अध्याय 03 जीवन की चुनौतियों का सामना

परिचय

राज अपनी अंतिम परीक्षा, जो कल सवेरे होने वाली है, के लिए अध्ययन कर रहा है। उसने रात में एक बजे तक पढ़ाई की फिर जब वह अपने ध्यान को एकाग्र करने में असमर्थ होने लगा तो उसने प्रातः छह बजे का अलार्म लगाया और सोने का प्रयास करने लगा। चूँकि वह बेहद तनावग्रस्त है अतः वह बिस्तर पर करवटें बदलता रह जाता है। उसके मन में इस प्रकार के विचार कौंधते हैं कि वह अपनी पसंद के विषय में उतने अंक पाने में असमर्थ हो गया है जितने कि उस विषय को आगे चुनने के लिए आवश्यक हैं। वह अपने आपको मित्रों के साथ मौज-मस्ती करने तथा परीक्षा के लिए पूरी तैयारी न करने के लिए दोषी ठहराता है। प्रातःकाल वह भारी सर लिए उठता है, नाश्ता भी नहीं कर पाता और किसी तरह परीक्षा के समय तक स्कूल पहुँचता है। वह प्रश्नपत्र को खोलता है तो उसका हृदय जोर से धड़क रहा होता है, हाथ पसीने से गीले होते हैं और उसे लगता है कि उसका मन पूर्णतया खाली हो गया है।

आपमें से कुछ लोगों ने राज के समान कभी-न-कभी अनुभव किया होगा। परीक्षा की चुनौती सभी विद्यार्थियों के लिए एक समान होती है। संभवतः आप अभी से ही अपनी जीवन-वृत्ति के संबंध में विचार कर रहे हों। यदि वह आपकी अपनी पसंद की न हो तो क्या होगा? क्या आप हार मान लेंगे? जीवन के हर मोड़ पर चुनौतियाँ होती हैं। उस बालक के बारे में सोचिए जिसके माता-पिता की मृत्यु बहुत कम उम्र में ही हो गई हो और उसका पालन-पोषण करने वाला कोई न हो; वह युवती जिसके पति की मृत्यु किसी कार दुर्घटना में हो गई हो; वे माता-पिता जो शारीरिक या मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करते हैं; वे लड़के-लड़कियाँ जो कॉल सेंटर में लंबो रात व्यतीत करने के बाद दिन में अपनी नींद पूरो करने का प्रयास करते हैं। अपने आस-पास दृष्टि डालिए तो आप पाएँगे की जीवन एक बड़ी चुनौती है। हम सब इन चुनौतियों से अपने-अपने तरीके से निपटते हैं। हममें से कुछ ऐसा करने में सफल होते हैं किंतु कुछ लोग उन दबावों के सामने परास्त हो जाते हैं। जीवन की चुनौतियाँ अनिवार्य रूप से दबाव उत्पन्न करने वाली नहीं होती हैं। बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि उस चुनौती का अवलोकन किस प्रकार किया जाता है। क्रिकेट की टीम में ग्यारहवें नंबर का बल्लेबाज़ एक तेज़ गेंदबाज की गेंद का मुकाबला करते हुए उसकी गेंद का अवलोकन, पारी की शुरुआत करने वाले बल्लेबाज से भिन्न तरह से करेगा जो कि इस तरह की चुनौती की उत्सुकता से प्रतीक्षा करेगा। यह कहावत है कि चुनौती के सामने ही किसी की सर्वोत्तम क्षमता का पता चलता है। इस अध्याय में हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि कैसे कोई जीवन दशा एक चुनौती अथवा दबाव का एक कारण बन जाती है। हम यह भी देखेंगे कि लोग जीवन की विभिन्न चुनौतियों एवं दबावपूर्ण परिस्थितियों के प्रति कैसी प्रतिक्रियाएँ करते हैं।

दबाव की प्रकृति, प्रकार एवं स्रोत

सोमवार की व्यस्त सुबह को जब आप सड़क पार करने के लिए प्रतीक्षा कर रहें हों तो कुछ देर के लिए आप दबाव का अनुभव कर सकते हैं। लेकिन चूँकि आप खतरे के प्रति सतर्क, सावधान तथा जागरूक होते हैं, इसलिए आप सड़क सुरक्षित पार कर लेते हैं। किसी चुनौती के सामने होने पर हम अधिक प्रयास करते हैं तथा चुनौती से निपटने के लिए अपने सारे संसाधनों और अवलंब व्यवस्था को भी संघटित कर देते हैं। सभी चुनौतियाँ, समस्याएँ तथा कठिन परिस्थितियाँ हमें दबाव (stress) में डालती हैं। अतः यदि दबाव का ठीक से प्रबंधन किया जाए तो वह व्यक्ति की अतिजीविता की संभावना में वृद्धि करता है। दबाव विद्युत की भाँति होते हैं। दबाव ऊर्जा प्रदान करते हैं, मानव भाव-प्रबोधन में वृद्धि करते हैं तथा निष्पादन को प्रभावित करते हैं। तथापि, यदि विद्युत धारा अत्यंत तीव्र हो तो वह बल्ब की बत्ती को गला सकती है, विद्युत उपकरणों को खराब कर सकती है इत्यादि। उच्च दबाव भी अप्रीतिकर प्रभाव उत्पन्न कर सकता है तथा हमारे खराब निष्पादन का कारण बन सकता है। इसके विपरीत, बहुत कम दबाव के कारण व्यक्ति उदासीन तथा निम्न स्तर की अभिप्रेरणा का अनुभव कर सकता है, जिसके कारण वह कम दक्षतापूर्वक तथा धीमी गति से कार्य निष्पादन कर पाता है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक दबाव खराब या विनाशकारी नहीं होता। दबाव के उस स्तर, जो आपके लिए लाभकर है तथा चोटी के निष्पादन स्तर की उपलब्धि एवं छोटे संकटों के प्रबंधन के लिए व्यक्ति के सर्वोत्तम गुणों में से एक है, को वर्णित करने के लिए ‘यूस्ट्रेस’ (eustress) पद का उपयोग किया जाता है। फिर भी, यूस्ट्रेस के व्यथा (distress) में परिवर्तित हो जाने की संभावना रहती है। दबाव की यह अवरोक्त या पिछली अभिव्यक्ति ही हमारे शरीर के जीर्ण होने का कारण होती है। अतः दबाव का वर्णन किसी जीव द्वारा उद्दीपक घटना के प्रति की जाने वाली अनुक्रियाओं के प्रतिरूप के रूप में किया जा सकता है जो उसकी साम्यावस्था में व्यवधान उत्पन्न करता है तथा उसके सामना करने की क्षमता से कहीं अधिक होता है।

दबाव की प्रकृति

दबाव के अंग्रेजी भाषा के शब्द स्ट्रेस (stress) की व्युत्पत्ति, लैटिन शब्द ‘स्ट्रिक्टस’ (strictus) जिसका अर्थ है तंग या संकीर्ण तथा ‘स्ट्रिन्गर’ (stringer) जो क्रियापद है, जिसका अर्थ है कसना, से हुई है। यह मूल शब्द अनेक व्यक्तियों द्वारा दबाव अवस्था में वर्णित मांसपेशियों तथा श्वसन की कसावट तथा संकुचन की आंतरिक भावनाओं को प्रतिबिंबित करता है। प्रायः दबाव को पर्यावरण की उन विशेषताओं के द्वारा भी समझाया जाता है जो व्यक्ति के लिए विघटनकारी होती हैं। दबावकारक (stressor) वे घटनाएँ हैं जो हमारे शरीर में दबाव उत्पन्न करती हैं। ये शोर, भीड़, खराब संबंध, या रोज़ स्कूल अथवा दफ्तर जाने की घटनाएँ हो सकती हैं। बाह्य प्रतिबलक के प्रति प्रतिक्रिया को तनाव (strain) कहते हैं (चित्र 3.1 देखें)।

चित्र 3.1 दबाव का मनोवैज्ञानिक अर्थ

दबाव कारण तथा प्रभाव दोनों से संबद्ध हो गया है तथापि दबाव का यह दृष्टिकोण भ्रांति उत्पन्न कर सकता है। हैंस सेल्ये (Hans Selye), जो आधुनिक दबाव शोध के जनक कहे जाते हैं, ने दबाव को इस प्रकार परिभाषित किया है कि यह “किसी भी माँग के प्रति शरीर की अविशिष्ट अनुक्रिया है”, अर्थात खतरे का कारण चाहे जो भी हो व्यक्ति प्रतिक्रियाओं के समान शरीरक्रियात्मक प्रतिरूप से अनुक्रिया करेगा। अनेक शोधकर्ता इस परिभाषा से सहमत नहीं हैं क्योंकि उनका अनुभव है कि दबाव के प्रति अनुक्रिया उतनी सामान्य तथा अविशिष्ट नहीं होती है जितना सेल्ये का मत है। भिन्न-भिन्न दबावकारक दबाव प्रतिक्रिया के भिन्न-भिन्न प्रतिरूप उत्पन्न कर सकते हैं एवं भिन्न व्यक्तियों की अनुक्रियाएँ विशिष्ट प्रकार की हो सकती हैं। आप खेल का प्रारंभ करने वाले आरंभिक बल्लेबाज का दृष्टांत याद कर सकते हैं, जिसका उल्लेख पहले हुआ था। हममें से प्रत्येक व्यक्ति परिस्थिति को अपनी दृष्टि से देखेगा और माँगों तथा उनका सामना करने की हमारी क्षमता का प्रत्यक्षण ही यह निर्धारित करेगा कि हम दबाव महसूस कर रहे हैं अथवा नहीं।

दबाव कोई ऐसा घटक नहीं है जो व्यक्ति के भीतर या पर्यावरण में पाया जाता है। इसके बजाय, यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया में सन्निहित है जिसके अंतर्गत व्यक्ति अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरणों में कार्य-संपादन करता है, इन संघर्षों का मूल्यांकन करता है तथा उनसे उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं का सामना करने का प्रयास करता है। दबाव एक गत्यात्मक मानसिक/संज्ञानात्मक अवस्था है। वह समस्थिति को विघटित करता है या एक ऐसा असंतुलन उत्पन्न करता है जिसके कारण उस असंतुलन के समाधान अथवा समस्थिति को पुनःस्थापित करने की आवश्यकता उत्पन्न होती है।

दबाव का प्रत्यक्षण व्यक्ति द्वारा घटनाओं के संज्ञानात्मक मूल्यांकन तथा उनसे निपटने के लिए उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर करता है। लेजारस (Lazarus) एवं उनके सहयोगियों द्वारा प्रतिपादित दबाव के संज्ञानात्मक सिद्धांत पर आधारित दबाव प्रक्रिया को चित्र 3.2 में प्रदर्शित किया गया है। दबावपूर्ण परिस्थिति के प्रति एक व्यक्ति की अनुक्रिया बहुत सीमा तक घटनाओं के प्रत्यक्षण तथा उनकी व्याख्या या मूल्यांकन पर निर्भर करती है। लेजारस ने दो प्रकार के मूल्यांकन में भेद किया है, जो हैं - प्राथमिक एवं द्वितीयक। प्राथमिक मूल्यांकन (primary appraisal) का संबंध एक नए या चुनौतीपूर्ण पर्यावरण का उसके सकारात्मक,तटस्थ अथवा नकारात्मक परिणामों के रूप में प्रत्यक्षण से है। नकारात्मक घटनाओं का मूल्यांकन उनके द्वारा संभावित नुकसान, खतरा या चुनौती के लिए किया जाता है। किसी घटना के द्वारा अब तक की जा चुकी क्षति का मूल्यांकन ही नुकसान है। भविष्य में उस घटना द्वारा संभावित क्षति का मूल्यांकन ही खतरा है। घटना के चुनौतीपूर्ण होने का मूल्यांकन उस दबावपूर्ण घटना का सामना करने की योग्यता की प्रत्याशा से संबद्ध है कि उस पर विजय पाना संभव है तथा उससे लाभ भी उठाया जा सकता है। जब हम किसी घटना का प्रत्यक्षण दबावपूर्ण घटना के रूप में करते हैं तो प्रायः हम उसका द्वितीयक मूल्यांकन (secondary appraisal) करते हैं, जो व्यक्ति की अपनी सामना करने की योग्यता तथा संसाधनों का मूल्यांकन होता है कि क्या वे उस घटना द्वारा उत्पन्न नुकसान, खतरे या चुनौती से निपटने के लिए पर्याप्त हैं। ये संसाधन मानसिक, शारीरिक, वैयक्तिक अथवा सामाजिक हो सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति समझता है कि संकट से निपटने के लिए उसको सकारात्मक अभिवृत्ति, स्वास्थ्य, कौशल तथा सामाजिक अवलंब

चित्र 3.2 दबावकारक की प्रक्रिया का एक सामान्य मॉडल

उपलब्ध है तो वह कम दबाव का अनुभव करेगा। मूल्यांकन का यह द्विस्तरीय प्रक्रम न केवल हमारी संज्ञानात्मक तथा व्यवहारात्मक अनुक्रियाएँ निर्धारित करता है बल्कि बाह्य घटनाओं के प्रति हमारी सांवेगिक एवं शरीरक्रियात्मक अनुक्रियाओं को भी निर्धारित करता है।

ये मूल्यांकन अत्यंत आत्मनिष्ठ होते हैं तथा अनेक कारकों पर निर्भर करते हैं। एक कारक, इस प्रकार की दबावपूर्ण परिस्थितियों से निपटने का पूर्व अनुभव (past experience) है। यदि कोई व्यक्ति इसके पूर्व समान परिस्थितियों से सफलतापूर्वक निपट चुका हो तो वह परिस्थितियाँ उसके लिए कम खतरनाक होंगी। एक अन्य कारक यह है कि क्या दबाव उत्पन्न करने वाली घटना नियंत्रणीय (controllable) है, अर्थात क्या परिस्थिति पर व्यक्ति का नियंत्रण है या प्रभुत्व है। एक व्यक्ति जो यह विश्वास करता है कि वह किसी नकारात्मक परिस्थिति के प्रारंभ होने या उसके प्रतिकूल परिणामों को नियंत्रित कर सकता है तो वह, उस व्यक्ति की अपेक्षा जिसे वैयक्तिक नियंत्रण का कोई बोध न हो, कम दबाव का अनुभव करेगा। उदाहरण के लिए, आत्म-विश्वास या सक्षमता की भावना यह निर्धारित कर सकती है कि व्यक्ति किसी परिस्थिति का मूल्यांकन एक खतरा या एक चुनौती के रूप में करेगा। इस प्रकार किसी दबावकारक के अनुभव तथा परिणाम एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न हो सकते हैं। दबाव का पद उन सभी पर्यावरणी तथा वैयक्तिक घटनाओं को समाहित करता है जो किसी व्यक्ति के कुशल-क्षेम या कल्याण के लिए चुनौती या खतरा होते हैं। ये दबावकारक बाह्य हो सकते हैं, जैसे - पर्यावरणी (शोर, वायु प्रदूषण), सामाजिक ( किसी मित्र से संबंध टूट जाना, अकेलापन) या मनोवैज्ञानिक (द्वंद्व, कुंठा) जो व्यक्ति के भीतर हो सकते हैं।

प्रायः इन दबावकारकों के परिणामस्वरूप अनेकानेक दबाव-प्रतिक्रियाएँ जो शरीरक्रियात्मक, व्यवहारात्मक, संवेगात्मक, तथा संज्ञानात्मक (चित्र 3.2 देखें) हो सकती हैं। शरीरक्रियात्मक स्तर पर दबाव संबंधी व्यवहारों में भाव-प्रबोधन एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हाइपोथैलेमस (hypothalamus) दो पथों के माध्यम से क्रिया प्रारंभ करता है। प्रथम पथ के अंतर्गत स्वायत्त तंत्रिका तंत्र सम्मिलित है। अधिवृक्क (एड्रीनल) ग्रंथि रुधिर में बड़ी मात्रा में कैटेकोलामाइन्स (एपिनेफरीन तथा नॉरएपिनेफरीन) छोड़ देती है। इसी के फलस्वरूप वह शरीरक्रियात्मक परिवर्तन होते हैं जो संघर्ष-या-पलायन जैसी अनुक्रिया में परिलक्षित होते हैं। द्वितीय पथ के अंतर्गत पीयूष या पिट्युइटरी ग्रंथि सम्मिलित है, जो कॉर्टिकोस्टीरायड (कॉर्टिसोल) का स्राव करती है तथा जो ऊर्जा प्रदान करती है। दबाव के प्रति जो संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ होती हैं उनमें नकारात्मक संवेग जैसे - भय, दुश्चिता, उलझन, क्रोध, अवसाद, या यहाँ तक कि नकार भी सम्मिलित होते हैं। व्यवहारात्मक अनुक्रियाएँ तो दबावपूर्ण घटना की प्रकृति के आधार पर लगभग असंख्य ही हैं। दबावकारक का मुकाबला (संघर्ष) या खतरनाक घटना से पीछे हट जाना (पलायन), व्यवहारात्मक अनुक्रियाओं की दो सामान्य श्रेणियाँ हैं। संज्ञानात्मक अनुक्रियाओं के अंतर्गत, कोई घटना कितना नुकसान पहुँचा सकती है या कितनी खतरनाक है तथा उसे कैसे नियंत्रित किया जा सकता है, इससे संबंधित विश्वास आते हैं। इनके अंतर्गत ऐसी अनुक्रियाएँ जैसे-ध्यान केंद्रित न कर पाना तथा अंतर्वेधी, पुनरावर्ती या दूषित विचार आते हैं।

जैसा कि चित्र 3.2 में दर्शाया गया है, व्यक्ति जिन दबावों का अनुभव करते हैं, वे तीव्रता (intensity) (कम बनाम अधिक तीव्र) , अवधि (duration) (अल्पकालिक बनाम दीर्घकालिक), जटिलता (complexity) (कम बनाम अधिक जटिल) तथा भविष्यकथनीयता (predictability) (अप्रत्याशित बनाम पूर्वानुमेय) में भी भिन्न हो सकते हैं। किसी दबाव का परिणाम इस पर भी निर्भर करता है कि उपरोक्त आयामों पर किसी विशिष्ट दबावपूर्ण अनुभव का स्थान क्या है। प्रायः वे दबाव, जो अधिक तीव्र, दीर्घकालिक या पुराने, जटिल तथा अप्रत्याशित होते हैं, वे अधिक नकारात्मक परिणाम उत्पन्न करते हैं, बजाय उनके जो कम तीव्र, अल्पकालिक, कम जटिल तथा प्रत्याशित होते हैं। किसी व्यक्ति द्वारा दबाव का अनुभव करना उसके शरीरक्रियात्मक बल पर भी निर्भर करता है। अतः, वे व्यक्ति जिनका शारीरिक स्वास्थ्य खराब है तथा दुर्बल शारीरिक गठन के हैं, उन व्यक्तियों की अपेक्षा, जो अच्छे स्वास्थ्य तथा बलिष्ठ शारीरिक गठन वाले हैं, दबाव के समक्ष अधिक असुरक्षित होंगे।

कुछ मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ, जैसे - मानसिक स्वास्थ्य, स्वभाव तथा स्व-संप्रत्यय भी दबाव के अनुभव के लिए प्रासंगिक हैं। वह सांस्कृतिक संदर्भ जिसमें हम जीवन-यापन करते हैं किसी भी घटना के अर्थ का निर्धारण करता है तथा यह भी निर्धारित करता है कि विभिन्न परिस्थितियों में किस प्रकार की अनुक्रियाएँ अपेक्षित होती हैं। अंततः, दबाव के अनुभव, किसी व्यक्ति के पास उपलब्ध संसाधन, जैसे - धन, सामाजिक कौशल, सामना करने की शैली, अवलंब का नेटवर्क इत्यादि, द्वारा निर्धारित होते हैं। ये सारे कारक निर्धारित करते हैं कि किसी विशिष्ट दबावपूर्ण परिस्थिति का मूल्यांकन कैसे होगा।

दबाव के संकेत और लक्षण

हर व्यक्ति की दबाव के प्रति अनुक्रिया उसके व्यक्तित्व पालन-पोषण तथा जीवन के अनुभवों के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है। प्रत्येक व्यक्ति के दबाव अनुक्रियाओं के अलग-अलग प्रतिरूप होते हैं। अतः चेतावनी देने वाले संकेत तथा उनकी तीव्रता भी भिन्न-भिन्न होती है। हममें से कुछ व्यक्ति अपनी दबाव अनुक्रियाओं को पहचानते हैं तथा अपने लक्षणों की गंभीरता तथा प्रकृति के आधार पर अथवा व्यवहार में परिवर्तन के आधार पर समस्या की गहनता का आकलन कर लेते हैं। दबाव के ये लक्षण शारीरिक, संवेगात्मक तथा व्यवहारात्मक होते हैं। कोई भी लक्षण दबाव की प्रबलता को ज्ञापित कर सकता है, जिसका यदि निराकरण न किया जाए तो उसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

क्रियाकलाप 3.1

दबाव के निम्नलिखित लक्षणों को पढ़िए -

ध्यान केंद्रित न कर पाना, स्मृति ह्रास, गलत निर्णयन, विसंगति, अनियमित उपस्थिति तथा समय पालन, आत्म-सम्मान में कमी, दुर्बल दीर्घकालिक योजना, अचानक व्यग्र ऊर्जा का फट पड़ना, आत्यंतिक भावदशा परिवर्तन, भावात्मक विस्फोट, आकुलता, दुश्चिता, भय, अवसाद, निद्रा में कठिनाई, खाने में कठिनाई, औषधियों का दुरुपयोग, शारीरिक रोग, जैसे - पेट खराब होना, सरदर्द, कमर दर्द, इत्यादि।

उन लक्षणों पर सही का निशान लगाइए जो आपके बारे में सत्य हैं, तत्पश्चात् दो या तीन विद्यार्थियों के समूह में उन पर विचार-विमर्श कीजिए। क्या आप इनमें से कुछ को घटा सकते हैं? परिचर्चा कीजिए कि आप यह कैसे कर सकते हैं? अपने अध्यापक से परामर्श कीजिए।

दबाव के प्रकार

चित्र 3.2 में तीन प्रमुख प्रकार के दबाव, अर्थात भौतिक एवं पर्यावरणी, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक बताए गए हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि दबाव के ये सभी प्रकार परस्पर संबद्ध हैं।

भौतिक एवं पर्यावरणी दबाव

भौतिक दबाव वे माँगें हैं, जिसके कारण हमारी शारीरिक दशा में परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है। हम तनाव का अनुभव करते हैं जब हम शारीरिक रूप से अधिक परिश्रम करते हैं, पौष्टिक भोजन की कमी हो जाती है, कोई चोट लग जाती है, या निद्रा की कमी हो जाती है। पर्यावरणी दबाव हमारे परिवेश की वैसी दशाएँ होती हैं जो प्रायः अपरिहार्य होती हैं, जैसे - वायु प्रदूषण, भीड़, शोर, ग्रीष्मकाल की गर्मी, शीतकाल की सर्दी, इत्यादि। एक अन्य प्रकार के पर्यावरणी दबाव प्राकृतिक विपदाएँ तथा विपाती घटनाएँ हैं, जैसे आग, भूकंप, बाढ़, इत्यादि।

मनोवैज्ञानिक दबाव

यह वे दबाव हैं जिन्हें हम अपने मन में उत्पन्न करते हैं। ये दबाव अनुभव करने वाले व्यक्ति के लिए विशिष्ट होते हैं तथा दबाव के आंतरिक स्रोत होते हैं। हम समस्याओं के बारे में परेशान होते हैं, दुश्चिता करते हैं या अवसादग्रस्त हो जाते हैं। ये सभी केवल दबाव के लक्षण ही नहीं हैं बल्कि यह हमारे लिए दबाव को बढ़ाते भी हैं। मनोवैज्ञानिक दबाव के कुछ प्रमुख स्रोत कुंठा, द्वृद्, आंतरिक एवं सामाजिक दबाव इत्यादि हैं।

जब कोई व्यक्ति या परिस्थिति हमारी आवश्यकताओं तथा अभिप्रेरकों को अवरुद्ध करती है, जो हमारे इष्ट लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा डालती है तो कुंठा (frustration) उत्पन्न होती है। कुंठा के अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे सामाजिक भेदभाव, अंतर्वैयक्तिक क्षति, स्कूल में कम अंक प्राप्त करना इत्यादि। दो या दो से अधिक असंगत आवश्यकताओं तथा अभिप्रेरकों में द्वांद्व (conflict) हो सकता है, जैसे क्या नृत्य का अध्ययन किया जाए या मनोविज्ञान का। आप अध्ययन को जारी भी रखना चाह सकते हैं या कोई नौकरी भी करना चाह सकते हैं। आपके मूल्यों में भी तब द्वंद्व हो सकता है जब आपके ऊपर किसी ऐसे कार्य को करने के लिए दबाव डाला जाए जो आपके अपने जीवन मूल्यों के विपरीत हो। आंतरिक दबाव (internal pressure) हमारे अपने उन विश्वासों के कारण उत्पन्न होते हैं जो हमारी ही कुछ प्रत्याशाओं पर आधारित होते हैं, जैसे कि ‘मुझे हर कार्य में सर्वोत्तम होना चाहिए’। इस प्रकार की प्रत्याशाएँ केवल निराश ही करती हैं। हममें से अनेक अपने लक्ष्य तथा अवास्तविक अत्यंत उच्च स्तर को प्राप्त करने के लिए निर्दयता से स्वयं को प्रेरित करते रहते हैं। सामाजिक दबाव (social pressure) उन व्यक्तियों द्वारा उत्पन्न किए जा सकते हैं जो हमारे ऊपर अत्यधिक माँगें थोप देते हैं। यह दबाव तब और भी बढ़ जाता है जब हमें इस तरह के लोगों के साथ काम करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं जिनके साथ हमें अंतर्वैयक्तिक कठिनाई होती है, एक प्रकार से ‘व्यक्तित्वों की टकराहट’।

सामाजिक दबाव

ये बाह्य जनित होते हैं तथा दूसरे लोगों के साथ हमारी अंतःक्रियाओं के कारण उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार की सामाजिक घटनाएँ, जैसे - परिवार में किसी की मृत्यु या बीमारी, तनावपूर्ण संबंध, पड़ोसियों से परेशानी, सामाजिक दबाव के कुछ उदाहरण हैं। यह सामाजिक दबाव व्यक्ति-व्यक्ति में बहुत भिन्न होते हैं। एक व्यक्ति जो अपने घर में शाम को शांतिपूर्वक बिताना चाहता है उसके लिए उत्सव या पार्टी में जाना दबावपूर्ण हो सकता है, जबकि किसी बहुत मिलनसार

बॉक्स 3.1

दबावपूर्ण जीवन घटनाओं की एक मापनी

दबाव के लिए जीवन घटनाओं की एक मापनी का निर्माण होल्म्स (Holmes) तथा राहे (Rahe) ने किया। उपरोक्त मापनी के आधार पर सिंह, कौर तथा कौर ने भारतीय जनसमुदाय के लिए दबावपूर्ण जीवन घटनाओं की एक मापनी विकसित की है जिसे संभावित दबावपूर्ण जीवन घटना मापनी (Presumptive Stressful Life Event Scale) कहते हैं। यह इक्यावन जीवन-परिवर्तनों की एक आत्म-निर्धारण प्रश्नावली है, जिनका किसी व्यक्ति ने अनुभव किया हो। इनमें से प्रत्येक जीवन घटना को उसकी गंभीरता के आधार पर एक संख्यात्मक मूल्य प्रदान किया जाता है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति के जीवनसाथी की मृत्यु को 95 , व्यक्तिगत बीमारी या चोट के लिए 56 , परीक्षा में असफलता के लिए 43 , किसी परीक्षा या साक्षात्कार में बैठने के लिए 43 , तथा सोने की आदत में परिवर्तन के लिए 33 , माध्य दबाव अंक के रूप में प्रदान किए जाते हैं। इसके अंतर्गत सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही प्रकार की घटनाओं को सम्मिलित किया जाता है, क्योंकि यह विश्वास है कि दोनों ही प्रकार के परिवर्तन दबाव उत्पन्न करते हैं। किसी उत्तरदाता ने जीवन के पिछले एक वर्ष के लिए परिवर्तन वाली घटनाओं या एकांशों पर निशान लगाया हो, तो उन सभी का भारित योगफल ही उसका दबाव अंक होगा। इस मापनी के कुछ प्रतिदर्श एकांश निम्नलिखित हैं -

जीवन घटनाएँ माध्य दबाव अंक
परिवार में किसी निकट संबंधी की मृत्यु 66
अप्रत्याशित दुर्र्टना या अभिघात 53
परिवार के किसी सदस्य की बीमारी 52
मित्र से संबंध टूटना 47
परीक्षा में बैठना 43
भोजन की आदतों में परिवर्तन 27

एक वर्ष के दौरान घटित होने वाली ऐसी दबावपूर्ण जीवन घटनाएँ जो प्रकट तौर पर किसी शारीरिक या मानसिक बीमारी के कारक न हों, उनका माध्यांक दो होता है। यद्यपि जीवन घटनाओं तथा किसी विशेष बीमारी के बीच निम्न स्तर का ही सहसंबंध पाया जाता है, जो कि जीवन घटनाओं तथा दबाव के बीच कमज़ोर साहचर्य को ही दर्शाता है। यह भी चर्चा का विषय रहा है कि क्या जीवन घटनाओं के कारण दबाव संबंधी बीमारी उत्पन्न होती हैं, या दबाव के कारण जीवन घटनाएँ तथा बीमारी उत्पन्न होती हैं। अधिकांश जीवन घटनाओं का प्रभाव एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न होता है। दबावपूर्ण जीवन घटनाओं तथा उसके पश्चात उत्पन्न होने वाली बिमारियों के बीच संबंध का मूल्यांकन करते समय इस प्रकार के कारकों का अध्ययन किया जाना चाहिए, जैसे - वह आयु जब दबावपूर्ण घटना का प्रथम अनुभव हुआ, उनके घटित होने की आवृत्ति, दबावपूर्ण घटना की अवधि तथा सामाजिक अवलंब।

व्यक्ति के लिए शाम को घर में बैठे रहना दबावपूर्ण हो सकता है।

दबाव के स्रोत

उन घटनाओं तथा दशाओं का प्रसार बहुत विस्तृत है जो दबाव को उत्पन्न करती हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण जीवन में घटने वाली ये प्रमुख दबावपूर्ण घटनाएँ हैं, जैसे - किसी प्रियजन की मृत्यु या व्यक्तिगत चोट, खीझ उत्पन्न करने वाली दैनिक जीवन की परेशानियाँ, जो बहुत आवृत्ति के साथ घटित होती हैं तथा अभिघातज घटनाएँ जो हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं।

जीवन घटनाएँ

जब से हम पैदा होते हैं, तभी से बड़े और छोटे, एकाएक उत्पन्न होने वाले और धीरे-धीरे घटित होने वाले परिवर्तन हमारे जीवन को प्रभावित करते रहते हैं। हम छोटे तथा दैनिक होने वाले परिवर्तनों का सामना करना तो सीख लेते हैं किंतु जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएँ दबावपूर्ण हो सकती हैं क्योंकि वे हमारी दिनचर्या को बाधित करती हैं और उथल-पुथल मचा देती हैं। यदि इस प्रकार की कई घटनाएँ चाहे वे योजनाबद्ध हों (जैसे - घर बदलकर नए घर में जाना), या पूर्वानुमानित न हों (जैसे - किसी दीर्घकालिक संबंध का टूट जाना) कम समय अवधि में घटित होती हैं, तो हमें उनका सामना करने में कठिनाई होती है तथा हम दबाव के लक्षणों के प्रति अधिक प्रवण होते हैं।

क्रियाकलाप 3.2

ऐसी दबावपूर्ण घटनाओं की पहचान कीजिए, जिनका आपने तथा आपके दो सहपाठियों ने पिछले एक वर्ष में अनुभव किया हो। दबावपूर्ण घटनाओं को सूचीबद्ध कीजिए तथा उन्हें 1 से 5 तक इस प्रकार कोटि-क्रम में रखिए जितना उन्होंने आपके जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाला हो। इसके पश्चात उन घटनाओं का चयन कीजिए जो आपमें तथा आपके दोनों सहपाठियों में एक समान हों। ज्ञात कीजिए कि आपको तथा आपके मित्रों को किस सीमा तक इसमें से प्रत्येक दबाव का सामना करने के लिए योग्यता, कौशल तथा पारिवारिक सहायता उपलब्ध है।

इन परिणामों पर अपने अध्यापक के साथ विचार-विमर्श कीजिए।

परेशान करने वाली घटनाएँ

इस प्रकार के दबावों की प्रकृति व्यक्तिगत होती है, जो अपने दैनिक जीवन में घटने वाली घटनाओं के कारण बनी रहती है। कोलाहलपूर्ण परिवेश, प्रतिदिन का आना-जाना, झगड़ालू पड़ोसी, बिजली-पानी की कमी, यातायात की भीड़-भाड़ इत्यादि ऐसी कष्टप्रद घटनाएँ हैं। एक गृहस्वामिनी को भी अनेक ऐसी आकस्मिक कष्टप्रद घटनाओं का अनुभव करना पड़ता है। कुछ व्यवसायों में ऐसी परेशान करने वाली घटनाओं का सामना बारंबार करना पड़ता है। कभी-कभी ऐसी परेशानियों का बहुत तबाहीपूर्ण परिणाम उस व्यक्ति के लिए होता है जो उन घटनाओं का सामना अकेले करता है क्योंकि बाहरी दूसरे व्यक्तियों को इन परेशानियों की जानकारी भी नहीं होती। जो व्यक्ति इन परेशानियों के कारण जितना ही अधिक दबाव अनुभव करता है उतना ही अधिक उसका मनोवैज्ञानिक कुशल-क्षेम निम्न स्तर का होता है।

अभिघातज घटनाएँ

इनके अंतर्गत विभिन्न प्रकार को गंभीर घटनाएँ, जैसे अग्निकांड, रेलगाड़ी या सड़क दुर्घटना, लूट, भूकंप, सुनामी इत्यादि सम्मिलित होती हैं। इस प्रकार की घटनाओं का प्रभाव कुछ समय बीत जाने के बाद दिखाई देता है तथा कभी-कभी ये प्रभाव दुर्शिचता, अतीतावलोकन, स्वप्न तथा अंतर्वेधी विचार इत्यादि के रूप में सतत रूप से बने रहते हैं। तीत्र अभिघातों के कारण संबंधों में भी तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। इनका सामना करने के लिए विशेषज्ञों की सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है, विशेष रूप से तब जब वे घटना के पश्चात महीनों तक सतत रूप से बने रहें।

मनोवैज्ञानिक प्रकार्य तथा स्वास्थ्य पर दबाव का प्रभाव

दबाव के प्रभाव क्या हैं? अनेक प्रभावों की प्रकृति शरीरक्रियात्मक होती है, किंतु व्यक्तियों के भीतर अन्य परिवर्तन भी होते हैं। दबावपूर्ण स्थिति के साथ चार प्रमुख दबाव के प्रभाव संबद्ध हैं, जैसे - संवेगात्मक (emotional), शरीरक्रियात्मक (physiological), संज्ञानात्मक (cognitive), तथा व्यवहारात्मक (behavioural)।

संवेगात्मक प्रभाव - वे व्यक्ति जो दबावग्रस्त होते हैं प्राय: आकस्मिक मनःस्थिति परिवर्तन का अनुभव करते हैं तथा सनकी की तरह व्यवहार करते हैं, जिसके कारण वे परिवार तथा मित्रों से विमुख हो जाते हैं। कुछ स्थितियों में इसके कारण एक दुश्चक्र प्रारंभ होता है जिससे विश्वास में कमी होती है तथा जिसके कारण फिर और भी गंभीर संवेगात्मक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, दुर्शिचता तथा अवसाद की भावनाएँ, शारीरिक तनाव में वृद्धि, मनोवैज्ञानिक तनाव में वृद्धि तथा आकस्मिक मनःस्थिति परिवर्तन। बॉक्स 3.2 में ‘परीक्षा दुश्शिता’ के गोचर का वर्णन किया गया है।

शरीरक्रियात्मक प्रभाव - जब शारीरिक या मनोवैज्ञानिक दबाव मनुष्य के शरीर पर क्रियाशील होते हैं तो शरीर में कुछ हार्मोन, जैसे - एड्रिनलीन तथा कॉर्टिसोल का स्राव बढ़ जाता है। ये हार्मोन हृदयगति, रक्तचाप स्तर, चयापचय तथा शारीरिक क्रिया में विशिष्ट परिवर्तन कर देते हैं। जब हम थोड़े समय के लिए दबावग्रस्त हों तो ये शारीरिक प्रतिक्रियाएँ कुशलतापूर्वक कार्य करने में सहायता करती हैं, किंतु दीर्घकालिक रूप से यह शरीर को अत्यधिक नुकसान पहुँचा सकती हैं। एपिनेफरीन तथा नॉरएपिनेफरीन छोड़ना, पाचक तंत्र की धीमी गति, फेफड़ों में वायुमार्ग का विस्तार, हृदयगति में वृद्धि तथा रक्त-वाहिकाओं का सिकुड़ना, इस प्रकार के शरीरक्रियात्मक प्रभावों के उदाहरण हैं।

संज्ञानात्मक प्रभाव - यदि दबाव के कारण दाब (प्रेशर) निरंतर रूप से बना रहता है तो व्यक्ति मानसिक अतिभार से ग्रस्त हो जाता है। उच्च दबाव के कारण उत्पन्न यह पीड़ा, व्यक्ति में ठोस निर्णय लेने की क्षमता को तेज़ी से घटा सकती है। घर में, जीविका में, अथवा कार्य स्थान में लिए गए गलत निर्णयों के द्वारा तर्क-वितर्क, असफलता, वित्तीय

बॉक्स 3.2

परीक्षा दुश्चिता

परीक्षा दुश्चिता काफ़ी प्रचलित गोचर है जिसके अंतर्गत परीक्षा के पूर्व, उसके दौरान तथा उसके पश्चात तनाव या आकुलता की भावनाएँ पाई जाती हैं। परीक्षा के समय के आस-पास अनेक व्यक्ति दुश्चिता का अनुभव करते हैं जो उन्हें कुछ सीमा तक सहायक भी प्रतीत हो सकती हैं, क्योंकि वह अभिप्रेरित भी कर सकती है तथा व्यक्ति को अपने निष्पादन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए दबाव बना सकती है। परीक्षा संबंधी अधीरता, आकुलता या असफलता का भय, अत्यंत प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के लिए भी काफ़ी सामान्य से हैं। किंतु कुछ विद्यार्थियों में औपचारिक परीक्षा का दबाव इतनी उच्च स्तर की दुश्चिता उत्पन्न कर देता है कि वे अपनी क्षमता के उस स्तर का प्रदर्शन नहों कर पाते जो कि उन्होंने कम दबावपूर्ण कक्षा स्थितियों में प्रदर्शित किया था। परीक्षा दुर्चिचता को ‘मूल्यांकन आशंका’ (evaluative apprehension) या ‘मूल्यांकन दबाव’ (evaluative stress) कहकर अभिलक्षित किया जाता है तथा उसका व्यवहारात्मक, संज्ञानात्मक एवं शरीरक्रियात्मक प्रभाव अन्य दबावकारकों द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले प्रभावों से भिन्न नहीं होता। अत्यधिक दबाव विद्यार्थी की तैयारी, एकाग्रता तथा निष्पादन में बाधा डालता है। परीक्षा संबंधी दबाव से ‘परीक्षण दुश्चिचता’ उत्पन्न होती है जिससे किसी भी जाँच या मूल्यांकन वाले परीक्षण में व्यक्ति के निष्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वे व्यक्ति जिनमें परीक्षण दुश्चिता प्रबल होती है वे मूल्यांकन की जाने वाली स्थितियों को अपने लिए व्यक्तिगत रूप से खतरा समझते हैं। परीक्षण की स्थिति में वे प्राय: तनावग्रस्त, आशंकित, अधीर तथा संवेगात्मक रूप से भाव-प्रबोधित रहते हैं। इसके अतिरिक्त, स्वकेंद्रित नकारात्मक संज्ञान जो वह अनुभव करते हैं, उसके कारण परीक्षा के समय उनकी एकाग्रता भंग हो जाती है। उच्च परीक्षण दुर्चिता वाले विद्यार्थी परीक्षा के दबाव के प्रति, तीव्र सांवेगिक प्रतिक्रिया, अपने बारे में नकारात्मक विचार, अपर्याप्तता, और असहायता की भावनाएँ तथा प्रतिष्ठा एवं सम्मान में ह्रास की अनुक्रिया करते हैं, जो उनके निष्पादन को प्रभावित करती हैं। सामान्यतः उच्च परीक्षण दुश्चिता वाले व्यक्ति किसी कार्य में मग्न होने के स्थान पर भीतर ही भीतर उलझ जाते हैं। अतः उन सूचनात्मक संकेतों की, जो उन्हें उपलब्ध होते हैं, या तो वह उपेक्षा करते हैं या उनका गलत अर्थ लगाते हैं अथवा अवधानिक अवरोध का अनुभव करते हैं। परीक्षा की तैयारी करते समय व्यक्ति को अध्ययन हेतु पर्याप्त समय देना चाहिए, अपनी क्षमताओं तथा कमज़ोरियों का मूल्यांकन करना चाहिए, कठिनाइयों पर अध्यापकों तथा सहपाठियों से चर्चा करनी चाहिए, पुनरावृत्ति समय-सारणी की योजना बनानी चाहिए, नोट्स को संक्षिप्त करना चाहिए, पुनरावृत्ति घंटों के बीच अंतराल रखना चाहिए तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि परीक्षा के दिन शांत रहने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

घाटा, यहाँ तक कि नौकरी की क्षति भी इसके परिणामस्वरूप हो सकती है। एकाग्रता में कमी तथा न्यूनीकृत अल्पकालिक स्मृति क्षमता भी दबाव के संज्ञानात्मक प्रभाव हो सकते हैं।

व्यवहारात्मक प्रभाव- दबाव का प्रभाव हमारे व्यवहार पर कम पौष्टिक भोजन करने, उत्तेजित करने वाले पदार्थों, जैसे कैफ़ीन का अधिक सेवन करने एवं सिगरेट, मद्य तथा अन्य औषधियों, जैसे - उपशामकों इत्यादि के अत्यधिक सेवन करने में परिलक्षित होता है। उपशामक औषधियाँ व्यसन बन सकती हैं तथा उनके अन्य प्रभाव भी हो सकते हैं जैसे एकाग्रता में कठिनाई, समन्वय में कमी तथा घूर्णि या चक्कर आ जाना। दबाव के कुछ ठेठ या प्ररूपी व्यवहारात्मक प्रभाव, निद्रा-प्रतिरूपों में व्याघात, अनुपस्थितता में वृद्धि, तथा कार्य निष्पादन में ह्रास हैं।

दबाव तथा स्वास्थ्य

आपने अवश्य प्रेक्षण किया होगा कि आपके अनेक मित्र (हो सकता है आप भी उसमें सम्मिलित हों!) परीक्षा-काल में बीमार पड़ जाते हैं। उन्हें पेट में खराबी, शरीर में दर्द, वमन, अतिसार और बुखार इत्यादि की पीड़ा झेलनी पड़ जाती है। आपने यह भी ध्यान दिया होगा कि वे व्यक्ति जो अपने निजी जीवन में अप्रसन्न या दुखी होते हैं, वे उन दूसरे व्यक्तियों की अपेक्षा जो खुश हैं तथा जीवन का आनंद लेते हैं, बारंबार बीमार पड़ते हैं। दीर्घकालिक दैनिक दबाव किसी व्यक्ति का ध्यान अपनी देखभाल करने से हटा सकता है। जब दबाव दीर्घकालिक हो तो वह व्यक्ति के शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है तथा मनोवैज्ञानिक प्रकार्यों को भी दुर्बल करता है। जब पर्यावरण की माँगों के कारण दबाव और बाध्यताएँ अति तीव्र हों तथा परिवार और मित्रों से सहायता कम हो तो व्यक्ति परिश्रांति और अभिवृत्तिक समस्याओं का अनुभव करता है। दीर्घकालिक थकावट, कमज़ोरी और ऊर्जा की कमी के संकेत शारीरिक परिश्रांति में प्रकट होते हैं। मानसिक परिश्रांति उत्तेजनशीलता, दुर्शिचता, असहायता तथा निराशा की भावनाओं के रूप में प्रकट होती है। शारीरिक, संवेगात्मक तथा मनोवैज्ञानिक परिश्रांति की इस अवस्था को बर्नआउट (burnout) कहते हैं।

अब ऐसे विश्वासप्रद साक्ष्य उपलब्ध हैं जो यह प्रदर्शित करते हैं कि दबाव के कारण प्रतिरक्षक तंत्र में परिवर्तन उत्पन्न हो सकते हैं तथा किसी के भी बीमार होने की संभावना बढ़ जाती है। हृदयवाहिका विकार, उच्च रक्तचाप तथा मनोदैहिक विकारों, जैसे - अल्सर, दमा, एलर्जी तथा सरदर्द के विकास में दबाव की लिप्तता बताई जाती है।

शोधकर्ताओं के आकलन के अनुसार समस्त शारीरिक बीमारियों में 50 से 70 प्रतिशत तक में दबाव की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अध्ययन यह भी प्रदर्शित करते हैं कि चिकित्सक से मिलने के लगभग साठ प्रतिशत मामले प्रमुखतः दबाव संबद्ध लक्षणों के कारण ही होते हैं।

सामान्य अनुकूलन संलक्षण

जब दबाव सतत रूप से दीर्घकाल तक बना रहता है तो शरीर में क्या घटित होता है? सेल्ये ने इस प्रश्न पर अध्ययन किया। अध्ययन के दौरान पशुओं को, विभिन्न दबावकारक जैसे उच्च तापमान, एक्स-रे तथा इंसुलिन की सुई लगाकर प्रयोगशाला में लंबे समय तक रखा गया। उन्होंने विभिन्न चोटों तथा बीमारियों से पीड़ित रोगियों का अस्पतालों में जाकर प्रेक्षण भी किया। सेल्ये ने सभी में समान प्रतिरूप वाली शारीरिक अनुक्रियाएँ पाईं। सेल्ये ने इस प्रतिरूप को सामान्य अनुकूलन संलक्षण (general adaptation syndrome) या जी.ए.एस. (GAS) का नाम दिया। उनके अनुसार, जी.ए. एस. के अंतर्गत तीन चरण होते हैं - सचेत प्रतिक्रिया (alarm reaction), प्रतिरोध (resistance) तथा परिश्रांति (exhaustion) ( देखें चित्र 3.3)।

1. सचेत प्रतिक्रिया चरण - किसी हानिकर उद्दीपक या दबावकारक की उपस्थिति के कारण एड्रीनल-पीयूषकोर्टेक्स तंत्र का सक्रियण हो जाता है। यह उन अंतः:्रावों को छोड़ने के लिए प्रेरित करता है जिससे दबाव अनुक्रिया होती है। अब व्यक्ति संघर्ष या पलायन के लिए तैयार हो जाता है।

चित्र 3.3 सामान्य अनुकूलन संलक्षण

2. प्रतिरोध चरण - यदि दबाव दीर्घकालिक होता है तो प्रतिरोध चरण प्रारंभ होता है। परानुकंपी तंत्रिका तंत्र, शरीर के संसाधनों का अधिक सावधानीपूर्ण उपयोग करने को उद्धत करता है। जीव खतरे का सामना करने के लिए मुकाबला करने का प्रयास करता है।

3. परिश्रांति चरण - एक ही दबावकारक अथवा अन्य दबावकारकों के समक्ष दीर्घकालिक उद्भाषण से शरीर के संसाधन निष्कासित हो जाते हैं, जिसके कारण परिश्रांति का तृतीय चरण आता है। सचेत प्रतिक्रिया तथा प्रतिरोध चरण में कार्यरत शरीरक्रियात्मक तंत्र अप्रभावी हो जाते हैं तथा दबाव-संबद्ध रोगों, जैसे - उच्च रक्तचाप की संभावना बढ़ जाती है।

सेल्ये के मॉडल की आलोचना इसलिए की गई है कि उसमें दबाव में मनोवैज्ञानिक कारकों की बहुत सीमित भूमिका बताई गई है। शोधकर्ताओं के अनुसार, घटनाओं का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन दबाव के निर्धारण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। व्यक्ति दबाव के प्रति क्या अनुक्रिया करेगा, यह बहुत सीमा तक उसके प्रत्यक्षण, व्यक्तित्व तथा जैविक संरचना से प्रभावित होता है।

दबाव तथा प्रतिरक्षक तंत्र

दबाव के कारण प्रतिरक्षक तंत्र की कार्यप्रणाली दुर्बल हो जाती है जिसके कारण बीमारी उत्पन्न हो सकती है। प्रतिरक्षक तंर्र शरीर के भीतर तथा बाहर से होने वाले हमलों से शरीर की रक्षा करता है। मनस्तंत्रिका प्रतिरक्षा विज्ञान (psychoneuroimmunology) मन, मस्तिष्क और प्रतिरक्षक तंत्र के बीच संबंधों पर ध्यान केंद्रित करता है। यह प्रतिरक्षक तंत्र पर दबाव के प्रभाव का अध्ययन करता है। प्रतिरक्षक तंत्र कैसे काम करता है? प्रतिरक्षक तंत्र में श्वेत रक्त कोशिकाएँ या श्वेताणु (leucocyte) बाह्य तत्वों (एंटीजेन), जैसे वाइरस, को पहचान कर नष्ट करता है। इनके द्वारा रोगप्रतिकारकों (antibodies) का निर्माण भी होता है। प्रतिरक्षक तंत्र में ही टी-कोशिकाएँ, बी-कोशिकाएँ तथा प्राकृतिक रूप से नष्ट करने वाली कोशिकाओं सहित कई प्रकार के श्वेताणु होते हैं। टी-कोशिकाएँ हमला करने वालों को नष्ट करती हैं तथा टी-सहायक कोशिकाएँ प्रतिरक्षात्मक क्रियाओं में वृद्धि करती हैं। इन्हीं टी-सहायक कोशिकाओं पर ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएंसी वाइरस (एच.आई.वी.) हमला करते हैं, जो कि एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिन्ड्रोम (एड्स) के कारक हैं। बी-कोशिकाएँ रोगप्रतिकारकों का निमार्ण करती हैं। प्राकृतिक रूप से नष्ट करने वाली कोशिकाएँ, वाइरस तथा अर्बुद या टयूमर दोनों के विरुद्ध लड़ाई करती हैं।

दबाव के कारण प्राकृतिक रूप से नष्ट करने वाली कोशिकाओं की कोशिका-विषाक्तता प्रभावित हो सकती है, जो प्रमुख संक्रमणों तथा कैंसर से रक्षा में अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। अत्यधिक उच्च दबाव से ग्रस्त व्यक्तियों में, प्राकृतिक रूप से नष्ट करने वाली कोशिकाओं की कोशिका-विषाक्तता में भारी कमी पाई गई है। यह उन विद्यार्थियों जो महत्वपूर्ण परीक्षाओं में बैठने जा रहे हैं, शोकसंतप्त व्यक्तियों तथा जो गंभीर रूप से अवसादग्रस्त हैं, में भी पाई गई है। अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि प्रतिरक्षक तंत्र की क्रियाशीलता उन व्यक्तियों में बेहतर पाई जाती है जिन्हें सामाजिक अवलंब उपलब्ध रहता है। इसके अतिरिक्त प्रतिरक्षक तंत्र में परिवर्तन उन व्यक्तियों के स्वास्थ्य को अधिक प्रभावित करता है जिनका प्रतिरक्षक तंत्र पहले से

चित्र 3.4 दबाव का बीमारी से संबंध

ही दुर्बल हो चुका है। नकारात्मक संवेगों सहित, दबाव हार्मोन का स्राव होना जिनके द्वारा प्रतिरक्षक तंत्र दुर्बल होता है, जिसके परिणामस्वरूप मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित होते हैं, इसका संपूर्ण अनुक्रम चित्र 3.4 में दर्शाया गया है।

मनोवैज्ञानिक दबाव के साथ नकारात्मक संवेग तथा संबद्ध व्यवहार, जैसे - अवसाद, शत्रुता, क्रोध तथा आक्रामकता भी अनुषंगी होते हैं। स्वास्थ्य पर दबाव के प्रभाव का अध्ययन करते समय नकारात्मक सांवेगिक स्थितियाँ विशेष सरोकार रखती हैं। दीर्घकालिक दबाव में वृद्धि होते रहने से मनोवैज्ञानिक विकारों, जैसे - आतंक (पैनिक) दौरे तथा मनोग्रस्त व्यवहार बढ़ जाते हैं। आकुलता से परेशानी इस सीमा तक बढ़ सकती है जो दिल के दौरे तक का भ्रम उत्पन्न कर सकती है। दीर्घकालिक दबाव के दाब में व्यक्ति, अविवेकी भय, मनःस्थिति में आकस्मिक परिवर्तन एवं दुर्भीति के प्रति अधिक प्रवण होते हैं तथा वे अवसाद, क्रोध तथा उत्तेजनशीलता के दौरे का अनुभव कर सकते हैं। यह नकारात्मक संवेग, प्रतिरक्षक तंत्र के प्रकार्यों से संबद्ध प्रतीत होता है। अपने संसार की व्याख्या करने की योग्यता तथा उस व्याख्या को अपने वैयक्तिक अर्थ तथा संवेगों से जोड़ने का हमारे शरीर पर प्रत्यक्ष एवं प्रबल प्रभाव पड़ता है। नकारात्मक मनःस्थिति दुर्वल स्वास्थ्य परिणामों से संबद्ध पाई गई है। निराशा की भावनाओं का संबंध रोगों के और बिगड़ने से, चोट के जोखिम में वृद्धि तथा विभिन्न कारणों से मृत्यु से संबद्ध होता है।

जीवन शैली

दबाव के कारण अस्वास्थ्यकर जीवन शैली या स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाने वाले व्यवहार उत्पन्न हो सकते हैं। व्यक्ति के निर्णयों तथा व्यवहारों का वह समग्र प्रतिरूप जीवन शैली कहलाता है जो व्यक्ति के स्वास्थ्य तथा जीवन की गुणवत्ता को निर्धारित करता है। दबाव से ग्रस्त व्यक्ति रोगजनकों (pathogens), जो कि शारीरिक रोग उत्पन्न करने के अभिकर्ता होते हैं, के समक्ष अधिक अरक्षित रहते हैं। दबाव से ग्रस्त व्यक्तियों की पौष्टिक भोजन की आदत कम होती है, वे सोते भी कम हैं, तथा वे स्वास्थ्य के लिए जोखिम वाले व्यवहार, जैसे - धूम्रपान तथा मद्य दुरुपयोग भी अधिक करते हैं। स्वास्थ्य को क्षति पहुँचाने वाले ये व्यवहार धीरे-धीरे विकसित होते हैं तथा अस्थायी रूप से आनंददायक अनुभवों से संबद्ध होते हैं। अपितु, हम उनके दीर्घकालिक नुकसानों की अनदेखी करते हैं तथा उनके कारण हमारे जीवन में उत्पन्न होने वाले जोखिम को कम महत्त्व देते हैं।

अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि स्वास्थ्यवर्धक व्यवहार जैसे - संतुलित आहार, नियमित व्यायाम, पारिवारिक अवलंब आदि अच्छे स्वास्थ्य में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जीवन शैली से जुड़ाव जिसमें सम्मिलित हैं, संतुलित निम्न वसायुक्त आहार, नियमित व्यायाम और सकारात्मक चिंतन के साथ सतत क्रियाकलाप दीर्घ आयु और अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ाते हैं। आधुनिक जीवन शैली में खाने, पीने और तथाकथित तेज़ रफ्तार वाले अच्छे जीवन की अधिकता ने हममें से कुछ में स्वास्थ्य के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन किया है कि हम क्या खाते हैं, क्या सोचते हैं और अपने जीवन के साथ क्या करते हैं।

दबाव का सामना करना

पिछले वर्षों में यह धारणा प्रबल हुई है कि हम दबाव का सामना कैसे करते हैं वही हमारे मनोवैज्ञानिक कुशल-क्षेम को, हमारे सामाजिक प्रकार्यों को तथा हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, न कि दबाव का अनुभव। सामना करना (coping) दबाव के प्रति एक गत्यात्मक स्थिति-विशिष्ट प्रतिक्रिया है। यह दबावपूर्ण स्थितियों या घटनाओं के प्रति कुछ निश्चित मूर्त अनुक्रियाओं का समुच्चय होता है, जिनका उद्देश्य समस्या का समाधान करना तथा दबाव को कम करना होता है। हम जिस प्रकार दबाव का सामना करते हैं वह प्रायः हमारे स्थायी, गहरी जड़ों पर आधारित विश्वासों पर निर्भर करता है जो हमारे अनुभव पर आधारित हैं, जैसे यदि हम किसी यातायात जाम में फँस जाते हैं तो क्रोधित होते हैं क्योंकि हम विश्वास करते हैं कि यातायात को शीघ्रता से चलते रहना ही ‘चाहिए।। दबाव का प्रबंधन करने के लिए हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम अपने सोचने के तरीके का पुनः मूल्यांकन करें तथा दबाव का सामना करने की युक्तियों या कौशलों को सीखें। जिन व्यक्तियों की दबाव का सामना करने की क्षमता कमज़ोर होती है उनकी प्रतिरक्षक अनुक्रियाएँ भी दुर्बल होती हैं तथा प्राकृतिक रूप से नष्ट करने वाली कोशिकाओं की सक्रियता भी उनमें कम होती है।

व्यक्ति दबावपूर्ण स्थितियों का सामना करने की युक्तियों के उपयोग में व्यक्तिगत भिन्नताएँ प्रदर्शित करते हैं जिनमें लंबे समय तक संगति पाई जाती है। इनके अंतर्गत प्रकट तथा अप्रकट दोनों प्रकार की क्रियाएँ सम्मिलित हैं। एंडलर (Endler) तथा पार्कर (Parker) द्वारा वर्णित दबाव का सामना करने की तीन युक्तियाँ या कौशल निम्नलिखित हैं -

कृत्य-अभिविन्यस्त युक्ति - दबावपूर्ण स्थिति के संबंध में सूचनाएँ एकत्रित करना, उनके प्रति क्या-क्या वैकल्पिक क्रियाएँ हो सकती हैं तथा उनके संभावित परिणाम क्या हो सकते हैं - यह सब इनके अंतर्गत आते हैं। इसके अंतर्गत प्राथमिकताओं तथा क्रियाओं के संबंध में निर्णय करना भी सम्मिलित होता है ताकि दबावपूर्ण स्थिति का प्रत्यक्ष रूप से सामना किया जा सके। उदाहरण के लिए, मैं अपने लिए बेहतर समय सारणी बनाऊँ या विचार करूँ कि इसके समान समस्याओं का समाधान मैंने कैसे किया था।

संवेग-अभिविन्यस्त युक्ति - इसके अंतर्गत मन में आशा बनाए रखने के प्रयास तथा अपने संवेगों पर नियंत्रण सम्मिलित हो सकते हैं; कुंठा तथा क्रोध की भावनाओं को अभिव्यक्त करना या फिर यह निर्णय करना कि परिस्थिति को बदलने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है, भी इसके अंर्गत सम्मिलित हो सकते हैं, उदाहरण के लिए, मैं अपने मन को समझाऊँ कि यह सब कुछ मेरे साथ घटित नहीं हो रहा है, या फिर मैं यही चिता करूँ कि मुझे क्या करना है।

क्रियाकलाप 3.3

निम्नलिखित एकांशों का 5 अंकीय मापनी के आधार पर उत्तर दें, जिसमें 5=सदा, 1= कभी नहीं का द्योतक है।

मैं अपने संवेगों को खुले और प्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त करता हूँ।

मैं अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों की दिशा में काम करता हूँ।

मैं ऐसी परिस्थितियों को स्वीकार करता हूँ जिन्हें परिवर्तित नहीं किया जा सकता। मैं अपनी परेशानियों की चर्चा अपने मित्रों से करता हूँ।

मैं शायद सब कुछ सही तरीके से प्राप्त नहीं कर सकता।

अपने उत्तरों को लेकर अपने सहपाठियों एवं शिक्षक से परिचर्चा करें। प्राप्तांक जितना अधिक होगा, दबाव का सामना करने की आपकी योग्यता उतनी ही अधिक होगी।

परिहार-अभिविन्यस्त युक्ति - इसके अंतर्गत स्थिति की गंभीरता को नकारना या कम समझना सम्मिलित होते हैं; इसमें दबावपूर्ण विचारों का सचेतन दमन तथा उनके स्थान पर आत्म-रक्षित विचारों का प्रतिस्थापन भी सम्मिलित होता है।

लेज़ारस (Lazarus) तथा फोकमैन (Folkman) ने दबाव का सामना करने का संकल्पना-निर्धारण एक गत्यात्मक प्रक्रिया के रूप में संकल्पित किया है, न कि किसी व्यक्तिगत विशेषक के रूप में। किसी दबावपूर्ण कार्य के संपादन में जो आंतरिक या बाह्य माँगें होती हैं, उन पर विजय पाने के लिए, उन्हें कम करने के लिए अथवा सहन करने के लिए निरंतर परिवर्तित होते रहने वाले संज्ञानात्मक तथा व्यवहारात्मक प्रयासों से ही दबाव का सामना करना संदर्भित होता है। दबाव का सामना करने से किसी समस्या का प्रबंध या परिवर्तन करने तथा उसके प्रति संवेगात्मक अनुक्रियाओं का नियमन करने की व्यक्ति को छूट मिलती है। उनके अनुसार, सामना करने की ये अनुक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं, समस्या-केंद्रित (problem-focused) तथा संवेग-केंद्रित (emotionfocused)। समस्या-केंद्रित युक्तियाँ समस्या पर ही हमला करती हैं, ऐसा वे उन व्यवहारों द्वारा करती हैं जो सूचनाएँ एकत्रित करने, घटनाओं को परिवर्तित करने, तथा विश्वास और प्रतिबद्धता को परिवर्तित करने के लिए होते हैं। वे व्यक्ति की जागरूकता में वृद्धि करती हैं, ज्ञान के स्तर को बढ़ाती हैं, तथा दबाव का सामना करने के संज्ञानात्मक एवं व्यवहारात्मक विकल्पों में वृद्धि करती हैं। घटना से उत्पन्न खतरे की अनुभूति को भी घटाने का कार्य वे करती हैं। उदाहरण के लिए, “मैंने कार्य करने के लिए एक योजना का निर्माण किया तथा उसका क्रियान्वयन किया”। संवेग-केंद्रित युक्तियाँ प्रमुखतया मनोवैज्ञानिक परिवर्तन लाने हेतु उपयोग की जाती हैं जिससे घटना में परिवर्तन लाने का अल्पतम प्रयास करते हुए उसके कारण उत्पन्न होने वाले संवेगात्मक विघटन के प्रभावों को सीमित किया जा सके। उदाहरण के लिए, “मैंने कुछ कार्य इसलिए किए कि मेरे भीतर से वह निकल जाए”। यद्यपि जब व्यक्ति के समक्ष दबावपूर्ण स्थिति उत्पन्न होती है तो समस्या-केंद्रित तथा संवेग-केंद्रित दोनों ही सामना करने की युक्तियों का उपयोग आवश्यक होता है मगर शोध प्रदर्शित करते हैं कि व्यक्ति प्रथम प्रकार की युक्तियों का अपेक्षाकृत अधिक बार उपयोग करते हैं।

दबाव प्रबंधन तकनीकें

दबाव एक मूक हत्यारे के समान है। यह अनुमानित है कि वह शारीरिक रोग और अस्वस्थता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, अल्सर, मधुमेह और यहाँ तक कि कैंसर भी कड़े दबाव से संबद्ध होते हैं। जीवन शैली में परिवर्तनों के कारण दबाव में निरंतर वृद्धि हो रही है। अतः विद्यालय, दूसरी संस्थाएँ, दफ्तर एवं समुदाय उन तकनीकों को जानने के लिए उत्सुक हैं जिनके द्वारा दबाव का प्रबंधन किया जा सके। इनमें से कुछ तकनीकें निम्नलिखित हैं -

विश्रांति की तकनीकें - यह वे सक्रिय कौशल हैं जिनके द्वारा दबाव के लक्षणों तथा बीमारियों, जैसे - उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोग, के प्रभावों में कमी की जा सकती है। प्राय: विश्रांति शरीर के निचले भाग से प्रारंभ होती है तथा मुख पेशियों तक इस प्रकार लाई जाती है जिससे संपूर्ण शरीर विश्राम अवस्था में आ जाए। मन को शांत तथा शरीर को विश्राम अवस्था में लाने के लिए गहन श्वसन के साथ पेशी-शिथिलन का उपयोग किया जाता है।

क्रियाकलाप 3.4

निम्नलिखित में से सामना करने संबंधित कौन-सा व्यवहार समस्या-केंद्रित है? क्यों?

  • अपने मित्र के साथ अपनी समस्या की चर्चा करना।
  • परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर दुखी महसूस करना।
  • परीक्षा में कम अंक प्राप्त करने पर सहपाठियों को दोषी ठहराना।
  • माता> -पिता से परीक्षा का परिणाम छिपाना।
  • बुरी आदतों के लिए मित्रों को दोषी ठहराना।
  • वार्षिक परीक्षा के लिए आवश्यक पुस्तकों का अध्ययन करना।
  • किसी बड़े आघात के बाद अपने प्रदर्शन में सुधार के लिए प्रयास करना।
  • दिए गए कार्य को पूरा न करने पर स्कूल न जाना।

अपने उत्तरों को लेकर सहपाठियों एवं शिक्षक से परिचर्चा करें।

ध्यान प्रक्रियाएँ - योग विधि में ध्यान लगाने की प्रक्रिया में कुछ अधिगत प्रविधियाँ एक निश्चित अनुक्रम में उपयोग में लाई जाती हैं जिससे ध्यान को पुन: केंद्रित कर चेतना की परिवर्तित स्थिति उत्पन्न की जा सके। इसमें एकाग्रता को इतना पूर्णरूप से केंद्रित किया जाता है कि ध्यानस्थ व्यक्ति किसी बाह्य उद्वीपन के प्रति अवभिज्ञ हो जाता है तथा वह चेतना की एक भिन्न स्थिति में पहुँच जाता है।

जैवप्रतिप्राप्ति या बायोफीडबैक - यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा दबाव के शरीरक्रियात्मक पक्षों का परिवीक्षण कर उन्हें कम करने के लिए फीडबैक दिया जाता है कि व्यक्ति में वर्तमानकालिक शरररक्रियाएँ क्या हो रही हैं। प्राय: इसके साथ विश्रांति प्रशिक्षण का भी उपयोग किया जाता है। जैवप्रतिप्राप्ति प्रशिक्षण में तीन अवस्थाएँ होती हैं - किसी विशिष्ट शरररक्रियात्मक अनुक्रिया जैसे - हृदय गति के प्रति जागरूकता विकसित करना, उस शरीरक्रियात्मक अनुक्रिया को शांत व्यवस्था में नियंत्रित करने के उपाय सीखना तथा उस नियंत्रण को सामान्य दैनिक जीवन में अंतरित करना।

सर्जनात्मक मानस-प्रत्यक्षीकरण - दबाव से निपटने के लिए यह एक प्रभावी तकनीक है। सर्जनात्मक मानसप्रत्यक्षीकरण एक आत्मनिष्ठ अनुभव है जिसमें प्रतिमा तथा कल्पना का उपयोग किया जाता है। मानस-प्रत्यक्षीकरण के पूर्व व्यक्ति को वास्तविकता के अनुकूल एक लक्ष्य निर्धारित कर लेना चाहिए, यह आत्म-विश्वास के निर्माण में सहायक होता है। यदि व्यक्ति का मन शांत हो, शरीर विश्राम अवस्था में हो तथा आँखें बंद हों तो मानस-प्रत्यक्षीकरण सरल होता है। ऐसा करने से अवांछित विचारों के हस्तक्षेप में कमी आती है तथा व्यक्ति को वह सर्जनात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है जिससे कि काल्पनिक दृश्य को वास्तविकता में परिवर्तित किया जा सके।

संज्ञानात्मक व्यवहारात्मक तकनीकें - इन तकनीकों का उद्देश्य व्यक्ति को दबाव के विरुद्ध संचारित करना होता है। मीचेनबॉम (Meichenbaum) ने दबाव संचारण प्रशिक्षण (stress inoculation training) की एक प्रभावी विधि विकसित की है। इस उपागम का सार यह है कि व्यक्ति के नकारात्मक तथा अविवेकी विचारों के स्थान पर सकारात्मक तथा सविवेक विचार प्रतिस्थापित कर दिए जाएँ। इसके तीन प्रमुख चरण हैं - मूल्यांकन, दबाव न्यूनीकरण तकनीकें तथा अनुप्रयोग एवं अनुवर्ती कार्रवाई। मूल्यांकन के अंतर्गत समस्या की प्रकृति पर परिचर्चा करना तथा उसे व्यक्ति/सेवार्थी के दृष्टिकोण से देखना सम्मिलित होते हैं। दबाव न्यूनीकरण के अंतर्गत दबाव कम करने वाली तकनीकों जैसे - विश्रांति तथा आत्म-अनुदेशन को सीखना सम्मिलित होते हैं।

व्यायाम - दबाव के प्रति अनुक्रिया के बाद अनुभव किए गए शरीरक्रियात्मक भाव-प्रबोधन के लिए व्यायाम एक सक्रिय निर्गम-मार्ग प्रदान कर सकता है। नियमित व्यायाम के द्वारा हृदय की दक्षता में सुधार होता है, फेफड़ों के प्रकार्यों में वृद्धि होती है, रक्तचाप में कमी होती है, रक्त में वसा की मात्रा घटती है तथा शरीर के प्रतिरक्षक तंत्र में सुधार होता है। तैरना, टहलना, दौड़ना, साइकिल चलाना, रस्सी कूदना इत्यादि दबाव को कम करने में सहायक होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को सप्ताह में कम से कम चार दिन एक साथ 30 मिनट तक इनमें से किसी व्यायाम का अभ्यास करना चाहिए। प्रत्येक सत्र में गरमाना, व्यायाम तथा ठंडा या सामान्य होने के चरण अवश्य होने चाहिए।

सकारात्मक स्वास्थ्य तथा कुशल-क्षेम का

उन्नयनअपने जीवन को हम बिना ऐसे व्यक्तिगत संकटों का अनुभव किए जो कुछ समय के लिए तीव्र दबाव उत्पन्न करते हैं, पूरा कर लें, यह संभव नहीं है। अनेक व्यक्ति जीवन चलाते जाते हैं तथा अत्यंत सकारात्मक रूप से जीवन का पुर्नर्निर्माण कर लेते हैं। इसकी संभावना अधिक होती है कि प्रायः ऐसे व्यक्तियों में रचनात्मक अभिवृत्तियाँ होती हैं तथा उन्हें विविध प्रकार के संवेगात्मक तथा सामाजिक अवलंब उपलब्ध होते हैं। जब हम इन दबावों का प्रबंधन सीख लेते हैं तथा ऐसी स्थिति से कुछ सकारात्मक रचना करने के लिए ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं, तब समझिए हमने अधिक स्वास्थ्यकर उत्तरजीविता सीख ली है तथा इसके परिणामस्वरूप हम भविष्य में आने वाले संकटों के समक्ष दबाव का सामना करने के लिए अधिक योग्य हो सकेंगे। यह अस्वास्थ्यकर दबाव के खतरे के विरुद्ध प्रतिरक्षण के समान होता है।

दबाव प्रतिरोधी व्यक्तित्व - कोबासा (Kobasa) द्वारा किए गए आधुनिक अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि वे व्यक्ति जिनमें उच्च स्तर के दबाव किंतु निम्न स्तर के रोग होते हैं, उनमें तीन विशेषताएँ सामान्य रूप से पाई जाती हैं, जिन्हें दृढ़ता (hardiness) नामक व्यक्तित्व विशेषक के नाम से जाना जाता है। ये तीनों ही अंग्रेजी भाषा के ‘सी’ अक्षर से प्रारंभ होते हैं, अर्थात प्रतिबद्धता (commitment), नियंत्रण (control) तथा चुनौती (challenge)। ‘दृढ़ता’ अपने बारे में, संसार के बारे में तथा उनके बीच अंतःक्रिया के विषय में कुछ विश्वासों का एक समुच्चय होता है। इसका निर्माण जो कार्य हम कर रहे हैं उसके प्रति व्यक्तिगत प्रतिबद्धता, अपने जीवन पर नियंत्रण का बोध तथा चुनौतियों की भावना, से होता है। दबाव प्रतिरोधी व्यक्तित्व में, नियंत्रण अर्थात जीवन में उद्देश्य तथा दिशा की भावना होती है; कार्य, परिवार, अपनी रुचियों तथा सामाजिक जीवन के प्रति प्रतिबद्धता होती है; तथा चुनौती होती है अर्थात वे जीवन में परिवर्तनों को सामान्य तथा सकारात्मक समझते हैं, न कि कोई खतरा। प्रत्येक व्यक्ति में इस प्रकार की विशेषताएँ नहीं होती हैं, हममें से अनेक व्यक्तियों को सविवेक चिंतन तथा आग्रहिता जैसे क्षेत्रों में विशिष्ट जीवन कौशलों को पुन: सीखना होता है, ताकि हम दैनिक जीवन की माँगों का बेहतर ढंग से सामना कर सकें।

जीवन कौशल

जीवन कौशल, अनुकूली तथा सकारात्मक व्यवहार की वे योग्यताएँ हैं जो व्यक्तियों को दैनिक जीवन की माँगों और चुनौतियों से प्रभावी तरीके से निपटने के लिए सक्षम बनाती हैं। दबाव का सामना करने की हमारी योग्यता इस बात पर निर्भर करती है कि हम दैनिक जीवन की माँगों के प्रति संतुलन करने तथा उनके संबंध में व्यवहार करने के लिए कितने तैयार हैं तथा अपने जीवन में साम्यावस्था बनाए रखने के लिए कितने तैयार हैं। ये जीवन कौशल सीखे जा सकते हैं तथा उनमें सुधार भी किया जा सकता है। आग्रहिता, समय प्रबंधन, सविवेक चिंतन, संबंधों में सुधार, स्वयं की देखभाल के साथ-साथ ऐसी असहायक आदतों, जैसे - पूर्णतावादी होना, विलंबन या टालना इत्यादि से मुक्ति, कुछ ऐसे जीवन कौशल हैं जिनसे जीवन की चुनौतियों का सामना करने में मदद मिलेगी।

आग्रहिता (assertiveness) - आग्रहित एक ऐसा व्यवहार या कौशल है जो हमारी भावनाओं, आवश्यकताओं, इच्छाओं तथा विचारों के सुस्पष्ट तथा विश्वासपूर्ण संप्रेषण में सहायक होता है। यह ऐसी योग्यता है जिसके द्वारा किसी के निवेदन को अस्वीकार करना, किसी विषय पर बिना आत्मचेतन के अपने मत को अभिव्यक्त करना, या फिर खुल कर ऐसे संवेगों, जैसे - प्रेम, क्रोध इत्यादि को अभिव्यक्त करना संभव होता है। यदि आप आग्रही हैं तो आपमें उच्च आत्म-विश्वास एवं आत्म-सम्मान तथा अपनी अस्मिता की एक अटूट भावना होती है।

समय प्रबंधन- आप अपना समय जैसे व्यतीत करते हैं वह आपके जीवन की गुणवत्ता को निर्धारित करता है। समय का प्रबंधन तथा प्रत्यायोजित करना सीखने से, दबाव-मुक्त होने में सहायता मिल सकती है। समय दबाव कम करने का एक प्रमुख तरीका, समय के प्रत्यक्षण में परिवर्तन लाना है। समय प्रबंधन का प्रमुख नियम यह है कि आप जिन कार्यों को महत्त्व देते हैं, उनका परिपालन करने में समय लगाएँ या उन कार्यों को करने में जो आपके लक्ष्यप्राप्ति में सहायक हों। आपको अपनी जानकारियों की वास्तविकता का बोध हो, तथा कार्य को निश्चित समयावधि में करें। यह स्पष्ट होना चाहिए कि आप क्या करना चाहते हैं तथा आप अपने जीवन में इन दोनों बातों में सामंजस्य स्थापित कर सकें, इन पर समय प्रबंधन निर्भर करता है।

सविवेक चिंतन - दबाव संबंधी अनेक समस्याएँ विकृत चिंतन के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। आपके चिंतन और अनुभव करने के तरीकों में घनिष्ठ संबंध होता है। जब हम दबाव का अनुभव करते हैं तो हमें अंतःनिर्मित वर्णात्मक अभिनति होती है जिससे हमारा ध्यान भूतकाल के नकारात्मक विचारों तथा प्रतिमाओं पर केंद्रित हो जाता है, जो हमारे वर्तमान तथा भविष्य के प्रत्यक्षण को प्रभावित करता है। सविवेक चिंतन के कुछ नियम इस प्रकार हैं - अपने विकृत चिंतन तथा अविवेकी विश्वासों को चुनौती देना, संभावित अंतर्वेधी नकारात्मक दुश्चिता-उत्तेजक विचारों को मन से निकालना तथा सकारात्मक कथन करना।

संबंधों में सुधार - संप्रेषण सुदृढ़ और स्थायी संबंधों की कुंजी है। इसके अंतर्गत तीन अत्यावश्यक कौशल निहित हैं - सुनना कि दूसरा व्यक्ति क्या कह रहा है, अभिव्यक्त करना कि आप कैसा सोचते हैं और महसूस करते हैं तथा दूसरों की भावनाओं और मतों को स्वीकारना चाहे वे स्वयं आपके अपने से भिन्न

बॉक्स 3.3

स्थिति स्थापन तथा स्वास्थ्य

आधुनिक समय में बालकों तथा किशोरों में स्थिति स्थापन को समझने के लिए बहुत शोधकार्य किए गए हैं। स्थिति स्थापन एक गत्यात्मक विकासात्मक प्रक्रिया है, जो चुनौतीपूर्ण जीवन-दशाओं में सकारात्मक समायोजन के अनुक्षण को संदर्भित करता है। दबाव तथा विपत्ति के होते हुए भी उछल कर पुनः अपने स्थान पर पहले के समान वापस आने को स्थिति स्थापन कहते हैं। स्थिति स्थापन का संकल्पना-निर्धारण, आत्म-अर्ध तथा आत्म-विश्वास, स्वायत्तता तथा आत्मनिर्भरता की भावनाओं को अभिव्यक्त करता है, अपने लिए सकारात्मक भूमिका-प्रतिरूप ढूँढ़ना, किसी अंतरंग मित्र को खोजना, ऐसे संज्ञानात्मक कौशल विकसित करना, जैसे - समस्या समाधान, सर्जनात्मकता, संसाधन-संपन्नता, तथा नम्यता और यह विश्वास कि मेरा जीवन अर्थपूर्ण है तथा उसका एक उद्देश्य है। स्थिति स्थापक व्यक्ति अभिघात के प्रभावों, दबाव तथा विपत्ति पर विजयी होने में सफल होते हैं, एवं मानसिक रूप से स्वस्थ तथा अर्थपूर्ण जीवन व्यतीत करना सीख लेते हैं।

स्थिति स्थापन को तीन संसाधनों के आधार पर हाल ही में परिभाषित किया गया है - मेरे पास हैं (सामाजिक तथा अंतवैैयक्तिक बल), अर्थात “मेरे आस-पास मेरे विश्वासपात्र व्यक्ति हैं, तथा चाहे कुछ भी हो जाए वे मुझसे प्यार करते हैं।" मैं हूँ (आंतरिक शक्ति), अर्थात “स्वयं अपना तथा दूसरों का सम्मान करता/करती हूँ।" मैं समर्थ हूँ (अंतवैैक्तिक तथा समस्या समाधान कौशल), अर्थात “जो भी समस्याएँ मेरे सम्मुख आएँ, उनका समाधान ढूँढ़ने में मैं सक्षम हूँ।" किसी बालक को स्थिति स्थापक होने के लिए उसे उपरोक्त में से एक से अधिक शक्तियों की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, बालकों को काफ़ी आत्म-सम्मान हो सकता है (मैं हूँ), किंतु हो सकता है कि उनके पास ऐसे व्यक्ति न हों जिससे वह सहायता प्राप्त कर सकें (मेरे पास हैं), तथा उनमें समस्याओं के समाधान की क्षमता न हो (मैं समर्थ हूँ)। ऐसे बालक स्थिति स्थापक नहीं कहे जाएँगे। बालकों पर किए गए अनुदैर्ध्य अध्ययन इस प्रकार के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि निर्धनता तथा अन्य सामाजिक असुविधाओं से उत्पन्न विकट असुरक्षा के उपरांत भी अनेक व्यक्ति योग्य एवं ध्यान रखने वाले वयस्कों में विकसित हो जाते हैं।

हों। इसमें हमें अनुचित ईर्ष्या और नाराज़गीयुक्त व्यवहार से दूर रहने की ज़रूरत होती है।

स्वयं की देखभाल - यदि हम स्वयं को स्वस्थ, दुरुस्त तथा विश्रांत रखते हैं तो हम दैनिक जीवन के दबावों का सामना करने के लिए शारीरिक एवं सांवेगिक रूप से और अच्छी तरह तैयार रहते हैं। हमारे श्वसन का प्रतिरूप हमारी मानसिक तथा सांवेगिक स्थिति को परिलक्षित करता है। जब हम दबावग्रस्त अथवा दुश्चितित होते हैं तो हमारा श्वसन और तेज़ हो जाता है, जिसके बीच-बीच में अक्सर आहें भी निकलती रहती हैं। सबसे अधिक विश्रांत श्वसन मंद, मध्यपट या डायाफ्राम, अर्थात सीना और उदर गुहिका के बीच एवं गुंबदाकार पेशी, से उदर-केंद्रित श्वसन होता है। पर्यावरणी दबाव, जैसे - शोर, प्रदूषण, दिक्, प्रकाश, वर्ण इत्यादि सब हमारी मनःस्थिति को प्रभावित कर सकते हैं। इनका निश्चित प्रभाव दबाव का सामना करने की हमारी क्षमता तथा कुशल-क्षेम पर पड़ता है।

असहायक आदतों पर विजयी होना - असहायक आदतें जैसे - पूर्णतावाद, परिहार, विलंबन या टालना इत्यादि ऐसी युक्तियाँ हैं जो अल्पकाल तक तो सामना करने में सहायक हो सकती हैं किंतु वे व्यक्ति को दबाव के समक्ष अधिक असुरक्षित बना देती हैं। पूर्णतावादी वे व्यक्ति होते हैं जिन्हें सब कुछ बिल्कुल सही चाहिए। उन्हें इस प्रकार के कारकों जैसे - उपलब्ध समय, कार्य बंद न करने के परिणामों तथा प्रयास जो अपेक्षित हैं, के स्तरों को परिवर्तित करने में कठिनाई होती है। उनके तनावग्रस्त होने की संभावना अधिक होती है तथा वे विश्राम करने में कठिनाई अनुभव करते हैं, स्वयं अपनी तथा दूसरों की आलोचना करते रहते हैं तथा चुनौतियों का परिहार करने की ओर उनका झुकाव होता है। परिहार का अर्थ है, समस्या को स्वीकार या सामना करने से नकारना तथा उसे जैसे, कालीन के नीचे समेट देना। विलंबन का अर्थ है, जो ज़रूरी कार्य हमें करना ही है उसमें विलंब करते जाना। हम सभी यह कहने के दोषी हैं, “मैं इसे बाद में करूँगा/करूँगी।” वे व्यक्ति जो स्वभावतः कार्यों को टालते हैं, वे जानबूझकर अपने असफलता भय या अस्वीकृति का सामना करने से परिहार करते हैं।

अनेक ऐसे कारकों की पहचान की गई है जो सकारात्मक स्वास्थ्य (positive health) के विकास को सुकर या सुसाध्य बनाते हैं। पूर्ण शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक कुशल-क्षेम की अवस्था ही स्वास्थ्य है, न कि केवल रोग अथवा अशक्तता का अभाव। सकारात्मक स्वास्थ्य के अंतर्गत निम्नलिखित निर्मितियाँ आती हैं - “स्वस्थ शरीर; उच्च गुणवत्ता वाले व्यक्तिगत संबंध; जीवन में उद्देश्य का बोध, आत्ममान, जीवन के कृत्यों में प्रवीणता; दबाव, अभिघात एवं परिवर्तन के प्रति स्थिति स्थापन”। बॉक्स 3. 3 में स्थिति स्थापन तथा स्वास्थ्य के बीच संबंध वर्णित है। विशेष रूप से जो कारक दबाव के प्रतिरोधक का कार्य करते हैं तथा सकारात्मक स्वास्थ्य को सुकर बनाते हैं, वे हैं आहार, व्यायाम, सकारात्मक अभिवृत्ति, सकारात्मक चिंतन तथा सामाजिक अवलंब।

आहार - संतुलित आहार व्यक्ति की मनःस्थिति को ठीक कर सकता है, ऊर्जा प्रदान कर सकता है, पेशियों का पोषण कर सकता है, परिसंचरण को समुन्नत कर सकता है, रोगों से रक्षा कर सकता है, प्रतिरक्षक तंत्र को सशक्त बना सकता है तथा व्यक्ति को अधिक अच्छा अनुभव करा सकता है जिससे वह जीवन में दबावों का सामना और अच्छी तरह से कर सके। स्वास्थ्यकर जीवन की कुंजी है, दिन में तीन बार संतुलित और विविध आहार का सेवन करना। किसी व्यक्ति को कितने पोषण की आवश्यकता है, यह व्यक्ति की सक्रियता स्तर, आनुवंशिक प्रकृति, जलवायु तथा स्वास्थ्य के इतिहास पर निर्भर करता है। कोई व्यक्ति क्या भोजन करता है तथा उसका वज़न कितना है, इसमें व्यवहारात्मक प्रक्रियाएँ निहित होती हैं। कुछ व्यक्ति पौष्टिक आहार तथा वज़न का रख-रखाव सफलतापूर्वक कर पाते हैं किंतु कुछ अन्य व्यक्ति मोटापे के शिकार हो जाते हैं। जब हम दबावग्रस्त होते हैं तो हम ‘आराम देने वाले भोजन’ जिनमें प्रायः अधिक वसा, नमक तथा चीनी होती है, का सेवन करना चाहते हैं।

व्यायाम - बड़ी संख्या में किए गए अध्ययन शारीरिक स्वस्थता एवं स्वास्थ्य के बीच सुसंगत सकारात्मक संबंधों की पुष्टि करते हैं। इसके अतिरिक्त, कोई व्यक्ति स्वास्थ्य की समुन्नति के लिए जो उपाय कर सकता है उसमें व्यायाम जीवन शैली में वह परिवर्तन है जिसे व्यापक रूप से लोकप्रिय अनुमोदन प्राप्त है। नियमित व्यायाम वज़न तथा दबाव के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा तनाव, दुर्शिचता एवं अवसाद को घटाने में सकारात्मक प्रभाव प्रदर्शित करता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए जो व्यायाम आवश्यक हैं, उनमें तनन या खिंचाव वाले व्यायाम, जैसे - योग के आसन तथा वायुजीवी व्यायाम, जैसे - दौड़ना, तैरना, साइकिल चलाना इत्यादि आते हैं। जहाँ खिंचाव वाले व्यायाम शांतिदायक प्रभाव डालते हैं, वहाँ वायुजीवी व्यायाम शरीर के भाव-प्रबोधन स्तर को बढ़ाते हैं। व्यायाम के स्वास्थ्य संबंधी फ़ायदे दबाव प्रतिरोधक के रूप में कार्य करते हैं। अध्ययन प्रदर्शित करते हैं कि शारीरिक स्वस्थता, व्यक्तियों को सामान्य मानसिक तथा शारीरिक कुशल-क्षेम का अनुभव कराती है उस समय भी जब जीवन में नकारात्मक घटनाएँ घट रही हों।

सकारात्मक अभिवृत्ति - सकारात्मक स्वास्थ्य तथा कुशल-क्षेम सकारात्मक अभिवृत्ति के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। सकारात्मक अभिवृत्ति की ओर ले जाने वाले कुछ कारक इस प्रकार हैं - वास्तविकता का सही प्रत्यक्षण; जीवन में उद्देश्य तथा उत्तरदायित्व की भावना का होना; दूसरे व्यक्तियों के भिन्न दृष्टिकोणों के प्रति स्वीकृति एवं सहिष्णुता का होना तथा सफलता के लिए श्रेय एवं असफलता के लिए दोष भी स्वीकार करना। अंत में, नए विचारों के लिए खुलापन तथा विनोदी स्वभाव, जिससे व्यक्ति स्वयं अपने ऊपर भी हँस सके, हमें ध्यान केंद्रित करने तथा चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में देख सकने में सहायता करते हैं।

सकारात्मक चिंतन - सकारात्मक चिंतन की शक्ति, दबाव का सामना करने तथा उसे कम करने में अधिकाधिक मानी जा रही है। आशावाद, जो कि जीवन में अनुकूल परिणामों की प्रत्याशा करने के प्रति झुकाव है, को मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक कुशल-क्षेम से संबंधित किया गया है। व्यक्ति जिस प्रकार दबाव का सामना करते हैं, उसमें भिन्नता होती है। उदाहरण के लिए, आशावादी यह मानते हैं कि विपत्ति का सफलतापूर्वक सामना किया जा सकता है जबकि निराशावादी घोर संकट या अनर्थ की ही प्रत्याशा करते हैं। आशावादी समस्या-केंद्रित सामना करने की युक्तियों का अधिक उपयोग करते हैं तथा दूसरों से सलाह और सहायता माँगते हैं। निराशावादी समस्या या दबाव के स्रोतों की उपेक्षा करते हैं और इस प्रकार युक्तियों का उपयोग करते हैं, जैसे - उस लक्ष्य को ही त्याग देना जिसमें दबाव के कारण बाधा पड़ रही है या यह नकारना कि दबाव विद्यमान भी है।

सामाजिक अवलंब - ऐसे व्यक्तियों का अस्तित्व तथा उपलब्धता जिन पर हम विश्वास रख सकते हैं, जो यह स्वीकार करते हैं कि उन्हें हमारी परवाह है, जिनके लिए हम मूल्यवान हैं तथा जो हमें प्यार करते हैं, यही सामाजिक अवलंब की परिभाषा है। कोई व्यक्ति जो यह विश्वास करता/करती है कि वह संग्रेषण और पारस्परिक आभार के एक सामाजिक जालक्रम का भाग है, वह सामाजिक अवलंब का अनुभव करता/करती है। प्रत्यक्षित अवलंब, अर्थात सामाजिक अवलंब की गुणवत्ता स्वास्थ्य तथा कुशल-क्षेम से सकारात्मक रूप से संबद्ध है, जबकि सामाजिक जालक्रम, अर्थात सामाजिक अवलंब की मात्रा कुशल-क्षेम से संबद्ध नहीं हैं क्योंकि एक बड़े सामाजिक जालक्रम को बनाए रखना अत्यधिक समय लेने वाला तथा व्यक्ति पर माँगों का दाब डालने वाला होता है। अध्ययन प्रदर्शित करते हैं कि वे महिलाएँ जो दबावपूर्ण जीवन घटनाओं का अनुभव करती हैं, उनका यदि कोई अंतरंग मित्र था तो गर्भावस्था के दौरान वे कम अवसादग्रस्त थीं तथा उन्हें कम चिकित्सा-जटिलताओं का सामना करना पड़ा। सामाजिक अवलंब दबाव के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है। वे व्यक्ति जिन्हें परिवार तथा मित्रों से अधिक सामाजिक अवलंब उपलब्ध होता है, दबाव का अनुभव होने पर, कम तनाव महसूस करते हैं तथा वे दबाव का सामना अधिक सफलतापूर्वक कर सकते हैं।

सामाजिक अवलंब, मूर्त अवलंब (tangible support) के रूप में अर्थात महत्वपूर्ण साधनों, जैसे - धन, वस्तु, सेवा इत्यादि की सहायता के द्वारा हो सकता है। उदाहरण के लिए, कोई बालक अपने मित्र को अपनी कक्षा के नोट्स इसलिए दे देता है क्योंकि वह बीमारी के कारण विद्यालय से अनुपस्थित था। परिवार तथा मित्र दबावपूर्ण घटनाओं के बारे में सूचनात्मक अवलंब (informational support) भी प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए, एक विद्यार्थी, जिसे बोर्ड की एक कठिन परीक्षा देनी है, जो एक दबावपूर्ण घटना है, को यदि उसका कोई मित्र जो इस प्रकार की परीक्षा दे चुका है, उसे परीक्षा संबंधी सूचनाएँ देता है, तो वह न केवल उसमें निहित बिल्कुल ठीक प्रक्रिया को जान लेगा बल्कि वह उसे यह निर्धारित करने में भी सहायता करेगा कि इस परीक्षा में सफलतापूर्वक उत्तीर्ण होने के लिए कौन-कौन से संसाधन एवं सामना करने के लिए कौन-सी युक्तियाँ उपयोगी होंगी। दबाव के समय कोई व्यक्ति दुख, दुश्चिता तथा आत्म-सम्मान में क्षति का अनुभव कर सकता है। ऐसे समय में सहायक मित्र तथा परिवार सांवेगिक अवलंब (emotional support) उपलब्ध करा सकते हैं यदि वे उसे आश्वस्त करा सकें कि वह उनका प्रिय है, उनके लिए मूल्यवान है तथा उसकी उन्हें परवाह है। शोध अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि दबाव के समय में सामाजिक अवलंब मनोवैज्ञानिक व्यथा, जैसे अवसाद या दुर्शिता को प्रभावी तरीके से घटा देती है। ऐसे प्रमाणों में निरंतर वृद्धि हो रही है कि सामाजिक अवलंब मनोवैज्ञानिक कुशल-क्षेम से संबद्ध है। सामान्यतः सामाजिक अवलंब के मानसिक स्वास्थ्य संबंधी फ़ायदे सहायता देने वाले तथा प्राप्त करने वाले दोनों पक्षों को ही प्राप्त होते हैं।

क्रियाकलाप 3.5

अपने पड़ोस में एक ऐसे बालक की पहचान कीजिए जो जीवन में किसी प्रमुख दबाव, जैसे गंभीर दुर्घटा, अथवा किसी हाल ही के अभिघातज अनुभव, जैसे - लूटपाट, अग्निकांड इत्यादि का शिकार हुआ हो। उस बालक तथा उसके परिवार से बातचीत कीजिए। क्या आप कुछ ऐसे कारकों को पहचान सकते हैं, जिसने उसे उस अभिघात का सामना करने तथा उस पर विजयी होने में सहायता को होगी? क्या आपको अपने जीवन में भी कुछ ऐसे समान कारक दिखाई देते हैं? अपने अध्यापक के साथ परिचर्चा कीजिए।

प्रमुख पद

सचेत प्रतिक्रिया, मूल्यांकन, सामना करना, परिश्रांति, सामान्य अनुकूलन संलक्षण (जी.ए. एस.), दृढ़ता, समस्थिति, जीवन कौशल, आशावाद, सकारात्मक स्वास्थ्य, मनस्तंत्रिका प्रतिरक्षा विज्ञान, स्थिति स्थापन, सामाजिक अवलंब, दबाव, दबावकारक।

सारांश

  • दबाव जीवन का एक अंग है। दबाव न तो एक उद्दीपक है और न ही एक अनुक्रिया बल्कि व्यक्ति तथा पर्यावरण के मध्य एक सतत संव्यवहार प्रक्रिया है।
  • दबाव प्रमुखतया तीन प्रकार के होते हैं - भौतिक तथा पर्यावरणी, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक। दबाव के स्रोत हैं - जीवन घटनाएँ, प्रतिदिन की उलझनें तथा अभिघातज घटनाएँ। दबाव के प्रति संवेगात्मक, शररिक्रियात्मक, संज्ञातात्मक तथा व्यवहारात्मक अनुक्रियाएँ होती हैं।
  • सामना करना, दबाव के प्रति एक गत्यात्मक स्थिति-विशेष वैयक्तिक प्रतिक्रिया होती है। दबाव का सामना करने सारांश के तीन प्रमुख प्रकार हैं - कृत्य-अभिविन्यस्त, संवेग-अभिविन्यस्त तथा परिहार-अभिविन्यस्त युक्तियाँ। दबाव का सामना करने की अनुक्रिया समस्या-केंद्रित अथवा संवेग-केंद्रित हो सकती है। समस्या-केंद्रित अनुक्रिया पर्यावरण को परिवर्तित करने पर केंद्रित होती है तथा घटना के संकट-मूल्य को कम करने का कार्य करती है। संवेग-केंद्रित अनुक्रियाएँ, संवेगों को परिवर्तित करने की युक्तियाँ हैं तथा उनका उदेश्य घटना के कारण उत्पन्न सांवेगिक विषटन को मात्रा को सीमित करना होता है।
  • दबाव से निपटने तथा सफल सामना करने के लिए स्वस्थ जीवन शैली आवश्यक है। आग्रहिता, समय प्रबंधन, सविवेक चिंतन, संबंधों को सुधारना, स्वयं की देखभाल तथा असहायक आदतों पर विजयी होना वे जीवन कौशल हैं जो हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करने में सहायता करते हैं।
  • सकारात्मक स्वास्थ्य तथा कुशल क्षेम, संतुलित आहार, व्यायाम, सकारात्मक अभिवृत्ति, सकारात्मक आशावादी चिंतन तथा सामाजिक अवलंब के द्वारा विकसित होते हैं। इसके साथ ही समाज में चतुर्दिक सामंजस्य या समरसता स्थापित करने की भी आवश्यकता है। हमारे लिए ऐसे अस्वास्थ्यकर पलायन वाले मार्गों, जैसे धूम्पानन, मद्य, मादक द्रव्यों तथा अन्य हानिकर व्यवहारों का परिहार करना भी आवश्यक है।

समीक्षात्मक प्रश्न

1. दबाव के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए। दैनिक जीवन से उदाहरण दीजिए।

2. दबाव के लक्षणों तथा स्रोतों का वर्णन कीजिए।

3. जी.ए.एस. मॉडल का वर्णन कीजिए तथा इस मॉडल की प्रासंगिकता को एक उदाहरण की सहायता से स्पष्ट कीजिए।

4. दबाव का सामना करने के विभिन्न उपायों की गणना कीजिए।

5. मनोवैज्ञानिक प्रकार्यों पर दबाव के प्रभाव की व्याख्या कीजिए।

6. जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए जीवन कौशल कैसे उपयोगी हो सकते हैं, वर्णन कीजिए।

7. उन कारकों का विवेचन कीजिए जो सकारात्मक स्वास्थ्य तथा कुशल-क्षेम की ओर ले जाते हैं।

8. प्रतिरक्षक तंत्र को दबाव कैसे प्रभावित करता है?

9. किसी ऐसी जीवन घटना का उदाहरण दीजिए जो दबावपूर्ण हो सकती है। उन तथ्यों पर प्रकाश डालिए जिनके कारण वह घटना अनुभव करने वाले व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न मात्रा में दबाव उत्पन्न कर सकती है।

10. दबाव का सामना करने वाली युक्तियों की अपनी जानकारी के आधार पर आप अपने मित्रों को दैनिक जीवन में दबाव का परिहार करने के लिए क्या सुझाव देंगे?

11. उन पर्यावरणी कारकों का वर्णन कीजिए जो (अ) हमारे ऊपर सकारात्मक प्रभाव तथा (ब) नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

12. हम यह जानते हैं कि कुछ जीवन शैली के कारक दबाव उत्पन्न कर सकते हैं तथा कैंसर एवं हददयरोग जैसी बीमारियों को भी जन्म दे सकते हैं फिर भी हम अपने व्यवहारों में परिवर्तन क्यों नहीं ला पाते? व्याख्या कीजिए।

परियोजना विचार

1. 5-10 किशोरों के जीवन के दबावों का अभिलेख तैयार कीजिए। क्या यह लड़के तथा लड़कियों के लिए भिन्न हैं? उन उपायों को ज्ञात कीजिए जिनके द्वारा वे उनका सामना करते हैं।

2. अपने माता-पिता, दादा-दादी और नाना-नानी से उन विशिष्ट दबावकारकों के विषय में विचार-विमर्श कीजिए जिनका अनुभव तथा सामना वे अपने जीवन में कर रहे हैं।



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