अध्याय 06 कर्नाटक ताल–लिपि पद्धति की अवधारणा

हिंदुस्तानी एवं कर्नाटक संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो शाखाएँ हैं। इन दोनों ही पद्धतियों में ताल का महत्वपूर्ण स्थान है। हालाँकि हिंदुस्तानी एवं कर्नाटक ताल पद्धतियों में अनेक समानताएँ हैं, परंतु दोनों पद्धतियों में प्रयुक्त होने वाले ताल, उनके नाम तथा उनको हाथ पर दर्शाने के तरीके में भिन्नता पायी जाती है।

चित्र 6.1 – तमिलनाडु राज्य से थविल कलाकार

उत्तर भारतीय संगीत में कई नवीन गायन शैलियों का आविर्भाव तथा उन गायन शैलियों के अनुकूल नवीन तालों का निर्माण तो हुआ ही, साथ ही प्राचीन सिद्धांतों को भी नये अर्थ में प्रयोग किया गया। वहीं कर्नाटक संगीत में प्रारंभ में अष्टोत्तर शत (108) तालम का प्रचार था, जो समय के साथ लुप्त होता चला गया तथा आगे चलकर सूलादि सप्त ताल पद्धति ने प्राचीन अष्टोत्तर शत ताल पद्धति का स्थान ग्रहण कर लिया।

प्राचीन 108 ताल पद्धति के अत्यंत क्लिष्ट होने के कारण उनमें से कई तालों का व्यावहारिक रूप से प्रयोग नहीं होता था। इस जटिल ताल पद्धति को सरल बनाने के लिए लगभग 14 वरीं शताब्दी में एक नयी ताल पद्धति का प्रचलन प्रारंभ हुआ। दक्षिण भारतीय संगीत के विद्वान तथा विख्यात वाग्गेयकार पं. पुंदरदास ने लोकरुचि के अनुसार व्यवहार के लिए उपयुक्त ‘सूलादि’ नामक सांगीतिक रचनाएँ की, जिनमें उन्होंने सात तालों का प्रयोग किया। इसीलिए इन तालों को सूलादि सप्त ताल के नाम से जाना जाता है। 108 तालों की तुलना में सूलादि सप्त तालों का उपयोग सरल था तथा इसी कारण इन्हें कर्नाटक संगीत के प्रमुख सात तालों के रूप में स्वीकारा गया। वर्तमान में कर्नाटक संगीत पद्धति में प्रयुक्त होने वाले अधिकतर तालों का आधार सूलादि सप्त ताल ही है।

कर्नाटक पद्धति के सूलादि सप्त ताल एवं उनके चिह्न को निम्न प्रकार से दर्शाया जाता है -

क्रमांक ताल नाम चिद्न या अंग कुल अक्षरकाल
1 ध्रुव । O । 14
2 मत्य ।O । 10
3 रूपक O । 06
4 झप IU O 07
5 त्रिपुट IO O 08
6 अठ ॥ O O 12
7 एक 04

ताल के षडाडग

चित्र 6.2 - कर्नाटक अवनद्ध वाद्य इडैक्का बजाते कलाकार

हिंदुस्तानी व कर्नाटक संगीत पद्धति, दोनों में ही ताल के दस प्राणों का महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में ताल के दस प्राणों का वर्णन है, जिनके नाम इस प्रकार हैं — काल, मार्ग, क्रिया, अंग, ग्रह, जाति, कला, लय, यति तथा प्रस्तार। ताल के दस प्राणों को पाठ्यपुस्तक के पहले अध्याय में विस्तार से समझाया गया है। शास्त्रीय संगीत के तालों में विभिन्न भाग या खंड होते हैं, जिन्हें ‘अंग’ कहा जाता है। कर्नाटक संगीत में प्रयुक्त होने वाले सप्त तालों का निर्माण ताल के दस प्राणों में से एक प्राण ‘अंग’ के विविध प्रयोगों तथा उन अंगों के संयोजन से होता है। सांगीतिक ग्रंथों में ताल के छह अंगों का वर्णन है, जो द्रुत, अणुद्रुत, लघु, गुरु, प्लुत और काकपद हैं। इन अंगों की संख्या छह होने के कारण, इन्हें षडंग की संज्ञा दी गई है। संगीत कौमुदी ग्रंथ में अंग के संदर्भ में कहा गया है कि -

अर्थात्, अणुद्रुत, द्रुतम, लघु, गुरु, प्लुत तथा काकपाद, यह ताल के छह अंग कहलाते हैं।

कर्नाटक संगीत के सूलादि सप्त तालों में इन छह अंगों में से केवल पहले तीन अंगों का ही प्रयोग किया जाता है। अन्य तीन अंगों का प्रयोग प्राचीन काल में प्रचलित 108 ताल प्रणाली में था। ताल के छह अंग, उनके चिह्न व अक्षरकाल निम्न हैं -

क्रमांक अंग चिह्न अक्षरकाल
1 अणुद्रुत $\mathrm{U}$ 1
2 द्रुत 0 2
3 लघु 4
4 गुरु 8
5 प्लुत $ऽ^।$ 12
6 काकपाद + 16

कर्नाटक पद्धति में ताल के विभिन्न अंगों को प्रदर्शित करने के लिए विशिष्ट प्रकार की क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है जिन्हें सशब्द व नि:शब्द क्रिया कहते हैं। ताल के प्रत्येक अंग को दाहिने हाथ का प्रयोग करके दर्शाया जाता है। इन अंगों में प्रयुक्त होने वाली क्रियाओं की विधि का वर्णन निम्न है -

1. अणुद्रुत — अणुद्रुत ताल में प्रयुक्त होने वाला सबसे छोटा अंग होता है जिसे हाथ की थाप से प्रदर्शित करते हैं।

2. द्रुत — दो अक्षरकाल से युक्त अंग द्रुत के पहले अक्षरकाल को हथेली की थाप से तथा दूसरे अक्षरकाल को हथेली को पलटकर दर्शाया जाता है।

3. लघु — लघु के चार अक्षरकालों को गिनने के लिए पहले अक्षरकाल को हथेली की थाप द्वारा तथा दूसरे, तीसरे और चौथे अक्षरकाल को क्रमशः कनिष्ठा, अनामिका एवं मध्यमा अँगुलियों से दर्शाया जाता है।

  1. वर्तमान कर्नाटक संगीत में प्रमुख कितने तालों को स्वीकारा गया है?
  2. दक्षिण भारतीय ताल में ‘त्रिपुट’ ताल का चिह्न क्या है?
  3. भारतीय संगीत में ताल के कितने प्राणों का उल्लेख है?
  4. लघु का मान (अक्षरकाल) क्या-क्या है?
  5. काकपाद का तालचिह्न (+) है, तो उसका अक्षरकाल क्या है?

पंच जाति भेद

संगीत मकरंद के अनुसार ताल के दस प्राणों में जाति का क्रम छठवाँ है। प्राचीन लक्षणग्रंथों के अनुसार ताल के छह अंगों में से सिर्फ़ लघु का रूप ही परिवर्तित होगा, शेष सभी अंग यथावत बने रहेंगे। तालों में प्रयुक्त लघु चिह्न चतुरस्त्र (चतुरश्र) जाति में चार अक्षरकाल, ग्यस्त्र (तिश्र) जाति में तीन अक्षरकाल, मिश्र जाति में सात अक्षरकाल, खंड जाति में पाँच अक्षरकाल तथा संकीर्ण जाति में नौ अक्षरकाल का हो जाता है। साधारणतया कोई भी ताल, यदि उसकी जाति नहीं लिखी हो, तो चतुरस्त्र जाति का माना जाता है। कर्नाटक संगीत में जब नवीन रचनाएँ निर्मित होने लगीं, तब इन सात तालों के अतिरिक्त और भी नवीन तालों की आवश्यकता महसूस की गई, तब इनमें से प्रत्येक ताल की पाँच जातियों के आधार पर पाँच-पाँच नये रूप बनाये गए। इस प्रकार कर्नाटक ताल बढ़कर $7 \times 5=35$ हो गए, जो कि वर्तमान कर्नाटक

चित्र 6.3 - केरल से चेंदा कलाकार

संगीत में प्रचलन में हैं। कर्नाटक संगीत के इन 35 तालों की निर्मिति के समय विद्वानों ने कुछ सिद्धांत बनाये। पंच जाति भेद के अनुसार तालों का निर्माण किया गया। चतुरस्त्र, त्यस्त्र, मिश्र, खंड, संकीर्ण से $7 \times 5=35$ तालों की उत्पत्ति हुई है। ताल किसी भी जाति का हो, उसके चिह्न (अंग) में परिवर्तन होते हैं। इस प्रकार उपरोक्त सिद्धांतों को स्वीकार कर लेने से सप्त तालों की पाँच जातियों के आधार पर लघु का मान बदलने व शेष अंग यथावत रखने से निम्नानुसार 35 तालों का निर्माण किया गया —

कर्नाटक पद्धति में ताल को दर्शाने की विधि

तालों के नाम चिह्न जाति भेद अक्षरकाल विभाग कुल अक्षरकाल
ध्रुव IO॥ तिश्र $3+2+3+3$ 11
चतुरश्र $4+2+4+4$ 14
खंड $5+2+5+5$ 17
मिश्र $7+2+7+7$ 23
संकीर्ण $9+2+9+9$ 29
मत्य IOI तिश्र $3+2+3$ 8
चतुरश्र $4+2+4$ 10
खंड $5+2+5$ 12
मिश्र $7+2+7$ 16
संकीर्ण $9+2+9$ 20
रूपक तिश्र $3+2$ 5
चतुर $4+2$ 6
खंड $5+2$ 7
मिश्र $7+2$ 9
संकीर्ण $9+2$ 11
झप तिश्र $3+1+2$ 6
चतुरश्र $4+1+2$ 7
IU O खंड $5+1+2$ 8
मिश्र $7+1+2$ 10
संकीर्ण $9+1+2$ 12
त्रिपुट 100 तिश्र $3+2+2$ 7 7
चतुरश्र $4+2+2$ 8
खंड $5+2+2$ 9
मिश्र $7+2+2$ 11
संकीर्ण $9+2+2$ 13

तालों के नाम चिह्न जाति भेद अक्षरकाल विभाग कुल अक्षरकाल
अठ IIO O तिश्र $3+3+2+2$ 10
चतुरश्र $4+4+2+2$ 12
मिश्र $5+5+2+2$ 14
खंड $7+7+2+2$ 18
संकीर्ण $9+9+2+2$ 22
एक I तिश्र 3 3
चतुरश्र 4 4
खंड 5 5
मिश्र 7 7
संकीर्ण 9 9

पंच जाति भेद के अनुसार बने तालों में सबसे अधिक 29 अक्षरकाल का ताल संकीर्ण ध्रुव तथा सबसे कम तीन अक्षरकाल का ताल तिश्र एकताल है। यहाँ हम यह भी देखते हैं कि एकताल के पंच जाति भेदों में कम अक्षरकाल के तालों की संख्या अधिक है। अतः इसका उपयोग देशी संगीत (उपशास्त्रीय या लोक संगीत) के लिए भी उपयोगी सिद्ध हुआ होगा। उपरोक्त 35 तालों में से ध्रुव, मत्य, रूपक व एकताल के चतुर्र जाति रूप प्रचार में हैं। झप मिश्र जाति में तथा त्रिपुट ताल चतुरश्र व तिश्र दोनों रूप में प्रचलित हैं। केवल त्रिपुट ताल कहने पर उसका तिश्र रूप माना जाता है।

तालों के प्रत्येक जाति भेद में अंगों को सशब्द व नि:शब्द क्रिया से गिना जाता है। लघु को एक शम्पा अर्थात दोनों हाथ मिलाकर ताली बजाने और इसके बाद बाकी अक्षरों को अँगुलियों के पातन से गणना करते हैं। द्रुत को एक शम्पा के बाद एक विक्षेप करके गिनते हैं। अणुद्रुत को एक शम्पा से गिनते हैं। कभी-कभी ग्यस्त्र जाति के लघु को दो शम्पा और एक विक्षेप से गिना जाता है। इस क्रिया को चापु कहते हैं। वर्तमान में इस तरह के प्रयोग में ग्यस्त्र जाति रूपक ताल $(2+3=5)$ विशेष रूप से प्रसिद्ध है, अतः इसे चापु ताल कहा जाता है। ये चापु तालें दक्षिण भारतीय लोक संगीत में विशेष प्रचलित हैं। उपर्युक्त 35 तालों के अतिरिक्त दक्षिण भारत में मंदिरों में सेवा पूजा के नौ संधिकालों में कीर्तन आदि के समय जिन नौ तालों का प्रयोग किया जाता है, वे नव संधि ताल कहे जाते हैं। कर्नाटक संगीत की ताल-लिपि में लघु के अन्य पाँच भेद भी बताये गए हैं, ताकि इनके अनुसार अधिक मात्राओं की तालों का निर्माण हो सके। यद्यपि इन बड़े तालों को व्यवहार में नहीं लाया जाता है।

कर्नाढक सप्तताल स्वरूप की विशेषताएँ

1. प्राचीन 108 तालों में से कुछ तालों के समान कुछ ताल इसमें प्रचलित हैं।

2. सप्ततालों में केवल तीन अंगों (लघु, द्रुत तथा अणुद्रुत) का प्रयोग होता है।

3. लघु का जब दूसरे अंगों के साथ संयोग नहीं होता है, तो उसका एकांग स्वरूप ‘एकताल’ का द्योतक है।

4. अंग भेद के आधार पर ध्रुव, मत्य, रूपक, झप, त्रिपुट, अठ, एक, ये सात तालें अलग-अलग स्पष्ट हैं।

5. जाति भेद के आधार पर निर्मित 35 ताल बनते हैं। जाति के अनुसार लघु की मात्राएँ बदल जाती हैं।

6. प्रत्येक ताल में लघु का होना आवश्यक है।

7. कुछ ताल समान मात्रा के होने पर भी विभाग के आधार पर भिन्न हैं।

8. सप्तताल स्वरूप में, अणुद्रुत का आदि और अंत में प्रयोग नहीं है।

9. 35 तालों में सबसे लंबी ताल संकीर्ण जाति का ध्रुव ताल तथा सबसे छोटा ताल ग्यस्त्र जाति का एकताल है।

  1. पं. पुरंदरदास किस भारतीय संगीत के विद्वान थे?
  2. ताल में प्रयुक्त होने वाला सबसे छोटा अंग कौन-सा होता है जिसे थाप से देखते हैं?
  3. संगीत कौमुदी ग्रंथ में ताल के कितने अंगों का उल्लेख है?
  4. हिंदुस्तानी संगीत में ’ $O$ ’ को खाली कहते हैं, तो कर्नाटक संगीत में ’ $O$ ’ क्या दर्शाता है?
  5. संगीत मकरंद के अनुसार ताल के दस प्राणों में जाति का क्या क्रम है?
  6. ताल के छह अंगों में सिर्फ़ किसका रूप परिवर्तित होगा?
  7. मिश्र जाति में अक्षरकाल कितना होता है?
  8. कर्नाटक संगीत में प्रत्येक ताल की कितनी जातियाँ बनायी गई हैं?
  9. प्रत्येक ताल में किसका होना आवश्यक है?

अभ्यास

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

1. कर्नाटक संगीत के सभी सात तालों के चिह्न और अक्षरकाल लिखें?

2. ताल के सभी अंगों के चिह्न और अक्षरकाल लिखें?

3. ताल की सभी जातियों का उल्लेख करें?

4. सशब्द और नि:शब्द क्रिया क्या है?

5. कर्नाटक संगीत में सप्तताल स्वरूप की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ?

6. कर्नाटक ताल पद्धति में एकताल को दर्शाने की विधि बताएँ?

7. कर्नाटक संगीत पद्धति की अवधारणा पर प्रकाश डालें?

परियोजना

1. कर्नाटक संगीत में प्रयुक्त होने वाले अवनद्ध वाद्यों के संकलन पर एक परियोजना बनाएँ। 2. कर्नाटक संगीत के गायक एवं वादक कलाकारों पर एक परियोजना बनाएँ।

चित्र 6.4 - नवोदय विद्यालय से वीणा कलाकार



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