अध्याय 02 आत्म एवं व्यक्तित्व

परिचय

प्राय: आपने अपने आपको स्वयं के और दूसरों के व्यवहारों को जानने एवं उनका मूल्यांकन करने में प्रवृत्त पाया होगा। आपने निश्चित ही ध्यान दिया होगा कि कुछ विशेष स्थितियों में आप कैसे दूसरों से भिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया एवं व्यवहार करते हैं? दूसरों से अपने संबंधों को लेकर भी आपके समक्ष प्रश्न उपस्थित हुए होंगे। इनमें से कुछ प्रश्नों का उत्तर देने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने आत्म या स्व की अवधारणा का उपयोग किया है। इसी प्रकार से जब हम ऐसे प्रश्न पूछते हैं कि क्यों लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं, कैसे वे घटनाओं का अलग-अलग अर्थ निकालते हैं और कैसे समान स्थितियों में वे भिन्न प्रकार से अनुभव करते और प्रतिक्रिया देते हैं (ये प्रश्न व्यवहार वैभिन्य से संबंधित हैं), तब व्यक्तित्व की अवधारणा सक्रिय हो जाती है। आत्म और व्यक्तित्व, ये दोनों ही संप्रत्यय घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं। वास्तव में आत्म व्यक्तित्व के मूल रूप में स्थित होता है।आत्म एवं व्यक्तित्व का अध्ययन न केवल यह समझने में कि हम कौन हैं अपितु हमारी अनन्यता और दूसरों से हमारी समानताओं को भी समझने में हमारी सहायता करता है। आत्म एवं व्यक्तित्व की समझ के द्वारा हम स्वयं के और दूसरों के व्यवहारों को भिन्न परिस्थितियों में समझ सकते हैं। अनेक विचारकों ने आत्म एवं व्यक्तित्व की संरचना एवं प्रकार्य का विश्लेषण किया है। परिणामस्वरूप आज हमें आत्म एवं व्यक्तित्व के भिन्न-भिन्न सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य उपलब्ध हैं। यह अध्याय आपको आत्म एवं व्यक्तित्व के कुछ आधारभूत पक्षों से परिचित कराएगा साथ ही, आप आत्म एवं व्यक्तित्व के कुछ महत्वपूर्ण सैद्धांतिक उपागमों और व्यक्तित्व-मूल्यांकन की कुछ विधियों को भी सीख सकेंगे।

आत्म एवं व्यक्तित्व

आत्म एवं व्यक्तित्व का तात्पर्य उन विशिष्ट तरीकों से है जिनके आधार पर हम अपने अस्तित्व को परिभाषित करते हैं। ये ऐसे तरीकों को भी इंगित करते हैं जिसमें हमारे अनुभव संगठित एवं व्यवहार में अभिव्यक्त होते हैं। सामान्य प्रेक्षणों के आधार पर हम जानते हैं कि विभिन्न प्रकार के लोग अपने बारे में अलग-अलग प्रकार के विचार रखते हैं। ये विचार व्यक्ति के आत्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। हम यह भी जानते हैं कि स्थिति विशेष में लोग भिन्न तरीके से व्यवहार करते हैं किंतु एक व्यक्ति-विशेष का व्यवहार एक स्थिति से दूसरी स्थिति में सामान्यतया पर्याप्त रूप से स्थिर होता है। व्यक्ति के व्यवहार का यही अपेक्षाकृत स्थिर स्वरूप उस व्यक्ति के ‘व्यक्तित्व’ का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए विभिन्न प्रकार के व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्तित्व वाले प्रतीत होते हैं। ये व्यक्तित्व व्यक्तियों के विविध व्यवहारों में प्रतिबिंबित होते हैं।

आत्म का संप्रत्यय

बाल्यावस्था से ही आपने इस बारे में कि आप कौन हैं और आप किस प्रकार दूसरों से भिन्न है, पर्याप्त मात्रा में विचार किया होगा। यद्यपि आप इस संदर्भ में जागरूक नहीं रहे होंगे फिर भी आपने अब तक अपने बारे में कुछ धारणा विकसित कर ली होगी। आइए अब हम क्रियाकलाप 2.1 को पूरा करके अपने आत्म के बारे में (अर्थात हम कौन हैं?) कुछ प्राथमिक विचार प्रतिपादित करने का प्रयास करें।

क्रियाकलाप 2.1 के वाक्यों को पूरा करना आपके लिए कितना सरल था? इस कार्य को पूरा करने में आपने कितना समय लिया? संभवतः यह क्रियाकलाप आपके लिए उतना सरल नहीं रहा होगा जितना सरल पहले आपने इसे समझा होगा। यह क्रियाकलाप पूरा करते हुए आप अपने ‘आत्म’ का वर्णन कर रहे थे। जिस प्रकार आप अपने चतुर्दिक परिवेश की विविध वस्तुओं के प्रति जागरूक होते हैं, जैसे कि आपके कमरे में एक मेज़ है या एक कुर्सी, उसी प्रकार आप अपने आत्म के प्रति भी जागरूक होते हैं। एक नवजात शिशु की अपने आत्म के बारे में कोई धारणा नहीं होती है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, आत्म की धारणा का उन्मज्जन या प्रकटीकरण होता है और इसका निर्माण आरंभ हो जाता है। आत्म के बारे में बच्चे की धारणा को स्वरूप देने में माता-पिता, मित्रों, शिक्षकों एवं अन्य महत्वपूर्ण लोगों की अहं भूमिका होती है। दूसरे लोगों से हमारी अंतःक्रिया, हमारा अनुभव और इन्हें जो हम अर्थ प्रदान करते हैं, हमारे आत्म का आधार बनते हैं। अतः हमारे अपने अनुभव और दूसरे लोगों के बारे में जो हमारे अनुभव होते हैं उसके आधार पर आत्म की संरचना में परिवर्तन संभव है। यदि आप क्रियाकलाप 2.1 को पूरा कर लेने के बाद उन वाक्यों की सूची का अपने दूसरे मित्रों से आदान-प्रदान कर लें तो आप इस बात का अनुभव कर सकते हैं।

क्रियाकलाप 2.1

आत्म की समझ

कृपया “मैं $\qquad$ हूँ” वाले अधोलिखित वाक्यों को पूरा करें।

अभी का समय. $\qquad$

मैं…………………. हूँ।
मैं…………………. हूँ।
मैं…………………. हूँ।
मैं…………………. हूँ।
मैं…………………. हाँ।
मैं…………………. हूँ।
मैं…………………. हूँ।
मैं…………………. हूँ।
मैं………………….. हूँ।
समय जब आपने पूरा किया

ध्यान दें कि उन्होंने क्या किया। आप देखेंगे कि वे अपना तादात्म्य कैसे स्थापित करते हैं, इसके बारे में उन्होंने अपने गुणों की पर्याप्त लंबी सूची बनाई। अपने तदात्मीकरण के लिए उन्होंने जिन गुणों का उपयोग किया है, वे उनकी व्यक्तिगत और साथ ही उनकी सामाजिक या सांस्कृतिक अनन्यता के बारे में जानकारी देते हैं। व्यक्तिगत अनन्यता (personal identity) से तात्पर्य व्यक्ति के उन गुणों से है जो उसे अन्य दूसरों से भिन्न करते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने नाम (जैसे - मेरा नाम संजना अथवा करीम है), अथवा अपनी विशेषताओं (जैसे - मैं ईमानदार अथवा मेहनती हूँ), अथवा अपनी विभवताओं अथवा क्षमताओं (जैसे - मैं गायक अथवा नर्तक हूँ), अथवा अपने विश्वासों (जैसे - मैं ईश्वर अथवा नियति में विश्वास रखता हूँ) का वर्णन करता/ करती है तब वह अपनी व्यक्तिगत अनन्यता को उद्घाटित करता/ करती है। सामाजिक अनन्यता (social identity) से तात्पर्य व्यक्ति के उन पक्षों से है जो उसे किसी सामाजिक अथवा सांस्कृतिक समूह से संबद्ध करते हैं अथवा जो ऐसे समूह से व्युत्पन्न होते हैं। जब कोई यह कहता/कहती है कि वह एक हिंदू है अथवा मुस्लिम है, ब्राह्सण है अथवा आदिवासी है, उत्तर भारतीय है अथवा दक्षिण भारतीय है, अथवा इसी तरह का कोई अन्य वक्तव्य, तो वह अपनी सामाजिक अनन्यता के बारे में जानकारी देता/देती है। इस प्रकार के वर्णन उन तरीकों का विशेषीकरण करते हैं जिनके आधार पर लोग एक व्यक्ति के रूप में स्वयं का मानसिक स्तर पर प्रतिरूपण करते हैं। इस प्रकार आत्म का तात्पर्य अपने संदर्भ में व्यक्ति के सचेतन अनुभवों, विचारों, चिंतन एवं भावनाओं की समग्रता से है। व्यक्ति के यही अनुभव एवं विचार व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर व्यक्ति के अस्तित्व को परिभाषित करते हैं।

आत्मगत रूप में आत्म एवं वस्तुगत रूप में आत्म

यदि आप क्रियाकलाप 2.1 में अपने मित्रों के द्वारा दिए गए वर्णनों पर पुनः ध्यान दें तो आप देखेंगे कि उनके वर्णन अपने बारे में या तो एक ऐसी सत्ता के रूप में है जो कुछ करता है (जैसे - मैं एक नर्तक हूँ) अथवा ऐसी सत्ता के रूप में जिस पर कुछ किया गया है (जैसे - मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसको सरलता से आहत किया जा सकता है)। पहली स्थिति में आत्म का वर्णन आत्मगत (जो कुछ करता है) रूप में किया गया है, दूसरी स्थिति में आत्म का वर्णन ‘वस्तुगत’ (जो किसी चीज़ से प्रभावित होता है) रूप में किया गया है।

इसका अर्थ यह हुआ कि आत्म को आत्मगत एवं वस्तुगत दोनों रूपों में समझा जा सकता है। जब आप यह कहते हैं कि ‘मैं जानता हूँ कि मैं कौन हूँ’ तो यहाँ आप आत्म का वर्णन ‘जानने वाले’ के रूप में तो कर ही रहे हैं साथ ही उस रूप में भी कर रहे हैं ‘जिसे जाना जा सकता है। आत्मगत (कर्ता) रूप में आत्म स्वयं को जानने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से संलग्न रहता है। वस्तुगत (परिणामी) रूप में आत्म प्रेक्षित होता है और जान लिए जाने वाले वस्तु के रूप में होता है। आत्म की यह द्वैध स्थिति सदैव ध्यातव्य है।

आत्म के प्रकार

आत्म के विभिन्न प्रकार या रूप होते हैं। आत्म के इन विभिन्न रूपों का निर्माण भौतिक एवं समाज-सांस्कृतिक पर्यावरणों से होने वाली हमारी अंतःक्रियाओं के परिणामस्वरूप होता है। आत्म के मूलतत्व पर उस समय ध्यान आकृष्ट होता है जब एक नवजात शिशु भूखा होने पर दूध के लिए चीखता-चिल्लाता है। यद्यपि बालक की यह चीख प्रतिवर्त पर आधारित होती है तथापि यही प्रतिवर्त आगे चल कर इस जागरूकता के विकास के रूप में कि ‘मैं भूखा हूँ’ परिवर्तित हो जाता है। समाज-सांस्कृतिक पर्यावरण में यह जैविक आत्म स्वयं को रूपांतरित करता है। आप जबकि एक चॉकलेट के लिए भूख का अनुभव कर सकते हैं, एक एस्किमो को ऐसा अनुभव नहीं हो सकता है।

‘व्यक्तिगत’ आत्म एवं ‘सामाजिक’ आत्म के बीच भेद किया गया है। व्यक्तिगत आत्म (personal self) में एक ऐसा अभिविन्यास होता है जिसमें व्यक्ति मुख्य रूप से अपने बारे में ही संबद्ध होने का अनुभव करता है। अभी हम लोगों ने देखा कि कैसे जैविक आवश्यकताएँ ‘जैविक आत्म’ को विकसित करती हैं। किंतु शीघ्र ही बच्चे की उसके पर्यावरण में मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आवश्यकताएँ उसके व्यक्तिगत आत्म के अन्य अवयवों को उत्पन्न करने लगती हैं। किंतु इस विस्तार में जीवन के उन पक्षों पर ही बल होता है जो संबंधित व्यक्ति से जुड़ी हुई होती हैं, जैसे - व्यक्तिगत स्वतंत्रता, व्यक्तिगत उत्तरदायित्व, व्यक्तिगत उपलक्धि, व्यक्तिगत सुख-सुविधाएँ इत्यादि। सामाजिक आत्म (social self) का प्रकटीकरण दूसरों के संबंध में होता है जिसमें सहयोग, एकता, संबंधन, त्याग, समर्थन अथवा भागीदारी जैसे जीवन के पक्षों पर बल दिया जाता है। इस प्रकार का आत्म परिवार और सामाजिक संबंधों को महत्त्व देता है। इसलिए इस आत्म को पारिवारिक (familial) अथवा संबंधात्मक आत्म (relational self) के रूप में भी जाना जाता है।

आत्म के संज्ञानात्मक एवं व्यवहारात्मक पक्ष

विश्व के सभी भागों के मनोवैज्ञानिकों ने आत्म के अध्ययन में अभिरुचि प्रदर्शित की है। इन अध्ययनों द्वारा व्यवहार के कई ऐसे पक्ष सामने लाए गए हैं जिनका संबंध आत्म से होता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि हम सभी के अंदर यह जानने का बोध होता है कि हम कौन हैं और क्या हमको अन्य दूसरों से भिन्न बनाता है। हम अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक अनन्यताओं से जुड़े रहते हैं और इस ज्ञान से कि ये अनन्यताएँ आजीवन स्थिर रहेंगी, हम सुरक्षित अनुभव करते हैं।

जिस प्रकार से हम अपने आपका प्रत्यक्षण करते है तथा अपनी क्षमताओं और गुणों के बारे में जो विचार रखते हैं, उसी को आत्म-संप्रत्यय या आत्म-धारणा (selfconcept) कहा जाता है। अति सामान्य स्तर पर अपने बारे में इस प्रकार की धारणा समग्र रूप से या तो सकारात्मक होती है या नकारात्मक। इससे अधिक विशिष्ट स्तर पर एक व्यक्ति अपने शैक्षिक प्रतिभा की अपेक्षा अपने खेलकूद की बहादुरी के प्रति सकारात्मक धारणा रख सकता है या अपने गणितीय कौशलों की अपेक्षा अपनी पठन-योग्यता के प्रति सकारात्मक आत्म-संप्रत्यय रख सकता है। किसी व्यक्ति के आत्म-संप्रत्यय के बारे में जानकारी प्राप्त करना सरल नहीं होता है। इसके लिए सर्वाधिक उपयोग में लाई जाने वाली विधि के अंतर्गत व्यक्ति से उसके बारे में पूछा जाता है।

आत्म-सम्मान

आत्म-सम्मान हमारे आत्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। व्यक्ति के रूप में हम सदैव अपने मूल्य या मान और अपनी योग्यता के बारे में निर्णय या आकलन करते रहते हैं। व्यक्ति का अपने बारे में यह मूल्य-निर्णय ही आत्म-सम्मान (self-esteem) कहा जाता है। कुछ लोगों में आत्म-सम्मान उच्च स्तर का जबकि कुछ अन्य लोगों में आत्म-सम्मान निम्न स्तर का पाया जाता है। किसी व्यक्ति के आत्म-सम्मान का मूल्यांकन करने के लिए उस व्यक्ति के समक्ष विविध प्रकार के कथन प्रस्तुत किए जाते हैं और उस व्यक्ति से पूछा जाता है कि किस सीमा तक वे कथन उसके संदर्भ में सही हैं, यह बताएँ। उदाहरण के लिए, किसी बालक/बालिका से यह पूछा जा सकता है, “मैं गृह कार्य करने में अच्छा हूँ” अथवा “मुझे अक्सर विभिन्न खेलों में भाग लेने के लिए चुना जाता है” अथवा “मेरे सहपाठियों द्वारा मुझे बहुत पसंद किया जाता है” जैसे कथन उसके संदर्भ में किस सीमा तक सही हैं। यदि बालक/ बालिका यह बताता/बताती है कि ये कथन उसके संदर्भ में सही हैं तो उसका आत्म-सम्मान उस दूसरे बालक/बालिका की तुलना में अधिक होगा जो यह बताता/बताती है कि ये कथन उसके बारे में सही नहीं हैं।

अध्ययनों से यह जानकारी प्राप्त हुई है कि छः से सात वर्ष तक के बच्चों में आत्म-सम्मान चार क्षेत्रों में निर्मित हो जाता है - शैक्षिक क्षमता, सामाजिक क्षमता, शारीरिक। खेलकूद संबंधित क्षमता और शारीरिकरूप जो आयु के बढ़ने के साथ-साथ और अधिक परिष्कृत होता जाता है। अपनी स्थिर प्रवृत्तियों के रूप में अपने प्रति धारणा बनाने की क्षमता हमें भिन्न-भिन्न आत्म-मूल्यांकनों को जोड़कर अपने बारे में एक सामान्य मनोवैज्ञानिक प्रतिमा निर्मित करने का अवसर प्रदान करती है। इसी को हम आत्म-सम्मान की समग्र भावना के रूप में जानते हैं।

आत्म-सम्मान हमारे दैनिक जीवन के व्यवहारों से अपना घनिष्ठ संबंध प्रदर्शित करता है। उदाहरण के लिए जिन बच्चों में उच्च शैक्षिक आत्म-सम्मान होता है उनका निष्पादन विद्यालयों में निम्न आत्म-सम्मान रखने वाले बच्चों की तुलना में अधिक होता है और जिन बच्चों में उच्च सामाजिक आत्म-सम्मान होता है उनको निम्न सामाजिक आत्म-सम्मान रखने वाले बच्चों की तुलना में सहपाठियों द्वारा अधिक पसंद किया जाता है। दूसरी तरफ़, जिन बच्चों में सभी क्षेत्रों में निम्न आत्म-सम्मान होता है उनमें दुश्चिता, अवसाद और समाजविरोधी व्यवहार पाया जाता है। अध्ययनों द्वारा प्रदर्शित किया गया है कि जिन माता-पिता द्वारा स्नेह के साथ सकारात्मक ढंग से बच्चों का पालन-पोषण किया जाता है ऐसे बालकों में उच्च आत्म-सम्मान विकसित होता है क्योंकि ऐसा होने पर बच्चे अपने आपको सक्षम और योग्य व्यक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। जो माता-पिता बच्चों द्वारा सहायता न माँगने पर भी यदि उनके निर्णय स्वयं लेते हैं तो ऐसे बच्चों में निम्न आत्म-सम्मान पाया जाता है।

आत्म-सक्षमता

आत्म-सक्षमता (self-efficacy) हमारे आत्म का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष है। लोग एक-दूसरे से इस बात में भी भिन्न होते हैं कि उनका विश्वास इसमें है कि वे अपने जीवन के परिणामों को स्वयं नियंत्रित कर सकते हैं अथवा इसमें कि उनके जीवन के परिणाम भाग्य, नियति अथवा अन्य स्थितिपरक कारकों द्वारा नियंत्रित होते हैं उदाहरणार्थ- परीक्षा में उत्तीर्ण होना। एक व्यक्ति यदि ऐसा विश्वास रखता है कि किसी स्थिति विशेष की माँगों के अनुसार उसमें योग्यता है या व्यवहार करने की क्षमता है तो उसमें उच्च आत्म-समक्षता होती है।

आत्म-सक्षमता की अवधारणा बंदूरा (Bandura) के सामाजिक अधिगम सिद्धांत पर आधारित है। बंदूरा के आरंभिक अध्ययन इस बात को प्रदर्शित करते हैं कि बच्चे और वयस्क दूसरों का प्रेक्षण एवं अनुकरण कर व्यवहारों को सीखते हैं। लोगों की अपनी प्रवीणता और उपलब्धि की प्रत्याशाओं एवं स्वयं अपनी प्रभाविता के प्रति दृढ़ विश्वास से भी यह निर्धारित होता है कि वे किस तरह के व्यवहारों में प्रवृत्त होंगे और व्यवहार विशेष को संपादित करने में कितना जोखिम उठाएँगे। आत्म-सक्षमता की प्रबल भावना लोगों को अपने जीवन की परिस्थितियों का चयन करने, उनको प्रभावित करने एवं यहाँ तक कि उनका निर्माण करने को भी प्रेरित करती है। आत्म-सक्षमता की प्रबल भावना रखने वाले लोगों में भय का अनुभव भी कम होता है।

आत्म-सक्षमता को विकसित किया जा सकता है। देखा गया है कि उच्च आत्म-सक्षमता रखने वाले लोग ध्रूमपान न करने का निर्णय लेने के बाद तत्काल इस पर अमल कर लेते हैं। बच्चों के आरंभिक वर्षों में सकारात्मक प्रतिरूपों या मॉडलों को प्रस्तुत कर हमारा समाज, हमारे माता-पिता और हमारे अपने सकारात्मक अनुभव आत्म-सक्षमता की प्रबल भावना के विकास में सहायक हो सकते हैं।

आत्म-नियमन

आत्म-नियमन (self-regulation) का तात्पर्य हमारे अपने व्यवहार को संगठित और परिवीक्षण या मॉनीटर करने की योग्यता से है। जिन लोगों में बाह्य पर्यावरण की माँगों के अनुसार अपने व्यवहार को परिवर्तित करने की क्षमता होती है, वे आत्म-परिवीक्षण में उच्च होते हैं।

जीवन की कई स्थितियों में स्थितिपरक दबावों के प्रति प्रतिरोध और स्वयं पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है। यह संभव होता है उस चीज़ के द्वारा जिसे हम सामान्यतया ‘संकल्प शक्ति’ के रूप में जानते हैं। मनुष्य रूप में हम जिस तरह भी चाहें अपने व्यवहार को नियंत्रित कर सकते हैं। हम प्रायः अपनी कुछ आवश्यकताओं की संतुष्टि को विलंबित अथवा आस्थगित कर देते हैं। आवश्यकताओं के परितोषण को विलंबित अथवा आस्थगित करने के व्यवहार को सीखना ही आत्म-नियंत्रण (self-control) कहा जाता है। दीर्घावधि लक्ष्यों की संप्राप्ति में आत्म-नियंत्रण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारतीय सांस्कृतिक परंपराएँ हमें कुछ ऐसे प्रभावी उपाय प्रदान करती हैं जिनसे आत्म-नियंत्रण का विकास होता है (उदाहरणार्थ, व्रत अथवा रोज़ा में उपवास करना और सांसारिक वस्तुओं के प्रति अनासक्ति का भाव रखना)।

आत्म-नियंत्रण के लिए अनेक मनोवैज्ञानिक तकनीकें सुझाईं गई हैं। अपने व्यवहार का प्रेक्षण (observation of own behaviour) एक तकनीक है जिसके द्वारा आत्म के विभिन्न पक्षों को परिवर्तित, परिमार्जित अथवा सशक्त करने के लिए आवश्यक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। आत्म-अनुदेश (self-instruction) एक अन्य महत्वपूर्ण तकनीक है। हम प्रायः अपने आपको कुछ करने तथा मनोवांछित तरीके से व्यवहार करने के लिए अनुदेश देते हैं। ऐसे अनुदेश आत्म-नियमन में प्रभावी होते हैं। आत्म-प्रबलन (self-reinforcement) एक तीसरी तकनीक है। इसके अंतर्गत ऐसे व्यवहार पुरस्कृत होते हैं जिनके परिणाम सुखद होते हैं। उदाहरणार्थ, यदि आपने अपनी परीक्षा में अच्छा निष्पादन किया है तो आप अपने मित्रों के साथ फिल्म देखने जा सकते हैं। ये तकनीकें लोगों द्वारा उपयोग में लाई जाती हैं और आत्म-नियमन तथा आत्म-नियंत्रण के संदर्भ में अत्यंत प्रभावी पाई गईं हैं।

संस्कृति एवं आत्म

आत्म के अनेक पक्ष संस्कृति के उन विशिष्ट रूपों से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं जिनमें एक व्यक्ति अपना जीवनयापन करता है। भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में आत्म का विश्लेषण अनेक महत्वपूर्ण पक्षों को स्पष्ट करता है जो पाश्चात्य सांस्कृतिक संदर्भ में पाए जाने वाले पक्षों से भिन्न होते हैं।

भारतीय और पाश्चात्य अवधारणाओं के मध्य एक महत्वपूर्ण अंतर इस तथ्य को लेकर है कि आत्म और दूसरे अन्य के बीच किस प्रकार से सीमा रेखा निर्धारित की गई है। पाश्चात्य अवधारणा में यह सीमा रेखा अपेक्षाकृत स्थिर और दृढ़ प्रतीत होती है। दूसरी तरफ़, भारतीय अवधारणा में आत्म और अन्य के मध्य सीमा रेखा स्थिर न होकर परिवर्तनीय प्रकृति की बताई गई है। इस प्रकार एक क्षण में व्यक्ति का आत्म अन्य सब कुछ को अपने में अंतर्निहित करता हुआ समूचे ब्रह्मांड में विलीन होता हुआ प्रतीत होता है। किंतु दूसरे क्षण में आत्म अन्य सबसे पूर्णतया विनिवर्तित होकर व्यक्तिगत आत्म (उदाहरणार्थ, हमारी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ एवं लक्ष्य) पर केंद्रित होता हुआ प्रतीत होता है। पाश्चात्य अवधारणा आत्म और अन्य मनुष्य और प्रकृति तथा आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ के मध्य स्पष्ट द्विभाजन करती हुई प्रतीत होती है। भारतीय अवधारणा इस प्रकार का कोई स्पष्ट द्विभाजन नहीं करती है। चित्र 2.1 में इस संबंध को प्रदर्शित किया गया है।

पाश्चात्य संस्कृति में आत्म और समूह को स्पष्ट रूप से परिभाषित सीमा रेखाओं के साथ दो भिन्न इकाइयों के रूप

चित्र 2.1 भारतीय तथा पाश्चात्य सांस्कृतिक परिप्रेक्षों में आत्म एवं समूह को सीमा रेखाएँ

में स्वीकार किया गया है। व्यक्ति समूह का सदस्य होते हुए भी अपनी वैयक्तिकता बनाए रखता है। भारतीय संस्कृति में आत्म को व्यक्ति के अपने समूह से पृथक नहीं किया जाता है; बल्कि दोनों सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व के साथ बने रहते हैं। दूसरी तरफ़, पाश्चात्य संस्कृति में दोनों के बीच एक दूरी बनी रहती है। यही कारण है कि अनेक पाश्चात्य संस्कृतियों का व्यक्तिवादी और अनेक एशियाई संस्कृतियों का सामूहिकतावादी संस्कृति के रूप में विशेषीकरण किया जाता है।

व्यक्तित्व का संप्रत्यय

‘व्यक्तित्व’ शब्द प्रायः हमारी दैनंदिन चर्चा अथवा बातचीत में प्रकट होता रहता है। व्यक्तित्व का शाब्दिक अर्थ लैटिन शब्द परसोना (persona) से लिया गया है। परसोना उस मुखौटे को कहते हैं जिसे अपनी मुख-रूपसज्जा को बदलने के लिए रोमन नाटकों में अभिनेता उपयोग में लाते थे। जिस मुखौटे को अभिनेता अपनाता था उसी के अनुरूप दर्शक उससे एक विशिष्ट भूमिका के निष्पादन की प्रत्याशा करते थे। इससे ये तात्पर्य बिल्कुल नहों था कि किसी भूमिका को जो व्यक्ति अभिव्यक्त कर रहा है वह वास्तव में उन गुणों को रखता है।

एक सामान्य जन के लिए, व्यक्तित्व का तात्पर्य सामान्यतया व्यक्ति के शारीरिक एवं बाह्य रूप से होता है। उदाहरण के लिए जब कोई व्यक्ति सुंदर दिखाई देता है तो हम ये मान लेते हैं कि वह व्यक्ति सौम्य व्यक्तित्व वाला है। व्यक्तित्व की यह अवधारणा सतही प्रभावांकनों पर आधारित होती है जो सही नहीं होती है।

मनोवैज्ञानिक शब्दों में व्यक्तित्व (personality) से तात्पर्य उन विशिष्ट तरीकों से है जिनके द्वारा व्यक्तियों और स्थितियों के प्रति अनुक्रिया की जाती है। लोग सरलता से इस बात का वर्णन कर सकते हैं कि वे किस तरीके से विभिन्न स्थितियों के प्रति अनुक्रिया करते हैं। कुछ सूचक शब्दों (जैसे - शर्मीला, संवेदनशील, शांत, गंभीर, स्फूर्त आदि) का उपयोग प्रायः व्यक्तित्व का वर्णन करने के लिए किया जाता है। ये शब्द व्यक्तित्व के विभिन्न घटकों को इंगित करते हैं। इस अर्थ में व्यक्तित्व से तात्पर्य उन अनन्य एवं सापेक्ष रूप से स्थिर गुणों से है जो एक समयावधि में विभिन्न स्थितियों में व्यक्ति के व्यवहार को विशिष्टता प्रदान करते हैं।

यदि आप ध्यानपूर्वक देखें तो पाएँगे कि लोग अपने व्यवहार में भिन्नताएँ प्रदर्शित करते हैं। कोई एक व्यक्ति सदैव सावधान अथवा आवेगी, शर्मीला अथवा मित्रवत् नहीं होता है। व्यक्तित्व व्यक्तियों की उन विशेषताओं को कहते हैं जो अधिकांश परिस्थितियों में प्रकट होती हैं। विभिन्न परिस्थितियों तथा समयों पर किसी व्यक्ति के व्यवहार, चिंतन और संवेग में संगति उसके व्यक्तित्व की विशेषता होती है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति ईमानदार है तो कोई भी परिस्थिति या किसी भी समय पर वह ईमानदार बना रहेगा। व्यवहार में स्थितिपरक भिन्नताएँ भी घटित होती हैं क्योंकि वे पर्यावरणी परिस्थितियों के प्रति व्यक्तियों के अनुकूलन में सहायक होती हैं।

संक्षेप में व्यक्तित्व को अधोलिखित विशेषताओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है -

1. इसके अंतर्गत शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों ही घटक होते हैं।

2. किसी व्यक्ति विशेष में व्यवहार के रूप में इसकी अभिव्यक्ति पर्याप्त रूप से अनन्य होती है।

3. इसकी प्रमुख विशेषताएँ साधारणतया समय के साथ परिवर्तित नहीं होती हैं।

बॉक्स 2.1
व्यक्तित्व से संबंधित शब्द

स्वभाव - जैविक रूप से आधारित प्रतिक्रिया करने का विशिष्ट तरीका।

विशेषक या शीलगुण - व्यवहार करने का स्थिर, सतत एवं विशिष्ट तरीका।

स्ववृत्ति - किसी स्थिति विशेष में विशिष्ट तरीके से प्रतिक्रिया करने की व्यक्ति की प्रवृत्ति।

चरित्र - नियमित रूप से घटित होने वाले व्यवहार का समग्र प्रतिरूप।

आदत- व्यवहार करने का अत्यधिगत ढंग।

मूल्य - लक्ष्य और आदर्श जो महत्वपूर्ण और उपलब्धि के योग्य माने जाते हैं।

4. यह इस अर्थ में गत्यात्मक होता है कि इसकी कुछ विशेषताएँ आंतरिक अथवा बाह्य स्थितिपरक माँगों के कारण परिवर्तित हो सकती हैं। इस प्रकार व्यक्तित्व स्थितियों के प्रति अनुकूलनशील होता है।

एक बार जब हम किसी के व्यक्तित्व की विशेषताओं को बताने में समर्थ हो जाते हैं तो हम इस बात की भविष्यवाणी भी कर सकते हैं कि वह व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में किस तरह का व्यवहार करेगा। व्यक्तित्व की समझ हमें यथार्थवादी तथा स्वीकार्य तरीके से लोगों के साथ व्यवहार करने में सहायता करती है। उदाहरण के लिए, यदि आप यह पाते हैं कि कोई बच्चा आदेशों को पसंद नहों करता है तो उस बच्चे से व्यवहार करने का सबसे अधिक प्रभावी तरीका यह होगा कि उसे आदेश न दिया जाए किंतु उसके समक्ष स्वीकार्य विभिन्न विकल्प प्रस्तुत किए जाएँ जिनमें से बच्चा किसी एक विकल्प का चयन कर सके। इसी प्रकार एक बच्चा जिसमें हीनता की भावना है, उससे बरताव या व्यवहार उस बच्चे से, जिसमें आत्म-विश्वास है, भिन्न तरीके से किया जाना चाहिए।

व्यक्तियों की व्यवहारपरक विशेषताओं को बताने के लिए अनेक दूसरे शब्दों का उपयोग किया गया है। प्रायः इनका व्यक्तित्व के समानार्थी शब्दों के रूप में उपयोग किया जाता है। इनमें से कुछ शब्द बॉक्स 2.1 में उनको परिभाषित करने वाली विशेषताओं के साथ दिए गए हैं। आप उनको ध्यानपूर्वक यह देखने के लिए पढ़ सकते हैं कि वह किस तरह से व्यक्तित्व की अवधारणा से भिन्न है।

व्यक्तित्व के अध्ययन के प्रमुख उपागम

व्यक्तित्व के अध्ययन में अभिरुचि रखने वाले मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व में व्यक्तिगत भिन्नताओं की प्रकृति एवं उत्पत्ति के बारे में कुछ प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया है। आपने देखा होगा कि एक ही परिवार में दो बच्चों के व्यक्तित्व का विकास आश्चर्यजनक रूप से भिन्न प्रकार का होता है। न केवल वे बच्चे शारीरिक दृष्टि से भिन्न होते हैं अपितु विभिन्न स्थितियों में वे भिन्न प्रकार का व्यवहार भी प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार के प्रेक्षण प्रायः कुतूहल या जिज्ञासा उत्पन्न कर हमें यह प्रश्न पूछने पर बाध्य करते हैं कि “क्यों ऐसा होता है कि कुछ लोग किसी स्थिति विशेष में अन्य दूसरे लोगों से भिन्न प्रतिक्रिया करते हैं? क्यों ऐसा होता है कि कुछ लोग साहसिक कार्यों में आनंद का अनुभव करते हैं जबकि कुछ दूसरे लोग पढ़ना, टेलीविज़न देखना अथवा ताश खेलना पसंद करते हैं? क्या इस प्रकार की भिन्नताएँ जीवन भर स्थिर रूप से बनी रहती हैं अथवा ये मात्र अल्पकालिक और स्थिति-विशिष्ट होती हैं?

व्यक्तियों के व्यवहारों में पाई जाने वाली भिन्नता तथा संगति को समझने के लिए और उसकी व्याख्या करने के लिए अनेक उपागम एवं सिद्धांत विकसित किए गए हैं। ये सिद्धांत मानव व्यवहार के विभिन्न मॉडलों पर आधारित हैं। प्रत्येक सिद्धांत व्यक्तित्व के कुछ पक्षों पर ही प्रकाश डालता है, सभी पक्षों पर नहीं।

मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व के प्ररूप और विशेषक (शीलगुण) उपागमों के मध्य विभेद किया है। प्ररूप उपागम (type approach) व्यक्ति के प्रेक्षित व्यवहारपरक विशेषताओं के कुछ व्यापक स्वरूपों का परीक्षण कर मानव व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करता है। प्रत्येक व्यवहारपरक स्वरूप व्यक्तित्व के किसी एक प्रकार को इंगित करता है जिसके अंतर्गत उस स्वरूप की व्यवहारपरक विशेषता की समानता के आधार पर व्यक्तियों को रखा जाता है। इसके विपरीत, विशेषक उपागम (trait approach) विशिष्ट मनोवैज्ञानिक गुणों पर बल देता है जिसके आधार पर व्यक्ति संगत और स्थिर रूपों में भिन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति कम शर्मीला हो सकता है जबकि दूसरा अधिक; एक व्यक्ति अधिक मैत्रीपूर्ण व्यवहार कर सकता है और दूसरा कम। यहाँ “शर्मीलापन” और “मैत्रीपूर्ण व्यवहार" विशेषकों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके आधार पर व्यक्तियों में संबंधित व्यवहारपरक गुणों या विशेषकों की उपस्थिति या अनुपस्थिति की मात्रा का मूल्यांकन किया जा सकता है। अंतःक्रियात्मक उपागम (interactional approach) के अनुसार स्थितिपरक विशेषताएँ हमारे व्यवहारों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लोग स्वतंत्र अथवा आभ्रित प्रकार का व्यवहार करेंगे यह उनके आंतरिक व्यक्तित्व विशेषक पर निर्भर नहीं करता है बल्कि इस पर निर्भर करता है कि किसी विशिष्ट स्थिति में बाह्य पुरस्कार अथवा खतरा उपलब्ध है कि नहीं। भिन्न-भिन्न स्थितियों में विशेषकों को लेकर संगति अत्यंत निम्न पाई जाती है। बाज़ार में, न्यायालय में अथवा पूजास्थलों पर लोगों के व्यवहारों का प्रेक्षण कर स्थितियों के अप्रतिरोध्य प्रभाव को देखा जा सकता है।

प्ररूप उपागम

जैसा कि हमने ऊपर स्पष्ट किया है कि व्यक्तित्व के प्ररूप (टाइप) समानताओं पर आधारित प्रत्याशित व्यवहारों के एक समुच्चय का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्राचीन काल से ही लोगों को व्यक्तित्व के प्ररूपों में वर्गीकृत करने का प्रयास किया गया है। ग्रीक चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स (Hippocrates) ने एक व्यक्तित्व का प्ररूपविज्ञान प्रस्तावित किया जो फ्लूइड (fluid) अथवा ह्यूमर (humour) पर आधारित है। उन्होंने लोगों को चार प्ररूपों में वर्गीकृत किया है (जैसे - उत्साही, श्लैष्मिक, विवादी तथा कोपशील)। प्रत्येक प्ररूप विशिष्ट व्यवहारपरक विशेषताओं वाला होता है।

भारत में भी एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रन्थ चरक संहिता ने लोगों को वात, पित्त एवं कफ इन तीन वर्गों में तीन ह्यूमरल तत्वों, जिन्हें त्रिदोष कहते हैं, के आधार पर वर्गीकृत किया है। इनमें से प्रत्येक प्ररूप मनुष्य के स्वभाव अथवा उसकी प्रकृति को बताता है। इसके अतिरिक्त त्रिगुण (अर्थात सत्व, रजस तथा तमस) के आधार पर भी एक व्यक्तित्व प्ररूपविज्ञान प्रतिपादित किया गया है। सत्व गुण के अंतर्गत स्वच्छता, सत्यवादिता, कर्तव्यनिष्ठा, अनासक्ति या विलग्नता, अनुशासन आदि गुण आते हैं। रजस गुण के अंतर्गत तीव्र क्रिया, इंद्रिय-तुष्टि की इच्छा, असंतोष, दूसरों के प्रति असूया (ईष्या) और भौतिकवादी मानसिकता आदि गुण आते हैं। तमस गुण के अंतर्गत क्रोध, घमंड, अवसाद, आलस्य, असहायता की भावना आदि गुण आते हैं। ये तीनों ही गुण प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न मात्रा में विद्यमान रहते हैं। इनमें से किसी भी एक अथवा दूसरे गुण की प्रभाविता एक विशिष्ट प्रकार के व्यवहार को प्रेरित करती है।

मनोविज्ञान में शेल्डन (Sheldon) द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व के प्ररूप सर्वाविदित हैं। शारीरिक बनावट और स्वभाव को आधार बनाते हुए शेल्डन ने गोलाकृतिक (endomorphic) आयताकृतिक (mesomorphic) और लंबाकृतिक (ectomorphic) जैसे व्यक्तित्व के प्ररूप को प्रस्तावित किया है। गोलाकृतिक प्ररूप वाले व्यक्ति मोटे मृदुल और गोल होते है। स्वभाव से वे लोग शिथिल और सामाजिक या मिलनसार होते हैं। आयताकृतिक प्ररूप वाले लोग मज़बूत पेशीसमूह एवं सुगठित शरीर वाले होते हैं जो देखने में आयताकार होते हैं, ऐसे व्यक्ति ऊर्जस्वी एवं साहसी होते हैं। लंबाकृतिक प्ररूप वाले पतले, लंबे और सुकुमार होते हैं। ऐसे व्यक्ति कुशाग्रबुद्धि वाले, कलात्मक और अंतर्मुखी होते हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि व्यक्तित्व के ये शारीरिक प्ररूप सरल किंतु व्यक्तियों के व्यवहारों की भविष्यवाणी करने में सीमित उपयोगिता वाले हैं। वस्तुतः व्यक्तित्व के ये प्ररूप रूढ़धारणाओं की तरह हैं जो लोग उपयोग करते हैं।

युंग (Jung) ने व्यक्तित्व का एक अन्य प्ररूपविज्ञान प्रस्तावित किया है जिसमें लोगों को उन्होंने अंतर्मुखी एवं बहिर्मुखी दो वर्गों में वर्गीकृत किया है। यह प्ररूप व्यापक रूप से स्वीकार किए गए हैं। इसके अनुसार अंतर्मुखी वह लोग होते हैं जो अकेले रहना पसंद करते हैं, दूसरों से बचते हैं, सांवेगिक द्वंद्वों से पलायन करते हैं और शर्मीले होते हैं। दूसरी ओर, बहिर्मुखी वह लोग होते हैं जो सामाजिक तथा बहिर्गामी होते हैं और ऐसे व्यवसायों का चयन करते हैं जिसमें लोगों से वे प्रत्यक्ष रूप से संपर्क बनाए रख सकें। लोगों के बीच में रहते हुए तथा सामाजिक कार्यों को करते हुए वे दबावों के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं।

हाल के वर्षों में फ्रीडमैन (Friedman) एवं रोजेनमैन (Rosenman) ने टाइप ‘ए’ तथा टाइप ‘बी’, इन दो प्रकार के व्यक्तित्वों में लोगों का वर्गीकरण किया है। इन दोनों शोधकर्ताओं ने मनोसामाजिक जोखिम वाले कारकों का अध्ययन करते हुए इन प्ररूपों की खोज की। टाइप ‘ए’ (Type-A) व्यक्तित्व वाले लोगों में उच्चस्तरीय अभिप्रेरणा, धैर्य की कमी, समय की कमी का अनुभव करना, उतावलापन और कार्य के बोझ से हमेशा लदे रहने का अनुभव करना पाया जाता है। ऐसे लोग निश्चित होकर मंदगति से कार्य करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोग अतिरक्तदान और कॉरोनरी हृदय रोग (coronary heart disease, CHD) के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं। इस प्रकार के लोगों में कभी-कभी सी.एच.डी. के विकसित होने का खतरा, उच्च रक्तदाब, उच्च कोलेस्ट्रॉल स्तर और ध्रूमपान से उत्पन्न होने वाले खतरों की अपेक्षा अधिक होता है। इसके विपरीत, टाइप ‘बी’ (Type-B) व्यक्तित्व को टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व की विशेषताओं के अभाव के रूप में समझा जा सकता है। व्यक्तित्व के इस प्ररूपविज्ञान को आगे भी विस्तार प्राप्त हुआ है। मॉरिस (Morris) ने एक टाइप ‘सी’ (Type-C) व्यक्तित्व को सुझाया है जो कैंसर जैसे रोग के प्रति संवेदनशील होता है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले लोग सहयोगशील, विनीत और धैर्यवान होते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने निषेधात्मक संवेगों (जैसे-क्रोध) का दमन करने वाले और आप्त व्यक्तियों के प्रति आज्ञापालन का प्रदर्शन करने वाले होते हैं। हाल ही में एक टाइप ‘डी’ (Type-D) व्यक्तित्व का सुझाव भी दिया गया है और इस व्यक्तित्व वाले लोगों में अवसाद के प्रति प्रवणता पाई जाती है।

उपर्युक्त व्यक्तित्व के प्ररूप सामान्यतया आकर्षित करने वाले हैं किंतु वे अत्यंत सरलीकृत हैं। मानव व्यवहार अत्यधिक जटिल और परिवर्तनशील होता है। लोगों को किसी एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्ररूप में वर्गीकृत करना कठिन होता है। उपर्युक्त सरल वर्गीकरण योजना में स्पष्टता के साथ लोगों को वर्गीकृत करना पूरी तरह संभव नहीं है।

विशेषक उपागम

ये सिद्धांत मुख्यतः व्यक्तित्व के आधारभूत घटकों के वर्णन अथवा विशेषीकरण से संबंधित होते हैं। ये सिद्धांत व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले मूल तत्वों की खोज करते हैं। मनुष्य व्यापक रूप से मनोवैज्ञानिक गुणों में भिन्नताओं का प्रदर्शन करते हैं, फिर भी उनको व्यक्तित्व विशेषकों के लघु समूह में सम्मिलित किया जा सकता है। विशेषक उपागम हमारे दैनिक जीवन के सामान्य अनुभव के बहुत समान है। उदाहरण के लिए, जब हम यह जान लेते हैं कि कोई व्यक्ति सामाजिक है तब हम यह मान लेते हैं कि वह व्यक्ति न केवल सहयोग, मित्रता और सहायता करने वाला होगा बल्कि वह अन्य सामाजिक घटकों से युक्त व्यवहार प्रदर्शित करने में भी प्रवृत्त होगा। इस प्रकार, विशेषक उपागम लोगों की प्राथमिक विशेषताओं की पहचान करने का प्रयास करता है। एक विशेषक अपेक्षाकृत एक स्थायी गुण माना जाता है जिस पर एक व्यक्ति दूसरों से भिन्न होता है। इसमें संभव व्यवहारों की एक शृंखला अंतर्निहित होती है जिसको स्थिति की माँगों के द्वारा सक्रियता प्राप्त होती है।

सारांश रूप में कहा जा सकता है कि- (अ) विशेषक समय की विमा पर अपेक्षाकृत स्थिर होते हैं, (ब) विभिन्न स्थितियों में उनमें सामान्यतया संगति होती है और (स) उनकी शक्ति और उनका संयोजन एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न पाया जाता है जिसके कारण व्यक्तित्व में व्यक्तिगत भिन्नताएँ पाई जाती हैं।

अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के लिए अनेक मनोवैज्ञानिकों ने विशेषकों का उपयोग किया है। हम कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों का वर्णन करेंगे।

ऑलपोर्ट का विशेषक सिद्धांत

गॉर्डन ऑलपोर्ट (Gordon Allport) को विशेषक उपागम का अग्रणी माना जाता है। उन्होंने प्रस्तावित किया है कि व्यक्ति में अनेक विशेषक होते हैं जिनकी प्रकृति गत्यात्मक होती है। ये विशेषक व्यवहारों का निर्धारण इस रूप में करते हैं कि व्यक्ति विभिन्न स्थितियों में समान योजनाओं के साथ क्रियाशील होता है। विशेषक उद्दीपकों और अनुक्रियाओं को समाकलित करते हैं अन्यथा वे असमान दिखाई देते हैं। ऑलपोर्ट ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि लोग स्वयं का तथा दूसरों का वर्णन करने के लिए जिन शब्दों का उपयोग करते हैं वे शब्द मानव व्यक्तित्व को समझने का आधार प्रदान करते हैं। उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों का विश्लेषण विशेषकों का पता लगाने के लिए किया है जो किसी व्यक्ति का वर्णन है। इसके आधार पर ऑलपोर्ट ने विशेषकों का तीन वर्गों में वर्गीकरण किया—प्रमुख विशेषक, केंद्रीय विशेषक तथा गौण विशेषक। प्रमुख विशेषक (cardinal traits) अत्यंत सामान्यीकृत प्रवृत्तियाँ होती हैं। ये उस लक्ष्य को इंगित करती हैं जिसके चतुर्दिक व्यक्ति का पूरा जीवन व्यतीत होता है। महात्मा गांधी की अहिंसा और हिटलर का नाज़ीवाद प्रमुख विशेषक के उदाहरण हैं। ये विशेषक व्यक्ति के नाम के साथ इस तरह घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं कि उनकी पहचान ही व्यक्ति के नाम के साथ हो जाती है, जैसे-‘गांधीवादी’ अथवा ‘हिटलरवादी’ विशेषक। प्रभाव में कम व्यापक किंतु फिर भी सामान्यीकृत प्रवृत्तियाँ ही केंद्रीय विशेषक (Central traits) के रूप में जानी जाती हैं। ये विशेषक (उदाहरणार्थ, स्फूर्त, निष्कपट, मेहनती आदि) प्राय: लोगों के शंसापत्रों में अथवा नौकरी की संस्तुतियों में किसी व्यक्ति के लिए लिखे जाते हैं। व्यक्ति की सबसे कम सामान्यीकृत विशिष्टताओं के रूप में गौण विशेषक (Secondary traits) जाने जाते हैं। ऐसे विशेषकों के उदाहरण इन वाक्यों में, जैसे-मुभे आम पसंद हैं अथवा ‘मुभेक संजातीय वस्त्र पहनना पसंद है’ देखे जा सकते हैं।

यद्यपि ऑलपोर्ट ने व्यवहार पर स्थितियों के प्रभाव को स्वीकार किया है फिर भी उनका मानना है कि स्थिति विशेष में व्यक्ति जिस प्रकार प्रतिक्रिया करता है वह उसके विशेषकों पर निर्भर करता है। लोग समान विशेषकों को रखते हुए भी उनको भिन्न तरीकों से व्यक्त कर सकते हैं। ऑलपोर्ट ने विशेषकों को मध्यवर्ती परिवर्त्यों की तरह अधिक माना है

जो उद्दीपक स्थिति एवं व्यक्ति की अनुक्रिया के मध्य घटित होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि विशेषकों में किसी भी प्रकार की भिन्नता के कारण समान स्थिति में अथवा समान परिस्थिति के प्रति भिन्न प्रकार की अनुक्रिया उत्पन्न होती है।

कैटेल - व्यक्तित्व कारक

रेमंड कैटेल (Raymond Cattell) का यह विश्वास था कि एक सामान्य संरचना होती है जिसे लेकर व्यक्ति एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। यह संरचना इंद्रियानुभविक रीति से निर्धारित की जा सकती है। उन्होंने भाषा में उपलब्ध वर्णनात्मक विशेषणों के विशाल समुच्चय में से प्राथमिक विशेषकों की पहचान करने का प्रयास किया है। सामान्य संरचनाओं का पता लगाने के लिए उन्होंने कारक विश्लेषण (Factor analysis) नामक सांख्यिकीय तकनीक का उपयोग किया है। इसके आधार पर उन्होंने 16 प्राथमिक अथवा मूल विशेषकों की जानकारी प्राप्त की है। मूल विशेषक (source traits) स्थिर होते हैं और व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले मूल तत्वों के रूप में जाने जाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक सतही या पृष्ठ विशेषक (surface traits) भी होते हैं जो मूल विशेषकों की अंतःक्रिया के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न होते हैं। कैटेल ने मूल विशेषकों का वर्णन विपरीतार्थी या विलोमी प्रवृत्तियों के रूप में किया है। उन्होंने व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए एक परीक्षण विकसित किया जिसे सोलह व्यक्तित्व कारक प्रश्नावली (Sixteen Personality Factor Questionnaire, 16PF) के नाम से जाना जाता है। इस परीक्षण का मनोवैज्ञानिकों द्वारा व्यापक रूप से उपयोग किया गया है।

आइजेंक का सिद्धांत

एच. जे. आइजेंक (H.J. Eyesenck) ने व्यक्तित्व को दो व्यापक आयामों के रूप में प्रस्तावित किया है। इन आयामों का आधार जैविक एवं आनुवंशिक है। प्रत्येक आयाम में

बॉक्स 2.2

व्यक्तित्व का पंच-कारक मॉडल

निकट के वर्षों में आधारभूत व्यक्तित्व विशेषकों की संख्या को लेकर उत्पन्न हुए मत वैभिन्य से एक रुचिकर दिशा परिवर्तन हुआ है। पॉल कॉस्टा (Paul Costa) तथा राबर्ट मैक्रे (Robert McCrae) ने सभी संभावित व्यक्तित्व विशेषकों की जाँच कर पाँच कारकों के एक समुच्चय के बारे में जानकारी दी है। इनको बृहत् पाँच कारकों (Big Five Factors) के नाम से जाना जाता है। ये पाँच कारक निम्न हैं-

1. अनुभवों के लिए खुलापन - जो लोग इस कारक पर उच्च अंक प्राप्त करते हैं वे कल्पनाशील, उत्सुक, नए विचारों के प्रति उदारता एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों में अभिरुचि लेने वाले व्यक्ति होते हैं। इसके विपरीत, कम अंक प्राप्त करने वाले व्यक्तियों में अनम्यता पाई जाती है।

2. बहिर्मुखता - यह विशेषता उन लोगों में पाई जाती है जिनमें सामाजिक सक्रियता, आग्रहिता, बहिर्गमन, बातूनापन और आमोद-प्रमोद के प्रति पसंदगी पाई जाती है। इसके विपरीत ऐसे लोग होते हैं जो शर्मीले और संकोची होते हैं।

3. सहमतिशीलता - यह कारक लोगों की उन विशेषताओं को बताता है जिनमें सहायता करने, सहयोग करने, मैर्रीपूर्ण व्यवहार करने, देखभाल करने एवं पोषण करने जैसे व्यवहार सम्मिलित होते हैं। इसके विपरीत वे लोग होते हैं जो आक्रामक और आत्म-केंद्रित होते हैं।

4. तंत्रिकाताप - इस कारक पर उच्च अंक प्राप्त करने वाले लोग सांवेगिक रूप से अस्थिर, दुश्चितित, परेशान भयभीत, दु:खी, चिड़िचड़े और तनावग्रस्त होते हैं। इससे विपरीत प्रकार के लोग सुसमायोजित होते हैं।

5. अंतर्विवेकशीलता - इस कारक पर उच्च अंक प्राप्त करने वाले लोगों में उपलब्धि-उन्मुखता, निर्भरता, उत्तरदायित्व, दूरदर्शिता, कर्मठता और आम-नियंत्रण पाया जाता है। इसके विपरीत, कम अंक प्राप्त करने वाले लोगों में आवेग पाया जाता है।

व्यक्तित्व के क्षेत्र में यह पंच-कारक मॉडल एक महत्वपूर्ण सैद्धांतिक विकास का प्रतिनिधित्व करते हैं। विभिन्न संस्कृतियों में लोगों के व्यक्तित्व को समझने के लिए यह मॉडल अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है। विभिन्न संस्कृतियों भाषाओं में उपलन्ध व्यक्तित्व विशेषकों के विश्लेषण से यह मॉडल संगत है और विभिन्न विधियों से किए गए व्यक्तित्व के अध्ययन भी मॉडल का समर्थन करते हैं। अतएव, आज व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए यह मॉडल सबसे अधिक महत्वपूर्ण आनुभविक उपागम माना जाता है।

अनेक विशिष्ट विशेषकों को सम्मिलित किया गया है। ये आयाम निम्न प्रकार के हैं-

(1) तंत्रिकातापिता बनाम सांवेगिक स्थिरता - इससे तात्पर्य है कि लोगों में किस मात्रा तक अपनी भावनाओं पर नियंत्रण होता है। इस आयाम के एक छोर पर तंत्रिकाताप से ग्रस्त लोग होते है। ऐसे लोगों में दुश्चिता, चिड़ाचड़ापन, अतिसंवेदनशीलता, बेचैनी और नियंत्रण का अभाव पाया जाता है। दूसरे छोर पर वे लोग होते हैं जो शांत, संयत स्वभाव वाले विश्वसनीय और स्वयं पर नियंत्रण रखने वाले होते हैं।

(2) बहिर्मुखता बनाम अंतर्मुखता - इससे तात्पर्य है कि किस मात्रा तक लोगों में सामाजिक-उन्मुखता अथवा सामाजिकविमुखता पाई जाती है। इस आयाम के एक छोर पर वे लोग होते हैं जिनमें सक्रियता, यूथचारिता, आवेग और रोमांच के प्रति पसंदगी पाई जाती है। दूसरे छोर पर वे लोग होते हैं जो निष्क्रिय, शांत, सतर्क और आत्म-केंद्रित होते हैं।

आइजेंक ने इसके पश्चात किए गए अनुसंधान कार्यों के आधार पर एक तीसरा आयाम-मनस्तापिता बनाम सामाजिकता भी प्रस्तावित किया जो उपर्युक्त दोनों आयामों से अंतःक्रिया करता हुआ माना गया है। एक व्यक्ति जो मनस्तापिता के आयाम पर उच्च अंक प्राप्त करता है तो उसमें आक्रामक, अहं-केंद्रित और समाजविरोधी होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। आइजेंक व्यक्तित्व प्रश्नावली (Eysenck Personality Questionnaire) एक परीक्षण है जिसका उपयोग व्यक्तित्व के इन आयामों का अध्ययन करने के लिए किया गया है।

विशेषक उपागम एक बहुत लोकप्रिय उपागम है जिसके संदर्भ में अनेक प्रकार की प्रगति हो रही है। इनका उल्लेख आपके अध्ययन क्षेत्र के परे है। व्यक्तित्व के संदर्भ में एक नए प्रकार का निरूपण सामने आया है जो विशेषकों को संगठित करने के लिए एक नई प्रकार की योजना प्रस्तुत करता है। यह नए प्रकार का निरूपण बॉक्स 2.2 में दिया गया है।

क्रियाकलाप 2.2

यदि आपसे अपने व्यक्तित्व के एक पक्ष को परिवर्तित करने को कहा जाए तो आप क्या परिवर्तित करना पसंद करेंगे और क्यों? यदि नहीं, तो क्यों? आपके व्यक्तित्व का कौन-सा ऐसा पक्ष है जिसे आप कभी परिवर्तित नहों करना चाहंगे? इस पर एक पैरगग्राफ लिखिए। अपने मित्र से परिचर्चा कीजिए।

मनोगतिक उपागम

व्यक्तित्व का अध्ययन करने के लिए यह एक अत्यंत लोकप्रिय उपागम है। यह विचारधारा सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud) के योगदानों की ऋणी है। फ्रायड एक चिकित्सक थे और उन्होंने अपना सिद्धांत अपने नैदानिक पेशे के दौरान विकसित किया। अपने पेशे के आरंभिक दौर में उन्होंने शारीरिक और सांवेगिक समस्याओं से ग्रस्त लोगों का उपचार सम्मोहन (hypnosis) विधि के माध्यम से किया। उन्होंने इस बात पर ध्यान दिया कि उनके अधिकांश रोगी अपनी समस्याओं के बारे में बात करने की आवश्यकता अनुभव करते थे और बात कर लेने के बाद वे प्रायः अपने को अच्छा महसूस करते थे। फ्रायड ने मन के आंतरिक प्रकार्यों को समझने के लिए मुक्त साहचर्य (एक विधि जिसमें व्यक्ति अपने मन में आने वाले सभी विचारों, भावनाओं और चितनों को मुक्त भाव से व्यक्त करता है), स्वप्न विश्लेषण और त्रुटियों के विश्लेषण का उपयोग किया है।

चेतना के स्तर

फ्रायड के सिद्धांत में सांवेगिक द्वंद्वों के स्रोतों एवं परिणामों पर तथा इनके प्रति लोगों द्वारा की जाने वाली प्रतिक्रिया पर विचार किया गया है। ऐसा विचार करते हुए यह सिद्धांत मानव मन चेतना के तीन स्तरों (three levels of consciousness) के रूप में देखता है। प्रथम स्तर चेतन (conscious) है जिसके अंतर्गत वे चिंतन, भावनाएँ और क्रियाएँ आती हैं जिनके प्रति लोग जागरूक रहते हैं। दूसरा स्तर पूर्वचेतना (preconscious) है जिसके अंतर्गत वे मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिनके प्रति लोग तभी जागरूक होते हैं जब वे उन पर सावधानीपूर्वक ध्यान केंद्रित करते हैं। चेतना का तीसरा स्तर अचेतन (unconscious) है जिसके अंतर्गत ऐसी मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिनके प्रति लोग जागरूक नहीं होते हैं।

फ्रायड के अनुसार अचेतन मूलप्रवृत्तिक और पाशविक अंतर्नोदों का भंडार होता है। इसके अंतर्गत वे सभी इच्छाएँ और विचार भी होते हैं जो चेतन रूप से जागरूक स्थिति से छिपे हुए होते हैं क्योंकि वे मनोवैज्ञानिक द्वंद्रों को उत्पन्न करते हैं। इनमें से अधिकांश कामेच्छाओं से उत्पन्न होते हैं जिनको प्रकट रूप से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता और इसीलिए उनका दमन कर दिया जाता है। अचेतन आवेगों की अभिव्यक्ति के कुछ सामाजिक रूप से स्वीकार्य तरीकों को खोजने के लिए हैं अथवा उन आवेगों को अभिव्यक्त होने से बचाने के लिए निरंतर संघर्ष करते रहते हैं। द्वंद्धों के संदर्भ में असफल निर्णय लेने के परिणामस्वरूप अपसामान्य व्यवहार उत्पन्न होते हैं। विस्मरण, अशुद्ध उच्चारण, मज़ाक एवं स्वप्नों के विश्लेषण हमें अचेतन तक पहुँचने के लिए साधन प्रदान करते हैं। फ्रायड ने एक चिकित्सा प्रक्रिया विकसित की जिसे मनोविश्लेषण (psychoanalysis) के रूप में जाना जाता है। मनोविश्लेषण-चिकित्सा का आधारभूत लक्ष्य दमित अचेतन सामग्रियों को चेतना के स्तर पर ले आना है जिससे कि लोग और अधिक आत्म-जागरूक और समाकलित तरीके से अपना जीवन व्यतीत कर सकें।

व्यक्तित्व की संरचना

फ्रायड के सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्व तीन हैं-इदम् या इड (id), अहं (ego) और पराहम् (superego)। ये तत्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लागों द्वारा किए गए व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है (चित्र 2.2 देखें)। यहाँ स्मरणीय है कि इड, अहं और पराहम् संप्रत्यय हैं न कि वास्तविक भौतिक संरचनाएँ। हम इनकी थोड़े विस्तार के साथ विवेचना करेंगे।

चित्र 2.2 फ्रायड के सिद्धांत में व्यक्तित्व की संरंचना

इड - यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सा-सिद्धांत (pleasure principle) पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृत्तिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है। अहं - इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकतासिद्धांत (reality principle) से संचालित होती है और प्रायः इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ़ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए, एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता है कि दुकानदार से पूछे बिना यदि आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दंड का भागी हो सकता है। वास्तविकता-सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग अवास्तविक और सुखेप्सा-सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता-सिद्धांत से संचालित होता है।

पराहम् - पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम् इड और अहं को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है। उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुर्चिता नहीं होगी।

इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन तीन प्रतिस्पर्धी शक्तियों अथवा ऊर्जाओं से निर्मित हुआ है। कुछ लोगों में इड पराहम् से अधिक प्रबल होता है तो कुछ अन्य लोगों में पराहम् इड से अधिक प्रबल होता है। इड, अहं और पराहम् की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति की स्थिरता का निर्धारण करती है। फ्रायड के अनुसार इड को दो प्रकार की मूलप्रवृत्तिक शक्तियों से ऊर्जा प्राप्त होती है जिन्हें जीवन-प्रवृत्ति (life-instinct) एवं मुमूर्षा या मृत्यु-प्रवृत्ति (death instinct) के नाम से जाना जाता है। उन्होंने मृत्यु-प्रवृत्ति के स्थान पर जीवन-प्रवृत्ति (अथवा, काम) को केंद्र में रखते हुए अधिक महत्त्व दिया है। मूलप्रवृत्तिक जीवन-शक्ति जो इड को ऊर्जा प्रदान करती है कामशक्ति या लिबिडो (libido) कहलाती है। लिबिडो सुखेप्सा-सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है और तात्कालिक संतुष्टि चाहता है।

अहं रक्षा युक्तियाँ

फ्रायड के अनुसार मनुष्य के अधिकांश व्यवहार दुर्शिता के प्रति उपयुक्त समायोजन अथवा पलायन को प्रतिबिंबित करते हैं। अतः किसी दुश्चिताजनक स्थिति का अहं किस ढंग से सामना करता है, यही व्यापक रूप से निर्धारित करता है कि लोग किस प्रकार से व्यवहार करेंगे। फ्रायड का विश्वास था कि लोग दुश्चिता का परिहार मुख्यतः रक्षा युक्तियाँ विकसित करके करते हैं। ये रक्षा युक्तियाँ अहं को मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं के प्रति जागरूकता से रक्षा करती हैं। इस प्रकार रक्षा युक्तियाँ (defence mechanisms) वास्तविकता को विकृत कर दुश्शिता को कम करने का एक तरीका है। यद्यपि दुश्शिता के प्रति की जाने वाली कुछ रक्षा युक्तियाँ सामान्य एवं अनुकूली होती हैं तथापि ऐसे लोग जो इन युक्तियों का उपयोग इस सीमा तक करते हैं कि वास्तविकता वास्तव में विकृत हो जाती है तो वे विभिन्न प्रकार के कुसमायोजक व्यवहार विकसित कर लेते हैं।

फ्रायड ने विभिन्न प्रकार की रक्षा युक्तियों का वर्णन किया है। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण दमन (repression) है जिसमें दुश्चिंता उत्पन्न करने वाले व्यवहार और विचार पूरी तरह चेतना के स्तर से विलुप्त कर दिए जाते हैं। जब लोग किसी भावना अथवा इच्छा का दमन करते हैं तो वे उस भावना अथवा इच्छा के प्रति बिल्कुल ही जागरूक नहीं होते हैं। इस प्रकार जब कोई व्यक्ति कहता है, “मैं नहीं जानता हूँ कि मैंने यह क्यों किया है"’, तो उसका यह कथन किसी दमित भावना अथवा इच्छा को अभिव्यक्त करता है।

अन्य प्रमुख रक्षा युक्तियों में प्रक्षेपण, अस्वीकरण, प्रतिक्रिया निर्माण और युक्तिकरण आते हैं। प्रक्षेपण (projection) में लोग अपने विशेषकों को दूसरों पर आरोपित करते हैं। एक व्यक्ति जिसमें प्रबल आक्रामक प्रवृत्तियाँ हैं वह दूसरे लोगों में अत्यधिक रूप से अपने प्रति होने वाले व्यवहारों को आक्रामक देखता है। अस्वीकरण (denial) में एक व्यक्ति पूरी तरह से वास्तविकता को स्वीकार करना नकार देता है। उदाहरण के लिए एच.आई.वी. / एड्स से ग्रस्त रोगी पूरी तरह से अपने रोग को नकार सकता है। प्रतिक्रिया निर्माण (reaction formation) में व्यक्ति अपनी वास्तविक भावनाओं और इच्छाओं के ठीक विपरीत प्रकार का व्यवहार अपना कर अपनी दुश्चिता से रक्षा करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए प्रबल कामेच्छा से ग्रस्त कोई व्यक्ति यदि अपनी ऊर्जा को धार्मिक क्रियाकलापों में लगाते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करता है तो ऐसा व्यवहार प्रतिक्रिया निर्माण का उदाहरण होगा। युक्तिकरण (rationalisation) में एक व्यक्ति अपनी तर्कहीन भावनाओं और व्यवहारों को तर्कयुक्त और स्वीकार्य बनाने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए यदि कोई विद्यार्थी परीक्षा में निम्नस्तरीय निष्पादन के बाद कुछ नए कलम खरीदता है तो इस युक्तिकरण का उपयोग करता है कि “वह आगे की परीक्षा में नए कलम के साथ उच्च स्तर का निष्पादन प्रदर्शित करेगा”।

जो लोग रक्षा युक्तियों का उपयोग करते हैं वे प्राय: इसके प्रति जागरूक नहीं होते हैं अथवा इससे अनभिज्ञ होते हैं। प्रत्येक रक्षा युक्ति दुश्चिता द्वारा उत्पन्न असुविधाजनक भावनाओं से अहं के बरताव करने का एक तरीका है। रक्षा युक्तियों की भूमिका के बारे में फ्रायड के विचारों के समक्ष अनेक प्रश्न उत्पन्न किए गए हैं। उदाहरण के लिए फ्रायड का यह दावा कि प्रक्षेपण के उपयोग से दुश्शिता और दबाव कम होता है अनेक अध्ययनों के परिणामों द्वारा समर्थित नहीं है।

व्यक्तित्व-विकास की अवस्थाएँ

फ्रायड का यह दावा है कि व्यक्तित्व के आंतरिक पक्ष आरंभ में ही स्थापित हो जाते हैं और जीवन-पर्यंत स्थिर बने रहते हैं। इनमें परिवर्तन लाना अत्यंत कठिन होता है। उन्होंने व्यक्तित्व-विकास का एक पंच अवस्था सिद्धांत (fivestage theory) प्रस्तावित किया जिसे मनोलैंगिक विकास के नाम से भी जाना जाता है। विकास की इन पाँच अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था पर समस्याओं के आने से विकास बाधित हो जाता है और जिसका मनुष्य के जीवन पर दीर्घकालिक प्रभाव हो सकता है। इन विभिन पाँच अवस्थाओं का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है।

मौखिक अवस्था - एक नवजात शिशु की मूल प्रवृत्तियाँ मुख पर केंद्रित होती है। यह शिशु का प्राथमिक सुख प्राप्ति का केंद्र होता है। यह मुख ही होता है जिसके माध्यम से ही शिशु भोजन ग्रहण करता है और अपनी भूख को शांत करता है। शिशु मौखिक संतुष्टि भोजन ग्रहण, अँगूठा चूसने, काटने और बलबलाने के माध्यम से प्राप्त करता है। जन्म के बाद आरंभिक कुछ महीनों की अवधि में शिशुओं में अपने चतुर्दिक जगत के बारे में आधारभूत अनुभव और भावनाएँ विकसित हो जाती हैं। अतः फ्रायड के अनुसार एक वयस्क जो इस संसार को कटु स्थान मानता है। संभवत: उसके विकास की मौखिक अवस्था में कठिनाई रही होगी।

गुदीय अवस्था - ऐसा पाया गया है कि दो-तीन वर्ष की आयु में बच्चा समाज की कुछ माँगों के प्रति अनुक्रिया करना सीखता है। इनमें से एक प्रमुख माँग माता-पिता की यह होती है कि बालक मूत्रत्याग एवं मलत्याग जैसे शारीरिक प्रकार्यों को सीखे। अधिकांश बच्चे इस आयु में इन क्रियाओं को करने में आनंद का अनुभव करते हैं। शरीर का गुदीय क्षेत्र कुछ सुखदायक भावनाओं का केंद्र हो जाता है। इस अवस्था में इड और अहं के बीच द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है। साथ ही शैशवावस्था की सुख की इच्छा एवं वयस्क रूप में नियंत्रित व्यवहार की माँग के बीच भी द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है।

लैंगिक अवस्था - यह अवस्था जननांगों पर बल देती है। चार-पाँच वर्ष की आयु में बच्चे पुरुषों एवं महिलाओं के बीच का भेद अनुभव करने लगते हैं। बच्चे कामुकता के प्रति एवं अपने माता-पिता के बीच काम संबंधों के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इसी अवस्था में बालक इडिपस मनोग्रंथि (oedipus complex) का अनुभव करता है जिसमें अपनी माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति आक्रामकता सन्निहित होती है तथा इसके परिणामस्वरूप पिता द्वारा दंडित या शिश्नलोप किए जाने का भय भी बालक में कार्य करता है (इडिपस एक ग्रीक राजा था जिसने अनजान में अपने पिता की हत्या कर अपनी माता से विवाह कर लिया था)। इस अवस्था की एक प्रमुख विकासात्मक उपलब्धि यह है कि बालक अपनी इस मनोग्रंधि का समाधान कर लेता है। ऐसा वह अपनी माता के प्रति पिता के संबंधों को स्वीकार करके उन्हीं की तरह का व्यवहार करता है।

बालिकाओं में यह इडिपस ग्रंथि थोड़े भिन्न रूप में घटित होती है। बालिकाओं में इसे इलेक्ट्रा मनोग्रंथि (Electra Complex) कहते हैं। इलेक्ट्रा एक ग्रीक चरित्र थी जिसने अपने भाई द्वारा अपनी माता की हत्या करवाई। इस मनोग्रंभि में बालिका अपने पिता को प्रेम करती है और प्रतीकात्मक रूप में उससे विवाह करना चाहती है। जब उसको यह अनुभव होता है कि यह संभव नहीं है तो वह अपनी माता का अनुकरण कर उसके व्यवहारों को अपनाती है। ऐसा वह अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिए करती है। उपर्युक्त दोनों मनोग्रंथियों के समाधान में क्रांतिक घटक समान लिंग के माता-पिता के साथ तदात्मीकरण स्थापित करना है। दूसरे शब्दों में, बालक अपनी माता के प्रति लैंगिक भावनाओं का त्याग कर देते हैं तथा अपने पिता को प्रतिद्वंद्धी की बजाय भूमिका-प्रतिरूप मानने लगते हैं; बालिकाएँ अपने पिता के प्रति लैंगिक इच्छाओं का त्याग कर देती हैं और अपनी माता से तादात्मय स्थापित करती हैं।

कामप्रसुप्ति अवस्था - यह अवस्था सात वर्ष की आयु से आरंभ होकर यौवनारंभ तक बनी रहती है। इस अवधि में बालक का विकास शारीरिक दृष्टि से होता रहता है किंतु उसकी कामेच्छाएँ सापेक्ष रूप से निष्क्रिय होती हैं। बालक की अधिकांश ऊर्जा सामाजिक अथवा उपलब्धि-संबंधी क्रियाओं में व्यय होती है।

जननांगीय अवस्था - इस अवस्था में व्यक्ति मनोलैंगिक विकास में परिपक्वता प्राप्त करता है। पूर्व की अवस्थाओं की कामेच्छाएँ, भय और दमित भावनाएँ पुनः अभिव्यक्त होने लगती हैं। लोग इस अवस्था में विपरीत लिंग के सदस्यों से परिपक्व तरीके से सामाजिक और काम संबंधी आचरण करना सीख लेते हैं। यदि इस अवस्था की विकास यात्रा में व्यक्ति को अत्यधिक दबाव अथवा अत्यासक्ति का अनुभव होता है तो इसके कारण विकास की किसी आरंभिक अवस्था पर उसका स्थिरण हो सकता है।

फ्रायड के सिद्धांत का एक यह अभिग्रह भी है कि बच्चा जब विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था की तरफ बढ़ता है तो वह जगत के प्रति अपने दृष्टिकोण को समायोजित कर लेता है। किसी एक अवस्था में असफल विकास के कारण उस अवस्था पर बच्चे का स्थिरण (fixation) हो जाता है। इस स्थिति में बच्चे का विकास एक आरंभिक अवस्था तक ही सीमित रह जाता है। उदाहरण के लिए एक बच्चा अपने विकास में लैंगिक अवस्था को सफलतापूर्वक पूरा नहीं कर पाता है तो वह इडिपस मनोग्रंथि का समाधान करने में निष्फल हो जाता है और उसके बाद भी समान लिंग के माता-पिता के प्रति आक्रामकता का अनुभव करता रहता है। इस प्रकार की असफलता के गंभीर परिणाम बच्चे को अपने जीवन में भोगने पड़ते हैं। ऐसा बालक यह विचार बना सकता है कि पुरुष सामान्यतया आक्रामक होते हैं और वह निर्भरता के रूप में महिलाओं से संबंध होने की इच्छा को विकसित कर सकता है। इस प्रकार की स्थितियों में प्रतिगमन (regression) भी एक संभावित परिणाम हो सकता है जिसमें व्यक्ति पहले को किसी अवस्था में वापस चला जाता है या लौट जाता है। प्रतिगमन उस स्थिति में घटित होता है जब विकास की किसी अवस्था में व्यक्ति द्वारा किया गया समस्याओं का समाधान पर्याप्त नहीं होता है। इस प्रकार की स्थिति में व्यक्ति द्वारा प्रदर्शित व्यवहार उस कम परिपक्व विकास की अवस्था का कोई विशिष्ट व्यवहार होता है।

पश्च-फ्रायडवादी उपागम

फ्रायड का अनुसरण करते हुए बाद में कई सिद्धांतकारों ने अपने विचार प्रतिपादित किए। इनमें से कुछ सिद्धांतकारों ने आरंभ में फ्रायड के साथ मिलकर काम किया किंतु आगे चलकर उन्होंने मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत की अपनी व्याख्या प्रस्तुत की। इन सिद्धांतकारों को नव-विश्लेषणवादी अथवा पश्च-फ्रायडवादी कहा गया जिससे कि इन्हें फ्रायड से भिन्न समझा जा सके। इन सिद्धांतों की विशेषता यह है कि इनमें इड की लैंगिक और आक्रामक प्रवृत्तियों की भूमिकाओं और अहं के संप्रत्यय के विस्तार को कम महत्त्व दिया गया है। इनके स्थान पर सर्जनात्मकता, क्षमता और समस्या-समाधान योग्यता जैसे मानवीय गुणों पर बल दिया गया है। इसमें से कुछ सिद्धांतों का संक्षेप में नीचे वर्णन किया गया है।

कार्ल युंग - उद्देश्य एवं आकांक्षाएँ

आरंभ में युंग (Jung) ने फ्रायड के साथ मिलकर काम किया किंतु बाद में फ्रायड से वह अलग हो गए। युंग ने यह देखा कि मनुष्य काम-भावना और आक्रामकता के स्थान पर उद्देश्यों और आकांक्षाओं से अधिक निर्देशित होते हैं। उन्होंने व्यक्तित्व का अपना एक सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसे विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान (analytical psychology) कहते हैं। इन सिद्धांतों का आधारभूत अभिग्रह यह है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व में प्रतिस्पर्धी शक्तियाँ एवं संरचनाएँ (जिनका संतुलित होना आवश्यक है) कार्य करती हैं; न कि व्यक्ति और समाज की माँगों अथवा वास्तविकता के बीच कोई द्वंद्व होता है।

युंग ने ये दावा किया है कि एक प्रकार का सामूहिक अचेतन (collective unconscious) होता है जिसमें आद्य प्ररूप (archetype) अथवा आद्य प्रतिमाएँ होती हैं। ये व्यक्तिगत स्तर पर अर्जित नहीं की जाती हैं, बर्कि वंशागत होती हैं। ईश्वर अथवा धरती माता आद्य प्ररूप के अच्छे उदाहरण हैं। आद्य प्ररूप मिथकों, स्वप्नों और मानव जाति की सभी कलाओं में पाए जाते हैं। युंग का यह विचार था कि आत्म एकता और एकात्मकता के लिए प्रयास करता है। यह एक आद्य प्ररूप है जिसे विभिन्न तरीकों से अभिव्यक्त किया गया है। विभिन्न परंपराओं में ऐसी अभिव्यक्तियों का अध्ययन करने के लिए युंग ने काफ़ी प्रयास किया। उनके अनुसार, एकत्व और संपूर्णता को प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति को उत्तरोत्तर अपने व्यक्तिगत और सामूहिक अचेतन में उपलब्ध प्रज्ञान के प्रति जागरूक होना चाहिए और इसके साथ संगत भाव से रहना सीखना चाहिए।

कैरेन हार्नी - आशावाद

हार्नी (Horney) फ्रायड की एक अन्य अनुयायी थीं जिन्होंने फ्रायड के आधारभूत सिद्धांतों से भिन्न एक सिद्धांत विकसित किया। उन्होंने मानव संवृद्धि और आत्मसिद्धि पर बल देते हुए मानव जीवन के एक आशावादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया।

हार्नी का प्रमुख योगदान इस बात में है कि उन्होंने फ्रायड के इस विचार को कि महिलाएँ हीन होती हैं, चुनौती दी है। उनके अनुसार, प्रत्येक लिंग के व्यक्तियों में गुण होते हैं जिसकी प्रशंसा विपरीत लिंग के व्यक्तियों को करनी चाहिए तथा किसी भी लिंग के व्यक्तियों को श्रेष्ठ अथवा हीन नहीं समझा जाना चाहिए। प्रतिरोध स्वरूप उनका यह विचार था कि महिलाएँ जैविक कारकों की तुलना में सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारकों से अधिक प्रभावित होती हैं। उन्होंने यह तर्क प्रस्तुत किया कि मनोवैज्ञानिक विकार बाल्यावस्था की अवधि में विक्षुब्ध अंतर्वैयक्तिक संबंधों (disturbed interpersonal relationship) के कारण उत्पन्न होते हैं। यदि माता-पिता का अपने बच्चे के प्रति व्यवहार उदासीन, हतोत्साहित करने वाला और अनियमित होता है तो बच्चा असुरक्षित महसूस करता है जिसके परिणामस्वरूप एक ऐसी भावना जिसे मूल दुश्चिता (basic anxiety) कहते हैं, उत्पन्न होती है। इस दुश्शिता के कारण माता-पिता के प्रति बच्चे में एक गहन अमर्ष और मूल आक्रामकता घटित होती है। अत्यधिक प्रभुत्व अथवा उदासीनता का प्रदर्शन कर एवं अत्यधिक अथवा अत्यंत कम अनुमोदन प्रदान कर माता-पिता बच्चों में एकाकीपन और असहायता की भावनाएँ उत्पन्न करते हैं जो उनके स्वस्थ विकास में बाधक होते हैं।

अल्फ्रेड एडलर - जीवन शैली एवं सामाजिक अभिरुचि

एडलर (Adler) के सिद्धांत को व्यष्टि या वैयक्तिक मनोविज्ञान (individual psychology) के रूप में जाना जाता है। उनका आधारभूत अभिग्रह यह है कि व्यक्ति का व्यवहार उद्देश्यपूर्ण एवं लक्ष्योन्मुख होता है। हममें से प्रत्येक में चयन करने एवं सर्जन करने की क्षमता होती है। हमारे व्यक्तिगत लक्ष्य (personal goals) ही हमारी अभिप्रेरणा के स्रोत होते हैं। जो लक्ष्य हमें सुरक्षा प्रदान करते हैं और हमारी अपर्याप्तता की भावना पर विजय प्राप्त करने में हमारी सहायता करते हैं, वे हमारे व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एडलर के विचार से प्रत्येक व्यक्ति अपर्याप्तता और अपराध की भावनाओं से ग्रसित होता है। इसे हम हीनता मनोग्रंथि (inferiority complex) के नाम से जानते हैं जो बाल्यावस्था में उत्पन्न होती है। इस मनोग्रंथि पर विजय प्राप्त करना इष्टतम व्यक्तित्व-विकास के लिए आवश्यक है।

एरिक फ्रॉम - मानवीय महत्त्व

फ्रायड के सिद्धांत की जैविक उन्मुखता की तुलना में फ्रॉम (Fromm) ने अपना सिद्धांत सामाजिक उन्मुखता के संदर्भ में विकसित किया। उन्होंने मनुष्य को मूल रूप से सामाजिक प्राणी (social being) माना है जिसको दूसरे लोगों से उसके संबंधों के आधार पर समझा जा सकता है। उन्होंने यह तर्क दिया कि संवृद्धि और क्षमताओं की उपलब्धि जैसे मनोवैज्ञानिक गुण स्वतंत्रता की इच्छा (desire for freedom) और न्याय तथा सत्य के लिए संघर्ष (striving for justice and truth) के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं।

फ्रॉम का विचार है कि चरित्र विशेषक (व्यक्तित्व) दूसरों के साथ हमारे होने वाले अनुभवों से विकसित होते हैं। एक समाज विशेष में जिस प्रकार की रीतियाँ और प्रथाएँ अस्तित्व में होती हैं, वही समाज की संस्कृति को स्वरूप प्रदान करती हैं। किसी समाज विशेष में लोगों के प्रभावी चरित्र विशेषक सामाजिक प्रक्रमों एवं संस्कृति को स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। फ्रॉम ने व्यक्तित्व के विकास में कोमलता एवं प्रेम जैसे विध्यात्मक गुणों को महत्त्व दिया है।

एरिक एरिक्सन - अनन्यता की खोज

एरिक्सन (Erikson) का सिद्धांत व्यक्तित्व-विकास में तर्कयुक्त, सचेतन अहं की प्रक्रियाओं पर बल देता है। उनके सिद्धांत में विकास को एक जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया और अहं अनन्यता का इस प्रक्रिया में केन्द्रीय स्थान माना गया है। किशोरावस्था के अनन्यता संकट (identity crisis) के उनके संप्रत्यय ने व्यापक रूप से ध्यान आकृष्ट किया है। एरिक्सन का मत है कि युवकों को अपने लिए एक केंद्रीय परिप्रेक्ष्य और एक दिशा निर्धारित करनी चाहिए जो उन्हें एकत्व और उद्देश्य का सार्थक अनुभव करा सके। मनोगतिक सिद्धांतों की अनेक दृष्टिकोणों से आलोचना की गई है। प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित प्रकार की हैं

1. ये सिद्धांत अधिकांशतः व्यक्ति अध्ययनों (case studies) पर आधारित हैं जिसमें परिशुद्ध, वैज्ञानिक आधार का अभाव है।

2. इनमें कम संख्या में विशिष्ट व्यक्तियों का सामान्यीकरण के लिए प्रतिदर्श के रूप में उपयोग किया गया है।

3. संप्रत्यय उचित ढंग से परिभाषित नहीं किए गए हैं और वैज्ञानिक परीक्षण के लिए उनको प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।

4. फ्रायड ने मात्र पुरुषों का मानव व्यक्तित्व के विकास के

आदि प्ररूप (prototype) के रूप में उपयोग किया है। उन्होंने महिलाओं के अनुभवों एवं परिप्रेक्षों पर ध्यान नहीं दिया है।

व्यवहारवादी उपागम

यह उपागम व्यवहार की आंतरिक गतिकी को महत्त्व नहीं देता है। व्यवहारवादी परिभाष्य, प्रेक्षणीय एवं मापन योग्य प्रदत्तों में ही विश्वास करते हैं या उनको महत्त्व देते हैं। इस प्रकार वे उद्दीपक-अनुक्रिया संयोजनों के अधिगम और उनके प्रबलन पर ही बल देते हैं। उनके अनुसार पर्यावरण के प्रति की गई व्यक्ति की अनुक्रिया के रूप में ही व्यक्तित्व को सर्वोत्तम प्रकार से समझा जा सकता है। अनुक्रिया की विशेषताओं में परिवर्तन के रूप में ही प्रायः वे विकास को समझते हैं अर्थात कोई व्यक्ति नए पर्यावरण तथा उद्दीपकों के प्रति की गई अनुक्रियाओं द्वारा ही नया व्यवहार सीखता है।

अधिकांश व्यवहारवादियों के लिए व्यक्तित्व की संरचनात्मक इकाई अनुक्रिया (response) है। प्रत्येक अनुक्रिया एक व्यवहार है जो किसी विशिष्ट आवश्यकता को संतुष्ट करने के लिए प्रकट की जाती है। जैसा कि आप जानते हैं कि हम भोजन इसलिए करते हैं क्योंकि हमें भूख लगी रहती है, किंतु भोजन के संदर्भ में हम बहुत चयनात्मक भी होते हैं। उदाहरण के लिए, बच्चे अनेक प्रकार की सब्जियाँ खाना पसंद नहीं करते हैं (जैसे- पालक, लौकी, करेला इत्यादि) किंतु धीरे-धीरे वे इनको खाना सीख लेते हैं। ऐसा व्यवहार वे क्यों करते हैं? व्यवहारवादी उपागम के अनुसार बच्चे आरंभ में इन सब्जियों को अपने माता-पिता से प्रशंसा (प्रबलन) पाने के लिए बाद में वे अंततः इन सब्जियों को खाना सीख लेते हैं, केवल इस कारण से ही नहीं कि उनके माता-पिता इस व्यवहार से प्रसन्न हैं बल्कि इस कारण से भी कि उन्हें इन सब्जियों का स्वाद लग गया है और वे इन सब्जियों को अच्छा समझते हैं। अतएव व्यवहार को संगठित करने वाली केंद्रीय प्रवृत्ति जैविक अथवा सामाजिक आवश्यकताओं में कमी है जो व्यवहार को ऊर्जित या उत्प्रेरित करती है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब अनुक्रियाएँ (व्यवहार) प्रबलित होती हैं।

कक्षा 11 में किए गए अपने अध्ययन से आप स्मरण कर सकते हैं कि विभिन्न अधिगम सिद्धांत उद्दीपक, अनुक्रिया और प्रबलन के विभिन्न तरीकों से उपयोग को सन्निहित। प्राचीन अनुबंधन (पावलव), नैमित्तिक अनुबंधन (स्किनर) और प्रेक्षणात्मक अधिगम (बंदूरा) के सिद्धांतों से आप भली-भाँति परिचित हैं। इन सिद्धांतों में अधिगम और व्यवहार के संपोषण का विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया गया है। इन सिद्धांतों के नियमों का व्यक्तित्व-सिद्धांतों के विकास में व्यापक रूप से उपयोग किया गया है। उदाहरण के लिए प्रेक्षणात्मक अधिगम सिद्धांत अधिगम में चिंतन प्रक्रियाओं को अत्यधिक महत्त्व देता है किंतु प्राचीन एवं नैमित्तिक अनुबंधन सिद्धांतों में चिंतन प्रक्रियाओं को प्रायः कोई स्थान नहीं दिया गया है। इसी प्रकार प्रेक्षणात्मक अधिगम सिद्धांत सामाजिक अधिगम (प्रेक्षण एवं दूसरों के अनुकरण पर आधारित) और आत्म-नियमन पर बल देता है जो अन्य सिद्धांतों में अनुपस्थित हैं।

क्रियाकलाप 2.3

अपने और अपने मित्रों के व्यवहार की उन क्रियाकलाप विशेषताओं का प्रेक्षण कीजिए और उनको नोट कीजिए जिसे लोकप्रिय युवकों को देखकर आत्मसात किया गया है।

सांस्कृतिक उपागम

यह उपागम पारिस्थितिक और सांस्कृतिक पर्यावरण की विशेषताओं के संदर्भ में व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करता है। इसमें यह प्रस्तावित किया गया है कि किसी समूह को ‘आर्थिक अनुरक्षण प्रणाली’ सांस्कृतिक और व्यवहारपरक भिन्नताओं की उत्पत्ति में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। जलवायु-संबंधी दशाएँ, वासस्थान के भू-भाग की प्रकृति और इसमें भोजन (वनस्पति और जीवजंतु) की उपलब्धता न केवल लोगों की आर्थिक गतिविधियों को निर्धारित करती है बल्कि उनके व्यवस्थापन के संरूपों, सामाजिक संरचनाओं, श्रम विभाजन और अन्य पक्षों, जैसे बाल-पोषण रीतियों को भी निर्धारित करती है। सम्मिलित रूप से ये सारे तत्व किसी बच्चे के समग्र अधिगम वातावरण का निर्माण करते हैं। लोगों के कौशल, योग्यताएँ, व्यवहार-शैलियाँ और मूल्य प्राथमिकताएँ इन विशेषताओं से घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं। अनुष्ठान, उत्सव, धार्मिक क्रियाकलाप, कला, मनोरंजन और खेल-कूद वे साधन हैं जिनके माध्यम से लोगों का व्यक्तित्व किसी संस्कृति में प्रक्षेपित होता है। लोग विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व (व्यवहारपरक) गुणों का विकास किसी समूह के जीवन की पारिस्थितिक और सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रति अनुकूलन करने के प्रयास में करते हैं। इस प्रकार सांस्कृतिक उपागम पारिस्थितिकी और संस्कृति की माँगों के प्रति व्यक्तियों या समूहों के अनुकूलन के रूप में व्यक्तित्व को स्वीकार करता है।

सांस्कृतिक उपागम के इन पक्षों को एक मूर्त उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। जैसा कि आप जानते हैं कि विश्व की जनसंख्या का एक बड़ा भाग आज भी वन और पर्वतीय क्षेत्रों में रहता है जिनकी जीविका आधारभूत साधन शिकार और संग्रहण (आर्थिक गतिविधियाँ) होते हैं। झारखंड के बिरहोर (एक जनजाति समूह) इसी प्रकार की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें से अधिकांश खानाबदोश का जीवन व्यतीत करते हैं। छोटी टोलियों में ये एक वन से दूसरे वन तक सतत भ्रमण करते रहते हैं और फलों, कंदों, कुकुरमुत्तों एवं शहद आदि वन उत्पादों का संग्रह और उपयोग करते हैं। बिरहोर समाज में बच्चों को आरंभिक वर्षों से ही वनों में घूमने तथा शिकार करने और वन-उत्पदों का संग्रह करने के कौशलों को सीखने की पर्याप्त स्वतंत्रता दे दी जाती है। उनकी बाल-समाजीकरण रीतियों में बच्चों को स्वतंत्र (बड़ों की सहायता के बिना भी अनेक कार्यों को करना), स्वायत्त (अपने लिए अनेक निर्णयों को लेना) और उपलब्धि-उन्मुख ( शिकार जैसे कार्यों में अंतर्निहित ज़ोखिमों और चुनौतियों को स्वीकार करना) बनाना जीवन के आरंभिक वर्षों से ही शुरू हो जाता है।

कृषक समाजों में बच्चों का समाजीकरण बड़ों के प्रति आज्ञापालन, छोटों के प्रति पोषण का भाव और अपने कर्तव्यों के प्रति उत्तरदायित्व विकसित करने के लिए होता है। चूँकि व्यवहार के ये गुण कृषक समाजों में लोगों को अधिक उपयोगी बनाते हैं इसलिए ये गुण लोगों के व्यक्तित्व की प्रभावी विशेषताएँ हो जाते हैं। ये विशेषताएँ शिकार-संग्रह करने वाले समाजों में अधिक उपयोगी (और इसलिए अत्यधिक सम्मानित समझे जाने वाले) स्वतंत्रता, स्वायत्तता और उपलब्धि जैसे गुणों से भिन्न होती हैं। विभिन्न आर्थिक अनुसरणों और सांस्कृतिक माँगों के कारण शिकार-संग्रह करने वाले तथा कृषक समाजों के बच्चे भिन्न प्रकार के व्यक्तित्व-प्रतिरूप विकसित एवं प्रदर्शित करते हैं।

मानवतावादी उपागम

मानवतावादी सिद्धांत मुख्यतः फ्रायड के सिद्धांत के प्रत्युत्तर में विकसित हुए। व्यक्तित्व के संदर्भ में मानवतावादी परिप्रेक्ष्य के विकास में कार्ल रोजर्स (Carl Rogers) और अब्राहम मैस्लो (Abraham Maslow) ने विशेष रूप से योगदान किया है। हम उनके सिद्धांतों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे।

रोजर्स द्वारा प्रस्तावित सर्वाधिक महत्वपूर्ण विचार एक पूर्णतः प्रकार्यशील व्यक्ति (fully functioning person) का है। उनका विश्वास है कि व्यक्तित्व के विकास के लिए संतुष्टि अभिप्रेरक शक्ति है। लोग अपनी क्षमताओं, संभाव्यताओं और प्रतिभाओं को संभव सर्वोत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं। व्यक्तियों में एक सहज प्रवृत्ति होती है जो उन्हें अपने वंशागत प्रकृति की सिद्धि या प्राप्ति के लिए निर्दिष्ट करती है।

मानव व्यवहार के बारे में रोजर्स ने दो आधारभूत अभिग्रह निर्मित किए हैं। एक यह कि व्यवहार लक्ष्योन्मुख और सार्थक होता है और दूसरा यह कि लोग (जो सहज रूप से अच्छे होते हैं) सदैव अनुकूली तथा आत्मसिद्धि वाले व्यवहार का चयन करेंगे।

रोजर्स का सिद्धांत उनके निदानशाला में रोगियों को सुनने से प्राप्त अनुभवों से विकसित हुआ है। उन्होंने यह ध्यान दिया

चित्र 2.3 समायोजन एवं आत्म-संप्रत्यय का प्रतिरूप

बॉक्स 2.3
स्वस्थ व्यक्ति कौन है ?

मानवतावादी सिद्धांतकारों का मत है कि स्वस्थ व्यक्तित्व मात्र समाज के प्रति समायोजन में ही निहित नहीं होता है। यह अपने को गहराई से जानने की जिज्ञासा, बिना छदूमवेश के अपनी भावनाओं के प्रति ईमानदार होने और जहाँ-तहाँ एक जैसा बने रहने की प्रवृत्ति को भी सन्निहित करता है। उनके अनुसार, स्वस्थ लोगों में अधोलिखित विशेषताएँ होती हैं :

1. वे अपने, अपनी भावनाओं और अपनी सीमाओं के प्रति जागरूक होते हैं; अपने को स्वीकार करते हैं और अपने जीवन को जैसा बनाते हैं, उसके प्रति उत्तरदायी होते हैं; साथ ही कुछ बन जाने का साहस भी होता है।

2. वे वर्तमान में रहते हैं; वे किसी बंधन में नहीं फँसते हैं।

3. वे अतीत में नहीं जीते हैं और दुश्चिताजनक अपेक्षाओं और विकृत रक्षा के माध्यम से भविष्य को लेकर परेशान नहीं होते हैं।

कि उनके सेवार्थियों के अनुभव में आत्म एक महत्वपूर्ण तत्व था। इस प्रकार, उनका सिद्धांत आत्म के संप्रत्यय के चतुर्दिक संरचित है। उनके सिद्धांत का अभिग्रह है कि लोग सतत अपने वास्तविक आत्म की सिद्धि या प्राप्ति की प्रक्रिया में लगे रहते हैं।

रोजर्स ने सुझाव दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास आदर्श अहं या आत्म का एक संप्रत्यय होता है। एक आदर्श आत्म वह आत्म होता है जो कि एक व्यक्ति बनना अथवा होना चाहता है। जब वास्तविक आत्म और आदर्श आत्म के बीच समरूपता होती है तो व्यक्ति सामान्यतया प्रसन्न रहता है। किंतु दोनों प्रकार के आत्म के बीच विसंगति के कारण प्रायः अप्रसन्नता और असंतोष की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। रोजर्स का एक आधारभूत सिद्धांत है कि लोगों में आत्मसिद्धि के माध्यम से आत्म-संप्रत्यय को अधिकतम सीमा तक विकसित करने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रक्रिया में आत्म विकसित, विस्तारित और अधिक सामाजिक हो जाता है।

रोजर्स व्यक्तित्व-विकास को एक सतत प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। इसमें अपने आपका मूल्यांकन करने का अधिगम और आत्मसिद्धि की प्रक्रिया में प्रवीणता सन्निहित होती है। उन्होंने आत्म-संप्रत्यय के विकास में सामाजिक प्रभावों की भूमिका को स्वीकार किया है। जब सामाजिक दशाएँ अनुकूल होती हैं, तब आत्म-संप्रत्यय और आत्म-सम्मान उच्च होता है। इसके विपरीत, जब सामाजिक दशाएँ प्रतिकूल होती हैं, तब आत्म-संप्रत्यय और आत्म-सम्मान निम्न होता है। उच्च आत्म-संप्रत्यय और उच्च आत्म-सम्मान रखने वाले लोग सामान्यतया नम्य एवं नए अनुभवों के प्रति मुक्त भाव से ग्रहणशील होते हैं ताकि वे अपने सतत विकास और आत्मसिद्धि में लगे रह सकें। यह स्थिति अपेक्षा रखती है कि अशर्त सकारात्मक आदर (unconditional positive regard) का वातावरण अवश्य निर्मित किया जाए ताकि लोगों के आत्म-संप्रत्यय की वृद्धि को सुनिश्चित किया जा सके। सेवार्थी-केंद्रित चिकित्सा (client-centred therapy), जिसे रोजर्स ने विकसित किया, मूल रूप से इस प्रकार की स्थिति को उत्पन्न करने का प्रयास करती है।

आप पहले से ही कक्षा 11 में अभिप्रेरणा के अध्ययन के संदर्भ में मैस्लो द्वारा प्रतिपादित आवश्यकताओं के पदानुक्रम से परिचित हैं। मैस्लो ने आत्मसिद्धि (self-actualisation) की लब्धि या प्राप्ति के रूप में मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ लोगों की एक विस्तृत व्याख्या दी है। आत्मसिद्धि वह अवस्था होती है जिसमें लोग अपनी संपूर्ण संभाव्यताओं को विकसित कर चुके होते हैं। मैस्लो ने मनुष्यों का एक आशावादी और सकारात्मक दृष्ट्टिकोण विकसित किया है जिसके अंतर्गत मानव में प्रेम, हर्ष और सर्जनात्मक कार्यों को करने की संभाव्यता होती है। मनुष्य अपने जीवन को स्वरूप देने में और आत्मसिद्धि को प्राप्त करने में स्वतंत्र माने गए हैं। अभिप्रेरणाओं, जो हमारे जीवन को नियमित करती हैं, के विश्लेषण के द्वारा आत्मसिद्धि को संभव बनाया जा सकता है। हम जानते हैं कि जैविक, सुरक्षा और आत्मीयता की आवश्यकताएँ ( उत्तरजीविता आवश्यकताएँ) पशुओं और मनुष्यों दोनों में पाई जाती हैं। अतएव किसी व्यक्ति का मात्र इन आवश्यकताओं की संतुष्टि में संलग्न होना उसे पशुओं के स्तर पर ले आता है। मानव जीवन की वास्तविक यात्रा आत्म-सम्मान और आत्मसिद्धि जैसी आवश्यकताओं के अनुसरण से आरंभ होती है। मानवतावादी उपागम जीवन के सकारात्मक पक्षों के महत्त्व पर बल देता है (बॉक्स 2.3 देखें)।

व्यक्तित्व का मूल्यांकन

लोगों को जानने, समझने और उनका वर्णन करने का कार्य ऐसा है जिससे दैनंदिन जीवन में प्रत्येक व्यक्ति संबद्ध होता है। जब हम नए लोगों से मिलते हैं तो हम उनको समझने का प्रयास करते हैं और साथ ही उनसे अंतःक्रिया करने के पहले ही हम ये भविष्यकथन भी करते हैं कि वे क्या कर सकते हैं। हम अपने व्यक्तिगत जीवन में अपने पूर्वानुभवों, प्रेक्षणों, वार्तालापों और दूसरे लोगों से प्राप्त सूचनाओं पर विश्वास करते हैं। इस उपागम के आधार पर दूसरों को समझना अनेक कारकों से प्रभावित हो सकता है जो हमारे निर्णयों को अतिरंजित कर वस्तुनिष्ठता को कम कर सकते हैं। इसलिए व्यक्तित्वों का विश्लेषण करने के लिए हमें अपने प्रयासों को अधिक औपचारिक रूप से संगठित करने की आवश्यकता होती है। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की समझा के लिए सोद्देश्य औपचारिक प्रयास को व्यक्तित्व- मूल्यांकन (personality assessment) कहा जाता है।

मूल्यांकन का तात्पर्य उन प्रक्रियाओं से है जिनका उपयोग कुछ विशेषताओं के आधार पर लोगों के मूल्यांकन या उनके मध्य विभेदन के लिए किया जाता है। मूल्यांकन का लक्ष्य लोगों के व्यवहारों को न्यूनतम त्रुटि और अधिकतम परिशुद्धता के साथ समझना और उनकी भविष्यवाणी करना होता है। मूल्यांकन में किसी स्थिति विशेष में व्यक्ति सामान्यतया कौन-सा व्यवहार करता है और कैसे करता है हम यह समझने का प्रयास करते हैं। हमारी समझ को उन्नत करने के अतिरिक्त, मूल्यांकन निदान, प्रशिक्षण, स्थानन, परामर्श और अन्य उद्देश्यों के लिए भी बहुत उपयोगी है।

मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न तरीकों से व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने का प्रयास किया है। सामान्यतः सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली तकनीकों के अंतर्गत मनोमितिक परीक्षण (psychometric tests), आत्म-प्रतिवेदन माप (self-report measures), प्रक्षेपी तकनीकें (projective techniques) और व्यवहारपरक विश्लेषण (behavioural analysis) आते हैं। इन तकनीकों के मूल विभिन्न सैद्धांतिक उन्मुखताओं में हैं इसलिए ये तकनीक व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालती हैं। पहले के अध्याय में आपने मनोमितिक परीक्षणों के बारे में पढ़ा होगा। हम यहाँ कुछ अन्य विधियों की चर्चा करेंगे।

आत्म-प्रतिवेदन माप

ऑलपोर्ट ने सुझाव दिया है कि किसी व्यक्ति के बारे में मूल्यांकन करने की सर्वोत्तम विधि है उससे उसके बारे में पूछना। उनका यह दृष्टिकोण आत्म-प्रतिवेदन मापों के उपयोग का कारण बना। ये माप उचित रूप से संरचित होते हैं और प्रायः ऐसे सिद्धांतों पर आधारित होते हैं जिसमें प्रयोज्यों को किसी प्रकार की निर्धारण मापनी पर शाब्दिक अनुक्रियाएँ देनी होती हैं। इस विधि में प्रयोज्य को विभिन्न कथनों के संदर्भ में अपनी भावनाओं के बारे में वस्तुनिष्ठ रूप से प्रतिवेदन देना अपेक्षित होता है। इन अनुक्रियाओं को उनके मूल रूप (अकिंत मूल्य) में स्वीकार कर लिया जाता है। इन अनुक्रियाओं को मात्रात्मक रूप में अंक दिए जाते हैं और परीक्षण के लिए विकसित मानकों के आधार पर उनकी व्याख्या की जाती है। कुछ प्रसिद्ध आत्म-प्रतिवेदन मापों का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।

मिनेसोटा बहुपक्षीय व्यक्तित्व सूची (एम.एम.पी.आई.)

यह सूची एक परीक्षण के रूप में व्यक्तित्व-मूल्यांकन में व्यापक रूप से उपयोग की गई है। हाथवे (Hathaway) एवं मैकिन्ले (Mckinley) ने मनोरोग-निदान के लिए इस परीक्षण का एक सहायक उपकरण के रूप में विकास किया था किंतु यह परीक्षण विभिन्न मनोविकारों की पहचान करने के लिए अत्यंत प्रभावी पाया गया है। इसका परिशोधित एम.एम.पी.आई. -2 के रूप में उपलब्ध है। इसमें 567 कथन हैं। प्रयोज्य को अपने लिए प्रत्येक कथन के ‘सही’ अथवा ‘गलत’ होने के बारे में निर्णय लेना होता है। यह परीक्षण 10 उपमापनियों में विभाजित है जो स्वकायदुश्चिता रोग, अवसाद, हिस्टीरिया, मनोविकृत विसामान्य, पुरुषत्व-स्त्रीत्व, व्यामोह, मनोदौर्बल्य, मनोविदलता, उन्माद और सामाजिक अंतर्मुखता के निदान करने का प्रयत्न करता है। भारत में मल्लिक (Mallick) एवं जोशी (Joshi) ने जोधपुर बहुपक्षीय व्यक्तित्व सूची (जे.एम.पी. आई.) एम.एम.पी.आई. की तरह ही विकसित की है।

आइजेंक व्यक्तित्व प्रश्नावली (ई.पी.क्यू.)

आइजेंक द्वारा विकसित इस परीक्षण ने आरंभ में व्यक्तित्व के दो आयामों-अंतर्मुखता-बहिर्मुखता (introverted-extraverted) और सांवेगिक स्थिरता-अस्थिरता (emotionally stable-emotionally unstable)- का मूल्यांकन किया। 32 व्यक्तित्व विशेषक इन आयामों की विशेषता के रूप में बताए गए हैं। बाद में चलकर आइजेंक ने एक तीसरा आयाम मनस्तापिता (psychoticism) इस परीक्षण में जोड़ा। यह मनोविकारों से संबंधित है जो दूसरों के लिए भावनाओं में कमी, लोगों के साथ अंतःक्रिया करने का एक कठोर तरीका और सामाजिक परंपराओं की अवज्ञा करने की प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है। इस आयाम पर उच्च अंक प्राप्त करने वाले व्यक्ति आक्रामक, अहंकेंद्रिक और समाजविरोधी होते हैं। इस परीक्षण का भी व्यापक रूप से उपयोग किया गया है।

सोलह व्यक्तित्व कारक प्रश्नावली (16 पी.एफ.)

यह परीक्षण कैटेल के द्वारा विकसित किया गया है। अपने अध्ययनों के आधार पर उन्होंने व्यक्तित्व का वर्णन करने वाले कारकों के एक बृहत् समुच्चय की पहचान की और बाद में मूल व्यक्तित्व संरचना की पहचान के लिए कारक विश्लेषण का उपयोग किया। आप इस सांख्यिकीय तकनीक के बारे में बाद में सीखेंगे। इस परीक्षण में घोषणात्मक कथन दिए गए हैं और प्रयोज्य इसके विशिष्ट स्थिति के प्रति दिए गए विकल्पों के समुच्चय से किसी एक विकल्प का चयन कर अनुक्रिया देता है। इस परीक्षण का उपयोग उच्च विद्यालय स्तर के विद्यार्थियों एवं वयस्कों के लिए किया जा सकता है। यह परीक्षण व्यावसायिक निर्देशन, व्यावसायिक अन्वेषण एवं व्यावसायिक परीक्षण में अत्यंत उपयोगी पाया गया है।

कुछ लोकप्रिय परीक्षणों के अतिरिक्त जो आत्म-प्रतिवेदन तकनीक का उपयोग करते हैं, जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है, कुछ दूसरे परीक्षण भी हैं जो व्यक्तित्व के विशिष्ट आयामों (जैसे - सत्तावाद, नियंत्रण-स्थान, आशावाद इत्यादि) का मूल्यांकन करने का प्रयास करते हैं। आगे मनोविज्ञान का अध्ययन करने पर आप इनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे।

आत्म-प्रतिवेदन मापों में अनेक समस्याएँ या न्यूनताएँ पाई जाती हैं। सामाजिक वांछनीयता (social desirability) उनमें से एक है। उत्तरदाता में सामाजिक दृष्टि से वांछनीय तरीके से ही एकांशों के प्रति अनुक्रिया देने की प्रवृत्ति पाई जाती है। दूसरी समस्या है अनुमनन (acquiescence)। प्रयोज्य में एक प्रवृत्ति यह भी पाई जाती है कि वह एकांशों अथवा प्रश्नों की विषयवस्तु से निरपेक्ष होकर उससे सहमत हो जाता है। यह प्राय: देखा जा सकता है जब प्रयोज्य, एकांशों के प्रति ‘हाँ’ की अनुक्रिया देता है। इन प्रवृत्तियों से व्यक्तित्व के मूल्यांकन की विश्वसनीयता कम हो जाती है।

यहाँ इस चरण पर आवश्यक है कि एक सावधानी के प्रति आपका ध्यान आकर्षित किया जाए। यह याद रखें कि मनोवैज्ञानिक परीक्षण और व्यक्तित्व की समझ के लिए उच्चस्तरीय कौशल और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। जब तक आप किसी विशेषज्ञ के सचेत पर्यवेक्षण में इष्टतम स्तर तक इन कौशलों को अर्जित न कर लें तब तक आपको अपने उन मित्रों जो मनोविज्ञान का अध्ययन नहीं करते हैं, के व्यक्तित्व का परीक्षण और उसकी व्याख्या करने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए।

प्रक्षेपी तकनीक

अब तक व्यक्तित्व के मूल्यांकन की जिन तकनीकों का वर्णन किया गया है वे सब प्रत्यक्ष तकनीकें हैं जिनमें व्यक्ति से सीधे उसके बारे में सूचनाएँ प्राप्त करके उसके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है और वह व्यक्ति स्पष्ट रूप से जानता है कि उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जा रहा है। इन स्थितियों में लोग प्राय: आत्मचेतन का अनुभव करते हैं और अपनी निजी या अंतरंग भावनाओं, विचारों और अभिप्रेरणाओं को व्यक्त करने में हिचकिचाते हैं। वे जब भी ऐसा करते हैं तो प्रायः सामाजिक दृष्टि से वांछनीय तरीके के अनुरूप व्यवहार करने का प्रयास करते हैं।

मनोविश्लेषनात्मक सिद्धांत के अनुसार मानव व्यवहार का एक बड़ा भाग अचेतन अभिप्रेरणाओं द्वारा नियमित होता है। व्यक्तित्व-मूल्यांकन की प्रत्यक्ष विधियों द्वारा हमारे व्यवहार के अचेतन पक्ष को उद्घाटित नहीं किया जा सकता है। इसलिए ये विधियाँ किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का वास्तविक वर्णन करने में असफल हो जाती हैं। मूल्यांकन की अप्रत्यक्ष विधियों का उपयोग करके इन समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। प्रक्षेपी तकनीकें इसी वर्ग की विधियों के अंतर्गत आती हैं।

प्रक्षेपी तकनीकों का विकास अचेतन अभिप्रेरणाओं और भावनाओं का मूल्यांकन करने के लिए किया गया है। ये तकनीकें इस अभिग्रह पर आधारित हैं कि कम संरचित अथवा असंरचित उद्दीपक अथवा स्थिति व्यक्तियों को उस स्थिति पर अपनी भावनाओं, इच्छाओं और आवश्यकताओं को प्रक्षेपन करने का अवसर प्रदान करता है। विशेषजों द्वारा इन प्रक्षेपणों की व्याख्या की जाती है। विभिन्न प्रकार की प्रक्षेपी तकनीकें विकसित की गई हैं जिनमें व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए विभिन्न प्रकार की उद्दीपक सामग्रियों और स्थितियों का उपयोग किया जाता है। इनमें से कुछ तकनीकों में उद्दीपकों (जैसे-शब्द, मसिलक्ष्म या स्याही-धब्बा) के साथ प्रयोज्य को अपने साहचर्यों को बताने की आवश्यकता होती है, कुछ में चित्रों को देखकर कहानी लिखनी होती है, कुछ में वाक्यों को पूरा करने की आवश्यकता होती है, कुछ में आरेखों द्वारा अभिव्यक्ति अपेक्षित होती है और कुछ में उद्दीपकों के एक बृहत् समुच्चय में से उद्दीपकों का वरण करने के लिए कहा जाता है।

यद्यपि इन तकनीकों में प्रयुक्त उद्दीपकों और अनुक्रियाओं की प्रकृति में पर्याप्त भिन्नताएँ पाई जाती हैं फिर भी इन सभी में अधोलिखित विशेषताएँ समान रूप से पाई जाती हैं-

1. उद्दीपक सापेक्ष रूप से अथवा पूर्णतः असंरचित और अनुपयुक्त ढंग से परिभाषित होते हैं।

2. जिस व्यक्ति का मूल्यांकन किया जाता है उसे साधारणतया मूल्यांकन के उद्देश्य, अंक प्रदान करने की विधि और व्याख्या के बारे में नहों बताया जाता है।

3. व्यक्ति को यह सूचना दे दी जाती है कि कोई भी अनुक्रिया सही या गलत नहीं होती है।

4. प्रत्येक अनुक्रिया व्यक्तित्व के एक महत्वपूर्ण पक्ष को प्रकट करने वाली समझी जाती है।

5. अंक प्रदान करना और व्याख्या करना लंबा (अधिक समय लेने वाला) और कभी-कभी आत्मनिष्ठ होता है। प्रक्षेपी तकनीकें मनोमितिक परीक्षणों से अनेक प्रकार से भिन्न होती है। वस्तुनिष्ठ ढंग से प्रक्षेपी तकनीकों में अंक प्रदान नहीं किये जा सकते हैं। इनमें प्रायः गुणात्मक विश्लेषणों की आवश्यकता होती है जिसके लिए कठिन प्रशिक्षण अपेक्षित है। आगे कुछ प्रसिद्ध प्रक्षेपी तकनीकों का संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है।

रोर्शा मसिलक्ष्म परीक्षण

यह परीक्षण हर्मन रोर्शा (Hermann Rarschach) द्वारा विकसित किया गया है। इस परीक्षण में 10 मसिलक्ष्म या स्याही-धब्बे होते हैं। उनमें से पाँच काली और सफेद रंगों के हैं, दो कुछ लाल स्याही के साथ हैं और बाकी तीन पेस्टल रंगों के हैं। धब्बे एक विशिष्ट आकृति या आकार के साथ सममितीय रूप में दिए गए हैं। प्रत्येक धब्बा $7 " \times 10 “$ के आकार के एक सफेद कार्ड बोर्ड के केंद्र में मुद्रित ( छपा हुआ) है। ये धब्बे मूलतः एक कागज़ के पन्ने पर स्याही गिरा-कर फिर उसे आधे पर से मोड़कर बनाए गए थे (इसलिए इन्हें मसिलक्ष्म परीक्षण कहा जाता है)। इन कार्डों को व्यक्तिगत रूप से प्रयोज्यों को दो चरणों में दिखाया जाता है। पहले चरण को निष्पादन मुख्य अथवा उपयुक्त (performance proper) कहते हैं जिसमें प्रयोज्यों को कार्ड दिखाए जाते हैं और उनसे पूछा जाता है कि प्रत्येक कार्ड में वे क्या देख रहे हैं। दूसरे चरण को पूछताछ (inquiry) कहा जाता है जिसमें प्रयोज्य से यह पूछकर कि कहाँ, कैसे और किस आधार पर कोई विशिष्ट अनुक्रिया उनके द्वारा की गई है, इस आधार पर उनकी अनुक्रियाओं का एक विस्तृत विवरण तैयार किया जाता है। प्रयोज्य की अनुक्रियाओं को एक सार्थक संदर्भ में रखने के लिए बिल्कुल ठीक या सटीक निर्णय आवश्यक है। इस परीक्षण के उपयोग और व्याख्या के लिए विस्तृत प्रशिक्षण आवश्यक होती है। प्रदत्तों की व्याख्या के लिए कंप्यूटर तकनीकों को भी विकसित किया गया है। रोर्शा मसिलक्ष्म का एक उदाहरण चित्र 2.4 में दिया गया है।

चित्र 2.4 रोर्शा मसिलक्ष्म का एक उदाहरण

कथानक संप्रत्यक्षण परीक्षण (टी.ए.टी.)

यह परीक्षण मॉर्गन (morgan) एवं मरे (murray) द्वारा विकसित किया गया है। मसिलक्ष्म परीक्षण की तुलना में यह थोड़ा अधिक संरचित परीक्षण है। इस परीक्षण में 30 काली और सफेद रंगों के सचित्र कार्ड और एक कार्ड खाली (सादा) होते है। प्रत्येक सचित्र कार्ड एक या अधिक लोगों को विभिन्न स्थितियों में चित्रित करता है। प्रत्येक चित्र को एक कार्ड पर मुद्रित किया गया है। कुछ कार्डों का उपयोग वयस्क पुरुषों या महिलाओं पर होता है। अन्य कार्डों का उपयोग बालकों या बालिकाओं पर तथा कुछ का संयुक्त रूप से उपयोग होता है। एक प्रयोज्य के लिए 20 कार्ड उपयुक्त होते हैं, हालाँकि इससे कम संख्या में भी कार्ड (यहाँ तक कि पाँच) का उपयोग सफलतापूर्वक किया गया है।

कार्डों को एक-एक करके प्रयोज्य के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और प्रयोज्य को चित्र में प्रस्तुत स्थिति का एक कहानी द्वारा वर्णन करने के लिए कहा जाता है - किस कारण से यह स्थिति उत्पन्न हुई, इस क्षण क्या घटित हो रहा है, भविष्य में क्या घटित होगा और चित्र में प्रस्तुत विभिन्न पात्र क्या अनुभव और चिंतन कर रहे हैं? टी.ए.टी. पर प्राप्त अनुक्रियाओं को अंक प्रदान करने की एक मानक प्रक्रिया उपलब्ध है। बच्चों के लिए और वृद्धों के लिए इस परीक्षण को रूपांतरित किया गया है। उमा चौधरी (Uma Chaudhary) द्वारा किया गया टी.ए.टी. का भारतीय

चित्र 2.5 ट..ए.टी. के एक कार्ड के चित्र का उदाहरण

अनुकूलन भी उपलब्ध है। एक टी.ए.टी. कार्ड का उदाहरण चित्र 2.5 में दिया गया है।

रोजेनज्विग का चित्रगत कुंठा अध्ययन (पी.-एफ. अध्ययन)

यह परीक्षण रोजेनज्विग (Rosenzweig) द्वारा यह जानकारी प्राप्त करने के लिए विकसित किया गया कि कुंठा उत्पन्न करने वाली स्थिति में लोग कैसे आक्रामक व्यवहार अभिव्यक्त करते हैं। यह परीक्षण व्यंग्य चित्रों की सहायता से विभिन्न स्थितियों को प्रदर्शित करता है जिसमें एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को कुंठित करते हुए अथवा किसी कुंठात्मक दशा के प्रति दूसरे व्यक्ति का ध्यान आकर्षित करते हुए दिखाया जाता है। प्रयोज्य से यह पूछा जाता है कि दूसरा व्यक्ति (कुंठित) क्या कहेगा अथवा क्या करेगा। अनुक्रियाओं का विश्लेषण आक्रामकता के प्रकार एवं दिशा के आधार पर किया जाता है। इस बात की जाँच करने का प्रयास किया जाता है कि क्या बल कुंठा उत्पन्न करने वाली वस्तु अथवा कुंठित व्यक्ति के संरक्षण अथवा समस्या के रचनात्मक समाधान पर दिया गया है। आक्रामकता की दिशा पर्यावरण के प्रति अथवा स्वयं के प्रति हो सकती है। यह भी संभव है कि स्थिति को टाल देने अथवा उसके महत्त्व को घटा देने के प्रयास में आक्रामकता की स्थिति समाप्त भी हो सकती है। पारीक (Pareek) ने भारतीय जनसंख्या पर उपयोग के लिए इस परीक्षण को रूपांतरित किया है।

वाक्य-समापन परीक्षण

इस परीक्षण में अनेक अपूर्ण वाक्यों का उपयोग किया जाता है। वाक्य का आरंभिक भाग पहले प्रयोज्य के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और उसके बाद प्रयोज्य को वाक्य के अंतिम भाग को समाप्त करना होता है। ऐसा अभिगृहीत है कि वाक्य के अंतिम भाग को प्रयोज्य जिस तरह समाप्त करता है, वह उसकी अभिवृत्तियों, अभिप्रेरणाओं और द्वंद्वों को प्रतिबिंबित करता है। यह परीक्षण प्रयोज्यों को अनेक ऐसे अवसर प्रदान करता है कि वे अपनी अंतर्निहित अचेतन अभिप्रेरणाओं को अभिव्यक्त कर सकें। वाक्य-समापन परीक्षण के कुछ प्रतिदर्श एकांशों को नीचे दिया गया है-

1. मेरे पिता __________________________________

2. मुझे सबसे अधिक भय __________________________________

3. मेरी माँ के बारे में सबसे अच्छी बात है कि __________________________________

4. मुझे इस बात पर गर्व है कि __________________________________

व्यक्तंकन परीक्षण

यह एक सरल परीक्षण है जिसमें प्रयोज्य को एक कागज़ के पन्ने पर किसी व्यक्ति का चित्रांकन करने के लिए कहा जाता है। चित्रण को सुकर बनाने के लिए प्रयोज्य को एक पेन्सिल और रबड़ (मिटाने का) प्रदान किया जाता है। चित्रांकन के समापन के बाद प्रयोज्य से एक विपरीत लिंग के व्यक्ति का चित्रांकन करने के लिए कहा जाता है। अंततः प्रयोज्य से उस व्यक्ति के बारे में एक कहानी लिखने को कहा जाता है मानो वह किसी उपन्यास या नाटक का एक पात्र हो। व्याख्याओं के कुछ उदाहरण निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

1. मुखाकृति का लोप यह संकेत करता है कि व्यक्ति किसी उच्चस्तरीय द्वृंद्व से अभिभूत अंतर्वैयक्तिक संबंध को टालने का प्रयास कर रहा है।

2. गरदन पर आलेखीय बल देना आवेगों के नियंत्रण के अभाव का संकेत करता है।

3. अनानुपातिक रूप से बड़ा सिर आंगिक रूप से मस्तिष्क रोग और सरदर्द के प्रति दुश्चिता को सूचित करता है। प्रक्षेपी तकनीकों की सहायता से व्यक्तित्व का विश्लेषण अत्यंत रोचक प्रतीत होता है। यह हमें किसी व्यक्ति की अचेतन अभिप्रेरणाओं, गहन द्वंद्रों और संवेगात्मक मनोग्रंथियों को समझने में सहायता करता है। यद्यपि इन तकनीकों में अनुक्रियाओं की व्याख्या के लिए परिष्कृत कौशलों और विशिष्ट प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त अंक प्रदान करने की विश्वसनीयता और व्याख्याओं की वैधता से संबंधित कुछ समस्याएँ भी होती हैं। किंतु व्यावसायिक मनोवैज्ञानिकों ने इन तकनीकों को नितांत उपयोगी पाया है।

व्यवहारपरक विश्लेषण

विभिन्न स्थितियों में व्यक्ति का व्यवहार हमें उसके व्यक्तित्व के बारे में सार्थक सूचनाएँ प्रदान कर सकता है। व्यवहार का प्रेक्षण व्यवहारपरक विश्लेषण के आधार का काम करता है। एक प्रेक्षक की रिपोर्ट में जो प्रदत्त होते हैं, वे साक्षात्कार (interview), प्रेक्षण (observation), निर्धारण (rating) , नाम निर्देशन (nomination) और स्थितिपरक परीक्षणों (situational tests) से प्राप्त होते हैं। हम इन विभिन्न प्रक्रियाओं की कुछ विस्तार से जाँच करेंगे।

साक्षात्कार

व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए साक्षात्कार एक सामान्यतः प्रयुक्त होने वाली विधि है। इसमें मूल्यांकन किए जाने वाले व्यक्ति से बातचीत की जाती है और उससे कुछ विशिष्ट प्रश्न पूछे जाते हैं। नैदानिक साक्षात्कारों में साधारणतया गहन रूप से साक्षात्कार किए जाते हैं जिसमें प्रयोज्यों द्वारा दिए जाने वाले उत्तरों के परे भी दृष्टि रखी जाती है। मूल्यांकन के उद्देश्य अथवा लक्ष्य के आधार पर साक्षात्कार संरचित अथवा असंरंचित हो सकते हैं।

असंरचित साक्षात्कारों (unstructured interviews) में साक्षात्कारकर्ता अनेक प्रश्नों को किसी व्यक्ति से पूछ कर उसके बारे में एक छवि विकसित करने का प्रयत्न करता है। एक व्यक्ति जिस प्रकार अपने आपको प्रस्तुत करता है और प्रश्नों का उत्तर देता है उसमें उसके व्यक्तित्व को उद्घाटित करने के लिए पर्याप्त संभाव्यता होती है। संरचित साक्षात्कारों (structured interviews) में अत्यंत विशिष्ट प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं और एक निश्चित या नियत प्रक्रिया का पालन किया जाता है। ऐसा प्रायः साक्षात्कार किए जाने वाले व्यक्तियों (साक्षात्कारदाताओं) की वस्तुनिष्ठ तुलना करने के लिए किया जाता है। निर्धारण मापनियों का उपयोग मूल्यांकनों की वस्तुनिष्ठता में और अधिक वृद्धि कर सकता है।

प्रेक्षण

व्यवहारपरक प्रेक्षण एक अन्य विधि है जिसका व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए बहुत अधिक उपयोग किया जाता है। यद्यपि हम लोगों को ध्यानपूर्वक देखते हैं और उनके व्यक्तित्व के प्रति छवि निर्माण करते हैं तथापि व्यक्तित्व मूल्यांकन के लिए प्रेक्षण विधि का उपयोग एक अत्यंत परिष्कृत प्रक्रिया है जिसको अप्रशिक्षित लोगों के द्वारा उपयोग में नहीं लाया जा सकता है। इसमें प्रेक्षक का विशिष्ट प्रशिक्षण और किसी व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए व्यवहारों के विश्लेषण के बारे में विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांत भी अपेक्षित होते हैं। उदाहरण के लिए, एक नैदानिक मनोवैज्ञानिक अपने सेवार्थी की उसके परिवार के सदस्यों और गृहवीक्षकों या अतिथियों के साथ होने वाली अंतःक्रियाओं का प्रेक्षण कर सकता है। सावधानी से अभिकल्पित प्रेक्षण के साथ एक नैदानिक मनोवैज्ञानिक अपने सेवार्थी के व्यक्तित्व के बारे में पर्याप्त अंतर्दृष्टि विकसित कर सकता है।

बारंबार और व्यापक उपयोग के बावजूद भी प्रेक्षण और साक्षात्कार विधियों में निम्नलिखित सीमाएँ पाई जाती हैं-

1. इन विधियों द्वारा उपयोगी प्रदत्त के संग्रह के लिए अपेक्षित व्यावसायिक प्रशिक्षण कठिन और समयसाध्य होता है।

2. इन तकनीकों द्वारा वैध प्रदत्त प्राप्त करने के लिए मनोवैज्ञानिक में भी परिपक्वता आवश्यक होती है।

3. प्रेक्षक की उपस्थिति मात्र परिणामों को दूषित कर सकती है। एक अपरिचित के रूप में प्रेक्षक प्रेक्षण किए जाने वाले व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है जिसके कारण प्राप्त प्रदत्त अनुपयोगी हो सकते हैं।

व्यवहारपरक निर्धारण

शैक्षिक एवं औद्योगिक वातावरण में व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए प्राय: व्यवहारपरक निर्धारण का उपयोग किया जाता है। व्यवहारपरक निर्धारण सामान्यतया उन लोगों से लिए जाते हैं जो निर्धारण किए जाने वाले व्यक्ति को घनिष्ठ रूप से जानते हैं और उनके साथ लंबी समयावधि तक अंतःक्रिया कर चुके होते हैं अथवा जिनको प्रेक्षण करने का अवसर उन्हें प्राप्त हो चुका होता है। इस विधि में योग्यता निर्धारक व्यक्तियों को उनके व्यवहारपरक गुणों के आधार पर कुछ संवर्गों में रखने का प्रयास करते हैं। इन संवर्गों में विभिन्न संख्याएँ या वर्णनात्मक शब्द हो सकते हैं। यह पाया गया है कि संख्याओं अथवा सामान्य वर्णनात्मक विशेषणों का निर्धारण मापनियों में उपयोग प्राय: योग्यता निर्धारक लिए भ्रम उत्पन्न करता है। प्रभावी ढंग से निर्धारणों का उपयोग करने के लिए आवश्यक है कि विशेषकों को सावधानीपूर्वक लिखे गए व्यवहारपरक स्थिरकों के आधार पर स्पष्ट रूप से परिभाषित होना चाहिए।

निर्धारण विधि की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

1. योग्यता निर्धारक प्राय: कुछ अभिनतियों को प्रदर्शित करते हैं जो विभिन्न विशेषकों के बारे में उनके निर्णय को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, हममें से अधिकांश लोग किसी एक अनुकूल अथवा प्रतिकूल विशेषक से अत्यधिक प्रभावित हो जाते हैं। इसी के आधार पर प्राय: योग्यता निर्धारक किसी व्यक्ति के बारे में अपना समग्र निर्णय दे देता है। इस प्रवृत्ति को परिवेश प्रभाव (halo effect) कहते हैं।

2. योग्यता निर्धारक में एक यह प्रवृत्ति भी पाई जाती है कि वह व्यक्तियों को या तो छोर की स्थितियों का परिहार कर मापनी के मध्य में रखता है (मध्य संवर्ग अभिनति) या फिर मापनी के मध्य संवर्गों का परिहार कर (आत्यंतिक अनुक्रिया अभिनति ) छोर की स्थितियों में रखता है।

योग्यता निर्धारकों के उपयुक्त प्रशिक्षण और ऐसी मापनियों के विकास जिसमें अनुक्रिया अभिनतियों की संभावना कम हो, इनके द्वारा उपर्युक्त प्रवृत्तियों को समाप्त किया जा सकता है।

नाम निर्देशन

इस विधि का उपयोग प्रायः समकक्षी मूल्यांकन प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इसका उपयोग उन व्यक्तियों के साथ किया जा सकता है जिनमें दीर्घकालिक अंतःक्रिया होती रही हो और जो एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते हों। नाम निर्देशन विधि के उपयोग में प्रत्येक व्यक्ति से समूह के एक अथवा एक से अधिक व्यक्तियों का वरण या चयन करने के लिए कहा जाता है जिसके अथवा जिनके साथ वह कार्य करना, पढ़ना, खेलना अथवा किसी अन्य क्रिया में सहभागी होना पसंद करेगा/ करेगी। व्यक्ति से चुने गए व्यक्तियों के वरण के विशिष्ट कारणों के बारे में भी पूछा जा सकता है। इस प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहारपरक गुणों को समझने के लिए प्राप्त नाम निर्देशनों का विश्लेषण किया जा सकता है। यह तकनीक अत्यंत विश्वसनीय पाई गई है, यद्यपि यह व्यक्तिगत अभिनतियों से प्रभावित हो सकती है।

स्थितिपरक परीक्षण

व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने के लिए विभिन्न प्रकार के स्थितिपरक परीक्षण निर्मित किए गए हैं। सबसे अधिक प्रयुक्त किया जाने वाला इस प्रकार का एक परीक्षण स्थितिपरक दबाव परीक्षण (situational stress test) है। कोई व्यक्ति दबावमय स्थितियों में किस प्रकार व्यवहार करता है, इसके बारे में हमें सूचनाएँ प्रदान करता है। इस परीक्षण में एक व्यक्ति को एक दिए गए कृत्य पर निष्पादन कुछ ऐसे दूसरे लोगों के साथ करना होता है, जिनको उस व्यक्ति के साथ असहयोग करने और उसके निष्पादन में हस्तक्षेप करने का अनुदेश दिया गया होता है। इस परीक्षण में एक प्रकार का भूमिका-निर्वाह सम्मिलित होता है जो उस व्यक्ति से करने के लिए कहा जाता है, उसके बारे में एक शाब्दिक प्रतिवेदन भी प्राप्त किया जाता है। स्थिति वास्तविक भी हो सकती है अथवा इसे एक वीडियो खेल के द्वारा उत्पन्न भी किया जा सकता है।

प्रमुख पद

गुदीय अवस्था, आद्य प्ररूप, प्रमुख विशेषक, केंद्रीय विशेषक, सेवार्थी-केंद्रित चिकित्सा, सामूहिक अचेतन, रक्षा युक्तियाँ, अहं, बहिर्मुखता, मानवतावादी उपागम, इदम् (इड), आदर्श अहं या आत्म, हीनता मनोग्रंथि, अंतर्मुखता, कामप्रसुप्ति काल, लिबिडो, इडिपस मनोग्रंथि, व्यक्तिगत अनन्यता, लैंगिक अवस्था, प्रक्षेपी तकनीकें, मनोगतिक उपागम, प्रक्षेपण, युक्तिकरण, प्रतिक्रिया निर्माण, प्रतिगमन, दमन, आत्म-सक्षमता, आत्म-सम्मान, आत्म-नियमन, सामाजिक अनन्यता, पराहम्, विशेषक उपागम, प्ररूप उपागम, अचेतन।

सारांश

  • आत्म और व्यक्तित्व का अध्ययन अपने आपको और दूसरों को समझने में हमारी सहायता करता है। एक व्यक्ति का आत्म महत्वपूर्ण दूसरों के साथ सामाजिक अंतःक्रिया के द्वारा विकसित होता है।
  • आत्म विभिन्न प्रकार के होते हैं, जैसे-व्यक्तिगत आत्म, सामाजिक आत्म और संबंधात्मक आत्म। आत्म-सम्मान और आत्म-सक्षमता व्यवहार के दो ऐसे अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष हैं जिनका हमारे जीवन में व्यापक महत्त्व होता है।
  • आत्म-नियमन की मनोवैज्ञानिक तकनीकों में किसी व्यक्ति के व्यवहार का व्यवस्थित प्रेक्षण, आत्म-प्रबलन और आत्म-अनुदेश सम्मिलित होते हैं।
  • व्यक्तित्व से तात्पर्य व्यक्ति को मनोदैहिक विशेषताओं से है जो विभिन्न स्थितियों और समयों में सापेक्ष रूप से स्थिर होते हैं और उसे अनन्य बनाते हैं। चूँकि व्यक्तित्व हमारे जीवन में विभिन्न प्रकार की स्थितियों के प्रति अनुकूलन करने में सहायक होता है इसलिए बाह्य अथवा आंतरिक शक्तियों के परिणामस्वरूप इसमें परिवर्तन संभव है।
  • व्यक्तित्व का अध्ययन विभिन्न उपागमों द्वारा किया गया है। इनमें सबसे अधिक प्रमुख उपागम प्रारूपिक, मनोगतिक, व्यवहारवादी, सांस्कृतिक और मानवतावादी उपागम हैं।
  • प्रारूपिक उपागम व्यक्तित्व का वर्णन कुछ प्ररूपों के आधार पर करने का प्रयास करता है, जिसमें विशेषकों के एक गुच्छ पर बल दिया जाता है। ऑलॉोर्ट, कैटेल और आइजेंक ने व्यक्तित्व के प्ररूप उपागम का समर्थन किया जो किसी व्यक्ति का एक एकीकृत दृष्टिकोण प्रसुतुत करता है।
  • फ्रायड ने मनोगतिक उपागम विकसित किया और इड, अहं और पराहम् जैसी हमारी आंतरिक शाक्तियों के बीच सतत द्वदंधों के रूप में व्यक्तित्व का विवेचन किया है। फ्रायड के विचार से अचेतन द्वांद मनोलैगिंक विकास की प्रक्रिया में सन्निहित होता है जो मौखिक, गुदीय, लैंगिक, कामप्रसुप्ति में घटित होता है।
  • पश्च-फ्रायडवादी सिद्धांतकारों ने अंतर्वैयक्तिक शक्तियों और व्यक्ति के जीवन को समकालीन परिस्थितियों पर बल दिया है। युंग, फ्रॉम, एडलर, हार्नी और एरिक्सन ने व्यक्तित्व में अहं और सामाजिक शक्तियों की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया है।
  • व्यवहारवादी उपागम व्यक्तित्व को पर्यावरण के प्रति किसी व्यक्ति की अनुक्रिया के रूप में समझता है। व्यवहारवादी अनुक्रिया को व्यक्तित्व की एक संरचनात्मक इकाई के रूप में स्वीकार करते हैं जो किसी विशिष्ट आवश्यकता की संतुष्टि के लिए प्रकट किया जाता है।
  • सांस्कृतिक उपागम व्यक्तित्व को प्रचलित आर्थिक अनुरक्षण प्रणालियों और लोगों के एक समूह की परिणामी सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रति व्यक्तियों के अनुकूलन के रूप में समझने का प्रयास करता है।
  • मानवतावादी उपागम व्यक्तियों के आत्मनिष्ठ अनुभवों और उनके वरणों पर बल देता है। रोजर्स ने ‘वास्तविक आत्म’ और ‘आदर्श आत्म’ के मध्य संबंध पर बल दिया है। इन दोनों प्रकार के आत्म के बीच समरूपता होने पर व्यक्ति पूर्णतः प्रकार्यशील होता है। मैस्लो ने लोगों को अभिग्रिरित करने वाली आवश्यकताओं के पारस्परिक

प्रभाव के रूप में व्यक्तित्व का विवेचन किया है। आवश्यकताओं को एक पदानुक्रम में निम्न-कोटि (उत्तरजीविता संबंधी) आवश्यकताओं से उच्च-कोटि (विकास संबंधी) आवश्यकताओं तक व्यवस्थित किया जा सकता है।

  • व्यक्तित्व मूल्यांकन से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा कुछ मनोवैज्ञानिक विशेषताओं के रूप में लोगों का विश्लेषण और मूल्यांकन किया जाता है। इसमें व्यक्ति के व्यवहार की उच्चस्तरीय परिशुद्धता के साथ भविष्यवाणी करना प्रमुख लक्ष्य होता है।
  • किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन प्रेक्षक के प्रतिवेदनों, प्रक्षेपी तकनीकों और आत्म-प्रतिवेदन मापों द्वारा किया जा सकता है। प्रेक्षक के प्रतिवेदनों में साक्षात्कार, प्रेक्षण, निर्धारण, नाम निर्देशन और स्थितिपरक परीक्षण आते हैं। रोर्शा मसिलक्ष्म या स्याही-धब्बा परीक्षण और कथानक संप्रत्यक्षण परीक्षण व्यक्तित्व की व्यापक रूप से प्रयुक्त की जाने वाली प्रक्षेपी तकनीकें हैं। आत्म-प्रतिवेदन माप स्पष्ट रूप से संरंचित परीक्षणों के उपयोग द्वारा व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने का प्रयास करते हैं।.

समीक्षात्मक प्रश्न

1. आत्म क्या है? आत्म की भारतीय अवधारणा पाश्चात्य अवधारणा से किस प्रकार भिन्न है?

2. परितोषण के विलंब से क्या तात्पर्य है? इसे क्यों वयस्कों के विकास के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है?

3. व्यक्तित्व को आप किस प्रकार परिभाषित करते हैं? व्यक्तित्व के अध्ययन के प्रमुख उपागम कौन-से हैं?

4. व्यक्तित्व का विशेषक उपागम क्या है? यह कैसे प्ररूप उपागम से भिन्न है?

5. फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना की व्याख्या कैसे की है?

6. हार्नी की अवसाद की व्याख्या अल्फ्रेड एडलर की व्याख्या से किस प्रकार भिन्न है?

7. व्यक्तित्व के मानवतावादी उपागम की प्रमुख प्रतिज्ञात्ति क्या है? आत्मसिद्धि से मैस्लो का क्या तात्पर्य था?

8. व्यक्तित्व-मूल्यांकन में प्रयुक्त की जाने वाली प्रमुख प्रेक्षण विधियों का विवेचन करें। इन विधियों के उपयोग में हमें किस प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है?

9. संरंचित व्यक्तित्व परीक्षणों से क्या तात्पर्य है? व्यापक रूप से उपयोग किए गए दो संरंचित व्यक्तित्व परीक्षण कौन-से हैं?

10. व्याख्या कीजिए कि प्रक्षेपी तकनीक किस प्रकार व्यक्तित्व का मूल्यांकन करती है? कौन-से व्यक्तित्व के प्रक्षेपी परीक्षण मनोवैज्ञानिकों द्वारा व्यापक रूप से उपयोग में लाए गए हैं?

11. अरिहन्त एक गायक बनना चाहता है, इसके बावजूद कि वह चिकित्सकों के एक परिवार से संबंध रखता है। यद्यपि उसके परिवार के सदस्य दावा करते हैं कि वे उसको प्रेम करते हैं किंतु वे उसकी जीवनवृत्ति को दृढ़ता से अस्वीकार कर देते हैं। कार्ल रोजर्स की शब्दावली का उपयोग करते हुए अरिहन्त के परिवार द्वारा प्रदर्शित अभिवृत्तियों का वर्णन कीजिए।

परियोजना विचार

1. हम सभी अपने आदर्श आत्म के बारे में अवधारणा रखते हैं अर्थात हम क्या बनना चाहते हैं ? समय लेकर आप कल्पना करें कि आपने अपने आदर्श आत्म को उपार्जित या प्राप्त कर लिया है। अपने आदर्श आत्म की इस अवधारणा के साथ इन संवर्गों के प्रति अपनी अभिवृत्तियों को अभिव्यक्त कीजिए - (अ) विद्यालय, (ब) मित्र, (स) परिवार, और (द) धन। इनमें से प्रत्येक पर अपनी आदर्श अभिवृत्तियों का वर्णन करते हुए एक पैगग्राफ लिखिए। उसके बाद आप इन चारों संवर्गों को चार अलग-अलग कागज़ के पन्नों पर लिखिए और अपने दो मित्रों और परिवार के दो सदस्यों से इन संवर्गों के प्रति आपकी वास्तविक अभिवृत्तियों का जो वे प्रत्यक्षण करते हैं, उसको लिखने के लिए कहिए। ये चार व्यक्ति आपके वास्तविक आत्म को जिस रूप में आपमें देखते हैं, उसका वर्णन करेंगे। अपने आदर्श वर्णनों की तुलना दूसरों के वास्तविक वर्णनों से विस्तार में कीजिए। क्या वे दोनों वर्णन बहुत समान अथवा असमान हैं? इस पर एक प्रतिवेदन तैयार कीजिए।

2. पाँच ऐसे लोगों, या तो वास्तविक जीवन से या इतिहास से, का चयन कीजिए जिनकी आप अत्यंत प्रशंसा करते हैं। अपने-अपने क्षेत्रों में उनके योगदानों के बारे में सूचनाएँ एकत्र कीजिए और पहचान कीजिए कि उनके व्यक्तित्व की कौन-सी विशेषताएँ हैं जिन्होंने आपको प्रभावित किया है। क्या आप कोई समानता पाते हैं ? एक तुलनात्मक प्रतिवेदन तैयार कीजिए।



विषयसूची