वजह से उन विशाल बँगलों के बरामदे और एक-एक सामान दूर से ही चमकते थे। सारी ज़ूरत की चीजें साफ-सफ़ाई के पाउडर से लेकर परिक्कृत काँटे, सेफ्टी पिन से लेकर चाँदी के बर्तन तक, नॉटिंघम के किनारे वाले टेबल क्लॉथ से लेकर नहाने के साबुन तक, सब कुछ जहाज से आते थे। बड़े-बड़े नहाने के टब जो कि विशाल नहाने के कमरे में रखे जाते थे, जिन्हें कि हर दिन सवेरे भिश्ती बँगले के कुएँ के पानी से भर देता था, वे भी वास्तव में स्टीमर से ही आते थे।

(फुकन 2005)

स्वतंत्र भारत में औद्योगीकरण

पहले के भागों में हमने जाना था कि भारत में औद्योगीकरण और नगरीकरण में औपनिवेशिक शासन की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इस भाग में हम संक्षेप में जानेंगे कि औद्योगीकरण को स्वतंत्र भारत की सरकार ने सक्रिय तौर पर बढ़ावा कैसे दिया। कुछ अर्थों में यह एक प्रकार की प्रतिक्रिया भी थी जिसमें स्वाधीन भारत के शासक उपनिवेशवाद के द्वारा प्रभावित हुए विकास को सँजोए रखना चाहते थे। अध्याय- 5 में हम भारतीय औद्योगीकरण और इसमें आए परिवर्तनों, विशेषकर सन् 1990 के बाद हुए उदारीकरण के बारे में चर्चा करेंगे।

भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए औपनिवेशिक शासन के दौरान हुआ आर्थिक शोषण एक केंद्रीय मुद्दा था। उपनिवेशवाद से पहले

क्रियाकलाप 1.2

आप सब अमूल मक्खन और अमूल के ही अन्य उत्पादों से तो परिचित ही होंगे।

पता करें कि किस तरह से इस दुग्ध आधारित उद्योग का उद्भव हुआ।

के भारत की जो तस्वीर कथा-साहित्य आदि में दिखती थी, उसमें समृद्धि और संपन्नता थी। लेकिन उपनिवेशवाद के बाद के भारत में गरीबी दिखाई देती थी। स्वदेशी आंदोलन ने भारत की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रति निष्ठा को मज़बत किया। आधुनिक विचारों के द्वारा लोगों ने अनुभव किया कि गरीबी को दूर किया जा सकता है। भारतीय राष्ट्रवादियों ने अनुमान लगाया कि तीव्र और वृहद औद्योगीकरण के द्वारा आर्थिक स्थिति में आवश्यक सुधार किए जा सकते हैं जिनसे विकास और सामाजिक न्याय हो पाएगा। भारी मशीनीकृत उद्योगों का विकास हुआ। इन्हें बनाने वाले उद्योग, पब्लिक सेक्टर के विस्तार और बड़े को-ऑपरेटिव सेक्टर को महत्वपूर्ण माना गया।

क्रियाकलाप 1.3

आजादी के बाद के सालों में भारत में अनेक औद्योगिक शहरों का उद्भव और विकास हुआ। संभवतः आपमें से कुछ ऐसे शहरों में रहते भी हों।

बोकारो, भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर जैसे शहरों के बारे में जानकारी इकही करें। क्या आपके क्षेत्र में भी ऐसे शहर हैं?

क्या आपको उर्वरक उत्पादन यंत्र और तेल के कुओं के क्षेत्र के आसपास बसे शहरों के बारे में पता है?

अगर ऐसा कोई शहर आपके क्षेत्र में नहीं है तो पता करें कि ऐसा क्यों है?

स्वतंत्र भारत में नगरीकरण

आपको भारत में निरंतर बढ़ रही नगरीकरण की प्रक्रिया के बारे में तो ज़रूर पता होगा। हाल ही के वर्षों में बढ़ते हुए भूमंडलीकरण द्वारा शहरों के अत्यधिक प्रसार और परिवर्तनों की जानकारी भी होगी। अध्याय-6 में इसके बारे में विस्तार से चर्चा की जाएगी। भारत में 21 वीं शताब्दी में नगरीकरण की प्रक्रिया की दर अत्यंत तीव्र होती नज़र आती है। भारत सरकार की ‘स्मार्ट सिटी’ की महत्वाकांक्षी योजना इस गति को तीत्र करने में महत्वपूर्ण योगदान देगी। यहाँ हम समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भारत में नगरीकरण के विभिन्न प्रकारों को देखेंगे।

आजादी के बाद के दो दशकों में भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखने लगा था। नगरीकरण अनेक प्रकारों से हो रहा था। इस पर विचार व्यक्त करते हुए समाजशास्त्री एम. एस. ए. राव ने लिखा है कि भारत के कई गाँव भी तेज़ी से बढ़ रहे नगरीय प्रभाव में आ रहे थे। नगरीय प्रकृति का प्रभाव गाँवों का शहर या नगर से कैसा संबंध है, पर निर्भर करता है। उन्होंने तीन भिन्न प्रकार के नगरीय

एक नगरीय गाँव का दृश्य

प्रभावों की स्थिति की व्याख्या की है।भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास

बॉक्स 1.7

सबसे पहले वे गाँव आते हैं जहाँ से अच्छी खासी संख्या में लोग दूरदराज के शहरों में रोजगार ढूँढ़ने के लिए जाते हैं। वे उन शहरों में रहते हैं लेकिन उनके परिवार के सदस्य गाँवों में ही रहते हैं। उत्तर-मध्य भारत के एक गाँव माधोपुर में 298 घरों मे से 77 घर ऐसे हैं जिनके सदस्य प्रवासी हैं, जबकि 77 अप्रवासियों में से लगभग आधे ऐसे हैं जो मुंबई या कोलकाता में काम करते हैं। कुल अप्रवासियों के 75 प्रतिशत ऐसे प्रवासी हैं जो गाँव में अपने परिवार को नियमित रूप से पैसे भेजते हैं और 83 प्रतिशत अप्रवासी प्रत्येक साल या चार से पाँच बार या दो साल में एक बार अपने गाँवों में आते हैं। बहुत सारे प्रवासी केवल भारतीय नगरों में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी रहते हैं। जैसे कि गुजरात के गाँवों के अनेक प्रवासी अफ्रीका और ब्रिटेन के शहरों में रहते हैं। इन लोगों ने अपने गाँवों में आधुनिक फैशन के मकान भी बनाए हुए हैं। इन्होंने जमीन-जायदाद में भी निवेश किया हुआ है, तथा शिक्षण संस्थान और जनकल्याण के लिए स्थापित ट्रस्टों को भी दान दिया है…

दूसरे प्रकार का शहरी प्रभाव उन गाँवों में देखा जाता है जो औद्योगिक शहरों के निकट स्थित हैं। जब एक भिलाई जैसा औद्योगिक शहर उभरता है तो उसके आसपास के कुछ गाँवों की पूरी जमीन उस शहर का हिस्सा बन जाती है, जबकि कुछ गाँवों की आंशिक भूमि अधिग्रहित की जाती है। ऐसे शहरों में प्रवासी कामगार आते ही रहते हैं जिससे गाँवों में मकानों की माँग बढ़ जाती है और बाजार का विस्तार होता है। साथ ही साथ स्थानीय निवासियों और अप्रवासियों के बीच के संबंधों को संतुलित करने की समस्या भी उत्पन्न होती है। महानगरों का उद्भव और विकास तीसरे प्रकार का शहरी प्रभाव है जिससे निकटवर्ती गाँव प्रभावित होते हैं। नगरों के विस्तार में कुछ सीमावर्ती गाँव पूरी तरह से नगर के प्रसार में विलीन हो जाते हैं जबकि वे क्षेत्र जहाँ लोग नहीं रहते नगरीय विकास के लिए प्रयोग कर लिए जाते हैं।

(राव $1974: 486-490$ )

चुने हुए महानगरीय शहरों की दशकीय वृद्धि दर प्रतिशत में

ऊपर दिया गया चार्ट दर्शाता है कि भारत में गगरीय जनसंख्या और यूए/कस्बों की संख्या बढ़ रही है। दूसरा चार्ट दिखाता है कि नगरीय आबादी का प्रतिशत बढ़ रहा है, लेकिन नगरीय जनसंख्या की दशकीय वृद्धि दर जनसंख्या के घटने की प्रवृत्ति को दिखा रहा है।

1951 में, भारत की जनसंख्या के 17.29 प्रतिशत यानी, 62.44 मिलियन लोग 2843 कस्बों में रह रहे थे। जबकि 2011 में भारत की जनसंख्या के 31.16 प्रतिशत अर्थात 377.10 मिलियन लोग 7935 कस्बों में रह रहे थे। यह निरेक्ष संख्या, यूए/कस्बों की संख्या और नगरीय जनसंख्या के प्रतिशत भाग के रूप में स्थिर बृद्धि दर्शाती है। हालाँकि, 1981-2001 में नगरीय जनसंख्या में गिरावट दिखाने वाली दशकीय वृद्धि दर ने इस प्रवृत्ति को उलटा कर दिया और 2011 में इसमें मामूली सी वृद्धि देखी गई। 1951 में नगरीय आबादी की दशकीय वृद्धि दर 41.42 थी और 2011 में यह 31.80 थी।

आज़ादी के बाद पहली बार, निरेपेक्ष रूप में नगरीय क्षेत्रों की जनसंख्या में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक वृद्धि देखने को मिली है, जो कि ग्रामीण क्षेत्रों की वृद्धि दर में तेज़ी से आई गिरावट और नगरीय क्षेत्रों की वृद्धि दर के लगभग समान रहने के कारण हुई।

निष्कर्ष

आपको यह तो स्पष्ट लग रहा होगा कि उपनिवेशवाद केवल इतिहास का विषय नहीं बल्कि यह आज भी हमारे दैनिक जीवन में जटिल रूप में मौजूद है। इस अध्याय से यह प्रकट होता है कि औद्योगीकरण और नगरीकरण का मतलब केवल उत्पादन व्यवस्था, तकनीकी नवीनीकरण, आबादी की सघनता ही नहीं इसके अलावा, यह हमारे जीवन का एक अंतरंग हिस्सा है। आप स्वतंग्र भारत में औद्योगीकरण और शहरीकरण के बारे में और विस्तार से अध्याय- 5 और 6 में पढ़ेंगे|

प्रश्‍नावली

  1. उपनिवेशवाद का हमारे जीवन पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ा है? आप या तो किसी एक पक्ष जैसे संस्कृति या राजनीति को केंद्र में रखकर, या सारे पक्षों को जोड़कर विश्लेषण कर सकते हैं।

  2. औद्योगीकरण और नगरीकरण का परस्पर संबंध है, विचार करें।

  3. किसी ऐसे शहर या नगर को चुनें जिससे आप भली-भाँति परिचित हैं। उस शहर/नगर के इतिहास, उसके उद्भव और विकास, तथा समसामयिक स्थिति का विवरण दें।

  4. आप एक छोटे कस्बे में या बहुत बड़े शहर, या अर्धनगरीय स्थान, या एक गाँव में रहते हैं-

  • जहाँ आप रहते हैं, उस जगह का वर्णन करें।

  • वहाँ की विशेषताएँ क्या हैं, आप को क्यों लगता है कि वह एक कस्बा है शहर नहीं, एक गाँव है कस्बा नहीं या शहर है गाँव नहीं?

  • जहाँ आप रहते हैं, क्या वहाँ कोई कारखाना है?

  • क्या लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती है?

  • क्या व्यवसाय वहाँ निर्णायक रूप में प्रभावशाली है?

  • क्या वहाँ इमारतें हैं?

  • क्या वहाँ शिक्षा की सुविधाएँ उपलब्ध हैं?

  • लोग कैसे रहते और व्यवहार करते हैं?

  • लोग किस तरह बात करते और कैसे कपड़े पहनते हैं?



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