अध्याय 07 हिंदुस्तानी संगीत में वाद्य यंत्र

भारतीय संगीत में प्रयोग किए जाने वाले कई वाद्यों के बारे में हम आपको ग्यारहवीं की पाठ्यपुस्तक में बता चुके हैं। आप अवश्य इस बात को जान चुके होंगे कि हमारे देश में विभिन्न तरह के वाद्य हैं, जो तत्, अवनद्ध, सुषिर एवं घन के अंतर्गत आते हैं। उनकी बनावट, ध्वनि, बजाने के विभिन्न तरीके, लोकप्रियता सभी अपूर्व हैं। भारतीय कलाकार जो देश के विभिन्न प्रदेशों को सुशोभित करते हैं, वाद्य यंत्रों को बनाने एवं बजाने में अपनी प्रतिभा को दर्शाते रहते हैं। वाद्यों के प्रत्यके पहलू (बनावट, बनाने की तकनीक, वाद्यों को बनाने के लिए विभिन्न सामग्री/पदार्थों का व्यवहार) पर निरंतर शोध करते हुए वाद्य यंत्रों के एक अद्भुत कोष या भंडार की संरचना हुई है, जैसेएकतारा, दोतारा जैसे वाद्य से तानपूरे तक की क्रमागत उन्नति, तरह-तरह के ढोल से तबला, परवावज, मृदृंग का विकास, लोक वाद्य सारंगी से शास्त्रीय संगीत में वर्तमान में बज रही सारंगी का विकास इत्यादि।

ज़रा सोचिए कि वाद्य यंत्रों की दुनिया कितनी अद्भुत है, जिसमें स्वर है, लय है, विशिष्ट ध्वनियाँ हैं, यंत्रों को स्वर में मिलाने एवं बजाने के कितने अनूठे प्रयोग हैं।

चित्र 7.1 — तंत्री वाद्य बजाते हुए कलाकार

चित्र 7.2 - बोरताल असम घन वाद्य

विभिन्न कलाकारों के हृदय के उद्गार समाहित होकर ये आप तक पहुँच रही हैं। ये निरंतर प्रयास अपने देशवासियों तक ही सीमित नहीं हैं। भारतीय वाद्य यंत्रों की चर्चा, लोकप्रियता, सीखने-सिखाने की गुरू-शिष्य परंपरा ने तो विश्व भर में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। भारत में वाद्य यंत्र विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में सिखाए जाते हैं, लेकिन अमरीका, यरोप, दक्षिण पर्वी एशियाई देशों में भी इसका अध्ययन गहराई से चल रहा है। आइए, इंटरनेट की सहायता लेकर दो छोटी परियोजनाएँ बनाएँ-

चित्र 7.3 - ढाक बजाते कलाकार — अवनद्ध वाद्य

परियोजना के विषय

1. विश्व के कितने विश्वविद्यालयों में भारतीय वाद्य यंत्र सिखाए जाते हैं? विभागों के नाम भी बताएँ।

2. विश्व में कौन से वाद्य यंत्र लोकप्रिय हैं। कुछ विदेशी कलाकारों के नाम बताएँ।

विश्व के कई स्थानों में भ्रमण करने से एक और बात का एहसास होता है। शायद ही, किसी देश में इतने तरह के वाद्य यंत्र मिलते हैं, जितने भारत में। इन वाद्यों (तत्, अवनद्ध, सुषिर, घन) की सूची बनाएँ तो आपको अपने देश की महिमा एवं समृद्धता की भली-भाँति पहचान होगी, भारतीय जनमानस जो किसी सुदूर प्रांत में एक छोटे से गाँव, कस्बे में बैठकर या एक छोटी-सी दुकान अब जो शहर के गली, कूचीयारे में है, में बैठकर इन वाद्य यंत्रों को जन्म देते हैं। हम इन्हें अशिक्षित कहते हैं ज़रा सोचिए भारत के ये कलाकार विज्ञान, कला, सौंदर्य को पढ़ने के लिए शायद ही विद्यालय गए हैं, लेकिन निरंतर कला एवं सौंदर्य को आप तक पहुँचाने में सक्षम हैं। आइए, इन कलाकारों का अभिवादन करें जिन्होंने हम सबके लिए तानपूरा, सारंगी, तबला, शहनाई इत्यादि का निर्माण किया। आगे बढ़ते हुए वाद्यों की महत्ता को समझें।

हमें यह ज्ञात है कि कंठ संगीत हो, नृत्य हो या नाटक इन सभी कलाओं की प्रस्तुति में वाद्य यंत्रों का विशेष महत्व है। साधारण श्रोताओं को भले ही वाद्य पर क्या बज रहा है, इसका ज्ञान न हो, परंतु विभिन्न तरह की ध्वनि लयात्मकता, सभी के मन को भाँति है। कल्पना करें आप किसी कलाकार को ध्रुपद गाते हुए सुन रहे हैं। अगर इस गायन के साथ तानपूरा और पखावज नहीं हो तो क्या यह वाद्य इतना आकर्षक होगा? शादी/ब्याह में शहनाई और दुक्कड़ जैसे साज़ अगर नहीं होते तो क्या ये समारोह इतने भाव और रस से पूर्ण होते? सभी के उत्तर हम भली-भाँति समझ पा रहे हैं। वाद्य यंत्र की महिमा संगीत में हमेशा ही थी और रहेगी, हमें ज्ञात है कि वैदिक काल से लेकर प्राचीन, मध्य एवं वर्तमान तक वाद्य यंत्र की लोकप्रियता में कई गुणा बढ़ोतरी हुई है। कितने वाद्य नवीन बनें, उनमें संस्करण हुए, कुछ लुप्त हो गए, कई वाद्यों का प्रचुर मात्रा में प्रचार-प्रसार हुआ, चार वर्गों के वाद्यों की संख्या बढ़ी और निरंतर प्रचार-प्रसार से प्रायोगिक बनी। हर वाद्य की अपनी भाषा है— तार युक्त वाद्य की एक भाषा है, चमड़े से मढ़ी वाद्य की भाषा अलग है, बाँस, ताँबा, मिट्टी, लकड़ी आदि ने अपनी विशिष्टता को लेकर एक अद्वितीय भाषा बनाई है जो मर्मस्पर्शी है। इन ध्वनियों को सुनते ही हृदय आनन्दित हो जाता है।

पुन: विचार करें- वाद्य चार प्रकार के होते हैं, जिसका उल्लेख विस्तार से ग्यारहवीं की पुस्तक में भी किया गया है। तत्, अवनद्ध, घन एवं सुषिर। उपरोक्त चार प्रकार के वाद्यों के लक्षण स्पष्ट करते हुए भरत मुनि ने लिखा है-

तत् तंत्री वाद्य, पुष्कर अवनद्ध वाद्य, ताल घन वाद्य एवं वंशी सुषिर वाद्य हैं।

प्राचीन, मध्यकालीन तथा वर्तमान काल के अधिकांश संगीतज्ञों एवं संगीत ग्रंथकारों ने भरत के चतुर्विध वर्गीकरण का अनुसरण करते हुए संगीत वाद्यों के चार प्रकार माने हैं-

  1. तत् (तंत्री)
  2. अवनद्ध
  3. घन
  4. सुषिर

ग्यारहवीं कक्षा में हमने वाद्यों की बनावट के बारे में विस्तृत जानकारी पाई है। आइए, उनमें से कुछ वाद्यों के बारे में आगे जानें। इनके वैज्ञानिक तत्व, जैसे— ध्वनि, तरंग, कंपन, आवृति का भी मूल्यांकन करें।

तत् (तंत्री वाद्य)

तत् श्रेणी के अंतर्गत यह तो हम जानते ही हैं कि तार या तंत्री के कंपन से स्वर उत्पन्न किए जाते हैं। तत् श्रेणी के अंतर्गत वे वाद्य आते हैं जिन्हें उँगलियों, मिजराब या जवा आदि से आघात कर अथवा गज से घर्षण कर बजाते हैं। इसके अंतर्गत तानपूरा, वीणा, सितार, सरोद, वॉयलिन, सारंगी, इसराज आदि वाद्य आते हैं।

चित्र 7.4 - सारंगी

चित्र 7.5 - वॉयलिन

चित्र 7.6 -सरोद

चित्र 7.7 - संतूर

तानपूरा

इस वाद्य को हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों में तानपूरा, तम्बुरा तथा तमूरा के नाम से जाना जाता है। शास्त्रीय संगीतकार गायक या वादक दोनों ही इसका व्यवहार करते हैं। तानपूरे का तुम्बा काशीफल/सीताफल से बनता है। इसे आधा काटकर एक लकड़ी से ढका जाता है जिसे तबली कहते हैं। इसी तुम्बे से गूँज या प्रतिध्वनि (Reverberation) तानपूरे की ध्वनि को निर्धारित करती है। टुन/टीक की लकड़ी से यह वाद्य उत्तर भारत में बनता है, लेकिन दक्षिण में यह कठहल वृक्ष की लकड़ी से बनता है।

तानपूरे की बनावट का विस्तृत विवरण ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक में दिया गया है। इसलिए इस पुस्तक में तानपूरे की कुछ अन्य पहलुओं पर विचार किया जाएगा। आइए, आगे बढ़ते हुए इस वाद्य यंत्र के वैज्ञानिक तत्वों पर अपना दृष्टिकोण बनाएँ। सर्वप्रथम तानपूरे की तारों की लम्बाई के अनुसार इसकी ध्वनि निर्भर होती है। महिला गायिका का तानपूरा, पुरूष गायक का तानपूरा या वाद्य यंत्रों के साथ बजाया जाने वाला तानपूरा को परखते हैं तो तीनों में तार की लम्बाई अलग-अलग होती है, क्योंकि इनके स्केल में अंतर है। यह एक शोध का विषय है, आपसे अनुरोध है कि इस परियोजना को बनाकर स्वयं ही इस बात को समझें। जब स्केल ऊँचा यानी (c # $\longrightarrow$ D # ) होता है तो तार की लम्बाई कम होती है। तानपूरे में लगा मनका और ब्रिज पर लगा धागा इसके स्वरों की सूक्ष्मता को किस तरह अंगीकृत करता है, ये सभी वैज्ञानिक शोध का विषय हैं। परियोजना बनाकर इस वाद्य यंत्र को गहराई से समझें।

तानपूरा को बजाने का तरीका इस प्रकार है— बीच वाली उँगली से पहला तार (जो मध्यम या पंचम स्वर में मिला होता है) छेड़ते हैं। बीच के दो तार जो तार सप्तक में मिले होते हैं और आखिरी तार जो ताँबे का होता है और आधार स्वर में मिला होता है, तर्जनी उँगली से छेड़कर बजाते हैं।

चित्र 7.8 - अनीता रॉय — शास्त्रीय संगीत गायिका

चित्र 7.9 - तानपूरा बनाने की विधि

सितार

यह एक लोकप्रिय तारयुक्त वाद्य है, पंडित रवि शंकर जिन्हें भारत सरकार ने भारत रत्न से सम्मानित किया था, इस वाद्य के प्रमुख प्रचारकों में माने जाते हैं। उन्होंने केवल अपने देशवासियों के लिए ही नहीं बल्कि विश्व में कई स्थानों पर इसे पेश किया, अनेक, कलाकारों को इस वाद्य को बजाने के लिए प्रेरित किया एवं कई तरह के प्रयोग द्वारा सभी को विस्मित किया। उनके अलावा उस्ताद विलायत खाँ एवं उनके परिवार के अन्य सदस्य, पंडित निखित बैनर्जी, पंडित देव चौधरी इत्यादि ने इस वाद्य को विश्व भर में बनाया और लोगों को सम्मोहित किया।

ग्यारहवीं कक्षा में हम पढ़ चुके हैं कि सितार का निचला भाग, गोल कदूद का बना होता है जिसे ‘‘ुम्बा’ कहते हैं। कदून को आधा काटा जाता है और तानपूरे की तरह ही एक लकड़ी का टुकड़ा जिसे ‘तबली’ कहा जाता है, उससे टक दिया जाता है। इसके ऊपर डाँड़ होती है जो तुम्बे के साथ जोड़ दी जाती है। इस डाँड़ पर तार एवं खूँटियाँ लगाई जाती हैं। यह पीतल अथवा लोहे की सलाइयाँ होती हैं, जो डाँड़ पर बाँधे जाते हैं और ‘परदे’ कहलाए जाते हैं। इन्हें सुंदरी भी कहते हैं। परदों को जिन स्थानों पर बाँधा जाता है उसी से स्वर उत्पन्न होते हैं, ये परदे सतरह से चौबीस तक होते हैं। सितार में तारों को कसने के लिए डाँड़ में ऊपर तथा दाँयी और लकड़ी की चाबियाँ होती हैं, जिन्हें खूँटी कहते हैं। सितार के ऊपरी सिरे पर प्लास्टिक की दो सफे़द पट्टियाँ होती हैं। पहली

चित्र 7.10 - सितार

पद्टी जिस पर तार रखे जाते हैं उसे अटी कहते हैं और दूसरी पट्टी जिस पर सुराख होते हैं जिससे तार गुजरते हैं ‘तारगहन’ कहलाता है, यह तार यहाँ से खूँटियों से बाँधे जाते हैं। इन तारों को ऊपर से लाकर तबली के ऊपर लगी एक चौकी (जो लकड़ी की बनी होती है) से खींचकर तुम्बे के नीचे के भाग में कील या मोंगरा से बाँध दिया जाता है।

तबली के ऊपर लगाई गई चौकी को ‘धुड़च’ या ‘बृज’ कहते हैं। इसकी ऊपरी सतह को जनारी कहते हैं। सितार के तार को सूक्ष्मता से मिलाने के लिए तार में मोती पिरोते हैं (बृज के नीचे जिसे, ‘मनका’ कहते हैं) सितार में सात तार होते हैं जिन्हें राग के अनुकूल स्वरों में मिलाते हैं इसमें तरव के तार होते हैं जो परदे के नीचे होते हैं जो इस वाद्य को अधिक झंकृत करते हैं सितार को मिजराब से छेड़ते हैं।

ऊपर दी गई बनावट आपने ग्यारहवीं कक्षा में भी पढ़ी है, ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक में बनावट की और भी कुछ बातें दी गई हैं जिसे आप फिर से पढ़ लें। सविस्तार पढ़ने के बाद आपको अहसास होगा कि वाद्य यंत्र की बनावट किस तरह विज्ञान से जुड़ी हुई है।

सितार वाद्य यंत्र में विज्ञान पर कुछ टिप्पणियाँ

  • सितार की लकड़ी पहले ‘टीक’ से बनती थी, लेकिन अब यह रोजवुड या टुन से बनती है।

  • लकड़ी का अनुकूलन जिससे यह हर मौसम में एक जैसी रहे।

  • पीतल एवं स्टील के तारों को सुर से बाँधना।

  • हर तार को राग के स्वरों अनुसार मिलाना।

  • सितार के तारों को डाँड़ एवं बृज के ऊपर से बिछाने की पद्धति

इन सभी बातों को बजाते हुए परखें एवं अपने गुरु से इस पर चर्चा करें तो आप समझ पाएँगे कि किस तरह संगीत, विज्ञान एवं पर्यावरण का अटूट रिश्ता है। परियोजना बनाकर संगीत और दूसरे विषयों को समझने का प्रयास जारी रखें।

वीणा

‘वीणा’ शब्द सुनकर हम माँ सरस्वती के हाथ में “वीणा पुस्तक धारिणी” का चित्र आँकते हैं। कुछ शताब्दियों पूर्व सभी तंत्री वाद्यों को ‘वीणा’ कहा जाता था। संस्कृत के कुछ ग्रंथों में ‘वान’ शब्द पाया गया है जो कि वीणा का पर्याय माना जाता है। ऐतिहासिक पुरातत्व स्मारकों में इस तरह के अनेक वाद्य पाए जाते हैं।

बच्चों आप बहुत से स्थानों पर घूमने जाते हैं। भारत में अनेक ऐतिहासिक प्राचीन शिल्प कलाएँ आपको देखने को मिलेंगी, अपने माता-पिता से स्कूल में अध्यापक/अध्यापिकाओं से आग्रह कीजिए कि वह आपको आस-पास के इन स्थानों पर लेकर जाएँ। वहाँ जाकर जब आप अच्छी तरह से इन कलाओं को परखेंगे तो वीणा जैसे कई वाद्य यंत्र दिखेंगे। उनकी फोटो खींचे और कोशिश करें कि वहाँ की मूर्तियों पर बनें संगीत के वाद्य यंत्रों का अध्ययन कर परियोजना बनाएँ।

संहिता, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद आदि में गोद वीणा, करकरीकस वाण, काण्ड वीणा इत्यादि का उल्लेख मिलता है। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता कि ‘वाण’ से वीणा शब्द आया है। भारत द्वारा लिखित नाट्यशास्त्र में (जिसकी रचना पहली से दसरी शताब्दी मानी गई है) में चित्र वीणा (सात तार) विपक्चि वीणा (नौ तार) का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। ‘सिलापदीकरम’ एक तमिल प्राचीन ग्रंथ में भी सात, बारह और उन्नीस तारों की वीणा का उल्लेख है।

कुछ तार के वाद्य यंत्रों को देखकर यह समझा जा सकता है कि बीन, जंतर, रबाब, संतूर वाद्य वीणा के ही अलग-अलग आकार व प्रकार हैं। वर्तमान काल में रुद्र वीणा, विचित्र वीणा, सरस्वती वीणा, तंजौर वीणा, गोटूवाद्यम इत्यादि बजाने का प्रचलन है।

सरस्वती वीणा/तंजौर वीणा कठहल वृक्ष की लकड़ी से बना है, यह भी दूसरे तंत्री वाद्यों की तरह तुम्बा, डाँड़, तुम्बी, परदे, खूँटी इत्यादि से रचित है। इसका तुम्बा लकड़ी से ही बनता है। लकड़ी को अर्ध गोलाई में काटकर उसके ऊपर ‘कुडम’’ (एक और लकड़ी की प्लेट) से ढका जाता है। तुम्बे को अंदर से कुरेदकर खोखला किया जाता है। इस कार्य में बहुत सोच-विचार और कारीगरी है, क्योंकि वीणा की ध्वनि इसी पर आधारित है। इसी के ऊपर डाँड़ होती है जो शेष भाग में ‘चली’ एक काल्पनिक शेर की आकृति जैसा बनाया जाता है, तुम्बा के ऊपर बृज लगाई जाती है जिसके ऊपर पीली पीतल की परत होती है। इसे ‘कुदीरई’ कहते हैं।, चार मुख्य तार जिन्हें ‘सरणी’ कहा जाता है, इस बृज के ऊपर से डाँड़ के अंत तक जाते हैं, जो खूँटियों से बाँधे जाते हैं। एक छोटा बृज भी बड़े बृज के साथ लगाया जाता है जो ताल एवं आधार स्वर के लिए प्रयोग में आता है। सभी तार कुउम के निचले हिस्से में बाँधे जाते हैं जिसे ‘नाग पाशा’ कहते हैं।

रुद्र वीणा का उल्लेख संगीत मकरंद ग्रंथ में पाया जाता है। इसे बीन भी बोलते हैं। ध्रुपद घराने के लोग वीणा बजाते हैं और उन्हें बीनकार भी कहा जाता है। इसमें दो तुम्बे लगाए जाते हैंएक निचले हिस्से में और दूसरा डाँड़ के अंतिम हिस्से में नीचे की तरफ लगाया जाता है। रुद्र वीणा में सात तार होते हैं। चार मुख्य और तीन आधार स्वर बजाने हेतु। इसमें 19-23 परदे होते हैं। इसे दाहिने हाथ की छोटी उँगली से छेड़ा जाता है।

चित्र 7.12 - रुद्र वीणा

चेण्डा

चेण्डा दक्षिण भारत का प्रचलित अवनद्ध वाद्य है। यह कटहल के वृक्ष की लकड़ी से गोलाकार आकृति का बना हुआ होता है जो ऊर्ध्व वाद्यों की श्रेणी में आता है। यह सामान्यतः 60 सेंटीमीटर लंबा और 22 सेंटीमीटर व्यास का वाद्य है। चमड़े से इसके मुँह पर दो बाँस की लकड़ी जो कि गोलाकार बनाई जाती है, से बाँधा जाता है। नीचे की तरफ़ इसमें सात परतों का चमड़ा होता है जो एक के ऊपर एक लगाए जाते हैं और उनमें से गंभीर नाद सुनाई देता है। ऊपर के चमड़े को और नीचे के चमड़े को सख्ती से बाँधने के लिए लोहे के छोटे-छोटे रिंग्स होते हैं, जिन्हें खींचकर इसके स्वरों में मिलाया जाता है। दो मुँह होने के बावजूद इसके ऊपर के मुँह को ही दो छोटी-छोटी डण्डियों जैसी लकड़ियों से बजाया जाता है। यह रस्सी घूरा गले से लटकाकर बनाई जाती है। चेण्डा के अनेक प्रकार हैं- अच्छन चेण्डा, विक्कन चेण्डा, उरुत्तु चेण्डा।

यह मंदिरों में किसी भी पूजा अर्चना के साथ बजाई जाती है और आजकल हम देखते हैं कि किसी भी भव्य समारोह में चेण्डा बजाकर संगीत का आनंद लिया जाता है। कथकली और कुडियट्टम शैलियों के साथ भी इस वाद्य को बजाने का

चित्र 7.13 - चेण्डा बजाते हुए एक कलाकार प्रचलन है।

अवनद्ध वाद्यों में कुछ लोक वाद्य

नगाड़ा

प्राचीन काल में नगाड़ा को दुंदुभि के नाम से जाना जाता था। प्राचीन ग्रंथों में दुंदुभि वाद्य यंत्र का उल्लेख मिलता है। दुंदुभि, निशान, धौंसा, नक्काड़ा, दमामा इत्यादि अवनद्ध वाद्य हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में बजाए जाते हैं। धार्मिक उत्सव, ब्याह, राष्ट्रीय उत्सव अथवा किसी भी पुण्य तिथि में इन वाद्यों का भरपूर आनन्द सब लेते रहते हैं। ये वाद्य ज़्यादातर अर्धगोलाकार आकृति के होते हैं, जिसे, चमड़ा/ खाल से ढका जाता है। अर्धगोलाकार आकृति जिसमें चमड़े को मढ़ा जाता है, मिट्टी, लकड़ी, पीतल, अष्टधातु इत्यादि से बनाई जाती है। इसके आकार छोटे एवं बड़े कई तरह के होते हैं। नीचे दिए गए चित्र आपको वाद्य की आकृति के बारे में भली-भाँति जानकारी देंगे।

चित्र 7.14 - नगाड़ा

इसे बजाने का तरीका भी अलग-अलग होता है। कभी हाथ की थाप से और कभी डण्डियों से इस पर विभिन्न प्रकार के लयात्मक प्रयोग किए जाते हैं। प्रत्येक प्रांत में नगाड़ा के अलग-अलग नाम हैं, जैसे— उत्तर प्रदेश में इसे नगेरी या नक्कारा कहा जाता है।

गुजरात, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में टुडबुडी या नक्कारा कहा जाता है। इसकी ध्वनि ज़ोरदार होती है और इस ध्वनि को पाने के लिए धूप में नगाड़ा को रखा जाता है। कभी-कभी नगाड़ा इतना बड़ा होता है (जैसा कि हरियाणा में) कि उसे भूमि पर रखा जाता है। जिन छोटे-छोटे डण्डों से नगाड़ा बजाया जाता है, उसे द्धोब कहते हैं।

नगाड़ा जैसा एक और महत्वपूर्ण अवनद्ध वाद्य है— दुक्कड़। यह छोटी आकृति का होता है। इसकी ध्वनि तीव्र होती है और शहनाई के साथ बजती दुक्कड़ बहुत ही मनमोहक लगती है।

इस तरह के वाद्यों का उल्लेख अबुल फ़ज़ल ने अपनी पुस्तक आइने अकबरी में दिया है। उनकी पुस्तक में नक्कारा, दमामा, कर्ना इत्यादि के बारे में जानकारी मिलती है।

पुंग

पुंग भी एक अवनद्ध वाद्य है जो मणिपुर में पाया जाता है। यह वाद्य खोल (जिसका विवरण ग्यारहवीं की पुस्तक में दिया गया है) जैसा दिखता है, लेकिन इसकी कुछ विविधताएँ हैं जिसके कारण पुंग की ध्वनि खोल से अलग है।

चित्र 7.15 - पुंग

पुंग लकड़ी से बनता है जो गले में रस्सी झरा लटकाकर बजाई जाती है। इसके दाहिने व बाएँ, मुख पर चमड़ा मढ़ा जाता है जो कि रस्सी से सख्त बाँधा जाता है। पुंग का दाहिना सिरा बाएँ से बड़ा होता है। यह हाथों व ऊँगलियों की थाप से बजती है। मणिपुरी नृत्य में यह वाद्य पुंगचोलोम नृत्य के साथ बजाई जाती है।

आप सभी से आग्रह है कि पुंग बजाते हुए मणिपुरी नृत्य अवश्य देखें। आपको समझ आएगा कि किस तरह विभिन्न तरह की लयकारी बजाते हुए नर्तक पुंग बजाते हुए नृत्य करते हैं।

चित्र 7.16 - नर्तक पुंग बजाकर नृत्य की प्रस्तुति देते हुए कलाकार

चित्र 7.17 - अवनद्ध वाद्य बनाने की विधि

सुषिर वाद्य

नागस्‍वरम्

किसी भी धार्मिक अनुष्ठान एवं विवाह इत्यादि के मंगल अवसर पर भारतवर्ष के दक्षिण प्रांत में नागस्वरम् की गूँज अवश्य ही सुनाई देती है। इसे बजाने की प्रक्रिया शहनाई (इस वाद्य का विवरण ग्यारहवीं कक्षा की पुस्तक में दिया गया है।) के समान है। परंतु नागस्वरम् की लम्बाई शहनाई से ज़्यादा होती है। अचमेरन वृक्ष की लकड़ी से इसका निर्माण होता है। इसकी लम्बाई लगभग 2 फीट है।

चित्र 7.18 — नागस्‍वरम

आंध्र प्रदेश में इस वाद्य को ‘नादस्वरम्’ के नाम से जाना जाता है, लेकिन तमिलनाडु में इसे ‘नागस्वरम्’ कहा जाता है। मुख वीणा, नफीरी, सुन्दरी भी इसी श्रेणी के सुषिर वाद्य हैं। नागस्वरम् के दो भाग होते हैं- रीड एवं ट्यूब— दो रीड होते हैं जिनमें थोड़ी-सी दूरी रखी जाती है। ये दोनों रीड जिसमें फूँक कर ध्वनि का संचार होता है, एक धातु के साथ जोड़ी जाती है। यह धातु ट्यूब जो करीब $2-2.5$ फीट की होती है, इससे जोड़ी जाती है। ट्यूब त्रिकोणाकार होता है जो लकड़ी या धातु से बना होता है जिसमें 12 सुराख होते हैं। इनमें से सात सुराख खुले होते हैं। जिनमें ऊँगलियों द्वारा ध्वनि उत्पन्न की जाती है। बाकी पाँच सुराख बी-वैक्स से बंद रहते हैं। यह ट्यूब नीचे से चौड़ा होता है। रीड को व्यवस्थित करने के लिए हाथी दाँत की एक सूई का प्रयोग किया जाता है।

टी. एन. राजारतमपिल्लै, कारूकरीची अरूणाचलम् इत्यादि नादस्वरम् के प्रचलित कलाकार हैं। आइए, कुछ और सुषिर वाद्यों के चित्र देखें।

चित्र 7.19 — बाँसुरी

चित्र 7.20 — शहनाई

चित्र 7.21 — क्‍लेर‍िनेट

चित्र 7.22 — हारमोनियम

घन वाद्य

जलतरंग

जलतरंग वाद्य के नाम से ही पानी या जल में तरंगों का अहसास होता है। जलतरंग एक ऐसा वाद्य है जिसमें काँच के प्यालों में अलग-अलग नाम का पानी भरकर रखा जाता है। बाँस की पतली लकड़ियों से प्यालों पर हल्का आघात कर इस वाद्य यंत्र में ध्वनि संचारित होती है।

चित्र 7.23 — जलतंरग

हमारे प्राचीन ग्रंथ संगीत पारिजात व संगीत सार में भी इसका उल्लेख पाया जाता है। कितनी अनूठी बात है और शोध का विषय भी कि प्यालों में जल की मात्रा के कारण विभिन्न स्वर उत्पन्न किए जा सकते हैं। इसमें 22 प्याले होते हैं, ये प्याले पीतल या काँच के बने होते हैं। इसके अंदर की गहराई को नापकर पानी डाला जाता है। पर एक प्याला एक श्रुति को निर्धारित करता है और हम जब इस वाद्य यंत्र को सुनते हैं तभी हमें पता चलता है कि पानी काँच/पीतल से कितनी मधुर ध्वनि उत्पन्न होती है।

घठम्

भारतवर्ष में घटम् के कई नाम हैं। यह एक मिट्टी से बना हुआ घड़ा है जिसे वाद्य यंत्र की तरह ढाला गया है। घटम् को कश्मीर में ‘नूट’ कहते हैं। नूट का ऊपरी भाग खुला होता है और हाथ की थाप से ध्वनि को विभिन्न रूपों में उत्पन्न किया जाता है। घूमट गोवा का वाद्य यंत्र है जो नूट से बहुत छोटा होता है और इसके ऊपर चमड़ा मढ़ा जाता है। दो पतली छड़ से घूमट बजाने की प्रथा है। वर्तमान में घटम् बहुत बेहतरीन वाद्य यंत्र माना गया है। विक्कू विनायक जैसे कलाकार ने इस वाद्य को बजाने की अनेक तकनीकें अपनाई हैं। इसमें हाथ की थाप, उँगलियों एवं नाखूनों से बजाना और बाहों से भी थाप बजाकर विभिन्न लयकारियों द्वारा अनेक ताल बजाए जाते हैं। आज केवल देश में ही नहीं, विदेशों में भी यह वाद्य बहुत लोकप्रिय हैं।

चित्र 7.24 — घटम्

घटम् घड़ा जैसा ही दिखता है, लेकिन इसे ढालने का तरीका बहुत वैज्ञानिक है। यह घड़ा इस तरह खोखला किया जाता है कि उसकी ध्वनि एक स्वर में बँधी रहे और सुरीला स्वर सुनाई दे।

इन सभी वाद्यों के बारे में पढ़कर इतना तो समझ में आता ही है कि हर एक वाद्य की ध्वनि वैज्ञानिक सिद्धांतों को र्दशाती है।

लकड़ी के डाँड़

आइए, जानें घन वाद्य में तरह-तरह की लकड़ियों को किस तरह संगीत एवं नृत्य में व्यवहार किया गया है।

विभिन्न तरह के डाँड़ छोटे-बड़े, मोटे-संकरे का प्रयोग हम भारत के कई नृत्यों में देखते हैं, जैसे— डांडिया, रास, चिपलाकट्टा इत्यादि। हमें यह समझना आवश्यक है कि किस तरह यह लकड़ियाँ लयात्मक बनकर संगीत को मनमोहक बनाती हैं।

डांडिया

गुजरात में बजाई जाने वाली ये दोनों लकड़ियाँ पूरे नृत्य को व्यवस्थित एवं लयात्मक बनाती हैं। डांडिया रास केवल भारत में ही नहीं, वरन विश्व के कई प्रांतों में बहुत लोकप्रिय है।

चित्र 7.25 — डांड‍िया

छड़

डांडिया से लम्बी यह डाँड़ राजस्थान व मैसूर में प्रचलित है। किसी भी त्यौहार में भली-भाँति लय का संचार करते हुए यह नृत्य और गीत में सुनी जा सकती है।

कोलठ्ठमकरा

इस छड़ के कारण आंध्र प्रदेश में यह एक नृत्य शैली बन गई है। ये छोटे-छोटे डाँड़ रंगीन कपड़ों को मोड़कर या लकड़ी को रंगकर प्रयोग में लाए जाते हैं।

टिप्‍पनी

बाँस की छड़ के निचली तरफ लकड़ी के वर्गाकार ब्लॉक्स लगाकर इसका प्रयोग किया जाता है। इस वर्गाकार ब्लॉक को छड़ द्वारा ज़मीन पर थाप देते हुए टिप्पनी का प्रयोग किया जाता है। गुजरात की कोली जनजाति ने इस छड़ का प्रयोग करते हुए कई नृत्यों की रचना की है।

चिपलाकठ्रु

केरल के मंदिरों में इसका प्रयोग देखा गया है। जिस तरह मंजीरे में रस्सी पिरोकर हाथ से कसकर पकड़ा जाता है, उसी तरह चिपलाकट्टा जो कि लकड़ी से बनता है, उसके अंदर से भी रस्सी पिरोकर और हाथ से सखती से पकड़ा जाता है। लकड़ी के इस वाद्य यंत्र में कुछ मोती भी पिरोकर मधुर ध्वनि उत्पन्न होती है। लकड़ी का यह यंत्र छह इंच के करीब होता है। जो शीशम की लकड़ी से बनता है।

अभ्यास

बहुविकल्पीय प्रश्न-

1. सुषिर वाद्य नागस्वरम् में कितने छिद्र होते हैं?

(क) पाँच

(ख) सात

(ग) बारह

(घ) चार

2. कोलट्टमकरा किस वाद्य की श्रेणी में आता है?

(क) घन

(ख) अवनद्ध

(ग) सुषिर

(घ) तंत्री

3. ‘पुंग’ वाद्य किस प्रदेश का विशेष वाद्य है?

(क) मिजोरोम

(ख) मणिपुर

(ग) त्रिपुरा

(घ) अरुणाचल प्रदेश

4. चेण्डा किस तरह का वाद्य है?

(क) आंकिक

(ख) ऊर्ध्वक

(ग) आलिंग

(घ) द्विमुखी

5. रु्र वीणा में तारों की संख्या कितनी होती है?

(क) पाँच

(ख) सात

(ग) बारह

(घ) चार

6. तुम्बा किस तरह के वाद्यों का भाग होता है?

(क) सुषिर

(ख) घन

(ग) तंत्री

(घ) अवनद्ध

7. कुछ शताब्दियों पूर्व सभी तंत्री वाद्यों को क्या कहा जाता था?

(क) तानपूरा

(ख) सहतार

(ग) वीणा

(घ) एकतारा

8. तानपूरा और सितार किस वाद्य वर्गीकरण के अंतर्गत आते हैं?

(क) घन

(ख) तंत्री

(ग) सुषिर

(घ) संतर

9. इनमें से किस वाद्य को मिजराब से बजाते है?

(क) सरोद

(ख) सारंगी

(ग) सितार

(घ) संतूर

10. काँच के प्याले में पानी भरकर किस वाद्य को बनाया गया?

(क) घटम्

(ख) जलतरंग

(ग) काष्टतरंग

(घ) टिप्पणी

नीचे दिए गु प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

1. तानपूरे का चित्र बनाइए एवं उसके भागों को अंकित कीजिए।

2. तंत्री वाद्य सितार, तानपूरा, वीणा किस तरह एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं?

3. अवनद्ध वाद्य को बजाने के लिए उस पर खाल मड़ी जाती है। सोच-विचार करके बताइए कि खाल किस तरह की होनी चाहिए कि उसकी ध्वनि सुनने में अच्छी लगे। इसको बाँधने के तरीके कैसे होते हैं?

4. सरस्वती वीणा का सविस्तार वर्णन कीजिए।

5. तुलनात्मक विचार-

क्रम सं. प्रश्न
(क) सितार और वीणा में तारों की संख्या
(ख) चेण्डा और नगाड़े में भिन्नता
(ग) सितार और तानपूरे के तार को डाँड़ पर बिछाने की पद्धति
(घ) रुद्र वीणा एवं सरस्वती वीणा की बनावट एवं तुलना
(ङ) नगाड़ा वाद्य के विभिन्न नाम, आकृति एवं प्रदेश
(च) मणिपुर राज्य में पुंग की विशेषता और केरल में चेण्डा की विशेषता पर टिप्पणी

6. यूट्यूब में देखें और बताएँ-

(क) सितार वाद्य को किस तरह हाथों से पकड़ा जाता है? बजाते समय बैठने का तरीका कैसा होता है? जो बच्चे चित्र बनाने में निपुण हैं वे इसका चित्र बनाएँ।

(ख) घटम् किस तरह बजाया जाता है? इसको बजाने वाले कलाकारों के नाम बताइए।

(ग) दक्षिण प्रांत के कुछ कलाकारों के नाम बताइए जो वीणा वादन में निपुण हैं।

7. भारतीय शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत विभिन्न वाद्य यंत्र बजाने वाले कई कलाकारों को भारत सरकार ने सम्मानित किया है। हर वर्ग में पाँच कलाकारों के नाम बताइए एवं उनके वाद्य यंत्र का तीन-चार पक्ति में विवरण दीजिए।

(क) पद्मश्री

(ख) पद्म भूषण

(ग) पद्म विभूषण

(घ) भारत रत्न

(ङ) संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार

8. भारत के अनेक राज्यों में धार्मिक स्थल पर कई वाद्य यंत्र बजाने की प्रथा है। आपके आसपास के धार्मिक स्थलों पर जाकर परियोजना बनाइए। निम्न बातों को इस परियोजना में अवश्य रखें-

(क) किस प्रकार का संगीत गाया व बजाया जाता है?

(ख) वाद्य यंत्र कौन से प्रयोग में लाए जाते हैं? उस वाद्य यंत्र को कौन बनाता है? उस वाद्य यंत्र का विवरण।

(ग) उन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले व्यक्ति/कलाकार का साक्षात्कार लेकर परियोजना में वर्णन कीजिए।

(घ) अधिकतर विभिन्न तरह के गीत इन धार्मिक स्थलों में गाए जाते हैं। किसी भी एक गीत को लेकर चर्चा कीजिए।

9. “तानपूरा एक वैज्ञानिक यंत्र है।” क्या आप इसकी पुष्टि कर सकते हैं? अगर हाँ/या नहीं, अपने विचार 100 शब्दों में लिखिए।

10. ग्यारहवीं एवं बारहवीं की पाठ्यपुस्तक में आपने कई वाद्य यंत्रों का विवरण पढ़ा है। चारों वर्गों में से एक-एक वाद्य यंत्र लेकर उनके कलाकारों के बारे में पता लगाइए, किस तरह उनका शिक्षण गुरु-शिष्य परम्परा से जुड़ा है और उस वाद्य यंत्र को भारत में या विश्व में कहाँ-कहाँ बजाया जाता है? 1600 शब्दों में लेख लिखिए।

11. नीचे दिए गए इन दो वाक्यों के अनुसार प्रश्नों का उत्तर दीजिए-

(क) इसराज एक ऐसा तंत्री वाद्य है जिसमें सितार और सारंगी जैसे तंत्री वाद्य की संयुक्त विशेषताएँ हैं।

(ख) ‘तुम्बा’ की आकृति ही इसराज, तानपूरा, सितार जैसे वाद्यों में स्वर संचार करती है।

(i) क और ख सही बात को कहने में असमर्थ हैं।

(ii) ख के अनुसार ‘तुम्बा’ की विशेषताओं के कारण सितार इतना मधुर सुनाई देता है।

(iii) इसराज और सितार तंत्री एवं सुषिर दोनों वाद्यों की श्रेणी में आते हैं।

(iv) तंत्री वाद्य की श्रेणी में तानपूरा नहीं आता है।



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