अध्याय 07 वैश्वीकरण

परिचय

पुस्तक के इस अंतिम अध्याय में हम वैश्वीकरण पर बात करेंगे। वैश्वीकरण की चर्चा इस पुस्तक के कई अध्यायों में और कई विषयों की पुस्तक में की गई है। हम शुरुआत वैश्वीकरण की अवधारणा के विश्लेषण और इसके कारणों की जाँच से करेंगे। इसके बाद हम वैश्वीकरण के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिणामों की बात करेंगे। हमारी दिलचस्पी यह समझने में भी है कि वैश्वीकरण का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा है और भारत वैश्वीकरण को कैसे प्रभावित कर रहा है। आखिर में हम वैश्वीकरण को लेकर होने वाले प्रतिरोध पर नजर डालेंगे और जानेंगे कि कैसे भारत के सामाजिक आंदोलन इस प्रतिरोध का हिस्सा हैं।

वैश्वीकरण की अवधारणा

जनार्दन एक कॉल-सेंटर में काम करता है। वह देर दोपहर में काम के लिए निकलता है; दफ्तर में घुसने के साथ ही वह जॉन बन जाता है; नया लहजा अख़्तियार कर लेता है और हजारों किलोमीटर दूर बसे अपने ग्राहकों से बात करने के लिए एक नयी भाषा बोलने लगता है। अपने घर में वह न तो यह भाषा और न ही इस लहजे में बोलता है। वह सारी रात काम करता है जो दरअसल उसके विदेशी ग्राहकों के लिए दिन का समय होता है। जनार्दन एक ऐसे आदमी को अपनी सेवा प्रदान कर रहा है जिससे बहुत संभव है, वह कभी आमने-सामने की मुलाकात न कर सके। यही उसकी दिनचर्या है। जनार्दन की छुट्टियाँ भी भारतीय कैलेंडर से नहीं बल्कि अमरीका के कैलेंडर से मेल खाती हैं जहाँ उसके ग्राहक रहते हैं।

बहुत-से नेपाली मजदूर काम करने के लिए भारत आते हैं। क्या यह वैश्वीकरण है?

अपनी नौ वर्षोया बेटी को जन्मदिन का उपहार देने के लिए रामधारी बाज़ार गया है। उसने अपनी बेटी को एक छोटी-सी साइकिल उपहार में देने का वायदा किया है। रामधारी ने बाज़ार में जाकर ऐसी साइकिल ढूँढ़ने का फ़ैसला किया जो उसे कीमत के लिहाज से जँच जाए और कुछ उम्दा क्वालिटी की हो। उसने आखिरकार एक साइकिल खरीदी जो बनी तो चीन में थी लेकिन बिक भारत में रही है। इस साइकिल की कीमत रामधारी की जेब को माफ़िक पड़ी और ‘क्वालिटी’ भी उसे एक हफ़्ते के अख़बार पर नज़र दौड़ाइए और वैश्वीकरण के विषय में जो कुछ छपा हो उसकी कतरन एकत्रित कीजिए। जँच गई। रामधारी ने इसे खरीदने का फ़ैसला किया। पिछले साल अपनी बेटी की जिद पर रामधारी ने उसे ‘बार्बी डॉल’ खरीदकर दिया था जो दरअसल संयुक्त राज्य अमरीका में बनी थी और भारत में बिक रही थी।

चलो यह करते हैं

एक सप्ताह तक समाचार पत्रों का अध्ययन करें और वैश्वीकरण से संबंधित किसी भी चीज़ की कतरनें एकत्र करें।

सारिका अपने परिवार में पहली पीढ़ी की शिक्षित है। कठिन मेहनत के बूते स्कूल और कॉलेज में वह अव्वल साबित हुई। अब उसे नौकरी करने और एक स्वतंत्र कॅरिअर की शुरुआत करने का अवसर हाथ लगा है। ऐसे अवसर के बारे में उसके परिवार की महिलाएँ सोच भी नहीं सकती थीं। सारिका के रिश्तेदारों में से कुछ इस नौकरी का विरोध कर रहे हैं लेकिन सारिका ने आखिरकार यह नौकरी करने का फ़ैसला किया क्योंकि उसकी पीढ़ी के नौजवानों के सामने नये अवसर मौजूद हैं।

ये तीनों उदाहरण वैश्वीकरण का एक न एक पहलू दिखाते हैं। पहले उदाहरण में जनार्दन सेवाओं के वैश्वीकरण में हिस्सेदारी कर रहा है। रामधारी जन्मदिन के लिए जो उपहार खरीद रहा है उसमें हमें विश्व के एक भाग से दूसरे भाग में वस्तुओं की आवाजाही का पता चलता है। सारिका के सामने जीवन-मूल्यों के बीच दुविधा की स्थिति है। यह दुविधा अंशतः उन अवसरों के कारण पैदा हुई है जो उसके परिवार की महिलाओं को पहले उपलब्ध नहीं थे लेकिन आज वे एक सच्चाई हैं और जिन्हें व्यापक स्वीकृति मिल रही है।

यदि हम वास्तविक जीवन में ‘वैश्वीकरण’ शब्द के इस्तेमाल को परखें तो पता चलेगा कि इसका इस्तेमाल कई तरह के संदर्भों में होता है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं। इन्हें देखिए, ये उदाहरण ऊपर के उदाहरणों से कुछ अलग हैं -

  • फसल के मारे जाने से कुछ किसानों ने आत्महत्या कर ली। इन किसानों ने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से बड़े महंगे बीज खरीदे थे।

  • यूरोप स्थित एक बड़ी और अपनी प्रतियोगी कंपनी को एक भारतीय कंपनी ने खरीद लिया जबकि खरीदी गई कंपनी के मालिक इस खरीददारी का विरोध कर रहे थे।

  • अनेक खुदरा दुकानदारों को भय है कि अगर कुछ बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों ने देश में खुदरा दुकानों की अपनी श्रृंखला खोल ली तो उनकी रोजी-रोटी जाती रहेगी।

  • मुम्बई के एक फिल्म-निर्माता पर आरोप लगे कि उसने हॉलीवुड में बनी एक फिल्म की कहानी उठाकर अपनी फिल्म बना ली है।

  • पश्चिमी परिधान पहनने वाली कॉलेज की छात्राओं को एक उग्रवादी संगठन ने अपने एक बयान में धमकी दी है।

ये उदाहरण हमें बताते हैं कि वैश्वीकरण हर अर्थ में सकारात्मक ही नहीं होता; लोगों पर इसके दुष्रभाव भी पड़ सकते हैं। दरअसल ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा है जो मानते हैं कि वैश्वीकरण के सकारात्मक प्रभाव कम और नकारात्मक प्रभाव ज़्यादा हैं। इन उदाहरणों से यह भी पता चलता है कि वैश्वीकरण सिर्फ आर्थिक मसलों से नहीं जुड़ा और ज़रूरी नहीं कि प्रभाव की दिशा हमेशा धनी मुल्कों से ग़रीब मुल्कों की ओर गतिशील हो।

चूँकि ‘वैश्वीकरण’ शब्द का प्रयोग अधिकांशतया सटीक अर्थों में नहीं होता इसीलिए यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि इसका सही-सही अर्थ क्या है। एक अवधारणा के रूप में वैश्वीकरण की बुनियादी बात है - प्रवाह। प्रवाह कई तरह के हो सकते हैं - विश्व के एक हिस्से के विचारों का दूसरे हिस्सों में पहुँचना; पूँजी का एक से ज़्यादा जगहों पर जाना; वस्तुओं का कई-कई देशों में पहुँचना और उनका व्यापार तथा बेहतर आजीविका की तलाश में दुनिया के

इस अध्याय में वैश्वीकरण से जुड़े विभिन्न पहलुओं को दर्शाती एक चित्रमाला दी गई है। ये चित्र विश्वभर के अलग-अलग हिस्सों से लिए गए हैं।

भारत में बिकने वाली चीन की बनी बहुत-सी चीजें तस्करी की होती हैं। क्या वैश्वीकरण के चलते तस्करी होती है?

वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है। इसके राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अवतार हैं और इनके बीच ठीक-ठीक भेद किया जाना चाहिए। यह मान लेना ग़लत है कि वैश्वीकरण केवल आर्थिक परिघटना है। ठीक इसी तरह यह मान लेना भी भूल होगी कि वैश्वीकरण एकदम सांस्कृतिक परिघटना है। वैश्वीकरण का प्रभाव बड़ा विषम रहा है- यह कुछ समाजों को बाकियों की अपेक्षा और समाज के एक हिस्से को बाकी हिस्सों की अपेक्षा ज़्यादा प्रभावित कर रहा है। ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि विशिष्ट संदर्भों पर पर्याप्त ध्यान दिए बिना हम वैश्वीकरण के प्रभाव के बारे में सर्व-सामान्य निष्कर्ष निकालने से परहेज करें।

क्या साम्राज्यवाद का ही नया नाम वैश्वीकरण नहीं है? हमें नये नाम की ज़रूरत क्यों है?

वैश्वीकरण के कारण

क्या है वैश्वीकरण की वज़ह? अगर वैश्वीकरण विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की आवाजाही से जुड़ी परिघटना है तो शायद यह पूछना असंगत न होगा कि इस परिघटना में क्या कुछ नयी बात है? अगर इन चार तरह के प्रवाहों की ही बात है तो फिर वैश्वीकरण मानव-इतिहास के अधिकांश समय जारी रहा है। बहरहाल, जो लोग तर्क देते हैं कि समकालीन वैश्वीकरण के साथ कुछ ख़ास बात है वे ध्यान दिलाते हैं कि नयी बात है इन प्रवाहों की गति और इनके प्रसार का धरातल। ये दोनों बातें मौजूदा वैश्वीकरण को अनूठा बनाती हैं। वैश्वीकरण का एक मजबूत ऐतिहासिक आधार है इसलिए ज़रूरी है कि हम इन प्रवाहों को इतिहास के संदर्भ में देखें।

डिजीटल अर्थव्यवस्था का महाचक्र

हालाँकि वैश्वीकरण के लिए कोई एक कारक जिम्मेवार नहीं फिर भी प्रौद्योगिकी अपने आप में एक अपरिहार्य कारण साबित हुई है। इसमें कोई शक नहों कि टेलीग्राफ, टेलीफोन और माइक्रोचिप के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच संचार की क्रांति कर दिखायी है। शुरू-शुरू में जब छपाई (मुद्रण) की तकनीक आयी थी तो उसने राष्ट्रवाद की आधारशिला रखी। इसी तरह आज हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि प्रौद्योगिकी का प्रभाव हमारे सोचने के तरीके पर पड़ेगा। हम अपने बारे में जिस ढंग से सोचते हैं और हम सामूहिक जीवन के बारे में जिस तर्ज़ पर सोचते हैं - प्रौद्योगिकी का उस पर असर पड़ेगा।

विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की विश्व के विभिन्न भागों में आवाजाही की आसानी प्रौद्योगिकी में हुई तरक्की के कारण संभव हुई है। इन प्रवाहों की गति में अंतर हो सकता है। उदाहरण के लिए विश्व के विभिन्न भागों के बीच पूँजी और वस्तु की गतिशीलता लोगों की आवाजाही की तुलना में ज़्यादा तेज और व्यापक होगी।

बहरहाल, संचार-साधनों की तरक्की और उनकी उपलब्धता मात्र से वैश्वीकरण अस्तित्व में आया हो - ऐसी बात नहीं। यहाँ ज़रूरी बात यह है कि विश्व के विभिन्न भागों के लोग अब समझ रहे हैं कि वे आपस में जुड़े हुए हैं। आज हम इस बात को लेकर सजग हैं कि विश्व के एक हिस्से में घटने वाली घटना का प्रभाव विश्व के दूसरे हिस्से में भी पड़ेगा। बर्ड फ्लू अथवा ‘सुनामी’ किसी एक राष्ट्र की हदों में सिमटे नहीं रहते। ये

घटनाएँ राष्ट्रीय-सीमाओं का जोर नहीं मानतीं। ठीक इसी तरह जब बड़ी आर्थिक घटनाएँ होती हैं तो उनका प्रभाव उनके मौजूदा स्थान अथवा क्षेत्रीय परिवेश तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि विश्व भर में महसूस किया जाता है।

राजनीतिक प्रभाव

वैश्वीकरण की समकालीन प्रक्रियाओं के प्रभाव के बारे में जारी बहसों में एक यह है कि इसका राजनीतिक असर क्या हो रहा है? राज्य की संप्रभुता की परंपरागत धारणा पर वैश्वीकरण का असर कैसे होता है? इस सवाल का ज़वाब देते समय हमें कम से कम तीन पहलुओं का ध्यान रखना होगा।

सबसे सीधा-सरल विचार यह है कि वैश्वीकरण के कारण राज्य की क्षमता यानी सरकारों को जो करना है उसे करने की ताकत में कमी आती है। पूरी दुनिया में कल्याणकारी राज्य की धारणा अब पुरानी पड़ गई है और इसकी जगह न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य ने ले ली है। राज्य अब कुछेक मुख्य कामों तक ही अपने को सीमित रखता है, जैसे कानून और व्यवस्था को बनाये रखना तथा अपने नागरिकों की सुरक्षा करना। इस तरह के राज्य ने अपने को पहले के कई ऐसे लोक-कल्याणकारी कामों से खींच लिया है जिनका लक्ष्य आर्थिक और सामाजिक-कल्याण होता था। लोक कल्याणकारी राज्य की जगह अब बाज़ार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का प्रमुख निर्धारक है। पूरे विश्व में बहुराष्ट्रीय निगम अपने पैर पसार चुके हैं और उनकी मिका बढ़ी है। इससे सरकारों के अपने दम पर फ़ैसला करने की क्षमता में कमी आती है।

इसी के साथ एक बात और भी है। वैश्वीकरण से हमेशा राज्य की ताकत में कमी आती हो- ऐसी बात नहीं। राजनीतिक समुदाय के आधार के रूप में राज्य की प्रधानता को कोई चुनौती नहीं मिली है और राज्य इस अर्थ में आज भी प्रमुख है। विश्व की राजनीति में अब भी विभिन्न देशों के बीच मौजूद पुरानी ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता की दखल है। राज्य कानून और व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अपने अनिवार्य कार्यों को पूरा कर रहे हैं और बहुत सोच-समझकर अपने कदम उन्हीं दायरों से खींच रहे हैं जहाँ उनकी मर्जी हो। राज्य अभी भी महत्त्वपूर्ण बने हुए हैं।

वस्तुतः कुछ मायनों में वैश्वीकरण के फलस्वरूप राज्य की ताकत में इजाफा हुआ है। अब राज्यों के हाथ में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी मौजूद है जिसके बूते राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकते हैं। इस सूचना के दम पर राज्य ज्यादा कारगर ढंग से काम कर सकते हैं। उनकी क्षमता बढ़ी है; कम नहीं हुई। इस प्रकार नई प्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप राज्य अब पहले से ज़्यादा ताकतवर हैं।

आर्थिक प्रभाव

वैश्वीकरण के आर्थिक पहलू के बारे में सब कुछ भले ही नहों जाना जा सके लेकिन, यह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण को लेकर जारी बहसों का बड़ा हिस्सा और इस बहस की दिशा इसी पहलू से संबंधित है।

इस समस्या का एक पक्ष तो यही है कि आर्थिक वैश्वीकरण को कैसे परिभाषित किया जाए। जैसे ही आर्थिक वैश्वीकरण का उल्लेख होता है, हमारा ध्यान अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं तथा विश्व भर में आर्थिक नीतियों के निर्धारण में इनके द्वारा निभायी गई भूमिका पर जाता है। हालाँकि वैश्वीकरण को इतने संकीर्ण नज़रिए से नहीं देखा जाना चाहिए। आर्थिक वैश्वीकरण में इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के अलावा भी कई खिलाड़ी शामिल हैं। आर्थिक वैश्वीकरण को अधिक व्यापक नज़र से समझने के लिए हमें इससे होने वाले आर्थिक फायदों के बँटवारे के अर्थ में सोचना चाहिए यानी इस संदर्भ में कि किसे वैश्वीकरण से सबसे ज़्यादा फायदा हुआ और किसे सबसे कम। यह भी देखने की ज़रूरत है कि वैश्वीकरण के कारण किसने नुकसान उठाया।

अमूमन जिस प्रक्रिया को आर्थिक वैश्वीकरण कहा जाता है उसमें दुनिया के विभिन्न देशों के बीच आर्थिक प्रवाह तेज हो जाता है। कुछ आर्थिक प्रवाह स्वेच्छा से होते हैं जबकि कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और ताकतवर देशों द्वारा जबरन लादे जाते हैं। जैसा कि हमने इस अध्याय की शुरुआत में देखा, ये प्रवाह कई किस्म के हो सकते हैं, जैसे वस्तुओं, पूंजी, जनता अथवा विचारों का प्रवाह। वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में वस्तुओं के व्यापार में इजाफा हुआ है;अलग-अलग देश अपने यहाँ होने वाले आयात पर प्रतिबंध लगाते थे लेकिन अब ये प्रतिबंध कम हो गए हैं। ठीक इसी तरह दुनिया भर में पूंजी की आवाजाही पर अब कहीं कम प्रतिबंध हैं। व्यावहारिक धरातल पर इसका अर्थ यह हुआ कि धनी देश के निवेशकर्ता अपना धन अपने देश की जगह कहीं और निवेश कर सकते हैं, खासकर विकासशील देशों में जहाँ उन्हें ज़्यादा मुनाफा होगा। वैश्वीकरण के चलते अब विचारों के सामने राष्ट्र की सीमाओं की बाधा नहीं रही, उनका प्रवाह अबाध हो उठा है। इंटरनेट और कंप्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार इसका एक उदाहरण है। लेकिन वैश्वीकरण के कारण जिस सीमा तक वस्तुओं और पूंजी का प्रवाह बढ़ा है उस सीमा तक लोगों की आवाजाही नहीं बढ़ सकी है। विकसित देश अपनी वीजा-नीति के जरिए अपनी राष्ट्रीय सीमाओं को बड़ी सतर्कता से अभेद्य बनाए रखते हैं ताकि दूसरे देशों के नागरिक विकसित देशों में आकर कहीं उनके नागरिकों के नौकरी-धंधे न हथिया लें।

वैश्वीकरण के परिणामों पर सोचते हुए हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हर जगह एक समान नीति अपना लेने का मतलब यह नहीं होता कि हर जगह परिणाम भी समान होंगे। वैश्वीकरण के कारण दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में सरकारों ने एकसार आर्थिक नीतियों को अपनाया है, लेकिन विश्व के विभिन्न भागों में इसके परिणाम बहुत अलग-अलग हुए हैं। यहाँ भी हमें सर्व-सामान्य निष्कर्ष निकालने के बजाय संदर्भ-विशेष पर ध्यान देना होगा।

जब हम सामाजिक सुरक्षा-कवच की बात करते हैं तो इसका सीधा-सादा मतलब होता है कि कुछ लोग तो वैश्वीकरण के चलते बदहाल होंगे ही! तभी तो सामाजिक सुरक्षा-कवच की बात की जाती है। है न?

आर्थिक वैश्वीकरण के कारण पूरे विश्व में जनमत बड़ी गहराई से बँट गया है। आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारें कुछ जिम्मदारियों से अपने हाथ खींच रही हैं और इससे सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाले लोग चिंतित हैं। इनका कहना है कि आर्थिक वैश्वीकरण से आबादी के एक बड़े छोटे तबके को फायदा होगा जबकि नौकरी और जन-कल्याण (शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ-सफाई की सुविधा आदि) के लिए सरकार पर आभ्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जाएँगे। सामाजिक न्याय के पक्षधर इस बात पर जोर देते हैं कि कुछ सांस्थानिक उपाय किए जाने चाहिए या कहें कि ‘सामाजिक सुरक्षा कवच’ तैयार किया जाना चाहिए ताकि जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं उन पर वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों को कम किया जा सके। दुनिया के अनेक आंदोलनों की मान्यता है कि ‘सामाजिक सुरक्षा-कवच’ की बात अव्यावहारिक है और इतना भर उपाय पर्याप्त नहीं होगा। ऐसे आंदोलनों ने बलपूर्वक किए जा रहे वैश्वीकरण को रोकने की आवाज़ लगाई है क्योंकि इससे ग़रीब देश आर्थिक-रूप से बर्बादी की कगार पर पहुँच जाएँगे; खासकर इन देशों के गरीब लोग एकदम बदहाल हो जाएँगे। कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वैश्वीकरण को विश्व का पुनःउपनिवेशीकरण कहा है।

चलो यह करते हैं

बहुराष्ट्रीय कंपनियों (एमएनसी) के उत्पादों की एक सूची बनाएं जिनका उपयोग आप या आपका परिवार करता है।

आर्थिक वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं के समर्थकों का तर्क है कि इससे समृद्धि बढ़ती है और ‘खुलेपन’ के कारण ज़्यादा से ज़्यादा आबादी की खुशहाली बढ़ती है। व्यापार की बढ़ती से हर देश को अपना बेहतर कर दिखाने का मौका मिलता है। इससे पूरी दुनिया को फायदा होगा। इन लोगों का कहना है कि आर्थिक वैश्वीकरण अपरिहार्य है और इतिहास की धारा को अवरुद्ध करना कोई बुद्धिमानी नहीं। वैश्वीकरण के मध्यमार्गी समर्थकों का कहना है कि वैश्वीकरण ने चुनौतियाँ पेश की हैं और सजग-सचेत होकर पूरी बुद्धिमत्ता से इसका सामना किया जाना चाहिए। बहरहाल, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ‘पारस्परिक निर्भरता’ की रफ्तार अब तेज हो चली है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में सरकार, व्यवसाय तथा लोगों के बीच जुड़ाव बढ़ रहा है।

सांस्कृतिक प्रभाव

वैश्वीकरण के परिणाम सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक दायरों में ही नज़र नहीं आते; हम घर में बैठे हों तब भी इसकी चपेट में होते हैं। हम जो कुछ खाते-पीते-पहनते हैं अथवा सोचते हैं- सब पर इसका असर नज़र आता है। हम जिन बातों को अपनी पसंद कहते हैं वे बातें भी वैश्वीकरण के असर में तय होती हैं। वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभावों को देखते हुए इस भय को बल मिला है कि यह प्रक्रिया विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचाएगी। वैश्वीकरण से यह होता है क्योंकि वैश्वीकरण सांस्कृतिक समरूपता ले आता

है। सांस्कृतिक समरूपता का यह अर्थ नहीं कि किसी विश्व-संस्कृति का उदय हो रहा है। विश्व-संस्कृति के नाम पर दरअसल शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है। हम लोग अमरीकी वर्चस्व वाले अध्याय तीन में वर्चस्व के सांस्कृतिक अर्थ के अंतर्गत इस बात को पढ़ चुके हैं। कुछ लोगों का तर्क है कि बर्गर अथवा नीली जीन्स की लोकप्रियता का नजदीकी रिश्ता अमरीकी जीवनशैली के गहरे प्रभाव से है क्योंकि राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली संस्कृति कम ताकतवर समाजों पर अपनी छाप छोड़ती है और संसार वैसा ही दोखता है जैसा ताकतवर संस्कृति इसे बनाना चाहती है। जो यह तर्क देते हैं वे अक्सर दुनिया के ‘मैक्डोनॉल्डीकरण’ को तरफ इशारा करते हैं। उनका मानना है कि विभिन्न संस्कृतियाँ अब अपने को प्रभुत्वशाली अमरीकी ढरें पर ढालने लगी हैं। चूँकि इससे पूरे विश्व की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती है इसलिए यह केवल गरीब देशों के लिए ही नहीं बल्कि समूची मानवता के लिए खतरनाक है।

इसके साथ-साथ यह मान लेना एक भूल है कि वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव सिर्फ नकारात्मक हैं। संस्कृति कोई जड़ वस्तु नहीं होती। हर संस्कृति हर समय बाहरी प्रभावों को स्वीकार करते रहती है। कुछ बाहरी प्रभाव नकारात्मक होते हैं क्योंकि इससे हमारी पसंदों में कमी आती है। कभी-कभी बाहरी प्रभावों से हमारी पसंद-नापसंद का दायरा बढ़ता है तो कभी इनसे परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों

हम पश्चिमी संस्कृति से क्यों डरते हैं? क्या हमें अपनी संस्कृति पर विश्वास नहीं है?

चलो यह करते हैं

अपनी भाषा की सभी ज्ञात ‘बोलियों’ की एक सूची बनाएँ। इस बारे में अपने दादा-दादी की पीढ़ी के लोगों से सलाह लें। आज कितने लोग वे बोलियाँ बोलते हैं?

बाहरी प्रभाव का परिणाम एक नया संयोजन है जो अद्वितीय है - जींस के ऊपर पहना जाने वाला खादी कुर्ता। दिलचस्प बात यह है कि कपड़ों का यह संयोजन उस देश में निर्यात किया गया है जिसने हमें नीली जींस दी है ताकि युवा अमेरिकियों को कुर्ता और जींस पहने देखना संभव हो सके!

सांस्कृतिक समरुपता वैश्वीकरण का एक पहलू है तो वैश्वीकरण से इसका उलटा प्रभाव भी पैदा हुआ है। वैश्वीकरण से हर संस्कृति कहीं ज़्यादा अलग और विशिष्ट होते जा रही है। इस प्रक्रिया को सांस्कृतिक वैभिन्नीकरण कहते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि संस्कृतियों के मेलजोल में उनकी ताकत का सवाल गौण है परंतु इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि सांस्कृतिक प्रभाव एकतरफा नहीं होता।

उफ! फिर से एक हिंदुस्तानी।

कॉल सेन्टर की कहानी एक कर्मचारी की ज़बानी

कॉल-सेन्टर में काम करना अपने आप में आँख खोल देने वाला साबित हो सकता है। आप अमरीकियों के फोन-कॉल निबटाते हैं और आपको असली अमरीकी संस्कृति की एक झलक मिलती है। एक औसत अमरीकी हमारी अपेक्षा से कहीं ज़्यादा जीवंत और ईमानदार होता है…

बहरहाल, हर फोन कॉल या बातचीत खुशगवार नहीं होती। आपके पास अविवेकी और बदज़बान लोगों के भी फोनकॉल आते हैं। ‘कॉल’ हिन्दुस्तान में ‘अटेन्ड’ की जा रही है, यह जानकर फोन करने वाले का लहजा कभी-कभी नफ़रत से भर उठता है और उससे निबटना बहुत तनाव का काम होता है। अमरीकी हर भारतीय को इस रूप में देखने लगे हैं मानो वह उनकी नौकरी छीनने वाला हो…

आपको कुछ फोन ऐसे भी अटंंड करने होते हैं जिनकी शुरुआत इस पंक्ति से होती है - “चंद मिनट पहले मैंने एक दक्षिण अफ्रीकी से बात की और अब एक हिन्दुस्तानी से मुखातिब हूँ” या “आह री किस्मत! फिर एक हिन्दुस्तानी! प्लीज किसी अमरीकी से बात कराइए…!” ऐसी स्थिति में सामने वाले से पटरी बैठाना मुश्किल होता है।

स्रोत - 10 जनवरी 2005 के द हिंदू में रंजीता उर्स की रिपोर्ट।

भारत और वैश्वीकरण

हमने पहले इशारा किया था कि दुनिया के विभिन्न भागों में वैश्वीकरण इतिहास की विभिन्न कालावधियों में पहले भी हो चुका है। पूँजी, वस्तु, विचार और लोगों की आवाजाही का भारतीय इतिहास कई सदियों का है।

औपनिवेशिक दौर में ब्रिटेन के साम्राज्यवादी मंसूबों के परिणामस्वरूप भारत आधारभूत वस्तुओं और कच्चे माल का निर्यातक तथा बने-बनाये सामानों का आयातक देश था। आज़ादी हासिल करने के बाद, ब्रिटेन के साथ अपने इन अनुभवों से सबक लेते हुए हमने फ़ैसला किया कि दूसरे पर निर्भर रहने के बजाय खुद सामान बनाया जाए। हमने यह भी फ़ैसला किया कि दूसरों देशों को निर्यात की अनुमति नहीं होगी ताकि हमारे अपने उत्पादक चीजों को बनाना सीख सकें। इस ‘संरक्षणवाद’ से कुछ नयी दिक्कतें पैदा हुई। कुछ क्षेत्रों में तरक्की हुई तो कुछ ज़रूरी क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, आवास और प्राथमिक शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितने के वे हकदार थे। भारत में आर्थिक-वृद्धि की दर धीमी रही।

1991 में, वित्तीय संकट से उबरने और आर्थिक वृद्धि की ऊँची दर हासिल करने की इच्छा से भारत में आर्थिक-सुधारों की योजना शुरू हुई। इसके अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों पर आयद बाधाएँ हटायी गईं। इन क्षेत्रों में व्यापर और विदेशी निवेश भी शामिल थे। यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारत के लिए यह सब कितना अच्छा साबित हुआ है क्योंकि अंतिम कसौटी ऊँची वृद्धि-दर नहीं बल्कि इस बात को सुनिश्चित करना है कि आर्थिक बढ़वार के फायदों में सबका साझा हो ताकि हर कोई खुशहाल बने।

वैश्वीकरण का प्रतिरोध

हम देख चुके हैं कि वैश्वीकरण बड़ा बहसतलब मुद्दा है और पूरी दुनिया में इसकी आलोचना हो रही है। वैश्वीकरण के आलोचक कई तर्क देते हैं। वामपंथी राजनीतिक रुझान रखने वालों का तर्क है कि मौजूदा वैश्वीकरण विश्वव्यापी पूंजीवाद की एक ख़ास अवस्था है जो धनिकों को और ज़्यादा धनी (तथा इनकी संख्या में कमी) और गरीब को और ज़्यादा ग़रीब बनाती है। राज्य के कमजोर होने से गरीबों के हित की रक्षा करने की उसकी क्षमता में कमी आती है। वैश्वीकरण के दक्षिणपंथी आलोचक इसके राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभावों को लेकर चिंतित हैं। राजनीतिक अर्थों में उन्हें राज्य के कमजोर होने की चिंता है। वे चाहते हैं कि कम से कम कुछ क्षेत्रों में आर्थिक आत्मनिर्भरता और ‘संरक्षणवाद’ का दौर फिर कायम हो। सांस्कृतिक संदर्भ में इनकी चिंता है कि परंपरागत संस्कृति की हानि होगी और लोग अपने सदियों पुराने जीवन-मूल्य तथा तौर-तरीकों से हाथ धो देंगे।

यहाँ हम गौर करें कि वैश्वीकरण-विरोधी आंदोलन भी विश्वव्यापी नेटवर्क में भागीदारी करते हैं और अपने से मिलती-जुलती सोच रखने वाले दूसरे देशों के लोगों से गठजोड़ करते हैं। वैश्वीकरण-विरोधी बहुत से आंदोलन वैश्वीकरण को धारणा के विरोधी नहीं बल्कि वैश्वीकरण के किसी खास कार्यक्रम के विरोधी हैं जिसे वे साम्राज्यवाद का एक रूप मानते हैं।

1999 में, सिएट्ल में विश्व व्यापार संगठन की मंत्री-स्तरीय बैठक हुई। यहाँ बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हुए।

यह बात तो सही है कि कभी-कभी मुझे नए गीत अच्छे लगते हैं। क्या हम सबको थोड़ा नृत्य करना अच्छा नहीं लगता भले ही बजायी जा रही धुन पर पश्चिमी संगीत का असर हो?

चलो इसे एक साथ करते हैं

यह गतिविधि छात्रों को यह समझने में सक्षम बनाती है कि वैश्वीकरण ने हमारे जीवन में कैसे प्रवेश किया है और वैश्वीकरण की सर्व-समावेशी प्रकृति का एक व्यक्ति, एक समुदाय और पूरे राष्ट्र पर क्या प्रभाव पड़ता है।

चरण

  • ऐसी गतिविधियों से छात्रों को यह समझने में मदद मिलेगी कि वैश्वीकरण ने कैसे हमारे जीवन में प्रवेश किया है और वैश्वीकरण का सर्वव्यापी प्रभाव व्यक्ति, समुदाय तथा राष्ट्रों पर किस तरह पड़ा है।

प कुछ उत्पादों की सूची बनाएँ, मसलन - खाद्य-उत्पाद, बिजली से चलने वाले घरेलू इस्तेमाल के उपकरण और सुख-सुविधा के ऐसे सामान जिनसे आप परिचित हैं।

प अपने पसंदीदा टी.वी. कार्यक्रमों के नाम लिखें।

प अध्यापक इस सूची को एकत्र करें और एक साथ मिलायें।

प कक्षा को छोटे-छोटे समूह में बाँटें और प्रत्येक समूह को वस्तुओं तथा टी.वी. कार्यक्रमों की कुछ सूची दें। अगर सूची ज़्यादा लंबी हो तो समूह में छात्रों की संख्या ज़्यादा रखें।

प छात्रों से रोजमर्रा के उपयोग की इन वस्तुओं के निर्माताओं और अपने पसंदीदा टीवी कार्यक्रमों के प्रायोजकों के नाम बताने को कहें।

अध्यापकों के लिए

प अध्यापक विद्यार्थियों से चर्चा करें कि वैश्वीकरण कैसे हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस चर्चा में ज़्यादा जोर रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ों और टीवी के कार्यक्रमों पर दें।

छात्रों को किन्हीं चार भारतीय कंपनियों के बारे में बताएँ जो विभिन्न उद्योगों में विदेशी कंपनियों के साथ साझेदारी कर रही हैं और जिनके ठिकाने दूसरे देशों में भी हैं।

प छात्रों का ध्यान वैश्वीकरण के दूसरे पहलू पर भी खींचें। विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल जैसे-जैसे बढ़ा है वैसे-वैसे हमारे छोटे स्वदेशी उद्योगों के ग्राहक कम हुए हैं और ये उद्योग बंद हो रहे हैं।

आर्थिक रूप से ताकतवर देशों द्वारा व्यापार के अनुचित तौर-तरीकों के अपनाने के विरोध में ये प्रदर्शन हुए थे। विरोधि यों का तर्क था कि उदीयमान वैश्विक आर्थिक-व्यवस्था में विकासशील देशों के हितों को समुचित महत्त्व नहीं दिया गया है। नव-उदारवादी वैश्वीकरण के विरोध का एक विश्व-व्यापी मंच ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ (WSF) है।

इस मंच के तहत मानवाधिकार- कार्यकर्त्ता, पर्यावरणवादी, मजदूर, युवा और महिला कार्यकर्त्ता एकजुट होकर नव-उदारवादी वैश्वीकरण का विरोध करते हैं। ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ की पहली बैठक 2001 में ब्राजील के पोर्टो अलगेरे में हुई। 2004 में इसकी चौथी बैठक मुंबई में हुई थी। इसकी बैठक ब्राज़ील में मार्च, 2018 में हुई है।

भारत और वैश्वीकरण का प्रतिरोध

वैश्वीकरण के प्रतिरोध को लेकर भारत के अनुभव क्या हैं? सामाजिक आंदोलनों से लोगों को अपने पास-पड़ोस की दुनिया को समझने में मदद मिलती है। लोगों को अपनी समस्याओं के हल तलाशने में भी सामाजिक आंदोलनों से मदद मिलती है। भारत में वैश्वीकरण का विरोध कई हलकों से हो रहा है। आर्थिक वैश्वीकरण के ख़लाफ वामपंथी तेवर की आवाजें राजनीतिक दलों की तरफ से उठी हैं तो इंडियन सोशल फोरम जैसे मंचों से भी। औद्योगिक श्रमिक और किसानों के संगठनों ने बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रवेश का विरोध किया है। कुछ वनस्पतियों मसलन ‘नीम’ को अमरीकी और यूरोपीय फर्मों ने पेटेन्ट कराने के प्रयास किए। इसका भी कड़ा विरोध हुआ।

वैश्वीकरण का विरोध राजनीति के दक्षिणपंथी खेमों से भी हुआ है। यह खेमा विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों का विरोध कर रहा है जिसमें केबल नेटवर्क के जरिए उपलब्ध कराए जा रहे विदेशी टी.वी. चैनलों से लेकर वैलेन्टाईन-डे मनाने तथा स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं की पश्चिमी पोशाकों के लिए बढ़ती अभिरुचि तक का विरोध शामिल है।

प्रश्नावली

1. वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन सही है?

(क) वैश्वीकरण सिर्फ आर्थिक परिघटना है।

(ख) वैश्वीकरण की शुरुआत 1991 में हुई।

(ग) वैश्वीकरण और पश्चिमीकरण समान हैं।

(घ) वैश्वीकरण एक बहुआयामी परिघटना है।

2. वैश्वीकरण के प्रभाव के बारे में कौन-सा कथन सही है?

(क) विभिन्न देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव विषम रहा है।

(ख) सभी देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव समान रहा है।

(ग) वैश्वीकरण का असर सिर्फ राजनीतिक दायरे तक सीमित है।

(घ) वैश्वीकरण से अनिवार्यतया सांस्कृतिक समरूपता आती है।

3. वैश्वीकरण के कारणों के बारे में कौन-सा कथन सही है?

(क) वैश्वीकरण का एक महत्त्वपूर्ण कारण प्रौद्योगिकी है।

(ख) जनता का एक खास समुदाय वैश्वीकरण का कारण है।

(ग) वैश्वीकरण का जन्म संयुक्त राज्य अमरीका में हुआ।

(घ) वैश्वीकरण का एकमात्र कारण आर्थिक धरातल पर पारस्परिक निर्भरता है।

4. वैश्वीकरण के बारे कौन-सा कथन सही है?

(क) वैश्वीकरण का संबंध सिर्फ वस्तुओं की आवाजाही से है।

(ख) वैश्वीकरण में मूल्यों का संघर्ष नहीं होता।

(ग) वैश्वीकरण के अंग के रूप में सेवाओं का महत्त्व गौण है।

(घ) वैश्वीकरण का संबंध विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव से है।

5. वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन ग़ालत है?

(क) वैश्वीकरण के समर्थकों का तर्क है कि इससे आर्थिक समृद्धि बढ़ेगी।

(ख) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे आर्थिक असमानता और ज़्यादा बढ़ेगी।

(ग) वैश्वीकरण के पैरोकारों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।

(घ) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।

6. विश्वव्यापी ‘पारस्परिक जुड़ाव’ क्या है? इसके कौन-कौन से घटक हैं?

7. वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी का क्या योगदान है?

8. वैश्वीकरण के संदर्भ में विकासशील देशों में राज्य की बदलती भूमिका का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें?

9. वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियाँ क्या हुई हैं? इस संदर्भ में वैश्वीकरण ने भारत पर कैसे प्रभाव डाला है।?

10. क्या आप इस तर्क से सहमत हैं कि वैश्वीकरण से सांस्कृतिक विभिन्नता बढ़ रही है?

11. वैश्वीकरण ने भारत को कैसे प्रभावित किया है और भारत कैसे वैश्वीकरण को प्रभावित कर रहा है?



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