अध्याय 03 हिंदुस्तानी संगीत के पारिभाषिक शब्‍द

संगीत के क्षेत्र में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का विशिष्ट स्थान है। इसका अध्ययन करते समय विद्यार्थी को कुछ विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का सामान्य ज्ञान होना आवश्यक है। प्रत्येक पारिभाषिक शब्द की अपनी विशेषताएँ हैं जिन्हें यहाँ वर्णित किया गया है।

वर्ण

भारतीय शास्त्रीय संगीत में स्वरों के प्रयोग की विभिन्न क्रियाओं को वर्ण कहते हैं। वर्ण की परिभाषा ‘अभिनव राग मंजरी’ में निम्न प्रकार से दी गई है — “गानक्रियोच्यते” वर्ण: स चतुर्धा निरूपित: स्थाय्यारोह्मवरोही च संचारीत्यथ लक्षणम्।

अर्थात— गाने की क्रिया को वर्ण कहते हैं। वर्ण चार प्रकार के होते हैं- स्थायी, आरोही, अवरोही और संचारी।

1. स्थायी वर्ण — स्थायी का अर्थ है ठहरा हुआ। एक ही स्वर को बार-बार गाने या उच्चारण करने को स्थायी वर्ण कहते हैं, जैसे — स स सस, रे रे, म म म इत्यादि।

2. आरोही वर्ण - स्वरों के चढ़ते हुए क्रम को आरोही वर्ण कहते हैं, जैसे - स रे ग म प ध नि। उदाहरणस्वरूप राग भैरव के स रे ग म प ध नि स्वरों के क्रमानुसार उच्चारण को आरोही वर्ण कहा जाएगा।

3. अवरोही वर्ण — स्वरों के उतरते हुए या अवरोहण करते हुए क्रम को अवरोही वर्ण कहते हैं, जैसे — सं नि ध प म ग रे स। उदाहरणस्वरूप राग यमन का अवरोही वर्ण होगा सं नि ध प म गरे स।

4. संचारी वर्ण — स्थायी, आरोही और अवरोही इन तीनों वर्णों के संयोग से जब स्वरों को उलट-पलट कर गाया जाता है तो इस क्रिया को संचारी वर्ण कहते हैं,
जैसे — स स रे ग म प ध प प ग रे स। राग भूपाली में संचारी वर्ण इस प्रकार से
होगा — स रे ग प ध ध सं ध प ग प ग ग रे स। विभिन्न रागों का गायन करते समय इन सभी वर्णों का प्रयोग किया जाता है। आलाप में स्वर विस्तार करते हुए विभिन्न वर्णों के प्रयोग से राग के स्वरूप को दर्शाया जाता है। तानों में स्वरों को द्रुत गति में गाकर राग को स्पष्ट किया जाता है, ये सभी संचारी वर्ण के उदाहरण हैं।

अलंकार

प्राचीन ग्रंथों में ‘अलंकार’ के लिए निम्नलिखित परिभाषा दी गई है-

अर्थात — विशेष वर्ण समुदायों को अलंकार कहते हैं। अलंकार का शाब्दिक अर्थ है ‘आभूषण’। अलंकारों द्वारा राग को विस्तार देकर सजाया व सँवारा जाता है। इन्हें ‘पलटा’ भी कहा जाता है, क्योंकि अलंकार में स्वरों को उलट-पलट कर गाया जाता है। उदाहरणस्वरूप सा रे ग म, रे ग म प…।

अलंकार शास्त्रीय संगीत शिक्षा का आधार है। गायन हो या वादन, विद्यार्थियों को प्रारंभ में अलंकारों का ही अभ्यास कराया जाता है। स्वर-ज्ञान और गले की तैयारी में अलंकार सहायक सिद्ध होते हैं। अलंकारों में वर्णों का ही प्रयोग होता है, लेकिन उनके आरोह-अवरोह में स्वर समुदायों के विशेष प्रकार के नियम का पालन किया जाता है। उदाहरणस्वरूप निम्नलिखित अलंकार को देखिए-

आरोह- स रे ग, रे ग म, ग म प, म प ध, प ध नि, ध नि सं

अवरोह- सं नि ध, नि ध प, ध प म, प म ग, म गरे, गरे स

इसी प्रकार बहुत से अलंकार तैयार किए जा सकते हैं। भिन्न-भिन्न रागों में उसमें लगने वाले स्वरों के अनुसार अलंकार बनाए जा सकते हैं। उदाहरणस्वरूप राग भैरव के स्वरों में अलंकार -

आरोह- स रे ग ग, रे ग म म, ग म प प, म प ध ध, प ध नि नि, ध नि सं सं अवरोह- सं नि ध ध, नि ध प प, ध प म म, प म ग ग, म ग रे रे, ग रे स स

शुद्ध स्वरों के अलंकार का एक और उदाहरण है-

आरोह - सरे ग सरे ग म, रे ग म रे ग म प, ग म प ग म प ध, म प ध म प ध नि, प ध नि प ध नि सं,

अवरोह — सं नि ध सं नि ध प, नि ध प नि ध प म, ध प म ध प म ग, प म ग प म गरे, म गरे म ग रे स,

अलंकारों का अभ्यास शास्त्रीय संगीत की नींव है। इनके नियमित अभ्यास द्वारा शास्त्रीय संगीत की साधना सरल बन जाती है। आप भी अलंकार बना सकते हैं।

निम्न अलंकार के आरोह में रिक्त स्थान भरिए- इस अलंकार का अवरोह स्वयं बनाइए
1. स रे स ग
2. रे ग रे म
3. ग _ _ _
4. _ _ _ _
5. प _ _ _
6. ध _ _ सं

आलाप

किसी भी राग की प्रस्तुति से पूर्व उस राग के स्वरूप का परिचय देने के लिए जो स्वर विस्तार किया जाता है, उसे आलाप कहते हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद तथा ख्याल गायन का विशिष्ट स्थान रहा है। इन दोनों गायन शैलियों के आरंभ में राग के स्वरूप को प्रतिष्ठित करने के लिए आलाप किया जाता है। आलाप में ताल तथा गीत के शब्दों की आवश्यकता नहीं होती है। आलाप में राग का संपूर्ण चलन दिखाई देता है। उदाहरणस्वरूप— राग बागेश्री का आलाप-

स - , नि ध,- ध नि स म - म ग रे स, ध नि स म – ग म ध म,- ग म ध नि ध म -, म प ध म ग, म ग रे सा।

ग म ध नि सं –, रें नि सं - , ध नि सं मं, गं रें सं - - नि सं नि ध,– म ध नि ध म, म प ध म ग, म गरे सा

संगीत रत्नाकर ग्रंथ में आलाप की व्याख्या निम्न प्रकार से दी गई है-

चित्र 3.1 - कर्नाटक शास्त्रीय गायन के सुप्रसिद्ध कलाकार- लालगुडी जयरामन

अर्थात राग के आलाप में ग्रह, अंश, न्यास, अपन्यास, तारस्थान, मंद्र स्थान, राग का अल्पत्व, बहुत्व और औडवत्व तथा षाड्वत्व इत्यादि सभी दृष्टिगोचर होने चाहिए। प्राचीन काल में उपरोक्त लक्षण उस समय में प्रचलित जातिगान के लक्षण माने जाते थे जिन्हें आगे चलकर राग के लक्षणों के रूप में स्वीकार किया गया। जातिगान से संबंधित ‘रागालाप’ में जिन लक्षणों का पालन किया गया, उसी आधार पर आगे चलकर ‘राग’ के आलाप में भी राग में समस्त लक्षणों का पालन करना अनिवार्य माना गया।

वर्तमान में आलाप के कई प्रकार प्रचलित हैं - नोम्-तोम् का आलाप तथा स्वर या आकार में आलाप। ध्रुपद-धमार गायन तथा सितार वादन में बंदिश की प्रस्तुति से पूर्व नोम्-तोम् का आलाप किया जाता है। इसमें त न न, नोम् दे रे ना, दीं, तोम् आदि शब्दों का प्रयोग कर राग का आलाप किया जाता है। जिसके साथ ताल की संगत नहीं की जाती परंतु बंदिश प्रारंभ करने के पश्चात जब बोल व लयकारी आदि से युक्त राग विस्तार किया जाता है उसमें आलाप को ताल का आश्रय प्राप्त होता है। इसी प्रकार ख्याल गायन या सितार वादन में भी बंदिश या गत प्रारंभ होने के पश्चात आलाप को ताल का आधार प्राप्त होता रहता है। इसीलिए प्राचीन काल में भी ‘अताल’ व ‘सताल’ के रूप में ताल को परिभाषित किया गया। ख्याल गायन शैली में स्वर, आकार तथा बोल आलाप का प्रयोग दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार सितार वादन में गत प्रारंभ करने से पहले ‘रा रा’, ‘दा दा’ इत्यादि बोलों का प्रयोग करके मींड व गमक युक्त जो राग का विस्तार किया जाता है, उसे आलाप कहते हैं।

आलाप गायन को चार भागों में बाँटा जाता है— स्थायी, अंतरा, संचारी व आभोग। ध्रुपद में इन चारों भागों का प्रयोग किया जाता है। ख्याल गायन में केवल स्थायी-अंतरा भागों में आलाप गायन किया जाता है। गायक-वादक कलाकार अपनी कल्पना द्वारा राग के स्वरों को संजोकर कलात्मक, भावपूर्ण व आकर्षक आलाप की प्रस्तुति दे सकते हैं।

तान

राग के स्वरों का जब द्रुत गति से विशेष क्रमानुसार विस्तार किया जाता है तो उसे तान कहते हैं। तान शब्द संस्कृत के ‘तन्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है- तानना या विस्तार करना। तान का मुख्य कार्य गायन में सौंदर्य और वैचित्य उत्पन्न करना है। तानों का प्रयोग अधिकतर ख्याल गायन शैली में किया जाता है। इसके अतिरिक्त टप्पा गायन शैली में भी तानों का प्रयोग किया जाता है। लय तान का आधार है। तानें सामान्यत: ठाह, दुगुन, चौगुन, अठगुन आदि लय में होती हैं। अत्यधिक तैयार तानों की प्रस्तुति से गायन में चमत्कार पैदा किया जा सकता है। वाद्यों में प्रयोग की जाने वाली तानों में जब मिजराब के बोलों की प्रबलता रहती है तो उन्हें तोड़ा कहा जाता है। राग के नियमों का पालन करते हुए तानों के प्रयोग द्वारा बंदिश का विस्तार किया जाता है और उसमें वैचित्य उत्पन्न किया जाता है। ये कहा जा सकता है कि तानें बंदिश को अलंकृत करने में सहायक सिद्ध होती हैं।

तानों के कई प्रकार प्रचलन में हैं जिनमें से प्रमुख हैं-

1. शुद्ध तान अथवा सपाट तान - जब हम राग के स्वरों को आरोह-अवरोह के क्रमानुसार तान के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो उसे शुद्ध तान या सपाट तान कहते हैं, जैसे राग भूपाली में-

सरे गप धसं रेंगं रेंसं धप गरे स

2. कूट तान - कूट तान में स्वरों का क्रम टेढ़ा-मेढ़ा होता है, जैसे राग केदार मेंस रे स स मम रे स म1प धनि सं रें सां नी संनि धप म1प धप मम रेस

3. मिश्र तान - शुद्ध तान और कूट तान के मिश्रण को मिश्र तान कहते हैं, जैसे राग वृन्दावनी सारंग में-

निस रेम पनि संनि पम प नि पम रे स

4. वक्र तान - वक्र का शाब्दिक अर्थ होता है ‘टेढ़ा’ अर्थात ऐसी तान जिसमें स्वरों का वक्र रूप से प्रयोग किया जाए उसे वक्र तान कहते हैं, जैसे राग गौड़ सारंग में-

नि स गरे म गपम1 धप निध संनि धप म1प म ग म गरे सा

5. बोल तान — गीत के बोलों को जब तान के स्वरों में पिरोकर प्रस्तुत किया जाता है तो उसे बोल तान कहते हैं। उदाहरणस्वरूप राग यमन के द्रुत ख्याल ‘ए री आली पिया बिन’ के कुछ शब्दों को तान में पिरोकर निम्न प्रकार से बोल तान बनाई जा सकती है।

नि रे ग रे ग म 1 ग म 1 प म 1 ग रे ग रे स

पि ऽ ऽ या ऽऽ बि ऽ ऽऽ नऽ ऽऽ ऽऽ

6. गमक की तान — जिन तानों में गमक का प्रयोग किया जाए अर्थात स्वरों को गमक द्वारा हिलाकर गाया जाए, उसे गमक की तान कहते हैं, जैसे -

सससस रेरेरे गगगग मममम

तानों का प्रयोग गाने में रंजकता को बढ़ाता है।

गमक

प्राचीन ग्रंथ संगीत रत्नाकर में गमक की परिभाषा इस प्रकार से दी गई है-

‘स्वरस्य कंपो गमक: श्रोतृचित्त सुखावह:’

अर्थात स्वरों का ऐसा कंपन जो सुनने वालों के चित्त को सुखदायी हो, वह ‘गमक’ कहलाता है। आधुनिक संगीतज्ञों के अनुसार जब हृदय से ज़ोर लगाकर गंभीरतापूर्वक कुछ कंपन के साथ स्वरों का प्रयोग किया जाता है तो उसे गमक कहते हैं। ध्रुपद-धमार गायन में

और नोम्-तोम् के आलाप गायन में गमक का भरपूर प्रयोग किया जाता है। कोई-कोई गायक कलाकार ख्याल गायन में भी गमक की तानें लेते हैं।

संगीत रत्नाकर में गमक के 15 प्रकार बताए गए हैं-

1. तिरिप — यह कंपन $1 / 8$ मात्रा काल का होता है और इसमें स्वरों को वेग से कंपित करते हैं,
जैसे— सा $ \quad $ ऽ $ \quad $ ऽ $ \quad $ ऽ $ \quad $ ऽ $ \quad $ ऽ $ \quad $ ऽ $ \quad $ ऽ

2. स्फुरित — गमक के इस प्रकार में कंपन का काल $1 / 6$ मात्रा का होता है। वर्तमान में इसे गिटकरी कहा जाता है, जैसे- रें सं

3. कंपित — यह कंपन $1 / 4$ मात्रा काल का होता है। इसे आजकल खटका कहते हैं, जैसेसरे सा

4. लीन - $1 / 2$ मात्रा काल के वेग से होने वाले कंपन को लीन कहते हैं। इसमें कोई स्वर $1 / 2$ मात्रा काल में अपने आगे अथवा पीछे के स्वर में लीन हो जाता है।

5. आंदोलित - गमक के इस प्रकार में कंपन 1 मात्रा काल के वेग से होता है, जैसेस - - - , रे - - - ग ग - - -

6. प्लावित — इस गमक प्रकार में स्वर को $3 / 4$ मात्रा काल में आंदोलित किया जाता है।

7. वली — वेग और वक्रत्व के साथ कंपन करने को वली कहते हैं। इसे आजकल मींड़ कहते है।
ध— स-

8. कुरूला— वली में ही स्वरों को घनता के साथ उच्चारित किया जाए तो वह कुरूला गमक कहलाएगा। इसे वर्तमान में घसीट कहते हैं।

9. मुद्रित — जब मुँह बंद करके गमक ली जाए तो वह मुद्रित कहलाती है।

10. गुम्फित - जब हृदय में हुंकार की ध्वनि से गमक उत्पन्न की जाती है तो उसे गुम्फित गमक कहते हैं।

11. त्रिभिन्न — जब तीन स्थानों को जल्दी से छूकर चौथे पर पहुँचा जाए तो उसे त्रिभिन्न गमक कहते हैं, जैसे—रें सं नि सं।

12. आहत — जब किसी स्वर से अगले स्वर को छूकर मूल स्वर पर लौट जाए तो उसे आहत गमक कहते हैं, जैसे— रे स स।

13. उल्लासित —- जब शीघ्रता से स्वरों को आरोह क्रम में गाया और बजाया जाता है तो उसे उल्लासित गमक कहते हैं।

14. नामित — जब स्वर मींड़ की भाँति चलकर अपने स्थान से नीचा हो जाए तो उसे नामित गमक कहते हैं, जैसे— गं रे। इसी तरह जब नामित की उल्टी गमक ली जाए, जैसे—रें गं तो उसे नामित गमक कहते हैं।

15. मिश्रित— उपरोक्त गमकों में से जब दो या अधिक गमकों का मिश्रित प्रयोग किया जाए तो उसे मिश्रित गमक कहते हैं।

यद्यपि वर्तमान समय में गमक का प्रयोग प्राचीन ढंग से नहीं किया जाता तथापि खटका, मुर्की, जमजमा, सूत, मींड़ आदि रूप में गमक का प्रयोग कंठ तथा वाद्य संगीत में किया जाता है।

कण

किसी स्वर को गाते समय जब हम किसी अन्य स्वर का स्पर्श उसमें करते हैं तो उस अन्य स्वर को स्पर्श स्वर अथवा कण कहते हैं। यह स्पर्श गाए जाने वाले स्वर के आगे या पीछे के किसी स्वर से किया जाता है, जैसे— धप यहाँ पंचम पर धैवत का कण है। कण स्वर को मूल स्वर की बायीं ओर ऊपर लिखा जाता है। इसी प्रकार ‘निसं’ यदि ऐसे लिखा हो तो यहाँ निषाद का स्पर्श करते हुए तार सप्तक के सं पर आना होगा। अतः इसे ‘सं’ पर निषाद का कण कहेंगे। राग यमन की निम्नलिखित बंदिश की स्थायी में आप अनेक कण स्वरों का प्रयोग देख सकते हैं।

राग यमन (ढ्रुत ख्याल)

(तीनताल)

स्थायी

निनि (प) - रे - रे - - म1 - म1
पिऽ या की रि जा दू री
म1प - धम1 - रे नि गम 1 रे रे निरे
मो लि यो प्रेऽ ऽऽ भऽ री
o 3 × 2

खटका

खटका एक प्रकार का अलंकरण है जिसका प्रयोग राग में सुंदरता बढ़ाने के लिए किया जाता है। रागदारी संगीत, उपशास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत आदि सभी में खटके का प्रयोग दिखाई देता है। राग के किसी स्वर पर ठहराव से पहले किसी दूसरे स्वर अथवा एक निश्चित स्वर समूह को छूकर वापस आने को खटका कहते हैं। इसमें मुख्य स्वर प्रमुख रहता है और बाकी आस-पास के स्वरों को गमक से छुआ जाता है। इसे लिखने के लिए स्वर को कोष्ठक में लिखा जाता है, जैसे- (प) इसे पधमप इस प्रकार झटके से गाया जाएगा। खटका व मुर्की समीपवर्ती प्रयोग है, अंतर केवल इतना है कि खटका में ध्वनि का प्रयोग कुछ झटके के साथ ज़ोरदार तरीके से किया जाता है जबकि मुर्की में ध्वनि का प्रयोग मृदुल व कोमल रहता है। यहाँ हम पंचम के आगे-पीछे के स्वरों को छू रहे हैं।, शुद्ध स्वरों में खटके का अभ्यास निम्नलिखित आधार पर किया जा सकता है, जैसे— स रेस, रे गरे, ग मग, म पम आदि।

राग भैरवी में खटके का प्रयोग देखें तो इस प्रकार नज़र आएगा। (ग) इसे ग म ग इस प्रकार गाया जाएगा। (नि) को नि सं नि इस प्रकार झटके से गाया जाएगा। खटके के अंतर्गत चार स्वरों की एक गोलाई बनाते हुए उसका द्रुत गति से प्रयोग करें तो वह खटका कहलाएगा, जैसेरेसनिस, सरेनिस इत्यादि। खटके के प्रयोग द्वारा गायक कलाकार अथवा वादक अपने संगीत को सजाता है।

मुर्की

हिंदी में ‘मुरक’ का अर्थ है— घूमना। उसी अर्थ को सम्मुख रखते हुए 3-4 समीपवर्ती स्वरों का चक्र बनाते हुए कोमलता से गाने या बजाने को ‘मुर्की’ कहा जाता है, जैसे— स रे नी स या प ध म प अथवा प म ध प मुर्की दर्शाने के लिए। जिस स्वर से मुर्की गाना होता है उसे कोष्ठक में लिखा जाता है, जैसे- (म) या (प)।

संगीत गायन तथा वादन में मुर्की एक अलंकरण है। इसमें तीन स्वरों के द्रुत प्रयोग द्वारा अर्धव्रती बनाते हैं, जैसे- रें नि सं अथवा धमप आदि। इसे लिखने के लिए मूल स्वर की बायों ओर ऊपर दो स्वर कण लगाया जाता है, उदाहरण के लिए, रे ग रे, निपध। सितार वादन में जब एक ही मिजजराब के ठोकर में बिना मींड के तीन खरे स्वर बजाए जाएँ तो इस क्रिया को मुर्की कहते हैं, जैसे— रें सं नि। इस क्रिया में रे पर मिज़राब से आघात देते समय तर्जनी ‘सा’ और मध्यमा ‘रे’ के परदे पर रहेगी।

मींड

किसी एक स्वर से दूसरे स्वर तक बीच के स्वर को छूते हुए जाने को मींड कहते हैं। इस क्रिया में छूने वाले स्वर का पृथक पता नहीं चलता। उदाहरणार्थ राग बिहाग में जब हम निषाद से पंचम तक मींड से जाते हैं तो बीच में धैवत को स्पर्श तो करते हैं किंतु वह अलग से सुनाई नहीं देता। मींड को दर्शाने के लिए स्वरों के ऊपर उल्टा चाँद लगा दिया जाता है, जैसे— नि प मींड, दो से पाँच स्वरों तक होती है। राग बिहाग में ग स के अंतर्गत तीन स्वरों की मींड है। इसमें ‘रे’ को स्पर्श करते हुए जाते हैं। राग केदार में स म (‘सा’ से ‘म’ की मींड) में चार स्वरों की मींड है। मींड में दो स्वर होते हैं- एक स्वर जिससे मींड प्रारंभ होती है और दूसरा स्वर जिस पर मींड समाप्त होती है। यदि आरंभिक स्वर नीचा है और आखिरी स्वर ऊँचा है तो उसे अनुलोम मींड कहते हैं, जैसे— - म ध, प सं आदि, अगर प्रारंभिक स्वर ऊँचा है और अंतिम स्वर नीचा है तो इसे विलोम मींड कहते हैं, जैसे— — ग, सं ध आदि। मींड का प्रयोग गायन शैलियों में खूबसूरती पैदा करता है। इनके प्रयोग से राग का सौंदर्य निखर जाता है।

कृन्तन

कृन्तन का प्रयोग मुख्यत: सितार में होता है। सितार में मिज़राब को एक ही आघात में दो, तीन अथवा चार स्वरों को बिना मींड के केवल उँगलियों की सहायता से निकालने की क्रिया को कृन्तन कहते हैं। किसी भी स्वर से उसके नीचे के स्वर पर मिज़राब से ‘बाज के तार’ पर आघात किया जाता है। एक ही आघात में जल्दी से आने को कृन्तन कहते हैं, जैसे- सनि या रेसनि, रेसनिस।

ज़मज़मा

दो स्वरों को एक-दूसरे के बाद शीप्रता से बजाने को जममजमा कहते हैं। इसका उपयोग ततवाद्य में अत्यधिक पाया जाता है। यह भी कहा जा सकता है कि मिज़राब के एक आघात द्वारा एक के बाद दूसरा स्वर शीघ्रता से बजाने को ज़मज़ा कहते हैं। उदाहरणस्वरूप सितार में ‘जमजजा’ दो उँगलियों की सहायता से निकलता है। पहली उँगली परदे पर स्थिर रहती है और दूसरी ऊँगली हरकत करती है जिससे ज़मज़मा पैदा होता है।

जैसे- $ \quad $ रे- $ \quad $ गरे $ \quad $ गरे $ \quad $ गरे

राऽ $ \quad $ ऽऽ $ \quad $ ऽऽ $ \quad $ ऽऽ

जमञजमा बजाने का नियम यह है कि बाएँ हाथ की तर्जनी को ‘सा’ के परदे पर और मध्यमा को ‘रे’ के परदे पर रखें और दाहिने हाथ की तर्जनी से दा या रा बजाते रहें और साथ ही साथ बाएँ हाथ की मध्यमा उँगली से ‘रे’ के परदे पर तार को दबाते हुए छोड़ दें। ऐसा करने से जो शब्द पैदा होता है, उसे ज़मज़मा कहते हैं।

घसीट

घसीट सितार पर बजाई जाती है। सितार के परदों पर दो, तीन अथवा चार स्वरों को एक साथ जल्दी से और कोमलता सहित घसीट कर बजाने को ‘घसीट’ कहते हैं। यदि प ध नि सं इन चारों स्वरों को घसीट में बजाना हो तो ‘पधनि’ इन तीन स्वरों को एक साथ जल्दी से कोमलता सहित घसीट में बजाकर ‘सं’ पर जाएँगे। इस प्रकार बजाने से केवल पंचम और तार षड्ज स्पष्ट सुनाई देंगे। बाकी स्वरों का केवल स्पर्श होगा।

सूत

किसी एक स्वर से दूसरे स्वर तक अटूट ध्वनि में जाने को मींड या सूत कहते हैं। यह क्रिया गायन में मींड और सितार, सरोद आदि वाद्यों में सूत कहलाती है। घसीट का दूसरा नाम सूत है। सूत का काम अधिकतर सारंगी, सरोद, वॉयलिन, दिलरूबा इत्यादि वाद्यों में अधिक होता है। सूत लगभग मींड के समान होता है। सूत का काम बिना परदे के वाद्य पर किया जाता है। यदि हम ‘ग म प नि’ इन चार स्वरों को सूत द्वारा दिखाना चाहते हैं तो ‘ग म प’ इन तीन स्वरों को कोमलता सहित घसीटते हुए ‘नि’ पर जाएँगे।

ग्राम

सात स्वरों की मूल व्यवस्था के लिए ‘ग्राम’ संज्ञा है। इसे पाश्चात्य भाषा में ‘स्केल’ कहा जाता है। ग्राम का सामान्य अर्थ है ‘गाँव’। जिस प्रकार मनुष्यों की एक बस्ती ग्राम कहलाती है, उसी प्रकार सात स्वरों के निवास स्थान को ‘ग्राम’ कहते हैं। पंडित अहोबल ने संगीत पारिजात में लिखा है-

उपरोक्त श्लोक के अनुसार ग्राम कुल तीन हैं-

  1. षड्ज ग्राम
  2. मध्यम ग्राम
  3. गंधार ग्राम

इन ग्रामों में स्थित 22 श्रुतियों पर स्वरों की स्थापना से सप्तक का जो स्वरूप बनता था उसे ही संगीत का मूल सप्तक (Scale) माना जाता था। संगीत पारिजात में कहा गया है-

इस नियम के अनुसार ग्राम में सात स्वरों के लिए निम्न श्रुतियाँ निर्धारित थीं। स, म, प इन स्वरों को $4-4$ श्रुतियाँ, रे और ध स्वरों को $3-3$ श्रुतियाँ और ग, नि इन स्वरों को 2-2 श्रुतियाँ प्रदान की गई हैं।

षड्ज्ज ग्राम — षड्ज ग्राम का प्रारंभ षड्ज स्वर से ही होता है। इसका प्रधान स्वर षड्ज होने के कारण इसे षड्ज ग्राम कहा गया। प्राचीन ग्रंथकारों द्वारा निर्धारित स्वर स्थान निम्न रूप में है—

मध्यम ग्राम — मध्यम ग्राम में ‘म’ स्वर प्रमुख होता था। इस ग्राम में स्वरों की स्थिति इस प्रकार होगी। मध्यम ग्राम में पंचम एक श्रुति कम हो जाती है।

गांधार ग्राम — गांधार ग्राम की स्वरावली निम्नानुसार है। इसका प्रारंभ गांधार स्वर से होता है।

उपरोक्त तीन प्रकार की स्वर व्यवस्था में से केवल षड्ज और मध्यम ग्राम ही मुख्यत: प्रचार में है। ईसवी की प्रारंभिक शताब्दियों में ही गंधार ग्राम अनुपयोगी माना जाने लगा था।

षड्ज्ज ग्राम की मूच्छनाएँ-

1. उत्तरमंद्रा $ \quad $ स रे ग म प ध नि $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ नि ध प म ग रे स $ \quad $ अवरोह

2. रंजनी $ \quad $ नि स रे ग म प ध $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ ध प म ग रे स नि $ \quad $ अवरोह

3. उत्तरायता $ \quad $ ध नि स रे ग म प $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ प म ग रे सनि ध $ \quad $ अवरोह

4. शुद्ध षड्जा $ \quad $ प ध नि स रे ग म $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ म ग रे स नि ध प $ \quad $ अवरोह

5. मत्सरीकृता $ \quad $ म प ध नि स रे ग $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ ग रे स नि ध प म $ \quad $ अवरोह

6. अश्वक्रांता $ \quad $ ग म प ध नि स रे $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ रे स नि ध प म ग $ \quad $ आरोह

7. अभिरूद्गता $ \quad $ रे ग म प ध नि स $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ स नि ध प म ग र $ \quad $ अवरोह

इसी प्रकार मध्यम ग्राम की भी

मध्यम ग्राम की मूच्छनाएँ-

1. सौवीरी $ \quad $ म प ध नि सं रें गं $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ गं रें सं नि ध प म $ \quad $ अवरोह

2. हरिणाश्वा $ \quad $ ग म प ध नि सं रें $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ रें सं नि ध प म ग $ \quad $ अवरोह

3. कलोपनता $ \quad $ रे ग म प ध नि सं $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ सं नि ध प म ग रे $ \quad $ अवरोह

4. शुद्धमध्या $ \quad $ स रे ग म प धनि $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ नि ध प म ग रे स $ \quad $ अवरोह

5. मार्गी $ \quad $ नि स रे ग म प ध $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ ध प म ग रे स नि $ \quad $ आरोह

6. पौरवी $ \quad $ ध नि स रे ग म प $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ प म ग रे स नि ध $ \quad $ अवरोह

7. हष्यका $ \quad $ प ध नि स रे ग म $ \quad $ आरोह
$ \qquad $ $ \qquad $ $ \quad $ म ग रे स नि ध प $ \quad $ अवरोह

वर्तमान युग में गायक-वादक मूर्च्छना का प्रयोग वैचित्र्य उत्पन्न करने के लिए करते हैं। मान लीजिए आप राग यमन गा रहे हैं। अब यदि थोड़ी देर के लिए ‘निषाद’ को आरंभिक स्वर मानकर अकार से नि स रे ग म1 प ध नि गाएँगे और निषाद पर ठहरते रहेंगे तो यहाँ से सारे स्वर भैरवी के हो जाएँगे। इस प्रकार यमन में भैरवी की छाया आ जाएगी। इसी प्रकार मूर्च्छना पद्धति का प्रयोग कर भिन्न-भिन्न रागों की छाया उत्पन्न की जा सकती है।

मूर्च्छना

ग्राम से मूर्च्छना की उत्पत्ति हुई है। संगीत रत्नाकर ग्रंथ में पंडित शार्ङ्गदेव ने मूर्च्छना की परिभाषा देते हुए लिखा है-

चित्र 3.2- हिंदुस्तानी शास्त्री संगीत के सुप्रसिद्ध गायक पंडित जसराजी

अर्थात सात स्वरों के क्रमानुसार आरोह तथा अवरोह करने को मूच्छ्छना कहते हैं। षड्ज ग्राम तथा मध्यम ग्राम दोनों की सात-सात मूर्च्छनाएँ मानी गई हैं।

मूर्च्छना शब्द की उत्पत्ति ‘मूच्छर ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है ‘फैलाना’। यदि हम क्रम युक्त, सात स्वर ‘स रे ग म प ध नि’ लें तो ये षड्ज ग्राम में ‘स’ स्वर की मूर्च्छनाएँ हुईं। अब यदि हम ‘नि’ को आरंभिक स्वर मानें तो ‘नि स रे ग म प ध’ ये षड्ज ग्राम में निषाद की मूर्च्छना हुई। प्राचीन काल में मूर्च्छना द्वारा राग का विस्तार या निर्माण किया जाता है। आधुनिक काल में थाटों से राग निर्मित होते हैं। अत: प्राचीन मूर्च्छना लगभग थाट अथवा मेल के समान थी।

अभ्यास

नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

1. वर्ण की परिभाषा देते हुए उसके प्रकारों का वर्णन कीजिए।

2. आलाप के विषय में आप क्या जानते हैं, विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।

3. संगीत में अलंकार का क्या महत्व है? सोदाहरण समझाइए।

4. तान किसे कहते हैं? तानों के प्रकार का वर्णन कीजिए।

5. संगीत में प्रयुक्त कण, खटका, मुर्की तथा मींड की परिभाषा दीजिए।

6. गमक तथा उसके प्रकारों का उल्लेख कीजिए।

7. कृन्तन, ज़मजजमा, घसीट और सूत पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

1. अलंकारों में ___________ समुदायों का ही प्रयोग होता है।

2. वाद्यों में प्रयोग की जाने वाली तानों को ________ कहा जाता है।

3. सितार में एक आघात द्वारा एक के बाद दूसरा स्वर शीघ्रता से बजाने को ________ कहते हैं।

4. किसी एक स्वर से दूसरे स्वर तक बीच के स्वर को छूते हुए जाने को ________ कहते हैं।

5. ________ का सामान्य अर्थ है ‘गाँव’।

6. षड्ज ग्राम तथा मध्यम ग्राम दोनों की सात-सात ________ मानी गई हैं।

सही या गलत बताइए-

1. राग के स्वरों को आरोह-अवरोह के क्रमानुसार तान के रूप में प्रस्तुत करने को वक्र तान कहते हैं। $ \qquad $ (सही/गलत)

2. एक ही स्वर को बार-बार गाने को स्थायी वर्ण कहते हैं। $ \qquad $ (सही/गलत)

3. ध्रुपद गायन में नोम्-तोम् का आलाप किया जाता है। $ \qquad $ (सही/गलत)

4. मींड को दर्शाने के लिए स्वरों को कोष्ठक में रखा जाता है। $ \qquad $ (सही/गलत)

5. स्फुरित गमक में कंपन का काल $1 / 6$ मात्रा का होता है। $ \qquad $ (सही/गलत)

6. तान केवल दुगुन की लय में होती हैं। $ \qquad $ (सही/गलत)

7. कृन्तन का प्रयोग गायन में किया जाता है। $ \qquad $ (सही/गलत)

8. सूत का काम अधिकतर सारंगी, सरोद, वॉयलिन इत्यादि वाद्यों में अधिक होता है। $ \qquad $ (सही/गलत)

1. आलाप (क) गमक
2. रंजनी (ख) स्पर्श
3. तिरिप (ग) ख्याल
4. कण (घ) बिना परदे का वाद्य
5. सूत (ङ) मूर्च्छना


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