अध्याय 04 विभिन्न वाद्यों का परिचय

मध्यकालीन अवनद्ध वाद्यों का संक्षिप्त परिचय

पणव

‘पणव’ एक अति प्राचीन अवनद्ध वाद्य है, जिसका उल्लेख सूत्र साहित्य, जातक साहित्य, रामायण, महाभारत, नाट्यशास्त्र आदि अनेक ग्रंथों में प्राप्त होता है। यह एक द्विमुखी वाद्य है जिसका मध्य का भाग भीतर की तरफ दबा हुआ होता है। पणव के दोनों मुख चमड़े से मढ़े जाते थे। इन दोनों मुखों पर लगायी जाने वाली पूड़ी को सूत की डोरी से बाँधा जाता था। पणव के वादन के लिए बायें हाथ की अँगुलियों से डोरी को कसते थे। इसे ढीला करते हुए दाहिने हाथ की कनिष्ठा और अनामिका के आगे के भाग से चमड़े पर आघात कर विभिन्न वर्णों का वादन किया जाता था। वर्तमान लोकसंगीत में बहुप्रचलित हुडुक्का और संस्कृत ग्रंथों में वर्णित पणव लगभग समान हैं।

पणव वादन के अंतर्तात क, ख, ग, ट, ण, दे, वा, ह, र, ल, कु, लि, लं, घ्र, णे, कि, रि, किण्ण आदि पटाक्षर प्रयुक्त होते थे। इसमें प्रयुक्त पटाक्षरों की संख्या से प्रतीत होता है कि तत्कालीन संगीत में पणव एक प्रमुख अवनद्ध वाद्य माना जाता था।

हुड़ुका

हुडुक्का वाद्य का उल्लेख नाट्यशास्त्र, संगीत पारिजात एवं संगीत रत्नाकर में दिया गया है। इसे आवज, हुडुक, पणव आदि नामों से जाना जाता है। संगीत रत्नाकर एवं संगीत पारिजात में हुडुक्का का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसकी आकृति डमरू से मिलती-जुलती है। हिमाचल प्रदेश में इसी वाद्य को हुडक के नाम से जाना जाता है। हुडक जैसा ही वाद्ययंत्र, जो आकार में थोड़ा सा बड़ा है, उसे हिमाचल में गुज्जु के नाम से जाना जाता है। यह लगभग सवा फुट लंबा खोखली लकड़ी का बनाया जाता है। पूड़ियाँ खोल से करीब एक-दो इंच बाहर होती हैं। मध्यकालीन ग्रंथों में इसे आवज अथवा हुडुक भी कहा जाता था। भरत कृत नाट्यशास्त्र में वर्णित पणव ही वर्तमान समय में हुडुक्का के नाम से जाना जाता है। छह या सात इंच व्यास की पूड़ियाँ बकरे के आमाशय (पेट) की भीतरी खाल से बनायी जाती हैं, जो कागज़ से भी पतली होती हैं। पूड़ी की कुंडली बाँस की छड़ी से बनाते हैं। इन पर धागे से गौछे बनाकर सूत की डोरी पिरोते हैं। उत्तराखंड के लोक गीतों और कुछ जागर गीतों में हुडुक से संगत की जाती है।

इस वाद्य का वर्णन प्राचीन एवं मध्यकालीन ग्रंथों में मिलता है। नाट्यशास्त्र में ‘दर्दुर’ को अवनद्ध वाद्यों की श्रेणी के अंतर्गत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। यह वाद्य घट के आकार का होता था तथा इस वाद्य को संगीत रत्नाकर में घट कहा गया है। इस वाद्य के मुख का माप लगभग 10 इंच का होता था जिसके ऊपर चमड़े की पूड़ी लगी होती थी, जो लगभग छह इंच व्यास की होती थी। दर्दुर की पूड़ी के चमड़े को लकड़ी के गोल चक्र में फँसाकर मढ़ा जाता था। इसकी पूड़ी को सुतलियों के द्वारा कसकर बाँधा जाता था।

इस वाद्य के वादन में दोनों हाथों का प्रयोग किया जाता था। मुक्त, अर्धमुक्त तथा बंद ध्वनियों के लिए दाहिने हाथ का प्रयोग तथा बायें हाथ का प्रयोग दाहिने हाथ के सहायक के रूप में किया जाता था। कर्नाटक संगीत में बहुप्रचलित ‘घटम्’ से इसका साम्य है, किंतु घटम् में चमड़े की पूड़ी का प्रयोग नहीं होता है।

पटह

पटह मध्यकालीन प्रमुख द्विमुखी अवनद्ध वाद्य है, जिसका उल्लेख प्राचीन काल के ग्रंथों जातक साहित्य, रामायण, महाभारत, बौद्ध तथा जैन साहित्य आदि में प्राप्त होता है। प्राचीन ग्रंथों में पटह की बनावट, वादन विधि आदि के संबंध में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। भरत कृत नाट्यशास्त्र में इस वाद्य को प्रत्यंग वाद्य के अंतर्गत रखा गया है। मध्यकालीन संगीत ग्रंथों, जैसेमानसोल्लास, संगीत रत्नाकर, संगीत पारिजात, संगीतोपनिषत्सारोद्धार, संगीत सार आदि ग्रंथों में इसका विस्तृत वर्णन दिया है।

मध्यकालीन ग्रंथकारों ने इस वाद्य के दो भेद कहे हैं- मार्ग या मार्गी पटह और देशी पटह। इन वाद्यों में केवल आकार में अंतर है। देशी पटह, मार्ग पटह से छोटा होता है। मार्ग पटह की लंबाई लगभग साढ़े तीन से चार फीट तथा परिधि 30 इंच कही गई है। इसका मध्य भाग मोटा एवं दोनों मुखों का माप अर्थात दाहिने एवं बायें मुख का व्यास क्रमश: छह इंच और पाँच इंच दिया गया है। पटह के दाहिने मुख पर लोहे का गोल कड़ा और बायें में लता से बनाये गए गोल कड़े के आकार के वलय का प्रयोग करते थे। इसके दोनो मुखों पर गाय के बछड़े के चमड़े को मढ़ा जाता था। दाहिने व बायें मुख के कड़ों में सात-सात छिद्र के माध्यम से डोरी द्वारा दोनों मुखों की पूड़ी को दृढ़ता से कसा जाता था। इन डोरियों में धातु के दो इंच माप के सात छल्ले लगाये जाते थे, जिनके द्वारा वाद्य को स्वर में मिलाया जाता था। इसका वादन डंडियों या हाथ के द्वारा किया जाता था।

देशी पटह की लंबाई 27 इंच तथा इसका दायें एवं बायें मुख का माप क्रमशः साढ़े तीन इंच से तीन इंच का होता था। मार्ग और देशी पटह का ढाँचा खैर अथवा लाल चंदन की लकड़ी का सर्वोतम माना जाता था। पटह पर सोलह वर्ण प्रयुक्त होते हैं- क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, र और ह। इन्हीं वर्णों के संयोग से बने बोलों की रचना की जाती है। पं. अहोबल द्वारा लिखित ग्रंथ संगीत पारिजात में पटह को ढोलक (‘पटह’ ढोलक इति भाषायाम्) कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि वर्तमान ढोलक मध्यकालीन पटह का ही परिवर्तित रूप है।

मृदंगम्

मृदंगम् दक्षिण भारतीय संगीत का प्रमुख अवनद्ध वाद्य है। इसका प्रयोग गायन-वादन तथा नृत्य की संगत के लिए होता है। एक अवनद्ध वाद्य के रूप में यह इतना महत्वपूर्ण है कि इसके बिना कर्नाटक संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

यह द्विमुखी वाद्य है जिसे लिटाकर बजाया जाता है। इसे बनाने के लिए मुख्यत: कटहल की

चित्र 4.1 - मृदंग् बजाते हुए कलाकार

लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसका दायाँ मुख इसके बायें मुख की तुलना में थोड़ा छोटा होता है। मृदंगम् की लंबाई 22 से 24 इंच तक और इसके मध्य के घेरे का व्यास 12 इंच तक होता है। कर्नाटक संगीत में प्रयुक्त होने वाला मृदंगम् आकार-प्रकार में लगभग उत्तर भारतीय पखावज की तरह ही दिखता है, लेकिन इसकी संरचना तथा नाद में भिन्नता होती है। मृदंगम् की लंबाई पखावज की तुलना में कम होती है। इसके दायें मुख में लगने वाला चमड़ा पखावज में लगने वाले चमड़े की तुलना में अधिक मोटा होता है। मृदंगम् के दायें मुख के किनारे का यह चमड़ा स्याही के स्थान को छोड़कर पूड़ी के पूरे हिस्से को घेर रहता है, जिस कारण मृदंगम में चाँट और स्याही का भाग ही दिखायी पड़ता है, जबकि पखावज की पूड़ी तीन भागों — चाँट, लव और स्याही में बँटी होती है। दक्षिण भारत में इस स्याही को ‘सोरू’ कहते हैं। इसे लौह चूर्ण, पके चावल के मिश्रण से बनाते हैं। मृदंगम् का बायाँ मुख भी पखावज की तुलना में छोटा होता है, जिस पर सूजी की ‘पूलिका’ लगायी जाती है। मृदंगम् के बायें मुख पर सूजी लगाने का स्थान छोटा रखा जाता है। मृदंगम् में दोनों मुखों की पूड़ियों को चमड़े की बद्धी से आपस में कसा जाता है, जिसे ‘चटाई’ या ‘पिन्नल’ कहते हैं। इसका दायाँ मुख ही मुख्य गायक या वादक के गाये जाने वाले स्वर में मिलाया जाता है।

ताशा

यह एक उर्ध्वमुखी लोक अवनद्ध वाद्य है, जिसका आकार मिट्टी से निर्मित चपटे कटोरे जैसा होता है। इसके मुख पर बकरे की खाल आच्छादित होती है। कहीं-कहीं अन्य पशुओं के चमड़ों का भी प्रयोग किया जाता है। आच्छादित चमड़े को पतली बद्धी (चमड़े की रस्सी) के द्वारा कसा जाता है। इस वाद्य के निचले भाग पर तीन या चार इंच व्यास की इंडुरी लगायी जाती है, जिसकी सहायता से चमड़े को कसा जाता है। इस वाद्य को गले में लटकाकर दो पतली डंडियों के द्वारा

बजाया जाता है। इसका प्रयोग मुख्यत ढोल और झाँझ की संगत में किया जाता है। इसमें तैयारी के साथ लयकारी का अच्छा प्रदर्शन दिखायी देता है। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह ताशा बजाने में पारंगत थे।

नव्कारा

नक्कारा फ़ारसी भाषा का शब्द है। प्राचीन और पौराणिक ग्रंथों में दुंदुभि वाद्य का वर्णन बहुतायत में प्राप्त होता है। ‘दुंदुभि’ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है - बड़ा ढोल या नगाड़ा। वस्तुत: प्राचीन दुंदुभि ही आज नक्कारा के नाम से प्रचलित है, ऐसा माना जा सकता है।

इसके दो भाग होते हैं जिन्हें चमड़े को मढ़कर बनाया जाता है। इसका एक भाग बड़ा और एक भाग छोटा होता है। छोटे भाग को झील कहा जाता है। इसके मुखों का व्यास दो से तीन फीट होता है तथा इसके मुख पर भैंस की खाल मढ़ी जाती है। बड़े भाग को नीचे के स्वर में तथा छोटे भाग को ऊँचे स्वर में रखा जाता है। छोटे नक्कारे के स्वर को ऊँचा करने के लिए इसे आग से सेंकते हैं। बड़े नक्कारे की सतह में एक छिद्र होता है जिसे पानी डालकर ऊपर मढ़ी खाल को हल्का गीला कर लेते हैं जिससे मंद्र स्वर प्राप्त होता है।

इस वाद्य का प्रयोग भगत, स्वांग, नौटंकी तथा उत्तर प्रदेश के अवधी और बिरहा गायन में होता रहा है। इसके अतिरिक्त शहनाई के साथ संगत के लिए नक्कारा का प्रयोग किया जाता रहा है। मुगल काल में बादशाह अकबर से लेकर वाजिद अली शाह के दरबारों में नक्कारखाने का उल्लेख प्राप्त होता है। नौबतखाने में शहनाई, नफीरी व तुरही के साथ नक्कारा बजाये जाने की परंपरा रही है। वर्तमान समय में इस वाद्य का प्रयोग उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान व हरियाणा के लोकगीतों के साथ बहुतायत से किया जाता है। मथुरा जिले के छाता कस्बे के नौटंकी कला केंद्र में नौटंकी प्रशिक्षण के विद्यालयों में छोटे-छोटे बच्चों को नक्कारा वादन की शिक्षा प्रदान की जाती है। त्रिमोहन, उस्ताद मोहम्मद खाँ, जुम्मन खाँ, दिलावर खाँ, रशीद खाँ वारसी, अन्दुल जमाल खाँ आदि प्रसिद्ध नक्कारा वादक हुए हैं।

ढोलक

ढोलक उत्तर भारतीय संगीत में प्रचलित एक प्रमुख लोक अवनद्ध वाद्य है। इसका प्रयोग लोक संगीत में गायन की संगत के लिए किया जाता है। इस वाद्य के निर्माण के लिए अधिकतर आम, शीशम और सागौन आदि की लकड़ी का प्रयोग होता है। इसके दो मुख होते हैं। इसकी लंबाई लगभग 45 सेंटीमीटर और मध्य का व्यास लगभग 27 सेंटीमीटर का होता है। इसका दायाँ मुख बायें मुख की तुलना में थोड़ा छोटा होता है। दोनों मुखों पर चमड़े की पूड़ी लगी होती है। दोनों पूड़ियाँ सूत की डोरी की सहायता से एक-दूसरे से कसी होती हैं। इन बद्धियों के बीच में लोहे के छल्ले लगे होते हैं जिनकी सहायता से ढोलक को कसा जाता है। बायें मुख से निकलने वाली ध्वनि को गंभीर करने के लिए इसमें चमड़े की भीतरी सतह पर एक विशेष प्रकार का लेप लगाया जाता है। इसे अँगुलियों से बजाते हैं।

20 वीं शताब्दी में उस्ताद बफ़ाती खाँ ढोलक के नामचीन कलाकार हुए, जिन्होंने ढोलक का एकल वादन करके प्रसिद्धि पायी। कालांतर में उस्ताद गुलाम जा़़र खाँ भी एक श्रेष्ठ ढोलक वादक हुए। वर्तमान में गिरीश विश्व तथा अनेक ढोलक वादक अपने प्रदर्शन के लिए जाने जाते हैं।

पुंग

पुंग द्विमुखी अवनद्ध वाद्य है जिसे मणिपुर क्षेत्र में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इस वाद्य का मणिपुर में गत चार सौ वर्षों से परंपरागत रूप से विकास हुआ है। यह वाद्य मणिपुर के जन-जीवन और धर्म का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। सामाजिक, धार्मिक उत्सव में और गीत, नृत्य समारोह में इस वाद्य का वादन किया जाता है।

काष्ठ निर्मित वाद्य ‘पुंग’ लगभग दो फुट लंबा तथा मध्य से बायीं ओर थोड़ा उभरा हुआ होता है। दायाँ मुख छोटा और बायाँ मुख अपेक्षाकृत बड़ा होता है। दोनों मुख चमड़े से मढ़े होते हैं। गजरा मोटा एवं ऊपर की तरफ उठा हुआ होता है। इसे कसने के लिए चमड़े की बद्धी का प्रयोग किया जाता है। कसाव इतना घना होता है कि बद्धी से ही लकड़ी का बना हुआ ढाँचा पूरी तरह से ढक जाता है। इसके दाहिने मुख को मनाड और बायें मुख को मरू कहते हैं। दोनों तरफ के मुख पर स्याही का लेपन किया जाता है। स्याही किनारे नहीं, बल्कि बराबर गोलाई में पूरे चमड़े पर लगायी जाती है। पुंग को स्वर में मिलाने की व्यवस्था नहीं होती है। इसके दायें मुख का स्वर बायें मुख के स्वर से ऊँचा होता है। नृत्य करते समय इस वाद्य को कंधे पर लटकाकर तथा बैठकर भी बजाया जाता है।

ढोल

लोक संगीत में प्रचलित ढोल एक द्विमखी अवनद्ध वाद्य है। इस वाद्य की आकृति बेलनाकार होती है। यह भीतर से पूरी तरह खोखला होता है। लकड़ी से निर्मित इस वाद्य के दोनों मुखों पर चमड़ा मढ़ा जाता है। ‘खोखली’ लकड़ी की परत की मोटाई लगभग आधा इंच या इससे भी कम होती है। इस वाद्य को बनाने के लिए अधिकतर आम, बढ़, नीम तथा सागौन आदि की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। 25 सेमी से 90 सेमी तक लंबी ढोल का प्रचलन है। इसके दोनों मुखों पर चमड़ा मढ़ा जाता है। आकार में अंतर होने के कारण चमड़ा मढ़ने में भी अंतर होता है। कहीं सीधे पिंड (खोल) पर, तो कहीं धातु, बेंत या चर्म निर्मित घेरों में चमड़े को फँसाकर मढ़ा जाता है। ढोल के मुख पर आच्छादित चर्म पर स्याही का लेपन नहीं किया जाता है। इनको कसने के लिए सूत की डोरी या बद्धी का प्रयोग होता है। किसी-किसी ढोल में स्वर के उतार-चढ़ाव के लिए छल्लों का उपयोग करते हैं।

इसका वादन एक तरफ हाथ और दूसरी ओर डंडी के द्वारा किया जाता है। आवश्यकतानुसार कहीं-कहीं दोनों मुख हाथ से बजाये जाते हैं। प्राय: दाहिने मुख पर डंडी से तथा बायें मुख पर बायें हाथ की हथेली एवं अँगुलियों से वादन किया जाता है। इसकी आवाज़ तेज एवं गंभीर होती है। खुले स्थानों पर भी इसका वादन होता है। लोकगीत, लोक नृत्य के साथ संगत, शादी-विवाह, धार्मिक अवसरों पर इस वाद्य का वादन किया जाता है। लोक में बहुप्रचलित होने के कारण इस वाद्य की लंबाई या व्यास का मान निश्चित नहीं होता, इसलिए अलग-अलग आकार-प्रकार के ढोल पाये जाते हैं।

  1. पणव किस काल का वाद्य है?
  2. क ख ग…. किस वाद्य के पटाक्षर हैं?
  3. सर्वप्रथम हुडुक्का वाद्य का उल्लेख किस ग्रंथ में किया गया है?
  4. ढोल और ढोलक दोनों को बनाने में किस वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग होता है?

तत् वाद्यों का परिचय

तानपूरा

तानपूरा एकतारा या दोतारा का विकसित रूप है। इस वाद्य को हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों में तानपूरा, तम्बोरा या तमूरा के रूप में जाना जाता है। इसका उपयोग मुख्य रूप से शास्त्रीय संगीतकारों और कुछ स्थानों में लोक कलाकारों द्वारा किया जाता है। इस वाद्ययंत्र के तारों को निरंतर छेड़े जाने पर आधार स्वर (drone/note) की उत्पत्ति होती है तथा इसी स्वर को आधार मानकर गायक-वादक अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। तानपूरा बनाने के लिए एक कद्दू, जिसे काशीफल या सीताफल भी कहते हैं, को दो हिस्सों में काटा जाता है। सूखे कद्दू के खोल का आधा हिस्सा, एक लकड़ी की प्लेट या तबली से ढका होता है, जिसे ‘तुम्बा’ के नाम से जाना जाता है। ‘तुम्बा’ तानपूरे में प्रतिध्वनि या गूँज पैदा करने में सहायक होता है। इसी के आधार पर तानपूरे से गूँज की प्राप्ति होती है जो कि कलाकार की प्रस्तुति में बहुत सहायक होती है। लंबी लकड़ी का एक छोर तुम्बे से जुड़ा होता है। जिस स्थान पर तुम्बा और डाँड़ का नीचे का भाग मिलता है, वह ‘गुल’

चित्र 4.2 - तानपूरा बजाती हुई कलाकार

कहलाता है। डाँड़ के ऊपरी हिस्से में छिद्र बने होते हैं, जिनमें ‘खूँटियाँ’ लगी होती हैं। ये खूँटियाँ तानपूरे के ऊपरी भाग में होती हैं। दो खूँटियाँ तानपूरे के सामने के भाग में, एक डाँड़ के बायीं ओर तथा दूसरी दाहिनी ओर होती है। डाँड़ के ऊपर तने चारों तार क्रमशः इन्हीं खूँटियों से बँधे रहते हैं। खूँटियों तक पहुँचने से पहले तार डाँड़ पर लगी हाथी दाँत की दो पट्टियों से गुजरते हैं। पहली पट्टी जिस पर तार रखे जाते हैं, ‘अटी’ कहलाती है और दूसरी पट्टी जिसके चार छिद्रों में से तार पिरोए जाते हैं, उसे ‘तारगहन’ का नाम दिया जाता है। चार तारों में से तीन तार स्टील के व चौथा तार तांबे का होता है। तुम्बे के मध्य तथा तबली के ऊपर लकड़ी या हड्डी की छोटी चौकी लगी होती है, जिसे ‘ब्रिज’, ‘घुड़च’ अथवा ‘घोड़ी’ भी कहते हैं। ब्रिज पर फैले होने के कारण तारों में खिंचाव बना रहता है। घुड़च और लँगोट के बीच में जिन मोतियों में तार पिरोए जाते हैं, उन्हें ‘मनका’ कहते हैं। मनकों को थोड़ा ऊपर या नीचे करके तारों में स्वरों के सूक्ष्म अंतर को ठीक किया जाता है। ब्रिज के ऊपर तारों के नीचे कुछ ‘धागे’ दबा दिए जाते हैं, जिन्हें आवश्यकतानुसार आगे-पीछे खिसकाने से तानपूरे से उत्पन्न स्वरों में गुणवत्ता आती है। तानपूरे के तार, तुम्बे के अंत में पाये जाने वाले छिद्रित स्थानों से होकर निकलते हैं। तानपूरे को विभिन्न प्रकार की नक्काशी व जड़ित कार्यों द्वारा एक आकर्षक रूप दिया जाता है, जिनमें से पहले तार को मध्य सप्तक के पंचम या मध्यम (राग के अनुकूल) में, बीच के दोनों तारों (जोड़ी के तार) को तार षड्ज में और चौथे तार को मध्य सप्तक के षड्ज में मिलाया जाता है। तानपूरे के निर्माण में विभिन्न प्रकार की लकड़ियों का प्रयोग होता है, जिसमें हिंदुस्तानी संगीत में प्रयोग किया जाने वाला तानपूरा प्रायः टुन या टीक की लकड़ी से बना होता है तथा दक्षिण भारत में उपयोग होने वाला तानपूरा कटहल की लकड़ी से बना होता है।

गिटार

चित्र 4.3 - गिटार बजाते हुए कलाकार

गिटार मूलतः पाश्चात्य वाद्य है, लेकिन भारत के विभिन्न संगीतकारों ने इसकी बनावट, प्रयोग किए जाने वाले तारों की संख्या और वादन शैली में परिवर्तन करके इसे भारतीय संगीत में प्रयुक्त होने वाला वाद्य बना दिया है। पूरब तथा पश्चिम के सहयोग से जिन वाद्यों का निर्माण हुआ, उनमें से एक गिटार है। विगत कुछ वर्षों से यह भारतीय संगीत में स्थान प्राप्त कर चुका है। गिटार बजाने के लिए ‘कोण’ या ‘मिजराब’ का प्रयोग किया जाता है। पाश्चात्य संगीत में गिटार को ‘प्लेक्ट्रम’ (Plectrum) से बजाया जाता है, जिसे सामान्य भाषा में ‘पिक’ (Pick) भी कहा जाता है। अमेरिका में इसका एक नया प्रकार निकला है, जिसे इलेक्ट्रिक गिटार कहते हैं। पाश्चात्य संगीत में गिटार खड़े होकर या कुर्सी पर बैठकर बजाते हैं, जबकि भारतीय शैली में इसे आलथी-पालथी मारकर गोद में रखकर बजाया जाता है। भारतीय संगीतकारों ने हवाईन गिटार में तरब एवं चिकारी के तारों तथा तुम्बा को जोड़कर इसे पूरी तरह भारतीय बना दिया है। पाश्चात्य गिटार के हवाईन और स्पैनिश नामक दो अलग प्रकार होते हैं। स्पैनिश गिटार रिदम और कॉर्ड बजाने के लिए प्रयुक्त होता है, जबकि हवाईन गिटार में सुरों और गीतों का वादन होता है। इसे रॉड और मिजराब के माध्यम से बजाते हैं। भारतीय संगीतकारों ने अपने प्रयोग हवाईन गिटार में ही किए हैं। इनमें पहला नाम ब्रजभूषण काबरा का लिया जाता है। भारतीय संगीतकारों ने चूँकि गिटार को अपने-अपने ढंग से बजाया है, इसलिए उन्होंने इसे अपना-अपना नाम भी दे दिया। पं. विश्व मोहन भट्ट इसे मोहन वीणा और विश्व वीणा के नाम से बजाते हैं। गिटार में स्व. नलिन मजूमदार का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 50-60 के दशकों में इनके प्रयास से उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद, प्रयागराज के पाठ्यक्रम में इसका प्रवेश हुआ। प्रयाग संगीत समिति, प्रयागराज द्वारा आयोजित संगीत प्रतियोगिता में गिटार को भी सम्मिलित किया गया। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन सहित शिक्षण संस्थाओं में भी गिटार का सम्मिलित होना एक शुभ संकेत है। आजकल गिटार का प्रचलन चित्रपट जगत के साथ शास्त्रीय संगीत में भी है। अब गिटार को अनेक विश्वविद्यालयों में सिखाया जा रहा है।

सुषिर वाद्यों का परिचय

बाँसुरी

बाँसुरी दुनिया का सर्वांधिक लोकत्रिय वाद्य है। देश-विदेश के प्रतिष्ठित मंचों से लेकर गाँव आदि में उत्सवों व मेलों में बाँसुरी की धुन सुनने को मिल जाती है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में, अलग-अलग रूपों एवं आकार-प्रकार के कारण बाँसुरी वंशी, वंसी, मुरली, वेणु, पावा, पावरी, अलगुज एवं कोलकु आदि नामों से भी जानी जाती है। प्राचीन काल में यह मुख वीणा नाम से भी जानी जाती थी। भारत में बाँसुरी बाँस से बनती है, जबकि विदेशों में इसका निर्माण अलग-अलग धातुओं से

चित्र 4.4 - बाँसुरी के विभिन्न प्रकार

होता है। बाँस की बनी भारतीय बाँसुरी पूरी तरह नैसर्गिक साज है। इसमें छह अथवा सात छिद्र होते हैं। इसे फूँककर बजाया जाता है और अँगुलियों से उन छिद्रों को ढककर अथवा खोलकर स्वरों की निष्पत्ति की जाती है।

भारतीय संगीत परंपरा में बाँसुरी अत्यंत प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। ऋचा गायन के समय बाँसुरी सर्वाधिक प्रमुख संगत वाद्य मानी जाती थी। आज यह शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, सुगम, लोक एवं फिल्म संगीत का अभिन्न अंग बन चुकी है। बाँसुरी को पूरे भारत में विभिन्न नामों से जाना जाता है -

कोलवी — कन्नड़

उडल/बाँसुरी — मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़

कुली/बाँसुरी — नागालैंड

बाशी — पश्चिम बंगाल

वेनो, वंशी, वेणु और मुरली — गुजरात

चित्र 4.5 - सुष्रि वाद्य — बाँसुरी बजाते हुए कलाकार

भारत में उत्तर एवं दक्षिण भारतीय संगीत में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। पाश्चात्य संगीत में भी इसका खूब प्रयोग होता है। पन्नालाल घोष, विजय राघव राव, रघुनाथ सेठ, हरिप्रसाद चौरसिया, राकेश चौरसिया, राजेंद्र प्रसन्ना, रोनू मजूमदार और सिक्किल सिस्टर्स आदि बाँसुरी के ख्याति प्राप्त कलाकार हुए हैं। विभिन्न प्रकार की बाँसुरियों को भिन्न-भिन्न प्रकार से बजाया जाता है।

हारमोनियम

हारमोनियम संभवतः भारत में सबसे अधिक प्रयोग किए जाने वाले वाद्ययंत्रों में से एक है, जो संगीत की अधिकांशतः सभी विधाओं के साथ संगत के लिए प्रसिद्ध है। ऑर्गन या हारमोनिका की भाँति ‘हारमोनियम’ भी एक स्वतंत्र रीड वाद्य है। हारमोनियम में मुख्यतः चार भाग होते हैं — धौंकनी, वायु कक्ष, कुंजियाँ और रीड। हारमोनियम के ऊपर शीर्ष पर एक ‘की-बोर्ड’ होता है जिसमें लगभग तीन से साढ़े तीन सप्तक तक कुंजियाँ (keys) होती हैं। वादक एक हाथ से की-बोर्ड बजाते हैं व दूसरे हाथ से धौंकनी की सहायता से हवा भरकर ‘हारमोनियम’ वादन करते हैं। धौंकनी के निरंतर और बार-बार धौंकने से, भीतर हवा का दबाव ऊपर उठता है और हारमोनियम की-बोर्ड पर लगी सफेद और काली कुंजियों (कीज़) को दबाकर उस हवा को छोड़ा जाता है। प्रत्येक कुंजी (कीज़) में एक ही रीड होती है। एक कुंजी (कीज़) दबाने से कनेक्टिंग रीड के नीचे एक छोटा सा ‘वेंट’ (वायु आदि निकलने का मार्ग) खुल जाता है जिसके माध्यम से हवा गुजरती है और इस प्रकार आवश्यक स्वर की उत्पत्ति होती है। इस वाद्य से संबंधित कुछ प्रमुख कलाकार अप्पा जलगाँवकर, महमूद धौलपुरी, अरविंद थत्ते आदि हैं।

घन वाद्यों का परिचय

घुँघरू

घुँघरू घन वाद्य की श्रेणी का वाद्य है जिसका उल्लेख प्राचीन तथा मध्यकालीन ग्रंथों में प्राप्त होता है। ग्रंथों में घुँघरू के लिए ही क्षुद्रघंटिक, घर्धरिका आदि नाम प्रचलित थे। इस वाद्य के निर्माण के लिए लोहा, कांसा, पीतल इत्यादि धातुओं का प्रयोग किया जाता है। आधुनिक समय में दूँघूरू इच्छित आकार में किसी भी धातु के खोखले गोले को बीच से चीरकर बनाया जाता है। इस गोले के अंदर लोहे या पत्थर की छोटी गोली डाल दी जाती है। छोटे आकार के बूँघरू नृत्य में एक माला की आकृति बनाकर पैरों में पहने जाते हैं।

चित्र 4.6 - घुँघरू

मँजीरा

मँजीरा भारत का प्रचलित घन वाद्य है जिसका प्रयोग लोक संगीत तथा भक्ति संगीत में होता है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन ‘ताल’ वाद्य ही आज मँजीरे के नाम से प्रचलित है।

आधुनिक मँजीरा आकार में छोटा होता है। इसकी ध्वनि घुँघरू के समान होती है। कांसा, पीतल तथा अष्टधातुओं आदि के द्वारा यह वाद्य निर्मित होता है। इसका आकार प्यालेनुमा होता है, जिसका गोलाकार व्यास दो इंच का, अंदर से गहरा एवं दोनों भाग के मध्य में छिद्रयुक्त होता है। इसमें सुतली या डोरी पिरोयी जाती है। अँगुलियों में लपेटकर इसका वादन आपस में टकराकर किया जाता है। उड़ीसा में मँजीरा सदृश वाद्य को ‘कांशी’ कहा जाता है जो आकार में सामान्य मँजीरे से बड़ा होता है। मणिपुरी लोक नृत्य में मँजीरे का प्रयोग विशेष रूप से होता है।

इाँझ

संगीत सार ग्रंथ के अनुसार उत्तर मध्यकाल में झाँझ का उल्लेख कांस्यताल के स्थान पर हुआ है। यह वाद्य मँजीरा से मिलता-जुलता है। झाँझ दो बड़े वृत्ताकार धातु के टुकड़ों से निर्मित होता है तथा इसके मध्य छोटा-सा एक गडूढा होता है, जिसमें से डोरी डालकर बाँधा जाता है। त्यौहारों में, मंदिरों में, स्कूल के बच्चों द्वारा वाद्य-वृंद में या जुलूस आदि में इसे बजाते हुए

चित्र 4.7 - झाँझ देखा जा सकता है।

इलेक्ट्रॉनिक की-बोर्ड

की-बोर्ड दोनों हाथों की अँगुलियों के प्रयोग से बजाया जाने वाला वाद्ययंत्र है, जिसे संगीत में वर्तमान समय में सबसे ज्यादा उपयोग में लाया जाता है। जिस प्रकार हारमोनियम में सप्तक होते हैं, ठीक उसी प्रकार की-बोर्ड में ऑक्टेव होते हैं जिसे हम हिंदी में अष्टक भी कहते हैं। की-बोर्ड में आवाज़ कम और ज्यादा करने के लिए बटन दिए होते हैं। ताल में लय और वाद्य चुनने के लिए भी बटन होते हैं। इसमें लय को कम या ज्यादा किया जा सकता है। इसमें विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ भी पहले से ही उपलब्ध रहती हैं जिनकी सहायता से हम विभिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों की ध्वनि निकाल सकते हैं। इस वाद्ययंत्र के आविष्कार का श्रेय 17 वीं सदी के आस-पास इटली के ‘बार्टोलोमियो क्रिस्टोफोरी’ को दिया जाता है। उस समय इस वाद्ययंत्र का नाम पियानोफोर्टे था। बाद में यही वाद्ययंत्र पियानो के रूप में प्रसिद्ध हुआ जिसे हम वर्तमान में की-बोर्ड के नाम से भी जानते हैं। वर्तमान समय में यह वाद्ययंत्र खूब प्रचार में है।

ऐप्स

ऐप का पूरा नाम ऐप्लीकेशन है जो एक तरह का सॉफ़्टवेयर होता है। यह एक निर्धारित कार्यप्रणाली के तहत कार्य करता है, जैसे- संगीत की दृष्टि से देखें, तो गाने सुनने के लिए प्रयोग किए जाने वाले ऐप्स, गाना रिकॉर्ड करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले इलेक्ट्रॉनिक ऐप्स, लय व ताल प्रदर्शित करने वाले ऐप्स आदि। ऐप्स को मोबाइल, लैपटॉप आदि जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में इस्तेमाल किया जाता है। इसमें तानपूरा, नगमा, संगत के लिए ठेके आदि की सुविधा सुरीलेपन के साथ उपलब्ध रहती है।

चित्र 4.8 - संगीत ऐप्स

  1. पणव का उल्लेख किस ग्रंथ में हुआ है?
  2. दर्दुर और हुडुक्का वाद्य किस श्रेणी में आते हैं?
  3. इनमें से कौन-सा वाद्य बाँस से निर्मित है?
  4. चमड़े अथवा खाल से मढ़े हुए खोखले वाद्ययंत्र किस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं?
  5. क्षुद्रघंटिका किस वाद्ययंत्र का पर्यायवाची शब्द है?
  6. मँजीरे को प्राचीन काल में किस नाम से जाना जाता था?
  7. ढोल की आकृति कैसी होती है? क्या ज्यामिति विषय से इसका कोई संबंध है?
  8. की-बोर्ड को 18 वीं शताब्दी में किस नाम से जाना जाता था?

अभ्यास

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।

1. शहनाई की संगत के लिए ________________ का प्रयोग किया जाता है।

2. मृदंगम् के मुख में सूजी के लेप को ____________ कहा जाता है।

3. ताशा एक _______________ वाद्य है।

4. नाट्यशास्त्र में _______________ को प्रत्यंग वाद्य के अंतर्गत रखा गया है।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

1. दुंदुभि किस वाद्य को बोला जाता है?

2. मृदंगम् के तीन प्रसिद्ध वादकों के नाम लिखिए।

3. पटह वाद्य के समान किन्हीं दो वाद्यों के नाम लिखिए।

4. ताशा किस प्रकार का वाद्य है?

5. तानपूरे का तुम्बा किस वस्तु से बनता है?

6. पटह के आकार को अंकित कीजिए।

7. घन वाद्यों को मुख्यत: किस प्रकार बजाया जाता है?

8. हुडुक्का वाद्य के बारे में बताएँ।

9. संगीत में वाद्यों का क्या महत्व है?

10. इस अध्याय में दिए गए वाद्ययंत्र किस पेड़ की लकड़ी से बनाए गए हैं? किन्हीं चार के उदाहरण दें।

11. संगीत में अवनद्ध वाद्य से क्या तात्पर्य है?

12. मृदंग अथवा तानपूरे का चित्र बनाकर उस वाद्ययंत्र के अंगों को नामांकित कीजिए।

13. तत् व सुषिर वाद्यों में उदाहरण सहित अंतर बताइए।

14. ढोलक और मृदंगम् वाद्यों की सचित्र तुलना कीजिए।

15. ऐसे ऐप्स को इंटरनेट से ढूँढ़ें, जो संगीत से संबंध रखते हैं। उनकी उपयोगिता बताएँ।

16. घुँघरू कैसे बनाए जाते हैं?

17. मँजीरा बजाने के लिए इसे हाथों में कैसे पकड़ा जाता है?

18. झाँझ की आकृति कैसी होती है, चित्र बनाकर नामांकित करें। किस तरह के सामाजिक कार्यों में इसका प्रयोग देखा जाता है?

19. ढोल की बनावट में किस वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है?

20. आपके पाठ्यक्रम में दिए किन-किन अवनद्ध वाद्यों में दोनों तरफ मुख होते हैं? उनकी विशेषता बताएँ।

21. ढोल और ढोलक में समानता और असमानता का वर्णन करें।

22. की-बोर्ड की रचना के बारे में आप क्या जानते हैं? 50 शब्दों में लिखें?

स्तंभ ‘अ’ के शब्दों को स्तंभ ‘ब’ में दिए शब्दों से सुमेलित कीजिए।

1. मोहनवीणा (क) ब्रजभूषण काबरा
2. तुम्बा (ख) मोती
3. मनका (ग) विश्वमोहन भट्ट
4. गिटार (घ) वायलिन
5. पाश्चात्य वाद्य (ङ) तानपूरा का भाग

विद्यार्थियों हेतु गतिविधि

1. संगीत वाद्ययंत्रों के चारों वर्गों के चित्रों को संग्रहित करके और चार्ट पेपर पर चिपकाकर एक-एक कोलाज बनाइए। विद्यार्थी डिजिटल चित्र भी बना सकते हैं।

2. तुम्बा युक्त वाद्यों का अवलोकन करके उनके चित्र बनाइए एवं विवरण दीजिए।

3. किसी अवनद्ध वाद्य का चित्र बनाइए तथा फिल्म संगीत में उसके प्रयोगों का अध्ययन कीजिए।

4. अपनी पसंद के संगीत वाद्य पर निम्नलिखित बिंदुओं के अनुसार एक परियोजना बनाइए-

  • वह वाद्य किन वस्तुओं से बना है?

  • उसकी बनावट का तरीका क्या है?

  • वाद्य के विभिन्न अंगों को नामांकित कीजिए।

  • वाद्य से संबंधित कुछ प्रसिद्ध कलाकारों के नाम लिखिए। उन्हें कौन-से पुरस्कार प्राप्त हुए हैं?

  • आज आज के समय में इस वाद्य का प्रयोग किस प्रकार हो रहा है?

  • किसी भी अवनद्ध वाद्य को त्रिआयामी आकार में बनाकर उसका नामांकन कीजिए।

शिक्षक हेतु गतिविधि

1. बच्चों द्वारा उनकी पसंद के गीतों पर संगीत वाद्यों को बजवाएँ, जैसे - कोंगो, बोंगो, तबला, हारमोनियम, गिटार, पत्ते से बनी सीटी, पत्थरों द्वारा बजायी गई लय/गति आदि।

2. बच्चों को उनकी पसंद के गीत सुनवाकर, गीत के साथ प्रयुक्त होने वाले संगीत वाद्ययंत्रों की भिन्न-भिन्न ध्वनियों को पहचानने हेतु प्रेरित करें (साउंड क्लिप्स के द्वारा)।

3. प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं से निर्मित वाद्यों से कक्षा में आर्केस्ट्रा बजवाएँ, जैसे- टूटे हुए पत्ते, तने, टहनियाँ, टीन के डिब्बे, काँच की बोतल इत्यादि।

परियोजना

1. की-बोर्ड बजाकर या की-बोर्ड से संगत करके गाना गाएँ और रिकॉर्ड करके अपलोड करें।

2. मणिपुरी लोक नृत्य में प्रयोग होने वाले वाद्ययंत्रों पर एक परियोजना बनाएँ।

3. चमड़े का व्यवहार वाद्ययंत्र में किस प्रकार होता है, परियोजना बनाएँ।

4. जिन वाद्यों के बारे में अब तक आपने पढ़ा, उनका सचित्र वर्णन करें। कक्षा में दीवारों पर 2D या 3D आकृति के पोस्टर बनाएँ।

5. विभिन्न प्रकार के मध्यकालीन अवनद्ध वाद्यों के छायाचित्रों को संकलित करके उन पर अपने दोस्तों से चर्चा करें एवं एक लिखित रिपोर्ट तैयार करें।

6. नीचे दिए गए चित्र में तानपूरा अथवा गिटार के विभिन्न भागों को नामांकित करें।



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